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Politics - the means of controlling the Fate




Fate is something that happens to us when things are beyond our control.

But the smart human minds know it that there can be ways -maybe extremely cumbersome, maybe requiring extreme cooperation between the humans, — to bring those uncontrollable things within some reach of controllablility. It is possible, sometimes to achieve some degree of control over the Fate, but by employing those means which are themselves not easy to be met by ordinary human efforts.

It is here that the smart thinking humans begin to feel the necessity of organising their society in such a nanner that the human efforts are always kept gathered up, and ready to be deployed as and where required . 

This organisation of the society by which one can quickly harness men and material to work for a pre-intended action from where we can attain a certain degree of control over our common fate, is termed as Public Administration.

The Public Administration is in itself having its handles for control by another means , which is termed as Politics .

Thus politics becomes that ultimate means whose one of the core purpose may be understood as a handle for controling the common Fate.





ग्रीक और जापानी संस्कृति ,बनाम हिंदुओं की संस्कृति

 ग्रीक और जापानी संस्कृति ,बनाम हिंदुओं की संस्कृति

इंसान का जीवन भाग्य रूपी धागे के सहारे आधार में झूल रहा है। कब ये डोर टूट जाए और जीवन गिर पड़े, कोई कुछ नही बता सकता है । कुछ बताया नही जा सकता है पहले से। ये सब भविष्यवाणियां, कुंडलियां, ये सब बेकार की बातें होती है।

कबीर दास जी ने कहा हुआ है

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा  परभात।।


---
एक औसत बनारसी (और भारत वासी) का दिमाग केवल इस हद तक ही चलता है।

मगर भगवान ने धरती पर नानक प्रकार से देश, मनुष्य जातियां , सभ्यताएं बनाई है। सभी कोई सोच की इस वाली हद तक सीमित नहीं है। कुछ तो हमसे भी नीची हदों तक छूट गई हैं। मगर कुछ हमसे श्रेष्ठ भी हैं।

जापानी और ग्रीक(यूनानी ) हमसे श्रेष्ठ सभ्यताओं के दो नाम हैं, जो की अपनी सोच जीवन की अनिश्चितताओं के आगे ले जाने की काबिलियत रखती हैं। वो केवल ये नही सोचती है कि कैसे इंसान का जीवन भाग्य की डोर पर लटकता रहता है, कुछ भी तय शुदा नही है। अपितु वो ये भी सोचती है कि कही, कुछ तो फिर भी, निश्चित होता है,पूर्व तयशुदा होता है, जिसके बारे में पूर्व घोषणा,भविष्यवाणी सटीकता से करी जा सकती है।  वो क्या क्या है, और कैसे उसके दम पर हम इंसान के जीवन को सुरक्षित बना सकते है, भाग्य की लटकाने वाली डोर से छुड़ा सकते है। 

राजनीती में क्यों दिलचस्पी लेनी चाहिए? अमीर लोग क्यों राजनीती में दिलचस्पी रखते हैं?

 राजनीती में क्यों दिलचस्पी  लेनी चाहिए?

अमीर लोग क्यों राजनीती में दिलचस्पी रखते हैं? 

क्यों कोई भी समाज Plebeian और Patrician में विभाजित हो ही जाता है , चाहे कितना भी समानता की बातें कर ले नियम बना ले।?


क्या अंतर होता है राजनीती में दिलचप्सी दिखने में -- एक Plebs वर्ग और एक Patrician वर्ग के सदस्य में ?


Quote,

ये विंध्याचल का programme ग़लत बना लिया है।

आइंदा से अगर अकेले जाओ, तब सिर्फ उतना ही कार्य करो, जितने के लिए यहाँ से बात करके निकली थी


@@र्य नया लड़का है, अभी vetting नही समझता है ,हालांकि ship पर पहुंच गया है

कहीं भी आने जाने से पहले ।मैं यहां पच्चीसों बातें सोचता हूँ,  रिसर्च करता रहता हूँ, वो कहां यूँ ही मस्ती में गाड़ी बुक करके निकल ले रहा है तुन्हें और सब को ले कर 😡😡


गाड़ी , driving सड़क, driver कुछ भी नही समझता है

उसको ऐसा नही करना चाहिए


तुमहे माना करना चाहिए कि तुम्हे मेरी permission के बिना नही ले जा सकता है अब वो


😡😡😡

हो सके तो टालो 

मना करो 😡😡😡


@@र्य दिमाग से अभी छोकरा किस्म का है

अंजान, अनदेखा, अज्ञात के प्रति दिमाग से खुद को तैयार नही किया है

Expect the unexpected में बिल्कुल ध्यान नही रखता है

मेने notice किया है,


गाड़ी में driver के संग आगे बगल में बैठा है, और सो गया है

तीतर ने रास्ता काटा और टकरा गया, उसने देखा तक नहीं

Level of alertness l--ow है

Low*


Driver कैसा चला रहा है, उसका judgment नही लेता रहता है

सड़क कैसी है, --- कोई judgment नहीं,

Traffic कैसा है,  कोई judgment नही 

गाड़ी कैसी है, कोई judgement नही


कान में plug लगा कर आराम से गाना सुनता हुआ आंख बंद करके सो जाता है, ख़यालों में खो जाता है


अगल बगल में कौन है, क्या कर रहे हैं, क्या इरादा हो सकता है उनका,

ऊपर नीचे क्या काम चल रहा है, judgment नही लेता रहता है, 

Intuition कमज़ोर है, डब्बा छोड़ कर बदल लेता है, केवल शक्ल देख कर, आंखें देख कर 

Full study नही मारता है व्यक्ति की, उसका डट कर सामना करने का secret plan नही रचता है दिमाग में


आकार करके बड़े आराम से उसके मुंह से निकलता रहता है, "उसमें हम क्या कर सकते है"

उसे नियंत्रण लेने की चेष्टा नही बनी रहती है

*अक्सर


उसमें क्रोध है, thinking नही है, intuition नही आया है gut feeling अशुभ को पहले से टोह लेने का


यही हाल @@रभ का है,

News paper और दुनिया की खबरों का विश्लेषण करके अपने ऊपर गिरने वाले संभावित प्रभावों पर पूरा शून्य चित्त है 

Sirf शरीर की आँखों से दुनिया को देखते हैं, दिमाग की आँखों से नही, भविष्य में झांखने की कोई कोशिश नही करते हैं

राजनीति में दिलचस्पी भविष्य की टोह लेने का रास्ता होती है,ये बात नही समझते है, 

दुनिया में घट रही नकारात्मक खबरों को नही पढ़ते है , अनुमान नही निर्माण करते हैं अपने दिमाग में


Corruption पर कोई टिप्पणी, कोई अंदाज़ा नही लगाते है कि कैसे, क्या हो जाता है

ISO, quality control, quality check पर कुछ हिसाब नही है


कच्ची पक्की सड़के, bridge, trains, hospitals, doctors ... सब ठन ठन हो कर केवल आँखों से देखते हैं, दिमाग से सोचते नही हैं


Police की कार्यवाही, court के तौर तरीके, .. सब दिमाग की सोच के परे बातें है


अपनी डोर आसानी से दूसरे के हाथ में थमा देते हैं

दोनों लोग


मुझ से पूछने की सोची तक नही, तुन्हें ले जाने से पहले😡😡😡

तुमने भी नही ख़याल किया 😡😡

फिलॉसोफी की पढाई करने का क्या लाभ होता है

 फिलॉसोफी की पढाई करने का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि इंसान Root Cause Analysis(RCA ) करने में श्रेष्ठ बनता है।  

प्रत्येक इंसान इस संसार को अपने अनुसार बूझ रहा होता है ।  ऐसा करने उसके जीवन संघर्ष के लिए आवश्यक होता है।  संसार को चलाने के लिए कई  सारी शक्तियां बसी हुई है।  सफल जीवन के लिए इंसान को इन शक्तियों के अनुकूल या प्रतिकूल होकर जीना होता है।  इसलिए उसको दो बातों का बौद्ध प्रतिपल लेना पड़ता है:-

1) किस विषय में कौन सी वाली शक्तियां प्रभावकारी है ? 

2)और इस पल, उस विषय में उसे अपने जीवन निर्णयों को उन शक्तियों के अनुकूल लेना या प्रतिकूल लेना हितकारी होगा ? 

प्रत्येक इंसान अपने अपने अनुसार विषयों के पीछे गहरे गर्त में छिपे "क्यों?" के सवाल को बूझता है।  ये "क्यों?" से भरा हमारा जीवन -इसके पीछे में ये ऊपर वाली सच्चाई छिपी बैठी है।  

क्या आपने कभी सोची थी ये बात ?

हम इंसान लोग हर पल गुत्थियां क्यों सुलझाते रहते हैं? क्यों हमें सच या सत्य की तलाश बनी रहती है ? क्यों हम सच को ढूंढ रहे होते है ? और क्यों हमें अक्सर सच का सामना करने में डर लगने लगता है ?

ये ऊपर लिखी बातें शायद आपको बोध करवा सकें। 

बरहाल, हर एक इंसान अपने अपने अनुसार "क्यों " को कुछ भी , अपनी सुविधानुसार बूझ कर आगे बढ़ता रहता है।  वो RCA करता है , हल पल।  वो politics को बूझता है --अपनी सुविधा अनुसार।  वो दूसरे लोगों के निर्णयों के पीछे के अनकहे कारणों को बूझता है -- अपनी सुविधा अनुसार।  वो डॉक्टरों की रिपोर्ट को समझता है --अपनी सुविधा अनुसार।  वो अख़बार पढता और घटनाओं के कारणों का संज्ञान लेता है --अपनी सुविधा अनुसार। 

 और फिर इन सभी "--अपनी सुविधा अनुसार" के चक्कर में आपस में, एक दूसरे से-  सहमत और असहमत होता रहता है --अपनी सुविधा अनुसार। 

ये ही इंसान के अस्तित्व में उसकी सोच के अंश का योगदान और सारांश है। 

फिलॉसोफी का अध्ययन लाभ ये देता है कि वो बेहतर तरीके से RCA करने में योगदान दे सकता है।  बिखरी हुई पढाई -- जो कि स्कूलों से हमें मिलती है - history civics , science maths laws arts करके , वे तब तक व्यवहारिक तौर पर लाभकारी नहीं हो सकती है जब तक उन्हें वापस सयोंजन नहीं किया जाये।  फिलॉसोफी का अध्ययन यही संयोजन करने का कार्य करता है।  

इसके अध्ययन के उपरांत हम जो RCA करते हैं, वो थोड़ा बेहतर होने की उम्मीद करि जा सकती है।  वो प्रकृति से बेहतर तालमेल में हो सकते है , और हमें अनैच्छित तरीके से शक्तियों के विपरीत की स्थिति में ले जाने में बचा सकते है।  हमें सच का सामना करने के लिए तैयार कर सकते है ऐसे कि सच हमें कडुवा न लगने पाए क्योंकि हमारा मन और भावनाएं पहले से ही सही अपेक्षा बनायीं हुई है।  

फिलॉसोफी हमें आपसी सहमति और असहमति के अनंत चक्र से मुक्ति दिलवा सकती है। हमारे तर्क को प्रवीण और तीव्र करती है।  हमारी भावनाओं को बहने के मार्गे में आने वाले भाषा और ज्ञान की कमी वाले रोहड़ों को सफा करती है।  भावनाओं को बेहतर से बहने का मार्ग प्रशस्त करती है , और इस प्रकार से हमें अपने जीवन के श्रेष्ठ शिखर तक पहुँचवाने का अवसर दिलवाती है।  

फिलॉसफी सिर्फ विषय का नाम नहीं है।  ये एक चिन्तन करने की शैली है।  तर्क करने की बौद्धिक क्रिया।  एक प्रकार का योग है।  जो इंसना तर्क ही नहीं करता है , वो बेहतर जीवन निर्णय लेने में कमज़ोर हो जाता है।  तर्क करने का साधन होता है आपसी विमर्श।  मगर आपसी विमर्श में ही तर्कों की भुलभुलैया भी बन जाती है।  लोग आपसी विमर्श करते करते पथ भ्रमित हो सकते है और किसी गहरे गर्त में गिर कर खत्म हो सकते है।  यहाँ पर आपको किताबी ज्ञान काम आता है।  वही जो स्कूली शिक्षा से मिलता है।  हमें आपसी विमर्श के दौरान वो पथ भ्रमित होने से बचा सकता है।  

मगर एक हद के बाद इन स्कूली ज्ञान का आपस में विखंडन एक नया रोहड़ा बनने लगते है जो अपना उद्देशय पूरा कर सके हमें पथ भ्रमित होने से बचाने में।  अब यहाँ पर फिलॉसोफी  विषय का ज्ञान काम आ सकता है।  इसकी सहायता से हम स्कूली subjects के history civics , science maths laws arts को वापस सयोजन कर सकते है , और एक बहु-उपयोगी नवज्ञान विक्सित कर सकते है। 

क्या आपने कभी बूझा है कि स्कूली अध्ययन में subjects को क्यों विखंडित किया गया है ? किसने ऐसे किया होगा, और क्या सोच कर?

क्या आपको 17 वी शताब्दी के project encyclopedia के बारे में कुछ पता है? यदि नहीं , तो तलाश करिये। वो आपको सवालो के जवाब पर ले जायेगा।  छोटे बालको के अविकसित मन और बुद्धि में आसानी से नव अर्जित विज्ञान को बीज-रोपित करने के उद्देश्य से ये subjects विक्सित हुए थे।  project encylopedia का उद्देश्य था संसार में उपलब्ध समस्त ज्ञान को संग्रहित करने का।  और इसके दौरान जब ये महसूस किया गया कि कैसे इस विशाल ज्ञान संग्रह को लाभकारी बनाएंगे तब subjects की नीव डाली गई , आधुनिक school सिस्टम चालू किये गए और बच्चों को आयु के अनुसार वर्गीकृत करके streaming पद्धति के अनुसार classes में विभाजित करके ये ज्ञान प्रदान किया जाने लगा। 

इसमें दिक्कत यह थी कि वास्तविक जीवन और प्रकृति में तो कुछ भी घटना के पीछे के "क्यों " के तर्क विखंडित नहीं होते है, subjects के अनुसार।  ये बात कुछ ऐसे हुई कि प्रकिति में तो सब कुछ raw यानि कच्चे रूप में बस्ता है , मूल तत्व रूप में शायद ही कुछ होता है।  प्रकृति सिर्फ मिटटी देती है , लोहा aluminium copper zinc gold diamond  नहीं।  तो फिर ऐसा न हो कि स्कूली शिक्षा से आया इंसान सिर्फ इन मूल तत्वों को किताबी ज्ञान से जानता हो, इन्हे प्रकृति की दी हुई मिटटी में से निकालने की कला भुला बैठे।  या कि, अगर उसे वापस मिटटी मिल जाये तो बालक रुपी इंसान मिट्टी को पहचान कर अपने खपत के लिए तब्दील करने की कला बुला दे। 

ये स्कूली शिक्षा की हद का सवाल है।  आपको इन हदों को पहचानने और खुद से बूझने का सवाल है।   

philosophy का ज्ञान यहाँ कार्य सिद्ध करता है।

राजनीति आदर्शों से करनी चाहिए, या पैंतरेबाजी से ?

आदर्श परिस्थितियों में सत्ता को प्राप्त करने का मार्ग उच्च मूल्यों की स्थापना के प्रस्ताव से होने चाहिए। जनता को केवल उस व्यक्ति को नेता मानना चाहिए, जो समाज को बेहतर मानवीय मूल्य (दया, क्षमा, दान, आपसी सौहार्द, विनम्रता, करुणा, इत्यादि) से शासन करे।

 मगर वास्तविक धरातल पर जनता तो खुद ही मैले और कपट मन की होती है। वो ऐसे व्यक्तियों को चुनती है जो ऐसे मार्ग , पैतरेबाजी करते दिखाई पड़ते हैं, जैसा कि आम व्यक्ति के मन में कोई निकृष्ट अभिलाषा होती है।

जनता खुद ही अपनी बर्बादी का गड्डा खोदती है, और बाद में अपने नेताओं को दोष देती फिरती है।

जब जनता के मन में कपट करना एक उच्च , बौद्धिक गुण smart व्यवहार समझा जाने लगता है, तब सत्ता प्राप्ति के लिए नेतागण mind game (बुद्धि द्वंद) से छल करने लगते हैं। वो ढोंग, कपट, छल, कूट का प्रयोग करके जनता को लुभाते हैं, और सत्ता में पहुंच कर निजी स्वार्थ को पूर्ण करने लगते हैं।

समाज के सामने बहोत कम ऐसे उदाहरण हैं जब किसी नेता ने वाकई में ,यानी बहुत उच्च मानक से उच्च मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्ष किया हो। विश्व पटल पर भारत से ऐसा एक नाम गांधी जी का है। ये आप google और wikipedia से तफ्तीश कर सकते हैं। जब संसार में किसी व्यक्ति ने सच्चे दिल से खुद भी उन शब्दों का पालन किया हो, जो उसने दूसरों से मांग करी हो। Pure acts of Conscience.

जब कपटकारी राजनीति, जिसे आम भाषा में कूटनीति करके पुकारा जाता है, एक गुणवान व्यवहार माना जाता है, तो नेता भी यही प्रतिबिंबित करते हैं। 

ऐसे में आज के तथाकथित राजनीतिज्ञों के भीतर भी एक राजनैतिक द्वंद चल रहा होता है। कि, क्या उन्हे आदर्शो के मार्ग पर चल कर राजनीति करनी चाहिए, या फिर पैंतरा बाजी करके राजनीति करनी चाहिए।

उदाहरण के लिए,

राहुल गांधी जब भारत में प्रजातंत्र के विस्थापन का आरोप लगा चुके हैं, तब फिर इसके आगे उन्हे शरद पवार की बातों में आ कर अडानी को हिन्डेनबर्ग मामले में निकल देना चाहिए, या फिर अडानी को दोषी ठहराते रहना चाहिए। 

यानी, राहुल को शरद पवार के वोटों की खातिर (निजी स्वार्थ के खातिर) अडानी को बच निकल जाने का पैंतरा खेलना चाहिए,
 या फिर 
प्रजातंत्र के आदर्शों और मूल्यों के अनुसार अडानी को मोदी के संग मिलीभगती करके प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ, मीडिया को डहाने का दोषी बताते रहना चाहिए?

राजनीति आदर्शों से करनी चाहिए, या पैंतराबाजी से ?

क्यों हो रहा है विश्व व्यापक प्रजातंत्र का पतन?

 क्यों हो रहा है विश्व व्यापक प्रजातंत्र का पतन?

क्योंकि शायद प्रजातंत्र अव्यवहारिक, निरर्थक हो गए हैं समाज को स्थिर और उन्नत बनाए रखने में? क्या ऐसा कहना सही है?

यदि समाज में विज्ञान औ प्रोद्योगिकी नही बढ़ रही हो, तब शायद प्रजातंत्र निर्थक हो जाते हैं। अलग अलग गुटों को बारी बारी से जनधन को लूट खसोट करने का मौका देते है बस, और कुछ नहीं। इस प्रकार से प्रजातंत्र मूर्खता और पागलपन का दूसरा पर्याय समझे जा सकते हैं। 

इसी लिए कुछ अंतर के साथ नए प्रकार के चरमवादी प्रजातंत्र निकल आए हैं। शुरुआत दक्षिणपंथियों ने करी है। समूचा तंत्र जीवन पर्यंत हड़प लेने की पद्धति लगा दी है, प्रत्येक संस्था पर अपने लोगो तैनात करके। 

इनमे स्थिरता है या नहीं, समाज और दुनिया को शांति देने का चरित्र है या नही , ये अभी देखना बाकी है। 

फिलहाल ये नए चरमवादी प्रजातंत्र परमाणु बमों की धमकी पर विश्वशांति कायम कर रहे हैं। जो कि अत्यंत असुरक्षित है,कभी भी खत्म हो सकती है, एक छोटी सी चूक से।

देश के भीतर ये तंत्र तीव्र असंतुष्टि को जन्म दे रहे हैं। ये अमीर गरीब के फासले बढ़ा रहे हैं। बेरोजगारी और शोषण ला रहे हैं, भ्रष्टाचार को एक पक्षिय कर के सारा धन केवल कुछ सत्ता पक्ष घराने की झोली में डाल रहे हैं। सरकारी संरक्षण वाला वर्ग खुल कर खा रहा है। झूठ, मक्कारी, अल्पसंख्यकों का दमन सरकारी संरक्षण में हो रहा है। नागरिक स्वतंत्रता की गुपचुप निगरानी हो रही है। सरकार ही शोषण भी कर रही है, और बचाव का ढोंग भी।

देखना होगा, कहां ले कर जायेंगे देश दुनिया को, नए चरमपंथी प्रजातंत्र।

सुंदरता क्या होती है — एक विचार- लेख

जाने–अनजाने में हम सभी व्यक्ति किसी भी चीज के प्रति आकर्षित होते हैं केवल कुछ भौतकी सौंदर्य की वजहों से। 

Philosophers में सौंदर्य को समझने का सवाल हमेशा से चलता आया है। वो क्या है जो कि किसी व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु की ओर आकर्षित करती है? इस गुत्थी को समझने और व्याख्यान देने के लिए दार्शनिक जन कई युगों से प्रयत्नशील रहें हैं। 

बाल्यावस्था में हमें कोई भी वस्तु आकर्षित करती है अपने शारीरिक रूप, रंग और स्वाद के माध्यम से। बच्चों में पसंद करी जाने वाली Gems नामक toffee सबसे आसान उदाहरण है। छोटी छोटी गोलियां केवल अपनी ऊपरी रंग में एक दूसरे से अलग होती हैं, जबकि इस ऊपरी रंग वाली त्वचा के भीतर सभी गोलियों में एक ही पदार्थ होता है, जो कि मात्र कुछ ही second कि चूसने के बाद बाहर निकल आता है। मगर फिर भी आप छोटे बच्चों को आपस में अलग अलग रंग की gems की गोली को पसंद करके उनको वितरित करते हुए आपसी संघर्ष करते देख सकते हैं। 

ये है aesthetic सौंदर्य का उदाहरण। और ज्यादातर अवसरों पर सौंदर्य की यही बाल्यकाल समझ हम में युवावस्था में भी ऐसी ही त्वरित हो जाती है। बाली अवस्था में जवां लड़के लड़कियां एक दूसरे की तरफ यौन आकर्षण भी अक्सर करके मात्र शारीरिक रूप या "हुस्न" देख कर हो जाते हैं। 

और फिर मध्यअवस्था के आते–आते हम सभी को अपने जीवन निर्णयों , जैसे कि– शारीरिक आकर्षण के आधार पर किए गए जीवनसाथी के चुनाव की वजह से हुए खट्टे अनुभव– से यह अहसास होने लगता है कि सौंदर्य केवल शारीरिक या aesthetic नही माना जाना चाहिए। हमें लगने लगता है कि सौंदर्य की विस्तृत समझ में चरित्र, व्यक्तित्व, वैभव, कीर्ति इत्यादि को भी शमाल्लित करना चाहिए। कई सारी स्त्रियां अक्सर अपने से कहीं बड़े व्यक्ति के प्रति आकर्षित हो जाने का, अकसर, यही वजह बताती हैं। पुरुष का वैभव और कीर्ति भी मध्यअवस्था वाली स्त्रीयों को उसकी और आकर्षित करने लगता है। 

बाल्यावस्था में स्वाद और शारीरिक कोमलता भी आकर्षण का एक भौतकी (यद्यपि छिछला) कारण होता है। Cake और buiscuits को पसंद किए जाने का बड़ा कारण यही होता है, जबकि प्रौढ़ अवस्था आते आते हमें यह अहसास आने लगता है कि ये सब स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ शरीर के लिए भीतर से कितना हानिकारक होता है। इडली कठोर न लगे दातों को, इसलिए उसमें eno या baking soda मिला कर कोमल बनाने की युक्ति करी जाती है। जबकि बाद की आयु में हमें पता चलता है कि कैसे baking soda शरीर को अंदर से क्षति कर जाता है। Coke और cigrettee के प्रति भी ऐसे अहसास आते हैं। 

आकर्षण का एक बड़ा कारण उपयोगिता या utility भी होता है। कपड़े खरीदते समय अकसर कम बजट वाले लोग utility और "देखने में सुंदर" को आधार मान कर चुनाव करते हैं। "देखने में सुंदर" से स्पष्ट अभिप्राय होता है fashionable (या समकालीन दिखने वाली वेशभूषा)। श्त्रीयों में fashionable दिखने कि आवृत्ति अधिक तीव्र होती है पुरुषों के मुकाबले। पुरुष अक्सर केवल utility के आधार पर चयन करते हैं।  Fashionable होना कोई खराब विचार नहीं है, बस अक्सर करके वो वस्त्र/या सामान हमारी बजट की सीमा को लंबे से लांघने लगता है। Furniture और car के मामले में बजट को लंबे से लांघा जाना आम बात होती है। मोबाइल फोन और computer इत्यादि की खरीदारी के समय लोग अक्सर बजट थोड़ा बड़ा ही बना लेते हैं ये सोच कर कि चलो ये समय उपयोग का भी तो है, और साथ में कई सालों में एक बार खरीदना होता है। भय केवल इस बात का होता है कि यदि खरीदने के बाद जल्द ही वो सामान खरीद निकल आया, तब खर्चा बढ़ जायेंगे, जो की पहले से ही बड़े बजट में खरीदा गया है। 

फिल्मों और अन्य कलाओं में किसी उत्पाद को पसंद करने का प्रायः कारण होता है मन में खुशी का एहसास दिलवाना। हास्य रस सबसे अधिक पसंद किए जाने वाला रस होता है। जनता प्रायः हसोड़ चरित्र या फिल्म को पसंद करती है। रामायण में हनुमान एक वानर हो कर भी स्त्रीयों और पुरुषों में सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले चरित्र हैं। फिल्मों में पहले नायक अलग होता था, और हास्य कलाकार अलग। मगर फिर बाद के समय ने हीरो बनने वाले व्यक्तियों को ये एहसास आने लगा कि जनता में तो हास्य कलाकार अधिक पसंद किया जाता है, तो गंभीर नायकों ने भी हसौड़ी अभिनय करने की ठान ली। इस प्रकार से नायक चरित्र भी हास्य कलाकारों में शामिल होने लग गए।




जब कैमरे में कैद तस्वीर हमें हमारा चित्र दिखाती है, तब हम में आत्म मुग्धता आती है

 

यादें वो नहीं होती है जो आप कैमरा में कैद करते हैं, chip के ऊपर। यादें वो होती हैं जो आपका दिमाग और दिल दर्ज करता है, आपकी भावनाओं के पटल पर। कैमरा सिर्फ दृश्य रखता है, यादें दिल में रखी जाती है। 

यादें हमारी भावनाओं को क्रियान्वित करती है। हमें संवेदनशील बनाती हैं। भावनाएं इंसानी बुद्धिमता का आधार होती है। यादें भावनाओं का बटन होती हैं। 

कैमरा में सिमटी हुई यादें हमे संवेदनहीन बना सकती हैं। क्योंकि वो दिल को रिक्त कर देती हैं। 

जब हमारा मन हमें दर्पण दिखाता है, तब हमें हमारे चरित्र की कमियां दिखाई पड़ने लगती है। उन्हें सुधार करने से हम में भीतर से निखार आता है, शुद्धता आती है, व्यक्तित्व की खूबसूरती बड़ती है। 

मगर जब कैमरे में कैद तस्वीर हमें हमारा चित्र दिखाती है, तब हम में आत्म मुग्धता आती है

कूटनीति के अन्त महायुद्धों से होता है

राजनीति अक्सर करके मानसिक लुकाछिपी, ताश का खेल, या चोर पुलिस की शक्ल ले लेती है। और तब इसे कूटनीति बुलाया जाता है। 

 कूटनीति में व्यक्ति या समूह, एक-दूसरे के दिमाग़ को पूर्व से ही पढ़ कर उसे मात देने की कोशिश में लग जाते हैं। बिना कुछ किये और करे ही दूसरा व्यक्ति पूर्वानुमान लगा लेता है कि सामने वाले का क्या अगला move होगा, और उसका कटाक्ष करने लगता है। 
 और दूसरा वाला भी ये सोचने लगता है कि सामने वाला उसके बारे में क्या पूर्वानुमान कर रहा होगा, और ऐसे में कैसे, क्या करके उसे अचंभित करा जा सकता है। 

 ये mind games ही कूटनीति कहलाता है। 

 Mind games वाली कूटनीति राज्य को चलाने की न्याय नीति से बहोत दूर भटकी हुई होती है। इसका मकसद केवल सत्ता शक्ति प्राप्त करना होता है, ताकि उसका स्वार्थी उपभोग किया जा सके। इसमें विजयी निकृष्ट मानसिकता ही होती है, चाहे जो भी पक्ष जीते। क्योंकि दोनों ही पक्ष एक से बढ़ कर एक निकृष्टता करते हैं mind games के दौरान ।

आम आदमी,जो तटस्थ रहना चाहता है, राजनीति और कूटनीति से विमुख बना रहता है, उसका तो बेमतलब शिकार हो जाना तय शुदा हो जाता है। 

कूटनीति के अन्त महायुद्धों से होता है, महाविनाश से। दर्दनाक प्रलय से।

संकुचित (संकीर्ण) मानसिकता और बद व्यवहार से इंसान अपने शत्रु बढ़ाता है

ये जरूरी नहीं की किसी व्यक्ति के शत्रु केवल तब ही बढ़ते हैं जब वो तरक्की करने लगता है। 

शत्रु तब भी बढ़ते हैं जब व्यक्ति संकुचित मानसिकता का हो जाता है। 

 संकुचित मानसिकता ?
– दूसरों को खराब, बदनीयत, द्रोही, अवगुण और निम्न बताने वाली बोली

प्रभुत्ववादी सरकारें क्यों अपेक्षा के विपरीत, और अप्रत्याशित व्यवहार रखने को बाध्य बनी रहती हैं?

प्रभुत्ववादी सरकारें क्यों अपेक्षा के विपरीत, और अप्रत्याशित व्यवहार रखने को बाध्य बनी रहती हैं? 

Why the authoritarian regimes are pressed to adopt a behaviour filled with expectation-defiance, and making rougue decisions, having in replete the elements of surprise? 

बात को समझने के लिए पहले ये समझिए कि – तब क्या होता जब दो व्यक्तियों के बीच वैचारिक मतभेद के दौरान सुलह करने के कोई भी common grounds नही मिल पाते हैं? 

आज के युग में truth और alternative truth , reality और alternative reality में बंटी आबादी में ऐसा हो जाना सहज बात होगी। कि, लोगो में समझौता कर सकने की गुंजाइश ही न मिले। 

लोग अपनी अपनी बाते पर अडिग, अड़ियल होते दिखाई पड़ेंगे। ऐसे में वे अपने अपने पक्ष की सत्यता को दूसरे के विरुद्ध सही सिद्ध करने लिए केवल अपेक्षाओं की विधि पर निर्भर करने लगते हैं। वे एक दूसरे की सोच से निकलते गलत परिणामों की भविष्यवाणी करके आम जन को सचेत करते हैं, ताकि आम जन का विश्वास जीत कर उनके मत को अपने पक्ष में कर सकें। 

Proof by forecasting 

और ऐसे हालात में, दूसरा पक्ष अपने बचाव के लिए दूसरे पक्ष की तम्मान भविष्यवाणियों, अपेक्षाओं को ध्वस्त करने की चेष्टा करने लगती है। तब वो अटपटे से, अप्रत्याशित निर्णय लेने लगती है, ताकि जनता में वो भविष्यवाणियां सत्य न साबित होने पाएं। और जनता का मत विपक्ष के साथ न चला जाए। 

उपरोक्त बात कि एक corollary ये भी निकलती है कि अगर आप किसी सरकार को बहुत ज्यादा rogue, suprising decision या expectation defying निर्णय लेते देखें, तब अनुमान लगा लें कि शायद ये लोग किसी mind game के तहत truth बनाम alternate truth की जंग लड़ रहे हैं।

कूटनीति और 'कारण' बनाम 'भावना'

 (borrowed from the Internet)

कूटनीति यानी जनता से वोट बटोर कर शासन शक्ति को अपने स्वार्थ के लिए हड़पने वाली राजनीति 

इसमें अक्सर करके निर्णय के पीछे कारण नहीं होते हैं, बल्कि भावनाएं होती हैं। 

समझें तो, कूटनीतिज्ञ अपने निर्णय कभी तो किसी कारण पर आधारित करते हैं, और कभी भावनाओं पर। 

 और इन दोनो में से किसी एक आधार को चुन लेने की प्रेरणा केवल जनता के बड़े अंश को प्रभावित करके उनके वोट बटोर लेना होता है। कारण (यानी तर्क आधारित बात) हमेशा कूटनीतिज्ञों के निर्णय का आधार नही होती है क्योंकि वे जानते हैं कि वे लोग इतने बुद्धिवान नही होते है कि हमेशा कारणों से जनता के बड़े अंश पर प्रभाव जमा सकें।

 भावनाएं ज्यादा efficient होती हैं बड़ी आबादी पर प्रभाव जमाने के लिए। बढ़ी आबादी की जनता कारण पर सहमत नही करी जा सकती है। मगर भावना पर आसानी से बड़ी आबादी को किसी दिशा में मोड़ा(=बहकाया) जा सकता है।  

 तो राजनीति को समझने के लिए किसी भी कालखंड में संबद्ध समाज में बहती हुई भावना की टोह लीजिए। कूटनीति की परतें अपने आप खुलती चली जायेंगी और आपको समझ आने लग जायेगी। 

 यदि भावनाओं में कोई दुर्भावन आ जाए जिसके प्रयोग से कोई कूटनीतिज्ञ आबादी पर प्रभाव जमा रहा हो, तब अक्सर वो दुर्भावना को छिपाने के लिए इस पर कोई 'कारण' की चादर डाल कर उसे तापने की कोशिश करता है। और फिर आम व्यक्ति चकमा खा जाते हैं नकली 'कारणों' की भुलभुलैया में। 'कारण' जब नकली आधार होते है निर्णयों के, तब कूटनीतिज्ञ blackwhite thinking का मुजाहिरा करने लगते हैं, u turn मारते दिखाई पड़ते हैं, थूक-कर–चाट करने लगते है, निर्लज्जता से। पाखंड ऐसी कूटनीति का चरित्र बन जाता है। 

 तो भावनाओं के आधार से निर्णय लेने से वोट आसानी से मिलते हैं। मगर एक व्यापक देशहित की दृष्टि से  इसकी कुछ कमी भी होती है। ये कि भावनाओं पर तैरता जनादेश देश की व्यवस्था , न्याय को बर्बाद करने लगता है। समाज ऊंच–नीच, अपना–पराया करने पर उतर आता है। अनिश्चितता बढ़ जाती है। लोगों का भविष्य भाग्य की सूली पर झूलने लगते हैं , उसके हाथो में नहीं रह जाता है

How to work with the self-congratulatory, megalomaniac governments?

 (borrowed from the Internet)

This is a megalomanic's Govt . It is more narcissistic in its approach, It doesn't think that our country needs to do anything TO ACHIEVE the greatness. It wants to do things TO PROVE that the greatness is already here


 That's the way one can work with these people. Don't tell them targets which may look as if they are striving for improvement . Tell them targets which may help them prove to the rest of the Indians, their rivals and the whole world that the greatness is already with them .

राजा का असल धर्म दान दक्षिणा करना, या देशद्रोहियों को पहचान कर दंड देना नही होता है

ये सरकार व्यापारियों को सरकार है। व्यापारी लोग स्वभाव से ही न्याय के विचार से रिक्त होते हैं। वे अपने माल का दाम बढ़ाने के लिए सामाजिक औहदो की ऊंच नीचे का उपभोग करते हैं, उसका विरोध नही करते है। एक पर्स जो आम आदमी को सस्ते दामों में मिल सकता है, उसका दाम हजारों गुना महंगा हो जाता है मात्र ब्रांड बदल देने है। और ब्रांड का मकसद क्या होता है– खरीदार को अपनी सामाजिक हैसियत साबित करनी होती है समाज में। सोंचे तो ये विचार समानता के न्याय सूत्र के ठीक विपरीत है। 

तो फिर ऐसे ही व्यापारी राजा भी देश निर्माण को न्याय के सूत्र से बांधना नहीं जानता है। न्याय के अभाव के बदले में वो दान-दक्षिणा, परोपकार कर्म करके जनता को लुभा कर शासन करता है। 

सो, व्यापारी कभी भी देश को दीर्घायु शासन नही दे सकता, क्योंकि वो राष्ट्रीय एकता को प्राप्त नहीं कर सकता है। व्यापारी राजा के शासन के दौरान न्याय की कमी से उत्पन्न असंतुष्टों की कतार खड़ी होती रहती है, जो कि एक हद के बाद विस्फोट करके देश को भंग कर देती है, राष्ट्र को तोड़ देती है, जनता को आपस में लड़ाई करने पर आमादा कर देती है। 

व्यापारी और उसके समाज को राष्ट्रीय एकता के निर्माण में न्याय के सूत्र का महत्व नहीं पता होता है। वो समझता है कि प्रजा को जो कुछ चाहिए अपने राजा से, जो सेवाएं चाहिए होती है राज्य से, वो सब एक अच्छे राजा को दान-दक्षिणा के माध्यम से उपलब्ध करवानी चाहिए। व्यापारी के अनुसार यही राजधर्म होता है। ऐसी ही ऐसी तर्ज पर कि ब्राह्मण के अनुसार राजधर्म होता है मंदिर में नितदिन पूजा पाठ करना, आरती करना, रखरखाव और साफसफाई करना। क्योंकी ब्राह्मण के अनुसार ब्राह्मण धर्म भी तो यही कुछ होता है। 

जबकि, एक राजा का असली धर्म होता है न्याय करना।क्यों? राज्य की स्थिरता और दीर्घायु तंत्र की स्थापना के लिए  ताकि जनता में असंतुष्टि न व्याप्त हो। जनता में यह विश्वास कायम रहे विधि विधान सर्वोपरि होता है, स्वयं राजा से भी। तभी जनता अपनी एकता बनाए रखने के लिए प्रेरित होती है। विधि विधान और न्याय की सर्वोपरिता को प्रमाणित करने के लिए राजा को अपने सगे संबंधियों, संतान और बंधुओं पर भी न्याय का वही दंड चलाना पड़ जाता है, जो वो दूसरों पर चलाता है। ये होता है असली राजधर्म। राजा की गद्दी पर असली कठिन कार्य यह होता है। ऐसे ही कठिन विधान को स्थापित करने के लिए राजा रामचंद्र ने वो न्याय किया था जब उनको माता सीता का त्याग करना पड़ा था। त्याग करने का उद्देश्य मात्र ये विधान स्थापित करना था कि उनके राज्य में प्रजा में अनैतिक, कामग्रस्त निर्लज्ज अशिष्ट आचरण को स्वीकार नहीं किया जाएगा। 

अन्याय होते रहने देने वाला राजा दान–दक्षिणा करके प्रजा की हमदर्दी तो खरीद लेगा मगर केवल वो सब खुद की सुरक्षा के लिए होगी। जबकि ऐसा राजा लोगो को आपस में एक दूसरे पर आपसी विश्वास बनाने को प्रेरित नही कर सकेगा। उसके चले जाने के बाद, तुरंत, लोग एक दूसरे से शंका से ग्रस्त हो चुके, आपस में लड़ पड़ेंगे, देश के प्रति अपनी निष्ठा को भुला कर। जो कुछ भी वे अन्याय झेले होंगे न्याय से सुन्न राजा के शासन में, उनकी जो भी असंतुष्टि रही होगी, वे एक दूसरे से हिसाब चुकता करने को आमादा रहेंगे।


तो फिर सोचिए, एक राजा का असल धर्म क्या होता है? दान दक्षिणा करना? देशभक्त और देशद्रोहियों की पहचान करना? देशद्रोहियों को दंड देना? 

या फिर, न्याय करना? न्याय की सर्वोपरिता स्थापित करना?

प्रजातंत्र हड़प लिए जाने से क्या फर्क पड़ा है देशों पर

पश्चिमी देशों के अखबारों को पढ़ कर मालूम पड़ता है कि वे लोग राहुल गांधी के कैंब्रिज अभिभाषण से पहले से भी जागृत है कि दुनिया के कई सारे तथाकथित 'प्रजातांत्रिक' देश वास्तव में वहां के किसी न किसी कट्टरपंथी Right Wing नेता के हाथों तंत्र को हड़प लिए जा चुके हैं। 

मगर आजतक पश्चिमी देशों ने इन हड़पे गए  देशों में प्रजातंत्र बहाल करने के लिए कोई आक्रमण नहीं किया है। आर्थिक पाबंदियां तक नहीं लगाई है, अलबत्ता देशों के हालात ने खुद से ही उनकी आर्थिक प्रगति पर लगाम लगा दी है।  रूस में पुतिन के कर्मों को आज पूरी दुनिया देख रही है कि कैसे यूक्रेन पर हमला कर दिया है, और विश्व शांति व्यवस्था को खतरे में डाल रखा है। कितनी ज्यादा जानमाल की तबाही करी हुई है। और उल्टे चार कोतवाल डांटे की तर्ज पर , बयाना दे रहे हैं कि कैसे रूस ही यूक्रेन के हमले का पीड़ित देश हैं ! 

चीन में शी जिनपिंग ने कब्जा किया है। और ताइवान, भारत, वियतनाम, जापान से छूती हुई सीमाओं को युद्ध गर्जना कर करके त्रस्त कर रखा है। संग में, वैश्वीकरण (globalisation) के सिद्धांतों को हाशिए पर रख कर अमेरिका की IT कंपनियों के प्रजातंत्रीय नीति नियमों (जैसे कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति, मानवीय श्रमिक कानूनों) को अपने देश के गुप्तवादी, दमनकारी सरकारी नीतियों के आगे झुकाने की कोशिश में व्यापार बंद दिया है। 

सीरिया में बशीर अल असद ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए अपने ही देशवासियों पर अपनी ही फौजों से हमला करवा दिया था। बहुत ज्यादा जानमाल की तबाही झेली देशवासियों ने। रूस के पुतिन ने इन हमलों में बशीर का सहयोग किया था ! 

तुर्की में एरडोगन ने मुस्लिम·ईसाई दंगे करवाए। विपक्ष को तो देश के बाहर जान बचा कर भागने पर मजबूर कर दिया। आज तुर्की में विपक्ष है ही नही। उनके नेता अमेरिका में जीवन जी रहे हैं, जान बचा कर। बदले में तुर्की यूरोपीय देशों और अमेरिका से आर्थिक असहयोग झेल रहा है। तुर्की वासियों को अमेरिकी या यूरोपीय वीजा मिलना मुश्किल होता है। एरडोगन रूस के संग सैनिकियी सहयोग करके यूक्रेन रूस युद्ध में मानवरहित ड्रोन उपलब्ध करवा रहा है, और वैमनस्य मोल ले रहा है। खुद तुर्की पर व्यापार की आर्थिक असहयोग के चलते महंगाई ताबड़तोड़ बढ़े जा रही है। एरडोगन जिसकी चर्चा भी नही करते हैं। केवल अमेरिका में बढ़ रही महंगाई की बात करते हैं, और अपने देश की महंगाई का छींटा अमेरिका की महंगाई पर फोड़ देते हैं। 

हंगरी के हालात भी कुछ ऐसे ही हैं। महंगाई की समस्याएं बढ़ रही है, व्यापार में वैश्विक समुदाय के असहयोग के चलते। 

प्रजातंत्र अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देने में सहायक होता है। देशों को अपने अपने balance of trade को निगरानी में रखने में सहायता मिलती है। बिना निगरानी, और सत्यनिष्ठ economic data को सांझा किए, एक तानाशाह देश दूसरे प्रजातांत्रिक देश के धन और संपदा को हड़पने की अवैध, अनैतिक कोशिश कर सकता है। अडानी–हिंडेनबर्ग मामले में वही घटना घटने की गंध आने से विश्व समुदाय चौकन्ना हो गया है मोदी सरकार के प्रति। 

इजरियल में नेतेन्याहु के फिलिस्तीनियों पर बढ़ते जुल्मों सितम ने यूरोपीय देशों और पश्चिमी देशों को इजरायल के विरुद्ध स्थान लेने को मजबूर कर दिया है।आजतक ऐसा हुआ नही था की विश्व समुदाय इजरायल के साथ नहीं हो। मगर फिलिस्तीनियों के जानमाल की त्रासदी ने समूचे विश्व के मानववाद को झंकझोर दिया है। 

मोदी सरकार की भी मुस्लिमों और अलपसंखको पर हो रही घटनाओं ने पाकिस्तान के प्रति विश्व समुदाय को नरम रवैया लेने को बाध्य कर दिया है। पाकिस्तान से  प्रसारित होते आतंकवाद के खिलाफ भारत के दशकों की विश्व समुदाय से करवाई गई किलाबंदी की मेहनत पर पानी फेर दिया है मोदी सरकार के कारनामों ने।

मोदीजी रूस से तेल खरीद कर यूक्रेन रूस युद्ध में हो रही जानमाल की तबाही को बढ़ावा ही देते दिख रहे हैं।और तो और, अडानी बाबू जा कर military junta से शासित अप्रजातंत्रीय देश म्यांमार में बंदरगाह निर्माण के अपने धंधे को जमाते हुए पकड़े गए हैं अमेरिका के द्वारा। अडानी की कंपनी को अमेरिका के स्टॉक एक्सचेंज से निष्कासित किया गया है इसके लिए 

श्रीलंका में घटे जन विद्रोह को तो आपने नजदीक से देखा होगा। वहां पर भी राजपक्षे परिवार द्वारा प्रजातंत्र हड़प लिए जाने से बेहद आर्थिक तबाही आई, महंगाई बढ़ी, और अंत में जानमाल के नुकसान के बाद जनविद्रोह ही हो गया, जिसमे राजपक्षे को झोला उठा कर भागना पड़ गया था। 

कुल मिला कर, जहां जहां प्रजातंत्र ध्वस्त हुआ है, उन देशों में महंगाई और आर्थिक तबाही के मंजर निश्चित तौर पर दिखे हैं। बेरोजगारी बढ़ी है, गरीबी बढ़ी है, अमीर गरीब के मुद्रा संपदा के फासले बढ़े है, और कुछ एक व्यापारिक घराने रातोरत, दिन दूना रात चौगुना, बेहद अमीर हो गए हैं, जो कि तानाशाह डकैत सरकार को धन दे कर मीडिया को खरीद खरीद कर काबू करने में सहयोग देते रहे हैं। और फिर मीडिया वालों ने बदले में पैसा खा खा कर, जनता को गुमराह रखने का अभियान चलाया है, कि महंगाई "वैश्विक घटनाक्रमों के चलते आई है".। ये तानाशाह अमीर लोग अपने देश के प्रजातंत्र को ध्वस्त करके अमीर हुए, और खुद अपने देश छोड़ छोड़ कर दूसरे, प्रजातंत्रीय देशों में जा कर बस कर आज़ादी की सांस ले कर आराम से जी रहे हैं, प्रजातंत्र आज़ादी के मजे उड़ाते हुए ।

Why we are either Far-right wingers, or the Far -left wingers ? Why are most people so? Why are we bigoted?


Why we are either Far-right wingers, or the Far -left wingers ? 
Why are most people so? 
Why are we bigoted? 

We all are bigoted in one way or the other. In one subject matter or the other. Every human being ever born is a bigot, thus. The default birth status of a human child is to become a bigot when he grows up UNLESS some purity of Conscience happens in him, PLUS he acquires a repertoire of knowledge by which he may have a grand view, enough to provide him a bird-eyeview of as many subject matters as possible

WE are designed by mother nature herself to see onlyone one side of the coin. We can never see both the sides of the coin together. Hence we are bigots - far right, or the far left winger. 

Only a rare amongst us attain the Buddha, the seeker of the balanced, middle path, the one who starts seeing the circle of life as an unending wave of highs and lows, and then learns to keep himself free from both- the pleasure and the pain- by a method of self-control. He who practises self-penance to teach himself to tolerate the worst of the pains, the virtue of patience and the art of asceticism.

क्या राजनैतिक झगड़ा चल रहा है वर्तमान भारत में 'इतिहास' और 'हिन्दू राष्ट्र' के इर्दगिर्द

मेरा खयाल है कि हमें बारबार इतिहास कि ओर इसलिए भी देखना पड़ जाता है क्योंकि हमारी वर्तमान काल की कई सारी समस्याओं के मूल को समझने की दिक्कत हमें इतिहास में ले जा बैठती है। 

करीबन हमेशा ही, हमारी वर्तमानकालीन समस्याओं का मूल हमारी अपनी सोच, तर्क, दर्शन, नही है। बल्कि कहीं से आयात हो कर आई है। उस आयात क्रिया का एकशब्द, संक्षिप्त विवरण है 'इतिहास'। इसलिए भारत के विधान, सामाजिक,धार्मिक, राजनैतिक, प्रशासनिक समस्याओं को बूझने के लिए 'इतिहास' जानना परम आवश्यक है। 

और फ़िर जब भी हम अपनी तफ्तीश के दौरान 'इतिहास' और वर्तमान चाहतों के बेमेले को  देखते हैं, हमें अपने से एहसास आ जाता है कि हमारा तंत्र नकल करके प्राप्त किया हुआ है, यानी हमारे अपने दर्शन की उपज नहीं है। 
इसके आगे, जब हम दोनो तर्कों को- हमारी अपनी सोच और दर्शन के तर्क, तथा आयात किए गए ‘इतिहासिक’ तर्क को देखते हैं– तब हमें प्रत्येक विचार में ‘आज़ादी’ (ब्रिटिश के लौट जाने की बाद वाली) के बाद हुई छेड़छाड़, pseudo-करण (छद्म करण) दिखाई पड़ने लगता है।

फिर, यहां से हमारे देशवासियों में दो गुटों में मत-विभाजन शुरू हो जाता है। यही दोनो गुट मत विभाजन हमारे देश की दो विपरीत राजनैतिक विचारधाराएं बन कर उभरती है · कांग्रेस पार्टी और आरएसएस पोषित भाजपा। 

एक मत (गुट) का मानना है कि आयात करी गई सोच से देश को चलाना उचित होगा। ये सोच अपना प्रतिनिधित्व करती है 'इतिहास' के सशक्त ज्ञान से, अपनी ‘इतिहासिक पृष्टभूमि’ से, भारत के वर्तमान, अंबेडकर-रचित संविधान से।

और दूसरा मत (गुट) है जो मानता है कि आयात करे गए विचारधारा, दर्शन, तर्क को विस्थापित करना होगा, उखाड़ फेंकना होगा। क्योंकि ये बारबार छद्मकरण को जन्म दे रहा है, और ऐसा इसलिए क्योंकि ये भारत के समाज का अपना 'मूल' नहीं है, बल्कि आयात किया हुआ है। ये सोच अपने अस्तित्व को छलकाती है– कमजोर तथ्यिक इतिहास के ज्ञान से, काल्पनिक इतिहास की रचना (fake history, fake narratives) से, प्रबल और अंधविश्वास भरे धार्मिक ज्ञान से, भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की चाहत से, हिंदू धर्म और हिंदू राष्ट्र को विश्व के सर्वश्रेष्ठ धर्म और राष्ट्र साबित करने की चाहत से। 

दिक्कत यूं बढ़ जाती है कि आयात हो कर आई, यानी ‘सत्य इतिहास’(true, certified history) ज्ञान वाली सोच को समर्थन भारत के बहुजन करते हैं, जो स्वयं को ‘मूलनिवासी’ मानते हैं। और काल्पनिक इतिहास (fake history, narratives), हिंदू राष्ट्र वाले मतधारा को उच्च जाति ब्राह्मण जातियां वगैरह समर्थन करती हैं, जो सुदूर अतीत में किन्ही अन्य देशों से आ कर भारत में बस्ती चली गई है, और उसी अतीत काल के समय में कुछ हालातों के चलते अपनी सुविधानुसार 'हिंदू धर्म' को परिवर्तित कर चुकी थी। इस परिवर्तित धर्म, संस्कृति को वे "हिन्दू धर्म ' बुलाती हैं। मगर वर्तमान काल के अधिकांश भारत वासी इन अतीत वाले तथ्यीक ज्ञान से अनभिज्ञ है, और वे ‘हिंदू धर्म विचार’ धारा से प्रभावित हैं, क्योंकि वे स्वयं को हिंदू मानते हैं। ये लोग अधिक गहरा दर्शन नही रखते हैं कि ‘हिंदू’ होने का क्या मतलब होता है, क्या होना चाहिए, इत्यादि। वे बस इतना समझते हैं कि अतीत काल में हमारे ऊपर आक्रमण हुआ था, और हमारी कुछ मूल जीवन शैली को तबाह किया गया था। आगे, उनके अनुसार ‘हमें’ या तो बदला लेना होगा, या वो वाली जीवन शैली दुबारा प्राप्त करनी होगी, हिंदू राष्ट्र बना कर। 

फिलहाल भारत में ऐसी सोच वाले लोग अधिक संख्या में हैं, बहुमत में। 

दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी उन लोगो का प्रतिनिधित्व कर रही है जो स्वयं को मूलनिवासी तो मानते है, मगर अब वे खोई हुई, विलुप्त हो चुकी, अज्ञान,अनजान संस्कृति को वापस पाने को चाहत नहीं रखते हैं। वे लोग दर्ज़ किए गए तथ्यीक, और प्रमाणित इतिहास के ज्ञान में अव्वल लोग हैं, और इसके अनुसार देश को आगे ले जाना चाहते हैं - नए ,ताथ्यिक,प्रमाणित, सर्वसम्मत, इतिहास पर बसी नई संस्कृति के अनुसार। 

अब, इस लोगों के साथ ये दिक्कत है कि, क्योंकि नया इतिहास (उसका दर्शन, उसका तर्क) आयात हो कर आया है, इसलिए वे बारबार छद्म (pseudo, duplicate, fake) concepts में फंस जा रहे हैं। 

दूसरा वाली मतधारा इस fake ness, छद्मकरण से त्रस्त हो कर अपने वाले , पुराने concepts और ideas par लौटना चाहती है। मगर अपनी पुनर्वापसी यात्रा के पूर्ण सकने लिए वो fake history रचती है, और ऐसा करती हुई रंगे हाथों पकड़ी जा रही है।
  

सिग्मंड फ्रॉएड और शिक्षित तथा अशिक्षित व्यक्ति का अंतर

 मनोविज्ञान के जनक, ऑस्ट्रिया के सिग्मंड फ्रॉएड, का विचार था कि इंसान का व्यवहार उसकी मस्तिष्क की अवचेतन में बसी कुछ धुंधली यादें(subconscious memories), उसकी सोच(thoughts) और उसकी अस्पष्ट चाहतों(urges) से निर्धारित होता है। 
और इंसान को खुद से भी पता नही होता है उसकी ये सब अस्पष्ट, धुंधली बातें। 

  यानी इंसान खुद भी नही जानता है कि वो क्या, क्यों, किस वजह से व्यवहार कर रहा है। सिगमंड के अनुसार जो लोग अनुशासन, नियम, दबाव में जीवन जीते हैं, वे ऐसे इसलिए होते हैं क्योंकि उनके बचपन में उन्हें मल त्यागने पर घोर क्रोध से नियंत्रित किया जाता था।(Anal Retentive)

 –भाग २

इंसान संसार को जिस आधारों से देखता, समझता, उच्चारण करता है, वे cognitive schemas कहलाने वाले बिंदु इंसान को अपने पर्यावरण,निकट संबंधियों,मित्रो और शिक्षा से प्राप्त होते हैं। प्रत्येक इंसान अपने मतानुसार संसार को चलाने वाली शक्तियों को बूझता रहता है,ताकि वो इन शक्तियों को अपने हित में, सुख सुविधा के लिए नियंत्रित कर सके। इस शक्तियों का बोध प्रत्येक इंसान में भिन्न होता है–ये क्या है, कैसी हैं, इत्यादि। 

शिक्षित व्यक्ति और गंवार(अशिक्षित) का अंतर यही से आता है। 

इन शक्तियों को बेहतर समझते बूझते और फिर जीवन में अधिक सफल होते हैं, वे अक्सर ऐसे लोग होते हैं, जो किन्हीं अकादमी में जा कर पुराना, संजोया हुआ, संरक्षित ज्ञान किताबों से प्राप्त करते हैं। वे शिक्षित लोग समझे जाते हैं।

 और गंवार वे होते हैं, जो इन शक्तियों का बोध अपने जीवन अनुभव, मित्रो, पर्यावरण से निर्मित करते हैं। अक्सर ऐसे लोग कम सफल होते हैं।

छोटे बालको को कंप्यूटर का इतिहास पढ़ाया जाना क्यों जरूरी होता है ?

कंप्यूटर का इतिहास जानना क्यों आवश्यक होता है? 

कभी आप एक प्रयोग करके देखिए :–
छोटे बच्चों (करीब दस से बारह साल आयु वाले) से पूछिए कि,  'coding क्या होती है?'

और फिर इन बच्चों से बारी बारी से जो कुछ भी जवाब मिलता है, उसको इकात्रण करिए। उनको थोड़ी देर के लिए आपस में कुछ बहस करने के लिए छोड़ दीजिए कि वे एक दूसरे के विरुद्ध खुद के जवाब को सही साबित करने की कोशिश करें; एक दूसरे के जवाबों का माखौल उड़ाए; एक दूसरे से अधिक श्रेष्ठ, बुद्धिमान पुरुष होने की कोशिश करें। 

आप बस बैठ कर आनंद लीजिए, और उनके प्रयासों का खाका बनाते रहिए। 

अगर अग्नि शांत होती दिखाई पड़े, तो वापस कुछ नया घी डाल दीजिए, कोई नया सवाल पूछ कर, जैसे कि, ' कंप्यूटर क्या होता है?'
 उनके जवाबों में से ही कोई नया टांग खींचने वाला सवाल निकल लीजिए, जो उनको कुछ सोचने पर मजबूर करता रहे कि आखिर सही जवाब क्या हो सकता है। 

आप एक बात गौर कर पाएंगे, शायद – कि, कितना जटिल काम होता है बच्चों को ये समझा सकना कि computer क्या होता है, क्या नहीं ; कंप्यूटर के प्रयोग से क्या क्या काम हो सकता है, और क्या क्या नहीं।

 अधिकांश छोटे बच्चे लोग कंप्यूल्टर को किसी जादूगर की छड़ी की तरह समझते हैं, जिससे कि मानो कुछ भी किया जा सकता है। उनको लगता है कि कंप्यूटर से फ्रिज का काम भी किया जा सकता है, ac और पंखे का भी, और वाशिंग मशीन वाला भी। बस coding करनी होती है। Computer से street hawk वाले टीवी सीरियल की तरह bike भी चलाई जा सकेगी, एक दम तेज गति से। 

और शायद की अगर वो coding सीख गए तब वे भी अपने घर वाले computer से कुछ भी काम करवा सकेंगे। शायद किसी एलियन से संपर्क करके दोस्ती कर सकें, जो सुदूर ग्रह से आ कर बच्चों की उंगलियों पर लगाई चोट को पल भर में ही ठीक कर दे।  

छोटे बच्चों की computer के प्रति परोकल्पनाओं में शायद आपको ये सब दिखाई पड़े ।

और फिर जब आप उनको समझाने का प्रयास करें कि सही , संतुलित जवाब क्या होना चाहिए, तब आपको अपने मन में दुविधा महसूस होगी कि आरंभ कहां से ,कैसे किया जाए। क्या बताया जाए कि ये बच्चे लोग महज ज्ञान को नहीं, बल्कि concept को पकड़ ले कि कम्प्यूटर से क्या क्या काम किए जा सकते हैं, क्या क्या नहीं। 

इसी दुविधा का जवाब  , कि शुरू कहां से करें, आपको मिलता है computer का इतिहास पढ़ाने से।

मगर अकसर करके टीचर लोग computer (या किसी भी अन्य विषय में उसका इतिहास ) पढ़ाने में भूलवश से कुछ यूं करने लगते हैं कि मानो इतिहास का ज्ञान पढ़ने का उद्देश्य concept को हस्तांतरण करने का नहीं है, बल्कि इतिहास खुद महज एक बोझ नुमा विषय होता है , किसी परीक्षा को पास कर देने के उद्देश्य भर से। और किसी authority ने विवश किया हुआ है इतिहास को पढ़ने के लिए। 

कंप्यूटर के विषय में इतिहास को पढ़ाए जाने का असल उद्देश्य होता है – concepts का ज्ञान हस्तांतरण (transfer) करना कि computer होता क्या है, उसकी क्षमताएं और सीमाएं क्या होती हैं।

साहित्य (यानी कहानियां , कविताओं, फिल्मों, टीवी नाटकों , उपन्यासों इत्यादि) को छोटे बच्चों को कैसे पढ़ाया जाना चाहिए?

साहित्य (यानी कहानियां , कविताओं, फिल्मों, टीवी नाटकों , उपन्यासों इत्यादि) को छोटे बच्चों को कैसे पढ़ाया जाना चाहिए?

 साहित्य पढ़ाने का उद्देश्य क्या होता है? 

 हिंदी cartoon, वीर द रोबोट boy, और जापानी कार्टून डोरेमॉन, या sinchan में क्या अंतर है? 

 भारतीय संस्कृति में साहित्य के पठान का उद्देश्य बच्चों को किसी विशेष सोच, संस्कृति, नैतिकता, और धर्म को स्मरण करवाना होता है। जब हम भारत में निर्मित हुए छोटे बच्चों के टीवी वाले cartoon कार्यक्रमों, जैसे की vir the robot boy को देखते हैं और फिर उनकी तुलना किसी अन्य देश (अथवा संस्कृति) से करते है, जैसे की doreamon (जापानी) तब आपको इस भेद का आभास खुद ब खुद होने लग जाता है। जापानी कार्टून अपने बच्चों के जहन (conscience) में कोई पूर्व निर्धारित नैतिकता, धर्म या सही–गलत प्रवेश करवाने की चेष्टा नहीं कर रहे दिखते हैं, जबकि भारतीय कार्टून ऐसा करते महसूस किए जा सकते हैं। 

 मातापिता की अपने बच्चों से कुछ अपेक्षा होना जाहिर बात है और जो कि सभी देशों की संस्कृतियों में प्रायः दिखाई पड़ती है। अंतर सिर्फ ये है कि भारतीय संस्कृति में अपेक्षा में किसी विशेष धर्म, तौर तरीके, नैतिकता को सोखने की भी चेष्टा होती है, जबकि कई अन्य संस्कृतियों में मात्र critical thinking को जागृति करके स्वयं से धर्म, नैतिकता को बूझना सीखने का अवसर देने चेष्टा होती है। डोरेमॉन में नोबिता के माता पिता उससे सिर्फ खूब पढ़ाई लिखाई करके सफल व्यक्ति बनने की चेष्टा करते हैं – आर्थिक तौर पर सफल व्यक्ति, बस। उससे किसी विशेष सांस्कृतिक प्रथा, धर्म या नैतिकता वाला व्यक्ति बनने की अभिलाषा नही रखते है। जबकि डोरेमॉन कार्टून अपनी कहानियां के माध्यम से बाल दर्शको को प्रेरित करके छोड़ देता है कि वे स्वयं से तय करें कि उचित नैतिकता क्या और कैसी होनी चाहिए। 

 ऐसे ही, sinchan एक नादान छोटा बालक है और अभी कई सारे सांस्कृतिक चलन के प्रति good taste अथवा discretion नहीं रखता है जैसे कि privacy, secrecy, sense of possession, और अन्य मानवीय चरित्र के गुप्त दुर्गुण जैसे कि jealousy(ईर्ष्या), anger(क्रोध) इत्यादि। वो नादानी में गलत जगह कुछ अटपटा बोल करके अपने मातापिता को थोड़ा सामाजिक असमंजस में डालता रहता है। ऐसा करने से वो कभी कभी अधिक चतुर भी दिखाई पड़ता है। 

 मगर दर्शक बन कर बैठे बाल मन को ये सब आभास कोई स्पष्ट वाचन या नैतिक कहानी के माध्यम से नहीं कहा जाता है, बल्कि जापानी कार्टून मात्र खुद से सोचने को प्रेरित करके छोड़ देता है। हिंदी कार्टून में कोई दादा दादी होते हैं जो कि स्पष्ट शब्द से ऐसा कह देते है और इस तरह नैतिकता या धर्म की एक गाढ़ी लकीर खींच देते है बाल मन पर। उसे खुद से सवाल जवाब के माध्यम से बूझने का अवसर नहीं लेने देते हैं। इस तरह भारतीय संस्कृति नैतिकता और धर्म के विषय में बाल्यकाल से ही सवालों को उठा कर धर्म को तल्शने का मार्ग नहीं अपनाती है। 

 इस प्रकार भारत में साहित्य के पठन के दौरान आपसी विमर्श किए जाने का चलन ही नही है। टीचर भी अक्सर साहित्य पठन के दौरान वही "दादा दादी" की भूमिका अपना लेते है और fixated तरीके से धर्म-नैतिकता प्रसारित करने लगते हैं। सवाल जवाब का समाना करके खुद से बूझना सीखना का अवसर नहीं देते हैं।

 साहित्य पठन का उद्देश्य विमर्श क्रिया को प्रज्वलित करना होना चाहिए बाल्य समाज के बीच में, जहां कि वे खुद से ही धर्म को conceptually absorb करना (बूझ कर तलाश लेना) सीखना शुरू कर दें। 

 हमारे समाज को ये समझना होगा कि बिना विमर्श करें किसी भी साहित्य का पठन अधूरा होता हैं।

ब्राह्मणवाद क्या है? इसको कैसे समझा जाये?

ब्राह्मणवाद क्या है? इसको कैसे समझा जाये?

महान यूनानी दार्शनिक और चिंतक, एरिस्टोटल, जिनके पास अपने समय के समाज वालों के बहुत सारे सवालों और प्रकृति के रहस्यों का जवाब था , वे अक्सर लोगों के सवालों के जवाब देते-देते  विवादों और शास्त्रार्थों में दूसरो के साथ उलझ जाया करते थे। इस भीषण बौद्धिक द्वन्द के दौरान वे अपने जवाब को उचित सिद्ध करने की चेष्ट करते थे, और कई कई बार वे सिद्ध भी हो जाया करते थे। इसलिये उनके समाज के मान्य लोगों में उनका बहुत सम्मान हुआ करता था। अपने समर्थकों से प्ररित हो कर एरिस्टोटल ने ही ऐसे उपवन तथा वाटिकाओं को आरम्भ किया था जहां वे अपने शिष्यों के संग विचरण करते हुए समाज के सवालों का और प्रकृति के रहस्यों पर विमर्श करते हुए उनके गुत्थीयों को तलाशते थे। एरिस्टोटल के वे उपवन तथा वाटिका ही अकादमी कहलाने लगे जहां तत्कालीन यूनानी समाज के समृद्ध और उच्च कोटि वर्ण के लोग अपने बालको को एरिस्टोटल के पास भेजा करते थे विमर्श करते करते अपनी बौद्धिक कौशल को प्रवीण करने के लिए। वह अकादमी (academy) भविष्य में जा कर ये आधुनिक कालीन पाठशालाओं की नींव बनी। 

मगर एरिस्टोटल तक अपने समय के कुछ लोगों से बहस करने में डरते थे। और अपने शिष्यों को भी ऐसे लोगों को तुरंत उनकी बातचीत और विचारो के माध्यम से पहचान करके उनसे दूरी बना लेने की सीख दिया करते थे। इन प्रकार के लोगों को एरिस्टोटल के समाज वाले sophist करके पुकारा करते थे, ऐसे लोग जो की बहोत जटिल , विपरीत बोधक विचारो को एक संग अपना कर अपने दिमाग में पालते थे, तथा अपनी सुविधानुसार प्रयोग करते हुए एरिस्टोटल को शास्त्रार्थ में आसानी से पराजित करके ग़लत सिद्ध कर देते थे।

दरअसल एरिस्टोटल ने पहचान लिया था की sophist लोगों के विचारो की बुद्धि में बहोत सारे विचारो का मिश्रण होता है – और वे लोग एक अन्य, एक "विशेष प्रकार की बुद्धि", जो उनके पास पाई नहीं जाती है, और इसलिए उसके प्रयोग को नहीं करने से इन तमाम मिश्रण में एक विचार से किसी दूसरे विचार से विपरीत होने की शिनाख़्त नही कर पाते है। दो विपरीत बोधक विचारों को पहचान करके उनको अलग कर देने के लिए उनके दिमाग में कुछ बुनियादी नियम नही निर्मित हो सके है। ये "विशेष प्रकार" की बुद्धि किसी एक विचार से निकलने वाले तमाम अभिप्रायों और निष्कर्षों को तय कर करके दूसरे विचारों से उनका विपरीत होना सिद्ध करती है।

बुद्धि के इन बुनियादी नियमों को एरिस्टोटल logic करके पुकारते थे।

आधुनिक काल में logic के ये नियम सुनने में बहोत सर्वसाधारण सुनाई पड़ेंगे, मगर उनके अपने समय में ये वौद्धिक कौशल के नियम करीब अनभिज्ञ हुआ करते थे , तथा एरिस्टोटल जैसे विर्ले लोगों के पास ही होते थे। sophist वे वर्ग के लोग थे जो इन नियमों को न ही जानते थे, न स्वीकार करते थे। इसलिये एरिस्टोटल उनसे दूर भागते थे, और ऐसी ही शिक्षा अपने शिष्यों को भी देते थे, उनके प्रति।

ब्राह्मणवाद हमारे आधुनिक काल के भारत के वही sophist वर्ग के तौर पर समझे जा सकते है, जो की वैचारिक शुद्धता नही रखते हैं। वैचारिक शुद्धता का अर्थ ये नही है कि अनैतिक, व्यभिचारी ,गंदे विचार रखते है। बल्कि अशुद्ध का अर्थ है की तमाम विचारो का मिश्रण करके एक संग रखते है, तथा logic के बुनियादी नियमों को नही स्वीकार करते हुए दो विपरीत अर्थी विचारो को शिनाख़्त करके अलग-अलग नही करते हैं। वे सुविधानुसार अपनी बातों को पलट दिया करते हैं।

ब्राह्मणवाद का अर्थ किसी विशेष जातिय वर्ग से नही होता हैब्राह्मणवाद एक वैचारिक मिश्रण तरीके की क्षय(disorder) है, जो कि किसी भी जाति के व्यक्ति में पाया जाता है। मगर इसको ब्राह्मणवाद इसलिये नाम दिया गया है क्योंकि इतिहासिक तौर पर भारतीय समाज में अधिकांशतः वैचारिक मंथन करने का नेतृत्व ब्राह्मण जाति के लोगों ने ही किया था, मगर वे लोग अपने से सही और बेहतर विचार के आने पर उन विचारो को तोड़-मरोड़ और विकृत करके अपने को सही साबित करने हेतु परिवर्तित कर दिया करते थे (और हैं)। और फिर समाज में वो विकृत हुआ विचार प्रसारित कर दिया।

हम आज भी 'भक्तगणों' में logic की कमी को देख कर उनकी पहचान कर सकते है। और हम ये भी देख सकते हैं की प्रायः ऐसे लोग किसी एक राजनैतिक पार्टी की और झुकाव रखते है । 

संघी लोग आतंकवाद किसको समझते हैं? क्या गलती है उनमें

गैर–ब्राह्मण हिंदू समाज में ब्रह्म की पूजा क्यों नहीं करी जाती है

कहते हैं की गैर–ब्राह्मण हिंदू समाज में ब्रह्म की पूजा नहीं करी जाती है।

धरती पर सिर्फ एक ही मंदिर था, पुष्कर (राजस्थान) में, जहां कि ब्रह्मा की पूजा होती थी।

जानते हैं क्यों?

पुराने लोग आपको बताएंगे कि तीनों महादेवों में सिर्फ ब्रह्म जी की ही पूजा नहीं करी जाती है क्योंकि उन्होंने एक बार झूठ बोला था ।

मगर आजकल ऐसा नहीं है। दरअसल ये चलन टीवी के युग में चुपके से ब्राह्मणों ने साजिश करके बदल दिया है ! क्योंकि ब्राह्मण लोग खुद को ब्रह्म की संतान बताते हैं, तो फिर वो कैसे अपने परमपिता, ब्रह्मा, की संसार में ऐसी अवहेलना होते देख सकते हैं। इसलिए उन्होंने थोड़ा हिंदूवाद, धर्म-पूजा पाठ, आस्था का चक्कर चलाया और नई पीढ़ी को हिंदू – मुस्लिम करके बेवकूफ बना लिया है।

पुराने लोग आपको शायद ये भी बताते कि कैसे हिंदुओं का कोई भी त्रिदेव अवतार जिसकी पूजा हुई है संसार में, वो ब्राह्मण वंश में नहीं जन्मा। और यदि किसी त्रिदेव ने ब्राह्मण वंश में जन्म लिया भी, —तो फिर उसकी पूजा नहीं करी गई संसार ने। जैसे कि, —
राम चंद्र जी — विष्णु अवतार, क्षत्रिय वंश में थे, और संसार में पूजा होती है
भगवान कृष्ण — विष्णु के अवतार , क्षत्रिय हुए और संसार में पूजा होती है
वामन — विष्णु के अवतार , ब्राह्मण कुल में थे, मगर उनकी पूजा नहीं हुई संसार में।

दक्षिण भारत में मात्र दो वर्ण माने जाते रहे है - क्षत्रिय और ब्राह्मण।
जबकि उत्तर भारत में चार वर्ण हैं — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र।

ऐसा क्यों ? और उत्तर भारत में ये "भूमिहार" जाति का क्या चक्कर है?

मान्यता यूं थी कि ब्राह्मण थे ब्रह्मा के वंशज, जबकि क्षत्रिय थे विष्णु के वंशज। संसार की मान्यताओं के अनुसार सबसे महान और आदिदेव थे— सदाशिव, महादेव। और फिर विष्णु को स्थान मिला। और सबसे नीचे के पद पर आए ब्रह्म जी। तमाम पौराणिक कथाएं इस बात को प्रतिपादित करती रहती हैं, जैसे कि दक्षिण भारत, केरल में राजा बलि और वामन की कथा। टीवी युग से पहले, मूल मान्यताओं में दक्षिण भारत में ओणम के पर्व में वामन देवता की पूजा नहीं करी जाती थी, जबकि वामन को विष्णु का अवतार जरूर मानते थे।

सोचिए, कि वामन की पूजा क्यों नहीं होती थी?

क्योंकि वामन, जो की विष्णु जी का ब्राह्मण जाति अवतार माना गया है, उसने धोखे से अपनी प्रजा में प्रिय राजा, बलि, को बातों में फंसा कर के उससे उसका राज्य हड़प लिया था। इस कथा से जनता के मन में यह बात घर कर गई थी कि ब्राह्मण, जो बुद्धि से और वाकपटुता में अधिक सुसज्जित होता है दूसरी जातियों से, वो अपने कौशल और गुणों का प्रयोग छल करने के लिए करता है, तथा बातों में फंसा कर आप से संपत्ति हड़प लेता है।

इससे पहले ब्रह्मा जी के रावण से झूठ बोल देने की बात तो पहले ही संसार में जानी जाती रही थी, और जिसके लिए संसार में ब्रह्मा की पूजा करने का चलन समाप्त हो गया था।

आजकल , मगर , टीवी युग में फिर से ब्राह्मणों ने चतुर चंटई करके नए नए चलन निकाल दिए हैं।

आजकल महर्षि परशुराम जी की भी जयंती मनाई जाने लगी है। जबकि टीवी युग से पूर्व , मूल मान्यताओं में, परशुराम की भी पूजा नहीं करी जाती थी। ये सब बदलाव ब्राह्मण समुदाय की चालाकी का कमाल है, जिसे कि हमारे अनजान, नादान बच्चे टीवी से देख सीख कर असली सामाजिक और पौराणिक ज्ञान को भुलाते जा रहे हैं।

परशुराम भी तो ब्राह्मणों के भगवान है, खासतौर पर भूमिहार लोगों के जनक देवता।

भूमिहार कौन हैं? और उनकी उत्पत्ति की क्या कहानी है? संसार में इनके प्रति क्या आस्था थी, टीवी युग से पूर्व?

दरअसल एक समय ऐसा भी आया था समाज में, जब ब्राह्मणों की सभी गैर–ब्राह्मण जनों से शत्रुता हुआ करती थी। ये हुआ था भगवान बुद्ध के आगमन के बाद। भूमिहार की उत्पत्ति ब्राह्मणों में से हुई मानी गई है, — वो ब्राह्मण जिन्होंने शास्त्र रख दिए थे और शस्त्र उठा लिया थे। भूमिहार शब्द के प्रयोग उत्पत्ति की कहानी यूं है कि जिन ब्राह्मणों ने धरती यानी भूमि का आहार लेना शुरू कर दिया था, वे भूमिहार कहलाने लगे। मूल मान्यताओं में ब्राह्मण केवल दक्षिणा लेकर ही आहार करते थे, खुद से खेती करके भूमि से उगा कर के नहीं। मगर बुद्ध के आगमन के बाद में, बुद्ध की शिक्षा से जब संसार प्रभावित होने लगा तब लोगों ने धीरे धीरे करके ब्राह्मणों से नाता तोड़ लिया और दक्षिणा देने का चलन करीबन समाप्त हो गया। ऐसे में ब्राह्मणों को मजबूरी में खुद से खेती और पशुपालन करने पर उतरना पड़ गया था। ऐसा मौर्य शासन काल में अधिक प्रसारित हुआ संसार में। बौद्ध लोग अहिंसा में आस्था रखते थे ,और भगवान बुद्ध की तरह अपने शत्रु को प्रेम के बल पर विजई होने की आस्था रखते थे, ठीक वैसे जैसे भगवान बुद्ध ने डाकू अंगुली मल का हृदय परिवर्तन करके उस क्रूर डाकू पर विजय प्राप्त करी थी।

ब्राह्मण का आरोप बौद्धों पर,आजतक, ये है कि बुद्ध की ऐसी शिक्षा के चलते ही भारत कमजोर हुआ और तब यहां के क्षत्रियों ने शस्त्र उठाना बंद कर दिया। जिससे की भारत हारता रहा हर एक आक्रमणकारी से, खासतौर पर मुस्लिमों के हाथों।

फिर जब मौर्य काल और नंद वंश के दौरान यूनानी सम्राट alexander ने हमला किया था, उस दौरान ब्राह्मणों ने अपनी खेती बाड़ी की भूमि की रक्षा करने के लिए शस्त्र उठाना शुरू कर दिया और वही लोग भूमिहार कहलाने लग गए।

भूमिहारों की बौद्धों और जैनियों से नहीं बनती थी, क्योंकि भूमिहार अपने दार्शनिक विचारों से हिंसा करने में आस्था रखते थे, जबकि बौद्ध और जैन दोनो ही अहिंसा के पुजारी थे।

कहा जाता है कि इसी युग काल के दौरान जैन लोग भगवान महावीर और चार्वाक संस्कृति में आ गए, नास्तिक बन गए और इन लोग ने ब्राह्मणों के रचे शास्त्रों में आस्था रखना बंद कर दिया। जैन समुदाय आज भी ब्राह्मणों के रचे वेद ,उपनिषद और अन्य शास्त्रों में आस्था नहीं रखते हैं हालांकि अपना ये रवैया वो लोग छिपा कर गुप्त रखते हैं।
और गुप्त क्यों रखते है, ये सवाल आपको खुद से बुझना होगा इस लेख को पढ़ने समझने के बाद में।

भूमिहारों के प्रथम राजा, पुष्यमित्र शुंग, ने नंद राजा बिम्बिसार की छल से हत्या करके शासन अपने कब्जे में कर लिया। नंद और मौर्य राजा लोग बुद्ध और जैन दोनो में आस्था रखते थे, और ब्राह्मण के रचे शास्त्रों से विमुख हो चुके थे। मौर्य काल में ब्राह्मणों का शासन में प्रभुत्व नहीं हुआ करता था । मगर अब भूमिहार राजा, शुंग के आ जाने के बाद से वापस ब्राह्मण खुद ही राजा बन कर वापस सत्ता और प्रभुसत्ता में लौट आए । और इसके बाद भूमिहारों ने बौद्ध भिक्षुओं और जैन मुनियों पर बहुत सितम किए और कईयों का वध कर दिया। कुछ जैन मुनियों के दावे कहते हैं की एक रात में आठ हजार से अधिक जैन मुनियों का सिर काट दिया गया था, भूमिहारों द्वारा।

मौर्यों और नंदों के शासन के समय भारत की भूमि आज तक की सबसे विशाल क्षेत्रफल की थी। मगर भूमिहारों के बाद से ये वापस छोटे छोटे राज्यों में टुकड़ों में विभाजित हो गई , और छोटे छोटे नए राज्य निकल आए जो आपस में शत्रुता रखते थे।

आपसी शत्रुता इसलिए शुरू हुई, क्योंकि इससे पूर्व मौर्यों के दौरान बौद्ध शिक्षा की जब शासन पर मजबूत पकड़ थी, तब राजा लोग अच्छे शासन करने पर अधिक व्यसन करते थे, बजाए की अपने अहम को पालते रहे और महत्वाकांक्षी बन आपस में द्वंद करें।

ब्राह्मण महत्वकांक्षी होते हैं, अहम पालते हैं मन ही मन में और प्रभुत्व रखने की गुप्त इच्छा रखते हैं। जबकि बौद्ध और जैन अपने आत्म संयम से अहम को नियंत्रित या विजई होने में व्यसन करते हैं। इसलिए ही बौद्ध अक्सर अधिक विनम्र और शांतिप्रिय होते हैं, ब्राह्मणों के मुकाबले।

मगर जब संसार पर बौद्ध शिक्षा का प्रभाव समाप्त होने लग गया , तब संसार में अहम और अभिमान , प्रभुत्व करने की लालसा वाली शक्ति पैर जमाने लग गई। बस यही से भारत में टुकड़े टुकड़े हो कर छोटे छोटे राज्य निकल आए जो आपस में शत्रुता पालते थे।

ये सब ब्राह्मणी सोच और शिक्षा का कमाल था, और जो की बौद्ध और जैन शिक्षा से वैमनस्य पालते हुए निर्मित हुई थी। बौद्ध की सोच से ठीक उल्टी सोच।

ब्राह्मण बनाम बौद्ध तथा जैन के संघर्ष की कहानी

भूमिहारों के सत्ता में आने से संसार भूमिहार राजाओं के चलाए गए ब्राह्मणवाद के चपटे में आ गया। शायद इसी काल के दौरान जातिवाद ने वो चिरपरिचित ऊंच–नीच वाला चरित्र पकड़ लिया था, जिसमे कि शूद्रों के साथ अमानवीय , अछूत व्यवहार करने का सामाजिक चलन निकल पड़ा था। ये शायद ब्राह्मणों के प्रतिशोध में से निकला व्यवहार था, समाज में। ये सभी इतिहासिक घटनाएं उत्तर भारत में घटित हुई थीं। और शायद ये बात उत्तर दे सके कि क्यों उत्तर भारत में चार सामाजिक वर्ण बने जबकि दक्षिण भारत में दो सामाजिक वर्ण रह गए।

ब्राह्मण–भूमिहार राजाओं ने बौद्धों को समाप्त तो किया ही, साथ में उनकी अनाथ संतानों को परिवर्तित करके हिंदुओं में वापस ले लिया तथा नीचे की वर्ण व्यवस्था निर्वाचित कर के पीढ़ियों तक अपना दास बनाने हेतु तैयार करना आरंभ कर दिया।  तब से ले कर आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी लोग ब्राह्मणी सोच से ही संसार को देखते समझते हैं। खुद को 'हिंदू' मानते है, और ये तक स्मरण कर सकते हैं कि कभी किसी युग में उनके पूर्वज बौद्ध अनुयाई हुआ करते थे। हालांकि अद्भुत बात ये है कि समाज में ब्राह्मणों के प्रति विरोध आज भी व्याप्त है, मगर जो की जातिवाद के रूप में देखा और जाना पहचाना जाने लगा है । आज उत्तर भारत कि राजनीति जातिवाद के मुद्दो पर चलती हुई जानी और देखी जाती है, जिसमें झगड़े की हड्डी (bone of contention) की भूमिका निभाता है आरक्षण का विषय। तो देशवासी, जो ब्राह्मणवाद, पुष्यमित्र शुंग या भूमिहार की उत्पत्ति के विषय में  सत्य ज्ञान नहीं रखते हैं, वे समाज में व्याप्त ब्राह्मण विरोध की ललक को आरक्षण की राजनीति के रूप में देखते- समझते हैं ।

इधर, बाद के समय में भूमिहारों ने भी अपने उत्पत्ति की कथा वैदिक घटनाओं से होने की रच –बुन ली और समाज में प्रसारित करना आरंभ कर दिया, की कैसे भूमिहार लोग महर्षि परशुराम से उत्पत्ति करें है, वैदिक युग से। ऐसा प्रसारण हो जाने से समाज में अबोधता और अज्ञानता व्याप्त हो गई ,जिसने सत्य सामाजिक–इतिहासिक ज्ञान को अगोचर हो जाने में सहायता किया।
बौद्ध धर्म भारत में उत्पत्ति हुआ और कई सारे अन्य देशों में प्रचलित हुआ, जिसमे पूर्व के देश –चीन , जापान, कोरिया, वियतनाम, थाईलैंड, बर्मा, तिब्बत,श्रीलंका, कंबोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, वगैरह विशेष है । मगर ये इतिहासकारों में आश्चर्य का विषय रहा है कि आखिर ये धर्म भारत में ही क्यों इतना कम प्रचलित छूट गया। इस सवाल का जवाब भी शायद ये बौद्ध–भूमिहार संघर्ष की कहानी में छिपा हुआ है।

आज कल अपना कुलनाम "सिंह" कोई भी रख लेता है और तर्क देता है की इसका अर्थ तो क्षत्रिय वंश के संबद्ध होने से होता है, मात्र।

जबकि आज भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के पुराने लोग आपको बताएं वास्तव में "सिंह" कुलनाम इस क्षेत्र में केवल भूमिहार लोग रखते थे, जो की उनके प्रथम राजा, पुष्यमित्र शुंग, के नाम में से उत्पत्ति हुई थी। तत्कालीन युग में केवल शक्तिशाली भूमिहार जाति के लोग ये नाम रखते थे और दूसरे लोगो को ये कुलनाम नहीं रखने दिया जाता था — ताकि कोई छल से उनके समाज में न बैठने लग जाए ! और फायदा निकाल ले ।

जी हां, ये अजीबोगरीब बात है, मगर दूसरी जातियों आज वही कुलनाम प्रयोग करने लगी है, जो की किसी समय उनके पूर्वजों के सितमगर हुआ करते थे। 🙀🤫🤫😳

इतिहास और समाजशास्त्र में दुखद मगर कड़वा सच ये है की संसार में कई बार जब वंशवध घटे हैं, नरसंहार किए गए है, तब कोई कहानी बताने वाला भी जीवित नहीं बचा है। और ऐसे में मरने वालो की अनाथ हुई संतानों ने अनजाने में उसे ही अपना जनक मान कर उसकी प्रथा को निभाना शुरू कर दिया जो कि उसके वास्तविक माता पिता का हत्यारा था ! 😳😥🤫

भारत भूमि पर तो खास तौर पर इस प्रकार की कष्टदाई घटनाएं आपको बार बार देखने को मिलेंगी जब बड़े ही फक्र से, किसी उलूम जुलूल तर्क के लपेटे में फंसे हुए, कुछ लोग बड़ा विचित्र काम कर रहे होते है, जिसकी उनको टोह भी नहीं होती है कि सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से इसका क्या अर्थ होता है, ये कितना बड़ा अनर्थ कर्म है।

संसार में लोगों को शायद ये भी नहीं एहसास होगा कि आज जो इतने दमखम से हिंदू बने हुए हिंदू धर्म को मुसलमानों से बचाने के लिए जमे हुए है, वो सब कभी किसी युग में बौद्ध थे और ब्राह्मणों के रचे शास्त्रों से अलग हो चुके थे।

ऐसा सब कमाल हुआ है नृशंस नरसंहारों की बदौलत, जिसमे कोई भी जीवित नहीं बचा था कहानी बोलने और लिखने को। बस कुछ दंतकथाएं ही रह गई हैं, और कुछ एक अजीब से दिखने वाले व्यवहार और घटनाएं, जो अवशेष बनी हुई गवाही देती है की कहीं, कुछ तो अटपटा रहस्यमई है, जिसके सच को आधुनिक काल में लोग भूल चुके हैं।

चाणक्य और अर्थशास्त्र के प्रति क्या अजीब बात है? क्या जानते हैं आप इसके बारे में?

चाणक्य मौर्य शासन काल का चरित्र है। मौर्य शासन के बारे में पुरातत्व विज्ञानी, जो की इतिहासकारों का कर्मवादी प्रमाण देने वाला वर्ण होता है, वो बताते हैं कि करीब २ री शताब्दी ईसा पूर्व में थे। मगर चाणक्य नामक के बारे में जो भी जानकारी जानी जाती है, वो ६ वी शताब्दी में रचे गए एक काव्य में से मिलता हैं –मुद्राराक्षस — जिसे विष्णुगुप्त नामक किसी कहानीकार ने लिखा था। चाणक्य के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ भी तथ्य उपलब्ध नहीं है, कि उसका जन्म कब हुआ, माता - पिता कौन थे, पत्नी और संतान कौन थी। सिवाय इसके कि वो ब्राह्मण था। ये सब बातें इशारा करती हैं कि संभवतः ये काल्पनिक चरित्र है, जिसे ब्राह्मणों ने रचा था लोगों की स्मृति में से बौद्ध अनुयायी शासकों की, जो अशोक के वंश के थे, उनके सुशासन की उपलब्धियों को हड़पने के लिए ! (To appropriate the legacy of good governance by the Mauryan Rulers) ।

भूमिहार ब्राह्मणों के हाथों से जैन मुनियों की प्रताड़ना का इतिहास भी आज करीबन विलुप्त हो कर भुलाया जा चुका है। सिवाय कुछ एक जैनियों के, लगभग सभी इस ऐतिहासिक सांस्कृतिक घटना को भूल चुके है। फिर भी, आचार्य ओशो रजनीश , जो की जैन थे, उनका 1980 के आसपास का रिकार्ड किया हुआ एक अभिभाषण सहज उपलब्ध है इंटरनेट पर, जिसमे वो प्रश्न कर रहे हैं कि चार्वाक का साहित्य क्यों नष्ट कर दिया – ब्राह्मणों ने । और फिर एक विस्तृत वाचन देते हैं कि ब्राह्मणों को क्या दिक्कत थी चार्वाक की नास्तिक विचारधाराओं से, जो ब्राह्मणों ने जैनों की प्रताड़ना तो करी ही, साथ में उन के साहित्यों ग्रंथों को भी नष्ट कर दिया था।



क्यों एक इंजीनयर या डॉक्टर को कदापि IAS IPS नहीं बनाना चाहिये

किसी IIT, AIIMS से पढ़े व्यक्ति को IAS IPS बना कर ये सोचना कि देश अब अच्छे से चलेगा, ये तो कुछ ऐसा हुआ कि पढ़ाई में अच्छे लड़के को क्लास का मोनिटर बना कर सोचना कि पूरी क्लास अब बेहतर परफॉर्म करेगी ! 
घंटा! 
उल्टे समाज को ज़रूरतमंद professional इंजीनयर और डॉक्टर से वंचित कर दिया,और कुछ नहीं ।

सांस्कृतिक इतिहास की कहानी ये बताती है कि अच्छे प्रजातंत्र में professional प्रधान होता है क्योंकि वो समाज की ज़रूरतों को पूरा करता है। न कि सरकारी मुलाज़िम, जो केवल प्रशासनिक कार्य देख रेख करता है। अच्छे लड़के को मोनिटर नियुक्त कर देने से बाकी छात्र अच्छे पेंटिंग अच्छे डांस, अच्छे गणित,  या अच्छे जीवविज्ञान नहीं पढ़ने लग जाते हैं। उल्टे वो अच्छे बच्चा भी मोनिटर बन जाने पर पढ़ाई लिखाई और अपने कौशल से ध्यान भंग हो जाने से भटक जाता है।

 कोई भी सरकारी मुलाज़िम कभी भी professional नहीं हो सकता है। professional सैदव market से कमाता है, अपनी सेवा या उत्पाद बेच कर। सरकारी मुलाज़िम की तरह जनता से जबरन जमा करवाये टैक्स में से तंख्वाह नहीं लेता है - एक सुरक्षित, निश्चित आय, जो कभी नहीं घटती हो - चाहे देश में सूखा पड़े, बाढ़ आ जाये, दंगे हो जाये या डकैती, लूटपाट और आगज़नी होती रहे!!

एक सरकारी मुलाज़िम को professional मान लेना, ये तो केवल उन्ही मूरखचंद समाजों में हो सकता है जहां की नदियों नालों के समाम गंदी होती है। कम अक्ल लोगों को पता ही नहीं होता है कि नदी क्या है, नाला क्या है, और क्यों  दोनों को हमेशा अलग रखना चाहिए, कभी भी मिलने नहीं दिया जाना चाहिए।


Some management philosphy quotes

 






जन्मजात पंडित और व्यक्तिव का confidence का भारत के जनमानस पर धाक

हमारे एक मित्र, मxxष मिश्रा, कुछ भी लेख लिखते समय confidence तो ऐसा रखते हैं जैसे विषय-बिंदु के 'पंडित' है, जबकि वास्तव में ग़लत-सलत होते हैं। तब भी, उनके व्यक्तित्व में confidence की झलक होने से उनके लाखों followers है !

सोच कर मैं दंग रह जाता हूँ कि देश की कितनी बड़ी आबादी अज्ञानी है, जिसका कि जगत को पठन करने का तरीका ही मxxष मिश्रा जैसे लोगों के उल्टे-शुल्टे लेखों से होता है, सिर्फ इसलिये क्योंकि मxxष जी जन्मजात पंडिताई का confidence रखते हुए लोगों को आसानी से प्रभावित कर लेते हैं ।

भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में तमाम प्रबंधन शिक्षा के गुरु लोग ऐसे ही नहीं बार-बार 'व्यक्तिव में confidence' रखने की बात दोहराते रहते हैं। बल्कि वो लोग तो सफाई भी देते रहते हैं कि अगर आप के व्यक्तिव में confidence है, तब अगर आप ग़लत भी हो, तब भी आप अपनी बात को जमा सकते हैं।

प्रबंधन गुरु लोग ग़लत नहीं हैं। हमारे देश की आबादी में औसत आदमी किताबी अध्ययन करने वाले बहोत ही कम हैं। ऐसे हालात में लोगों को किसी भी विषय पर सही-ग़लत का फैसला करने के संसाधन करीब न के बराबर होते हैं। ये देश अज्ञानियों का देश है। मूढ़ लोगों का देश, जहां की संस्कृति में मूर्खता समायी हुई है। कम संसाधनों के चलते लोग बाग हल्के तरीकों से गूढ़ विषय पर तय करने को बाध्य होते हैं कि बात सच है या कि झूठ। सत्यज्ञान है, या कि नहीं। ऐसे में, व्यक्तिव का confidence , भले ही बनावटी हो, विषय की गहन पकड़ में से नहीं उभरता हो, सत्यज्ञान के स्वाभाविक आवेश में से नहीं उद्गम करता हो, तब भी लोगों की बीच वो धाक जमा सकता है।

यानी,

अगर आप असल ज्ञानी पंडित न भी हो, बनावटी अथवा जन्म-जात पंडित होने से भी यदि "व्यक्तिव का confidence" रखते हो, तब भी , कम से कम भारतीय संस्कृति में तो आपकी धाक जम जायेगी !

जय हो !


आरएसएस का देश के बौद्धिक चिंतन, जागृति पर दुष्प्रभाव

आरएसएस ने देश भर में तमाम 'सरस्वती शिक्षा मंदिर' स्कूल चलाये, बहोत जनसेवा करि हुई है, मगर इसके साथ ही देश के समाज में ज़हर भी खूब फैलाया है।

जैसा कि आरएसएस का प्रचलित उपनाम है, रॉयल सेक्रेट सर्विस, आरएसएस ने एक किस्म की विध्वंसक मानसिकता का प्रसार भी किया हुआ है, जो बाल्यकाल से ही ब्रेनवाश करके एक ऐसे समाज की नींव डालता है जो कि गुप्तचरों द्वारा संचालित होता है। यदि कोई समाज सेक्रेट सर्विसेस के द्वारा चलाया जाये तब वो कैसे, किसी एक वर्चस्ववादी वर्ग के द्वारा हड़प लिया जाता है, और वो देश किस प्रकार के आत्मघाती और तबाही मंज़र को देखता है, इसे समझने के लिए आपको जिस देश की ओर देखना चाहिए, वो है रूस ।

रूस और हिटलर के जमाने वाली जर्मनी के इतिहास के जानकार लोग ये बताएंगे आपको कि कैसे सेक्रेट सर्विसेस के बल पर प्रशासन किया जाने वाला समाज किसी एक वर्ग के द्वारा अपने  समाज के दूसरे वर्गों  पर वर्चस्व की दास्तान बन गया। वो देश तकनीक और उद्योगिक विकास से तो वास्तव में दूर भाग रहा होता है, हालांकि एक आभासीय मकड़जाल , एक भ्रम अपने इर्दगिर्द बांध लेता है (और खुद से ही खुद के फैलाये झूठों का शिकार बन कर ये मानने लगता है )कि वो अब तकनीकी विकास करने लगा है।

दोनों, रूस और जर्मनी, में हुई परमाणु शक्ति पर ये कयास हमेशा लगाये जाये रहें हैं कि परमाणु अस्त्र उनके वैज्ञानिकों ने उपलब्धि से नहीं हुआ है, ये तो उनके जासूसों के दम पर है । nuclear weapons के विषय में जो prolifiration (प्रसार) का विषय है, वो वास्तव में रूस की जासूसी संघठन के द्वारा किये गये कार्यवाहियों से बढ़ी वैश्विक चिंता में से उपजा है।

हमारे यहाँ आरएसएस ने भी देश व्यापी स्तर पर एक ऐसा सेक्रेट सर्विस संघठन बना दिया है , उन "सरस्वती शिशु मंदिरों" के बहाने। 

ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की मानसिकता की कमी ये रही है कि वो सदैव स्वयं को श्रेष्ठ होने की चेष्टा करते हुए समाज में भ्र्म और कुतर्को को प्रसारित करते रहे हैं। जब , जो भी गुण जनप्रिय हुए या चलन में आये, आरएसएस की ब्राह्मणवादी मानसिकता ने ये परमचेष्टा करि है सिद्ध कर देने की, कि वो गुण "तो " भारतीय संस्कृति में पहले से ही विधमान है।

दरअसल आरएसएस के द्वारा "भारतीय संस्कृति" को अपने मिशन का केंद्र बनाये जाने के पीछे एक गहरी और साज़िश भारी सोच है । वो ये कि यदि तमाम वर्गों को वो साथ रख कर केवल ब्राह्मण जाति की श्रेष्ठता सिद्ध करने कि कोशिश करेंगे, तब तो कोई भी अन्य वर्ग उनके संग नहीं चलेगा। तो फ़िर दूसरा तरीका ये है कि ब्राह्मण वर्चस्व के मिशन को "भारतीय संस्कृति" का चोंगा पहना दो, और अब भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को साबित करवाने में सब को पीछे लगा दो। लोग-बाग जितना अधिक प्राचीन भारत के वेदों, उपनिषदों , ग्रंथों की श्रेष्ठता को साबित करने में आपसी जुगत करेंगे, वो ये अनदेखा भी करेंगे कि साथ में वो ये भी स्वीकार करने लग रहें है कि ये सब ब्राह्मणों की उपलब्धि से हुआ है। तो यदि सब कुछ अच्छा-अच्छा और भला-भला हुआ है, तो फिर हमे ये सब वापस वैसे ही चलाना होगा जिसा तंत्र के चलने से ये सब भला हुआ था - ब्राह्मणों की सोच के अनुसार देश के समाज को व्यवस्थापित करना पड़ेगा !!!!

आरएसएस ने जब, जो श्रेस्ठ गुण चलन में देखा, त्यों हिंदुओं में भी "शुरू से ही" विद्यमान होने का दाव खेला है। यदि आज secularism और liberalism को समाज और सरकारों के आपसी संबंध के संचालन का श्रेष्ठ गुण माना जाता है, तब उन्होंने ये कुतर्क प्रसारित करे हैं कि हिन्दू तो स्वभाव से ही secular और liberal होता है। ऐसा करने में आरएसएस ने समाज की चेतना में न सिर्फ अप्रमाणित तर्को का समावेश किया है, बल्कि secularism और liberalism प्रत्यय के सत्य अर्थो को भी तब्दील कर दिया है। लोग-बाग अब ये सही अर्थ में समझते ही नही है कि secularism के अभिप्राय क्या-क्या होते हैं ,उन्हें क्या सामाजिक तब्दीलियां करनी चाहिये। क्योंकि वो बड़े आत्म विश्वास में रहते हैं कि उन्हें अच्छे से मालूम है कि secularism और liberalism क्या होता है, और कि वो हिंदुओं में पहले से ही मौजूद है।

यदि कल को कही से ये चलन में आ गया कि देशों को संचालन करने के लिए आवश्यक गुण होगा धार्मिक कट्टरता, तब आरएसएस सुविधानुसार ये भी सिद्ध कर देने वाले तर्क प्रसारित करने लगेगा कि हिन्दू तो शुरू से ही कट्टर था !!

कुल मिला कर ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद , दोनों ही छद्म तर्कों को समाज में प्रसारित करने को तात्पर रहते हैं, केवल अपने वर्चस्व (patriarchy) को कायम रखने के ख़ातिर। वो इस देश की विद्या और ज्ञान संस्कृति में वृद्धि नहीं कर रहे है, हालांकि वो दिखाते ज़रूर ऐसा हैं कि आध्यात्मिक और वैदिक ज्ञानकोष इस देश की संस्कृति से विश्व धरोहर को दिया गया है। और ऐसा कुतर्क कर कर के ब्राह्मणवाद देश की चेतना में वास्तव में सुराख कर रहें है। सत्य को जानने - समझने वालो को सबसे प्रथम कठिन युग्न ये करना पड़ेगा कि देश की जनता को ये बताये कि वो जो कुछ भी इतने आत्मविश्वास से जानते-समझते आये हैं, वो सब कुतर्क, भ्रामक और छद्म ज्ञान है !!!!!

What is the difference between Caste and Community

What is the difference between caste and community

To be able to fully appreciate the differences, sometimes we have to first make an understanding of the similarities.
The principle applies well in the present case. 

Caste and Community have almost no difference in their lexical meaning. They both refer to the social group of people. The difference between the two is only of the sociological context , which reveals how the types of groups are formed and how they conduct. 

We all must have heard the term community being used in reference to social groups as the Gujarati Community, the Minority Community, the Indian community (in context of some overseas setlled Indians), and so on and so forth. And then you must have wondered as to why we don't use the word Caste, instead, in the above cases. 
And that particular thought must have brought you to contemplate over what is the difference between the two words. Because otherwise your dictionary will tell you almost the same meaning for both these words , as though they are synonyms to each other. 

However, after a deep thought contemplation, a philosopher having insights into the sociology might be able to provide you some difference between the two words. 

Caste is formed by a religious diktat , and forced upon a group of persons by virtue of their brith in a certain group which has a a pre designated name , social status and sometimes even the occupational endeavour. 

In contarast, the community is formed by people by their own willingness, and their social status is not pre defined, nor is their occupation. 

This , communities stand up collectiively against the other community to vie for their share in the economic pie, whereas the caste standup collectively to fight against the other castes and the community to gain a good/ respectable social status , so that they don't further lose out in their share in the economic pie. 

You may well understand how a caste group's struggle is sometimes more harsh than that of a community.


Community is decided, often times, based on their language, their regional settlement, or sometimes even by their religious cult practises. They marry within their community, they build their  dwellings together and manytimes practsie their business also, together. This helps them to survive , sustain and sometimes even progress throuvh a common venture if that venture starts to find success. The communities contest with each other ,and make endeavour to send their members in all fields of occupation so they bring exposure and insights from all the directions to the benefit of the entire community. In all this, all the groups of communities stand at the same level of social status.

But the above does not apply in case of the Castes.All the groups of Castes are at different social status, and they all are mysteriously tied to a certain bandwidth of occupation within which only they find their work. They may not adhere well with each other, they often times fragment out from each other , compete with the other members most times, very rarely they take up a common venture and least of all, they find success wherein they may all make economic progress together. 

Often, the common disgruntlement that binds the members of a caste together is their fight for a increased social status . Thus , their common efforts are in the field of Party Politics, where the agenda is to acquire the legislative and the administrative powers of the state, which they may then use to inmprove their social status , as well as put their people in employment within the government services. That is their set path for an economic upliftment.

 In a summary we can say that the fights and struggles of the caste groups is with themselves, and these fights are sourced from how the arguments have formulated from the religious sculptures and settled within the native society. The caste groups are not fighting to conserve and preserve their heritage; but are constantly looking to overthrow the old customs, traditions, practsies, and the occupation, and adopt modern ways, so to prove their superiority and the higher social status to each other. 



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