An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
Democractic Systems and mental health issues of leadership
People who have anti-Social and aggressive , dominating temperament are better at rising in certain roles of leadership
The trouble is that they are by nature itself anti-democractic, and they can exploit the easy climb of Secular Humanism to reach on top, and then destroy the very ladder by which they had climbed to top.
Such people, who have aggressive dominating temperament, are poor at understanding the Rights of people - Constitutional , legal and human . Infact this very trait is what brings them the success to reach to role of leadership.
But can imagine the havoc they bring to the organisation and the society once they come to top ? They kill their own gurus and choke up the freedoms of the country, while remaining in denial about the consequences of their decisions
Impeachment of the POTUS is a telling tale. He lies through his teeth, had a conduct unbecoming of a President, indulged various misdemeanor, instigated though his speech his followers and his rivals alike.
Mental health, as we can see, is just not about sound mind, but also the good , healthy psychology. The problem is that since the psychological aspect remains immeasurable, therefore a big gap is created from where people of psychopathic temperament find room to succeed in a democracy and then to undermine the very system that gave them their success.
इंटरनेट search, और कानून के उच्चारण की घटना पर एक विचार लेख
क्या वाकई में पुलिस संगठन ही सर्वशक्तिमान है क्योंकि भारत के कानूनों में उनको नियंत्रित करने का कही कोई भी प्रावधान है ही नही ?!!!!
समस्या यह की इन सवाल पर कि क्या पुलिस को बिना अनुमति विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश प्रतिबंधित होता है, का जवाब मिला ही कहाँ से है ?
तो फिर the lallantop और इनके ही जैसे लाखो लोग internet से जवाब तलाश करके प्रसारित करते रहते हैं। दिलचस्प मगर दुखद पहलू मौजूद प्रकरण में यह था कि सभी लोग शायद एक खास web article के मुख्य स्रोत से ही "अपना अपना" उत्तर तलाश कर रहे थे, वो जो कि करीब 2016 में किसी एक अधिवक्ता के विचार रखने के दौरान इंटरनेट पर प्रकशित हुआ था। अब यह कौन जानेगा की विचार कितने सही, कितने गलत कितने गुणवत्तापूर्ण थे ! सब के सब लोग उसी एक सुंदर भाषी लेख के पीछे चल पड़े है, और धीरे धीरे करके वही लेख एक सामाजिक, न्यायायिक और प्रशासनिक परिपाटी चालू कर देगा, जिसमे भारत का प्रजातंत्र यूँ बन जायेगा कि इनमें पुलिस सर्वशक्तिमान होगी, और आम जनता बड़ी ही बौड़म बुद्धि से चुपचाप इसे "सच" मान कर स्वीकार करती रहेगी।
तो फिर न्यायायिक सवाल यही होता है कि हालात को किस श्रेणी का माना जाना चाहिए - साधारण, या की असाधारण।
Stop-work Industrial culture and Clerk-led bureaucracy
A _*Stop Work Obligation*_ cannot co-exist with the *_Refused to Obey Orders_*
What it means is that if the superior is more of a Discipline-psychopathic person, then every event where a shipboard personnel has acted his power to call STOP_WORK because he felt something was unsafe, the superior Disciplinarian-person will rather see the act of STOP-WORK as a REFUSAL to obey orders.
He will then relay the message to the management, and his immediate seniors, that an act of INDISCIPLINE has occurred from that person.
So, here is the dilemna of an organization, where the officer staff, largely of *Clerk* set-up, not much familiar with the Industrial practices. It will rather go after the person who had acted his good judgment to save the loss of his own life, or maybe the property of the organization, or of someone else.
बलात्कार - क्या इसका आरम्भ कपट कारी राजनीति और कुप्रशासन से नही है ?
कहते हैं की ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नही होती है।
घटनाओं के होने के क्रम में ऊपर वाले की लाठी के होने की पहचान आपको और हमे खुद ही करनी पड़ेगी।
21 october के चुनावों के उपरान्त महाराष्ट्र और हरियाणा में जो कुछ राजनैतिक उठापटक चली सरकार बनाने को लेकर, वहां से शुरू करिये अपने प्रयास , लाठी की आवाज़ को सुनने के।
आलोचकों ने दलील दी थी की जिस तरह से लोगों को अपराधी घोषित करके जेल में रखा जाता है, और फिर जिस तरह से वास्तविक अपराधियों को राजनैतिक जरूरतों के चलते आज़ाद कर दिया जाता है, तो फिर दिसम्बर 2012 वाला निर्भया प्रकरण का आरम्भ वही से होता है। जब राजनीति इतनी छलावा बन जाती है की वह सत्य और न्याय को ही समाज में से ख़त्म कर देती है, तब पुलिस और प्रशासन का खुद ही आये दिन बलात्कार ही हो रहा होता है राजनेताओं के हाथों। और तब भीषण रूप लेते हुए एक दिन निर्भया घट जाता है।
भक्त लोगों ने आलोचकों की निंदा करि की यह लोग तो कुछ भी कही से भी जोड़ देते हैं, बिना तर्क के। यही सब कुतर्क है आलोचकों के।
तब तक आंध्रप्रदेश की बलात्कार घटना घट गयी। आलोचकों ने इशारा किया कि देखो भक्तों, तुम्हें जवाब मिल गया न अब?
भक्तों को और उनके नेताओं को आहट लग गयी की अब आंध्रप्रदेश की घटना शायद उनकी सरकार गिरा सकती है। तो चारों अरोपियों को मार गिराया गया, और आक्रोशित जनमन को नरबलि दे कर संतुष्ट कर दिया गया। और कहने को हो गया कि आये दिन घटने वाले अपराधों का राजनीतिक उठापटक से जोड़ एकदम बकवास बात है। आलोचक बेकूफ़ हैं।
तभी उन्नाव घटना की पीड़िता का देहवास हो गया।
अब वापस आलोचक कहने लगे है की अब अगर पुलिस में दम है तो यही encounter कर के दिखा दें। आंध्रप्रदेश की घटना में तो आरोपी आमआदमी , जनजाति लोग थे, उन्नाव में राजनीति से जुड़े अरोपियों को क्या वही "इंसाफ" कर सकेगी पुलिस और प्रशासन ?
हैदराबाद encounter प्रकरण, भारत के जनजाति समूह और आक्रोश में पलती हुई क्रूरता, अमानवीयता
आज़ादी से पहले , अंग्रेजों के ज़माने में criminal tribe act हुआ करता था। अंग्रेजों ने जब भारत की सभ्यता पर अध्ययन किया था, तब उन्होंने पाया था कि भारत में बहोत सारी ऐसी जातियां अभी भी बाकी थीं जो कि जंगली, वन मानव ही थे। वह असभ्य थे, क्योंकि उनके यहां धर्म और संस्कृति ने अभी जन्म नही लिया था।
आश्चर्य कि बात नही है, क्योंकि देश में आज भी उनके अस्तित्व के प्रमाण के तौर पर अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर येरवा और चौरा जनजाति मौजूद है, जो दुनिया की सबसे प्राचीन जनजातियां है और आज भी मानव भक्षण करती हैं। अभी 2019 के आरम्भ में ही उन्होंने एक अमेरिकी नागरिक को मार कर भक्षण कर लिया था, (cannibalism) जिसकी सूचना देश के तमाम अखबारों में प्रकाशित हुई थी।
बात यूँ है की आज़ादी से पूर्व यह लोग सिर्फ अंडमान द्वीप समूह तक सीमति नही थे। यह भारत की मुख्य भूमि, केंद्रीय भारत के पठार के जंगलों में भी मौजूद थे। इनकी आबादी और संख्या कहीं अधिक थे आज के बनस्पत। आप इनके अस्तित्व के जिक्र रामायण और महाभारत के ग्रंथों में भी ढूंढ सकते हैं। वर्तमान की आरक्षण नीति भी उसी तथ्य के इर्दगिर्द में से ही उपजी है। कई जगह तो यह सभ्यता में मिश्रित हो कर सभ्य हो गये, और बाकी जगह में यह लोग नये युग के "विकास" और शहरीकरण के दबाव में यह लोग jeans और shirt पहन कर गोचर हो गये, हालांकि सभ्यता और संस्कृति और धर्म से अबोध बने हुए हैं। यह मानव करुणा से अपरिचित है, और प्राचीन आदिमानव सभ्यता से अधिक वास्ता रखते हैं। भारत की आज़ादी की घटना ने इन्हें आसानी से मुख्य धारा में प्रवेश दे दिया, बिना शिनाख़्त किये है। इनमें अंतर्मन अभी इतना विकसित नही हुआ है, यह लोग अपराध को न तो जानते है, न ही किसी अपराध कानून का पालन करते है, भारतीय दंड संहिता को तो भूल ही जाइये। यह लोग व्यापार , कृषि , पशुपालन से भी दूर हैं,और किसी भी नये युग की सभ्यता के कानून को नही जानते हैं।
अंगरेज़ों ने जो काला पानी की सज़ा ईज़ाद करि थी, दूर टापू पर ले जा कर क़ैद में रखने वाली, उसकी मंशा शायद इन्हीं लोगों से प्रेरित थी। सभ्यता के महत्व को इंसान तब तक नही समझता है जब तक की और अधिक क्रूरता, यातना और दुख को नज़दीक से नही देखता है। अंग्रेज़ मानते थे की उनकी ईश्वरीय उत्तरदायित्व है की वह असभ्य लोगों को भगवान की शरण में ला कर सभ्यता से परिचित करवाये, it is a White Man's duty to civilize the world.
हुआ यूँ कि बाद में अंग्रेजों ने कालापानी की सज़ा में राजनैतिक कैदियों को भी भेजना शुरू कर दिया था। तो बस, आज़ादी के बाद जब राजनैतिक कैदी लोग आज़ाद किये गये, तब उनके संग में ही यह आदिमानव वनमानुष लोग भी आज़ाद हो लिए, जंग ए आज़ादी के सिपहसालार के भ्र्म में होते हुए।
विशाल भारत की तमाम समुदायों का हिसाब किताब आज भी आम भारतीय की जानकारी से ओझल है। इसलिये हम यह सब ज्ञान न तो जानते है, न ही कुछ आवश्यक प्रशासनिक सुधार करते हैं। उनको दंड देने के चक्कर में खुद भी असभ्य और मानव करुणा से दूर चले जा रहे, अमानव बनते जा रहे हैं। हमे सचेत होने की ज़रूरत है।
जर्मनी के बच्चे क्यों अधिक बुद्धिमान होते हैं भारतीय बच्चों के मुक़ाबले
https://www.facebook.com/palaknotes/videos/426884821520114/
जर्मनी के बच्चे क्यों अधिक बुद्धिमान होते हैं भारतीय बच्चों के मुक़ाबले :
१) सम्पूर्ण निंद्रा , *Proper Sleep*
२) कहानी सुनने की आदत व क़ाबलियत - *Listening to Stories*
३) प्रत्येक बच्चे को उसकी क्षमता के अनुसार पहचानना व विक्सित होने का अवसर देना - *All kids are unique*
४) पदार्थवादी नहीं है , भावनाओं को महसूस करना व भावना के अनुसार प्रतिक्रिया करना शुरू से ही सिखाया जाता है - *Creating Memories*
५) बच्चों को शुरू से ही सिखाया जाता है की पदार्थ/वस्तु से प्रेम नहीं करें, उनका त्याग करना सीखें - *Sharing*
6) स्वयं को व्यस्त करना , बिना किसी पैतृक नियंत्रण के , पैसे की कदर, अर्थशास्त्र का सामाजिक ज्ञान सहज उपलब्ध है - *Self Engagement*
If the Constitution is being murdered, the fault is within the law code itself
Speak a blunt truth ,
If you feel the Constitution has been choked , then it is not the fault of the killers, but of the Constitution itself !
Think crudely and with honesty to your ownself.
A law , if it fails to protect the people and even itself , the the fault is in the law itself that the writers have not composed it well, perhaps because they were not sufficiently exposed to various fields of human affairs.
Maybe the writers of the Constitution had good experience of the social discrimination,
BUT insufficient idea of the INDUSTRIAL workplace unfairness and injustice.
They would not know the industrial rules, regulation with the bureaucracy and the government department setups. Therefore the writers failed to produce a law code which may achieve effectively the protection of the citizen class from the evil forces as much as the code failed to protect it's own effective interpretations and the implementation.
They just gave us rough draft LADEN with the property of AMENDABILITY, and then left the entire burden on us to gain from the experiences and choose the right agenda for an amendment.
The Socialist Democracy explosive mixture
The citizens have the freedom , whereas it is state which is DUTY bound.
प्रजातंत्र की दुविधा - मूर्खतन्त्र
*प्रजातंत्र की दुविधा* - मूर्खतन्त्र
प्रजातंत्र की अपनी बहोत सारी सीमाएं है जिनका एहसास हमें सदैव रहना चाहिए।
मसलन, न्यायालय अक्सर करके मूर्खता के मुख्यालय में तब्दील हो जाते हैं। क्योंकि अभिव्यक्ति की असीम स्वतंत्रता होती है, इसलिये सवाल तो कुछ भी उठाये जा सकते हैं। इस एक आज़ादी के चलते न्यायलय खुद में प्रजातंत्र में खुशहाली लाने के रोहड़ा बन जाते हैं क्योंकि वह अवरोधक शक्तियों को पोषण देने का मार्ग खोल देते हैं। काम को करना मुश्किल हो जाता है, अवरोध करना आसान।
दूसरा, कि कोर्ट प्रशासनिक सिद्धांतों के विकास को भी बंधित करते हैं, या नष्ट भी कर देते हैं। एक व्यक्ति अपने अनुभव से होता हुआ कोई सिद्धांत पर चलता हुआ एक दिशा के कार्य को आरम्भ करता है। तब तक उसकी सेवा समाप्त हो जाती है, और फिर दूसरा आ कर किसी दूसरे कार्य को करने लगता है जो ठीक विपरीत दिशा वाले सिद्धांतों पर ले जाता है। जनधन व्यय होता है, मगर "किसी के बाप का क्या जाता है"। महंगाई बढ़ती रहती है, मगर यह विषय को कोर्ट की jurisdiction के बाहर होता है, इसमे वह क्या कर सकता है।
प्रजातंत्र में खुशहाली आदर्श हालात में यूँ आते हैं की किसी एक दिशा के सिद्धांत पर चलते हुए trial and error से उसमे सुधार होते हुए आगे बढ़ा जाये। सोचिये मगर तब क्या होगा जब रोज, नित नये सिद्धांत के बहाने नये नये कार्य होते रहें ? Trial and error प्रक्रिया के साथ एक छल हो जायेगा।
यदि गणतंत्र में प्रशासन सेवकों का मुखिया - राष्ट्र का दंड धारक- चिरायु न हो, हर पांच सालों में बदलता रहे , तब फिर यही छल होता है सिद्धांतों के trial and error से विकास के प्रति। नित नये सिद्धांत खोज दिये जाते है, नौकरशाही की मनमर्जी बदौलत, बजाये की किसी एक को स्थायी रखते हुए उसका विकास हो।
गणतंत्र के मुखिया के कार्यकाल का पांच वर्षीय बनाये जाने के और भी कई घातक नतीजे हैं। जैसे, नौकरशाही ही वास्तविक दंड धारक बन जाती, बजाये राष्ट्रपति या की किसी राजनैतिक पार्टी के। वह राजनैतिक पार्टी से सांठगांठ में आ कर भ्रष्टाचार को अपना मुख्य कौशल बना लेती है, और संविधान तो बस नाम के वास्ते रह जाता है। यह कार्यपालिका की अंतिम मर्ज़ी रह जाती है की किस भ्रस्टाचार कांड में किसी नौकरशाह को पकड़ना है, और किसे बरी कर देना है।
प्रजातंत्र को देखादेखी, नकल करके अपनाना तो आसान , आकर्षक और सुविधाजनक लगता है, मगर उसके वास्तविक निचोड़ को समझ कर उसको अपने शासन तंत्र में कायम रखना बेहद परिश्रम का कार्य है।
Olden days dabate of school life - Why Science is a blessing or a curse
पुरानी, स्कूल level की debate है -कि, विज्ञान एक वरदान होती है, या अभिशाप।,
इसका निष्कर्ष यही हुआ करता था की विज्ञान तो मात्र एक औज़ार है, अच्छाई या बुराई का चरित्र तो उसको थामने वाले हाथों में होता है - मानवता करुणा भरा, या क्रूरता का।
और जब विज्ञान और तकनीकी को थामने वाले हाथ ही क्रूर, हृदय विहीन , मानव संवेदना से विमुख होते हैं, तब विज्ञान और प्रौद्योगिकी पुराने ज़माने के तानाशाहों और जमींदारों से अधिक क्रूर बन जाती है।
प्रोग्रोगीकि मानव संवेदना को ही नष्ट कर देती है, Dr Frankstein's monster बन जाती है। लोग चीखते चिल्लाते रह जाते हैं, और प्रौद्योगिकी एक sound proof, ध्वनि तरंग रिक्त कक्ष बना देती है जिससे की दर्द भरी चीख बाहर ही न निकल सके और किसी को सुनाई ही न पड़े - "किसी और को परेशान न करे"।
मानव बुद्धिमत्ता का उद्गम खुद भावनाओं में ही तलाशा गया है। यह जितनी भी प्रौद्योगिकी है, इसके मूल को हम मानव करुणा में देख सकते है। intelligence केवल thinking से नही निर्मित हुई है, बल्कि feeling भी एक अभिन्न अंग रही है। आश्चर्य की बात यह है की विज्ञान आजकल ऐसे लोगों के हाथों में चला गया है जो feeling को ही ख़त्म करने लगे हैं।
Technology is a dangerous tool in the country of stupids
Techology produces Idiots ...most dangerous types ...The ones who think they are smart, more smart than anyone else around.And that disastrous thought can kill social wellness more cruelly than what the tyrants and autocrats did in olden days.
IIT- Madras has come out with a solution to prevent suicides on the campus - by adding a Spring laden rod system in the Ceiling fans , in all the rooms of the hostel so that anyone attempting to hang by the fans will land up on the Floor
That is how cruel the technology can become. It can make you search for a human problem in the inhuman , material world , thereof making the world and the society behave deaf to the cries of a dying soul.
Remember that it was an IITian who had proposed the idea of AAdhar and its all-pervasive inter-linking , by doing which ,he thought he could succeed in ending all the corruption within the society .
He quietly resigned away as the truth about endless limits of corruption, human Stupidity came upon him. He took time the understand the *Power of Stupidity* and its infinite expanse which no technology can overcome .
Learning is not about reading the Books; because Books are just the warehouses of the knowledge
That that act of acquiring EDUCATION is just not about reading and endlessly reading the books.
What are books , and what role do they play in the context of Acquisition of Education by a person ?
Books are simply the warehouse
They neither manufacture the Knowledge, nor do they put to use the knowledge to produce any gainful thing.
They simply store the knowledge, for an on-ward delivery to someone , who we ignorantly term as the "learner"
This is far from the truth of what is learning.
A learner should ideally be a person who can either create the knowledge, or the who can put the knowledge to any kind of use for a gainful purpose.
A book-learner is no learner at all. He is just a Kaun Banega Coroepati Winner, or a Civil Services Aspirant !! Whose knowledge never comes to any gainful purpose of the society at all.. except the quirky way the society and its system have taken the belief and devised a way to bring personal benefit to such warehoused knowledge to win the KBC lottery or the UPSC Exam ! , By bringing him immense lottery prize money along with the people's reverence to his "great learning " thereby overlooking the fact that he is just a warehouse-keeper .
Learning is not just warehousing , but also the applying to make some meaningful product out of the knowledge.
The 'indiscipline-blaming psychopath'
His persistent desires is that every subordinate must follow his orders without any questions, without exercising personal choices , thoughts and ideas, lest he accuse that subordinate of "indiscipline".
The summary of the conduct of an indiscipline psychopath may be spoken of like this:
Follow my order blindly, or else I accuse you of indiscipline .
The indiscipline-blaming psychopath likes to promotes the idea that 'this country is not progressing, it is such a shabby and chaotic place because the people are not in discipline'. He has absolute belief in the concept of nationalism, (as the way it is understood from the external enemy threat theory), because such a belief hinges on promotion of Militarism, and which in turn promotes the obedience of orders as the virtue of 'discipline', which of course approves in his whimsical understanding and the interpretation that hierarchical justice is what Discipline is.
The indiscipline-blaming psychopath thinks that he is just doing his duties responsibly while the others are not doing it. And therefore he as a self-imposed burden, a "duty" to make sure that the rest of them also follow their duty by obeying his orders.
अयोध्या फैसला -- तर्कों के चीथड़ों से तैयार कोट
कहने का अर्थ है कि न्याय आवश्यक नही की सत्य ही हो, हालांकि इच्छित , आदर्श न्याय की परिभाषा यह है उसे सत्य को ढूंढ चुका होना चाहिए ।
मगर यह परिभाषा एक आदर्श परिभाषा होती है, मात्र एक wishful सोच। व्यवहार में न्याय जज की मनमर्ज़ी बन कर रह जाता है। हमसे-आपसे अपेक्षा करि जाती है कि हम मूढ़ों की तरह सब "स्वीकार" करना सीख लें, और वह चाहे जो भी लिखते रहे।
अयोध्या फ़ैसले में भी कुछ यूँ ही हरकरतें हुई है। रंजन "मिश्र" गोगोई ने अपनी मनमर्ज़ी से कुछ भी तर्कों को जोड़-घाट , जोड़ जुगत करके एक assembled computer की भांति एक फ़ैसले रच दिया है। और मीडिया और अखबारों के माध्यम से उसे lap-up करके चिकना और सुंदर दिखाने की कोशिश करि जा रही है, ताकि वह हमारे और आपके गले के नीच आसानी से उतर जाए।
यह तो सभी हिंदुओं की इच्छा थी कि राम भूमि पर एक मंदिर निर्माण हो। अगर सेकड़ो सालो से यह दावा रहा है कि वहां, उस विवादित भूमि पर एक मंदिर था, तो फिर चाहता तो हमारी यही रहने वाली है।
सवाल यही था कि आधुनिक भारत के संविधान की मर्यादाओं का सम्मान करते हुए यह लक्ष्य कैसे साधा जाएगा। आखिर यह विवाद इतने वर्षों इसी लिए खींच गया था, की आधुनिक भारत के सँविधान की मर्यादा भी सरंक्षित करनी थी।
रामचंद्रजी मर्यादा पुरुष थे। मुस्लिम बताते हैं कि उनकी मस्जिदों के निर्माण के लिए एक आवश्यक कसौटी होती है कि जमीन का पाक होना जरूरी होता है। पाक होने की कसौटी में यह भी बात है कि जमीन को किसी और से छीन कर वहां मस्जिदें नही बनाई जाती हैं।

हालांकि इस मामले में evidence का burden बड़ी चालाकी के तर्कों से मुस्लिम पक्ष पर ही आन पड़ा कि वही साबित करें कि उनकी मस्जिद की जमीन पाक थी,
मगर अब यही सवाल हिंदुओं की अन्तरात्मा पर भी खड़ा है, कि क्या यह फैसला मर्यादाओं के भीतर में रह कर किया गया है? क्या वह राम मंदिर की भूमि को पवित्र मानेंगे , या छलकपट से प्राप्त करि गयी "अशुद्ध" भूमि मानेंगे?
कोर्ट बार बार बोलता भी रहा है कि वह यह फैसला संविधान के secular मूल्यों के माध्यम से ही देगा, न कि धार्मिक आस्था के मद्देनजर, मगर सवाल यही है हमारे अन्तर्मन में, की क्या court ने जिन संवैधानिक मर्यादा को बार-बार सर्वप्रधान बताया है, क्या आखिर में उसे निभा सका है?
बहोत उभरती हुई आलोचना यही आ रही है। कि, कोर्ट ने secular मूल्यों को निभाने की बात सिर्फ शब्दों में रखी है, वास्तव में निभाई नही है। आखिर एक वैज्ञानिक रिपोर्ट , scientific investigation report , पुरातत्व सर्वेसक्षण विभाग के द्वारा, जो कि स्वयं भी असिद्ध निष्कर्ष देती है, उसके भरोसे कोर्ट ने इतना बड़ा निष्कर्ष निकाला ही कैसे कि आज का तथ्य (यह की उस भूमि पर एक मस्जिद का निवास है) कमज़ोर पड़ गया अतीत के असिद्ध दावे के सामने ?
असिद्ध निष्कर्ष वाली वैज्ञानिक रिपोर्ट ने ऐसे कैसे अतीतकाल के दावे को प्रमाणित कर दिया और ज्यादा भारी तथ्य बना दिया वर्तमान कार्ल के सर्वदृष्य, सर्वविदित तथ्य के सामने ??
यह एक पहेली है, जिस पर उंगलियां उठाई जा रही हैं।
यह जजों की शरारत का मामला लगता है। कि तर्कों के चीथड़ों से कैसे भी जुगाड़ से एक वस्त्रनुमान फैसला तैयार कर दिया है चालाक दर्ज़ी के द्वारा, जो जज के पद पर बैठा हुआ है।
फैसला तर्कों के चीथड़ों से बना है, खोट और खामियों से भरा हुआ है। साबुत, गट्टे के प्रवाह में बहने वाले कपड़े से निर्मित नही हुआ है, यह पता चलता है तब जब हम फैसले के आधारभूत तर्कों की जांच करते है।
अख़बार और टीवी क्यों कभी भी Whole Truth नहीं बताते हैं ?
वो तो शायद चाहते ही नही हैं कि इंसानों में स्वचेतना आये की उचित-अनुचित खुद से तय कर सकें। इसलिये अखबार -या कोई भी समाचार- सिक्के के दोनों पहलुओं से एक साथ परिचय नही करवाते हैं। वह आधी जनता को एक तरफ का पहलू दिखाते हैं, और बाकी आधे लोगो को दूसरे तरफ का। और फिर जब लोग आपस मे ही भिड़ते है, मतविभाजन करते हैं, "राजनीति करते है" , तब ही इन अखबारों की दुकान चलती है।
अखबारों या किसी भी समाचार कंपनी के बारे में यह कमी जानी जाती है - कोई भी whole truth नही बताता है।
Whole truth जानने की कसौटी आसान नही है। उसमें घटनाओं का अध्ययन करना पड़ता है लंबे अरसे तक। अध्ययन से अभिप्राय है आसपास में रह कर चिंतन करना, विश्लेषण करना, सहयोगियों और विरोधियों के संग तर्क करना, दूसरों के चिंतन लेख पढ़ना।
कहाँ , किसके पास टाइम ही होता है कि कोई किसी भी विषय पर इतना सब अध्ययन कर सके। सस्ते में काम चलाने के लिए अखबार कंपनी सिर्फ उसी की बात छापती हैं जो उनको पैसे देता है।
मगर इस तरह के अखबारों को पढ़ कर आप आत्मविकास ,आत्मसुधार की अपेक्षा नही करिये। आप को स्वयं से ही कार्यवाही करनी होती है अपने खुद के भले को प्राप्त करने के लिये।
भारत की संस्कृति में स्वेच्छा का अभाव , और मालिक नौकर संबंध में गड़बड़ का मूल
जबकि बाइबिल और कुरान तो बने ही है मालिक नौकर संबंध का एक commandment देते हुए। sunday यानी इतवार की छुट्टी का चलन इस बात की गवाही है। sunday शब्द का मूल ही यहूदी धर्म मे sabbatical शब्द से निकलता हुआ आता है। जो की बाइबिल के old testament में दिया गया है कि हर मालिक को अपने ग़ुलाम को हफ्ते एक दिन छुट्टी देना आवश्यक होगा , मालिक को अपने अल्लाह की खिदमत करते हुए !(न कि इसलिये की ग़ुलाम तसल्ली से घर जा कर अल्लाह की ख़िदमत कर सके) ! इस्लाम मे यह दिन जुम्मा मुकर्रर हुआ है, यहूदियों में sunday और ईसाइयों में भी sunday का चलन है !!
ब्राह्मणी शास्त्रार्थ कला में sophistry का प्रयोग
अब ट्रीपल तलाक़ में भी देखिए। भक्त लगातर यही साबित करने के दावे दे रहे हैं कि मुस्लिम महिलाएं खुश हैं।
Demonetisation को याद करें। भक्त लगातार दावे कर रहे हैं थे कि आतंकवाद की रीढ़ टूट गयी है, काला धन खत्म हो गया है।
ब्राह्मणों की तर्कशक्ति की सबसे बड़ी खूबी यही है-- कि, वह अपने विरोधी पक्ष - दलित और पिछड़ा- को पता भी नही लगने देती है कि कब उन्होंने तर्क प्रवाह की लय को बदल दिया है शब्दों को करीब करीब पहले जैसा ही रखते हुए, और फिर उनके विरुद्ध यह कह दावा ठोक दिया "आप को बात नही समझ आ रही है, क्योंकि आप अल्प-बुद्धि हैं "। यह सारा तरीका ब्राह्मणी शास्त्रार्थ कला का चिर-परिचित क्षय-मात है। इसे अंग्रेज़ी में sophistry बुलाया जाता है, जो कि देखने-सुनने में एकदम debate के जैसा ही होता है।
Rule of law बनाम Good Conscience प्रशासन और न्याय व्यवस्था
*Rule of law बनाम Good Conscience प्रशासन और न्याय व्यवस्था*
Rule of law व्यवस्था के आने से पूर्व जो न्याय व्यवस्था थी , उसे हम good conscience व्यवस्था बुला सकते हैं। इसमे न्याय का आधार हुआ करता था "अंतरात्मा की आवाज़", स्वचेतना।
आपको अभी तक इस पुरानी व्यवस्था के प्रति सुनने में कहीं कुछ ग़लत नही लगेगा।
मगर इसकी खामियां आप बन्द आंखों से सोचिये।
पुरानी व्यवस्था में प्रत्येक न्याय विवादों से घिरा रहता था। क्योंकि अंतरात्मा की आवाज़ हर इंसान की अलग अलग होती है !! तो हर एक न्याय , हर एक फैसला आरोप में घिरा हुआ था कि यह भेदभाव किया गया है, वह पक्षपात हुआ है !
असल मे समाज में भेदभाव और पक्षपात का जन्म ऐसे ही न्यायों में से हुआ है। कुछ न्यायिक फैसले असली में भेदभाव को जन्म देते है, कुछ आभासीय जन्म देते है जहां आरोप और विवाद हुआ होता है।
Christian secularist यहां ही सभी समाज से आगे की सोच सके, और दुनिया से सबसे सशक्त समाज और राष्ट्र को जन्म दे सके। उन्होंने good conscience न्याय व्यवस्था की जगह rule of law की ओर रुख किया। असल न्याय का स्रोत तो आज भी good conscience ही है, मगर बीच मे rule of law का अतिरिक्त प्रबंध कर दिया, जो भेदभाव और पक्षपात को रोक सके। rule of law में लिखित, पूर्व घोषित (यानी नीतिगत ) , स्पष्ट रचित (द्विउचारण से मुक्त), कानूनों को रचने का चलन आया । यह codification कहलाता है। प्रत्येक code का प्रेरणा स्रोत भी लिखित है, जो कि constitution या संविधान कहलाता है।
Standardisation brings to end the Politics in the collective decision making work
And scoffs at it that the word explains our culture in shortest, simplest idea ..
I apply the word _Khichadi_ to mean the same.
And the comic relief is that the root of different meaning and interpretation of Dharma is a result of that single idea alone - " _*Swadanusar*_ " or the _Khichadi_
Clericalism destroys Secularism and dominates its way over the society by bringing Stupidity in the Public governance system
To adopt Secularism, we must identify what is Clericalism from the nature of it. We must understand how the Clericalism works in the Indian society and the (Indian) public services , and what errors it generates which bring failures to our society .
Rational thinking is a cause-ascertaining way of analysing the issues and problems around us , and finding their cure or the solution. Whether a suggested /nominated cause of a problem is the appropriate root or not, is best determined by allowing the nomination to pass through various criticism, by the believers as well as the non-believers , the theist and the atheist. You don't dismiss a criticism by disqualifying the critic by character assassinating him, no matter his character has genuine faults or merely the alleged ones.
That means, solution once found , must prevail in the society for ever and win by its own right. If the people are being forced to win it out again and again, at every instance of the non-compliance , know it that the society is not truely secular . The clerics (the bureaucracy and the religious heads, both included) dominate their way on the society by making stupidity a way of public governance system.
Once the failure of Secularism happens , the rest of the Democractic Governance laws will automatically fail.
भारत की अगाध गरीबी के कारक यह है ही नही की अर्थशास्त्र नीतियां गलत हैं , बल्कि यह है की नौकरशाही उचित प्रदान नहीं कराइ गयी है किसी भी अर्थ नीति को लागू करने के लिए
Democracy cannot succeed if it is not genuinely implemented. Then, If your fake democracy is failing, please dont blame the system of Democracy.
भारत की नौकरशाही-- भारत की तमाम मुश्किलों की असल जड़
सर्वप्रथम यह कि प्रजातंत्र, और तमाम अन्य किस्म की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं को हमारे तत्कालीन "बुद्धिजीवियों" ने सही से समझा ही नही। इसमें ग़लत हुआ है, हालांकि उनकी ग़लती नही कही जा सकती है। कारण- की सब ही प्रत्यय हमारे यहां पर आयात करके लाये गए हैं, यहां भारत के अपने सामाजिक और आर्थिक इतिहास की धरोहर कम ही हैं आधुनिक भारत के प्रशासन को चलाने में सहायक किसी भी पाठ को रचने के लिए; और न ही हमारे इतिहास ने हमारे पास विकल्प दिया कि हम कुछ अन्य को प्रयोग करके तसल्ली कर सकें। (अब यह कटुसत्य वचन पढ़ कर हो सकता है कि आप में से बहुतों को खराब लगेगा, मगर सत्य को नतमस्तक हो कर स्वीकार करना ही सर्वप्रथम आराधना होती है। या तो आपके मन को सत्य स्वीकार करने से शांति मिल जायेगी, अन्यथा सुधार करने का उपाय खोज कर डालेगा। )
क्लर्क यानी लिपिक कौशल की अपनी कमियां होती है। वह हाथ कैशल का सम्मान कम करते हैं, अच्छे वाचन से प्रभावित जल्दी होते हैं। वह चापलूसी से चलते है। न की तकनीकी विषयों पर बहस करते हुए, ज्ञान को उधेड़-बुन करके "उद्योगिक और कौशल मानक" - professional and industrial standards- का निर्माण करते हुए।
थोड़ी सी सांठगांठ मंत्रियों के संग में, और फिर सत्ता पूरी की पूरी एक मिलिभगति कि खीरपूड़ि बन गयी नौकरशाहों के हाथ मे। खूब दम कर के भ्रष्टाचार किया और कुछ एक ईमानदारी की "मूर्ख" नमूनों को रख छोड़ा देशवासियों को सच से बहकाने के लिए।
आरक्षण की खीर ने खुद अम्बेडकर जी के समुदाय वर्ग को भी नौकरशाही का कायल बना दिया, बजाए सच के दर्शन देने के। वह कौशल काम छोड़ छोड़ कर "पढ़ाई लिखाई" की ओर प्रेरित हुए - मसलन आरक्षण के माध्यम से आईएएस और आईपीएस बनने को लालायित हूए। आरक्षण में उन्हें नौकरशाही के माध्यम से सशक्तिकरण की रोशनी दिखाई पड़ी, न कि नौकरशाही नाम वाली दीमक जो की समाज के आर्थिक और श्रमिक संसाधनों को खोखला करती थी।
अग्रिम और पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण, और अध्ययन मेरे अनुसार
मर्यादा = Conscience tied.
उद्योगिक मर्यादा अलग ही है। इसमें कुछ भी करना अथवा नही करना में स्वेच्छा का प्रसंग पैसे के लाभ-और-हानि से बदलता रहता है। दुनिया में कुछ भी स्थिर नही है। तुरन्त लाभ और हानि के अनुसार वह निर्णय लेते हैं।
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