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क्यों मोदी सरकार और आरएसएस का यह प्रयोग असफल हो जायेगा ?

मुझे लगता है की कांग्रेस वापस आ रही है...भाजपा और मोदी जी इस गणित में पूरी तरह हार गए हैं। मेरी गणना में 2019 चुनाव तो क्या 2024 में भी कोंग्रेस का आना तय है। मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी बदस्तूर चालू रहे, बस।

   यह देश छोटे छोटे वर्गों में बंटा है। कई सारी छोटी क्षेत्रीय पार्टियां इस पर राज करती हैं। उन छोटी पार्टियों में ज्यादा कुछ एक दूसरे से सम्बन्ध बनाने के लिए common नहीं है। और जो कुछ है, वह कांग्रेस ही संभाल सकती है । दो सबसे बड़ी वोट कुञ्ज हैं
1) मुसलमानो को सुख शांति और भागीदारी
2) आरक्षित और पिछड़ा वर्ग को हिस्सेदारी।

भाजपा ने दोनों पर ही आत्म घात कर लिया है
1) मुस्लमान विरोधी है
2) आरक्षण विरोधी है।
यानि की भाजपा ने अपने ही गोल में गोल दाग दिए हैं। हिट विकेट आउट हो गयी है।

मोदी और भाजपा की सरकार ने यह सबक लेने में बहोत देर लगा दी है। मोदी शासन में आरएसएस की छवि एक जाति ब्राह्मणवादी संस्था के रूप में तो स्थापित हुई ही है, जो की माड़वाड़ियों और बनियों के समर्थन में एक दम निर्लज है। धूर्तता , यानि अस्थिर न्यायायिक मापदंड का गुण हमेशा से जाति वादी ब्राह्मणों और बनियों/माड़वाड़ियों यानि धंधेबाज़ों का माना जाता है। लालू का कुशासन था, मगर धूर्तता नहीं थी। यहाँ मोदी में वह गुण है। न ऐसे ब्राह्मण को समाज में सम्मान के योग्य है, और न ही ऐसे व्यापारी समाज के लिए हितकारी, राष्ट्र निर्माण के सहयोगी।  तो कोंग्रेस और लालू का उत्थान तय है क्योंकि यह धूर्त नहीं है। कोंग्रेस ने धूर्तता से त्रस्त वर्ग को हमेशा उच्च स्थान दिया था और करीब करीब सब ओहदों तक पहुचाया। सर्वोच्च न्यायाधीश से लेकर राष्ट्रपति भवन तक। और यही मुसलमानो के साथ किया। इसके दौरान उसने भ्रष्टाचार को पनपे दिया क्योंकि यही वह भोजन है जो की विखंडित वर्ग आपस में मिल कर खाने को तैयार हैं, वरना वहां कुछ भी common नहीं हैं।
भाजपा और मोदी ने भ्रष्टाचार का विरोध की छवि बनायीं, मगर असल में व्यापारी वर्ग के सेल्समेन बन कर रह गए। न भ्रष्टाचार पर लगाम लगी, उलटे हिंदूवादी हो गए, और आरक्षण विरोधी भी । यानी आम भाषा में बोले तो, "भाजपा ने किया क्या, मोदी शासन में ??"। जी हाँ, मोदी चाहे जो उपलब्धि गिनाते रहे, वोट कुञ्ज वर्ग में असल में भाजपा और मोदी ने अपने अभी तक के देढ़ साल से ऊपर के शासन में "कुछ नहीं" किया है।
कृष्ण भाई, आप समझ रहे हो न 'कुछ नहीं' का अभिप्राय ? यानि की भाजपा और मोदी हो गए total फ़ैल।

कोंग्रेस की दृष्टि से आनंद की बात यह थी की यह रिलायंस और अडानी तब भी खा रहे थे, और आज भी खा रहे हैं। यानी भ्रष्टाचार का भोजन उसके काल में सभी वर्गो को मिल रहा था। अब धूर्त काल मोदी युग में यह सीमित हो कर सिर्फ रिलायंस और अम्बानी अडानी को ही मिल रहा है। मोदी ने rti पर अलिखित शिकंजा कस दिया है। और मौखिक तौर पर उसके समर्थन में हैं। बस उनकी धूर्तता पकड़ी गयी है। अब और कुछ तो साबित करना ही नहीं है।
    एक अकेला आदमी जिसपर सब नज़ारे टिकाये थी की यही शायद मोदी के युग में अच्छे दिन लाएगा वह था सुब्रमनियम स्वामी। वही 2g और 3g घोटाले में पी चिदंबरम को किस मुकाम तक ले गया की मनमोहन सरकार हिल गयी। मोदी ने उसे वित्त मंत्री नहीं बनाया। असल में वास्तविक अर्थशास्त्री वही था, यहाँ तक की iit delhi और horward में वह प्रोफेसर तक रहा है। वित्त मंत्री अरुण जैटली को बना दिया जो की जीवन भर कॉर्पोर्टेस का वकील था। बस, मोदी ने आत्म घात करना आरम्भ कर दिया। कोंग्रेस बैठ कर हंसने लगी है, और टकटकी लगाये है की अब मोदी अपनी राजनैतिक जी लीला खुद खत्म करेंगे। उसके बाद के वैक्यूम में वह खुद ब खुद आ जायेगी।
   उधर केजरीवाल की मज़बूरी और कमी यह है की वह धन संपन्न नहीं है। और साथ ही सौरभ भाई जैसे घाघ, धूर्तता के प्रचारक भी बहुसंख्या में है देश में । वह लाख केजरीवाल को भ्रष्टाचारी साबित कर दें, मगर जनहित मंशा में धूर्तता में नहीं पकड़वा पाएंगे। याद रहे की जनता अपना प्रशासनिक हित हर युग और हर देश में पहचानती है। वह लाख गन्दी, अशिक्षित और बेवक़ूफ़ हो, मगर कुल मिला कर धूर्तता को भेद सकने में सक्षम होती है। तो केजरीवाल जम जायेंगे, मगर विस्तार नहीं कर पायेंगे। सभी वर्गो को यह व्यवस्था भी जमेगी। आखिर कर दिल्ली और मुम्बई जाने के प्रति जो गरीबों में छवि होती है, केजरीवाल उसे साकार ही करेंगे, भले ही पूरे देश में वह सुशासन न ला पाये। यह अरेंजमेंट चलेगा। आशा के दीप जलेंगे की शायद कोंग्रेस वाली केंद्र सरकार केजरीवाल से प्रतियोगिता प्रतिद्वंदिता में शायद देश भर में उसके बनाये नमूनों को पीछे चल कर ला सके।
  कुल मिला कर केजरीवाल मॉडल चल निकलेगा कुछ ख़ास और शायद शहरी , महानगरीय क्षेत्रों के लिये। भाजपा न घर की रहेगी, न घाट की। यानि, न शहर की, और न ही गाँव की। वह गौमांस और आरक्षण विरोध में आत्म घात कर गुज़रेगी।

कोंग्रेस की सफलता को सौरभ भाई जैसे घाघ और घूर्त प्रवृत्ति की आबादी सुनिश्चित करेगी, देखने में वह लोग भले ही भाजपा के समर्थक दिखें।
        अच्छा , कृष्ण भाई, अगर हम ऊपर लिखे सिद्धांत से सोचे तो समझ में आएगा की क्यों लालू प्रसाद का पतन कोंग्रेस के युग में आया, और क्यों लालू का उत्थान भाजपा के युग में आ रहा है। कारण यह है की ऊपर लिखे दो बड़े वोट कुञ्ज की गणित सर्वप्रथम देश में लालू प्रसाद ने ही पकड़ी थी। कोंग्रेस के युग में कोंग्रेस खुद दूसरा विकल्प बन कर लल्लू प्रसाद की गणित को फ़ैल कर देती है। मगर भाजपा के युग में भाजपा उस गणित में फैल हो गयी है और इसलिए लालू प्रसाद का उदय हो जायेगा। यानि एक बात और तय है-- देश की राजनाति का एक बहोत बड़ा गणितज़ लालू प्रसाद ही साबित जायेंगे। और यही सिद्धांत हमें आज कल मोदी सरकार और समाजवादी पार्टी की बढ़ती नज़दीकियों की कुछ झलक खोल कर देगा, शायद। भाजपा और नरेंद्र मोदी अंदर ही अंदर मुलायम सिंह को इस चुनावी वोट कुञ्ज सिद्धांत में उपयोगी समझ गयी है, और उसे पटाने के लिए कोशिश करेगी।
   यानि सौरभ भाई का उत्तर प्रदेश वाला दर्द बढ़ने वाला है, घटेगा नहीं। 😂

एक बात और,
भ्रष्टाचार के तार हमारे देश में जातिवाद और मुस्लमान तुष्टिकरण से कैसे जुड़े हुए है...इस बात पर गौर करें। ऊपर लिखे सिद्धांत में यह दिख जायेगा। भ्रष्टाचार को न मुस्लमान चाहता है, और न ही पिछड़ा या आरक्षित वर्ग। भ्रष्टाचार का लाभार्थी है पूंजीवादी वर्ग और राजनेता। छोटा , सरकारी पेशेवर लोगों वाला भ्रष्टाचार समस्या है ही नहीं। मूर्खदास मोदी उसे ही समस्या समझे पड़े हैं। वास्तव में सरकारी आफिस का भ्रष्टाचार तो दर्द तब देता है जब पैसा खिला कर भी काम न हो, और complain करने पर कार्यवाही भी न हो। आदमी को खलता तब है जब पैसा तो हाथ से गया ही, काम भी न हो। मुम्बई की कैम्प कोला बिल्डिंग के प्रकरण में मुझे यह अंश और सिद्धांत दिखाई पड़े हैं। बिल्डिंग निवासियों को शुरू से ही बिल्डिंग पर नियम उलंघन का मामला पता था। 1970 के युग में उन्होंने तब भी वहां घर खरीदे थे। दो कारणों से।
1) घर की आवश्यकता और मज़बूरी थी।
2) उन्हें देश में व्याप्त भ्रष्टाचार में यक़ीन था !!!! कि भ्रष्टाचार उनकी बिल्डिंग को बचा ही लेगा। मगर वह मुकद्दमा हार गए। मगर फिर राजनैतिक भ्रष्टाचार ने उन्हें बचाया, जो की सरकारी भ्रष्टाचार असफल हो गया था।
   सरकारी भ्रष्टाचार का बड़ा संरक्षक है राजनैतिक भ्रष्टाचार।
राजनैतिक भ्रष्टाचार होता है नेता और पूंजीवादी की मिली भगत में। सरकारी कर्मचारी इसे पकड़ने के लिए कर्तव्य बद्ध होता है। मगर वह भ्रष्टाचार करके उसे होने देता है, बदले में अपना हिस्सा लेता है, और बाकी सरकारी मुलाज़िमो के लिए सरकारी भ्रष्टाचार करने की छूट निकलवाता है राजनेताओं से।
   तो दोनों भ्रष्टाचारों की symbiotic रिश्तेदारी यूं बंधी है।
यहाँ जनता को डंडा चलाने का मौका देती है जनहित याचिका और सूचना का अधिकार। मज़े की बात है की यह दोनों भी कांग्रेस ही लायी थी। भाजपा के राज्यों में तो rti कार्यकर्ताओं की हत्या हो रही है, pil को ख़ारिज किया जाता है। न्यायपालिका में घुसपैठ करवाई गयी है।
   मोदी युग में ब्यूरोक्रेसी को pmo ने कड़ा नियंत्रण पर रखा है। काफी सारे बड़े पद के ब्यूरोक्रेट को निकाल दिया गया है। विदेश सचिव सुजाता सिंह, और iit mumbai प्रमुख। अब आप सोचेगे की pmo अच्छा काम कर रहा है ब्यूरोक्रेसी को बाँध कर। मैं कहूँगा की वह भ्रष्टाचार के symbiotic रिश्तेदारी को तोड़ रहा है सिर्फ अपने लोगों तक अवैध फायदा सीमित रखने के लिए। सरकारी पेशेवरों का बड़ा वर्ग भाजपा और मोदी से नाराज़ है। मोदी सूधार नहीं कर रहा है, बल्कि फायेदे के बंटवारे में हिस्सेदारी समेट रहा है।

अशुद्ध अंतर्मन के व्यवहारिक उत्पाद-- तर्क भ्रम, पाखण्ड और धूर्त न्याय तथा निर्णय

एक यह प्रश्न भी अन्वेषण का शीर्ष होना चाहिए की लोग तर्क भ्रम से ग्रस्त क्यों होते है।

   शायद अंतर्मन का शुद्ध न होना सबसे बड़ा कारण है की लोग आसानी से तर्कभ्रम (fallacies) के शिकार हो जाते है। अंतर्मन शुद्ध नहीं होने का अभिप्राय है की मापदंड स्थिर नहीं है , वह किसी आदर्श और किसी निश्चित सिद्धांत की दिशा में प्रतिबद्ध नहीं है।
जहाज़ी की भाषा में समझे तो दिमाग का कॉम्पस भटका हुआ है।
   मनोविज्ञान के किसी लेख में मैंने पढ़ा था की अंतर्मन (conscience) के विकास के लक्षणों में मनुष्य अपने जीवन में किसी व्यवस्था को तलाशने लगता है। इस व्यवस्था की स्थापना के लिए वह आदर्श और सिद्धांत को तलाशता है, जीवन में अस्त व्यस्त आचरणों को समाप्त करने का प्रयास करता है। आदिकाल युग में वनमानस से ग्राम वासी होने की क्रमिक विकास में मानव अंतर्मन ही वह केंद्रीय स्थान (Control room) था जिसने इस विकास को संचालित किया था। वन मानव चलित और अस्थिर लोग थे जो की निरंतर जल और भोजन के लिए पद गमन करते रहते थे। यह अंतर्मन में व्यवस्था तलाशने की भावना ही थी की आरंभिक ग्रामों की स्थापना हुई- जल स्रोतों के नज़दीक और भोजन के स्रोत शिकार से परिवर्तित हो कर खेती बने।
  तो अंतर्मन में यदि व्यवस्था (अस्त व्यस्त जीवन से मुक्ति) प्राप्त करने की चेष्टा नष्ट हो जाये तो इंसान वापस जंगली बन सकता है। व्यवस्था के दौरान मनुष्य 'कार्य विधि'(method) पर बल देने लगता है। कार्यविधि के निर्माण में शुद्धता की आवश्यकता पड़ती है। यहाँ स्वच्छता और पवित्रता सब ही शमलित है। अब पवित्रता क्यों ??
  --अंतर्मन की शुद्धता अत्यधिक घृणा या अत्यधिक मोह से भी नष्ट हो सकती है क्योंकि तब मनुष्य स्थिर आदर्श तलाशने से भटक जाता है।
   शुद्ध अंतर्मन किसी कर्म को आदर्श क्रियाओं या विधि के अनुसार नहीं करे जाने पर विलाप करता है। उसे अन्तर्विलाप (guilt) कहते हैं। जो कर्म विधि के बहोत ही विपरीत हो, समाज की व्यवस्था को भंग करने का बल रखते हों, अंतर्मन उन्हें *अपराध (crime)* की श्रेणि देता है। वैज्ञानिक वर्ग में अभी तक मनुष्य में अपराध के स्वःज्ञान का बीज यही से उत्पन्न माना गया है। वर्तमान कानूनो में इसे cognizable offence कहते है- यानि वह कर्म जो की शुद्ध अंतर्मन से प्राप्त ज्ञान से ही अपराध होने का बोध देते हो।
   शायद आरंभिक ग्राम वासी मनुष्य अंतर्मन के इन गुणों से अधिक ज्ञानी था इसलिए उसने घृणा या मोह में किये कर्म पर प्रायश्चित और पश्चाताप को धर्म बनाया। अन्तर्विलाप विधि के विरुद्ध किये कर्म से अशुद्ध हुए अंतर्मन को वापस शुद्ध बनाता है।
    विधि किसी भी कर्म को करने में प्रयोग होने वाली क्रियाओं को कहते है जिनसे आदर्शता के समीप पंहुचा जा सके।
  तो तर्कभ्रम से मुक्ति प्राप्त करनी है तो सर्वप्रथम अंतर्मन शुद्ध करने के प्रयासों को बलवान करना होगा।यानि मोह अथवा घृणा पर आत्मनियंत्रण करना होगा (=मन पवित्र करना होगा)। अगर आर्यों के वैदिक धर्म, या आधुनिक शब्दों में पुकारे जाने वाले हिन्दू धर्म की वाकई में संरक्षण करना है तो अंतर्मन को शुद्ध करने के प्रयासों को प्रबल बनवाना होगा। आर्य विद्या के भोगी थे, ज्ञान को तलाशते थे। ज्ञान उचित निर्णय और न्याय करने के कार्य में उपयोग होता है। उचित न्याय की आवश्यकता अंतर्मन को शुद्ध बनाये रखने के लिए होती है। अशुद्ध मन का न्याय अपराध और निष्-अपराध में गलतियां करता है। यो कहे कि मोह अथवा घृणा से पीड़ित मन अशुद्ध होता है और ऐसे कर्मो को घटित करता है जिनसे वह स्वयं भी अपराधिक बन जाता है।
    अब अगर अंतर्मन शुद्ध नहीं होगा तब आप तर्कभ्रम से तो पीड़ित रहेंगे ही, आप धूर्त न्याय और आचरण की संगत में भी पड़ जायेगे। क्योंकि आप किसी निश्चित आदर्श और सिद्धांत की दिशा में प्रतिबद्ध नहीं होंगे। हिन्दू धर्म की असफलता का कारक आपके अंदर से ही व्यापत हो जायेगा।

सर्वत्र बुद्धू

कल्पनाओं के देश 'अंधेर नगरी' में पूंजीवादी ऐश काट रहे थे। वहां 'चोन्ग्रेस' नाम के राजनैतिक दल सत्ता में था और जनता को अंधेरे में रख कर राजकोष और राष्ट्रिय सम्पदा को पूँजीवादियों के हाथों बेचे जा रहा था। कुछ गैर-सरकारी एक्टिविस्ट , खेजरीवाल ,अंधकार से लड़ने के लिए सूचना का कानून जैसी नीतियों के लिए संघर्ष कर रहे थे।
   तो चोन्ग्रेस सरकार पूंजीपतियों के साथ मिली-भगत में खा-पी भी रही थी, और जनता में पकड़ बनाये रखने के लिए खेजरीवाल जैसे एक्टिविस्टों को बढ़ावा भी देती थी। भाई वोट जनता का था, और पैसा पूंजीपतियों का। अंधेर नगरी के बुद्धू जनता आखिर रहेंगे बुद्धू के बुद्धू ही। जनता को बुद्धू बनाने वाले चोन्ग्रेसि असल में खुद भी बुद्धू की जात ही थे और अनजाने में सूचना कानून को पारित कर बैठे। और ऊपर से उस कानून को लाने की वाहवाही भी लूटने में लगे थे। टीवी,रेडियो सब जगह प्रचार करवाते घूम रहे थे।
   सुसु स्वामी जैसे कुछ वकीलि राजनेता ने सूचना कानून का सहारा लेकर पूंजीपतियों और चोन्ग्रेस की मिलीभगत के घोटाले पकड़ लिए। मामला सर्वोच्च न्यायलय तक गया और पूंजीपति यह सब मामले हार गए। पूंजीपति वर्ग में सारा दोष चोन्ग्रेस के दोहरे खेल का माना गया। अगर खुद भी खाती थी तब फिर सूचना कानून लाने की क्या ज़रुरत थी ?
  मगर अब क्या ?
चोन्ग्रेस को सजा दो। चोन्ग्रेस की हिम्मत कैसे हुई कि व्यापारी वर्ग से ही "धंधा"  करेगी। अभी सबक सिखाते हैं।
कैसे ?
    चोन्ग्रेस को अल्पसंखाओं का तुष्टिकरण में फँसाओं। चोन्ग्रेस यह तो थोडा बहोत  करती आ ही रही थी।  बस इसको वही फसाओ। और उधर 'चाभपा' में अपने आदमी को आगे बढ़ा कर तैनात कर दो अगला प्रधानमंत्री बनने के लिए।
   पढ़े-लिखे IIT पास पर्रिकर, पुराने नेता अडवाणी, ज्यादा सुशासन प्रमाणित नितीश जैसे को पछाड़ कर एक अनपढ़, चाय बेचने वाला, दंगाई, सरकारी तंत्रों का दुरपयोग और निजी भोग करने वाला 'भोन्दु' चाभपा का नेता बन गया।
  इधर सुसु स्वामी भी बुद्धू के बुद्धू निकले। समाजवादी प्रदेश के समाजवादी यादव को बच्चा बुलाने वाले सुसु स्वामी खुद भी बुद्ध निकले और भोन्दु को चुनावी समर्थन दे बैठे। भोन्दु ने उनको वित्त मंत्री बनाने का झांसा दिया था।
  वरिष्ट अभिवक्ता राम मालिनी भी उल्लू बनाये गए। वह चोन्ग्रेस के घपलों को पहले से ही जानते थे इसलिए उनको भी लगा की भोन्दु प्रधानमंत्री बनेगा तब अंधेर नगरी में सुधार आएगा।
   चुनाव हुए, और चोन्ग्रेस के घोटालों से त्रस्त जनता ने भोन्दु के पीछे बैठे पूंजीपन्तियों को अनदेखा कर, सुसु स्वामी और राम मालानी के कहने पर भोन्दु को ही भोट दे कर जीता दिया। बहोत सी बुद्धू जनता अल्पसंख्यकों की घृणा में भोन्दु को भोट दे आयी क्योंकि भोन्दु की पहचान ऐसे दंगो से ही थी। उसके जीवन की असल उपलब्धि बस यही एक तो थी। बाकी वह मॉडल तो प्रचार और विज्ञापन का छल था। चुनावों के बाद में 'सोहार्दिक पटेल' ने उसकी भी पोल उधेड़ दी थी।
    भोन्दु ने सब हाँ-हाँ करके सारे कर्म ठीक उल्टे, ना-ना वाले करे। सबसे पहले तो सूचना कानून को लगाम में लिया। और घृणा रोग से पीड़ित अपने समर्थकों से विकास के नाम पर बुद्धू बना कर असल मंशाओं को ढक लिया।
   सुसु स्वामी का तूतिया कट गया था। भोन्दु ने उन्हें कोई मंत्री तक नहीं बनाया। कैसे बनाता। पिछली चोन्ग्रेस सरकार में सुसु ने ही तो इन्ही पूंजीपन्तियों को झेलाया था। वही तो भोन्दु के असल आका थे। वित्त मंत्री भोन्दु ने इन्ही पुंजिपन्तियों के वकील 'भरून जैटली' को बनाया।  राम मालिनी ने तो सार्वजनिक तौर पर मान लिया की भोन्दु ने उनको बुद्धू बना दिया है। और सुसु ने भी टीवी इंटरव्यू में मान लिया वह वित्त मंत्री बनने के झांसे में बुद्धू बना दिए गए हैं।

   अंधेर नगरी का नामकरण बिना कारणों से नहीं था,भई। यहाँ सभी बुद्धू बनाये गए है। पूंजीपन्तियों को सुसु स्वामी ने। सुसु ने समाजवादी यादव को बच्चा बुद्धू बनाया। अमूल गांधी को बुद्धू बकते थे। बुद्धू जनता ने सुसु से बुद्धू बन कर भोन्दु को प्रधानमंत्री बनाया। भोन्दु तो पूंजीपन्तियों का चिंटू है ही। उसने सुसु को ही बुद्धू बना दिया। हो गया 'बुद्धू चक्र' पूरा। किसने किसको बुद्धू बनाया , कुछ पता नहीं मगर बुद्धू सभी कोई बना है। हो गया अंधेर नगरी नाम सिद्ध।
   और जो सब समझ रहे हैं वह अंधेर नगरी वासी होने की बुद्धू गिरी में नित दिन बुद्धू बन रहे हैं।

Exploring the legal technicality on how a beef meat prohibition can be adopted in a secular state

(reference : Justice markandey katju's fb post DTD 16th Oct)
Justice Katju surely makes sense.

However I will want him to throw some light on the remedies availble within our civil laws to disputes such as these. I think that despite being a secular country, it is possible for anyone to adopt a civil law stipulated prohibition on any commodity in order to avoid hurting the feelings of a large group. In Ireland, the ban on Abortion in surely not in keeping with any of the scientific rationale known to mankind. Thus,  such a ban ,under the pretext of Right to Life, is only serving the religious viewpoints of the majoritarian group. Indeed a few years ago one woman of Indian nationality fell victim Justice Katju surely makes sense.

However I will want him to throw some light on the remedies availble within our civil laws to disputes such as these. I think that despite being a secular country, it is possible for anyone to adopt a civil law stipulated prohibition on any commodity in order to avoid hurting the feelings of a large group. In Ireland, the ban on Abortion in surely not in keeping with any of the scientific rationale known to mankind. Thus,  such a ban ,under the pretext of Right to Life, is only serving the religious viewpoints of the majoritarian group. Indeed a few years ago one woman of Indian nationality fell victim of this irrational law in Ireland when the doctors denied her an abortion which had become essential in order to save her life.
    The rationale which i wish to bring forth is that despite not in keeping with any scientific rationale, it may still serve certain purposes to adopt and promote certain practises of faith for they nurture certain human values within us. The practices may vary across various cultures but their intrinsic aim would remain the same.
   As the way it has been put in place already, by a mutual agreement it is possible to legislate a prohibition of certain kind. The key point would be that the retributions for violations of such a law should be kept restrained to monetary penalties or a  small term, mild, incarceration. Such a fine must be ensured to be coming only through a lawful institution and also that the law enforcement must ensure to save the majoritarian group from taking law into its own hands. of this irrational law in Ireland when the doctors denied her an abortion which had become essential in order to save her life.
    The rationale which i wish to bring forth is that despite not in keeping with any scientific rationale, it may still serve certain purposes to adopt and promote certain practises of faith for they nurture certain human values within us. The practices may vary across various cultures but their intrinsic aim would remain the same.
   As the way it has been put in place already, by a mutual agreement it is possible to legislate a prohibition of certain kind. The key point would be that the retributions for violations of such a law should be kept restrained to monetary penalties or a  small term, mild, incarceration. Such a fine must be ensured to be coming only through a lawful institution and also that the law enforcement must ensure to save the majoritarian group from taking law into its own hands.

समान नागरिक आचार संहिता से सम्बंधित अवधारणाएं

समान नागरिक आचार संहिता (Uniform Civil Code) के प्रति कुछ अवधारणायें बनायीं जा रही है।
  सर्वप्रथम, की इसे सेकुलरिज्म की बुनियादी आवश्यकता बताया जा रहा है। आश्चर्यजनक तौर पर ऐसे बोलने वाले कोई और नहीं बल्कि वह लोग है जो गौमांस भोजन पर प्रतिबन्ध की मांग करते घूम रहे हैं !!! सेकुलरिज्म का सम्बन्ध वैज्ञानिक विचारशीलता से है। और वैज्ञानिक विचारशीलता में गौमांस पर प्रतिबन्ध का कोई कारण उपलब्ध नहीं है। जबकि कुकुर(कुत्ता) और अश्व(घोड़ा) के मांस भक्षण के लिए है। तो ucc की बात करने वाले मूर्ख लोग है जो की खुद ही सेक्युलरिस्ट नहीं है, और साथ ही साथ भ्रम फैला कर कपटी तर्क दे रहे हैं की यदि अमेरिका में कुत्ते और घोड़े का मांस पर प्रतिबन्ध हो सकता है तब भारत में गौ मांस पर क्यों नहीं !! तो सच मायनों में ucc की बात करने का षड्यंत्रिय कारण शायद बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने का है, क्योंकि फिर बहुसंख्य किसी एक विशेष धर्म के पालनकर्ता है।
   दूसरा, कि सेकुलरिज्म का अर्थ में सांस्कृतिक विविधता या धारणाओं का अंत कतई नहीं है। ucc के लाभ में यह गिनाया जा रहा है की कैसे ucc के आने से समाज का सञ्चालन और जन प्रशासन आसान हो जायेगा। जबकि सच यह है की मनुष्य के जीवन उत्साह का कोई स्पष्ट कारण तो आज तक कोई जान ही नहीं सका है। इसलिए ucc के माध्यम से विविधता का नष्ट हो जाना असल में ucc का दुर्गुण है, क्योंकि तब नागरिक अपने आप में फिर से एक कपट-सेकुलरिज्म का गुलाम बना दिया जायेगा जैसा की अतीत में चर्च और पादरियों, पंडितों और ब्राह्मणों का सेवक बन गया था। यानि,ucc असल मायनों में सेकुलरिज्म का नाम ले कर मूल सेकुलरिज्म को ही हानि पहुंचाएगा।
     तीसरा, जिन धार्मिक मान्यताओं को अस्वीकार कर देने का कोई सीधा वैज्ञानिक कारण उपलब्ध नहीं है, उन्हें आज भी सभी सेक्युलरिस्ट देशों में निभाने की स्वतंत्रता उपलब्ध है। यानि, अपने जीवन में शादी की रस्में, मृत्यु संस्कार, जन्म संस्कार, तलाक प्रक्रिया इत्यादि सभी धर्मों को अपने अपने अनुसार पालन करने की आज़ादी आज भी उपलब्ध है। बस, वैधानिक प्रक्रियों को एक अंश और जुड़ गया है, और वह भी इस स्वाभाविक कारणों से की आज के स्वतंत्र नागरिक का सम्बन्ध अपनी सरकार और विश्व के दूसरे देशो से सम्बन्ध किसी न किसी अनुबंध पर ही आधारित है। उस अनुबंध के पालन के लिए आवश्यक पंजीकरण और दस्तवेज़ सभी नागरिकों को एक समान वैधानिक प्रक्रिया पर निर्मित है। वैसा भारत में भी है। अन्यथा अपने अपने धार्मिक मान्यताओं का पालन की स्वतंत्रता सभी को है।

बौद्धिक कपट का श्राप है हमारे समाज पर

Mass ignorance and unawareness is not the bane on this country..
it is the INTELLECTUAL DISHONESTY which is the curse on our society

अशिक्षा और सामाजिक अबोधता हमारे समाज का दोष नहीं है..
असल श्राप तो बौद्धिक कपट है जिससे हमारा समाज पीड़ित है।

जस्टिस मार्कंडेय काट्जू अपने फेसबुक के एक लेख में वर्तमान भारत में हो रही सोशल मीडिया क्रांति में बौद्धिजीवियों की भूमिका का विषय उठाते हुए बताते है की कैसे अतीत में फ्रांस की क्रांति से पहले बेर्तण्ड रुस्सेल जैसे लेखको ने अपने लेखों के माध्यम से उस क्रांति के के परिणाम को प्रभावित किया और फ्रांस को सामंतवाद से मुक्ति दिल का एक समान अधिकार वादी समाज दिया। फ्रांस की क्रांति की सीख - लिबर्टी (स्वतंत्रता), इक्वलिटी( परस्परता), फ्रटर्निटी (भाईचारा) - ऐसे बुद्धिजीवियों के लेखों का परिणाम थी। जस्टिस काटजू का मनना है की वर्तमान भारत को भी ऐसे ही बुद्धिजीवियों की आवश्यकता आन पड़ी है जो की सोशल मीडिया के माध्यम से आ रहे बदलाव और उथल पुथल में हमारे देश को नया मार्ग सूझ सकें।
    वर्तमान भारतीय समाज दोगले पन वाला, पाखण्ड वाला, "थूक कर चाटने" वाला समाज है। हम सब इसकी निंदा करने के व्यसन से पीड़ित हो गए है, मगर इसके कारणों की समीक्षा बहोत कम ही लोग कर रहे हैं। शायद यह हमें नए सिरे से बुद्धिजीवी भूमिक अदा कर सकने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता होगी जो की समाज को कुछ नए सर्वसम्मत आदर्श और सिद्धांत दे सके जिनको हम आम सहमति का मापदंड में स्वीकार करे। तभी हम अपनी सामाजिक पाखण्ड से मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे और अपने सर्वदा दोष निकालने के व्यसन से निजात भी।
   वर्तमान के बुद्धिजीव असल में अभी भी कपट के दोष से पीड़ित है। वह किसी एक दोष तो निकाल देते हैं, मगर फिर खुद भी किसी अन्य रूप में उसी दोष को दोहरा रहे होते हैं। इनकी आलोचनाओं का सार बस इनकी खुद की पसंद और खुद की मर्ज़ी चलाने का मार्ग बनाने का होता है। जो गलत हो रहा होता है, वह वैसा का वैसा ही गलत ज़ारी रहता है, बस पीड़ित और सितमगर के पात्र बदल जाते हैं। तो एक तरह से वर्तमान के बद्धिजीवि एक प्रकार का कपट कर गुज़रते है हमारी विशाल अशिक्षित आबादी के साथ। एक धूर्तता, जो की प्रत्येक आलोचल का मुख्य चरित्र दोष बन कर सामने आने लगा है।

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