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Showing posts from October, 2015

क्यों मोदी सरकार और आरएसएस का यह प्रयोग असफल हो जायेगा ?

मुझे लगता है की कांग्रेस वापस आ रही है...भाजपा और मोदी जी इस गणित में पूरी तरह हार गए हैं। मेरी गणना में 2019 चुनाव तो क्या 2024 में भी कोंग्रेस का आना तय है। मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी बदस्तूर चालू रहे, बस।    यह देश छोटे छोटे वर्गों में बंटा है। कई सारी छोटी क्षेत्रीय पार्टियां इस पर राज करती हैं। उन छोटी पार्टियों में ज्यादा कुछ एक दूसरे से सम्बन्ध बनाने के लिए common नहीं है। और जो कुछ है, वह कांग्रेस ही संभाल सकती है । दो सबसे बड़ी वोट कुञ्ज हैं 1) मुसलमानो को सुख शांति और भागीदारी 2) आरक्षित और पिछड़ा वर्ग को हिस्सेदारी। भाजपा ने दोनों पर ही आत्म घात कर लिया है 1) मुस्लमान विरोधी है 2) आरक्षण विरोधी है। यानि की भाजपा ने अपने ही गोल में गोल दाग दिए हैं। हिट विकेट आउट हो गयी है। मोदी और भाजपा की सरकार ने यह सबक लेने में बहोत देर लगा दी है। मोदी शासन में आरएसएस की छवि एक जाति ब्राह्मणवादी संस्था के रूप में तो स्थापित हुई ही है, जो की माड़वाड़ियों और बनियों के समर्थन में एक दम निर्लज है। धूर्तता , यानि अस्थिर न्यायायिक मापदंड का गुण हमेशा से जाति वादी ब्राह्मणों और बनियों/माड़वाड़ि

अशुद्ध अंतर्मन के व्यवहारिक उत्पाद-- तर्क भ्रम, पाखण्ड और धूर्त न्याय तथा निर्णय

एक यह प्रश्न भी अन्वेषण का शीर्ष होना चाहिए की लोग तर्क भ्रम से ग्रस्त क्यों होते है।    शायद अंतर्मन का शुद्ध न होना सबसे बड़ा कारण है की लोग आसानी से तर्कभ्रम (fallacies) के शिकार हो जाते है। अंतर्मन शुद्ध नहीं होने का अभिप्राय है की मापदंड स्थिर नहीं है , वह किसी आदर्श और किसी निश्चित सिद्धांत की दिशा में प्रतिबद्ध नहीं है। जहाज़ी की भाषा में समझे तो दिमाग का कॉम्पस भटका हुआ है।    मनोविज्ञान के किसी लेख में मैंने पढ़ा था की अंतर्मन (conscience) के विकास के लक्षणों में मनुष्य अपने जीवन में किसी व्यवस्था को तलाशने लगता है। इस व्यवस्था की स्थापना के लिए वह आदर्श और सिद्धांत को तलाशता है, जीवन में अस्त व्यस्त आचरणों को समाप्त करने का प्रयास करता है। आदिकाल युग में वनमानस से ग्राम वासी होने की क्रमिक विकास में मानव अंतर्मन ही वह केंद्रीय स्थान (Control room) था जिसने इस विकास को संचालित किया था। वन मानव चलित और अस्थिर लोग थे जो की निरंतर जल और भोजन के लिए पद गमन करते रहते थे। यह अंतर्मन में व्यवस्था तलाशने की भावना ही थी की आरंभिक ग्रामों की स्थापना हुई- जल स्रोतों के नज़दीक और भोजन क

सर्वत्र बुद्धू

कल्पनाओं के देश 'अंधेर नगरी' में पूंजीवादी ऐश काट रहे थे। वहां 'चोन्ग्रेस' नाम के राजनैतिक दल सत्ता में था और जनता को अंधेरे में रख कर राजकोष और राष्ट्रिय सम्पदा को पूँजीवादियों के हाथों बेचे जा रहा था। कुछ गैर-सरकारी एक्टिविस्ट , खेजरीवाल ,अंधकार से लड़ने के लिए सूचना का कानून जैसी नीतियों के लिए संघर्ष कर रहे थे।    तो चोन्ग्रेस सरकार पूंजीपतियों के साथ मिली-भगत में खा-पी भी रही थी, और जनता में पकड़ बनाये रखने के लिए खेजरीवाल जैसे एक्टिविस्टों को बढ़ावा भी देती थी। भाई वोट जनता का था, और पैसा पूंजीपतियों का। अंधेर नगरी के बुद्धू जनता आखिर रहेंगे बुद्धू के बुद्धू ही। जनता को बुद्धू बनाने वाले चोन्ग्रेसि असल में खुद भी बुद्धू की जात ही थे और अनजाने में सूचना कानून को पारित कर बैठे। और ऊपर से उस कानून को लाने की वाहवाही भी लूटने में लगे थे। टीवी,रेडियो सब जगह प्रचार करवाते घूम रहे थे।    सुसु स्वामी जैसे कुछ वकीलि राजनेता ने सूचना कानून का सहारा लेकर पूंजीपतियों और चोन्ग्रेस की मिलीभगत के घोटाले पकड़ लिए। मामला सर्वोच्च न्यायलय तक गया और पूंजीपति यह सब मामले हार गए। पूंजीप

Exploring the legal technicality on how a beef meat prohibition can be adopted in a secular state

(reference : Justice markandey katju's fb post DTD 16th Oct) Justice Katju surely makes sense. However I will want him to throw some light on the remedies availble within our civil laws to disputes such as these. I think that despite being a secular country, it is possible for anyone to adopt a civil law stipulated prohibition on any commodity in order to avoid hurting the feelings of a large group. In Ireland, the ban on Abortion in surely not in keeping with any of the scientific rationale known to mankind. Thus,  such a ban ,under the pretext of Right to Life, is only serving the religious viewpoints of the majoritarian group. Indeed a few years ago one woman of Indian nationality fell victim Justice Katju surely makes sense. However I will want him to throw some light on the remedies availble within our civil laws to disputes such as these. I think that despite being a secular country, it is possible for anyone to adopt a civil law stipulated prohibition on any commodity in

समान नागरिक आचार संहिता से सम्बंधित अवधारणाएं

समान नागरिक आचार संहिता (Uniform Civil Code) के प्रति कुछ अवधारणायें बनायीं जा रही है।   सर्वप्रथम, की इसे सेकुलरिज्म की बुनियादी आवश्यकता बताया जा रहा है। आश्चर्यजनक तौर पर ऐसे बोलने वाले कोई और नहीं बल्कि वह लोग है जो गौमांस भोजन पर प्रतिबन्ध की मांग करते घूम रहे हैं !!! सेकुलरिज्म का सम्बन्ध वैज्ञानिक विचारशीलता से है। और वैज्ञानिक विचारशीलता में गौमांस पर प्रतिबन्ध का कोई कारण उपलब्ध नहीं है। जबकि कुकुर(कुत्ता) और अश्व(घोड़ा) के मांस भक्षण के लिए है। तो ucc की बात करने वाले मूर्ख लोग है जो की खुद ही सेक्युलरिस्ट नहीं है, और साथ ही साथ भ्रम फैला कर कपटी तर्क दे रहे हैं की यदि अमेरिका में कुत्ते और घोड़े का मांस पर प्रतिबन्ध हो सकता है तब भारत में गौ मांस पर क्यों नहीं !! तो सच मायनों में ucc की बात करने का षड्यंत्रिय कारण शायद बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने का है, क्योंकि फिर बहुसंख्य किसी एक विशेष धर्म के पालनकर्ता है।    दूसरा, कि सेकुलरिज्म का अर्थ में सांस्कृतिक विविधता या धारणाओं का अंत कतई नहीं है। ucc के लाभ में यह गिनाया जा रहा है की कैसे ucc के आने से समाज का सञ्चालन और जन प्रश

बौद्धिक कपट का श्राप है हमारे समाज पर

Mass ignorance and unawareness is not the bane on this country.. it is the INTELLECTUAL DISHONESTY which is the curse on our society अशिक्षा और सामाजिक अबोधता हमारे समाज का दोष नहीं है.. असल श्राप तो बौद्धिक कपट है जिससे हमारा समाज पीड़ित है। जस्टिस मार्कंडेय काट्जू अपने फेसबुक के एक लेख में वर्तमान भारत में हो रही सोशल मीडिया क्रांति में बौद्धिजीवियों की भूमिका का विषय उठाते हुए बताते है की कैसे अतीत में फ्रांस की क्रांति से पहले बेर्तण्ड रुस्सेल जैसे लेखको ने अपने लेखों के माध्यम से उस क्रांति के के परिणाम को प्रभावित किया और फ्रांस को सामंतवाद से मुक्ति दिल का एक समान अधिकार वादी समाज दिया। फ्रांस की क्रांति की सीख - लिबर्टी (स्वतंत्रता), इक्वलिटी( परस्परता), फ्रटर्निटी (भाईचारा) - ऐसे बुद्धिजीवियों के लेखों का परिणाम थी। जस्टिस काटजू का मनना है की वर्तमान भारत को भी ऐसे ही बुद्धिजीवियों की आवश्यकता आन पड़ी है जो की सोशल मीडिया के माध्यम से आ रहे बदलाव और उथल पुथल में हमारे देश को नया मार्ग सूझ सकें।     वर्तमान भारतीय समाज दोगले पन वाला, पाखण्ड वाला, "थूक कर चाटने" व