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वैचारिक मतभेद से अपने ही देश बंधुओं को देशद्रोही और गद्दार केह देना उचित नही है

संघ कि शिक्षा यही रही है कि इतिहास में यह देश हमेशा इसलिये पराजित हुआ है क्योंकि इसमे गद्दार बहोत हुए हैं।

संघ मूर्खीयत का मुख्यालय है इस देश में !

गद्दारी को नापने वाला thermometer नही होता है। किसी को बेवजह गद्दार घोषित करके आप अपने ही बंधु से अपनी सहयोगी सम्बद्ध विच्छेद कर देते हैं। और फिर कमज़ोर, अलग थलग हुए , अपनी पराजय को सुनिश्चित कर देते है। 

समाज में सत्य और न्याय की आवश्यकता इन्हीं दिनों के मद्देनज़र आवश्यक मानी गयी थी। अब जब आपने न्यायिक संस्थाओं के संग छेड़छाड़ करि है, ज़ाहिर है आपने नासमझी करि है, तो समय है अपने मन में गलतियों से रूबरू होने का।
दूसरे बंधु को गद्दार घोषित करके अंदरूनी चुनाव तो जीत सकते हो,
मगर दुश्मन से युध्द नही जीत सकते हो।

अहंकार और सत्यवाचकों को अनसुना करने का आचरण

चुनाव जीतने के लिए सामाजिक चितंन तक को खोखला कर देने से परहेज़ नही किया था।।
तो अब आत्ममुग्धता के पीड़ित आदमी से बौद्धिकता की अपेक्षा कैसे करि जा सकती है? तब भी सत्यवाचकों ने चेतवानी दी थी की संस्थओं के संग छेड़खानी राष्ट्र निर्माण के कार्य में महंगी कीमत पड़ेगी, तुम चुनाव जीतने की छोटी उपलब्धि तो प्राप्त कर लो गे, मगर दीर्घकाल में समाज में से एकता को नष्ट कर दोगे।

मगर आत्ममुग्धता से ग्रस्त इंसान सत्यवाचकों की ध्वनि को सुनता ही कहां है ?!

अहंकारी विधियों से आप भीतरी चुनाव तो जीत सकते है, बाहरी आक्रमणकारी से राष्ट्र की रक्षा नही कर सकते हैं

अहंकारी की पहचान क्या है?
वह आज के हालात में भी अपने ही देशवासियों को एकजुट हो जाने का आह्वाहन नही कर सकता है, क्योंकि बीते कल में इसी मुँह से उसने देशवासियों को अपने-पराये की दीवार से खुद ही तो बांटा था।
अहंकारी आदमी team नही बना सकते है। दुनिया की सबसे mighty पार्टी हो कर भी छोटी से, नयी नवेली दो दिन पार्टी से मिली पराजय , वो भी 63/70 के साथ - ऐसा परिणाम वही राम-रावण युद्ध वाली स्थति का सूचक है- की पार्टी भले ही mighty बनाई हो, मगर वो भीतर से खोखली है -क्योंकि वह अहंकारी प्रक्रियाओं और विधियों से प्राप्त करि गयी थी। ऐसी उपलब्धि समाज में अपने-पराये की दीवार बना कर प्राप्त हुई है,  ये उपलब्धि राष्ट्रीय एकता की आहुति दे कर बनाई गयी है।

रावण को अभिमान की कीमत अपने ही परिवार, अपने समाज और अपने देश का विध्वंस करके देना पड़ा था।

रावण ने राम-भक्त विभीषण से अपने मतभेद को देशद्रोह और राज द्रोह करके पुकारा था

रावण भी शायद यूँ ही युद्ध भूमि की वास्तविक स्तिथि से मुंह फेरे हुए था, 43 की संख्या पकड़ कर के, जबकि इनकी पुष्टि का कोई संसाधन नही था।

विश्वास क्या होता है,-इस सवाल के प्रति आस्तिकता और नास्तिकता का स्वभाव आड़े आ ही जाता है। भक्तगण विश्वास को भावना समझते हैं,
Liberals को प्रमाण चाहिए ही होता है, सत्य को जानने की चेष्टा रहती है ताकि उचित निर्णय लिया जा सके, आज़ादी चाहिए होती है सवाल पूछने की और खुद से जाकर जांच कर सकने की।

राम और रावण के युद्ध से यही सबक मिला था। रावण सोने की अमीर लंका का राजा हो कर भी बानरों से बनी सेना से परास्त हुआ था, क्योंकि राम में बानरों का "विश्वास" था । वह इसलिये की राम असत्य नही बोलते थे, संवाद और प्रश्न उत्तर के लिए प्रस्तुत रहते थे, सब को संग ले कर चलते थे , team बनाना जानते थे। 

अहंकार ही इंसान को भीतर से ही परास्त कर देता है। अहंकारी team नही बना सकते, धर्म और मर्यादा का पालम नही कर सकते हैं, असत्य बोलते हैं, तथ्यों को अपने ही लोगों से छिपाते हैं, अपने ही लोगों को गुमराह करते हैं , सर्वसम्मति के निर्णय नही ले सकते हैं।

अहंकारी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को गद्दार , देशद्रोही घोषित करते हैं

अहंकार से ग्रस्त इंसान, अब देशवासियों को एकजुट हो जाने के आह्वाहन से डर रहा है, कि सवाल उठेंगे की यह कैसे तय होगा की देशवासी कौन-कौन है? - आधार कार्ड से, या CAA प्रमाणपत्र से, NPR प्रमाणपत्र से, PAN कार्ड से, पासपोर्ट से, - कैसे?

अहंकारी के पास और कोई चारा नही है, सिवाए की लोगों को गद्दार होने का अपमान करके उन्हें उकसाये ताकी वह संग आ सकें।

अहंकारी की सभी विधियां तिरस्कार और अपमान से ही तो जाती है। जब विजयी थे -तब अपमान किया, और अब जब पराजय का संकट है - तब भी अपमान कर रहे हैं।

समझ में आ जाना चाहिए क्यों हर एक आक्रमणकारी ने देश को रौंदा था।

भक्तों को सत्य के स्थापना का सामाजिक , राष्ट्रीय महत्व नही मालूम है

सत्य प्रमाण से ही साबित होता है, यह अलग बात है सत्य के अन्वेषण की प्रक्रिया dialecticals के सिद्धान्त के अनुसार thesis और anti thesis के अनगिनत चक्र पर चलती है।

आपसी विश्वास प्राप्त करने में सत्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, इसलिये समझदार इंसान सत्य से छेड़छाड़ नही करते है। बल्कि सत्य की स्थापना में सहयोग देते हैं।

भक्ति में सत्य का कोई महत्व नही होता है।  भक्ति तो केवल मन के भावना में से निकल आती है। इसमे प्रक्ष उत्तर नही किये जाते हैं। वैज्ञानिक चिंतन नही होता है, विश्लेषण नही होता है - और फिर स्वाभाविक तौर पर - शोध और अविष्कार भी नही होता है।

भक्ति केवल मन की शांति देती है, बाकी दुनियादारी में समाज और देश को रौंदे जाने की भूमि सिंचाई करती है।

भक्त न तो सत्य का महत्व जानते है, न ही समझदारी रखते है की सत्य के साथ क्यों छेड़छाड़ नही करनी चाहिए। वह संस्थाओं को विध्वंस कर देते है, और दूसरो पर आरोप लगा देते है बर्बादी का।

क्या योग और ध्यान से मनोरोग समस्यायों की सामाजिक चेतना नष्ट होती है?

ध्यान और योग को आजकल stress से जोड़ कर के भी प्रसारित किया जाता है, कि इन्हें करने से stress से मुक्ति मिलती है। आधुनिक जीवन में stress बहोत अधिक मात्रा में होने के तथ्य को बारबार उछाला जाता है, क्योंकि जब ये बात जनमानस में पकड़ में आयेगी, तब ही तो लोग ईलाज़ के लिए ध्यान और योग की ओर खींचेंगे।

मगर इन सब सोच में भी सांस्कृतिक मोह की छाप है। आवश्यक नही है कि सभी सभ्यताएं , धर्म और संस्कृतियां stress यानी तनाव के प्रति यही समझ रखते हों! कल ही योग और ध्यान विषय से संबंधित internet पर कुछ खोजते समय Dialectical Behavioural Therapy (DBT) पर कुछ दिखाई पड़ने लगा। कुछ वक्त लगा सोचने में की योग/ध्यान का DBT से क्या संबंध है। अगली ही search में DBT से बात सीधे Boderline Personality Disorder (BPD) की ओर चली गयी। 
BPD से पीड़ित व्यक्ति छोटे छोटे तनावों के दौरान mood की लहरों पर सवारी करता है, और चंद minute के भीतर अपने mood बदलते रहता है !  BPD के संभावित ईलाज़ में DBT आता है।

तो शायद कुछ अन्य संस्कृतियों में stress का निराकरण आवश्यक नहीं की योग और ध्यान में ही ढूंढा जाता है। व्यक्ति अक्सर करके अन्य समस्याओं से पीड़ित होते हैं और उनके ईलाज़ में हम मात्र योग/ध्यान को प्रस्तावित करके छोड़ देते हैं। जबकि वास्तविक विषय मनोरोग का हो सकता है, या किसी अन्य रोग का- जिसके बारे में न तो कोई शोध होता है, न ही कोई पहचान होती है रोग की ! लोग मनोरोगी के बद-व्यवहार की निंदा और आलोचना करते हुए आगे निकल जाते हैं। बजाये कि उनको सहायता पहुँचाएँ । भारतीय संस्कृति में यह जो जनमानस में धिक्कार कर देंने की प्रवृत्ति है, इसका आगमन शायद ऐसे ही है - योग और ध्यान समाज को अबोध बनाते है। कैसे? लोग रोगों को समझने, पहचानने और ज्ञान संग्रहित करने में मार्ग से दूर चले जाते है। फिर यदि कोई भीषण ग्रस्त रोगी बद-आचरण करता हुआ प्रस्तुत हो जाता है, तब हम उसको धिक्कार कर के, निंदा करके उसे असहाय अवस्था में छोड़ कर दूर हट जाते हैं, कि यह व्यक्ति योग और ध्यान नही करने की वजह से ऐसा हो गया है !!!

वर्चस्व-वादी की शरारत से हुआ था, और हो रहा है भारतीय संस्कृति का पतन

मार्च के महीने को समरण करें , जब कोरोना मर्ज़ के आरम्भ के दिनों में social distance नया नया चलन में आया था। अगर उन अग्रिम दिनों के मोदी जी के सरकार के सरकारी आदेशों और circular के आज अध्ययन करेंगे तो आप देखेंगे की कैसे corona रोग के आगमन से अंध श्रद्धा से पीड़ित आत्ममुग्ध सामाजिक "वर्चस्व-वादी" वर्ग ने मौका ढूंढ लिया था social distance निवारण में से मध्य युग की छुआछूत की प्रथा को उचित क्रिया प्रमाणित कर देने का । आप याद करें की कैसे corona संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिये जब अंग्रेज़ी संस्कृति वाले handshake को त्याग करने के बात आयी थी तब आत्ममुग्ध हिंदुत्व वादियों ने तुरंत भारतीय संस्कृति के "नमस्ते" को सर्वश्रेष्ठ क्रिया बता करके हिन्दू धर्म को दीर्घदर्शी, उच्च और पवित्र आचरण वाला दुनिया का सर्वश्रेष्ठ विज्ञान संगत धर्म होने का दावा ठोक दिया था।

योग और ध्यान ख़राब नही है। मगर सच यह है की भारत में यह सब एक आत्ममुग्धता से ग्रस्त वर्ग के कब्ज़े में है, जो की आत्ममुग्धता के चलते बारबार समाज को अपने कब्ज़े में लेने को क्रियाशील हो जाता है, वर्चस्व-वाद के आचरण दिखा बैठता है। यही वो वर्ग था जो की अतीत में भेदभाव और छुआछूत को भारतीय समाज में लाने का दोषी था, और स्वाभाविक तौर पर - आज भी आरक्षण -नीति का विरोधी है, तमाम कानूनों के बावज़ूद आरक्षण को चुपके से समाप्त कर रहा है।।

यही वह वर्ग है - हिंदुत्व वादी वर्ग - जो की राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम के नाम पर , या की "हम सब सिर्फ हिन्दू है, हम कोई जातिवाद नही मानते है" के भ्रम में समाज पर वर्चस्व ढालना चाहता है और इसने देश के प्रजातांत्रिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया है।

आप देख सकते हैं की कैसे इन्हें corona संकट के समय ayush वैकल्पिक ईलाज़ पद्धति के माध्यम से जनता में शोध-प्रेरक विचार की ज्योति को ही बुझा दे रही है। ये वो वर्ग है जो समय से अनावश्यक जाते हुए,  समाज को योग तथा ध्यान में corona के ईलाज़ (बल्कि दुनिया के सभी मर्ज़ का ईलाज़) होने का दावा करके समाज के बौद्धिक मानव संसाधन को witch hunt मार्ग पर भेज कर उन्हें व्यर्थ कर दे रहा है !

यही वर्ग दोषी है भारतीय संस्कृति के पतन का।

बाबा लोग कैसे ध्यान और योग के माध्यम से भारतीय समाज के विकास मार्ग को नष्ट करते हैं

"Immunity बढ़ाओ" के ऊपर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देने के पीछे व्यावसायिक षड्यंत्र दिखाई पड़ता है भारत के साधु-बाबा industry का।
Immunity कोई नीचे लगा लाल बटन नही है, जिसको दबा दिया तो तुरंत- खट से- आप superman बन जाएंगे। ज़ाहिर है, वाणिज्य साज़िश है कि immunity बढ़ाने के नाम पर सामना बेचा जाये - काढ़ा, हल्दी, वग़ैरह वग़ैरह।

यह बाबा लोग ही भारत की संस्कृति का सदियों से सत्यानाश करते आएं हैं, और आज corona काल में आप और हम अपनी आँखों से इन्हें रंगे हाथों देश को बर्बाद करते पकड़ सकते हैं - यदि हम जागृत हो तो।

Corona से जंग में महत्वपूर्ण अंश - "immunity बढ़ाओ" - से कही ज़्यादा ज़रूरी है - virus की पकड़ से बचना। यानी face mask का प्रयोग, sanitizer का प्रयोग, उचित विधि से face mask को हस्त-नियंत्रित करना, खांसी - छींक को रोकना, जूते के तलवे तक को corona virus का संक्रमण मित्र समझ कर अपने जूतों को उतारने, पहनने, साफ़ करने का संचालन करना। आम आदमी को अपनी तमाम छोटी छोटी आदतों में सुधार करके virus के संक्रमण को प्रसारित होने से रोकने का सामाजिक योगदान देना।

इसके अलावा, आवश्यक है कि शोध प्रेरक चेतना समाज में प्रज्वलित करना- ताकि अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त हो corona virus के प्रति, आम आदमियों में। आखिर कार आयुर्वेद इसीलिये पिछड़ गया modern medicine के आगे, क्योंकि यहां पर ज़ोर corona virus को खोजने पर नही दिया जाता है, बल्कि कोई भी बीमारी आये, दम लगा कर ईलाज़ यही होता है की - "योग का आलोम-विलोम राम बाण है", "गिलोय खाने में दवा का राम बाण है" वग़ैरह ! फिर सच को आंच नही । एक न एक दिन आयुर्वेद के "रामबाण" की पोल दुनिया के आगे खुल ही जाती है, जब corona virus को microscope के नीचे इंसानी आंखें खुद से देखने लगती है ! दुनिया में लोग contemplative हो कर virus को समझने-बूझने में आपने दिमाग़ चलाते हैं, जबकि भारत के लोग अपने साधु-बाबाओं के चक्कर में पड़ कर दिमाग़ को "शांत" और "चिंतन शून्य" करने में अपना दिमाग़ लगाते हैं !!

साधु-बाबा industry सिर्फ और सिर्फ "immunity बढ़ाओ" बिंदु पर ही ज़ोर दिये बैठी है - क्योंकि उनको लाभ देने वाला भोगवाद का मार्ग वही से खुलता है - और जहां से वाणिज्य प्रवेश करता है !
बाबा लोग तो - उल्टा - योग और ध्यान पर तक इतना अधिक ज़ोर दिये जा रहे हैं की जन चेतना में से शोध-प्रेरक ज्योति ही बुझती जा रही है !! घंटा वह समाज दुनिया से मुकाबला करेगा जहां "योग" और "ध्यान" को लोग एक उपयुक्त "ईलाज़" साबित करने में अधिक बौद्धिक बल और संसाधन खपाते है, बजाये की प्रवाह (flow) में बहते हुए आसान दर्शन में समस्या को चिन्हित करें तथा समाधान को शोध करें !
बाबा लोगों ने भारतीय संस्कृति में से flow को समाप्त करने में बहोत विनाशकारी भूमिका निभाई है - जो बात शायद यह समझाये कि क्यों हम हज़ार साल रौंदे गये थे - और आज भी दुनिया के आर्थिक पिट्ठू बने हुए हैं - software coolie ! ! हमारा समाज शोध- प्रेरक नही है -हम सब जानते हैं - मगर हम लोग यह नही समझ सक रहे हैं कि "योग" और "ध्यान" की कमान उल्लू-ठुल्लू लोगों के हाथों में है जो की समाज की चेतना में से जागृति की ज्योंति ही बुझा दे रहे हैं , जनमानस को ग़लत मार्ग से इन विद्याओं की ओर आकर्षित करके ! लोग corona virus का ईलाज़ योग और ध्यान में तलाशते है जो की witch hunt से कम व्यर्थ नही है !

"Immunity बढ़ाओ" भी करीब करीब उसी श्रेणी में आता है - witch hunt । immunty के पीछे mind , body, spirit  सब लगता है- जो की संभवतः एक दिन के काढ़ा और हल्दी और बाकी सब नुस्खों से boost नही होने वाला है । शरीर , मन और आत्म की समस्याएं तो आती ही है इंसान के भोगवादी बन जाने से ! और बाबा लोग ईलाज़ भी भोगवाद में ही ढूंढते हैं ! आंवला juice पियो, नीम की tablet खाओ, हमारा बनाया च्यवनप्राश और काढ़ा powder प्रयोग करो, वगैरह ! 

भोगवाद ही जड़ भी, भोगवाद ही ईलाज़ भी ! 

जय हो !

रहे ने हम लोग उल्लू के उल्लू !

क्या योग और ध्यान भारत में वैज्ञानिक चितंन को नष्ट करने में भूमिका रखते हैं?


https://youtu.be/V83rpsn8ob8

यहां इस वीडियो में सदगुरु थोड़ा दुःसाहसी हो गये हैं, और रुद्राक्ष तथा कागज़ की सहायता से परम मूर्खता का प्रयोग कर बैठे हैं। वैज्ञानिक साहित्य में इस प्रकार की "negative energy' का वर्णन आज तक नही हुआ है। Gold leaf Electroscope की सहायता से Cosmic Rays को ढूंढा गया था, मगर रुद्राक्ष की सहायता से Negative Energy को ढूंढे जाने की कोई reporting आज तक नही हुई है।

आधुनिक भारत की त्रासदी यही है। कि भारतीय संस्कृति के नाम पर भारत के "सद्गुरु" वापस दुनिया में अंधकार को प्रसारित करने लगे हैं। आज दुनिया में वापस Pesudo Science पैर पसारने लगी है, और वास्तविक Science को ठोकर मार कर सामाजिक चितंन से बाहर निकाल दिया गया है ! लोग सत्य की बात तो करते सुनाई पड़ते हैं, मगर सत्य को सिर्फ संभावना के दायरे में ही रख छोड़ते हैं, उसे प्रमाण और measureability के दायरे में लाने के प्रयत्न तनिक भी नही किया जाता है। ज़्यादा दुखकारी दर्शन तो यह है कि सब के सब तथाकथित साधु और महात्मा समाज में शोध-प्रेरक सवालों को पूछने वाली अग्नि को ही बुझा दे रहे हैं मानव मस्तिष्क के भीतर में से ! यह सब साधु-महात्मा क्योंकि ध्यान, योग और आयुर्वेद पर अधिक बल देते हैं, इसका अनजाना दुष्परिणाम यह है - (जो कहीं कोई भी व्यक्ति देख-सुन नही रहा है) - कि , लोग सत्य को प्रमाणित करने के प्रति झुकाव को खोने लगे हैं। वह मात्र संभावना और approximation के आधार पर किसी भी "सांस्कृतिक" , "धार्मिक" दावे को सत्य होने को पारित कर देते हैं क्योंकि ऐसा करने से ही उनके मन को शांति और सुख प्राप्त होता है - ध्यान और योग के "दिव्य ज्ञान" के व्याख्यान के अनुसार, सुख और शांति ऐसा करने से ही मिलती है।
तो यह सब साधुजन का योगदान यह है कि श्रद्धा और अंधश्रद्धा को समाज के चलन में वापस प्रवेश देने लगे हैं , जबकि पिछले कई सालों से प्रयास यही हुआ करते थे कि लोग सत्य के तलाश में प्रमाण और परिमेयकरण के प्रति झुकाव बढ़ाएंगे। समाज में प्रकाश और जागृति तब ही आती है जब सत्य को सर्व स्वीकृति मिलती है समाज के सभी सदस्यों से। और सर्वसम्मति का मार्ग प्रमाण और परिमेयकरण (measurability) से आता है।

क्या योगदान था भारतीयों का गणित विषय शून्य के प्रति?

साधारण तौर पर यह तो हर भारतीय बढ़ चढ़ कर जानता है और बखान करता फिरता है कि "मालूम है..." , शून्य का अविष्कार हम भारतीयों ने किया है, मगर हम वाकई में एक बहोत ही आत्ममुग्ध संस्कृति हैं ! इसलिये हम यह जानकारी - जो की संभवतः अस्पष्ट और त्रुटिपूर्ण है - सिर्फ इसलिये सहेज कर दिमाग़ में रखते हैं की हमारी आत्ममुग्धता को गर्व करने का नशा मिल सके। गर्व या गौरव करना ,जो की आत्ममुग्ध दिमाग़ का नशे दार भोजन स्रोत होता है - वह क्योंकि सिर्फ  इतने भर से मिल जाता है, इसलिये हम गहरई में शोध नही करते हैं सत्य को तलाशने की। बस उतना ही ज्ञान जमा करते है जहां से नाशेदार भोजन मिल जाये। भारतीय चिंतकों ने आज़ादी के दौर के आसपास यह बात टोह ली थी हमारे भारतीय लोगों में आत्मविश्वास की कमी होती है, इसलिये हम विजयी संस्कृति नही बन सकते हैं। तो फ़िर मर्ज़ के ईलाज़ में उन्होंने भारत की संस्कृति का गर्व (गौरवशाली) ज्ञान बांटना शुरू किया जिससे भारतीय में आत्मविश्वास जगे। 

मगर नतीज़े थोड़ा उल्टे मिल गये । आत्मविश्वास से ज्यादा तो आत्ममुग्धता आ गयी लोगों में ! अब लोग सत्य को गहराई में टटोलना आवश्यक नही समझते हैं। दूसरी सभ्यताओं के योगदान और उपलब्धियों के प्रति प्रशंसा और सम्मान नही रखते हैं। देसी भाषा में आत्ममुग्धता को "घमंड" नाम के बुरे आचरण से पुकारा जाता है। आत्ममुग्धता शायद मनोचिकितसिय नाम है , विकृत आचरण का।

तो BBC के अनुसार शून्य तो पहले से ही अस्तित्व में था। इसे चीनी और अरबी सभ्यताओं में पहले भी प्रयोग किया जा रहा था। मगर जो योगदान भारतीयों ने किया - आर्यभट्ट और रामानुजन - जैसे गणितज्ञों ने - वह था की उन्होंने शून्य को संख्या क्रम में सबसे प्रथम स्थान से दिया - जो की एक क्रांतिकारी conceptual अविष्कार साबित हो गया तत्कालीन समाज में रोजमर्रा के वाणिज्य में ! 
कैसे ?
वास्तव में संख्याओं का ज्ञान तो इंसानी समाज में आरम्भ से ही आ गया था - संभवतः नैसर्गिक तौर पर। बल्कि वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि कुछ तो पशु पक्षी भी 6 या 7 तक की गिनती करना जानते हैं । संभवतः कौए और कुत्ते 7 तक की गिनती करना जानते हैं। यदि उनको 7 रोटियां दिखा कर छिपा दो, ताकि वह ढूंढ कर ला सके, तो वह तब तक छिपी हुई रोटियां खोजते हैं जब तक उनकी गणना की सात तक की रोटियां नही मिल जाती है। 
मगर इंसानो में जो नैसर्गिक बोध था संख्याओं का-वह उनको हाथों की उंगुलियों के जितना भर ही था। यानी एक से लेकर दस तक।

लोगों को यह अहसास भी था कि यदि कुछ नही होता है -यानी जब सारी ही उँगलियाँ मुट्ठी में बंद हो- तब उसको भी गिनने और दर्शाने के जरूरत होती थी दैनिक वाणिज्य - लेनदेन और बाज़ार में। मगर यदि 0 को अतिरिक्त गिनती करते थे तब कुल गिनती 11 की हो जाती था , जो की फ़िर अन्य लेन देन के लेखे जोखे में मुश्किल खड़ी कर देती थी ।
1 से लेकर 10 तक 10 संख्याएं, और एक 0, -- कुल मिला कर ग्यारह !! साधारण तर्क वाले वाले जोड़ और घाट करने के नियम 11 की संख्या तंत्र पर लागू नही होते थे ,-जाहिर है -वह नियम 10 के आधार वाले संख्या तंत्र के लिए ही थे

मगर भारतीयों ने दुनिया की यह समस्या सुलझा दी । उन्होंने संख्याओं का वर्णन बदल कर 0 से लेकर 9 तक कर दिया - जिससे वो वापस 10 हो गयीं !
आज के जमाने में यह बात सुनने में आसान और बेकूफी लगे - मगर उस समय यह बहोत क्रांतिकारी बदलाव साबित हुआ ! कुल संख्या 10 हो जाने से वापस लेखे जोखे की किताब की समस्या सुलझ गयी और "कुछ नही" का हिसाब जमा करने का रास्ता भी खुल गया ! 0 के प्रयोग के नियम जानना ज़रूरी हो गया, बस। 

ऐसा कैसे हुआ?
दुनिया भर में संख्याओं का नैसर्गिक अविष्कार मनुष्य के हाथों में दी गयी 10 उंगलियों के होने की वजहों से था। बंद मुट्ठी में से पहली उंगली बाहर निकालो तो संख्या बनती है एक - 1। तो फिर सब लोग संख्या का आरम्भ 1 से करते थे और इस तरह 10 तक जाते थे ।
भारतीय तरीके ने उंगलियों से सीखे गये नैसर्गिक तरीकों की कमियों को पहचान करके, इसका प्रयोग बन्द कर दिया। अब रेत में उपलब्ध कंकडों की सहायता से  संखयों को समझनाआरम्भ कर दिया। कंकड़ प्रतिनिधित्व करते थे व्यापार की वस्तु का ! यानी व्यापार के दौरान ऐसी परिस्थति जब ख़रीदे गये कुल सामान और वापस लौटाये गये सामान बराबर हो जाएं तो कुल लेन देन को शून्य दिखाने का बोध नैसर्गिक संख्या-ज्ञान को विस्थापित करके नये मानवीय तरीके से संख्याओं को समझने की विधि। इस नये मानवीय तरीके में संख्या का आरम्भ 1 से न हो कर शून्य से हो, तब जा कर यह सम्भव हो सका।

स्वाभाविक तौर पर --भारतीयों ने शून्य के संग में दुनिया को negative numbers का भी ज्ञान दे दिया। यानी वाणिज्य के दौरान वह स्थिति जब कुल ख़रीदे गये सामान से कही अधिक वापस लौटा दिया जाये तो इस लेनदेन को किताबो में प्रदर्शित करने का तरीका !

और सिर्फ यही नही, भारतीयों ने यह भी बता दिया की यदि किसी अन्य संख्या को शून्य से विभाजित किया जाये तो उसका उत्तर "असंख्य" माना जाना चाहिये।

यह सब सम्भव हो सका सिर्फ इस बिनाह पर कि संख्याओं का बोध नैसर्गिक मार्ग से प्राप्त करने के स्थान पर कंकडों से किया जाने लगा !!!! नैसर्गिक तरीका - यानी हाथों की उँगलियाँ- हमे 1 से 10 तक गिनने में बांधती थी- शून्य 11वी संख्या बनने लगता था - जिससे सब हिसाब किताब बहोत मुश्किल हो जाता था। 

क्या ध्यान और योग ही भारतीय संस्कृति के विकास और वैज्ञानिक दर्शन के प्रगतिपथ का अवरोध है?

पिछले 4 -5 दिनों से योग और ध्यान (meditation) के कार्यों में लिप्त हूँ और भारत के तमाम साधुओं के विचारों को सुन रहा हूँ। संदीप माहेश्वरी, सद्गुरु जग्गी वासुदेव, श्री श्री, रामदेव - और youtube पर उपलब्ध कुछ अन्य चैनल भी - जैसे GVG Motivation ।

कुछ बातें मेरे मन में भी प्रकट हुईं और सोचा की कही न कहीं उनका भी लेखा दर्ज़ हो जाना चाहिए।

संदीप माहेश्वरी जी ध्यान की विधि में मन-मस्तिष्क को चिंतन शून्य होने के मार्ग को तलाशते हैं। जब की सदगुरु और श्रीश्री मन को शिथिल छोड़ देने की विधि को ध्यान का मार्ग बताते हैं। यानी जो भी विचार मन में आ रहे हैं, उन्हें आने दो, और उन्हें सुनो, सोचे, समझो।  संदीप चाहते हैं की विचारो से मुक्ति लेने के प्रयास करो और इसके लिए आँखे बंद करो, कानो में 3M का ear plug लगाओ-  जो बाज़ार में 15/- का मिलता है- और शांत हो कर अपनी सांसों की आवाज़ सुनो, अपने ही दिल की धड़कन को सुनो।

तो दो अलग-अलग मार्ग हैं ध्यान के। ठीक विपरीत , एक दूसरे के।

ध्यान का उद्देश्य है सुख प्राप्त करना। साथ में, ध्यान करने से मस्तिष्क को बौद्धिक शक्तियों का विकास होता है, आत्म-परिचय होता है, और इससे मस्तिष्क की क्षमताओं का भरपूर प्रयोग करना मालूम पड़ता है। 

रामदेव शारीरिक व्यायाम की विधि बताते हैं। तरह तरह की शरीर को तोड़मोड़ देने वाली वर्जिश हालांकि जो की एक स्थान पर रहते हुए करि जाती है -या तो बैठे कर, या लेट कर, या खड़े हो कर। aerobic या बाकी अन्य व्यायाम स्थान बदल कर किये जाते हैं। भारतीय विधि का योग व्यायाम कोई भी उम्र का व्यक्ति इसीलिये आसानी से कर सकता है।

श्रीश्री , सदगुरु और संदीप जी कुर्सी पर या जमीन पर आलती-पालती मार कर झपकी लेने वाला ध्यान क्रिया बताते हैं, जिनमे सांसे के संग कुछ-कुछ करते रहना होता है। कुल मिला कर मज़ेदार नींद वाला, कुर्सी तोड़। रामदेव वाला कमर-तोड़ ध्यान मार्ग है, और ये वाला कुर्सीतोड़ निंद्रा वाला मार्ग।

बीच बीच में बातों में कुछ बुनियादी बातें प्रस्तुत करि जाती हैं, और प्राचीन भारत की बढ़ाई हो जाती है। रामदेव थोड़ा ज़्यादा ही बहक कर के evidence-based ज्ञान के विरुद्ध तेवर ले बैठते हैं। जिसमे गाय का मूत्र और तमाम तरह के juice का उपयोग शामिल है।

सुख का उद्देश्य में शरीर के कष्टों से मुक्ति का अभिप्राय होता है।

शरीर के कष्टों में जो ख़ास बात मुझे इन सभी के श्रोताओं में दिखती है वह है - auto immune disorders से उतपन्न तकलीफें। यह "कष्ट" (auto immune disorders) हमारी भारतीय नस्ल में बड़ी आबादी में होते हैं। लोगों को कष्टों का पश्चिमी वैज्ञानिक नज़रिया अधिकांशतः मालूम नही है कि उन्हें auto immune मर्ज़ करके जाना जाता है, लोग उन्हें साधारण तौर पर "कष्ट" समझते हैं , और योग और ध्यान से जिस "सुख" का धेय्य किया जाता है, वह शायद ईलाज़ है। 

तो कुल मिला कर हम evidence based ईलाज़ को तलाशने से बच रहे होते हैं। भारत के करीब करीब सभी बाबा और प्रोत्साहन अभिवाचक , सब के सब वैज्ञानिक तर्क, सवाल, और उत्तर ढूंढने के मार्ग के रोहड़ा बन कर खड़े हैं। ध्यान और योग शायद हमारे समाज की तरक्की का अवरोध बन गया है, क्योंकि लोग "कष्टों" का ईलाज़ "witch hunt" विधि यानी ध्यान और योग में ढूंढने लगते है, बजाये की शोध-प्रेरक सवाल करें, और उत्त्तर ढूंढे।

यह सब लोग कुछ न कुछ "आयुर्वेदिक दवा" भी उपयोग करने का प्रचार भी करते हैं, जिन पर सवाल कोई भी नही करता है। सब लोग संभावना के तौर पर आयुर्वेद को स्वीकार करते हैं, प्रमाण को तालश करने में कोई भी व्यक्ति रूचि या मार्ग नही रखता है।

सोचता हूँ की क्या कभी किसी ने हल्दी की उपयोगिता को प्रमाणित करने वाले प्रयोग पर कोई बातचीत करि ?  क्या कभी किसी ने भी "कष्टों" को गहराई से पहचान कर लेखाजोखा तैयार किया है? क्या कोई भी बाबा , साधु , motivation speaker ने प्रमाण और उनकी प्रकृति पर चर्चा करि है? क्या कोई भी पूछता है की आखिर coronavirus क्या है, क्या किसी ने देखा है, कैसे पता चला की रोग इस virus से होता है, या virus साबुन या alcohol युक्त hand sanitizer से आसानी से नष्ट होता है, इसका प्रमाण क्या है? या कि face mask धारण करने से उसे रोक जा सकता है , इसका प्रमाण क्या है? 

सब के सब इन दिनों दम लागए हैं कि अपना inmune system मजबूत करो, और फिर इसके लिए कुछ काढ़ा , गर्म पानी का प्रयोग, हल्दी- दूध का प्रयोग, और भाँप लेना इत्यादि पर ज़ोर दे रहे हैं। 
सब बातें ठीक है, मगर कोई इन सब तरीकों से immume system का "मज़बूत होने" या कि virus को नष्ट कर सकने की क्षमता पर शोध-प्रेरक सवाल क्यों नही करता है?

सब के सब लोग श्रद्धा के प्रचारक हैं, तर्क के नही! कोई भी शोध प्रेरक विचार प्रस्तुत नही करता है, बल्कि "ध्यान" के नाम पर सवालों को नष्ट कर देने की दिशा में कार्य कर रहा होता है। हम आज भी तैयार नही है वह सभ्यता बनने के लिए जो कि की सूक्ष्मदर्शी यंत्र ईज़ाद करके virus को या bacteria को देखें अपनी आँखों की इंद्रियों से। यह सब कार्य तो हमने सोच लिया है कि यह तो हमारी औकात के बाहर का कार्य है, और सिर्फ पश्चिमी संस्कृति में ही ऐसे "भोगवादी" मार्ग से मानव जाती के "कष्ट" को समझ करके "सुख" देने वाला ईलाज़ किया जाता है। हम तो ध्यान और योग और हल्दी-युक्त आयुर्वेद में ही ईलाज़ साधते हैं, alcohol युक्त hand santizer और face mask के प्रयोग के साथ ! !!

खोट संस्कृति में है या नही, आप खुद से सोचें। हम शायद कर्महीनता को ध्यान(Meditation) के नाम से सीखते और अपनाते है, तथा अल्पबुद्धि में कर्महीनता को ही "कर्मठता" मानते हैं।

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