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Sophistry and the BJP

Sophistry is an art of arguing where the purpose of discussion is not about Finding the locus of Truth, doing the justice, exploring the morality, et al.
  In Sophistry, the sole motto of involving in an argument is to win it away ,by any means, hook or crook.
In ancient Greece, the distractors of Aristotle were called as Sophist. Mind it that in his times,Aristotle was not so much a revered person as he become later in history. People despised Aristotle for asking too many questions, being highly judgemental, and behaving finicky. Nobody could easily win arguments against Aristotle.
Then came the Sophist people. It is not exactly known if the word Sophist came from some particular person, but now the word is used as a Collective noun. These are people whom even Aristotle had begun to avoid arguing with,for they had developed range of Arguments by which they could defeat anything and anybody at their will. Aristotle discovered the lack of Universality in their arguments, and knew that the Sophists had build bias of both kinds -good and bad-- for everything which could be argued. Thus, the Sophist were able to switch side of goodness, during an argument, about everything easily at their choosing, which helped them defeat their opponents. The lack of Universality could be realized if one were to take a continued application of their arguments in a similar case elsewhere, where the wrongs were so much apparent. One would find that he could still defend the wrongs using the arguments of the sophist.
  Thus, this style of confused arguments came to be known as Sophistry.
In our times, the BJP,the RSS and their likes are doing the Sophistry.
One should the lack of Universality of the arguments of the BJP guys.

भाजपा में ब्राह्मणवादी हिंदुत्व और प्रवृत्तियां

1)खड़मास की वजह से छत्तीसगढ़ के नवनिर्वाचित भाजपा के मुख्यमंत्री राघुवर दास ने शपथ ग्रहण को टाल दिया था।(स्रोत: समाचार पत्र टाइम्स ऑफ़ इंडिया)
2) मानव संसाधन राज्यमंत्री श्रीमती स्मृति इरानी ने अपने निजी ज्योतिष के साथ 4लम्बे घंटे व्यतीत किये।
3)भाजपा में कूट-वैज्ञानिक आचरण (pseudo-scientific), वह जो वैज्ञानिक होने का छलावा करता हो) होने के आरोप पर भाजपा समर्थकों ने आम आदमी पार्टी के शीर्ष अरविन्द केजरीवाल की इस्लामी और सूफी मजारों पर चादर चडाने वाली पिक्चरें प्रकाशित करी, शायद यह जताने के लिए की केजरीवाल "sickular" हैं।
4)  आरंभ के दो बिन्दों को तीसरे बिंदु से जोड़ने पर निष्कर्ष यही निकलता है की भाजपा समर्थकों में 'ईश्वरियता' और 'अंध-विश्वासों में मान्यता' के मध्य भेद कर सकने की योग्यता आज भी विक्सित नहीं है।
और इसके प्रमाण-लक्षणों में निम्न तीन बिंदु हैं:
5) पाखंडी आसाराम बापू, बाबा रामपाल के अधिकाँश पालक भाजपा के भी समर्थक हैं ,और इन्हें लगता है की भाजपा ही इन "संतों" को पुलिस से बचा कर "हिंदुत्व" की रक्षा कर सकती है।
6) बॉलीवुड की नवप्रक्षेपित सिनेमा "पीके" के विरोधी अधिकांश तौर पर भाजपा समर्थक ही हैं। भाजपाइयों ने अपने शीर्ष नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी द्वारा "पीके" की प्रशंसा को 'निजी बयान' बताया है।
7) अधिकाँश भारतीय लोग जादू, चमत्कार इत्यादि के पीछे एक वैज्ञानिक कारक होने की बात तो स्वीकार करने लगे हैं, मगर अब इसके ठीक विपरीत के एक भ्रम -- जिसमे ज्योतिष, मन्त्र विद्या, आयुर्वेद, पौराणिक काल के तिलस्मी वस्तुएं जैसे पुष्पक विमान, ब्रह्मास्त्र इत्यादि का वर्तमान के वैज्ञानिक उत्पाद वायुयान, परमाणु बम के समतुल्य (कूट-)"वैज्ञानिक" होने को भी मानने लगे हैं।
   इस प्रकार भारतीय जागृति एक प्रकार के भ्रम,और छल से बाहर तो आई है मगर अब इसके ठीक विपरीत किस्म के भ्रम और छलावे का शिकार बन गयी है।
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स्वतंत्र अंतःकरण में एक प्रश्न उठता है।:
   क्या किसी भी ईश्वर के प्रति आस्था, यानी 'ईश्वरियता'(spirituality) को हम एक "कूट वैज्ञानिक"(pseudo-scientific) आचरण मान सकते हैं?
    अतीत काल में "ईश्वर के प्रति आस्था" में से ही "अंध-विश्वासों" का उदगम हुआ था। मगर क्या आज भी हम "ईश्वर के प्रति आस्था"(believing) और "अंध-विश्वास" में कोई भेद नहीं नहीं करते हैं ?
       यह समझ लेना आवश्यक है की भारत की आबादी में आज भी बाहुल्य जनसँख्या ईश्वर के प्रति आस्था (spiritualism), आस्तिकता (religious, theistic) , और "अंध विश्वास" (superstitious-ness)  में अंतर कर सकना नहीं जानती है।  Majority of Indians cannot make difference between Spiritualism, Theism and Superstitious-ness.
     इस विचित्र समस्या के चलते भारतीय जनसँख्या पंथनिरपेक्षता (secularism), नास्तिकता , और अंध-विश्वासों में भेद कर सकने में भी असमर्थ रहती है। यानी अधिकाँश भारतियों की समझ से:- जो सेक्युलर है, वह अवश्यभावी नास्तिक भी है। (जबकी पंथनिरपेक्षता के वास्तविक सिद्धांत नास्तिकता को भी इतना ही दूरी देता है जितना किसी और पंथ को।)
  अन्यथा भाजपा समर्थकों के लिए सेक्युलर का "व्यवहारिक" अभिप्राय मुस्लिम-परस्त होना,तथा हिन्दू-विरोधी होना है।
     इतना तो पूर्ण विश्वास के साथ वचन दिया जा सकता है की भाजपा समर्थकों में बैद्धिक विचार भेद का आभाव है।भाजपा के समर्थक वह भ्रमित लोग है जो धर्म,आस्था तथा विज्ञान से सम्बंधित कई सारे सामजिक प्रत्यय(concepts) में अंतर नहीं कर सक रहे हैं। भाजपा समर्थक इन प्रत्ययों से अनभिज्ञ हैं।
     इस स्वतंत्र-लेख का उद्देश्य भाजपाइयों के ब्राह्मणवादी चरित्र के उल्लेख करने का है। लेखक स्वयं ब्राह्मण(Brahman) और ब्राह्मणवाद(brahminism) में भी अंतर करता हैं। मेरा उद्देश्य उस समुदाय की भावनाओं को चोट पहुचाने का कतई नहीं है जो की जातवादी हिन्दू धर्म की वर्ण-व्यस्था में ब्राह्मण जाती के है। हाँ, मैं ब्राह्मणों, और बाकी अन्य हिन्दुओं के उस "ब्राह्मणवादी" आचरण की आलोचना अवश्य करना चाहता हूँ जिसमे आजतक कूट(छल करने वाले) वैज्ञानिक सिद्धांत और सत्यवान वैज्ञानिक सिद्धांत में भेद कर सकने की बौद्धिक योग्यता, इक्कीसवी शताब्दी के एक दशक बाद भी, विक्सित नहीं हो पायी है।
   अक्टूबर 2014 में अमेरिका के प्रसिद्द समाचार पत्र न्यू यॉर्क टाइम्स में छपे एक लेख False teachings for India's students में भाजपा तथा राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ की आलोचना करी गयी थी की शायद सत्ता में आने पर यह गुट भारतीय शिक्षा व्यवस्था में ऐसे विषय ज्ञान अनिवार्य कर देगा जिनको दुनिया के किसी भी सम्मानित विद्यालय में, कहीं भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का स्थापित नहीं माना जाता हैं। लेख में यह बताया गया था की कट्टर हिंदूवादीयों का यह संघठन, 'संघ', अपनी अप्रमाणित वैज्ञानिक विचारधारा में आज भी कई सारे मध्यकालीन हिन्दू कर्मकांडों को "वैज्ञानिकता" का मुहर देने पर तुला हुआ है जिसे की कोई भी सम्मानित वैज्ञानिक समुदाय शायद ही गंभीरता से ले। इसमें ज्योतिष "विज्ञान" , हस्तरेखा "विज्ञान", मन्त्र विद्या, इत्यादि का नाम शामिल है जो की असल में "वैज्ञानिक" होने का छलावा है, यानी कूट-वैज्ञानिक(pseudo-scientific) हैं।।
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   इधर भारत में जातपात की प्रथा पर नज़र दौड़ाएं तो हम पायेंगे की छुआछूत के शिकार हुयी जातियों ने "ब्राह्मणवाद"(Brahmanism) को अपनी इस दुर्दशा का कारक माना था,और ब्राह्मणवाद के विरोध में जिन आचरणों को वह आज भी स्वीकार कर नहीं करते है वह यही हैं : ज्योतिष, हस्तरेखा इत्यादि, मन्त्र उच्चारण, इत्यादि।
   
    इस लेख के उपयोग के लिए मैं 'ब्राह्मण' और 'ब्राह्मणवाद' में अंतर करना चाहूँगा। 'ब्राह्मण' से मेरा अभिप्राय है वह ज्ञानी, मृदुल, सद-आचरण और परम त्यागी व्यक्ति है जो समाज-कल्याण के लिए अपना जीवन न्यौछावर करता है, और शिक्षा वितरण करता है। भगवान् मनु के अनुसार ब्राह्मण सामाजिक वर्ण व्यवस्था का सर्वोच्च पदाधिकारी है, क्योंकि वह जन-कल्याण के लिए स्वयं के सुखों का त्याग करता है। और इसलिए समाज के दूसरे वर्णों पर भावुक बाध्यता होती है की वह अपना आभार व्यक्त करते हुए ब्राह्मण को बहोत सम्मान के साथ दान देना दें। यह सम्पूर्ण धरती ब्राह्मणों की है, ऐसा व्यवहार रखना चाहिए।
मनु के नियमों के अनुसार यह आवश्यक नहीं है कि ब्राह्मण किसी विशेष वर्ण व्यवस्था में जन्म लिया हुआ हो, जिसके पूर्वज अपने इस ऊपर लिखित व्यवहार के लिए जाने जाते थे, सम्मानित थे। यानी ब्राह्मण शब्द एक विशेषण संज्ञा है,ऐसे व्यक्ति के लिए जिसमे "ब्राह्मण" स्वभाव है,चाहे वोह किसी भी जात अथवा सम्प्रदाय का हो।
   'ब्राह्मणवाद'(brahminism) से मेरा अभिप्राय है ऐसे स्वभाव का जो की स्वयं-भोगी, दुर्व्यवहार, अभिमानी, अहंकारी, आत्म-मोहित , निकृष्ट आचरण रखता है, मगर चुकी उसका जन्म किसी ब्राह्मण सम्मानित जात में हुआ है,इसलिए वह स्वयं के ब्राह्मण-शिरोमणि होने के अहंकार में जीवन जीता है।
   छुआछूत तथा सामाजिक पिछड़े पन के भुगतभोगी जातियों ने ब्राह्मणवाद को जिन विशेष व्यवहारों से चिन्हित किया था वह सब यह कूट-वैज्ञानिक कलाएं थी,जिन्हें की ब्राह्मणवादियों ने अपने ईश्वर के विशिष्ट सम्बन्धी होने के प्रमाण के रूप में "स्थापित"(आस्था गत) करवाया था। मध्यकाल में ऐसी सामाजिक जागरूकता थी की यह सब शास्त्र सिर्फ और सिर्फ "ब्राह्मण"(=ब्राह्मण वादी) को ही आते हैं और कोई अन्य इन्हें नहीं सीख सकता है। संस्कृत भाषा का वर्जित होना, वेदों के श्लोकों का निम्न जातियों के कानों में भी नहीं पड़ने देना - यह सब ब्राह्मणवादी तर्कों में स्वीकृत था।
    
    मगर समय के साथ ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक प्रमाणिकता का ज्ञान उत्कृष्ट हुआ, वैज्ञानिक प्रमाण के नियम अधिक स्पष्ट और जागृत हुए, यह सब विद्याएं "अंध-विश्वास" प्रमाणित("घोषित") होती चली गयीं। इनकी वैज्ञानिकता के नियमों पर परख असफल होती रही, और समाज में समबन्धित बदलाव आते रहे-जिनमे छुआछूत प्रथा का उद्धार हुआ।सत्य शिक्षा सर्व-व्यापक हुयी क्योंकि कूट-वैज्ञानिक विषयों को विस्थापित करके सत्यापित विषय (तार्किक ज्ञान वाले विषय) शिक्षा-गत गए।
   
    आज जब भाजपा फिर से अपने "हिंदुत्व" के क्षेत्र रक्षण में ज्योतिष और ऐसे कई "अन्धविश्वासी" आचरणों को सर्व-व्यापक और "वैज्ञानिक" प्रमाणित करने का प्रयास कर रही है तब भाजपाइयों का यह आचरण पुन: उस ब्राह्मणवाद की स्मृतियाँ लाता है जिसमे कई सारी जातियों को या तो छुआछूट या फिर सामाजिक/आर्थिक पिछड़ेपन का भुग्तभोगी होना पड़ा था।
  भाजपा के यही सारे आचरण भाजपा के ब्राह्मणवादी पार्टी होने का सूचक देते हैं। सेवा-आरक्षण निति में भी भाजपा की आरम्भि छवि आरक्षण विरोधी होने की ही है क्योंकि इन्होने मंडल आयोग द्वारा प्रशस्त सूची में कुछ विशेष जातियों को आरक्षण लाभ का विरोध किया था। राजनैतिक लाभ के लिए भाजपा ने जन-छवि में स्वयं को आरक्षण विरोधि होना ही प्रक्षेपित किया था।
    गंभीरता में देखें तो भाजपा वास्तव में यत्नशील है उस मध्यकालीन 'हिंदुत्व' को वापस सामाजिक आचरण में लाने के लिए जिसमे ब्राह्मणवाद पनपता था। अन्यथा आप खुद ही सोंचे,क्या अभी भी कोई भी वैज्ञानिक जागरूकता वाला व्यक्ति "खड़मॉस" या फिर ज्योतिष को वैज्ञानिक(scientific) होना स्वीकार करेगा ??
   एक प्रशन साफ़ साफ़ उठता है कि वह कौन से लोग हैं जो की ज्योतिष जैसे विषय के प्रचलन में आने से लाभान्वित होंयगे ?? भई, अतीत में झांके तो इस प्रशन का स्पष्ट उत्तर है "ब्राह्मण "(=ब्राह्मणवादी)।
     तब एक दूसरा प्रश्न भी बनता है। वह यह की "हिंदुत्व" के विषय से भाजपा तथा संघ का क्या क्या अभिप्राय है ? क्या संघ ब्राह्मणवाद व्यवहार के अस्तित्व को स्वीकारता है? क्या संघ यह मानता है की कभी किसी काल में हिन्दू धर्म में छुआछूट और सामाजिक पिछड़ापन की दुर्घटना घटी थी और वह भी ब्राह्मणवाद के चलते?
  तो क्या संघ यह सपष्ट करना चाहेगा की वह किस "हिंदुत्व" की रक्षा करने के लिया वचनबद्ध है ??क्या वह जो की ब्राह्मणवाद युग का हिंदुत्व है??
   भाजपा समर्थकों में आप आज भी कूट-वैज्ञानिक विषयों में भेद न कर सकने की अयोग्यता पायेंगे। अधिकाँश भाजपा समर्थक आसाराम बापू ,बाबा रामपाल और योगी रामदेव जैसे छिछले, कूट-वैज्ञानिक, छलावी लोगों का भी पालन तथा समर्थन करते हैं। रामदेव योग तथा आयुर्वेद के नाम पर ऐसे पदार्थों और विद्याओं का व्यापार करते हैं जिन्हें किसी भी सम्मानित उच्च शोध संस्थान में वैज्ञानिकता के प्राकृतिक नियमों पर खरा नहीं पाया गया है। हाँ, अपने छलावे को बनाने के लिए राम देव , डॉक्टर सुब्रमनियम स्वामी, और इसके जैसे कितनों ही "हिन्दुवादी" समय समय पर सुप्रसिद्ध संस्थाएं जैसे नासा,इत्यादि की उन खोजों के बारे में अपने विचार प्रकाशित करवाते रहेंगे जो की हिंदूवादी मान्यताओँ का वैज्ञानिक होने का आभास देती हैं। यह संभव है की कुछ एक हिन्दू मान्यताओं का स-वैज्ञानिक होना स्वीकृत पाया गया हो, मगर हिंदूवादी प्रचारकों को उद्देश्य सम्पुर्ण आस्था का पुनःजागरण है जिसमे ब्राह्मणवाद पनपता था।
   मुख्य तौर पर कहें तो, संघ में आज भी हिन्दुवाद और ब्राह्मणवाद में कोई अंतर नहीं करा गया है। इससे यही पता चलता है की संघ आज भी ब्राह्मणवादी विचारकों के द्वारा संचालित करा जाता है।
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प्रकृति की विचित्र संरचना और आत्मबोद्ध यह है की वर्तमान काल के कई सारे वैज्ञानिक विषय तथा विचार का आरम्भ भूतकाल के कूट-वैज्ञानिक विचारधाराओं में से हुआ हैं। !!!! उधाहरण के लिए आज के रसायनशास्त्र विषय की उत्पत्ति अतीत के "अल्केमी" में से हुई मानी जाती है जिसमे पुराने समय के लोग कुछ तिलिस्मी "अर्क-ए-गुलगुल" जिसको पीने से बुढ़ापा न आये, या एक सोना बना देने वाले पत्थर (philosopher's stone) की खोज समय व्यतीत किया था।
  इसी प्रकार आज का जीवविज्ञान विषय अतीत के औघड़ों में से आये ज्ञान से उत्पत्तित माना जाता है, जब वह मृत शरीर में दुबारा जीवन डालने के लिए शवों के साथ विचित्र क्रियायें करते थे।
   आज के दर्शन में यह सभी प्राचीन हरकतें "कूट-वैज्ञानिक" तथा मनोरोगी व्यवहार मानी जा सकती है।
  मगर फिर भी इसी एतिहासिक, प्राकृतिक सत्य के चलते सेकुलरिज्म का वास्तविक सिद्धांत आज भी स्वतंत्र नागरिकों कूट-वैज्ञानिक व्यवहारों को स्पष्ट दोषपूर्ण नहीं मानता है,बल्कि स्वयं को इस प्रकार के व्यवहारों से दूरी बनाये रखने में ही यकीन रखता है। आश्चर्य करने वाली दुविधा यह है की यह आज भी संभव है की जो कुछ आज कूट-वैज्ञानिक, अथवा मिथक है , वह कल किसी नयी अन्वेषण का प्रेरक बन जाये।

भारत रत्न पुरस्कार और इससे बढ़ती हुई राजनैतिक सरगर्मी

ऐसा नहीं था की आज़ादी से पहले दिवंगत महापुरुषों की उपलब्धियों को नकार देना का इरादा था, मगर फिर समझदारी इसी में थी की दिवंगत लोगों को भारत रत्न दे कर असुविधाओं का पिटारा नहीं खोलना चाहिए था।
   नोबेल शांति पुरूस्कार में भी मरणोपरांत यह पुरुस्कार नहीं दिए जाने की प्रथा इसी कारण से हैं।
खुद ही सोचिये, यदि आप मरणोपरांत लोगों को भी कोई सर्वोच्च पदक देना चाहेंगे, तो क्या रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे, टीपू सुलतान, सम्राट अकबर और उससे भी पूर्व सम्राट अशोक इस पदक के हक़दार नहीं थे ??
   पंडित मदन मोहन मालवीय जी का निधन ही आज़ादी से पूर्व हो चूका था। जब भारत रत्न पदक की स्थापना भी नहीं हुई थी,मालवीय जी अपनी उपलब्धियों को दर्ज करके जा चुके थे।
अब ऐसे में भाजपा को यह राजनैतिक कशमकश मचाने की क्या आवश्यकता थी कि मरणोपरांत के भी अति श्रेणी में जा कर, स्वतंत्रता पूर्व ही दिवंगत हो चुके महापुरुषों को भी यह पदक प्रदान करवाए।
   किसी भी समाज सेवी श्रेणी का पदक का उत्तराधिकारी चुनना वैसे भी बहुत ही व्यक्ति-निष्ठ काम है जिसमे की जन संतुष्ठी कम,और मत-विभाजन अधिक होता है। जहाँ मत विभाजन है ,वहां "राजनीति गरम" अपने आप ही हो जाती है। "राजनीति गरम" होने से बचाव के लिए ही संभवतः हर एक पदक में उत्तराधिकारी के चयन में कुछ एक मानदंड रखे जाते हैं जो की वस्तु निष्ठ हो। मरणोपरांत नहीं दिए जाने का मानदंड किसी भी नागरिक सम्मान के लिए एक उचित मानदंड ही तो है।
  तब फिर ऐसा क्यों न माना जाए की शायद भाजपा की शासित सरकार से इस मानदंड को ही भेद कर करी गयी यह हरकत का उद्देश्य ही "राजनीति गरम" करने का ही था?
  ऐसा नहीं है की बनारस शहर से सामाजिक कार्यों के लिए भारत रत्न अभी तक किसी को मिला ही नहीं है। कितने लोगों ने बाबु भगवान् दास जी का नाम सुना है ,जो की भारत रत्न पदक के चौथे उत्तराधिकारी थे ? कितने लोगों को उनकी उपलब्धियां और योगदान का पता है।
श्रीमती ऐनी बेसंट द्वारा स्थापित theosophical society (धर्म और ब्रह्म विषयों पर चर्चा करने वाला समूह) के भारतीय संस्करण की स्थापना बाबु जी ने ही करी थी,वह भी बनारस शहर हैं। इस society का मुख्यालय अमेरिका के न्यू यॉर्क शहर में है। श्रीमती बेसंट के नाम पर बाबु जी ने बनारस में एक कॉलेज की स्थापना भी करवाई थी जिसे की आजकल 'बसंत कॉलेज' कह कर बुलाया जाता है। (भाषा कुपोषण और बौद्धिक विकृतियों के समागम से "बेसंट" शब्द हिंदी वाला "बसंत" हो गया है। )
  काशी हिन्दू विश्वविधायालय के लिए भी इस कॉलेज ने बहोत योगदान दिया था। मालवीय जी की विश्वविद्यालय ने अपनी आरंभिक नीव central hindu college में डाली थी,जो की श्रीमती बेसंट ने स्थापित किया था।
   वैसे जानकारी के लिए बता दें की शिकागो शहर में होने वाले "विश्व धर्म संसद" को भी यही Theosophical Society ही आमंत्रित करता था। किसी समय स्वामी विवेकानंद जी ने अपना बहुप्रचलित अभिभाषण "अमेरिका का मेरे बहनों और भाइयों.." यही पर दिया था । (वैसे क्या स्वामी विवेकानंद भी भारत रत्न के लिए उचित नहीं है, अब जब की मरणोपरांत भी यह पदक देने का पिटारा खोल ही दिया है ??)
   बनारस से ही बिस्मिल्लाह खान जी को भी भारत रत्न से नवाजा जा चूका है।
   और स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति डॉक्टर सरव्पल्ली राधाकृष्णन भी काशी विश्वविद्यालय के कुलपति थे जिन्हें की भारत रत्न प्राप्त है।
    अभी तक भारत रत्न को स्वतंत्रता के उपरान्त के लोगों को ही देने की प्रथा थी। या वह जो की आज़ादी के बाद दिवंगत हुए। फिर यह 'बंद दरवाज़े' को बेवजह खोल कर राजनीति गरम करने की मजबूरी का अर्थ स्पष्ट रूप से राजनैतिक मुनाफाखोरी ही लगता है।
   इससे पूर्व कोंग्रेस की केंद्र सरकार ने भी क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को यह पदक दे कर ऐसे ही एक बंद पिटारे को खोला था।भारत रत्न पुरस्कार की परिभाषा में परिवर्तन कर के उसे "शाबाशी पुरुस्कार" जैसे व्यक्तव्य में बदल दिया और तब इसे किसी भी क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय चर्चित भारतीय को प्रदान करने की व्याख्या कर दिया गया। फिर यह श्री सचिन तेंदुलकर को भी प्रदान किया गया जिनकी उपलब्धि मात्र क्रिकेट के रेकॉर्डों में हैं। अल्प-बुद्धि लोगों को श्री ध्यानचंद को भी हॉकी की उपलब्धियों के लिय भारत रत्न देने की "राजनीति गरम" करने के द्वार खुल गए हैं। उधर मिल्खा सिंह जी का नाम भी उठाने वालों ने उठा लिया है। "राजनैतिक माहोल गरम कर दिया गया है"।
       श्री तेंदुल्कार आगे जा कर कांग्रेस पार्टी से ही राज्य सभा के चयनित सदस्य बने थे। इस परिभाषा परिवर्तन से पूर्व की परिभाषा में भारत रत्न को देश में सामाजिक परिवर्तन और उत्थान के लिए दिशा देने वाले समाज सेवा, कला अथवा विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्धियों वाले लोगों को देने का मानदंड था। वैसे तो न्याय से वंछित और राजनीति से लबा-लब हमारे देश में भारत रत्न की पुरानी परिभाषा का भी कोई ख़ास सम्मान नहीं था। यह पदक अधिकांश तौर पर राजनेताओं को ही मिला था। डॉक्टर मोक्षगुण्डम विश्वेशरेया जी के उपरान्त किसी दूसरे विज्ञानं क्षेत्र की उपलब्धि वाले व्यक्ति सीधे प्रोफेसर सी एन आर राव ही हैं। भारत सरकार का ऐसा मानना है। !!!.
     संक्षेप में समझें तो भारत रत्न पुरस्कार जितना अधिक व्यक्तिनिष्ठ बनता जायेगा, जितने अधिक वस्तु निष्ठ मानदंडों के बंद पिटारे खुलेंगे, यह पुरस्कार उतना ही राजनैतिक सरगर्मी वाला बन जायेगा और अपनी गरिमा को खो बैठेगा। लोग सीधे सीधे पदक के विजेताओं को उनकी निष्ठां को उनके प्रदानकर्ता राजनैतिक दल से जोड़ कर देखेंगे। तो फिर शायद आज़ादी के बाद जन्मे कई सारे राजनैतिक दलों की असल मंशा भी यही होगी। भाजपा भी वैसा ही एक दल है।

राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और उनकी घातक मानसिकता

सही और गलत, उचित और अनुचित , मानवता या स्वार्थ के ताने बाने में फँसा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक बेहद दो-मुंह सर्प हो गया है। बल्कि मुझे तो संघ और उसकी संसथायों में दो-मुँहे तर्क ब्राह्मणवाद,जात पात और छुआछूत की स्मरण दिलाते है की कैसे प्राचीन वैदिक धर्म ने अपने अन्दर उत्पन्न हो रहे दुर्गुणों का क्षेत्र रक्षण किया होगा और आज के इस अंधकारमई , नाले के सामान मैली गंगा वाले "हिन्दू धर्म" में तब्दील कर लिया होगा।भाजपाइयों की क्षेत्र रक्षण की पद्धति से आप कितनों ही गलत कर्म क्यों न करे हो,उसका बचाव कर सकते हैं।
   भाजपा के दोमुंहे तर्कों पर निरंतर दृष्टि रखिये और विचार करिए कैसे भाजपाई विज्ञापन और प्रचार में केजरीवाल की दुबई और अमेरिका यात्रा को "भीख माँगने" ,"मुजरा करने" जैसे अपमानजनक व्यक्तव्यों से दर्शाता है, और मोदी की मौज मस्ती की अमेरिका यात्रा और विदेश यात्राओं को "विजयी यात्रा" ,"दुश्मन ने घुटने टेक दिया", जैसे व्यक्तव्यों से दर्शाता है।
  खुद वेदान्त समूह से चन्दा लेने वाला ,आप पार्टी पर विदेशी जासूसों का एजेंट होने का मिथ्य-आरोप लगता है। खुद के मेल जोल को "वसुधैव कुटुम्बकुम" बोलता है, और केजरीवाल के मेल जोल को अपमानजनक "नचनिया" ,"जासूस", "घर का भेदी"।
   ऐसे कई विचार हैं जहाँ संघ की मानसिकता इतनी निकृष्ट और अस्वस्थ है की मुझे लगता है की शायद यही वह लोग है जिन्होंने भारत की प्रगति के असल,सत्यशील मार्गों पर बाँधा डाल रखी है। मनमोहन सिंह ने चुनाव प्रचार के दौरान एक बार कहा था की वह वास्तव में मानते है की मोदी को भारत का प्रधानमन्त्री नहीं बनना चाहिए क्योंकि मोदी में बहोत सारे चरित्र दोष हैं।
वैसे तो छोटे मोटे चरित्र दोष तो सभी इंसानों में पाए जाते है,की शायद ऊपर वाले ने एक भी सम्पूर्ण स्वस्थ मानव बनाया ही नहीं है,मगर इन संघियों की मानसिकता को शायद हम वर्तमान की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा की तकनीकों से भी सिद्ध कर सकते है की इन्हें मनोचिकित्सा की ज़रुरत है।
    वैसे मुझे यह भी महसूस होता है की प्रधानमन्त्री बनने के बाद मोदी को भी संघियों में चरित्र दोष का आत्मज्ञान हो रहा है। तभी वह भी बार बार संघियों को डांट रहे है और सुधरने की चेतावनी दे रहे हैं।
   अब यह धर्म परिवर्तन के मुद्दे को देखिये।
  जबरन धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर यह कैसा बवाल है ? अतीत के धर्म परिवर्तन को ज़बरन कैसा सिद्ध कर लिया की आज वह "घर वापसी" करवा रहे हैं? वैसे क्या खुद का घर सुव्यवस्थित है जो की वह वापसी करवा रहे हैं ??
बल्कि घर की सुव्यवस्था के लिए शायद आमीर खान-राजकुमार हिरानी और उनकी फ़िल्म "पीके" ज्यादा यत्नशील लगती है,बजाये संघ के। बल्कि समय के जिस बिंदु पर आज मानव सभ्यता पहुँच चुकी है, वहां से "घर वापसी" तो न ही संभव है और न ही उचित है। वैज्ञानिक और स्वतंत्र चिंतन वाले युग में पंथवाद भी एक बंधन है ,और मानवता का हनन करने का प्रेरक। ऐसे में घर वापसी ही क्यों? "स्वतंत्र चिंतन धार्मिकता(spirituality)" या "मानवतावाद(humanism)" की ओर क्यों नहीं ?
    सुव्यवस्थित घर से हम "वसुधैव कुटुम्ब्कुम" को अधिक प्रभावशाली प्राप्त सकते हैं, बजाये "घर वापसी" के।

  वैसे सोचता हूँ की शायद अतीत काल में भी यही "घर वापसी" की मानसिकता ने ही हम भारतियों को पराजित करवाया होगा। विजयी वही हुआ था जो की बहाय मुखी था, न की जो "घर वापसी" करता था।
     फिर, संघियों ने यह कैसे तय कर लिया की उनहोंने हाल के दिनों में जो व्यक्तियों को हिन्दू परिवर्तित किया है,वह सब स्वार्थ या दबाव में ही घर छोड़ कर गए थे??
  भई आज का सच तो यही है की आज धर्म परिवर्तन संघ कर रहा है।अतीत की घटना के प्रमाण कहाँ जगजाहिर है??
  सभी भारतीय मुसलमान को परिवर्तित मानना भी अनुचित है। अंसारी नाम वाले लोग शायद आज के इरान (फारस) से सम्बंधित थे। इरान में अंसारी लोग आज भी मिलते है। कही न कही, कोई ,कुछ मुस्लिम धर्म के व्यक्ति तो तुर्की और फारस से भारत आये ही थे। वह तो असल विदेशी मूल के मुस्लिम रहे होंगे।
  इसी तरह स्वेच्छा से परिवर्तन के भी उदहारण है। कोंकण में बहोत सारे मुस्लिम बंधू आज भी अपने परिवर्तन के अतीत को मानते हैं और उस स्वेछित परिवर्तन को अपने हिन्दू कुलनाम में सरंक्षित रखा है।
   तो फिर संघ ने यह कैसे तय किया की कौन से परिवर्तन जबरन हुए है? यदि वह वाकई कुछ जानते हैं तो क्या संघ ने इस घटना पर कोई पुलिस रिपोर्ट करवाई है?
संघ भारतियों की मैली गंगा से उत्पन्न संस्था है। यद्यपि हम मैली गंगा के पानी को आज भी पी रहे हैं, मगर हमे सफाई भी इसी पानी की ही करनी है। संघ ही हमारी विकृत मानसिकता का प्रतीकचिन्ह है जिसने सच की आवाज़ के बीच में झूठ का शोर मचाया हुआ है, सत्य-ज्ञान का असत्य "दुरूपयोग" करा हुआ है,  भ्रम,कुतर्क ,माया को संरक्षण दे रखा है, बौद्धिक हिंसा और कुव्यवस्था का क्षेत्र रक्षण किया हुआ है - अपने दू-मुँहे विचारों से।

Fanaticism, political exploitation and Emotional distress

The problem of the fanatic cults is that whenever their eyes become forced to see into the mirror, they manage to switch off the minds by taking recall of some past incidents when they were the victims.
Perhaps the better way of identifying who should we call a Fanatic is by determining who is it who is striving to SWITCH OFF THE MINDS by taking any impertinent recall of his victimized status.

Brainwashing is the only means by which Fanaticism can work. Fanatics need to be bigots, and to become a Bigot ,you need to trained how to avoid Reflective thoughts and Self-criticism. SWITCHING OFF THE MINDS is a typical trick the Fanatics exploit.
The truth of life is that it is filled with up and downs meeting us alternately. Every person ,every group has been a winner , and loser at one time of their other. Every person gets his chance to be the authority wielder at some occasions and to be Victim at the other occasions. Fanaticism brews when the victimhood is brewed persistently in a person by a psychopathic training.
   Unfortunately ,India having undergone those 600+200 years of bondage , has developed a lots of social groups which is hereditary Fanatic. The entire social atmosphere cultivates Fanatics, Bigotism and other psychologically distresses in the children belonging to these social groups. Their emotional condition as an adult is of vengeful, violent, sadistic person.
   It is in these groups that the political manipulators can so successfully address the Vedic philosophy of "Vasudhev kutumbkam" and "Ford Foundation CIA Funding" both at the same time ,EVER working to convince themselves of righteousness in their hypocrite conducts.
   It is here that the pains of Humanity are subsided by "Don't forget what's they done to you".
   These are routes of the unending sorrows to each one who endorses such fanaticism. Although the fanatics are typically the one who thrive and feed themselves of such sorrows, yet they work their energy to cause more sorrows. They are sadistic afterall . The more the sorrows of humanity, the more they convince themselves of their righteousness in their humanity-chilling deeds.
   Self-conscience and Internal peace, the "Om Shanti", is they only way we can help our ownselves escape from the self-feeding serpent of Fanatic sadism.

(हिंदी अनुवाद)

हमेशा से ही उन्माद चरमपंथियों की सबसे बड़ी समस्या यह रही है की जब भी उनकी आखों को आईने में आत्म-विश्लेषण के लिए विवाश होना पड़ता है, वह अपनी आँखें तो मजबूरी के आगे खोल देते है, मगर अपने मस्तिष्क को बंद कर देते हैं। मस्तिष्क को बंद करने के लिए वह स्वयं को अतीत की किसी त्रासदीपूर्ण घटना का स्मरण करवाते है जिसमे वह भुग्त भोगी रहे थे ,जब उनके साथ अन्याय हुआ था।
   शायद हमे किसी के उन्मादी चरमपंथी होने का सबसे पुख्ता प्रमाण यही से प्राप्त होता है की वह व्यक्ति अपने उन्मादी व्यवहार के क्षेत्र-रक्षण में कितनी बार अतीत की घटना का स्मरण करने का आदी है।
   बर्गलाया मस्तिष्क किसी भी प्रकार के उन्माद को पनपने के लिए सबसे उपयुक्त भूमि प्रदान करता है। उन्मादी व्यक्ति को अड़ियल व्यवहार का होना परम आवश्यक है, और अड़ियलता वाला व्यवहार प्राप्त होता है एक नकार देने के निरंतर प्रयास से, जब व्यक्ति आत्म-चिंतन और स्व:आलोचना से बचना सीख जाता है।
   मस्तिष्क को इन्द्रियों से प्राप्त संवेदनाओं के लिए बंद कर लेना उन्मादी व्यवहार का सर्वाधिक प्रकट लक्षण माना जा सकता है। यानी की संवेदना हीनता
  जीवन का एक सत्य हमेशा से रहा है कि यह कभी-धुप-कभी-छाँव की रेखा पर  चलता है। प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समुदाय कभी विजेता बना और कभी परास्त हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति कभी तो शक्ति-संहारक बना है, और कभी तो पीड़ित,भुग्तभोगी। उन्मादी व्यवहार तब पनपना शुरू करता जब व्यक्ति निरंतर अपने अन्दर एक पीड़ित अथवा भुग्तभोगी होने वाली भावना को अपनी स्मृतियों में संरक्षित करके रखता है। उन्मादी व्यवहार का जन्म इसी एक मनोविकृत प्रशिक्षण में से होता है जब व्यक्ति निरंतर स्वयं को एक पीड़ित के रूप में देखता है।
  दुर्भाग्य से भारतवर्ष की ६००+२०० वर्षों की दास अवस्था ने यहाँ कई समुदायों को जन्मातरण उन्मादी मनोविकृत बना दिया है।इन समुदायों का सामाजिक माहौल ही उन्मादी विचार से परिष्कृत होता है। इनमे जन्म लेने वाले शिशु अपने बाल्यकाल से ही किसी न किसी प्रकार की उन्मादी भावना से ग्रस्त होना शुरू कर देते हैं। अतीत की किसी त्रासदी का पीड़ित अथवा भुग्तभोगी होना वह अपने बाल्यकाल से ही अपने वातावरण से सोख लेते है। अपनी वयस्क अवस्था में यह व्यक्ति  प्रतिशोध, प्रतिहिंसा और दुखात्मा भावुकता वाले होते हैं।
   ऐसे ही व्यक्ति और समुदाय वह लोग है जिनको वर्तमान के राजनैतिक-कूटनीतिज्ञों ने अपने उपभोग के लिए एक साथ दो विरोधी विचारधारा , "वसुद्धैव कुटुम्बकुम" तथा "फोर्ड फाउंडेशन और सी.आई.ए से पोषित हुयी" , के लिए तैयार किया है। इस विरोधी विचारधारा के उपभोग से ही यह कूटनीतिज्ञ एक साथ दो विरोधी उद्देश्यों को पूर्ण करके सफल हो रहे है, और आत्म-तुष्टि भी कर लेते है की वह पाखंडी नहीं हैं।
   यही वह लोग है जो वर्तमान काल में मानवता पर घटी त्रासदी में भी स्वयं को संवेदना हीन बना लेते है की यह कह कर की "याद रखो की अतीत काल में तुम्हारे साथ तो तुम्हारे विरोधियों ने  इससे भी भीषण घटना अंजाम दी थी"।
   यह सब आचरण अनंत दुःख वाले जीवन मार्ग हैं। यह वह वाले आचरण है जो की मानवता से युद्धभीषक दुखों का अंत कभी भी प्राप्त नहीं होने देंगे। उन्माद दुखी भावुकता में से जन्म लेता है। और फिर और अधिक दुःख को जन्म देता है, जो की वापस उन्माद को ही जन्म देतें हैं। इस प्रकार से उन्मादी आचरण एक ऐसा सर्प है जो की अपनी ही केंचुली का भक्षण कर के जीवित रह जाता है। जितना अधिक दुःख फैलता है, उन्माद उतना ही स्वयं को सशक्त करता है की उसने मानवता के संहार के जितने निकृष्ट कर्म किये थे वह सब उचित ही तो थे।
  आत्म-मंथन और आत्म-शान्ति , ॐ शांति ,ही शायद वह एकमात्र मार्ग है जिससे हम स्वयं को उन्मादी आचरण करने से रक्षा कर सकते हैं।

If the Indians were to write the MARPOL, STCW, SOLAS ....

The culture of Indians is of a low intelligence group, where people hold more opinions than their population. Indians, being intellectually insufficient, are not able to derive justices on issues. Therefore, they invariably always fail to make decision by logic and reason.Eventually, they resort to Populism (decision making by a populist vote) as the only method of delivering the justice.

Resorting to populism: when logic and reason has failed.

This behavior is analogical to : Some people say A has committed crime. Others say that he has not. "So let's decide by voting whether A has committed crimes ir not."
!!!!!
Instead of calling for scientific investigation, forensics etc , we Indian have the method of, first, creating a confusion scenario around a point. And then looking to untangle the confusion by calling for Vote. Perhaps, to this we may even mis-apply another fundamental tenet of "innocent until proven guilty" to help the criminal escape from clutches of law enforcement.
This is Indians' IQ.

Sometimes I imagine how the MARPOL, STCW and SOLAS were written if Indians were at the helm of affair. Infact, more interesting would be to imagine how the MSC(maritime safety committee, a technical body setup by IMO for scientific solution-finding) would have functioned if Indians had made up its "expert panel".
1) Closing the scupper will retain oil from going out. But it will also Prevent rain water from draining out. Master of the vessel shall decide which all scuppers be opened or closed during loading discharging. He may call for voting if unable to decide .
2) Air conditioning in re-circulation mode makes life inhospitable inside the accommodation. Therefore, Air conditioning to be put on re-circulation on choices of the Master. If people disagree with the master, he may resort to voting. If there is no clear agreement between the crew too, the decision will return back on the master to proceed to do as he wishes.
3) If there is no clear vote, master must proceed to do as he feels like. "Crew has the habit of barking out on all the issues".
4) Master shall go by popular voting when to lower life boats , if everyone's personal convenience is not being meted out .
5) Master shall ensure that all crew are given due rest. He will decide when which crew will sleep and for how long.

Subjective approach to solution-finding for Technical problems. No room for Logic, and bye-bye the Reason.
If it were left to the Indians, the technical body MSC would have become synonymous with what we know as the Election Commission, and even the technical knowledge found have been subjected to Election and Voting to be able to find acceptance among the people.
Scientific journals and Research Papers too would have met the same fate. Perhaps Baba Ramdev would have hopped onto accord final approvals to the Medical research papers. His stereotype behaviour would have been to steal credit for someone else's research efforts while disapproving the actual scholar of his work. Ramdev until so far has only partaken to Indianise, force-ably harmonise thr neo-age scientific progress to some mythical Ancient Ayurvedic knowledge, "already known from olden times".
In the maritime field too, we the Indians would have done just whatever we so regularly do in the garb of Yoga and Ayurveda.

कच्चे तेल के गिरते हुए दाम और इसका रूस से सम्बन्ध

धीरे धीरे ऐसा लगने लगा है की कच्चे तेल के दामों में गिरावट एक व्यापक राजनैतिक साज़िश के तहत लायी गयी हैं।
मगर शायद वह राजनैतिक कारक भारत से नहीं जुड़ा है। बल्कि रूस से सम्बंधित है - जो की युक्रेन के कुछ पूर्वी हिस्सों पर कब्ज़ा करे हुए है। पश्चिमी देशों को इन राजनैतिक संकट का बड़ा सदमा मलेशिया के विमान mh17 के मिसाइल द्वारा गिराए जाने से लगा था। अमेरिका और पश्चिमी देशों का कहना है की यह विमान रूस-समर्थित युक्रेन अलगाववादियों ने मिसाइल मार कर गिराया था जबकि उनके यह मिसाइल रूस की फोजों ने मुहैया करवाई थी। विमान दुर्घटना में मारे गए यात्री अधिकाँश नीदरलैंड (एक पश्चिमी यूरोपीय देश) के थे।
  उड़ान संख्या mh17 की दुर्घटना एक बेहद त्रासदीपूर्ण और व्यक्तिगत हानि थी।
हाल में ऑस्ट्रेलिया में हुए G20 सम्मलेन में भी पश्चिमी देशों ने रूस के राष्ट्रपति व्लाद्मिर पुटिन से बेरूखी का व्यवहार रखा था जो की मीडिया रिपोर्ट में बराबर दर्ज हुआ है। पश्चिम देशों ने रूस के पेट्रो-डॉलर को सुखा देने की चेतावनी भी दी थी।
  रूस की आर्थिक हालत एक बिगड़े हुए, भ्रष्ट , मंत्री-परस्त व्यक्तिगत पूँजीवाद (state sponsored crony capitalism) वाली हो गई है। देश की ज्यादातर जनता गरीबी में है हालाँकि कुछ एक उद्योगपति जो की राष्ट्रपति पुटिन से नजदीकी रखते है वह देश के तेल स्रोतों को सरकार से खरीद चुके है और अब उन कुओं से तेल बेच बेच कर एकदम मालामाल हो गए हैं।
  फिर वह यही तेल बेच कर मिला पेट्रो-डॉलर से पुटिन को राष्ट्रपति पद कर काबिज़ रहने में मदद करते हैं। यह कुछ ऐसा ही है जैसे हमारे देश में नरेन्द्र मोदी और अम्बानी , अडानी की दोस्ती। यहाँ भी कुछ इसी रस्ते पर हमारा देश चल चूका है। विश्व व्यापक भ्रष्टाचार निवारक संस्था, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल, के मुताबिक रूस आज दुनिया के अधिक भ्रष्टाचार वाले देशों में शामिल हो चुका है। एक अन्य संस्था ने दावा किया है कि विश्व अर्थव्यवस्था में मौजूद अन-लेख्य मुद्रा (un-accounted money) ,यानी "ब्लैक मनी",  में रूस का प्रतिशत सबसे बड़ा है।
   रूस को एक अनियंत्रित, उन्मादी देश माना जाने लगा है। वहां पर सरकार ने प्रतिबन्ध बहोत किस्म के लागू कर दिए हैं। सबसे प्रथम तो स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध। इसमें सरकार को इस बात का भी लाभ मिलता है की वहां की जनसँख्या वैसे ही अंग्रेजी भाषा नहीं जानती है, ठीक विपरीत जैसा की भारत ,पकिस्तान ,श्रीलंका जैसे देशों में हैं।
फिर सरकारी न्यूज़ चेनल तथा प्राइवेट चेनल जो की उद्योगपतियों और सरकारी दबाव से नियंत्रित होते है, ने सही सूचना को दबा कर ,या अर्थों को पलट कर प्रस्तुतीकरण के द्वारा जनता के आक्रोश को ढीला कर रखा है और सरकारी पदों पर बैठे मंत्रियों को बचा रखा है।
    पश्चिमी देशों को तेल के कारण हो रही राजनीति का आभास पहले ही लगा हुआ है। कच्चा तेल आज विश्व कूटनीति का सबसे बड़ा प्रेरक है। मध्य पूर्वी "खाड़ी" देश ,उत्तरी अफ्रीका (तुनिशिया ,लीबिया, और अब रूस। उधर दक्षिणी अमेरिका में  वेनेज़ुएला । कुछ एक अंतर्राष्ट्रीय समाचार चेनलों के मुताबिक एक अन्य तकनिकी विकास ,शेल गैस (shale gas) ,की प्रयोग तकनीक में हुए विकास के कारण भी तेल के दामों में गिरावट हुई है। शेल गैस के प्राकृतिक भण्डार तो कई दूसरे देशो में उपलब्ध थे मगर इसके परिष्करण की तकनीक अज्ञान थी। आज वही तकनीक विक्सित कर ली गयी है। नतीजे में अमेरिका ने अपनी ज़रूरतों के लिए शेल गैस पर बदलाव कर लिया और तेल आयात कम कर दिया है। इससे बाज़ार में कच्चा तेल अधिक हो गया है और खरीदार कम। अब तेल के दाम गिर रहे हैं। हालाँकि तेल निर्यातक देशों के संघठन, ओपेक , जब चाहे तेल उत्पाद को घटा कर तेल के उच्चें दाम वापस बहाल कर सकता है,मगर वर्तमान में उसने हस्तक्षेप से मना कर दिया है।
    याद करे की अभी कुछ दिनों पहले रूसी राष्ट्रपति पुटिन ने कुछ घंटों के लिए भारत यात्रा करी थी और प्रधानमंत्री मोदी के साथ कुछ एक मसौदों पर हस्ताक्षर कर के तुरंत वापस चले गए थे। भारत से रूस के रक्षा सम्बन्ध बहोत पुराने और गहरे हैं। मगर आश्चर्यजनक तौर पर दो तीन घटनाएं आज भी भारत-रूस संबंधों को बार बार परखने के लिए प्रेरित करती रहती है।
एक, यह की गाँधी परिवार को व्यक्तिगत तौर पर डॉलर-धन देने की बात ,जो शायद एक प्रकार की रिश्वत हुई,को रूस की गुप्तचर संस्था ने पहले भी स्वीकारा है। सुब्रमनियम स्वामी न जाने क्यों सोनिया गांधी को भी एक रूसी-इतालियन घर-का-भेदी होने का इशारा करते रहे है। भारत ने कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जहाँ रूसी हित पर अनकुश लगने की सम्भावना थी, भारत ने कुछ अटपटा व्यवहार करके रूसी हितों की रक्षा करी है। आश्चर्यजनक तौर पर रूस सम्बंधित विदेश नीति ,कोंग्रेस पार्टी और भाजपा, दोनों ने ही पालन करी है।
   दूसरा  ,कि  पाकिस्तान से ताशकेंट में रूस द्वारा प्रायोजित समझौते के बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मृत्यु वास्तव में कैसे हुई थी।
  भारत बहोत बड़ी मात्रा में अपने रक्षा उपकरण आज भी रूस से ही खरीदता है। इधर हाल के वर्षों में रूस ने पकिस्तान से अपने रक्षा उपकरण के व्यवसायिक सम्बन्ध स्थापित किये हैं।
   क्या कहें की किस देश से किसके कैसे सम्बन्ध हैं। कभी कभी अन्तराष्ट्रीय मंच की कूटनीति वाकई बहोत पेंचीदा और सर घुमा देने वाली होती है।
 
  बरहाल, वर्तमान में बहोत गौर से नज़र रखने वाली घटना होगी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के भाव और इसका अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति पर प्रभाव। यह भी देखना होगा की हम भारतीय कब तक इस सस्ते होते पेट्रोल-डीजल के दामों से ख़ुशी मनाते रहेंगे। क्या हम इस क्षणिक हालात को सिर्फ व्यक्तिगत ख़ुशी मना कर के जाने देंगे या की कोई सामाजिक लाभ भी उठा पाएंगे ,अपने देश में महंगाई को अचानक कम करके।
  

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