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इलेक्शन फ्रॉड से निपटने में कुछ बौद्धिक आत्म ज्ञान रखना ज़रूरी है।

 इलेक्शन फ्रॉड से निपटने में कुछ बौद्धिक आत्म ज्ञान रखना ज़रूरी है। 

सर्वप्रथम ये, कि  evidence  तो अब कुछ भी जमने वाला नहीं है देश की किसी भी संस्था और न्यायालय में।  मगर जबजब जहाँ जहाँ फ्रॉड के चिन्ह(indicators, signs) दिखाई पड़ें. आरोप लगा कर विषय को कोर्ट में शिकायत करना ज़रूरी होगा, ताकि कम से कम close indicators तो बन सकें की इस देश में "शायद"  election  fraud  करके सरकार बनायीं और चलायी जा रही है। 

ये समझना ज़रूरी है की evidence  अलग चीज़ होते हैं, और closest  indicators  अलग।  कुछ विषयों के evidence होते ही नहीं है, और तब उनको close  indicators  से ही दर्शा करके बात को जनचेतना के हवाले छोड़ दिया जाता है कि वो खुद से तय कर ले सत्य क्या है। 

दुनिया वालों के पास में पर्याप्त बौद्धिक बल मौजूद है कि वो close indicators  को दर्शाये जाने पर खुद से बात पकड़ ले कि  आखिर चल क्या रहा है इस देश में।  

इसलिए evidence  के पीछे मत भागिए क्योंकि अब वो तो बचा ही नहीं है।  और न ही निरुत्साहित हो जाईये कि  अब अबकी बात कोई सुन नहीं रहा है, और न ही मानी जा रही है।  आप बस चुपचाप अपने कर्तव्य निभाते जाइये , एक जागरूक नागरिक होने के, और close indicators को दर्शाते जाइये दुनिया वालों को ।  

Why Autocratic countries stop making scientific and technological progress

(This post is copied from somewhere on the Internet) 

 Autocratic states are NEVER able to keep pace with the scientific and the technological progress made by the Liberal Democracies. 

 There is a sound explanation why so. 

 In an Autocracy, there is in-built burden to promote people based on the POLITICAL CONSIDERATIONS alone, and not the Technological Competency because a Technologically Competitive person MAY NOT BE politically supportive, favourable to the ruling Autocratic class. Thus lots of innovative thoughts and ideas get nipped in the bud by the Autocratic people, resulting into the lag. 

 Autocracies have in their elite business class only the GENERAL MECHANDISING and GENERAL PROVISIONS sellers & traders. Why so, it is so obvious to understand. And they become dependant on Espionage and Surveillance for getting their hands at the scientific Information.

अंततः election fraud तानाशाह भी समाज को मुक्ति नहीं दिलवा पाते है, और आत्म-तबाही में ले कूदते हैं

रूस-यूक्रेन युद्ध के आज 31 दिन हो चुके हैं,मगर अभी तक विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सेना एक अदने से देश की अदनी सी सेना को मसल नहीं पायी है। अब तो उन पर लाले पड़ने लगे हैं आंतरिक विद्रोह हों जाने के, और खतरा बढ़ने लगा है की कहीं कमज़ोर मनोबल से त्रस्त कर वो बड़ा "शक्तिशाली" देश कहीं जैविक /रासायनिक अस्त्र न चला दे !

ये सब देख कर सबक क्या मिलता है?

कि, तानाशाही चाहे खुल्लम खुला प्राप्त हो, या election fraud करके मिली हो, वो देश और समाज को आत्म-घात की ओर ले जा कर रहती है।

तानाशाही में बड़े विचित्र और अनसुलझे मार्गों से समाज और देश की आत्म-तबाही आ गुजरती है। फिर ये तानाशाही उत्तरी कोरिया जैसे खुल्लम खुल्ला हो, या रूस के जैसे खुफ़िया एजेंसी से करवाये election fraud से हो।

कैसे, किस मार्ग से आ जाती है समाज और देश पर आत्म-तबाही?

कुछ नहीं तो विपक्ष का ही incompetent हो जाना समाज तथा देश की तबाही का मार्ग खोल देता है!
कैसे?
जब सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाता है, तब विपक्ष में से भी तो competent नेतागण वाकई में समाप्त होने लगते हैं जिनके पास प्रशासन चलाने का भीतरी ज्ञान तथा सरकारी नीतियों को जानने/समझने का पर्याप्त अनुभव हो, जिसके सहारे वो (election fraud तानाशाह की ) सरकार की नीतियों पर पर्याप्त तर्क और कटाक्ष कर सकें!

है, कि नहीं?

और ऐसे में election fraud तानाशाह खुद ही अपने देश और उसके समाज को , सबको एक संग उन्नति के मार्ग पर नहीं, बल्कि "चूतिया पुरम"(kleptopia) में ले कर बढ़ने लगता है!

यदि किसी देश में नित-समय अनुसार सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाये तो ऐसी election fraud तानाशाही का भी हश्र वही हो जाता है जो किसी सम्पूर्ण तानाशाही (जैसे की उतरी कोरिया) का हुआ है। सर्वप्रथम, आर्थिक नीति में समाज आत्म-दरिद्रता को भोगने लगता है, जैसे की आज श्रीलंका में होने लगा है। महंगाई बढ़ती है। और फिर, क़िल्लत और गरीबी आ जाती है पूरे समाज पर।

कैसे हो जाता है ये सब?
सुचारू तरह से सत्ता परिवर्तन का होते रहने से राजनैतिक वर्ग  में मानसिक/बौद्धिक स्वस्थ कायम रहता था, क्योंकि अनुभवी नेताओं की संख्या पर्याप्त बने रहती थी । मगर जब किसी election fraud व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन होना जब बंद हो जाता है, तब शायद विपक्ष में पर्याप्त competent और अनुभवी तर्कशील नेता ही नही रह जाते हैं! और फिर ऐसे में, election fraud करके आया तानाशाह बड़े-बड़े वादे करके अपने समाज को बहोत जल्द आत्म-तबाही की राह पर चल निकलता है,क्योंकि उसको रोकने वाले सामर्थ्य विपक्ष उपलब्ध ही नहीं रह जाता है समाज के अंदर !

तानाशाह नेताओं को अपने  समाज को  उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलवा कर उन्नति की रहा तलाशने में ऐसे-ऐसे तर्क-विरर्क की भूलभुलैया आ घेरता है, जिसमे अंत में बस एक ही काबिल तर्क उनके सामने उनका पथ प्रदर्शक बन कर रह जाता है। वो ये, कि तानाशाही से भी समाज का उत्थान नही किया जा सकता है। तो बस अंत में अपनी निजी मौज़ मस्ती और जेब भर कर जियो !

आधुनिक ज्ञानकारी तंत्र आपको बुद्धिमान नहीं, बौड़म बना रहे हैं

 धोखा खाने से बचिए ,

ये गूगल , यूट्यूब और इंटरनेट के तमाम 'ज्ञानकारी' सेवाएं इंसान को ज्ञानवान और बुद्धिमान नहीं बना रहे हैं, बल्कि वास्तव में मूर्ख और बौड़म बना रहे हैं। 

कैसे ?

ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत क्या होता है ? 

यदि आप ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत समझते हैं - किताबें , गूगल , यूट्यूब , इंटरनेट , - तब आप गलत है। 

ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत होता है - विमर्श ( संवाद और उसके नाना प्रकार - बातचीत, वार्तालाप , चर्चा, बहस,  वाद), खोज,(और अन्य प्रकार जैसे - तफ्तीश, अध्ययन, शोध, अन्वेषण , अविष्कार, ) . 

ये पके-पकाये स्रोत - यानि गूगल, यूट्यूब, इंटरनेट - वास्तव में आपको आसानी से पकाया हुआ ज्ञान का भोजन देकर आपको मूल से दूर कर रहे हैं। 

सचेत रहिये।  

रूस की हिन्दू धर्म ग्रंथों की समझ

 पुतिन बाबू और रावण के चरित्र में बहोत समानताएं दिखाई पड़ रही है। दोनों ही आत्ममुग्धता से पीड़ित हैं, और इसके चलते अपने देश और अपने परिवार को खुद ही बर्बादी के मंज़र पर ले गए हैं।  जिस तरह से रूस आज दुसरे अन्य देशों को डरा-धमका रहा है कि अमेरिका से मैत्री न करो, रूस के सैन्य कार्यवाही की आलोचना न करो, रूस को यूक्रैन से सेना हटाने की चुनौती मत दो , ये सब पुतिन के अंदर जमे 'अभिमान' की निशानदेही है। गर्व चाहे राष्ट्र की श्रेष्ठता का हो, चाहे धर्म का -- ये इंसान में आत्ममुग्धता का रोग प्रवेश करा देता है। 

मॉस्को में ISKCON के मंदिरों को खुलने की अनुमति को लेकर रूसी सरकार ने अभी चंद वर्षो पहले आपत्ति उठाई थी। रूसी सरकार का कहना था की हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ भगवद गीता और महाभारत , दोनों का वितरण और शिक्षण रूसी समाज और रूसियों के परिवार में आपसी-कलह करवाएंगे। दरअसल इन दोनों ग्रंथो के प्रति ये वाली आलोचना अक्सर छाया बन कर साथ चलती है। और रूसी सरकार ने उसी आलोचना के अनुसार आपत्ति रखी थी।  बरहाल भारतीय दूतावास के समझाने बुझाने पर अनुमति मिल गयी थी।

रामायण का मर्म भी अक्सर ऐसी आलोचना छवि का शिकार होता रहा है।  -- परमज्ञानी, श्रेष्ठा प्रजापालक, शिवभक्त रावण का अभिमान कैसे उसे, उसके परिवार और उसके देश लंका को बर्बादी में ले गया -- मर्यादाओं (moral self restraining force) को मानने वाले श्रीराम के आगे, आलोचनक ये वाले सबक नहीं देख कर राम के चरित्र की भावुक कमज़ोरी देखने लग जाते हैं - कि, कैसे मर्यादाओं का पालन इंसान के जीवन में से सुख और ऐश्वर्य हो समाप्त कर देते है; इंसान को श्रीराम के जैसे ही दुखों ,आत्म-पीड़ा, और self-defeat  से भरे जीवन में ले जाते है , उससे 'बेवकूफी' वाले decisions करवाते है। 

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