केशवानंद भारती फैसला क्या प्रजातन्त्र का जीवन रक्षक घोल है या फिर एक जहर है ?
अगर संविधान की सबसे बड़ी खासियत और उपलब्धि यह है कि उसमें छिपी गलतियों का पुनः सुधार कर सकने की क्षमता दी गयी है, *तो फिर सवाल यह है कि* क्या कोई संविधान इस कदर सुधार के नाम पर परिवर्तित कर दिया जा सकता कि उसकी मूल व्याख्या ही बदल जाये ? इस सवाल को भारत के सर्वोच्च न्यायालय मे टटोला गया था केशवानंद भारती मुकद्दमे के दौरान, इंदिरा गांधी की इमरजेंसी खत्म होने के तुरंत बाद के वर्षों में। केशवानंद भारती मुकद्दमे के तथ्यों को आप आसानी से गूगल और विकिपीडिया पर पड़ सकते हैं। यह मुकदमा केरल के कासरगोड जिले के मठ के अधीश स्वामी केशवानंद बनाम केरल राज्य हुआ था। सर्वोच्च न्यायलय ने अंत मे फैसला स्वामी केशवानंद के हक़ में दिया था, और जिसके अभिप्रायों में इंदिरा गांधी के इमरजेंसी के दौरान संविधान में किया गए कई संशोधनों को निरस्त कर दिया गया था। याद रहे कि 1950 के अम्बेडकर लिखित संविधान में मूल रूप से secularism शब्द नही था, और यह शब्द इंदिरा गांधी के संविधान संसोधन के दौरान ही डाला गया, जिसको की हालांकि बाद में भी कोर्ट ने निरस्त *नही* किया। यह फैसला आज तक के सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास का सबसे