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Showing posts from May, 2018

केशवानंद भारती फैसला क्या प्रजातन्त्र का जीवन रक्षक घोल है या फिर एक जहर है ?

अगर संविधान की सबसे बड़ी खासियत और उपलब्धि यह है कि उसमें छिपी गलतियों का पुनः सुधार कर सकने की क्षमता दी गयी है, *तो फिर सवाल यह है कि* क्या कोई संविधान इस कदर सुधार के नाम पर परिवर्तित कर दिया जा सकता कि उसकी मूल व्याख्या ही बदल जाये ? इस सवाल को भारत के सर्वोच्च न्यायालय मे टटोला गया था केशवानंद भारती मुकद्दमे के दौरान, इंदिरा गांधी की इमरजेंसी खत्म होने के तुरंत बाद के वर्षों में। केशवानंद भारती मुकद्दमे के तथ्यों को आप आसानी से गूगल और विकिपीडिया पर पड़ सकते हैं। यह मुकदमा केरल के कासरगोड जिले के मठ के अधीश स्वामी केशवानंद बनाम केरल राज्य हुआ था। सर्वोच्च न्यायलय ने अंत मे फैसला स्वामी केशवानंद के हक़ में दिया था, और जिसके अभिप्रायों में इंदिरा गांधी के इमरजेंसी के दौरान संविधान में किया गए कई संशोधनों को निरस्त कर दिया गया था। याद रहे कि 1950 के अम्बेडकर लिखित संविधान में मूल रूप से secularism शब्द नही था, और यह शब्द इंदिरा गांधी के संविधान संसोधन के दौरान ही डाला गया, जिसको की हालांकि बाद में भी कोर्ट ने निरस्त *नही* किया। यह फैसला आज तक के सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास का सबसे

क्या फायदा होता है देश और समाज को किसी UPSC Topper से ?

एक सवाल तो उठना चाहिए अब तक --कि , UPSC के इतने मुश्किल-मुश्किल , तथाकथित "दिमागदार" सवालों का जवाब दे कर आखिर उम्मीदवार समाज में योगदान करता ही क्या है ? उसके जवाबों से और दिम्माग से आखिरकार समाज को क्या लाभ प्राप्त होता है ? शायद कुछ नहीं । UPSC से आये बाबू अंत में काम तो वही Dakota Indians Dead Horse Theory पर ही कर रहे होते हैं । उनके पास समाज की तुरत ज़रूरतों को पूरा करने का कोई कौशल नहीं होता है । बल्कि वह समाज की किस्मत पर बैठे हुए, उसे अंधकार में धकेल रहे होते हैं। और सामाजिक अहित का कुकर्म के दंड पाने की बजाये अपना performance review भी खुद अपनी बिरादरी वालों से करवा कर तारीफ भी बटोर लेते हैं , जबकि सच्चाई ठीक उल्टा प्रकट हो जाती है । इनके खुद के असली ईमानदार मुलाज़िमों का हाल तो दुनिया से छिपा नहीं है । संविधान निर्माताओं ने बहोत सारी गलतियां करि हुए है । उन्होंने उस व्यवस्था को सुदृढ़ कर दिया है जो की वास्तव में किसी उप-निवेश देश को चलाने के लिए ही बनाई गयी थी,- जिसमे सामाजिक उपयोग वाले कौशलों को पनपने और विक्सित होने के अवसर नहीं देने का उद्देश्य भी छिपा हुआ था

वर्तमान प्रजातांत्रिक युग में नियम रचने की व्यवस्था की आलोचना

पहले के जमाने में, जब जमींदारी प्रशासन व्यवस्था का युग था, कानून और न्याय का चरित्र मनमर्ज़ी हुआ करता था। ऐसे नियमावलि जो कि छिपे हुई- गुप्त, जिनकी कोई पूर्व घोषणा नहीं हुई हो, एक संग दो या अधिक नियम जो की विपरीत अर्थ वाले हों, discretion और arbitrariness से भरे हुए ।  फिर जब दुनिया में इस तरह के 'सामंतीय' कानूनों से निर्मित हुए 'न्याय' का विरोध हुआ, और जवाब मे इंग्लैंड में लॉर्ड डाईसी ने Rule of Law की नींव रखी, और फ्रांस में droit administratif लाया गया, तब भारतीय सामंत लोगों ने भी दुनिया के संग चलने मे चतुराई दिखाते हुए इन्होंने भी rule of law की मांग कर दी। मगर फिर जब मनमर्ज़ी के कानूनों को बदल कर rule of law के अनुसार लिखने का समय आया तब भारतीय सामंतों ने न्याय-कानून कुछ यूँ लिखा:- 1) पहला नियम, कि boss के पास हर बात में, हर मुद्दे पर discretion होगा की वह तय करे कब, कौन सा वाला नियम लागू होगा। 2) नियम ऐसे बनाओ कि कोई काम नियम-आधीन किया भी जा सकता है, और नही भी। तो वह काम कब होना है, कब नही , boss ही तय करने का निर्णय करेगा। 3) कब काम को अनदेखा कर देना "छोटी से