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राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ की आलोचना

राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और बाकी हिन्दुत्ववादी संघटनो की सर्वप्रथम ख़राब आदत है पश्चिम में हुए वैज्ञानिक सिद्धांतों और खोजों को नक़ल करके उन्हें प्राचीन वैदिक ज्ञान जताना।
  आर्यभट्ट और रामानुजम प्राचीन भारत के अपने समय और युग के अग्रिम गणितज्ञ थे। संघ और हिंदुत्व वादियीं ने इनके नाम पर इनके वास्तविक योगदान से कही अधिक श्रेय दे दिया है। प्य्थोगोरस थ्योरम और यहाँ तक कि कैलकुलस (सूक्षम संख्याओं की गणित, वास्तविक खोज न्यूटन द्वारा) को भी मूल उत्पत्ति भारत की ही बता डाला है।
   शून्य की खोज भारत में हुयी मगर संघियों ने इस खोज को ऐसा गुणगान किया की बस मानो बाकी सब खोज का ज्ञान आरम्भ-अंत यही था।
   धरती के गोलाकार और सूर्य की परिक्रमा करने की ज्ञानी खोज कॉपरनिकस द्वारा ही हुई थी। मगर संघ के लोगों ने कुछ 'अस्पष्ट सूचकों' को "स्पष्ट प्रमाण" समझ कर इस अधभुत खोज को प्राचीन वैदिक ज्ञान जता रखा है। मेरे व्यक्तिगत दर्शन में भारत की भौगोलिक स्थिति में ही कुछ वह खगोलीय घटनाएं नहीं है जिनसे यहाँ के मानस प्रेरित हो पाते यह विचार करने के लिए की धरती गोलाकार है और सूर्य की परिक्रमा करती है।
  संघ की इस हरकत के नतीजे में आज भारत की आबादी का बड़ा प्रतिशत "श्रद्धावान" गुणों वाला है, "चैतन्य" गुणों वाला नहीं जो की प्रशन करे और तर्क करे।  संघ और उसकी राजनैतिक पार्टी के समर्थकों में यह गुण -दुर्गुण- एकदम सपष्ट दिखता है।
   काफी सरे हिन्दुत्ववादियों में कर्मकांडी धर्म और विज्ञान के प्रति बहोत ही भ्रान्ति पूर्ण नज़रिय मिलता है। अक्सर करके लोग विज्ञान को कर्मकांडी धर्म का उपभाग ही मानते है - जैसे मानो की विज्ञान किसी खोई हुई प्राचीन शक्ति को फिर से ढूँढ रहा हो । संघ ने विज्ञानं की खोजो का ऐसा दृष्टिकोण पैदा किया है। आधुनिक तकनीके -राकेट , परमाणु बम इत्यादि को लोग प्राचीन "राम चन्द्र जी के तीर" और "ब्रह्मास्त्र" से तुलना कर के देखते है। यह सब भ्रांतियां हमारे संघ की देंन है। काफी सरे लोग आज भी आधुनिक विज्ञान की पढ़ाई छोड़छाड़ कर के "उस सत्य ज्ञान" की खोज में घर छोड़ कर हरिद्वार चले जाते हैं। लोग हस्त रेखा और ज्योतिष को भी "विज्ञान" ही मानते है , जिस प्रकार से गणित ,भौतिकी इत्यादि।
  आयुर्वेद को लीजिये। प्राचीन भारत से निकली एक चिकित्सा पद्दति जिसको की विश्व समुदाय ने प्राचीन युग की "वैज्ञानिक" विचार वाली पद्दति अवशय माना , मगर इतना विकसित और समृद्ध भी नहीं की वर्तमान की "एलोपैथिक" पद्धति से मुकाबला किया जा सके। संघ के श्रद्धावानों ने राजनैतिक बहुमत के दुरूपयोग से हालत यह कर दी है की आयुर्वेद को भारतं की आबादी का बड़ा हिस्सा एक विक्सित पद्दति मानता है और राम देव की दुकाने खूब चल रही है।
वर्तमान शोधकर्ताओं ने आयुर्वेद को एक वैज्ञानिक विचार वाली पद्दति में स्वीकारा था इसके कारण को स्पष्टता से समझना होगा। वह हर एक पद्दति जो किसी सिद्धांत पर आधारित हो जिसके माध्यम से उस पद्दति के ज्ञान को पीडी दर पीडी पारित किया जा सके , और जो सबके समक्ष इन्द्रिय अनुभव के आधार पर प्रमाणित हो ,वह वैज्ञानिक पद्दति मानी जाती है। आयुर्वेद का सिद्धांत था कि शरीर में रोग किन्ही तत्वों की कमी अथवा अज्ञात कारण से  उत्पन्न तत्वों के असंतुलन की वजह से रोग होते है - यह वैज्ञानिक विचार माना गया है। बल्कि आधुनिक एलोपैथिक ज्ञान में काफी सारे रोग ऐसे पाए गए जो की तत्वों या फिर  कि विटामिन इत्यादि की कमी से होते हैं।
तो इस प्रकार आयुर्वेद को वैज्ञानिक सिद्धांत वाला ज्ञान ज़रूर माना गया। मगर एलोपेथ ने भविष्य में रोगों के दूसरे कारक भी दूंढे, जहाँ आयुर्वेद पिछड़ गया। एक्स रे की खोज के बाद पश्चिमी पद्दति में शरीर के अन्दर झांकने का तरीका मिला, माइक्रोस्कोप के माध्यम से सूक्षम कोशिकाओं की संरचनाओं को समझा गया, रेडियोएक्टिव पदार्थों के द्वारा अंगों के अन्दर के प्रवाह को देखा गया, ecg, ct scan , इत्यादि कितनों ही नयी और विक्सित तकनीके आई और पश्चिम में चिकित्सीय सिद्धांत एक मूल सिद्धांत से कही आगे निकल गए। रसायन शास्त्र के सहयोग से तत्वों की पहचान हुई और दवाइयों का नाम एक अंतर्राष्ट्रीय रसायन शास्त्र मानक तकनीक से हुआ जिससे की कोई भी देश का, किसी भी सभ्यता का व्यक्ति दवाई को पहचान सके और जांच करे और पुष्टि करे।
आयुर्वेद पीछे रह गया। इसमें दवाई का नाम आज भी उस पेड-पोधे इत्यादि के नाम से होता है जिसे अंश उसके निर्माण में प्रयोग होते है। इस प्रकार आयुर्वेद की अंतर्राष्ट्रीय मानक पर स्वीकारिता कम होती है।
मुरली मनोहर जोशी जी, एक भाजपा नेता, ने कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी में रसायन शास्त्र के तत्वों के नाम और चिन्ह पढाये थे। संघीय समर्थकों की दृष्टि से यह एक गर्व करने की घटना है। इधर एक दूसरे नज़रिय से यह आराजकता थी कि जो आम सहमति से स्वीकारी गयी अंतर्राष्ट्रीय मानदंड और नामांकन पद्दति है - उसके विरुद्ध के तरीकों का प्रयोग हों रहा है। ऐसा करने से आपसी संचार को बाधा पहुचेगी।
   संघ ने भारत में "हिंदी समर्थकों" की एक ऐसी आबादी तैयार करवा दी है जिसमे अंग्रेजी को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। यह दुःख की बात है। संघ ने ऐसा यह नतीजा प्राप्त किया है एक विचार को बार-बार दोहरा कर -कि, "भारतीय को स्वयं को हेय की दृष्टि से देखना बंद करना होगा" । इस विचार के पुनरावृत्ति के परिणाम में भारत ने एक दूसरे किस्म की विकृत मानसिकता की आबादी को जन्म दे दिया है जिसमे की यदि अंग्रेजी में कुछ सही भी हो तो भी उसे स्वीकार नहीं किया जाता है , और अंग्रेजी के समर्थकों को "मकौले के औलाद" , इत्यादि अपशब्दों से संबोधित किया जाता है।
दूसरे शब्दों में , संघ ने भारतीय आबादी के अंतःकरण की मूल समस्या- की हम श्रद्धावान अधिक है ,विवेकशील और चैतन्य कम--को दुबारा श्रद्धा के माध्यम से निवारण करने का प्रयास कर दिया है।
वास्तविक नतीजों में आबादी के नज़रिय में कोई खास सुधार नहीं हुआ है, और हम आज भी "गुलामी" के कागार पर खड़े है -जब कुछ राजनेताओं की सांठ गाँठ ने देश को हज़म लिया है। "गुलामी" हमारे "श्रद्धावान" मनोभाव का सहगुण है। जहाँ श्रद्धा अधिक विकराल है, वहां गुलामी लाना आसान है।
संघ इतिहास को अपनी श्रद्धा के अनुसार पुनःलेखन की कोशिश करता है।
   संघ में अक्सर सुभाष बोसे को और सरदार पटेल को गांधी से अधिक महत्त्व देते हैं। नतीजे में संघ समर्थकों को गांधी के प्रजातांत्रिक संविधान में महत्व कम समझ में आते है। अहिंसा विकास के लिए बहोत महत्व पूर्ण है- यह भूल जाया जाता है।
  कश्मीर मुद्दे पर भी संघ और उसके समर्थकों ने ऐसी आबादी को पैदा कर दिया है जिसमे की "कश्मीर हमारा है" और "कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है" की ऐसी मानसिकता है कि जैसे खुद कश्मीरीयों की इच्छा को जानना ज़रूरी न हो! यह नैतिकता और मानवता के एकदम विपरीत की सोच है- पूरी तरह निकृष्ट । ऐसी सोच भी श्रद्धा के परिणाम हैं, चैतन्य का नाश करते हुए।
    Secularism के विषय में संघ ने secularism की छवि और व्यापक अर्थ "गैर हिन्दू जनसँख्या का तुष्टिकरण" कर दिया है। मूल अर्थ जो की पश्चिम की सभ्यता में उभरा, वह भारत की आबादी से गोचर है। लोगों मे यह चैतन्य भी नहीं बचा है की सोच सके कि कैसे Democracy के लिए Secularism आवश्यक है। सार्वजनिक चेतना में यह आत्म ज्ञान  नहीं है की पश्चिम के इतिहास की किन घटनाओं से यह सबक मिला कि Secularism समाजिक विकास और शान्ति व्यवस्था के लिए आवशयक होगा।
  बल्कि संघ ने Democracy के प्रत्यय के हिंदी अनुवाद के दौरान इसके मूल भाव को ही भ्रष्ट कर दिया है। लोग Democracy की तुलना राम-राज्य से करते हैं। और Secularism का अर्थ गैर हिन्दू तुष्टिकरण  से। कुछ एक संघी समर्थक Secularism को भारतीय संविधान के लिए अनावश्यक मानते है,इस तर्क पर कि जब भारत के इतिहास में पश्चिम जैसी वह घटनाएं हुयी ही नहीं है तब इसका भारत से क्या वास्ता। यह सब संघ समर्थक Secularism को वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से जोड़ कर नहीं समझ पाते है, और न ही इसे भारत में हुए जात पात और छुआछूत की त्रासदी से। भारत की बहु-पक्षीय आबादी में न्याय के सूत्रों में Secularism की आवश्यकता तो शायद संघ समर्थकों की बुद्धि के परे है।

   संघ और हिन्दुत्ववादी संघटनों को आत्म सुधार की बहोत आवश्यकता है। इसमें सबसे महतवपूर्ण कार्य यह होगा की संघ श्रद्धा के अंतःकरण को लघुकार करे और चैतन्य अंतःकरण को दीर्घाकार करे।

भारत का मंगलयान अभियान और इसकी आलोचना

6मई 1970 को अर्नेस्ट स्टुलिंघेर नाम के नासा के एक सम्बद्ध निदेशक के पद पर आसीन एक अन्तरिक्ष वैज्ञानिक ने ज़ाम्बिया की एक नर्स, सिस्टर मैरी जकुंडा को एक पत्रोत्तर में यह तर्क स्पष्ट किये थे कि क्यों अन्तरिक्ष अन्वेषण मानव विकास और सुधार के लिए एक आवश्यक कार्य होगा , इसके बावजूद भी कि अन्तरिक्ष सम्बंधित अनुसंधान बहोत ही खर्चीले प्रयोग होते हैं, तब जबकि अफ्रीकी महाद्वीप पर मानवता की एक बड़ी आबादी भुखमरी, कुपोषण, गरीबी, बिमारी इत्यादि के सबसे विकराल प्रकार से अभी झूझ ही रही है।
    (इस पत्र की प्रतिलिपि इन्टरनेट पर आसानी से खोजी जा सकती है।)
        आने वाले समय ने डॉक्टर अर्नेस्ट स्टुलिंघेर के तर्कों को सत्यापित भी कर दिया है। आज कंप्यूटर, इन्टरनेट, दूरसंचार, मौसम, खनिज की खोज, चिकित्सा इत्यादि कितनों ही क्षेत्रों में उपलब्ध उपकरण और ज्ञान हमे अंतरिक्ष अन्वेषण के दौरान बाधाओं को सुलझाने तथा अन्तरिक्षिय प्रयोगशालाओं में हुए प्रयोगों से ही प्राप्त हुए हैं।
   
कुछ वर्षों पहले जब एक प्रगतिशील देश भारत ने मंगल गृह पर अपने खोजी अभियान की घोषणा करी तब उसे भी इस प्रकार के मेहंगे अभियान पर धन व्यय करने वाले कार्य की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। भारत आज भी एक गरीब देश है और आबादी का एक बड़ा प्रतिशत आज भी अमानवीय स्थिति में जीवन यापन कर रहा है।
  तब भारत के चिंतकों को भी डॉक्टर स्टुलिघेर के वह तर्क स्मरण हुए कि इस प्रकार के शीर्ष अन्वेषण जन कल्याण, समाज और राष्ट्र कल्याण के लिए क्यों आवश्यक होते है। यह अन्वेषण कैसे मानव विकास और समाज के उत्थान में केन्द्रीय भूमिका निभाते हैं।
   भारत के अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों को यह भावनात्मक समझ है की अंतरिक्षीय खोजी अभियान के असफल होने की सम्भावना भी बहोत अधिक होती है। ऐसे में तमाम लागत को एक पल में ही पूर्ण नष्ट हो जाना साधारण घटना है।
   मंगल गृह पर अभी तक दूसरे देशों द्वारा भेजे अभियानों से सबक यही मिला था कि सबसे प्रथम और  शीर्ष की समस्या गृह तक पहुचने की ही है।इसलिए भारतीय वैज्ञानिकों ने मंगल गृह के अपने प्रथम अभियान के उद्देश्य को मूल तौर पर गृह तक पहुचने की तकनीक के विकास तक ही सीमित रखा। इस प्रकार अभियान की लागत भी कम होती है और आवश्यक उपकरणों को मंगल की कक्षा में प्रक्षेपित करने का प्रयास सस्ते में हो जायेगा।
   जाहिर है कि भारत का अभियान मंगल गृह का सर्वप्रथम अभियान नहीं है क्योंकि इस अभियान की तकनीक में दूसरे देशों के अभियानों से प्राप्त मंगल गृह सम्बंधित तकनीकी ज्ञान का उपयोग किया गया होगा। हाँ, रिकोर्डोँ के अहंकार में अभिशप्त भारतियों की बुद्धि को सुख, पीड़ा-निदान देने के लिए यह अवश्य कहा जा सकता है की भारत का अभियान किसी भी देश द्वारा प्रथम प्रयास में प्राप्त सफलता का "प्रथम रिकोर्ड" है
    मगर सस्तागिरी में किये अन्वेषण संभवतः वह योगदान शायद न दे सकें जो कि डॉक्टर स्टुलिंघेर ने कल्पना करे थे। इसलिए आवश्यक होगा कि भारत भी भविष्य के अभियानों में आवश्यक सभी सुविधाओं और तकनीकों को समायोग करे जिससे कि हमारा अन्वेषण कार्य किसी भी देश के पिछले अभियान के क्षितिज के पार जा सके। ऐसा करने से ही हमारे देश और समाज के विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।

आलोचना करना और निंदा करना में भेद

आलोचना करना मनुष्य बुद्धि का आवश्यक स्वरुप है। जहाँ चैतन्य है वहां आलोचना है। और जहाँ श्रद्धा है, वहां केवल स्तुति है।
  श्रद्धा जब चैतन्य से विभाजित हो जाती है तब अंधभक्ति बन जाती है।
मगर आलोचना और निंदा में अंतर है। आलोचना मात्र विश्लेषण है जिसका परम उद्देश्य गुणवत्त से है, सुधार से है। जहाँ सुधार है, वहां शुद्धता है, वहां सौंदर्य है, पावनता है, निश्चलता है ।
सौन्दर्य ,निश्चल,पावन, शुद्ध - जहाँ यह सब है वहां पवित्रता है।
    और जहाँ पवित्रता है ,वही ईश्वर हैं। बल्कि अंग्रेजी में तो कहावत ही है -
Cleanliness is Godliness.

आलोचना को निंदा से भिन्न करना आवश्यक है। निंदा शायद अपमान,तिरस्कार के भाव में होती है। यह घमंड और अहंकार से प्रफ्फुलित होती है। इसमें शक्ति का उपभोग है, शक्ति का जन कल्याण के लिए परित्याग नहीं है।
  आलोचना एक निश्चित दिशा की और प्रेरित करती है। निंदा दिशा हीन है।
आलोचना आदर्शों के अनुरूप होती है। निंदा में स्वयं-भोग ही उद्देश्य है।
आदर्श में से सिद्धांतों और अवन्मय को जन्म होता है। बुद्धि और बौद्धिकता का विकास होता है।
आत्म भोगी का कोई आदर्श नहीं है। वहां स्वयं की संतुष्टि के लिए ही सब कुछ करता है।
   आलोचना प्रेरित करती है कि कठिन आदर्शों और सिद्धांतों के अनुरूप प्रयास किया जाए और असंभव होते हुए भी उसे प्राप्त करते रहने में युग्न रहे।
  निंदा स्मरण कराती है की जो आदर्श असंभव है ,वह कभी भी प्राप्त नहीं किये जा सकते ,इस लिए अपने श्रम और प्रयासों के उद्देश्य को स्वयं की संतुष्टि में दूंढ कर जीवन सुख प्राप्त कर लें।

भारतीय जागृति की समस्या

#अंधभक्ति की समस्या है क्या.... ???

गहराई से विचार करें तो #अंधभक्ति की समस्या का मूल अर्थ है वह परिस्थिति जब मनुष्य सत्यापन की विधि में श्रद्दा के मनोभाव का अत्यधिक प्रयोग करता है, शरीर की इन्द्रियों का नहीं।
यानि #अंधभक्ति में मनुष्य सत्य उसी को "मानता है" जिसमे उसकी श्रद्धा है,अथवा जो उसकी वर्तमान श्रद्धा मनोभाव से तालमेल रखे,वह नहीं जो कि उसकी इन्द्रियों और तार्किक मस्तिष्क के गुणात्मक प्रयोग से निष्कर्ष निकले तथा वर्तमान श्रद्धा को विचलित करे।
  चरवाक् नामक के प्राचीन विचारक ने भारत में नास्तिक विचारधारा की नीव डाली थी। चरवाक् के अनुसार सत्य वह था जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत किया गया हो।
   इससे पूर्व आर्यों की संस्कृति मूलतः विद्या ज्ञान पर आधारित थी । अगर मानव विकास की प्रक्रिया को अन्थ्रोपोलोगिकल दृष्टिकोण से देखें तो ज्यादा आसन हो जायेगा समझना कि आर्यों ने वनचर्य जीवन शैली से आ रहे क्रमिक विकास मानव को विद्या की ओर क्यों प्रेरित किया होगा और संस्कृति क्यों विद्या पर ही आधारित हुई होगी।
   बरहाल, विद्या गृहण करने के उपरान्त एक समस्या अक्सर उत्पन्न होती होगी की सही ज्ञान किसे माना जाये। ऐसा अक्सर होता है की एक से अधिक ,विरोधास्पद विचार दोनों ही सत्य ज्ञान होने का आभास देते हैं।
   अधिक work करने से इंसान की जिंदगी छोटी हो सकती है ,जबकि अधिक workout करने से शरीर स्वथ्य रहता है और इंसान अधिक लम्बा जीता है !!
   तो स्वाभाविक प्रशन उठता होगा की किस ज्ञान को सत्य ज्ञान माना जाये, और किसी परिस्थिति में किस ज्ञान का प्रयोग करा जाए इसका न्याय कैसे किया जाए ?
  आर्यों की संस्कृति में सभी प्रकार के विचारों का एक साथ सह-अस्तित्व करना स्वाभाविक ही था क्योंकि उस काल में एक-आस्था के विचार और सम्प्रदायों का जन्म होने की कारक-भूमि अभी तैयार नहीं हुयी थी।
   उस काल में बहु-विचारक आर्य संस्कृति ने न्याय करने की विधि के माध्यम से ही नैतिकता को खोज होगा जिसके आधार पर मनुष्य दूसरे मनुष्य से सम्बन्ध रख सके और एक समाज का निर्माण हो सके। निरंतर न्याय करते रहने की इस क्रिया को ही संभवतः "धर्म" कह कर पुकारा गया है, जो की आर्य संस्कृति का आधारभूत बनी। आर्य संस्कृति इस प्रकार से "धार्मिक संकृति" थी। धर्म से अभिप्राय वर्तमान काल में समझे जाने वाले 'हिंदुत्व' अथवा किसी भी कर्मकांडी मान्यता से नहीं था। धर्म का अभिप्राय न्याय,कर्तव्यपरायणता,उत्तरदायित्वों का निर्वाह इत्यादि से था जिससे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर विश्वास कर सके और एक समाज बना कर सह-निवास कर सके।
   विद्या पर आधारित होने के वजह से आर्यों की संस्कृति को वैदिक संस्कृति कह कर पुकारा जाता है। और आपसी समाज के निर्माण का आधारभूत "धर्म" है, जो की बुनियादी नैतिकता का स्रोत है ।
   'धर्म' अपने आप में एक खुला हुआ स्रोत है जिसमे कोई भी योगदान दे सकता है। आधुनिक विचारधारा में समझे तो "धर्म" कोई Open Source Code program है ,जबकि नैतिकता के दूसरे स्रोत जो मनुष्यों ने भविष्य में विक्सित किये वह Closed Source Software थे जिसमे हर किसी को योगदान देने की अनुमति नहीं है।
     धर्म पर टिकने वाली बहु-विचारी आर्य संस्कृति को आगे के काल में प्रमाण के नियमों की आवश्यकता भी स्वाभाविक रूप से पड़ी होगी। न्याय को प्रमाणों के सत्यापन के बिना नहीं किया जा सकता है।
    तब यहाँ से दो विचारधाराओं का जन्म हुआ-जिसमे भिन्नता प्रमाण के नियमों के लेकर हुयी। आस्तिकता एवं नास्तिकता। आस्तिकता विचारधारा में सत्य को अंततः श्रद्धा का गुणक मान गया - सत्य वही है जिसमे तुम्हारी श्रद्धा है,बाकी सब असत्य है। इन्द्रियों से गृहित तथ्य भी सत्य नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रियां धोखा दे सकती है। Optical Illusion जैसे कितनों ही प्रयोग आधुनिक इन्टरनेट पर छाये हुए हैं जिनसे बार-बार यह निष्कर्ष आता है की कैसे आखों देखा भी सत्य होने का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं "माना जा" सकता है। यानि इन्द्रियां भी धोखा दे सकती हैं।
   तो आस्तिकता विचारधारा में इस समस्या का आसान समाधान यही समझा गया कि "मान लेना" ही सत्य का अंतिम स्वरुप है, और इसलिए श्रद्धा मनोभाव को ही सत्य ज्ञान का केंद्र समझना चाहिए। जो "मान लिया" वह सच है,जो नहीं "माना" वह सच नहीं है।
    यहाँ से #अंधभक्ति की समस्या का उद्गम होता है। आस्तिकता। आस्तिकता का एक-बिंदु अर्थ यह नहीं है कि "वह जो ईश्वर में आस्था रखता है"। आस्तिकता से अर्थ है वह जो श्रद्धा मनोभाव को सत्य ज्ञान का केंद्र मानता है ।
    अब चुकी श्रद्धा का पात्र अक्सर ईश्वर ही होता है इसलिए शायद भूल से आस्तिकता का अर्थ "ईश्वर में आस्था रखने वाला" निकल पड़ा है।
   आस्तिकता वादियों के साथ मुठभेड़ (तर्क वाद) में नास्तिकों को तथ्यों की सूची (Inventory of Facts) तैयार करने में भी बहोत दिक्कत आती है। इसलिए क्योंकि आस्तिक लोग तथ्य तो उसी इन्द्रिय ज्ञान को मानते है जो उनकी श्रद्धा भाव को विचलित न करे। हर वह इन्द्रिय ज्ञान जो उन्हें कष्ट दे सकता है वह स्वीकार नहीं करते है ,जब तक कि उस इन्द्रिय ज्ञान उनके विश्लेषण से ऐसे निष्कर्ष न निकले जा सके जो उनके श्रद्धा मनोभाव को कष्ट न दे।
     आस्तिक और नास्तिक विचारों में मेल होना करीब-करीब असंभव है। यह नदी के दो किनारे हैं जो शायद कभी भी नहीं निलेंगे। बहु-विचारी आर्य संस्कृति ऐसी है जो दोनों को ही साथ लेकर गंगा की धारा के समान बहती ही रहती है।
    आस्तिकता का परिणाम आधुनिक भारत में पंथनिरपेक्षता यानि Secularism के विचार पर पड़ता ही रहेगा। Secularism जिस प्रकार से पश्चिम संस्कृति और इतिहास में जन्म ली , वह मूल विचार आस्तिकतावादियों की श्रद्धा पर गहरी चोट दे सकती है। इसलिए वह इसे स्वीकार करेंगे ही नहीं।
   समस्या यह है कि प्रजातंत्र भी पश्चिमी उपज है और प्रजातंत्र में भिन्न विचारधाराओं के मध्य न्याय करने के लिए वैज्ञानिक विचारों एवं विधियों को ही स्वीकार किया जा सकता है। वैज्ञानिकता फिर से नास्तिकों से अधिक मेल रखती है, आस्तिकों से नहीं। अर्थ यह हुआ कि Secularism के बिना Democracy का सफल होना संभव नहीं है। और Secularism आस्तिकों को भाता नहीं। यानि आस्तिकों को बाहुल्य देश सफल Democracy नहीं बनाया जा सकता है !!!!!

गुरुत्व के नियम, इस्साक न्यूटन और भाजपा के अंधभक्त समर्थक

गुरुत्व के नियम, इस्साक न्यूटन और भाजपा के अंधभक्त समर्थक
(व्यंग रचना)

सोलहवी शताब्दी की बात है। इस्साक न्यूटन नामक एक युवक ने पेड़ से एक सेब को गिरते देख कर कुछ नया सोचा और उन्हें गुरुत्व के सिद्धांत कह कर प्रकाशित करवा दिया।
  न्यूटन के सिद्धांत के अनुसार सेब वृक्ष से धरती की ओर इस लिए गिर था क्योंकि एक अदृश्य ताकत 'गुरुत्व' उसे धरती की और खीच रही थी। और ऐसी ही एक ताकत धरती को सेब की और भी खींचती थी।
  भारतीय जनता पार्टी के रामदेव तथा मोदी के उपासक भक्तजनों को यह विचार कतई पसंद नहीं आया की कोई अनियंत्रित ताकत वस्तुओं का व्यवहार समान रूप से नियंत्रित करती थी। वह सब भगवान् कृष्ण तथा भगवत गीता में अथाह विश्वास रखते थे और उनका मानना था की सब कुछ इश्वर की इच्छा से नियंत्रित होता है ,तथा ईश्वर मनुष्य के द्वारा कर्मो के अनुसार उसको फल देता है।
  अंधभक्तो के इस श्रद्धा के अनुसार वृक्ष से गिरा सेब किसी गुरुत्व-फुरुतव की वजह से नहीं धरती पर आया था, बल्कि यह इश्वर की इच्छा थी। और सेब द्वारा धरती को अपनी ओर खींचने की सोच तो पूरी तरह बकवास ही थी।
  तो अंधभक्तों ने न्यूटन का विरोध करने की ठान ली। पता नहीं इस आदमी न्यूटन और इसके सिद्धांत समाज को कैसे अव्यवस्थित और भ्रष्ट कर दें। क्या पता कल को लोग ईश्वर में विश्वास करना ही छोड़ दें।
  न्यूटन को जब लोगों के विरोध का पता चला तब उसने अपनी प्रयोगशाला में तमाम प्रयोग विक्सित करे की लोग स्वयं से अपनी इन्द्रियों से आकर सत्यापन कर लें कि उसके द्वारा रचे सिद्धांत सत्य है या कि नहीं।
  अंधभक्तों और न्यूटन के मध्य तर्कों का वाद आरम्भ हो चूका था।
न्यूटन ने अपने द्वारा रचे सिद्धांतों के आधार पर कुछ घटनाओं के संभावित नतीजों की घोषणा करी जिसे यह पता चले की उसके सिद्धांत ठीक ठाक हैं कि नहीं।
   अंधभक्तों ने तुरंत कटाक्ष करते हुए बताया की उनके साथ भी कितनों ही पीर फकीर और सिद्ध योगी भविष्य वाणी करने वाले लोग है जो की न सिर्फ अजीवित पदार्थ बल्कि जीवित मनुष्यों के जीवन की भी भविष्य घोषणा कर लेते हैं।
  अंधभक्तों में से कुछ ने न्यूटन के साथ थोडा सयंम से वाक् युद्ध करने की ठान ली। उन्होंने न्यूटन से सर्वप्रथम यह पुछा कि उसे यह किस ने,किस मुर्ख ने बताया है की संसार में कोई भी दो वस्तु, दोनों एक दूसरे को अपनी और आकर्षित करते हैं।
   उन्होंने प्रयोग के तौर पर दो गेंदों को एक मेज पर आमने सामने रख दिया और न्यूटन से पुछा कि क्या यह दोनों एक दूसरे की और स्वयं से ही चलना आरम्भ करेंगी ?
  न्यूटन परेशान हो रहा था। उसने इस प्रयोग के औचित्य पर प्रशन उठाते हुए बताया की घर्षण की वजह से ऐसा नहीं होगा यद्यपि गुरुत्व शक्ति यहाँ भी विद्यमान होगी ।
  अंधभक्तों ने व्यंग करते हुए न्यूटन को अपनी बात से पलटने का आरोप लगाया। फिर पुछा की अब यह घर्षण क्या ताकत है। यह सब बातें न्यूटन को किसने सिखाया है? कौन उसे बेहका रहा है?
   न्यूटन ने पहले तो यह स्पष्ट करने की सोची की उसके विचार उसे किसी ने भी नहीं बताये है बल्कि उसके मूल रचना हैं।
  कुछ अंधभक्तों ने तो ठहाका ही लगाया की यह मुर्ख तो कुछ भी अपने मन ही उलूल-जुलूल बोल्ता रहता है। यह तो पागल है। किस शास्त्र में , किस उपनिषद में ऐसी किसी ताकत का ज़िक्र है। किसी भी प्राचीन और वैदिक ऋषि-मुनि ने इसका कही भी ज़िक्र नहीं किया है।
   कुछ अंधभक्तों ने न्यूटन की मूल रचना के प्रेरणा-स्रोत को जानना चाहा। तब न्यूटन ने उन्हें पेड़ से सेब के गिरने के वाकये का ज़िक्र किया।
   इसपर अंधभक्तों ने न्यूटन पर अपने बौद्धिक मैथुन करने के व्यंग्य वाण चलाये। कि सेब को पेड़ से गिरता देख कर इस मूर्ख न्यूटन ने देखों न जाने क्या क्या उलटी कर दी है। क्या मूर्ख को यह नहीं दिखा की आकाश में कितने पक्षी विचरण कर रहे हैं। इसको यह समझने में कितना समय लगेगा की इन पक्षियों के पर है जबकि सेब के पर नहीं होते ।इसलिए सेब नीचे गिर गया जबकि वही कोई चिड़िया का बच्चा होता तब वह पेड़ से गिर कर भी आकाश में उड़ जाता। कुछ अंधभक्त जिनकी सहन शीलता का बाँध टूट रहा था वह बोले कि जब तक इस मुर्ख को इसी पेड़ से नीचे नहीं गिरा देते इसको समझ में नहीं आने वाला है।
   अंधभक्तों ने तुरंत न्यूटन को अपने प्रतिद्वंदी आपियों का भी बाप करार दे दिया।
  कुछ अंधभक्तों ने फिर भी न्यूटन को और जलील करने के उद्देश्य से उससे वाक् युद्ध आरम्भ रखने की ठान ली।
  उन्होंने न्यूटन से प्रशन किया की भई यह गुरुत्व है क्या,जो दिखती भी नहीं है और कुछ ऐसा भी नहीं करती कि हम उसमें "अपनी श्रद्धा ईश्वर में से स्थानांतरित कर के पुन:स्थापित कर दे",यानी कि "मान ले"। इन्द्रियों से सत्यापन का हश्र तो तुमको हमने समझा दिया है। अब बोलो...? यदि हम गुरुत्व को माने तब तो कर्मो का कोई अंतर रह ही नहीं जायेगा। कोई जितना भी पर फड़-फड़ा ले,गुरुत्व तो सब ही को नीचे उतार देगी? यह कौन सी चीज़ है जो ईश्वर के कथन के विरुद्ध चलती है। भई कर्मों का फल नहीं मिलेगा क्या..? कहाँ देखा है तुमने गुरुत्व को?
   न्यूटन अब पागल हो रहा था। उसको कुछ समझ नहीं आ रहा था कि इन मुर्ख, समालोचनात्मक चिंतन से अस्त लोगों को कैसे समाझाऊँ। न्यूटन ने फिर भी हार नहीं मानी और एक प्रयास किया। उसने बताया की यदि आप किसी ऐसे आदर्श स्थान की कल्पना करें जहाँ घर्षण भी न हो,और गुरुत्व को कोई और स्रोत न हो, दोनों गेंदों का वजन आपस में तुलनात्मक हो तब मेरे यह सिद्धांत अवश्य सिद्ध हो जायेंगे।
   अब तो अंधभक्तों की हंसी का ठीकाना ही नहीं रहा। उन्होंने सीधे उपहास उड़ने वाली हंसी में न्यूटन से पुछा की अमां यार ऐसा स्थान है कहा?ज़रा हमें भी बताओ। ज़रा हम भी तो जाने कि वहां क्या क्या होता है?और तुम्हे क्या ख़्वाबों में ही यह सब दिख गया कि ऐसी किसी जगह में क्या-क्या होता है?
   न्यूटन बावरा हुआ जा रहा था। वह थक रहा था। उसने सोचा कि इससे बेहतर है की वह विदेश चला जाए जहाँ की संस्कृति में विरोधात्मकता उपज चुकी है और पंथनिरपेक्षता जन्म ले रही है। शायद वहां का प्रजातान्त्रिक प्रशासन उसकी बातों को सुन ले।
   इधर अंधभक्तों ने न्यूटन को तर्कों में परास्त कर के भगोड़ा घोषित कर दिया।
  अंधभक्तों के एक गुप्त समूह ने न्यूटन पर अपमानजनक ,कामुत्तेजित व्यंग्यों अथवा शत्रु राष्ट्र का शुभचिन्तक होने मिथक ताना बाना कस दिया कि उसकी बात कोई व्यक्ति सुने ना।और यदि सुन भी ले तब भी उसे अपनी श्रद्धा न दे। जनता विश्वास को श्रद्धा का पर्याय समझती है। विश्वास सत्यापन से होता है,प्रमाणों की परख से होता है, न्याय करने से होता है। श्रद्धा मन का एक भाव है, जो अंतःकरण का ही एक स्वरुप है।
   खैर, विदेश के प्रशासन को अपनी कॉपरनिकस वाली ऐतिहासिक और सामाजिक भूल याद थी,इसलिए उन्होंने न्यूटन का अपमान नहीं किया और उसके विचार और प्रयोगों पर अमल किया और आगे शोध कार्य आरम्भ कर दिया। नतीजों में उन्होंने गुरुत्व को नियंत्रित करने की क्षमता भी विक्सित कर ली-और राकेट और उपग्रह जैसे उच्च तकनीक वैज्ञानिक संसाधन विक्सित कर के न्यूटन के दिए गुरुत्व के सिद्धांतों को प्रकृति का अटूट नियम के रूप में स्वीकार कर लिया। वहां की पंथनिरपेक्ष संस्कृति में गुरुत्व तथा अन्य ऐसे ही कई वैज्ञानिक  नियम 'ईश्वर की शक्ति' का स्वरुप तथा 'उचित ईश्वरीय ज्ञान' समझ कर पूरी श्रद्धा के साथ स्वीकार कर लिए गए।
   इधर अंधभक्तों ने पीड़ी बदलने के साथ ही न्यूटन को विदेश में मिली इस कामयाबी पर तुरंत सुधार करते हुए अपने वैदिक ज्ञान कोष ,वेदों तथा उपनिषदों में गुरुत्व के प्राचीन ज्ञान का सुधार कार्य किया ताकि यहाँ की श्रद्धा सुमन अंधभक्त अब आगे से न्यूटन के सिद्धांतों को स्वीकार करना आरम्भ कर दें।
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उपसंहार:
   न्यूटन को अपने देश में कुछ एक समर्थन फिर भी प्राप्त हुआ था।क्योंकि कुछ लोग ज्ञान और श्रद्धा में अंतर करना जानते थे। श्रद्धा जब अत्यधिक विकराल हो जाती है तब वह ज्ञान की बाधक हो जाती है। वह अंतःकरण को ही निगल जाती है और सही और गलत का आत्मज्ञान नष्ट होने लगता है। अत्यधिक श्रद्धालु लोग ज्ञान(अथवा तथ्य) का भी श्रद्धा के दृष्टिकोण से मूल्यांकन करते हैं, इन्द्रियों से नहीं। उनके अनुसार सही ज्ञान वही है जो उनकी श्रद्धा से तालमेल रखे। यह अत्यधिक आस्तिकता का अनवांछित परिणाम होता है।
   कम श्रद्धालु लोग अथवा नास्तिक लोग ज्ञान और श्रद्धा में अंतर रखते हैं तथा ज्ञान को इन्द्रियों के प्रयोग से मूल्यांकित करते हैं। इसलिए वह तर्कों के आधार से प्रमाण करने के कुछ नियमों को विक्सित कर लेते हैं। इसके प्रयोग से वह ज्ञान के सही अथवा गलत होने का न्याय करतें हैं।
   श्रद्धालु कहते है कि वह कोई वकील या जज नहीं है कि कचहरी के जैसी कार्यवाही जीवन में हर चीज़ में करें। इसलिए श्रद्धालुओं को नास्तिकों का "वकील गिरी" वाला आचरण बिलकुल भी नहीं भाता है।
   श्रद्धालु अंधभक्तों के अनुसार दुनिया ईश्वर की इच्छा से चलती है। नास्तिकों के अनुसार दुनियां कुछ सिद्धांतों पर चलती है। यह अटूट नियम ही वैज्ञानिक सिद्धांत है,और यही प्रकृति की शक्ति है। यह सब स्थानों और काल में समान रूप से चलते हैं।
  अंधभक्त स्वाभाविक तौर से किसी व्यक्ति में श्रद्धा और समर्पण का ही रास्ता चुनते है। उनके अनुसार समस्या का समाधान वह परम श्रद्देय व्यक्ति ही दिला सकता है,और वह स्वयं सभी इच्छाओं से ,भ्रष्ट होने के कारणों से विमुक्त है।
  नास्तिक लोग सिद्धांतों को तलाशते है। वह प्रकृति में और प्रशासनिक प्रावधानों में सिद्धांत की सटीकता को ढूँढते हैं। इसलिए वह सिद्धांतों की तलाश में किसी आदर्श आचरण परिस्थिति की कल्पना करने में हिचकते नहीं है, फिर भले ही वास्तविक दुनिया में वह आदर्श परिस्थिति का अस्तित्व न हो।
   अंधभक्तों को "हिन्दुत्व" किसी देवी देवता की उपासना और कर्मकांड में दिखता है।
  नास्तिकों को "धर्म" सत्य की तलाश में दिखता है। भग्वद गीता में चर्चित "कर्म का फल" से तात्पर्य प्रकृति के नियमों से है, किसी घटना का  अन्य किसी अतार्किक प्रतिक्रिय से नहीं।

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