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The Sea Stabilization debate around Marine Radars

The problem of human mind is its tendency to become fixated with any IDEA that it receives with overwhelming emotions.

Even as the young seafarers started to understand the importance of the STW (Speed through Water) feed to the ARPA for the purpose of Collision Avoidance , the debates around HOW and WHY such action is important , it seems to be leading TO A FIXATION among many young seafarers so much that they seem to be becoming oblivious of the importance of the SOG (speed over ground) Feed to the ARPA !!

Debating often tends to create the Fixated Advocacy of some idea, so much that people begin to judge the purpose and utility of an idea exclusively with respect to what FIXATION they bear in their minds.

The STW Data Feed on the ARPA seems to generate one such incidence. The advocacy of the 'STW Vs SOG' Debate leads, at one point, to discuss the TCPA and CPA. Theoretically, the TCPA and the CPA will not be affected whether a RADAR is fed with STW or the SOG. This condition leads many of the young seafarers into thinking that SOG is a wasted information, and it bears no connection with the calculation of the TCPA and the CPA.

But this is farther from the truth. This is because, there is an INVISIBLE underlying ASSUMPTION  whenever one says that the TCPA and the CPA Data is not affected by the use of STW or SOG, no matter what. The assumption is that Speed and Course of all the ships, Ownship and the Target Vessel, both are constant !!

Once you understand this deceitful assumption, you might be drawn to understand how the SOG feed to the ARPA is essential in order to "judge" the TCPA and CPA .

Notice that quotation marks around the word JUDGE . The word, "Calculate" has been deliberately avoided.

It seems that focus will have to be shifted towards discussing the importance of feeding the SOG to the ARPA in 'judging' the TCPA and the CPA, and also its use in the APRA technology which is handling multiple targets at any single instance.

The single most important reason for why  you would need your ARPA to receive the SOG (Speed over ground) feed from another Equipment, (let us say the GPS) is that you first "judge" whether the target is Stationery or Moving .
Well, Why do you want such a judgement?
Because you would not like to look foolish applying your ROR against a "target" which may later turn out to be a Light house, or a Buoy, or a isolated Rock !

The STW feed to ARPA will not help you realise which object is Stationery and which is moving.
But, Once you have this basic sense , it is now that you begin to judge what ROR you will apply.

Of course you may switch the feed further at your convenience to do the rest.

SOG Feed is needed in the ARPA for Navigation purpose , although not for Collision Avoidance.


______

I wish to highlight the issue that even SOG Feed has a utility in the determination of risk of Collision.


Let's say, how the SOG helps make distinction between which targets are moving and which are Stationery .


SOG Feed has utility in Trial manoeuvres,


For Determination of Risk of Collision -------> Speed over Ground 


For Action to avoid Collision ---------> Speed Through Water .


Distinction is being made in the two stages

Stage 1 : Determination of Risk of Collision 


Stage 2 : Determination of the Action to avoid Collision.


Ok?

भारत की हज़ारों वर्षों की ग़ुलामी के अलग अलग root cause analysis

ऐसा क्यों हुआ की भारत भूमि ने विभीषण पैदा किये, जय चाँद पैदा किया , मीर जफ़र पैदा किये , मगर कमांडर नेल्सन नहीं ?

भारत के पश्चिमी राज्यों में यह समझा जाता है की भारत देश को हज़ारों वर्षों की ग़ुलामी, हर एक आक्रमणकारी के हाथों शिकस्त और उत्पीड़न इस लिए देखना पड़ा क्योंकि यहाँ गद्दार पैदा हुए थे, जबकि भारत हर जगह श्रेष्ठ था ।

root-cause-analysis  अपने आप में एक पूर्ण साधना होती है, वैज्ञानिक चिंतन शैली में । cause and  effect  के बारे में तो सभी ने पढ़ा-सुना हुआ होगा । मगर  क्या आपने कभी यह एहसास किया है कि आपके आसपास में मौजूद व्यक्ति समूह हर कोई एक ही तःथ्यों से लबाबोर घटना में अलग-अलग cause का निष्कर्ष निकालता है ।

और फिर जब हर एक के cause  अलग-अलग  होते हैं , तब फिर उसके 'गुन्हेगार',( - Culprit ), भी अलग होते हैं, सज़ाएं भी अलग किस्म की होती हैं, इलाज भी अलग ही होते है ।

बड़ा सवाल है की यह कैसे पहचान करि जाएगी की इतने तमाम causes  की सूची में से सटीक वाला कौन सा है, जिसको यदि सत्य मान कर इलजा किया जायेगा तब effect (या नतीजे ) प्राप्त होंगे वह हितकारी और संतुष्टि देने वाले होंगे?

किसी भी उद्योगिक दुर्घटना और किसी भी अन्वेषिक अपराध के दौरान जांचकर्ताओं को जिस प्रकार की माथापच्ची से गुज़रना पड़ता हैं, और यह माथापच्ची उनके चिंतन में जो कबलियत विक्सित करती है, यह वही है जो की root  cause  analysis  कहलाती है, और जो की तमाम किस्म के causes  की सूची में से सत्यवान cause  की शिनाख्त करने में योगदान देती है ।
आप में से कोई भी व्यक्ति चाहे तो अपने अंदर यह चिंतन विक्सित कर सकता है किसी भी Conspiracy Theory  या किसी भी Mystery को सच्चे दिल से खोज करने से ।

खोज यानि अन्वेषण करने का इंसानी चिंतन पर सबसे बड़ा प्रभाव और योगदान यही होता है -- कि, खोज करने से इंसान को दिमाग की root  cause  analysis  की क्षमता सुदृढ़ करने का अवसर मिलता है । और फिर जो व्यक्ति root  cause  analysis  सही से  सकता है , वही cause  and effect  क्रिया के दौरान सटीक वाले cause  को पहचान करके बताता हैं, और फिर समाधान भी उचित देता है जिसके प्रभाव स्वयं सिद्ध हो जाएं । वरना इंसानो का क्या है कि  झूठे या मिथक causes  को पकड़ लेते हैं और फिर समाज को अनंत सालों  तक के लिए सत्य से दूर भटका करके  उसी एक समस्या से ग्रस्त कर दते  हैं, समस्या को ला-इलाज बना देते हैं ।

इंसान चाहे 'भक्त' दर्शन को हो , या नास्तिक चिंतन शैली का , उसने अपने आसपास की घटनाओं का  analysis  करके cause  and effect  को तैयार सदैव किया है । जब water cycle  नहीं पता थी, तब 'भक्त दर्शन' में बारिश बरसने के cause  यह हुआ करते थे की गणेश भगवान अपनी सूंड़ उठा कर बारिश करते हैं, या की इंद्र देव् बारिश करते हैं । गाय पशु सांस लेते समय oxygen छोड़ती हैं, यह वाली समझ भी अपने किस्म की cause  and effect  सोच का ही नतीजा है , यह दूसरी बात है की इस तरह वाली सोच ने हवा में से oxygen की खोज और पहचान नहीं करि थी । यानि 'भक्त' सोच सही है या ग़लत , इसका असली प्रमाण उस सोच में से निकलते प्रभाव खुद-ब-खुद दे देते हैं ।

सत्य की अंत में पहचान यही होती है -- कि, वह खुद से जो कुछ प्रभाव उत्पन्न करता है, वही सभी लोगों के मन को संतुष्टि दे कर अपने सत्य होने का एहसास करवा देता है ।
सत्य स्वयंभू होता है, और इसलिए हिन्दू दर्शन में सत्य को शिव भगवन भी माना  गया है

तो यदि मूल कारण - cause,  कि,  क्यों यह देश हज़ारों सालों  की ग़ुलामी में गया , और हर एक आक्रमणकारी के हाथों शिकस्त देखता रहा, यदि यही है की गद्दार पैदा हुए है , तब फिर ग़द्दारी  का ईलाज  से शायद समस्या का इलजा हो जाना चाहिए भविष्य काल में  भी । ग़द्दारी का क्या इलजा होगा ?-- कि गद्दार को कड़ी से कड़ी सज़ा  दो -- सभी के सामने , बीच चौराहे पर --ताकि भविष्य में कोई गद्दार पैदा ही न हो । या की सभी नागरिकों पर aadhaar card जैसा surveillance बैठा दो की गद्दारी करने की सोचे भी, तो पकड़ा जाए।

या फिर आप चाहो तो गद्दारी को root  cause  न मानो, बल्कि सामाजिक अविश्वास को cause मान लो। तब अब सामाजिक अविश्वास का ईलाज  करोगे। इसमें आप न्याय सूत्र और न्यायिक प्रक्रिया के सुधारों पर ज़ोर  दोगे, की आपसी अविश्वास ही परस्पर सहयोग को बंधित करता है।  परस्पर अ-सहयोग , या अविश्वास लिए उत्पन्न होता है क्योंकि समाज यह सुनिश्चित करने की व्यवस्था नहीं देता है की किसी अमुक व्यक्ति को वैसे हालातों में वही सुविधा या वही ईनाम  दिया जायेगा ।
यह दूसरा वाला जो cause  हैं, यह वही है  क़ि भेदभाव और जातपात , favouritism , nepotism  से भी  जुड़ता है। तो फिर ज़ाहिर है की जो लोग भारत भूमि पर  जातपात के  इतिसाइक तथ्यों को  स्वीकार नहीं करते  हैं, वही लोग देश की हज़ारों वर्षों की ग़ुलामी के causes  को गद्दारी से जोड़ते है, सामाजिक अविष्वास और न्याय सूत्रों की खामियों से नहीं ।

निजीकरण विषय मे भारत की जनता में मतविभाजन

देश इस समय निजीकरण विषय पर दो वर्गों में विभाजित है।

एक मत के अनुसार निजीकरण नही किया जाना चाहिए (रलवे , इत्यादि का) और उसे यूँ ही सरकारी रेलवे विभाग के हाथों सौंप कर चलते रहने देना चाहिए। यह *समाजवादी* सोच के लोग है। *समाजवाद* में सरकार ही व्यापारिक संपत्ति की स्वामी होनी चाहिए।

और दूसरे मत के अनुसार आम नागरिक को उसका अधिकार मिलना चाहिए, अपनी जरूरत और अपनी जिंदगी खुद से चलाने का। तो व्यापार के अधिकार भी उसे मिलने चाहिए। उसको हर एक क्षेत्र में व्यापार का अवसर मिलना चाहिए , कुछ बुनियादी क्षेत्र छोड़ दें तो - राष्ट्रीय सुरक्षा, बुनियादी रोटी, कपड़ा, मकान और चिकित्सा को। यह *निजीकरण* का वर्ग है , जिसको *समाजवादी* सोच में अक्सर *"पूंजीवादी*" के आरोपी नाम से पुकारा जाता है। (चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए हम यही नाम प्रयोग करेंगे , " *पूंजीवादी* " , हालांकि कोशिश करेंगे कि इस नाम के अभिप्राय में संयुक्त आरोप से खुद के चिंतन को मुक्त रखते हुए दोनों पक्षों को बराबर की सुनवाई दें।)

समाजवादियों के अनुसार व्यापार के ऊपर सरकार का स्वामित्व होना चाहिए। सरकार अभी तक UPSC द्वारा चयन किये गए अपने नुमाइंदों को व्यापार और उद्योगों में सीधे chairman या deputy chairman जैसे पदों पर नियुक्त करती थी, और वही उस *उपक्रम* का संचालन करते थे।

पूँजीवाद वर्ग के आरोप हैं कि यह पद्धति *लाल फीताशाही* थी, इसमे किसी का भी निजी स्वार्थ नही था, जिसके चलते इस तरह उन उपक्रम का कोई माई-बाप नही होता था। सब अपने अपने मनमर्ज़ी से चलाते थे, अपना निजी फ़ायदा ही देखते थे, और बस अपनी तनख्वाह की ही परवाह करते थे कि हमे हमारी तनख्वाह मिल जाये, बाकी फिर व्यापार को सुधारने, नवीनकरण, उद्योगिक स्पर्धा , इत्यादि में कोई दिलचस्पी नही रहती थी किसी की। इससे कुल मिला कर आम आदमी ही त्रस्त होता था, जबकि उवक्रमों में ऊंचे पदों पर बैठे यह upsc वाले नौकरशाह तो टैक्स की तनख्वाह से मज़े में जीते रहते थे, सरकारी खर्चे पर।

प्रजातंत्र के अधिकारों का अंत मे हनन हो होता था। अगर संविधान में चिकित्सा के मौलिक अधिकार दिए भी हैं तो क्या,? सरकारी अस्पताल इस लायक कहाँ थे कि उनके भीतर कोई इलाज़ करवाने जाने की सोचे।
तो यदि वाकई में नागरिक को अपने अधिकारों को बचाना था, तो फिर उसको अपने आप से अस्पताल से लेकर train उद्योग चलाने, हवाईजहाज उद्योग चलाने की आज़ादी मिलनी चाहिए।

विदेशों में जहां भी प्रजातंत्र सफल हैं, वहां निजीकरण ही उसका कारण है। यदि नागरिक को अपने अधिकार चाहिए, तो फिर उसे खुद से यह सब उद्योग चलाने के कौशल भी आने चाहिए। आप सरकारी नौकरशाह को हर जगह बैठा कर , उसको शक्ति देकर अपने अधिकारों को हनन करने के मार्ग प्रशस्त ही क्यों कर रहे हैं?

तो ऐसा समझा गया है कि प्रजातंत्र का निजीकरण से स्वाभाविक जोड़ है। सरकार को मानक निर्धारण या विवाद सुलझाने तक ही कार्य सौंपने चाहिए। बाकी फिर आम नागरिक को खुद से ही यह सब चलाना भी सीखना होगा, व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को प्रोत्सहित होने के माहौल बनने देने होंगे, यदि गुणवत्ता भी चाहिए तो।

सरकारी करण का सीधा अर्थ है गुणवत्ता की स्वाहा करना।

तो सरकारीकरण को प्रजातंत्र से मिश्रण करना एक आधारभूत मिथक विचार था, क्योंकि दोनों immiscible हैं, तेल और पानी के समान।

आज़ादी से 1993 तक समाजवाद ही चलता रहा था।

देश की दोनों ही बड़ी पार्टियां इस समय निजीकरण की पक्षधर बन चुकी हैं।

निजीकरण के विरोधी सिर्फ उत्तर भारत की छोटी क्षेत्रीय पार्टियां ही बची हैं, और बंगाल के वामपंथी पार्टियां।

इससे होगा यह कि अंत मे निजीकरण को रोकना मुश्किल हो जाएगा, और निजीकरण के समथर्क वर्ग उसका फायदा लेते हुए तेज़ी से बिकते हुए उद्योगों को खरीद कर उसका स्वामित्व ग्रहण कर लेंगे। जो विरोध कर रहे होंगे, वह विरोध करते करते यूँ ही खड़े रह जाएंगे, सिर्फ नौकरियों को मांग करते हुए।

अंत मे समाजवादी वर्ग नौकरीपेशा के लायक ही रह जाएंगे, और समर्थक वर्ग पैसे वाले, धनवान वर्ग। वही फिर मीडिया और सरकार को भी खरीद लेंगे और चलाएंगे।

समाजवादी लोग के नेता अन्त में एक दलाल में तब्दील हो जाएंगे। वह केंद्र सरकार के निजीकरण को न तो रोक सकेंगे, और न ही गुणवत्ता से अपनी प्रादेशिक सरकार को चला सकेंगे। कुछ अन्य मुद्दों की बदौलत हवा देकर यदि वह सरकार बना भी लेते हैं तब भी लंबा टिकना हर बार मुश्किल ही होगा। जो पैसे वाले वर्ग होंगे, वह कैसे भी कर के जनता को लुभा ही लेंगे।

समाजवादी प्रजातंत्र और गैर-समाजवादी प्रजातंत्र

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पाई जाने वाली प्रजातंत्र के प्रति समझ बहोत भिन्न है वास्तविक प्रजातंत्र से।

ग्रामीण क्षेत्रों में यह समझा जाता है कि सभी infrastructure project करवाना पंचायत सभा की जिम्मेदारी होती है, जो कि वह सरकारी विभग, PWD के बदौलत करवाती है। और इन सब के बीच प्रजातंत्र यह होता है कि पंचायत सभा में सदस्य आते कैसे हैं - पंचायत चुनाव से, गाँव वालों के वोट से।

तो ग्रामीण सोच के अनुसार जब तक सदस्यों की नियुक्ति किसी चुनावी प्रक्रिया से हो रही है, वह प्रजातंत्र ही है।
इसमें मौलिक अधिकार, अधिकारों का हनन , निजी व्यापार और उद्योग के अवसर , इत्यादि विषयों पर चिंतन नही है।

छोटे, ग्रामीण स्तर पर यह सब मुद्दे  प्रभावकारी होते भी नही है। भारत मे जहां भी आदर्श ग्राम को निर्माण करवाया गया है, वहां व्यवस्था ऐसे ही चलती आयी है, और उसको ही प्रजातंत्र नाम से पुकारा गया है।

तो औसत भारतीय जनता स्वाभाविक तौर पर उद्योगों और बड़े infrastructure projects को सरकार के हाथों से चलते , पूरा होते देखती आयी है। वह यही देखना चाहेगी सदैव के लिए भारत मे। और इस तरह की व्यवस्था को ही *प्रजातंत्र* कह कर पुकारती रहेगी।

जबकि इस मॉडल को अकादमी भाषा मे वास्तव में *समाजवाद* कहा गया है, *प्रजातंत्र* नही। भारत मे इसे मिश्रित कर के *समाजवादी प्रजातंत्र* कह दिया गया है -socialists democracy।

जबकि अन्य मॉडल में जो *प्रजातंत्र* कहलाता है, उसमे पंचायत सभा गाँव के आवश्यक infrastructure projects (जैसे कि सड़क बनवाना, जल संचय के लिए तालाब बनवाना, कुआं बनवाना, सिंचाई के लिए नेहर बनवाना, पानी निकालने के लिए हवा के कोलुहु (wind mill) बनाना ) को सरकार के नियुक्त आदमी किसी निजी कौशल कामगारों की company को दे देते हैं जो कि यह सब निर्माण काम करना जानते हों । उनको इस कार्य की लागत दे दी जाती है और वही इसे पूरा करते हैं।

*समाजवादी प्रजातंत्र* और *गैर-समाजवादी प्रजातंत्र* में अन्तर आता है *कौशल कामगारों* (skilled workers) के हितों का। *समाजवादी प्रजातंत्र* में *कौशल कामगार* किसी सरकारी विभाग के कर्मचारी होते हैं, और उनको *तनख्वाह* दी जाती है अपनी duty करने की।

जबकि *गैर-समाजवादी प्रजातंत्र* में *कौशल कामगार*(skilled workers) अपनी company के स्वामी होते हैं, और तनख्वाह नही लेते हैं, बल्कि fees लेते हैं काम पूरा करने का।

Skilled workers के ऊपर अपनी जिम्मेदारी खुद से होती है कि आवश्यक मानक निर्धारित करें, तकनीक को विकसित करें, तकनीक के ज्ञान को नए apprentice को अर्पण करने के शिक्षा व्यवस्था को विकसित करें।

समाजवादी तंत्र में कौशल कामगारों से संबंधित यह सब जिम्मेदारी भी सरकार की ही होती है। तो फिर आपसी कटाक्ष और सरकारी हस्तक्षेप के चलते वास्तव में कौशल कामगार कभी पूर्ण विकसित स्वयं से हो ही नही सकते हैं। सरकार तकनीकी कौशल के क्षेत्रों में जो कुछ भी कर रही होती है, वह असल मे होता ऐसे है कि विदेश से नक़ल करके यहां भारत में लागू कर देती है। तो फिर उच्च शिक्षा का अर्थ हमेशा ही "विदेश जाना" होता है। यहां भारत मे खुद से तो कुछ भी कौशल कोई भी कौशल कामगारों की company विकसित नहीं कर रही होती हैं।

समाजवादी व्यवस्था बनी ही होता है पिछलगू बन कर विदेश की नक़ल करने के लिए। इस व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा इसी बात की होती है कि कौन कितनी जल्दी विदेश में विकसित हुए कौशल की नक़ल कर लेगा। अगर कोई विकसित देश चाँद पर पहुंच गए हैं , तब आप किसी जल्दी उनके पीछे-पीछे चंद्रमा पर पहुंच जाएंगे, यही competition होता है। यही एक समाजवाद की लय होती है। वह खुद से कोई नया कौशल विकसित विकसित करने के किये श्रेष्ठ और उत्तम नही बन सकता है, क्योंकि उसमें *रचनात्मक स्वतंत्रता* के लिए आवश्यक *आर्थिक स्वाधीनता* के माहौल उपलब्ध ही नही होता है। *कौशल कामगार* तो महज़ एक *सरकारी नौकर* बन जाता है, duty पूरी करने की तनख्वाह लेने वाला। वह कोई रचनात्मक कार्यकौशल करके ईनाम prize लेने वाला व्यक्ति नही रह जाता है। रचनात्मक होने के जोख़िम लेना सरकारी संपत्ति पर आसान नही होता है। तमाम लोगों की तनख्वाह उसी समपत्ति से जुड़ी हुई होती है। इसलिए वह जोख़िम लेने से कतराते हुए *सरकारी जवाबदारी के बंधक* बन जाते हैं। इसे red tapism या *लाल फीताशाही* भी बुलाया जाता है।

गैर-समाजवादी प्रजातंत्र, जो कि वास्तविक प्रजातंत्र होते हैं, वहां निजीकरण के चलते कौशल कामगार सरकारी नौकर नहीं होते हैं। उनमें आपसी सहयोग और प्रतिस्पर्धा का माहौल होता है कि किसी तकनीकी बांधा के समाधान निकाल लेने पर लाभ का "ईनाम" कौन कमायेगा। वह तनख्वाह (salary/wage) नही लेते हैं, बल्कि fees लेते है, जो कि ईनाम का स्वरूप है। बांधा को पूरा करवाने की अधिक fees लगती है। जितनी मुश्किल बाधा उतनी अधिक fees। अधिक fees पाने के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा होती है। बाधा जब मुश्किलों से बढ़ने लगती है तब उसे समाधान करने के लिए कौशलों को संग्रह करना पड़ता है। तो परस्पर सहयोग और प्रतिस्पर्धा के माहौल संग में बने रहते हैं। salary या wage लेकर duty करते रहने वाला आलस्य और शिथिल माहौल यहाँ पर नुकसान दयाक बन जाता है।

एक Simulator और Emulator में क्या अंतर होता है ?

एक Simulator और Emulator में क्या अंतर होता है?

छोटे बच्चों की खिलौने वाली train तो देखी ही होगी आप सभी ने। कभी उसके कार्य करने के तरीके को किसी असली की train से तुलना करिये।

खिलौने वाली train को बनाने में बस एक साधारण से , छोटी dc motor लगती है, चार पहिये, जिनमे से दो गियर के माध्यम से dc motor से जुड़ते हैं, एक बैटरी और एक-आध बल्ब सजावट देने के लिए की train एक दम असली जैसी लगे छोटे बच्चों को। इस सब सामानों को जोड़ कर एक train की खाल जैसे बक्से में बंद कर दिया जाता है, और हो गई train तैयार !!

यह एक simulator है।

अब बात करते हैं Emulator की। कुछ ऊँची ब्रांड की दुकान , (जैसे कि Hamleys) में आपने शायद कभी महँगी वाली train देखी होगी। वह न सिर्फ scale model होते है, बल्कि उनके अंदर के कलपुर्जे असली ट्रैन की तरह ही काम करने के लिए बनाए गए होते हैं। कुछ एक ट्रेन तो चलाने के लिए वाकई में डीजल लेती हैं। इंजिन के अंदर वाकई का एक छोटा सा इंजिन होता है, जो कि डीज़ल या पेट्रोल से combustion करके चलता है। वही shaft से पहिए से जुड़ता है, और पहिया घूमता है।

यह emulator है।

यह ज्यादा सटीकता से असल full-size engine की नक़ल करता है।

Emulator में वास्तविक object की नक़ल करने की काबलियत ज़्यादा सटीक होती है, जबकि simulator को भी चाहे तो नक़ल में असली जैसा बनाया जा सकता है, मगर हर एक कार्य की नक़ल के लिए अलग से "जुगाड़" लगाना पड़ता है।

Emulator अपनी निर्माण क्रिया की खूबी के चलते स्वाभाविक तौर पर असल object की नक़ल करीबन पूरी तरह करता ही करता है।

Computer जगत में simulator और emulator के और भी गेहरे अर्थ और अभिप्राय बनते हैं, हालांकि आरम्भिक अर्थ यही रहता है जो कि ऊपर train के उदाहरण से समझाया गया है।

Computer जगत में train चलना या हवाई जहाज़ उड़ाना सीखने वाले "video game खेल" आते हैं। वह सब simulator होते हैं। वह असल माहौल की मात्र नक़ल करते है। programmer ने असल हवाई जहाज़ के जिन-जिन व्यवहार को जिन-जिन वातावरण में नक़ल करने के algorithm लिखे हैं, सिर्फ उतने को ही वह नक़ल करेगा, अपनी तरफ से कोई गणना करके कम या ज़्यादा नही करेगा।

मगर computer emulator को बनाने के लिए सबसे प्रथम वास्तविक object के व्यवहारों को गणीतिय  समीकरणों में बूझा जाता है, जिसे की modelling कहते हैं। और फिर उन गणीतिय समीकरण को program में जोड़ा जाता है, जिससे कि वह प्रोग्राम खुद से ही गणना करके किसी भी काल्पनिक हालात में भी एक भविष्यवाणी करके की नतीजे क्या होंगे।
उदाहरण के लिए projectile के फेंकने को समझिये। projectile को फेंकने में लगने वाली भौतिकी तो सभी ने इंटरमीडिएट स्कूल पाठ्यक्रम में पढ़ी होगी। emulator में यही समीकरण को program में लिखा गया है। तो वह तमाम हालात , हवा के रुख, गुरुत्व के बदलावों के लिए खुद से गणना करके सटीक भविष्यवाणी देगा नतीजों के।

मगर simulator में projectile को किसी भी असली projectile motion जैसे मिलते-जुलते curve पर चलाते हुए "आभासीय" दिखाया जाएगा और ख़ास programming की timing को नियंत्रित करते हुए अलग-अलग समय पर अलग-अलग स्थान बिंदु पर प्रकट होने का भ्रामिक आभास से सब नज़ारा वैसा का वैसा दिखाया जाएगा।

Simulators के अपने व्यापारिक उयोग होते हैं। यह सीखने के training के उद्देश्य से बनाये जाते हैं। यह किसी भी दृश्य की कल्पना करने में सहायक होते हैं, जो कि शायद आम आदमी छोटी बड़ी चूक कर सकता है कुछ विषयों पर।

Emulator एक अकादमी उद्देश्य से बनते हैं, ज्यादा मेहनत से बनते हैं, महँगी कीमत के होते हैं, और इनका एक उद्देश्य भविष्यवाणी यानी forecasting का होता है।

For the cause of success of Indian Democracy and Indian Constitution, we the people of India need to STOP living in awe of the UPSC Services !!!

For the cause of success of Indian Democracy and Indian Constitution, we the people of India need to STOP living in awe of the UPSC Services !!!

भारत के प्रजातंत्र और भारत के संविधान को विफल होने का एक सांस्कृतिक कारण भी है।

वह यह है कि हमारे देश में नौकरशाही को विशेष सम्मान से देखने का चलन है, बजाये शंका के। हम नौकरशाही को कटघरे में खड़े ही नही करते हैं, बल्कि सिर पर बैठा कर इज़्ज़त से नवाज़ते है की देश की सबसे प्रतिष्ठित career यही है।

भारत में बहोत सारे माता-पिता अपने बच्चों को बचपन से ही 'लोक सेवा'(राजा के सेवक वाली सेवा का परिवर्तित नाम) में जाने की इच्छा से शिक्षा प्रदान करवाते हैं। लोकसेवा आयोग से चयन हुई नौकरी हमारे देश में सबसे कमाऊ और सुरक्षित पेशा है।  हालांकि प्रतिवर्ष चयन थोड़ी ही संख्या में होता है, मगर असफल हुए अभ्यार्थी आजीवन लोकसेवा के मोह में लिपटे हुए जीवन गुज़ारते हैं, और उस सेवा से सम्मान और प्रतिष्ठा को जोड़े रेहते हैं।

तो स्वाभाविक तौर पर ही हम "राजा के सेवक"(King's servant ) को मंदबुद्धि बन कर लोकसेवक (Public Servant) मान लेते हैं। हम उसे सवालों के कटघरे में देखना खुद ही स्वीकार नही करते हैं। हम उन्हें यूँ ही देश का सबसे बुद्धिजीवी वर्ग मान कर उंसके तर्कों का विश्लेषण नही करते, कटाक्ष (debunk) भी नही करते हैं।

प्रजातंत्र की उत्पत्ति विद्रोह और क्रांति में से हुई थी। कुछ तो था जिसके विरुद्ध विद्रोह किया गया था, जो की जनता को नापसंद था।
तो जो कुछ भी नापसंद था उसको नही होने देने के लिये शासन पर काफी सारे किस्म के कृत्यों और निर्णय लेने के प्रतिबंध लगे हुए थे।

मगर वह विद्रोह का सार भारत में सांस्कृतिक तौर पर संरक्षित हुआ ही नही है, क्योंकि वह विद्रोह भारत में जनक्रांति बन कर इतिहास में घटा भी नही है।
इसलिए भारतीय प्रजातंत्र के हालात यूँ है कि यहां लोकसेवा के अधिकारी को लगता है की सभी किस्म के कृत्य और निर्णय संभव है। यहां लोकसेवा को पता ही नही है की प्रजातंत्र व्यवस्था को कायम रखने के लिए कौन-कौन से, किस किस्म के कृत्यों और निर्णयों पर प्रतिबंध है उसी के ऊपर।

क्योंकि हम उन्हें सम्मान से देखने के आदि शुरू से ही हैं, इसलिए सवाल ही नही करते हैं। we live in their awe. हम उन्हें अयोग्य , नालायक मानने को तैयार ही नही है किसी भी सूरत में। हम यह कभी भी तय ही नही करते है की उन्हें काम नही आता है। हमें अगर कुछ भी ग़लत लगता है तो उसके लिए हम राजनैतिक पार्टी के शीर्ष को जिम्मेदार मान कर नौकरशाही को आसानी से जिम्मेदारी से बच निकल जाने देते हैं।

जबकि नौकरशाही की कार्यकाल उम्र सबसे दीर्घ है भारत की व्यवस्था में,और इसलिए यह लोग आसानी से राजनैतिक पार्टी से भ्रष्टाचार के मामलों में अपनी जांच/अन्वेषण शक्ति के माध्यम से मिलीभगत करे हुए रहते हैं। टैक्स के पैसे पर खाते और ऐश करके जीवन जीते हैं। और साथ में हमारे "सम्मान" को भी प्राप्त करते रहते हैं।

Train , श्रमिक कानून , नौकरशाही और भारत का समाजवादी प्रजातंत्र

Question:

So that’s the way all drivers urinate ? Since no pantry vendors goes into drivers cabin so he should stop train at road side dhabas and eat pakoda chai ?


Answer:

All Government mantries feel very happy with such events as it gives them the sense of exclusivity, ownership.

Answer 2:

Ideally, if the "chai paida" food of train driver is also an issue ,(or the lack of toilet to go for urinating),  then it becomes "part of duty"(a necessary component, a tool that is required to complete the task) and therefore that should be afforded by the Railways.
That is the way it is done in Shipping industry , and also in the airline industry

The railways must not create condition and force the worker to take such measures as stopping the train to have his food, (or to go for urinating).

Also, another engineering modification that can be considered by loco design engineer to overcome the labour law challenges , is that they adopt "tube" designs for the main trains too, in place of "hook and rod" interconnecting joints .

I am confident this is the global standard of Working Condition.

Except for CHINA , the fuckin* Communists !

On ships , the food is provided by the Company,  Separate Catering crew is maintained to cook the food and serve to the working staff..ships move 24x7x365 , they have no stopover on the oceans to stop by and purchase the food.

And by Income Tax act, it is "part of duty", which is not chargeable under the Income Tax as "form of payment".
The same.logic goes in the airlines.

However , Offices such as  IT , Banks , EtC , this logic does not apply , and so the laws do not treat "mess" as a "part of duty".

This is the Global standards.

Factories Act.

What it now means is that Railways must provide Fridge and other facilties in the loco engine
That means the Engineering design MUST change to accommodate the labour laws necessities.

And in case they are not able to do change the Engineering design , then , necessary stop-overs must be given to the loco drivers , or a a change of work crew must happen, by creating additional train halts !!

I know you are going to feel shocked after reading this. But if you follow the labour standards and Court cases , working styles of western Europe, you will agree.
Except for Russian , Chinese and Indians. These are Communists /Socialists countries , but ironically their labour exploitation is worst !

@Manish Misra bhai, check out Saurabh Upadhyay post on the same matter . More churning his happening on this topic over there.

You might also find hard to believe , but the "capitalist" Europe and Americas have scientific studies on labour issues where they have agreed that in-human work conditions have a Connection with the "operational judgement" of the worker, and that may lead to accidents!

The "Communists" like to think that such acts are unnecessary "luxurious" "blackmailing" by the "worker" and must be crushed away or dismissed instantly , should he try to "get on your nerves".

In Communism , the Bureaucracy becomes the Ruler , and the real does of task become ordinary "worker".

In "Capitalism", the "worker" is the "professional" , the part of owner of the business,
And the "Bureaucracy" is the "Public servant" who has no ownership role in the buisness.

The "Capitalists" become progressive by complying with the laws , including the labour laws.
The "Communists" always remains pitiable and poor , because they always find ways to avoid compliance with the laws, the labour laws in particular, in their "struggle to become rich and developed".

There is the irony.

The Communists have no regards for the conditions of the Worker , and eventually the logics take them to a condition where they have to abandon regards for the live of the ordinary common people too. When accidents happen, no one is held responsible, the accidents keep repeating , and hardly any dignified compensations are paid.

The "Capitalists" have huge regards for labour conditions, and to achieve those they set the technology rolling , the more constructions /Engineering follow-ups come around. They have more human values and better cost for human lives.

Therefore, if an Ethiopean Airlines jet plane crashes away , the makers of the plane , the Boeing, can be sued by any user of it , back in Americas !!

Do you see it now.

The European law courts , therefore , allow deep insights from the scientific and technological realm,
The Communists Court are not competent to handle scientific and technological lines of argument, even as the Lawyers think that such a line of argument will "snatch away from them their bread and better" while the LLB courseware does not teach them any such topics and therefore those lawyers are not prepared to adopt such "road not taken"- lines of arguments.

The Communists country lawyers eventually serve no one ! Not the society in the least ! Not their country either , because they lack inter-disciplinary competency to handle the public matters raising from such an inter-mixing of the disciplines.

The Communism/Socialism is eventually a "fool's paradise" where there is incompetence, bureaucracy the rulers, and workers are line bee-drones, there is no value for human-lives and the humanity ,

The consequent "over population" , while there is already no value of human life, no respect for humanity in their labour laws, no human dignity, the over-population is what they think is the core of their problems!!

Socialist Democracy एक खुल्ला आमंत्रण है पूँजीवाद को - corporate manslaughter और नौकरीपेशा ग़ुलामी को

भारत का तंत्र उल्टे विधि जन्म लिया हुआ है। इसलिए यहां उल्टी गंगा बहती है।

हमारे यहां शासक के सेवकों ने चतुराई से अपने सार्वजिक चरित्र की पहचान को बदल दिया है। वह खुद को "लोक सेवक" बुलाते हैं। वह देश की "सम्मानित" संस्थान से "देश की सबसे कठिन परीक्षा" प्रवीण करके आते है UPSC नाम से । 

यह सब जानकरी प्रत्येक भारतिय की बुद्धि में उसे बचपन से ही दी गयी है।

इसलिए औसत भारतीय प्रजातंत्र की समझ बस यह रखता है कि प्रजातंत्र का अर्थ और अभिप्राय है शासन में शामिल होने का अवसर मिल जाना। बस।
औसत भारतीय प्रजातंत्र को समाजो के आपसी संघर्ष की लड़ाई से निकाल निराकरण के तौर पर नही समझता है। वह यह सोचने के काबिल अभी भी नही बन पाया है कि समाज को ग़ुलाम उसके भीतर से ही किया जाता है, जब एक वर्ग दूसरे के ऊपर हावी होने के तरीके ढूंढने लगता है।

मगर यह सामाजिक संघर्ष होते ही क्यों है?
इसका जवाब है प्राकृतिक शक्तियों के वितरण न्याय (distributive justice) में। प्रकृति ने हर एक व्यक्ति को अलग तरह से दूसरे के मुकाबले सशक्त बनाया है । कोई भी समाज दूसरे के बराबर क्षमता और योग्यता का नही होता है।
तो जो समाज व्यापार में अधिक शक्तिशाली और योग्यवान होगा, वह स्वतः ही आर्थिक टुकड़े को अधिक अंश में बटोरने लगेगा। आप इसे रोक नही सकते है। क्योंकि इसको रोकने के प्रयासों में आप विकास के पथ को ही बंधित कर देंगे। वैज्ञानिक विकास व्यक्तिगत स्वतंत्रता में से निकलता है। उद्यमता भी स्वतंत्रता से ही निकलती है। उद्यमता को रोकने के लिए आप स्वतंत्रता का गला घोटेंगे तो वैज्ञानिक विकास की भी मृत्यु हो जाएगी। वैज्ञानिक विकास का अभिप्राय है अनुसंधान और अन्वेषण - Invention and discovery।

तो आप फंसे हुए है दो विपरीत दिशाओं से। आप स्वतंत्रता को चाहेंगे तो कोई न कोई समाज बाकी अन्य पर आर्थिक तौर पर हावी होने का अवसर स्वतः ढूंढ लेगा।

स्वतंत्रतावाद में से निकली व्यस्था ही प्रजातंत्र है।
अब अगर आप इस पहेली को सुलझाने के लिए दो अलग अलग व्यवस्थाओं का मिश्रण बना कर समाजवादी प्रजातंत्र  (socialist Democracy) को लाना चाहेंगे, तो सच यह है कि समाजवाद और प्रजातंत्र के बीच मिश्रण बनाना संभव नही है।  यह उतनी ही मूर्खता भरी सोच है जितना कि गर्म गर्म बर्फ , या की ठंडी ठंडी वाष्प। अंग्रेज़ी भाषा मे इस तरह के विरोधी विचारों के मिश्रण को oxymoron बुलाया जाता है।
तो socialist democracy भी एक oxymoron ही है। 

कहने अर्थ है कि प्रजातंत्र का निजीकरण (privatisation) से एक जन्मजात संबंध होता है। आप यदि निजीकरण को रोकने की कोशिश करेंगे socialist democracy के माध्यम से, तब प्राकृतिक शक्तियां खुद ब खुद साज़िश करके आपको पूँजीवाद की ग़ुलामी में धकेलने लगेंगी। जो समुदाय या वर्ग अधिक उद्यमशील होंगे दूसरे के मुकाबले, वह कैसे भी करके, भ्रष्टाचार की डोर पकड़ कर, अपने व्यापारिक रुचि को विस्तार करने की कोशिश करेंगे। और ज्यों ही उन्हें थोड़ी सी सफ़लता हाथ लग जायेगी, वह पूंजीवादी बन जाएंगे और फिर तमाम वैध और  अवैध तरीकों से शासन शक्ति को कब्जे में कर लेंगे। एक पल ऐसे आएगा कि वह हमेशा के किये धनवान और महा-धनशाली बन जाएंगे। उसके व्यापार के अंदर midas की शक्ति आ जाएगी --कुछ भी करो, धन खुद से खींच कर उनकी तिजोरियों में जाने लगेगा। वह किसी भी कानून से ऊपर उठ जाएंगे, वह किसी भी सामाजिक या धार्मिक विचारधारा के आधीन नही रहेंगे। उनके लिए नैतिकता , मानवता , मानववाद, श्रमिक अधिकारों का सम्मान, यह सब कोई मायने नही रखेगा, क्योंकि वह यह सोचने लगेंगे की अब उनको इस तरह की बातों को दुबारा कभी मोहताज़ नही बनना होगा। तब वह समाज मे इंसानो को एक-एक करके उसकी ग़ुलाम हालात के एहसास करवा कर बेइज़्ज़त करेंगे।

भारत मे ऐसे हालात आ चुके है। आप अपने आसपास के माहौल की भनक ले। आप evm से उत्पन्न हालात को जानने और समझने की कोशिश करें। आप इस सच के दर्शन कर लेंगे। 

तो यह एक जागरण का पल है। आपको समझना पड़ेगा कि socialist democracy की गड़बड़ क्या हुई है भारत मे पिछले 70 सालों में। आपको नौकरशाही को socialist democracy के रखरखैया के तौर पर देखना बन्द करना पड़ेगा। UPSC तंत्र उसी socialist democracy की संस्थान है जिसने इन हालातों को पैदा किया है। अब तो आपको वापस लोकसेवक पर समाज को निर्भर होने की बात नही करनी चाहिए। आपको अब तो निजीकरण के विरोध में नही जाना चाहिए। अब यह सच अवलोकित हो जाना चाहिए कि यह लोकसेवक कभी भी आप के अधिकारों की रक्षा नही कर सकते है, अलबत्ता अजेबोग़रीब नियम बना बना कर आपको ही सज़ा का भुगतभोगी बना देंगे। यह जहां भी होंगे वहां corporate mansalughter जैसी दुर्घटनाएं घटेंगी, मगर इनमे से कोई "अपराधी" नही पकड़ा जाएगा, किसी को भी सज़ा नही मिलेगी।

तो अब अगर आपको समाज का भला करने की चाहत है तो आपको निजीकरण का विरोधी नही बनाना होगा। आपको खुद को ही उद्यमशील, अन्वेषक और अविष्कारक बनाना होगा कि आप अपने समाज की खुद अपने हाथों में ही रख कर खुद से ही चलाएं, बजाए की किसी upsc नौकरशाह के हाथों में शक्ति दे कर उससे भीख मांगते रहे अपने अपने अधिकारों के लिए, चिरकाल तक संगर्ष करते रहें भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये !

ICC World Cup Final मैच में किस्मत के अंश, भारतीय दर्शन और इंग्लिश दर्शन की तुलना

सचिन तेंदुलकर का  भी मानना है की ICC  World  Cup  के फाइनल में tie मैच से उत्पन्न अवरोध को पार करने का उचित तरीका boundary  shots  की गिनती करने के बजाए एक और super  ओवर करवाना चाहिए था ।
एक बड़ा सवाल , दर्शन शास्त्र से सम्बंधित, यह है की इंग्लॅण्ड जो की वैश्विक स्तर  पर दुनिया के सबसे बेहतरीन शैक्षिक विश्व विद्यालयों का देश है, जहाँ oxford है, जहाँ Cambridge  है, क्या वहां इस प्रकार के अटपटे नियम के पीछे कोई भी सोच नहीं रही होगी ?

यहीं पर हम लोग कुछ देखने में चूक कर रहे हैं ।
बनारस की भूमि पर से भारतीय दर्शन की एक अद्भुत ज्ञान गंगा बहती है , जिसे आम आदमी ब्रह्मज्ञान नाम से जानते-सुनते है । इसे अंग्रेजी में Theosophy  पुकारा जाता है । theosophists  अक्सर करके अपने आस-पास की घटनाओं में उसके कारणों की तलाश करते हुए ईश्वर की इच्छा हो समझने में युगन करते रहते है ।
क्या यह संभव है कि अंग्रेज़ी दर्शन के अनुसार जब कोई मैच दो बार के प्रयासों के बाद भी tie  हो जाये तो यह मान लेना चाहिए की ईश्वर के अंश ने अपनी इच्छा प्रकट करि है दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की योग्यता बराबर है ?
बरहाल, यहाँ दर्शन का अंतर है -- भारत के ,और इंग्लॅण्ड के ।
क्योंकि भारतीय दर्शन के लोग तो यही मनाते दिख रहे हैं की अभी भी कोई इंसानी पैमाने को लगाने की ज़रुरत थी ।
कहते हैं की एक बार इंग्लॅण्ड में एक व्यक्ति को फांसी की सज़ा सुनाई गयी । जब उसे फांसी  दी जा रही थी, तब तीन बार जल्लाद के द्वारा लीवर चलाने  पर हर बार वह फैल हो जा रहा था । मगर जब भी हर एक प्रयास के बाद उसकी जाँच करि जाती थी तब वह सही से काम करता था । तीसरे प्रयास के बाद अचानक ही जज बोल उठा की इस कैदी को रिहा कर दिया जाये क्योंकि उसकी फांसी  की सजा दी जा चुकी है , मगर ईश्वर की इच्छा नहीं है की वह अभी मरे ।

यह इंगलेंड के दर्शन को समझाता हुआ एक वाकया है ।
भारतिय दर्शन शायद यहाँ अलग है ।

भारत में केशवानंद भारती फैसले के अनुसार संसद को आज़ादी है की संसद चाहे तो मौलिक अधिकारों से सम्बंधित संविधान की धारा को भी बदल सकता है, और उसे रोकने का अधिकार केवल न्यायलय के पास है, किसी "मूल ढांचे "(Basic  structure ) के तर्क पर , जिसका की संविधान में कहीं जिक्र नहीं है , मगर भारत का न्यायलय इसके अस्तित्व को मनाता है, और खुद से ही खुद को एक शक्ति से नवाज़ता है !!!
मगर इंग्लॅण्ड के दर्शन के तर्क सोचे तो प्रजातंत्र खुद ही संविधान की परम्परा है, और यदि मौलिक अधिकारों को कोई हाथ भी लगाने की कोशिश करेगा तो उसे फिर से जनता की विशेष अनुमति लेनी पड़ेगी । न्यायलय के पास भी यह अधिकार नहीं है की वह मौलिक अधिकारों को हटाने या फिर बनाये रखने में कोई अपनी शक्ति की भूमिका अदा करे ।
यही अमेरिकी संविधान की भी शर्त है । न तो संसद को अनुमति है 10 Amendment  से सम्बंधित कोई कानून बनाये, और न ही कोर्ट के पास अधिकार है की यदि संसद ऐसी कोई भी हिमाकत करे तो न्यायलय किसी भी तर्क से उत्पन्न शक्ति से उसे स्वीकृत या अस्वीकृत करे ।

जो चीज़ यदि संविधान में लिखित नहीं है, तो फिर उसका क्या समझना चाहिए ?
इंग्लॅण्ड के दर्शन में इसका हल है की वापस उसी शक्ति के पास ऐसे सवालों को भेजना चाहिए, जिसने संविधान को लिखा है -- जनता की इच्छा ।
भारत के दर्शन के अनुसार जिन सवालों के जवाब संविधान में नहीं लिखे है , वह अब न्यायालय तय करेगा, न की वापस जनता को वह सवाल सौंप  दिया जायेगा ।

तो यदि मैच दो प्रयासों के बाद भी tie  होगा , तो जाहिर है की  इंग्लॅण्ड के दर्शन ने  मैच tie  से उत्पन्न सवाल को जनता के कटघरे में खड़ा कर दिया की जनता का आनंद तय करेगा की विजेता कौन "निर्वाचित " किया जायेगा ।दो बार के प्रयासों पर tie  हो जाने से "चयन " प्रक्रिया तो इंसानी सीमा में रहते हुए अब समापन पर आ गयी है ।

भारत के दर्शन के अनुसार मैच के tie  होने पर अभी भी इंसानी "चयन " प्रक्रिया समापन पर नहीं आयी है, दर्शकों को कोई अधिकर नहीं है की उनका मनोभाव यह "निर्वाचन " करे की विजेता कौन माना जायेगा । "चयन " प्रक्रिया कभी भी अंत पर आती ही नहीं है , कहीं कोई न कोई तरीका है अभी भी इंसानी हरकत को क्रियाशील होने का ।

अंतर तो है । दर्शन का । आश्चर्य यह है की "भाग्यवादी " लोग हम भारतीय माने जाते है , मगर हम "ईश्वर के अंश" को दो प्रयासों से tie हुए मैच में अस्तित्व में आने का अवसर नहीं देते हैं , और वह "भाग्यवादी " नहीं है , शायद इसीलिए "ईश्वर  के अंश " को tie  मैच में अस्तिव्त स्वीकार कर लेते है !!

Socialist Democracy is a disguised form of idiocracy.

प्रश्न:  यह समाजवादी प्रजातंत्र (Socialist Democracy) क्या चीज़ होती है ?

उत्तर : एक socialist democrat के तर्क कुछ निम्म तरिके से पढ़े जा सकते हैं :-

"हाँ  मुझे चाहिए आज़ादी , मुझे प्रजातंत्र चाहिए। मुझे मेरे अधिकार चाहिए।
लेकिन मैं  थोड़ा सा मंदबुद्धि हूँ, थोड़ा मूर्ख सा हूँ, इसलिए सरकार  को मेरा बाप बन कर मुझे उल्लू बनाए जाने से, ठगे जाने से बचने के प्रबंध करने चाहिए। चाहे बदले में सरकार के आदमी मेरी आज़ादी ले लें, मेरा प्रजातंत्र खत्म कर दें। पर मुझे, मेरी ही बेवकूफियों का शिकार होने से बचा ले ।
और फिर अगर भ्रष्टाचार बढ़ेगा तो हम आंदोलन करेंगे, अगर सरकार  टैक्स निचोडेगी , महंगाई बढ़ाएगी तब हम आंदोलन करेंगे, संघर्ष करेंगे ।
असल में हमें संघर्ष करते रहने वाली मानसिक बीमारी ही
।"

~~  समाजवादी प्रजातान्त्रिक व्यक्ति  
The socialist democrat

Socialist Democracy is nothing but a disguised form of idiocracy.

आखिर एक समाजवादी प्रजातांत्रिक व्यक्ति क्या होता है ?

आखिर एक समाजवादी प्रजातांत्रिक व्यक्ति क्या होता है?

प्रजातंत्र का उत्थान वास्तव में एक संघर्ष में से हुआ है। प्रजातंत्र ने राजतंत्र की तरह प्रकृति के नैसर्गिक शक्ति में से जन्म नही लिया है।
इससे पहले वाली व्यवस्था, -राजतंत्र ने प्रकृति की नैसर्गिक शक्तियों में से जन्म लिया था। दुनिया मे जहां जहां इंसानी सभ्यता ने जन्म लिया, वहां समयकाल में धीरे धीरे राजतंत्र नामक राजनैतिक प्रशासन व्यवस्था ने स्वयं-भू जन्म लिया था। इंसानों के समूह को एक नेतृत्व की आवश्यकता स्वतः पड़ने लगी थी तीन प्रमुख कारणों से-
1) पड़ोसी से अपनी सुरक्षा के लिये,
2) आपसी विवादों को हल करने के लिए, और
3) किसी बड़े स्तर के सामाजिक कार्य की पूर्ति के लिये तमाम मानव संसाधन और भौतिक संसाधनों को संघटन बद्ध करके किसी भीमकाय project में लगाने के लिए।

आगे समयकाल में राजतंत्र से सभी समाजों में दिक्कतें पैदा होने लगी। दिक्कतें थी -
1) राजा का भेदभाव और पूर्वाग्रही आचरण
2) अयोग्य राजा , जो कि मानव संसाधनों को और भौतिक संसाधनों को उचित भीमकाय project में केंद्रित नही कर सकता था।
3) परिवारवाद में फंस कर जनहित की हानि करना, अयोग्य होते हुए भी संतान के लिए जनता में भय व्याप्त करवा कर शासन करना।
4) अधिक कर या टैक्स के बदौलत मौज की जिंदगी जीना और प्रजा को बेहाल ख़स्ता छोड़ देना।
5) आर्थिक और इंसानी शोषण , धर्मशास्त्रियों की सहायता से। दासप्रथा को जन्म देना।

प्रजातंत्र एक इंसानी बौद्धिकता में से जन्म ली व्यवस्था। तब जबकि कई समाजों ने विद्रोह करके अपने राजा को हरा दिया ।

मगर जब उन्होंने राजा को हरा दिया तब क्या किया राजा के साथ?
इस सवाल में से उत्तर मिलता है हमे दो किस्म की राजनैतिक व्यवस्था के जन्म की कहानी का।

कुछ समाजों ने राजा को वापस शासन में बैठा दिया, मगर शर्त रख कर की वह जनता की मर्ज़ी अनुसार ही नियम कानून बनाएगा। और जनता की मर्ज़ी को जानने के लिए एक नई संस्थान को जन्म दिया गया -  संसद नाम से।
तो  संसद का कार्य राजा की शक्ति को नियंत्रित करना था। इस तरह की व्यवथा राजशाही प्रजातंत्र कहलाई  (उदाहरण ब्रिटैन )।
मगर कुछ अन्य समाजों ने राजवंश को पूरा समाप्त करके उसकी जगह एक जनता से चुना गया व्यक्ति कुछ निश्चित कार्यकाल के लिए राजा के कार्य निभाने के किये निर्वाचित करना आरंभ किया, राष्ट्रपति पदनाम से। यह गणराज्य व्यवस्था थी। उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका गणराज्य

गणराज्य व्यवस्था में भी भय था कि कही यह क्षणिक भर का राजा यदि किसी तरह वापस पुरानी व्यवस्था के रास्ते निकल पड़ा तो उसे कैसे रोका जाएगा? इसके लिए गणराज्य ने भी संसद को जन्म दिया जो कि वापस जनता में से ही चुनी जाएगी, मगर राष्ट्रपति और संसद , जो कि दोनों ही जनता के चुने हुए प्रतिनिधि थे, दोनो के आपसी विवाद के निवारण के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका को भी जन्म दिया।
स्वतंत्र न्यायपालिका को गणराज्य में आना आवश्यक था , अन्यथा कोई भरोसा नहीं कि राष्ट्रपति वापस प्रशासन शक्ति को हड़प कर निजी स्वार्थ में भोग करने लग जाये।

तो राजशाही प्रजातंत्र और गणराज्य प्रजातंत्र के बीच समानता यह थी कि जनता को आर्थिक शोषण से मुक्ति मिल गयी थी। मगर कैसे? यह जनहित के बड़े भीमकाय project कौन करता था और कैसे, यदि आर्थिक शोषण खत्म हो चुका था तो?
जवाब था, निजी अधिकारों और निजी संपत्ति के विचार का जन्म भी स्वतः प्रजातंत्र के उत्थान में छिपा ही हुआ है।
प्रजातंत्र यानी निजी अधिकार और निजी संपत्ति।

तो अब जनता को निजी संपत्ति के अधिकार मिल गए थे। 

निजी संपत्ति यानी क्या? निजी संपत्ति आती कहाँ से है?
निजी समाप्ति उद्यम में से पैदा करि जाती है।

वापस सवाल पर चलते है, कि समाजवादी प्रजातंत्र क्या चीज़ है फिर?
समाजवादी प्रजातंत्र वह लोग हैं जो कि निजी संपत्ति के विरोधी हैं!
यह वो लोग हैं, जो कि चाहते हैं कि प्रशासन ही जनहित के बड़े project को चलाया करे , और प्रशासन को जनता के बीच चुने लोग मिल कर बनाये।

मगर इतिहास गवाह है, जब भी ऐसा किया गया है, हालात यूँ बन गए हैं कि प्रशासन को कुछ पूंजीपति वादियों ने हड़प लिया है, पैसे के दम पर जनता को प्रभावित करते हुए, उनके वोटों को खरीद खरीद कर।

तो समाजवादी प्रजातंत्र लोग, जो कि वैसे तो पूंजीवाद के विरोधी होने का दावा करते हैं, मगर उनकी इच्छा कुछ यूं होती है कि वास्तव में उसी में से पूंजीवाद के जन्म हो जाता है। वह जनता के बीच बड़ी आबादी के निजी अधिकारों की सरकारी भ्रष्टाचार के परवान चढ़ा देते हैं, और निजी संपत्ति को जन्म ही नही लेने देते हैं, उनके उद्यमशीलता को सरकारी नौकर के लाइसेंस का मोहताज़ बना कर। ऐसे में जो उद्यमशील नागरिक समूह कैसे भी करके सरकारी नौकर की मिलीभगत से भ्रष्टाचार करके बच निकलता है, वही कामयाब पूंजीवादी बन जाता है, और फिर धीरे धीरे वही प्रशासन को भी हड़प लेता है।

और फिर समाज वापस आर्थिक शोषण और दासप्रथा की और निकल पड़ती है।

Conclusion
तो पूंजीवाद को इसको रोकने का तरीका यूँ है कि समाजवादी प्रजातंत्र को स्वीकृति नही किया जाए। बल्कि निजी संपत्ति और निजीकरण में सहयोग करके सभी सामाजिक वर्गों में उधोग के स्वामित्व के वितरण को प्राप्त करने की कोशिश जारी रखी जाए। कुछ समुदाय बाकी अन्य समुदायों से अधिक योग्य और कौशल वान होते हैं उद्योगिक श्रम के लिए। तो फिर कम कौशल वाले समाजों को प्रेरित किया जाए और सहयोग दिया जाए कि वह उद्योग कर सकें।

ICC World Cup 2019 का फाइनल मैच और प्रजातंत्र की सोच

Reporter: Sir, What if number of boundaries would also have been equal for both the teams?
ICC: We would then compare 10th standard mark-sheets of both the
captains and decide.
😋😀😋😀


At the supreme court
Public : How do you judge the seniority of a person when two persons are elevated to Supreme Court Judge on the same date ?

Supreme Court Collegium : Of the two persons, the One who is from our kith and kinship , whatever criteria that he is senior with respect to the other, we declare that criteria to be the decisive factor for judgement of the seniority .

Public : 🤔😲🤕🤒😡

😋😊😀😁
______--------________-----

हालांकि ICC World Cup 2019 के फाइनल मैच में बार बार टाई होने पर विजेता को चुने जाने के तरीके की भारतीयों में सब तरफ आलोचना करि जा रही है,
मगर तरीके के भीतर की सोच पर कहीं कोई ध्यान नही दे रहा हैं।
एक औसत भारतिय के लिए ICC की सोच शायद कहीं ज्यादा विकराल पड़ जाती है।
औसत भारतीय के लिए यह दिक्कत भरा हो रहा है सोचना की शायद ICC ने नियम यूँ इसलिए बनाये ही थे कि यदि फाइनल मैच दो बार, दो पद्धतियों के द्वारा खेले जाने पर tie हो जाएगा तब फिर tie breaker में विजेता तय करने के लिए प्रजातंत्र मानक को भी अपनाया जा सकता है।  ICC की सोच के अनुसार खेल में सिर्फ दो टीमों ही participants नही होती हैं, बल्कि मैदान पर मौजूद दर्शक सबसे बड़े participants होते हैं।
तो शायद ICC चाहता था कि यदि दो बार, दो अलग पद्धतियों से भी यदि फाइनल tie हो गा, तब फिर यही दर्शकों के आनंद को ही कसौटी माना जायेगा विजेता के चयन के तरीके के लिए। दर्शकों को खिलाड़ियों की जमाई boundary ही लुभाती हैं। जो टीम दर्शकों को अधिक लुभाएगी, वही विजेता बनेगी।। दो बार , दो अलग-अलग तरीकों से टाई होने का अभिप्राय है कि ईश्वर ने दोनों ही टीमों को बराबर समृद्ध बनाया है, दोनो को बराबर की मात्रा में किस्मत से नवाजा है।
तो फिर जब किस्मत या भाग्य दोनो का ही बराबर है, तब फिर अब इंसानों को ही अन्तर तय करने के मार्ग चुनने की आज़ादी मिल जाती है। यहां ICC ने सबसे बड़ा राजा , हृदय सम्राट, दर्शकों को मान लिए, बजाए कि खुद को। तो ICC  ने अपने खुद की शर्तें या नियम बनाना बन्द करके आगे की कमान दर्शक मन के आनंद को सौंप दी।
यह एक प्रजातंत्रीय सोच थी।
तो फिर एक सच्चे प्रजातंत्र सिद्धांत के अनुसार इस तरीके  को पूर्व-घोषित (pre notified) किया भी किया गया था।
यह सब सोच शायद औसत भारतीय के दिमाग के बाहर निकल जा रही है। हो भी क्यों न ? भाई , भारत वो देश है जहां जब दो जज , दीपक मिश्रा और चेलमेश्वर, दोनो ही एक दिन , एक तारीख को सर्वोच्च न्यायलय में निर्वाचित किये गए थे, तब किन शर्तों और किन कसौटियों के अनुसार दीपक मिश्रा को seniority दी गयी, यह सवाल किसी भारतीय के मन मे उठा तक नही ?!
यह आज भी भारतीय मन मे कौतूहलता का विषय नही है कि क्या दोनो जजों में seniority चुनने की कसौटियां थी, क्या वह पूर्व-सूचक(pre-notified) थीं या नही? क्यों नही दोनो ही बीच उम्र की senority को ही सीधा सरल मानक मान कर जज चेलामेश्वर को जज दीपक मिश्रा से senior मान लिया गया ?
और यदि दोनों के हाई कोर्ट में कार्यकाल को मानक लेना था, तब फिर इस तरह के मानक की पूर्व-सूचना क्यों नही सार्वजनिक करि गयी थी?
निश्छल, भेदभाव रहित प्रजातांत्रिक विचारधारा, यह औसत भारतीय के लिए अभी तक एक विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा ही है ।
जय हो !!

Lord's के मैदान में वर्ल्ड कप फाइनल में किस्मत का खेल

दो बहोत ही चमत्कारी बातें हुई इस मैच में। बेन stokes को बाउंडरी पर लपका गया, मगर फील्डर का पैर सीमा रेखा से छू गया। यह नियम के अनुसार छक्का हुआ।

और कुछ ही गेंदों बाद जब 4 बाल पर नौ रन चाहिए थे, जो की इस बड़े मैदान में इंग्लैंड को मुश्किल पड़ सकते थे,  stokes दो रन चुराने के लिए दौड़ रहे थे तब सीमा रेखा से फैंकी गयी गेंद stokes के bat के टकरा कर चौक्के पर चली गयी। नियम के अनुसार यह छहः रन माने गये!

अद्भुत, विरले।

इंग्लैंड को अंतिम दो गेंदों में तीन रन चाहिए थे, और दो विकेट बाकी थे। अंतिम-पूर्व गेंद पर एक विकेट रन ऑउट हुआ, दूसरा रन चुराने की कोशिश करते हुए।
अब अंतिम बाल पर वापस दो रन चाहिए थे, और एक ही विकेट बाकी था। वापस दूसरा रन चुराने के चक्कर में अंतिम खिलाड़ी ऑउट हो गया।

फिर यह मैच tie हुए, और उसके बाद पहली बार super over का प्रयोग करना पड़ा। जो की वापस tie ही हुआ। new zealand को super over की अंतिम बाल पर दो रन चाहिए थे , और फिर वही दोहर गया। इस बार new zealand के खिलाड़ी दूसरा रन चुराने के चक्कर में रन ऑउट हो गये। super over भी tie घोषित हुआ।
मगर नियम के अनुसार super over यदि tie होता तब उस टीम को विजेता घोषित किया जाना था जिसने अपने मुख्य खेल वाली पारी के दौरान अधिक बाउंडरी shots जड़े थे।  यहीं पर इंग्लैंड विजेता घोषित हो गये।

इतिहास में ऐसा न देखा और न ही सुना गया था। आज जब पहली बार यह सब देखने-सुनने को मिला भी तो कब? सीधा विश्व कप के final match के दौरान ! अमीर खान की 'लगान' से भी अधिक किस्मत थी इसमे। मज़े की बात, दर्शकों में new zealand के लिए भी सम्मान बना रहा इस तरह के अद्भुत अंत को देखने से और सभी दर्शकों ने किस्मत के अंश को और खेल के नियम को असली विजेता मान लिया।

Old Trafford में भारत की पराजय के विषय पर

उठती हुई और तेज़ी से आती गेंद (rising, upp'ish delivery) भारत की कमज़ोरी बन गयी।
old trafford का मैदान बड़ा था।

इंसान में एक चरित्र होता है। pinch hitting करना मात्र एक ताकत की बात नही है, बल्कि एक चरित्र है। इस तरह के चरित्र वाले व्यक्ति अक्सर आदतन ही ऐसा करते हैं। और उनके खेलने के तरीकों में भी कही यह आदत बस जाती है। मिसाल के तौर पर, rising upp'ish delivery को वह आदतन ही गेंद में पहले से बसी हुई गति का सहारा लेते हुए कही पर cut मारते हुए wickets के पीछे ही कहीं boundary तक पहुंचा देना चाहते हैं।
यह सब उनसे उनका pinch hitting का चरित्र आदतन करवाता है।

मगर old trafford मैदान के बड़े आकार ने यहाँ आदत को कमज़ोरी में बदल दिया। पहले के चार player को wicket के पीछे ही शिकार बनाये जाने की रणनीति बनाई गयी। 5 fielders उसी क्षेत्र में थे, wicket keeper के अलावा। और wicket के आगे मात्र चार, दो leg side में, दो off side में।
मानो को खुल्ला challenge था इतने बड़े और खाली पड़े मैदान में wicket के आगे कही कोई shot खेल कर दिखाओ।  रोकने वाले ज्यादा fielder थे ही नही उस भूक्षेत्र में, मगर मानो जैसे की एक challenge दिया गया था की अगर आदत से बच सकते हो तो खेलो।

हम आदत से यकायक मुक्ति नही प्राप्त कर सके। यही होता है tempo , जब एक लय में आप एक जैसी कोई हरकत हमेशा करते ही करते है, अपनी ही आदत का ग़ुलाम बन कर। आप हर बार उस हालात में वही करते है, और कामयाब से होते रहते है बशर्ते की किस्मत आपके साथ हो। आप भूल जाते हैं कि तब भी आपकी कामयाबी के पीछे किस्मत के अंश थे। आप किस्मत को नकारने लगते हैं, और सब कुछ अपनी काबलियत समझने लग जाते हैं। शायद यही घमंड है, जब आप अंदर की तलाश को बंद कर देते है, स्व-आलोचना को व्यर्थ मान लेते हैं।

यहाँ मैदान के बड़े आकार ने हालात को बदला हुआ था। new zealand के पास भरपूर जगह थी wicket के पीछे फील्डरों को सजा करके खड़ा करने की, इतने बड़े क्षेत्र में कि आप के cut shots दूर फैली सीमारेखा तक पहुंचने से पहले ही लपक लिए जाएं। यानी आपकी आदत को आपकी कमज़ोरी में तब्दील कर देना आसान था।

ऋषभ का out होना भी कुछ कुछ उसी आदत का हिस्सा था। हालांकि वह wicket के आगे के भूक्षेत्र में लपक लिए गये। वह hi tempo के चरित्र वाले व्यक्ति हैं।  धीरे-धीरे और सब्र के साथ,  मेहनत करते हुए एक या दो रन दौड़ते हुए टिके रहना उनका चरित्र नही था।

आजकल के खेल वैसे hi tempo पर ही चलते हैं। दर्शकों को वही पसंद है। उसे aggression बुलाया जाता है। तेज़ी से मारते हुए रन बटोरना। जैसे मानो की विरोधी पर आक्रमण कर देना। इस तरह के खेल के लिये खिलाड़ियों का चयन भी वैसे ही किया जाता है। उस तरह के चरित्र वाले लोग, जो की फुर्ती से और बहुत अधिक शक्ति से बल्ला घुमा देते हैं। और क्योंकि मैदान अक्सर छोटे होते है, तब यह शक्ति इतनी भारी पड़ जाती है कि बॉल को मैदान के बाहर निकाल दे, सीधे छक्के-चौक्के के रूप में।

इसमे किस्मत का अंश था, मौसम के हालात और मैदान का आकार। old tafford में मौसम swing के पक्ष में आ गया , और मैदान इतना बड़े आकार का पड़ गया की किस्मत पलटी मार गयी hi tempo चरित्र वाले लोगों के लिये।

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