परिवार-वाद में गलत क्या है ? इस प्रश्न की एक पुनः समीक्षा पर यह बोध भी प्राप्त होता है की परिवार-वाद योग्यता को अपने आधीन करने में लिप्त रहता है / परिवार में से आये "राज कुमार " अपनी योग्यताओं की सीमाओं की अपने अंतर-मन में भली भाति जानते है / इसलिए वह अपने आस-पास मौजूद योग्य व्यक्तियों का दमन करने की बजाये उन्हें अपना सहयोगी (या "गुलाम") बनाने की रणनीति रखते हैं / येह सहयोगी उन्हें सीमाओं के बहार उठा कर रखने में उपयोगी होते है /
वैसे आपसी-सहयोग किसी भी अच्छे नेतृत्व का आधार स्तंभ भी होता है / इसलिए यह भ्रम हो सकता है की 'परिवार-वादी सहयोग' और 'आदर्श-नेतृत्व सहयोग' में क्या भेद होगा , या क्या अंतर होगा ? यह कैसे कह सकते हैं की 'परिवार-वादी सहयोग' किसी की पराधीनता के समान है ?
इस भ्रम का निवारण यह है की 'परिवार-वादी सहयोगी' एक आदर्श योग्यता से प्राप्त उन नीतियों और न्यायों को पालन नहीं करते जो उनके परिवार को अगला शासक, (= नेतृत्व ) बनाने में बांधा दे सकते है / तो परिवार-वाद के संरक्षण में एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण होता है जो वफ़ादारी , स्वामीभक्ति में लाभ प्रदान करवाती है / मगर प्राकृतिक नियमो के अनुसार , चूँकि स्वार्थ से निर्मित लाभ निष्पक्ष नहीं होता हैं इसलिए इस तरह के लाभ में किसी अन्य की हानि अवश्य होती है / अब आदर्श प्रजातंत्र में सरकार-व्यवस्था का उद्देश्य किसी को भी हानि में जीवन के न्यूनतम स्तर के नीचे ना गिरने देने का भी है /
परिवार-वाद में विरोधी पक्ष की उपस्थिति में यह हानि विरोधियों की कही जाती है / यह न्यूनतम रेखा के नीचे तक की हानि हो सकती है /
परिवार-वाद अपने पूर्ण प्रसार ,व्यापकता में राजा-महराजा की राज नरेश-व्यवस्था के समतुल्य है / अंततः परिवार-वादी अपने सहयोगियों का भी दमन करने लगते हैं अगर यह सहयोगी उनके लाभ और आनंद के बीच में बांधा बनते हैं / दमन के समय "न्याय" (असल में वह अन्याय हो रहा होता है , मगर उसे न्याय कह कर पुकारा जाता है ) के वही तर्क प्रयोग होते है जो आरम्भ में विरोधियों के दमन में प्रयोग हुए थे / तब यह प्रमाण मिलता है की क्यों परिवार-वाद में न्याय के तर्क असल में कुतर्क और अन्याय थे / योग्यता का परिवार-वाद का "पराधीन सेवक" होने का निर्णायक प्रमाण भी तभी प्राप्त होता है /
आधुनिक राजनीति में बात चाहे कानून-व्यवस्था की हो , चाहे विकास की , परिवार-वादी व्यवस्थाएं उन निति का स्थापन नहीं करेंगी जो अंततः उनके परिवार-वाद को चोट दे सकता है / यह सही नीतियों इन परिवार-वादी के आय के स्रोत को भी बंधित कर सकता है / विचार-संग्राहक संस्थाएं ऐसी निष्पक्ष और जन-कल्याणकारी नीतियों का निर्माण करती रही है / भारत के बहार अंतर-राष्ट्रिय मंच पर ऐसी "योग्य" नीतियों अस्तित्व में हैं / यह जानकारी का अधिकार , या पारदर्शिता यही से आई है / अब आगे की "योग्य' नीतियाँ का दमन परिवार-वाद पराधीनो की स्वामीभक्ति की देन है /
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
आधुनिक राजनीति में रंगे सीयार
रंगा सियार की कहानी बहोत चर्चित कहानी रही है / एक जाने माने लेखक , श्री राजेंद्र यादव जी ने भी "गुलाम" शीर्षक से सीयार की कहानी बतलाई है जो गलती से एक मृत शेर की खाल औढ बैठता है / जंगल के पशु उसे ही अपना राजा शेर खान समझने लगते हैं / रंगा सियार किस डरपोक और कायरो वाली मानसिकता से दिमाग चलता है और शेर और शेर जैसी बहादुरी का ढोंग कर के बडे-बड़े जानवर , जैसे चीता, हाथी और भालू पर "भयभीत बहादुरी" से हुकम चला कर शाशन करता है , यह "ग़ुलाम" कहानी का सार है / शेर की खाल के भीतर बैठा सियार आखिर था तो ग़ुलाम ही , इसलिए अकेले में भी मृत शेर के तलवे चाट करता था , जिससे उसमे ताकत का प्रवाह महसूस होता था /
राज-पाठ और शासन की विद्या का उसे कोई ज्ञान नहीं था , मगर मृत शेर की खाल उसकी मदद करती है , जब सब पशु उसके हुकम को बिना प्रश्न किया, बिना न्याय की परख के ही पालन करते हैं , और समझ-दार पशु भी 'दाल में काला' के आभास के बावजूद अपना मष्तिष्क बंद कर लेते है की जब जंगल का काम-काज चल रहा है तो व्यर्थ हलचल का कोई लाभ नहीं /
यह कहानी हमने अपनी दसवी कक्षा में पढ़ी थी / इस कहानी के अलावा दसवी में शेक्सपीयर के नाटक "जुलियस सीज़र " को पढ़ा था , और फिर बारहवी तक बरनार्द शॉ के नाटक "सेंट जोअं" को पढ़ा था / यह सभी रचनाएँ एक किस्म से राजनैतिक शास्त्र का ज्ञान देती हैं /
खैर , "ग़ुलाम" कहानी का प्रसंग इसलिए किया है की आधुनिक राजनीति में ये रंगे सीयार बहोत घुसे हुए हैं / ये ग्रामीण समझ के लोग , इन्होने प्रजातंत्र में जन संचालन की , न्याय की कोई शिक्षा नहीं ली है , और यह जो भी कर्म-,कुकर्म करते हैं , जो भी तर्क-कुतर्क करते हैं उसे ही यह राजनीति समझते हैं / इनमे से कईयों ने किसी मृत राजनैतिक हस्ती को अपनी पार्टी का दार्शनिक घोषित कर रखा है , जो की इन रंगे सीयारो के लिए उस मृत शेर का काम करता है , और यह जनता पर अपनी मन मर्ज़ी का कानून चलाते हैं , वह कानून जिसमे न ही तर्क हैं , ना ही सामाजिक न्याय / अपराधी , गुंडे , इन्हें जो भी कहे यह असल में "ग़ुलाम " है , और धीरे-धीरे यह समाज को भी ग़ुलामी की दिशा में ले जा रहे हैं , जब इनकी मृत्यु के पशचात हम इनकी संतानों और इनके रिश्तेदारों को अगले शासक में स्वीकार कर रहे हैं /
राज-पाठ और शासन की विद्या का उसे कोई ज्ञान नहीं था , मगर मृत शेर की खाल उसकी मदद करती है , जब सब पशु उसके हुकम को बिना प्रश्न किया, बिना न्याय की परख के ही पालन करते हैं , और समझ-दार पशु भी 'दाल में काला' के आभास के बावजूद अपना मष्तिष्क बंद कर लेते है की जब जंगल का काम-काज चल रहा है तो व्यर्थ हलचल का कोई लाभ नहीं /
यह कहानी हमने अपनी दसवी कक्षा में पढ़ी थी / इस कहानी के अलावा दसवी में शेक्सपीयर के नाटक "जुलियस सीज़र " को पढ़ा था , और फिर बारहवी तक बरनार्द शॉ के नाटक "सेंट जोअं" को पढ़ा था / यह सभी रचनाएँ एक किस्म से राजनैतिक शास्त्र का ज्ञान देती हैं /
खैर , "ग़ुलाम" कहानी का प्रसंग इसलिए किया है की आधुनिक राजनीति में ये रंगे सीयार बहोत घुसे हुए हैं / ये ग्रामीण समझ के लोग , इन्होने प्रजातंत्र में जन संचालन की , न्याय की कोई शिक्षा नहीं ली है , और यह जो भी कर्म-,कुकर्म करते हैं , जो भी तर्क-कुतर्क करते हैं उसे ही यह राजनीति समझते हैं / इनमे से कईयों ने किसी मृत राजनैतिक हस्ती को अपनी पार्टी का दार्शनिक घोषित कर रखा है , जो की इन रंगे सीयारो के लिए उस मृत शेर का काम करता है , और यह जनता पर अपनी मन मर्ज़ी का कानून चलाते हैं , वह कानून जिसमे न ही तर्क हैं , ना ही सामाजिक न्याय / अपराधी , गुंडे , इन्हें जो भी कहे यह असल में "ग़ुलाम " है , और धीरे-धीरे यह समाज को भी ग़ुलामी की दिशा में ले जा रहे हैं , जब इनकी मृत्यु के पशचात हम इनकी संतानों और इनके रिश्तेदारों को अगले शासक में स्वीकार कर रहे हैं /
लुभावना हास्य खतरनाक हो सकता है !
हास्य को हम सभी लोग क्यों इतना पसंद करते हैं ? फेसबुक पर, टीवी पर, सिनेमा में ..जहाँ देखो वहां , करीब-करीब हर पल हर कोई हंसने और हँसाने की कोशिश कर रहा होता है / और जब यह प्रश्न उठता है की इतनी हंसी इंसान को क्यों चाहिए होती है, तब एक 'शब्द-आडम्बर तर्क' (=Rhetorical) में हम यही उत्तर देते हैं कि, "आज कल के जीवन में तनाव इतना बड गया है कि उस तनाव को कम करने के लिए हास्य की आवश्यकता पड़ती है /"
हास्य मनुष्य को प्रकृति का अनोखा उपहार है / मानव विज्ञानी (=anthropologist ) हास्य को मनुष्य की बौद्धिकता का सूचक मानते हैं , की जब मनुष्य को मृत्यु की सत्यता की ज्ञान हुआ तब हास्य ही मनुष्य का प्रथम प्रतिक्रिया बनी /
मगर आज के युग में यह इतना हास्य स्वयं कुछ रोगी सा हो गया है/ जीवन को तनाव मुक्त करने के नाम नाम पर जो कुछ भी उपलब्ध हो रहा है , वह या तो किसी का उपहास करता है , या तर्क हीन हैं / किसी भी सूरत में यह हास्य वह हास्य नहीं है जो ज्ञान , विवेक अथवा बौद्धिकता से उदगल करता है /
आलम यह है की एक पूरा-पूरा कल कारखाना , एक उद्योग , हास्य के नाम पर मनोरंजन उद्योग बन कर बहोत ही लाभ में व्यवसाय कर रहा है / और यहाँ पर यह पूरी तरह स्वीकृत हो गया है की किसी सिनेमा की प्रशंसा में यह कहा जाए की उसे देखने के लिए अपना मस्तिष्क घर पर ही छोड़ कर आयें ! अग्रसर होते किसी मूरख-तंत्र की इसे बड़ी प्र-सूचक और क्या हो सकता है / मानो मनुष्य और मष्तिष्क को अब किया जा सकता है ! वैसे मौजूदा राजनैतिक हालात तो यह दर्शाते हैं की हज़ारों सालों के विकास में मनुष्य ने जिस मष्तिष्क के भरोसे दुनिया यहाँ तक बदल डाली , अब उस मष्तिष्क को मनुष्य से अलग करवाने का योगाभ्यास आविष्कृत हो चुका है /
खैर , हास्य की इस मनोरोगी प्रवृति में मनुष्य ने सामाजिक सह-निवास के तर्कों को तोड़ना-मरोड़ना भी विचित्र गति से सीख लिया है / आज के युग में कहा भी जाता हैं की सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति "आप " होता है / जो अभी तक नहीं कहा गया है , और जो शायद इसी लिए गुमशुदा है वह है की सामाजिक न्याय को ठिकाने लगा कर "आप " महतवपूर्ण नहीं रह जाता है / "आप " अपने आप के लाभों के लिए सामाजिक न्याय के तर्कों को मरोड़ने लग गए हैं / अब "आप " एक "प्रोफेशनल " बनने की शिक्षा लेने में तल्लीन हो चले हैं / इसलिए अब वह इतिहास , मानव विज्ञानं , दर्शन-शास्त्र , साहित्य इत्यादि के ज्ञान को व्यर्थ समझने लग गए हैं / तब सामाजिक-न्याय के तर्कों के उत्थान के इतिहास का ज्ञान नष्ट सा होने लगा है /
तर्कों को मरोड़ने का अभ्यास आधुनिक मानव हास्य आनंद के भाव में करता है / इस अभ्यास के दौरान बाकी सभी लोग भी मरोड़े हुए तर्कों को स्वीकार करने का अभ्यास ले बैठते हैं / धीरे-धीरे यह सहज सामाजिक-न्याय का मरोड़ा हुआ तर्क नया और आम-स्वीकृत तर्क हो जाता है , जब सामाजिक इतिहास का ज्ञान भी समाज में से नष्ट हो जाता है / फूहड़ हास्य एक खतरनाक वस्तु हो सकती है , जिस प्रकार एक अनजान वस्तु बम हो सकती है /
फूहड़ हास्य पर विवेक-हीन प्रतिक्रिया आप के सामाजिक ज्ञान को नष्ट कर रही हो सकती है /
हास्य मनुष्य को प्रकृति का अनोखा उपहार है / मानव विज्ञानी (=anthropologist ) हास्य को मनुष्य की बौद्धिकता का सूचक मानते हैं , की जब मनुष्य को मृत्यु की सत्यता की ज्ञान हुआ तब हास्य ही मनुष्य का प्रथम प्रतिक्रिया बनी /
मगर आज के युग में यह इतना हास्य स्वयं कुछ रोगी सा हो गया है/ जीवन को तनाव मुक्त करने के नाम नाम पर जो कुछ भी उपलब्ध हो रहा है , वह या तो किसी का उपहास करता है , या तर्क हीन हैं / किसी भी सूरत में यह हास्य वह हास्य नहीं है जो ज्ञान , विवेक अथवा बौद्धिकता से उदगल करता है /
आलम यह है की एक पूरा-पूरा कल कारखाना , एक उद्योग , हास्य के नाम पर मनोरंजन उद्योग बन कर बहोत ही लाभ में व्यवसाय कर रहा है / और यहाँ पर यह पूरी तरह स्वीकृत हो गया है की किसी सिनेमा की प्रशंसा में यह कहा जाए की उसे देखने के लिए अपना मस्तिष्क घर पर ही छोड़ कर आयें ! अग्रसर होते किसी मूरख-तंत्र की इसे बड़ी प्र-सूचक और क्या हो सकता है / मानो मनुष्य और मष्तिष्क को अब किया जा सकता है ! वैसे मौजूदा राजनैतिक हालात तो यह दर्शाते हैं की हज़ारों सालों के विकास में मनुष्य ने जिस मष्तिष्क के भरोसे दुनिया यहाँ तक बदल डाली , अब उस मष्तिष्क को मनुष्य से अलग करवाने का योगाभ्यास आविष्कृत हो चुका है /
खैर , हास्य की इस मनोरोगी प्रवृति में मनुष्य ने सामाजिक सह-निवास के तर्कों को तोड़ना-मरोड़ना भी विचित्र गति से सीख लिया है / आज के युग में कहा भी जाता हैं की सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति "आप " होता है / जो अभी तक नहीं कहा गया है , और जो शायद इसी लिए गुमशुदा है वह है की सामाजिक न्याय को ठिकाने लगा कर "आप " महतवपूर्ण नहीं रह जाता है / "आप " अपने आप के लाभों के लिए सामाजिक न्याय के तर्कों को मरोड़ने लग गए हैं / अब "आप " एक "प्रोफेशनल " बनने की शिक्षा लेने में तल्लीन हो चले हैं / इसलिए अब वह इतिहास , मानव विज्ञानं , दर्शन-शास्त्र , साहित्य इत्यादि के ज्ञान को व्यर्थ समझने लग गए हैं / तब सामाजिक-न्याय के तर्कों के उत्थान के इतिहास का ज्ञान नष्ट सा होने लगा है /
तर्कों को मरोड़ने का अभ्यास आधुनिक मानव हास्य आनंद के भाव में करता है / इस अभ्यास के दौरान बाकी सभी लोग भी मरोड़े हुए तर्कों को स्वीकार करने का अभ्यास ले बैठते हैं / धीरे-धीरे यह सहज सामाजिक-न्याय का मरोड़ा हुआ तर्क नया और आम-स्वीकृत तर्क हो जाता है , जब सामाजिक इतिहास का ज्ञान भी समाज में से नष्ट हो जाता है / फूहड़ हास्य एक खतरनाक वस्तु हो सकती है , जिस प्रकार एक अनजान वस्तु बम हो सकती है /
फूहड़ हास्य पर विवेक-हीन प्रतिक्रिया आप के सामाजिक ज्ञान को नष्ट कर रही हो सकती है /
"विचार-संग्राहक संस्थान "(think-tank bodies ) का प्रजातंत्र में उपयोग
प्रजातंत्र में निर्णयों को सत्य और धर्म के अलावा जन प्रिय होने की कसौटी पर परखा जाता है / यहाँ पर एक चुनौती यह रहती है की कोई निर्णय धर्मं और सत्यता की कसौटी पर खरा है यह कैसे पता चलेगा ? इस समस्या का समाधान आता है "विचार-संग्राहक संस्थानों "(think-tank bodies ) के उद्दगम से / हर विषय से सम्बंधित कोई विश्वविद्यालय या कोई स्वतंत्र संस्थान ( स्वतंत्र= अपनी आर्थिक स्वतंत्रता और पदों की नियुक्ति का नियम स्वयं से लागू करने वाला ) जनता में व्याप्त तमाम विचारों को संगृहीत करता हैं , उन पर अन्वेषण करता है , तर्क और न्याय विकसित करता है और समाचार पत्रों , टीवी डिबेट्स इत्यादि के माध्यम से उनको परखता और प्रचारित करता है /
तब इस तरह के संस्थानों दिए गए कुछ विकल्पों में "पूर्ण सहमती" (=consensus )वाले विचार को निर्णय में स्वीकार कर लिया जाता हैं / अन्यथा मत-दान द्वारा इन्ही विकल्पों से सर्वाधिक जनप्रिय वाले विचार को "आम सहमती " (= majority ) के निर्णय के साथ स्वीकार कर लिया जाता है / एक आदर्श व्यवस्था में अल्प-मती गुट (=minority ) को भी निर्णयों से हानि न होने देने का ख्याल रखा जाता हैं , या फिर की अल्प-मती गुट को कम से कम कष्ट हो /
महत्वपूर्ण बिंदु यह है की जनता जिन विकल्पों पर अपना मत देती हैं , वह विकल्प पहले से ही शोध द्वारा प्राप्त , न्याय पर परखे विकल्प होते हैं /
भारतवर्ष की त्रासदी यह है की यहाँ जनता की स्वतंत्र विचार पनपे से पहले ही कोई न कोई राजनैतिक पार्टी अपनी मन-मर्ज़ी को "जनता की उम्मीद " का चोंगा पहना कर प्रचारित करने लगाती हैं / जिन नागरिकों को अभी मुद्दे का पता भी नहीं होता , वह इन "जनता की उम्मीद " वाले विचारों को न्याय-संगत और जन-भावन विचार समझ कर मुद्दे पर अपना पहला ज्ञान प्राप्त करते हैं / टीवी और समाचार मीडिया अक्सर सभी प्रकार की खबरों को "निष्पक्ष " दिखा कर जनता को किसी नतीजे पर ना पहुचने का योगदान देते हैं , जिस से की जो ज्यादा प्रचारित विचार हैं , यानी उस मीडिया कम्पनी का "जनता की उम्मीद " वाला विचार , उस मीडिया के दर्शक उसे ही स्वीकार कर लें /
ध्यान देने की बात है की कोई भी टीवी चेनल किसी "विचार संग्राहक संस्था " के विचारों को प्रसारित नहीं करता है , ना ही अपनी स्वयं की कोई डाक्यूमेंट्री देता है , बल्कि अपना "डिस क्लैमेर " ("disclaimer" ) लगा कर अपना हाथ ज़रूर साफ़ कर लेता है की "चेनल पर जो भी दिखाया जाता है उससे मीडिया कंपनी के विचारों से कोई सरोकार नहीं है "/ अरे भई, तब दैनिक कार्यों में व्यस्त नागरिक कब तक और कितनी बारीकी से हर खबर पर नज़र रखेगा की वह स्वयं से एक धर्म-संगत, पूर्ण-न्याय वाला विचार स्वयं विकसित कर ले ? तो मीडिया द्वारा उपलब्ध समाचार आपको जागरूक कम बनाते हैं , भ्रमित ज्यादा करते हैं की आप अंततः उनके बेचे गए विचारों को ही खरीद कर स्वीकार कर लें /
विचार-संग्राहक संस्थान और उनमे सदस्य सम्मानित नामों का ऐसा उपयोग होना चाहिए / मगर भारत में राजनेता के विचारों में हाँ-में-हाँ करने वाली ज़मीदारी व्यवस्था अभी भी चलती है / राज नेता ही सबसे बड़ा विचारक होता है जो सभी विषयों पर विशेषज्ञ ज्ञान के साथ विचार क्या , सीधे निर्णय ही देता है / अकसर वह राज नेताओं या किसी सेलेब्रिटी ने क्या कहा ऐसे दिखलाती हैं की मानो वही "जनता की उम्मीद " वाला विचार हैं /
तब इस तरह के संस्थानों दिए गए कुछ विकल्पों में "पूर्ण सहमती" (=consensus )वाले विचार को निर्णय में स्वीकार कर लिया जाता हैं / अन्यथा मत-दान द्वारा इन्ही विकल्पों से सर्वाधिक जनप्रिय वाले विचार को "आम सहमती " (= majority ) के निर्णय के साथ स्वीकार कर लिया जाता है / एक आदर्श व्यवस्था में अल्प-मती गुट (=minority ) को भी निर्णयों से हानि न होने देने का ख्याल रखा जाता हैं , या फिर की अल्प-मती गुट को कम से कम कष्ट हो /
महत्वपूर्ण बिंदु यह है की जनता जिन विकल्पों पर अपना मत देती हैं , वह विकल्प पहले से ही शोध द्वारा प्राप्त , न्याय पर परखे विकल्प होते हैं /
भारतवर्ष की त्रासदी यह है की यहाँ जनता की स्वतंत्र विचार पनपे से पहले ही कोई न कोई राजनैतिक पार्टी अपनी मन-मर्ज़ी को "जनता की उम्मीद " का चोंगा पहना कर प्रचारित करने लगाती हैं / जिन नागरिकों को अभी मुद्दे का पता भी नहीं होता , वह इन "जनता की उम्मीद " वाले विचारों को न्याय-संगत और जन-भावन विचार समझ कर मुद्दे पर अपना पहला ज्ञान प्राप्त करते हैं / टीवी और समाचार मीडिया अक्सर सभी प्रकार की खबरों को "निष्पक्ष " दिखा कर जनता को किसी नतीजे पर ना पहुचने का योगदान देते हैं , जिस से की जो ज्यादा प्रचारित विचार हैं , यानी उस मीडिया कम्पनी का "जनता की उम्मीद " वाला विचार , उस मीडिया के दर्शक उसे ही स्वीकार कर लें /
ध्यान देने की बात है की कोई भी टीवी चेनल किसी "विचार संग्राहक संस्था " के विचारों को प्रसारित नहीं करता है , ना ही अपनी स्वयं की कोई डाक्यूमेंट्री देता है , बल्कि अपना "डिस क्लैमेर " ("disclaimer" ) लगा कर अपना हाथ ज़रूर साफ़ कर लेता है की "चेनल पर जो भी दिखाया जाता है उससे मीडिया कंपनी के विचारों से कोई सरोकार नहीं है "/ अरे भई, तब दैनिक कार्यों में व्यस्त नागरिक कब तक और कितनी बारीकी से हर खबर पर नज़र रखेगा की वह स्वयं से एक धर्म-संगत, पूर्ण-न्याय वाला विचार स्वयं विकसित कर ले ? तो मीडिया द्वारा उपलब्ध समाचार आपको जागरूक कम बनाते हैं , भ्रमित ज्यादा करते हैं की आप अंततः उनके बेचे गए विचारों को ही खरीद कर स्वीकार कर लें /
विचार-संग्राहक संस्थान और उनमे सदस्य सम्मानित नामों का ऐसा उपयोग होना चाहिए / मगर भारत में राजनेता के विचारों में हाँ-में-हाँ करने वाली ज़मीदारी व्यवस्था अभी भी चलती है / राज नेता ही सबसे बड़ा विचारक होता है जो सभी विषयों पर विशेषज्ञ ज्ञान के साथ विचार क्या , सीधे निर्णय ही देता है / अकसर वह राज नेताओं या किसी सेलेब्रिटी ने क्या कहा ऐसे दिखलाती हैं की मानो वही "जनता की उम्मीद " वाला विचार हैं /
प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का उदारवादी स्वतन्त्रताओं से भ्रम
प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का पोषण और प्रोत्साहन किसी सदगुण विचारक की रचना नहीं है , बल्कि मानवाधिकारों की उत्पत्ति भी तर्क के खास संयोजन से होती है / गहराई में झांके तो पता चलेगा की जिन विचारों को हम अपने धार्मिक और कर्म-कांडी सदगुण से ग्रहण करते है , प्रजातंत्र में जब धर्म-निरपेक्षता विचार की अनिवार्यता आती है , तब धर्म-निरपेक्षता के भी तर्कों के ख़ास संयोजन से नागरिकों के दैनिक व्यवहार में इन सदगुणों की अनिवार्यता को समझा जा सकता है / यानी अगर आप नास्तिक भी हैं तो धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आपको इन सदगुणों को किन्ही दूसरे तर्कों से गृहीत कर जीवन में पालन करना ही पड़ेगा / सदगुण जैसे की " बड़ों का आदर करो " को आम तौर पर एक रामायण से प्राप्त सदगुण मान कर जीवन में गृहीत करते है और क्यों-क्या नहीं पूछते / मान लीजिये की कोई नास्तिक है , तब क्या वह इस व्यवहार को अपनाने से विमुक्त होगा ? क्योंकि रामायण को तो मानेगा नहीं, और धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक व्यवस्था उसको विश्वासों और आस्थाओं की स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य होगी की वह न भी माने तब भी वह सही है / ऐसे में अगर वह अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करता है तब क्या राज्य-प्रशासन उसे बाध्य कर सकता है ?
हम सब ने यह देखा होगा की कैसे प्रजातंत्र की व्यवस्था में किसी भी 18 वर्ष से कम आयु के नाबालिग के हितो की रक्षा में सभी कानूनों और नियमो में ऐतिहात बरता जाता हैं / अगर किसी नाबालिग के माता-पिता उसका उचित पालन ना कारें तब उन्हें न्यायलय द्वारा बाध्य किया जा सकता है , अन्यथा न्यायलय उन्हें राज्य के संरक्षण में सौप देता है / इसके विपरीत किसी भी बालिग़ को अपने माता-पिता का ख्याल न रखने के लिए भी बाध्य कर देने के नियम हैं , नौकरियों में निर्भरता में बेरोजगार या आय-विहीन माता-पिता पर कई सहूलियतें प्रदान करी गयी हैं और अंत में राज्य द्वारा बुजुर्गों के संरक्षण की भी व्यवस्था है / पेंशन , प्रोविडेंट फण्ड , टैक्स रिबेट , यात्रा में रियायत , इत्यादि कई सुविधायें दी जाती हैं / धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था ऐसा जीवन और प्रकृति के कारणों से करती है , किसी कर्म-कांडी आस्थाओं और विश्वासों से नहीं / न्याय के तर्क फिर से व्यवस्था को बाध्य कर देते हैं , जो शायद सांप्रदायिक विश्वासों के कर्म-कांडो से विमुक्त होने के उपरान्त न करने पड़ते /
प्रजातंत्र में आप अगर नास्तिक हो कर सांप्रदायिक विश्वासों के कर्म-कांडो को ना भी माने तब भी प्रकृति के नियमो का पालन तो प्रकृति स्वयं ही करवा लेगी / स्वतन्त्र मनुष्य प्रकृति के नियमो से स्वतन्त्रता तो नहीं पा सकता ! और प्रजातान्त्रिक न्याय प्रणाली के नियम इन्ही प्राकृत के नियमो पर आधारित है /मानव अधिकारों का जन्म भी कुछ प्राकृतिक नियमो में से होता है /
मुद्दा यह है की श्रमिक क़ानून भी अन्य कानूनों की तरह प्राकृतिक नियमो में से विक्सित हुए हैं / इसलिए वह भी न्यायालयों द्वारा बाध्य किये जा सकते हैं , सरकारी नियम में वह चाहे ना हो /
दिक्कत तब आती है जब ग्रामीण जमीदारी व्यवस्था से आये लोग मानव-अधकारों और प्रकृति के नियमो की नासमझी कर उन्हें "सरकार" के दयालु-भाव में मान लेते है / "सरकार" व्यवस्था प्रजातान्त्रिक व्यवस्था से कहीं विपरीत व्यक्तव्य है / ऐसा वह इस लिए करते है क्यों की वह जमीदारी व्यवस्था में नियमो के अस्तित्व के तर्कों को " सरकार (=जमीदार) की मर्ज़ी " के तौर पर स्वीकार करते आये होते है / ज़मीदारी प्रथा में ज्यादा प्रश्न पूछने की सजा मृत्यु दंड हो सकती थी / इसलिए कई लोग तो प्रश्न भी नहीं पूछते थे , चाहे जीवन भर अज्ञानी -मूड़ भी क्यों ना रह जाएँ / अभी हाल में हुयी एक बहस , "क्या मौलिक अधीकार निराकुश होते है ? " के कारक को देखिये / मौलिक अधिकारों को राष्ट्र-रक्षण कारको में निरंकुश माना जाता है / मगर , मौलिक अधिकारों को निराकुश मान लेने पर सत्तारुड पार्टी की निति की विफलता को उसके 'व्यवस्था-का-अधिकार' मान लेने का भ्रम हो जायेगा / पश्चिमी प्रजातंत्रो में मौलिक अधिकारों को सिर्फ बहाय आक्रमणों की परिस्थिति में अन्कुषित किया जा सकता है , अन्यथा अंदरूनी अलगाव-वादी झगड़ो में भी नहीं / अन्दरोनी अलगाववाद जनता के स्वतन्त्र मन की चाहत के रूप में समझी जाती है /यही "व्यवस्था का अधिकार " मौलिक अधिकारों को प्रजातंत्र की बुनियाद से तब्दील कर के उदारवादी तानाशाही की "दयालु कृपा" बना देती है /
आश्चर्य है की अभी के राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी के मत में भी मौलिक अधिकार निरंकुश नहीं होते / वह क्यों ऐसा सोचते हैं , इसका कारक खुद सोचने के लिए स्वतंत्र हैं/ असीम त्रिवेदी के जेल भेजने में भी लोक-सेवको ने यही "उदारवादी-भाव" की अपनी समझ का उदाहरण दिया था /
हम सब ने यह देखा होगा की कैसे प्रजातंत्र की व्यवस्था में किसी भी 18 वर्ष से कम आयु के नाबालिग के हितो की रक्षा में सभी कानूनों और नियमो में ऐतिहात बरता जाता हैं / अगर किसी नाबालिग के माता-पिता उसका उचित पालन ना कारें तब उन्हें न्यायलय द्वारा बाध्य किया जा सकता है , अन्यथा न्यायलय उन्हें राज्य के संरक्षण में सौप देता है / इसके विपरीत किसी भी बालिग़ को अपने माता-पिता का ख्याल न रखने के लिए भी बाध्य कर देने के नियम हैं , नौकरियों में निर्भरता में बेरोजगार या आय-विहीन माता-पिता पर कई सहूलियतें प्रदान करी गयी हैं और अंत में राज्य द्वारा बुजुर्गों के संरक्षण की भी व्यवस्था है / पेंशन , प्रोविडेंट फण्ड , टैक्स रिबेट , यात्रा में रियायत , इत्यादि कई सुविधायें दी जाती हैं / धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था ऐसा जीवन और प्रकृति के कारणों से करती है , किसी कर्म-कांडी आस्थाओं और विश्वासों से नहीं / न्याय के तर्क फिर से व्यवस्था को बाध्य कर देते हैं , जो शायद सांप्रदायिक विश्वासों के कर्म-कांडो से विमुक्त होने के उपरान्त न करने पड़ते /
प्रजातंत्र में आप अगर नास्तिक हो कर सांप्रदायिक विश्वासों के कर्म-कांडो को ना भी माने तब भी प्रकृति के नियमो का पालन तो प्रकृति स्वयं ही करवा लेगी / स्वतन्त्र मनुष्य प्रकृति के नियमो से स्वतन्त्रता तो नहीं पा सकता ! और प्रजातान्त्रिक न्याय प्रणाली के नियम इन्ही प्राकृत के नियमो पर आधारित है /मानव अधिकारों का जन्म भी कुछ प्राकृतिक नियमो में से होता है /
मुद्दा यह है की श्रमिक क़ानून भी अन्य कानूनों की तरह प्राकृतिक नियमो में से विक्सित हुए हैं / इसलिए वह भी न्यायालयों द्वारा बाध्य किये जा सकते हैं , सरकारी नियम में वह चाहे ना हो /
दिक्कत तब आती है जब ग्रामीण जमीदारी व्यवस्था से आये लोग मानव-अधकारों और प्रकृति के नियमो की नासमझी कर उन्हें "सरकार" के दयालु-भाव में मान लेते है / "सरकार" व्यवस्था प्रजातान्त्रिक व्यवस्था से कहीं विपरीत व्यक्तव्य है / ऐसा वह इस लिए करते है क्यों की वह जमीदारी व्यवस्था में नियमो के अस्तित्व के तर्कों को " सरकार (=जमीदार) की मर्ज़ी " के तौर पर स्वीकार करते आये होते है / ज़मीदारी प्रथा में ज्यादा प्रश्न पूछने की सजा मृत्यु दंड हो सकती थी / इसलिए कई लोग तो प्रश्न भी नहीं पूछते थे , चाहे जीवन भर अज्ञानी -मूड़ भी क्यों ना रह जाएँ / अभी हाल में हुयी एक बहस , "क्या मौलिक अधीकार निराकुश होते है ? " के कारक को देखिये / मौलिक अधिकारों को राष्ट्र-रक्षण कारको में निरंकुश माना जाता है / मगर , मौलिक अधिकारों को निराकुश मान लेने पर सत्तारुड पार्टी की निति की विफलता को उसके 'व्यवस्था-का-अधिकार' मान लेने का भ्रम हो जायेगा / पश्चिमी प्रजातंत्रो में मौलिक अधिकारों को सिर्फ बहाय आक्रमणों की परिस्थिति में अन्कुषित किया जा सकता है , अन्यथा अंदरूनी अलगाव-वादी झगड़ो में भी नहीं / अन्दरोनी अलगाववाद जनता के स्वतन्त्र मन की चाहत के रूप में समझी जाती है /यही "व्यवस्था का अधिकार " मौलिक अधिकारों को प्रजातंत्र की बुनियाद से तब्दील कर के उदारवादी तानाशाही की "दयालु कृपा" बना देती है /
आश्चर्य है की अभी के राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी के मत में भी मौलिक अधिकार निरंकुश नहीं होते / वह क्यों ऐसा सोचते हैं , इसका कारक खुद सोचने के लिए स्वतंत्र हैं/ असीम त्रिवेदी के जेल भेजने में भी लोक-सेवको ने यही "उदारवादी-भाव" की अपनी समझ का उदाहरण दिया था /
परिवार-वाद में गलत क्या है ?
परिवार-वाद (Dynasty) में गलत क्या है ? क्या किसी राजा, या फिर किसी राजनेता के पुत्र को महज इसलिए मौक नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि वह किसी राजा या राजनेता की संतान है ?
साधारण मानवाधिकारो के तर्कों से यदि समीक्षा करें तब उत्तर मिलगा की परिवारवाद का समर्थन न करना मानवाधिकरो के उलंघन जैसा है / मगर इतिहास के अध्यायों से विषय पर सोंचें तब यह आशंका आएगी की व्यवहारिकता में परिवारवाद कितना बड़ा राजनैतिक और संकट है /
परिवार को समाज की इकाई माना गया है / प्रत्येक परिवार को जान -माल की सुरक्षा और पारिवारिक एकान्तता प्रदान करवाना हर एक प्रजा-तांत्रिक व्यवस्था और हर 'संयुक्त-राष्ट्र' (the UN ) के सदस्य राज्य का कर्त्तव्य है ऐसे / ऐसे में यह तर्क भी पूर्तः स्वीकार्य है की हर व्यक्ति अपने जीवन का श्रम अपने परिवार के लिए ही तो करता है , और वह यही चाहेगा की उसके उपरान्त उसका स्थान उसके संतान लें /
मुद्दा है की क्या यह सदगुणी सत्य एक भ्रम तो नहीं बन जाता है जब बात आती है की पिता का व्यवसाय समाज-सेवा थी , या कहें तो राजनीति थी / यह प्रश्न को समझ लेना जरूरी है की आप राजनीति को एक समाज-सेवा (services ) मानते है या कोई व्यवसाय (business ), या फिर की लाभार्त-कर्त्तव्य ( profession ) / क्योंकि यदि राजनीति एक सेवा है , जो की राजनीति को माना भी जाता है , तब सेवा-कर्म में याग्यता का तिरस्कार इतिहास की दृष्टी से एक जातवाद प्रथा के आरम्भ के सम-तुल्य है / समाज अपने हर एक क्रांति या युग परिवर्तन के उपरान्त यही व्रत लेता है कि अब से आने वाले युगों किसी भी संस्थान में नेतृत्व को उसकी योग्यता के आधार पर ही चुना जायेगा / मगर धीरे-धीरे सभी संस्थान यह व्रत भुला देती है, साथ ही यह सत्य भी की हम सब ही नशवर हैं / वह सब परिवार के मोह में पड़ कर परिवार-वादी बन जाना चाहती है /
प्रकृति ने कई सारे सिद्धांत द्वि-स्तरीय तर्कों में रचे है / साधारण तौर पर एक-स्तर के तर्कों पर कार्य करने वाला मानव मस्तिष्क अकसर कर के द्वि-स्तरीय तर्कों को भी मिथ्या -आडम्बर मान लेने की त्रुटी कर देता है / और भ्रम की राजनीति करने वाले आपकी इस त्रुटी के आत्म -ज्ञान को ही आपका भ्रम होने का विश्वास दिलवा कर राजनीती सेंक निकलते हैं /
परिवार-वाद पर तमाम तर्कों का विश्लेषण अपने आप में एक ज्ञान है की मिथ्या-आडम्बर इंसान को कैसे विश्वास में ले कर गलत कर देते हैं / भ्रम और सत्य के इस युद्ध बिंदु को विधि (laws ) और न्याय (justice ) के द्वारा 'दूध का दूध ,पानी का पानी ' कर सकना करीब करीब असंभव हैं / न्याय कभी भी योग्यता को नहीं ठुकराना चाहेगा / ना ही वह किसी को उसके जन्म के कारण अवसरों से विमुक्त करेगा /
इंसानों को खुद्द ही इस उलझन का समाधान निकलना होगा / चाहे फिर ऐसा कर के कि हर एक को उसकी योग्यता के आधार पर ही अवसर दिया जाए , और परिवार-वाद से आये संतानों को योग्यता के प्रमाण के परिक्षण से गुजरना हो /
उदारवादी तानाशाही में उदारवादिता का प्रजातान्त्रिक मूल के मानवाधिकारों से भ्रम
उदारवादी तानाशाही और प्रजातंत्र में भ्रम करने के स्रोत कुछ और भी हैं / जब लोग यह पूछते है की अगर वाकई एक भ्रष्टाचार -विमुख "जन संचालन प्रतिष्ठान" अगर अस्तित्व में आ जायेगा तो उनका जीना दुषवार हो जायेगा क्योंकि छोटी मोटी गलतियाँ तो सभी कोई आये दिन करता है , और ऐसे प्रतिष्ठान उनके इन छोटी-छोटी गलतियों पर भी सजा दे देगा , तब लोगो के मन में आसीन आज की "सरकारों" की उदारवादिता के प्रति सम्मान समझ में आता है / लगता है की लोगो को मानवाधिकारों की न तो समझ है न ही एक सच्चे प्रजातंत्र में उनके औचित्य की जानकारी / वह सरकारों की उदारवादिता के आधीन जीवन जी रहे होते है /
उदारवादी तानाशाही एक "सरकार" की भांती कार्य करती है , जो की लोगो को उनके अपराधो की सजा देने की ताकत रखती है , मगर उदारवादी बन कर ऐसा नहीं करती / लोग अपनी उदारवादी सरकार का साभार मानते हैं / परन्तु प्रजातंत्र में "जन संचान प्रतिष्ठान " होते है , जो की अपराधो को चिन्हित करते हैं, और उनके सजा तय करते हैं, मगर कोई व्यक्ति सजा की पात्रता पर है की नहीं यह न्यायलय तय करतें है / कुछ प्रजातांत्रिक देशों में तो "पब्लिक जूरी " तक होती है जो की आम आदमियों में से निर्मित होती है और वह तय करती है की कोई सजा की पात्रता पर है की नहीं /
अरे भई अगर कभी कोई भ्रष्टाचार -विमुख "जन संचालन प्रतिष्ठान" अस्तित्व में आ भी गया तो क्या मानवाधिकार ख़तम हो जायेंगे ? या फिर की भ्रष्टाचार -विमुख प्रतिष्ठान आम आदमियों के ऊपर कारवाही करेगा, न की अन्य प्रतिष्ठान के ऊपर जैसे की पुलिस प्रतिष्ठान , न्यायलय प्रतिष्ठान इत्यादि ? यह तो सर्व समझ की बात है की भ्रष्टाचार -विमुख प्रतिष्ठान सिर्फ अन्य प्रतिष्ठान में भ्रष्टाचार की रोक थाम करेगा, बाकी सब के सब प्रतिष्ठान अपने कर्तव्य पहले जैसे ही करेंगे /
उदारवादी तानाशाही एक "सरकार" की भांती कार्य करती है , जो की लोगो को उनके अपराधो की सजा देने की ताकत रखती है , मगर उदारवादी बन कर ऐसा नहीं करती / लोग अपनी उदारवादी सरकार का साभार मानते हैं / परन्तु प्रजातंत्र में "जन संचान प्रतिष्ठान " होते है , जो की अपराधो को चिन्हित करते हैं, और उनके सजा तय करते हैं, मगर कोई व्यक्ति सजा की पात्रता पर है की नहीं यह न्यायलय तय करतें है / कुछ प्रजातांत्रिक देशों में तो "पब्लिक जूरी " तक होती है जो की आम आदमियों में से निर्मित होती है और वह तय करती है की कोई सजा की पात्रता पर है की नहीं /
अरे भई अगर कभी कोई भ्रष्टाचार -विमुख "जन संचालन प्रतिष्ठान" अस्तित्व में आ भी गया तो क्या मानवाधिकार ख़तम हो जायेंगे ? या फिर की भ्रष्टाचार -विमुख प्रतिष्ठान आम आदमियों के ऊपर कारवाही करेगा, न की अन्य प्रतिष्ठान के ऊपर जैसे की पुलिस प्रतिष्ठान , न्यायलय प्रतिष्ठान इत्यादि ? यह तो सर्व समझ की बात है की भ्रष्टाचार -विमुख प्रतिष्ठान सिर्फ अन्य प्रतिष्ठान में भ्रष्टाचार की रोक थाम करेगा, बाकी सब के सब प्रतिष्ठान अपने कर्तव्य पहले जैसे ही करेंगे /
a list of who-the-hell is low IQ, as per we the people.
'What is Intelligence' have seriously had only some inconclusive answers. Gadkari's gaffe has brought out how people think about intelligence. More than questioning about intelligence, IQ or their own disposition on their intelligence, people have chosen the idea around Intelligence to point what they considered was not intelligent in the entire gaffe. Here is a list of how and what people think is unintelligent:
1) Intelligence is problem-solving ability, and Dawood is no problem-solver for society. Vivekananda was.
2) Indian police and establishment is low IQ to have failed to catch dawood despite a big establishment.
3) Gadkari has been low IQ to have broached the issue at such wrong time of his.
4) Indian people are low IQ to be repeatedly re-electing between Congress and BJP.
5) gadkari is low IQ to be commenting on IQ of people without even knowing ABC of what is IQ and what is Intelligence. BJP is unfortunate to have such a person as their head.
6) media is low IQ to be misrepresenting what gadkari said , which otherwise has nothing wrong in it.
7) People are low IQ to be over-reacting on small innocuous comment.
8) people of India are low IQ to be not understanding the corruption done by Vadra and Gadkari.
9) Jethmalanis are low IQ to not know why Gadkari-ji should be given "support" (a backing despite a forceful evidence of corruption by Gadkari) to fight against the powerful Congress.
more than about knowing what is intelligence, how intelligence can be cultured, groomed, enhanced, we know who-the-hell is low IQ.
"स्ट्रा-मैन आर्ग्युमेंट" क्या होते है ?
" स्ट्रा-मैन आर्ग्युमेंट " अंग्रेजी में उस श्रेणी के तर्कों का कहा जाता है जिसमे प्रतिस्पर्धी एक साजिश के तहत अपने विरोधी के तर्कों को सही उत्तर न दे सकने की परिथिति में एक अन-उपयोगी या किसी कमज़ोर तर्क को उसका "असली' तर्क बतला कर उनका सटीक उत्तर दे देता है/ जो लोग इस वाद-विवाद को सही और लगातार नहीं देख रहे होते है उनको लगता है की भई विरोधी के तर्क का एक सही-सही जवाब तो दिया ही है , अब विरोधी इनको क्यों परेशान कर रहा है / "स्ट्रा-मैन" का अर्थ होता है फाँस का बना मानव , जिसको अक्सर खेतों में लगाया जाता है चिड़ियों की भगाने के लिए /
कुछ तीव्र बुद्धि लोग अगर उसकी इस चलंकी को पकड़ भी लेते है , "की आपने जवाब तो उस प्रश्न का दिया ही नहीं जो आपसे पुछा गया था ", तब भी वह प्रतिस्पर्धी एक मत-विभाजन करने में कामयाब तो हो ही जाता है / किसी भी राजनीतिग्य को मत-विभाजन से बेहतर और क्या चाहिए / मत-विभाजन से ही तो राजनीति आरम्भ होती है / तभी तो मत दिए जातें है, जब मत-दान होता है /
भाषा परिवर्तन की मिथ्या में खोता हुआ विवेक
भाषा के महत्व को क्या कभी भी कम आँका जा सकता है / भाषा का मनुष्य के विकास में जो महत्त्व है उसकी जितना भी चर्चा करें वह कम होगी / मगर दुखड़ा तब होता है की हम सारा का सारा श्रेय भाषा को देने की भूल कर बैठते है / भाषा के अलावा मनुष्य के विवेक की चर्चा होना भी उतनी ही जरूरी है / तर्क में अक्सर भारतीय यहाँ पर भ्रमित हो जातें है / ठीक है एक वस्तु, भाषा , बहोत महत्वपूर्ण है , मगर ऐसा नहीं की भाषा अकेला ही सारा कार्यभार संभाली हुयी है / तर्क संवाद , और स्कूली वाद-विवाद प्रतियोग्तायों में अक्सर यह तर्क -भ्रम देखने को मिलता है / ख़ास तौर पर जब अंग्रेज़ी में यह तर्क-संवाद प्रतियोगिता आयोजित करी जाती है / इंग्लिश भाषा की अध्यापक( अथवा अध्यापिका ) प्रतियोगियों को सिर्फ उनकी अंग्रेज़ी बोलने की काबलियत पर ही अंक दे कर पक्ष और विपक्ष के बीच में न्याय कर देते हैं / वाद-विवाद प्रतियोगितायों में न्याय करने के मुख बिन्दुओं में प्रत्योगियों की तर्क को समझाने की बुद्धि, उसको सुलझाने की और उनमे छिपे चुनातियों को चिन्हित करने, उनके निवारण करने की काबलियत को देखना चाहिए /
इंग्लिश में संवाद करने की इच्छा ने भी एक महत्व्कान्षा का रूप ले लिया है और हमारे विवेक पर एक पर्दा-सा गिरा दिया है / अब तर्क , कुतर्क, की समझ तो कुछ प्रभावकारी और सौन्दर्य-पूर्ण शब्दों ने ले ली है / इंग्लिश बोलने के चक्कर में थोड़ा सा बेवक़ूफ़ हो गए है हम लोग /
भाषा के महत्त्व पर वाद-विवाद में अपने आप एक थाम लग जानी चाहिए थी, जब बिंदु एक प्रभावकारी लुभावनी भाषा से कहीं अधिक व्यक्तव्य को सही-सही संतुलित रूप में समझा सकने का हो / और भाषा की त्रुत्यों पे कुछ ढील भी देने की भी ज़रुरत हो सकती है अगर वाद-विवाद में इंग्लिश नागरिक स्वयं न हो , क्योंकि बाकी अन्य तो अपनी मात्र भाषा से जुदा भाषा में यह संवाद कर के अपने विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे होते है /
शिस्टाचार कभी भी तर्क विहीन नहीं हो सकते
सदगुण , शिष्टाचार तो कभी-कभी ऐसे सुनाई देते हैं की मानो यह सिर्फ विश्वास और आस्था से उदित है, इसलिए सांस्कृतिक कर्त्तव्य है, और इनमे तर्क दूड़ना अपराध होगा / शिष्टाचार का अनुस्मरण तो आजकल कुछ ऐसे ही करवाया जा रहा है / "आज कल इस देश में राजनीति की भाषा ऐसी बदल है , इतनी गन्दी हो गयी है की लोग एक दूसरे पर कीचड उछाल रहे हैं " ! / "कुछ लोग बिना प्रमाण के कुछ प्रतिष्ठित लोगों पर बे-बुनियाद आरोप लगा रहे हैं "/ "सार्वजनिक जीवन में अपने विरोशी के प्रति ऐसे शब्दों का प्रयोग उचित नहीं हैं "/
अन्धकार में करी जाने वाली भारतीय राजनीति में कुछ शिष्टाचार की आस्थाओं का भी खूब प्रयोग हुआ है / जैसे की , अपने राजनैतिक विरोधी के चरित्र पर हमला करना एक अच्छा "शिस्टाचार" नहीं है (यानी की शिस्ट-आचरण नहीं है ) / क्यों नहीं है, किन सीमाओं के भीतर में नहीं है , इस पर तर्क करना ही अपने आप में बेवकूफी समझ ली गयी है / क्यों न हो, भारतीय सभ्यता में "सभ्यता" इतनी अधिक है की समालोचनात्मक चिंतन का आभाव बहुत गहरा और गंभीर है / यहाँ विश्वास अधिक महत्व पूर्ण है , विवेक नहीं / "विवेक" सिर्फ बच्चों के नाम रखने पर ही अच्छा सुनिए देता है /
और नतीजा यह है की अब अपराधी राजनीति में घुसपैट कर चुके है / क्या अब भी इस पर बहस करनी पड़ेगी, कि फिर वही , "मामला अभी कोर्ट में लंबित है " , या फिर की, "जब तब प्रमाणित न हो जाए प्रत्येक व्यक्ति को निर्दोष ही मन जाना चाहिए " /
शिस्टाचार कभी भी तर्क विहीन नहीं हो सकते / वह अक्सर अपने बीते हुए युग के तर्क पर आधारित होते है / जब युग बदल जाता है, तकनीक बदल जाती है, तब शिष्टाचार के तर्क भी बदल जाते हैं / कभी कभी वह एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में रख लिए जाते है और तब उन्हें संस्कृति के कर पुकारा जाता है/ यह सत्य है कि तब ऐसे शिस्टाचार में वर्तमान युग के अनुरूप इस्थापित तर्क नहीं रह जाता है , मगर यह अपने आप में एक तर्क बन जाता है कि वह ऐतिहासिक धरोहर मान कर संरक्षित करे गयें हैं / क्या यह उचित होगा कि शिष्टाचार को मात्र सदगुण होने कि वजह से लगो करने का अनुस्मरण करा जाए, जब कि ऐसा करने पर किसी मौजूदा सत्य और धर्म का पतन ही क्यों न हो /
राजनीति में एक अच्छा शिष्टाचार है कि प्रतिद्वंदियों कि अपनी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता सिर्फ राजनैतिक क्षेत्र तक ही रखनी चाहिए / क्योंकि इंसानों में मत-भेद तो होते हैं, मगर इंसानियत कि रिश्ता नहीं ख़तम होना चाहिए / यह एक अच्छा शिस्टाचार है/ अब अगर कुटिल-बुद्धि राजनैतिक इस मान्यता का दुरुओप्योग करें कि राजनातिक क्षेत्र में चुपके से संथ-गाँठ कर ले और राजनैतिक प्रतिद्वादिता भी जनता को लूटने के लिए प्रयोग करें तब भी क्या शिस्टाचार ज्यादा तर्क-वान और विवेक-पूर्ण माना जाना चाहिए? क्या तब भी प्रतिद्वंदियों के व्यक्तिगत जीवन में छिपे सांठ-गाँठ के प्रमाणों को सब के सम्मुख नहीं करना चाहिए ?
भारतीय राजनीति भ्रम पर ही चलती है / यहाँ पूर्ण कोशिश होती है कि सत्य-स्थापन की तकनीकें लागू न हो पाए , जिससे कि राजनाति करने का अंधियारा कायम रहे / भ्रांतियां विवेक को दूषित करती है / शिस्टाचार तर्क-विहीन नहीं है / शिस्टाचार भी इंसान के विकास के साथ सम्बंधित रही कुछ घटनायों में से उत्त्पतित होता है / इंसान के विकास के साथ साथ शिस्टाचार के तर्क भी बदलते हैं, और शिस्टाचार की मान्यताएं भी/
अन्धकार में करी जाने वाली भारतीय राजनीति में कुछ शिष्टाचार की आस्थाओं का भी खूब प्रयोग हुआ है / जैसे की , अपने राजनैतिक विरोधी के चरित्र पर हमला करना एक अच्छा "शिस्टाचार" नहीं है (यानी की शिस्ट-आचरण नहीं है ) / क्यों नहीं है, किन सीमाओं के भीतर में नहीं है , इस पर तर्क करना ही अपने आप में बेवकूफी समझ ली गयी है / क्यों न हो, भारतीय सभ्यता में "सभ्यता" इतनी अधिक है की समालोचनात्मक चिंतन का आभाव बहुत गहरा और गंभीर है / यहाँ विश्वास अधिक महत्व पूर्ण है , विवेक नहीं / "विवेक" सिर्फ बच्चों के नाम रखने पर ही अच्छा सुनिए देता है /
और नतीजा यह है की अब अपराधी राजनीति में घुसपैट कर चुके है / क्या अब भी इस पर बहस करनी पड़ेगी, कि फिर वही , "मामला अभी कोर्ट में लंबित है " , या फिर की, "जब तब प्रमाणित न हो जाए प्रत्येक व्यक्ति को निर्दोष ही मन जाना चाहिए " /
शिस्टाचार कभी भी तर्क विहीन नहीं हो सकते / वह अक्सर अपने बीते हुए युग के तर्क पर आधारित होते है / जब युग बदल जाता है, तकनीक बदल जाती है, तब शिष्टाचार के तर्क भी बदल जाते हैं / कभी कभी वह एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में रख लिए जाते है और तब उन्हें संस्कृति के कर पुकारा जाता है/ यह सत्य है कि तब ऐसे शिस्टाचार में वर्तमान युग के अनुरूप इस्थापित तर्क नहीं रह जाता है , मगर यह अपने आप में एक तर्क बन जाता है कि वह ऐतिहासिक धरोहर मान कर संरक्षित करे गयें हैं / क्या यह उचित होगा कि शिष्टाचार को मात्र सदगुण होने कि वजह से लगो करने का अनुस्मरण करा जाए, जब कि ऐसा करने पर किसी मौजूदा सत्य और धर्म का पतन ही क्यों न हो /
राजनीति में एक अच्छा शिष्टाचार है कि प्रतिद्वंदियों कि अपनी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता सिर्फ राजनैतिक क्षेत्र तक ही रखनी चाहिए / क्योंकि इंसानों में मत-भेद तो होते हैं, मगर इंसानियत कि रिश्ता नहीं ख़तम होना चाहिए / यह एक अच्छा शिस्टाचार है/ अब अगर कुटिल-बुद्धि राजनैतिक इस मान्यता का दुरुओप्योग करें कि राजनातिक क्षेत्र में चुपके से संथ-गाँठ कर ले और राजनैतिक प्रतिद्वादिता भी जनता को लूटने के लिए प्रयोग करें तब भी क्या शिस्टाचार ज्यादा तर्क-वान और विवेक-पूर्ण माना जाना चाहिए? क्या तब भी प्रतिद्वंदियों के व्यक्तिगत जीवन में छिपे सांठ-गाँठ के प्रमाणों को सब के सम्मुख नहीं करना चाहिए ?
भारतीय राजनीति भ्रम पर ही चलती है / यहाँ पूर्ण कोशिश होती है कि सत्य-स्थापन की तकनीकें लागू न हो पाए , जिससे कि राजनाति करने का अंधियारा कायम रहे / भ्रांतियां विवेक को दूषित करती है / शिस्टाचार तर्क-विहीन नहीं है / शिस्टाचार भी इंसान के विकास के साथ सम्बंधित रही कुछ घटनायों में से उत्त्पतित होता है / इंसान के विकास के साथ साथ शिस्टाचार के तर्क भी बदलते हैं, और शिस्टाचार की मान्यताएं भी/
भारतीय राजनीति और भारतीय संस्कृति में समालोचनात्मक चिंतन का आभाव
भारतीय राजनीति पूरी तरह समालोचनात्मक चिंतन के अभाव पर ही टिकी हुई है/ भारतीय राजनीति ग्रामीणयत से निकली है और आगे नहीं बढ़ी है / लोग अकसर यह विवाद करते हैं की ग्रामो और शहरों में क्या अंतर होता है / और फिर एक साधरण उत्तर में यह जवाब मान लेते है की अंतर है की शहर के लोग पढ़े-लिखे होते हैं और गाँव के नहीं/ और फिर गाँव वाले लोग, या जो गाँव का पक्ष ले रहे होते है वह बताने लग जाते हैं की उनके गांवों से कितने कितने पढ़े-लिखे लोग कहाँ-कहाँ शीर्ष पदों पर विराजमान है /
अंतर एक भीतरी भेद में इसी समालोचनात्मक चिंतन का है / जानकारी का आभाव, जानकारी को क्रमित करने के तरीको के ज्ञान का अभाव, -- ग्रामीणयत कई तरीके से भारत को पिछड़ा देश बनाई हुई है / भाषा ज्ञान के दृष्टि से भी देखें तो पता चलेगा की ग्रामीणयत की दिक्कत आती है वाक्य में 'तथ्य' , 'आरोप', 'विश्वास' और 'संदेह' को चिन्हित करने में /
और फिर वाद-विवाद के दौरान ग्रामीण मानसिकता भ्रमित होने लगाती है / भारतीय राजनीति में भी जब आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है तब भारतीय जनता ऐसे ही भ्रमित होती है / उनका सीधा तर्क होता है की 'भई, हमने वकालत नहीं पड़ीं है की हम प्रमाणों और सबूते को समझने बैठे' / मगर ज्ञान का अभाव वकालत के ज्ञान का नहीं है , अभाव एक बुद्धि योग का है , जिसे समालोचनात्मक चिंतन कहते हैं /
आरोप-प्रत्यारोप के खेल में भारतीयों के मनोभाव में बहोत उलझन महसूस होती है जब उन्हें यह सोचन पड़ता है की अगर कहीं किसी न्यायलय में कोई जज से ही कह दे की , "साहब यह व्यक्ति आप पर जज होने का आरोप लगा रहा है " तब यह आरोप-प्रत्यारोप की प्रकिया का कहीं कोई अंत नहीं होगा / साधारणतः हम लोग आरोप-प्रत्यारोप के खेल को सुलझाने में भ्रमित हो कर उससे एक अनंत क्रिया समझ लेते है , इसलिए वाद-विवाद और आरोप -प्रत्यारोप को सुलझाने की कोशिश भी नहीं करते / 'वाद-विवाद से जितना बचे रहे उतना ही अच्छा है' - ऐसी हमारी सांस्कृतिक समझ है /
आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
हाँ , राजनातिक क्षेत्र में जहाँ जांच संस्था भी राजनैतिक दबाव में काम करती है , वहां प्रमाणों के साथ छेड़-खानी सत्य के स्तापन में थोडा मुश्किल ज़रूर पैदा कर देते हैं / मगर तब भी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता " और उससे उत्पन्न हुए कानूनी दांव-पेंच यह सब ही सत्य को प्रवाहित करने के लिए ही बने है /
कमी सिर्फ समालोचनात्मक चिंतन की है/
अंतर एक भीतरी भेद में इसी समालोचनात्मक चिंतन का है / जानकारी का आभाव, जानकारी को क्रमित करने के तरीको के ज्ञान का अभाव, -- ग्रामीणयत कई तरीके से भारत को पिछड़ा देश बनाई हुई है / भाषा ज्ञान के दृष्टि से भी देखें तो पता चलेगा की ग्रामीणयत की दिक्कत आती है वाक्य में 'तथ्य' , 'आरोप', 'विश्वास' और 'संदेह' को चिन्हित करने में /
और फिर वाद-विवाद के दौरान ग्रामीण मानसिकता भ्रमित होने लगाती है / भारतीय राजनीति में भी जब आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है तब भारतीय जनता ऐसे ही भ्रमित होती है / उनका सीधा तर्क होता है की 'भई, हमने वकालत नहीं पड़ीं है की हम प्रमाणों और सबूते को समझने बैठे' / मगर ज्ञान का अभाव वकालत के ज्ञान का नहीं है , अभाव एक बुद्धि योग का है , जिसे समालोचनात्मक चिंतन कहते हैं /
आरोप-प्रत्यारोप के खेल में भारतीयों के मनोभाव में बहोत उलझन महसूस होती है जब उन्हें यह सोचन पड़ता है की अगर कहीं किसी न्यायलय में कोई जज से ही कह दे की , "साहब यह व्यक्ति आप पर जज होने का आरोप लगा रहा है " तब यह आरोप-प्रत्यारोप की प्रकिया का कहीं कोई अंत नहीं होगा / साधारणतः हम लोग आरोप-प्रत्यारोप के खेल को सुलझाने में भ्रमित हो कर उससे एक अनंत क्रिया समझ लेते है , इसलिए वाद-विवाद और आरोप -प्रत्यारोप को सुलझाने की कोशिश भी नहीं करते / 'वाद-विवाद से जितना बचे रहे उतना ही अच्छा है' - ऐसी हमारी सांस्कृतिक समझ है /
आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
हाँ , राजनातिक क्षेत्र में जहाँ जांच संस्था भी राजनैतिक दबाव में काम करती है , वहां प्रमाणों के साथ छेड़-खानी सत्य के स्तापन में थोडा मुश्किल ज़रूर पैदा कर देते हैं / मगर तब भी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता " और उससे उत्पन्न हुए कानूनी दांव-पेंच यह सब ही सत्य को प्रवाहित करने के लिए ही बने है /
कमी सिर्फ समालोचनात्मक चिंतन की है/
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