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फिलॉसोफी की पढाई करने का क्या लाभ होता है

 फिलॉसोफी की पढाई करने का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि इंसान Root Cause Analysis(RCA ) करने में श्रेष्ठ बनता है।  

प्रत्येक इंसान इस संसार को अपने अनुसार बूझ रहा होता है ।  ऐसा करने उसके जीवन संघर्ष के लिए आवश्यक होता है।  संसार को चलाने के लिए कई  सारी शक्तियां बसी हुई है।  सफल जीवन के लिए इंसान को इन शक्तियों के अनुकूल या प्रतिकूल होकर जीना होता है।  इसलिए उसको दो बातों का बौद्ध प्रतिपल लेना पड़ता है:-

1) किस विषय में कौन सी वाली शक्तियां प्रभावकारी है ? 

2)और इस पल, उस विषय में उसे अपने जीवन निर्णयों को उन शक्तियों के अनुकूल लेना या प्रतिकूल लेना हितकारी होगा ? 

प्रत्येक इंसान अपने अपने अनुसार विषयों के पीछे गहरे गर्त में छिपे "क्यों?" के सवाल को बूझता है।  ये "क्यों?" से भरा हमारा जीवन -इसके पीछे में ये ऊपर वाली सच्चाई छिपी बैठी है।  

क्या आपने कभी सोची थी ये बात ?

हम इंसान लोग हर पल गुत्थियां क्यों सुलझाते रहते हैं? क्यों हमें सच या सत्य की तलाश बनी रहती है ? क्यों हम सच को ढूंढ रहे होते है ? और क्यों हमें अक्सर सच का सामना करने में डर लगने लगता है ?

ये ऊपर लिखी बातें शायद आपको बोध करवा सकें। 

बरहाल, हर एक इंसान अपने अपने अनुसार "क्यों " को कुछ भी , अपनी सुविधानुसार बूझ कर आगे बढ़ता रहता है।  वो RCA करता है , हल पल।  वो politics को बूझता है --अपनी सुविधा अनुसार।  वो दूसरे लोगों के निर्णयों के पीछे के अनकहे कारणों को बूझता है -- अपनी सुविधा अनुसार।  वो डॉक्टरों की रिपोर्ट को समझता है --अपनी सुविधा अनुसार।  वो अख़बार पढता और घटनाओं के कारणों का संज्ञान लेता है --अपनी सुविधा अनुसार। 

 और फिर इन सभी "--अपनी सुविधा अनुसार" के चक्कर में आपस में, एक दूसरे से-  सहमत और असहमत होता रहता है --अपनी सुविधा अनुसार। 

ये ही इंसान के अस्तित्व में उसकी सोच के अंश का योगदान और सारांश है। 

फिलॉसोफी का अध्ययन लाभ ये देता है कि वो बेहतर तरीके से RCA करने में योगदान दे सकता है।  बिखरी हुई पढाई -- जो कि स्कूलों से हमें मिलती है - history civics , science maths laws arts करके , वे तब तक व्यवहारिक तौर पर लाभकारी नहीं हो सकती है जब तक उन्हें वापस सयोंजन नहीं किया जाये।  फिलॉसोफी का अध्ययन यही संयोजन करने का कार्य करता है।  

इसके अध्ययन के उपरांत हम जो RCA करते हैं, वो थोड़ा बेहतर होने की उम्मीद करि जा सकती है।  वो प्रकृति से बेहतर तालमेल में हो सकते है , और हमें अनैच्छित तरीके से शक्तियों के विपरीत की स्थिति में ले जाने में बचा सकते है।  हमें सच का सामना करने के लिए तैयार कर सकते है ऐसे कि सच हमें कडुवा न लगने पाए क्योंकि हमारा मन और भावनाएं पहले से ही सही अपेक्षा बनायीं हुई है।  

फिलॉसोफी हमें आपसी सहमति और असहमति के अनंत चक्र से मुक्ति दिलवा सकती है। हमारे तर्क को प्रवीण और तीव्र करती है।  हमारी भावनाओं को बहने के मार्गे में आने वाले भाषा और ज्ञान की कमी वाले रोहड़ों को सफा करती है।  भावनाओं को बेहतर से बहने का मार्ग प्रशस्त करती है , और इस प्रकार से हमें अपने जीवन के श्रेष्ठ शिखर तक पहुँचवाने का अवसर दिलवाती है।  

फिलॉसफी सिर्फ विषय का नाम नहीं है।  ये एक चिन्तन करने की शैली है।  तर्क करने की बौद्धिक क्रिया।  एक प्रकार का योग है।  जो इंसना तर्क ही नहीं करता है , वो बेहतर जीवन निर्णय लेने में कमज़ोर हो जाता है।  तर्क करने का साधन होता है आपसी विमर्श।  मगर आपसी विमर्श में ही तर्कों की भुलभुलैया भी बन जाती है।  लोग आपसी विमर्श करते करते पथ भ्रमित हो सकते है और किसी गहरे गर्त में गिर कर खत्म हो सकते है।  यहाँ पर आपको किताबी ज्ञान काम आता है।  वही जो स्कूली शिक्षा से मिलता है।  हमें आपसी विमर्श के दौरान वो पथ भ्रमित होने से बचा सकता है।  

मगर एक हद के बाद इन स्कूली ज्ञान का आपस में विखंडन एक नया रोहड़ा बनने लगते है जो अपना उद्देशय पूरा कर सके हमें पथ भ्रमित होने से बचाने में।  अब यहाँ पर फिलॉसोफी  विषय का ज्ञान काम आ सकता है।  इसकी सहायता से हम स्कूली subjects के history civics , science maths laws arts को वापस सयोजन कर सकते है , और एक बहु-उपयोगी नवज्ञान विक्सित कर सकते है। 

क्या आपने कभी बूझा है कि स्कूली अध्ययन में subjects को क्यों विखंडित किया गया है ? किसने ऐसे किया होगा, और क्या सोच कर?

क्या आपको 17 वी शताब्दी के project encyclopedia के बारे में कुछ पता है? यदि नहीं , तो तलाश करिये। वो आपको सवालो के जवाब पर ले जायेगा।  छोटे बालको के अविकसित मन और बुद्धि में आसानी से नव अर्जित विज्ञान को बीज-रोपित करने के उद्देश्य से ये subjects विक्सित हुए थे।  project encylopedia का उद्देश्य था संसार में उपलब्ध समस्त ज्ञान को संग्रहित करने का।  और इसके दौरान जब ये महसूस किया गया कि कैसे इस विशाल ज्ञान संग्रह को लाभकारी बनाएंगे तब subjects की नीव डाली गई , आधुनिक school सिस्टम चालू किये गए और बच्चों को आयु के अनुसार वर्गीकृत करके streaming पद्धति के अनुसार classes में विभाजित करके ये ज्ञान प्रदान किया जाने लगा। 

इसमें दिक्कत यह थी कि वास्तविक जीवन और प्रकृति में तो कुछ भी घटना के पीछे के "क्यों " के तर्क विखंडित नहीं होते है, subjects के अनुसार।  ये बात कुछ ऐसे हुई कि प्रकिति में तो सब कुछ raw यानि कच्चे रूप में बस्ता है , मूल तत्व रूप में शायद ही कुछ होता है।  प्रकृति सिर्फ मिटटी देती है , लोहा aluminium copper zinc gold diamond  नहीं।  तो फिर ऐसा न हो कि स्कूली शिक्षा से आया इंसान सिर्फ इन मूल तत्वों को किताबी ज्ञान से जानता हो, इन्हे प्रकृति की दी हुई मिटटी में से निकालने की कला भुला बैठे।  या कि, अगर उसे वापस मिटटी मिल जाये तो बालक रुपी इंसान मिट्टी को पहचान कर अपने खपत के लिए तब्दील करने की कला बुला दे। 

ये स्कूली शिक्षा की हद का सवाल है।  आपको इन हदों को पहचानने और खुद से बूझने का सवाल है।   

philosophy का ज्ञान यहाँ कार्य सिद्ध करता है।

राजनीति आदर्शों से करनी चाहिए, या पैंतरेबाजी से ?

आदर्श परिस्थितियों में सत्ता को प्राप्त करने का मार्ग उच्च मूल्यों की स्थापना के प्रस्ताव से होने चाहिए। जनता को केवल उस व्यक्ति को नेता मानना चाहिए, जो समाज को बेहतर मानवीय मूल्य (दया, क्षमा, दान, आपसी सौहार्द, विनम्रता, करुणा, इत्यादि) से शासन करे।

 मगर वास्तविक धरातल पर जनता तो खुद ही मैले और कपट मन की होती है। वो ऐसे व्यक्तियों को चुनती है जो ऐसे मार्ग , पैतरेबाजी करते दिखाई पड़ते हैं, जैसा कि आम व्यक्ति के मन में कोई निकृष्ट अभिलाषा होती है।

जनता खुद ही अपनी बर्बादी का गड्डा खोदती है, और बाद में अपने नेताओं को दोष देती फिरती है।

जब जनता के मन में कपट करना एक उच्च , बौद्धिक गुण smart व्यवहार समझा जाने लगता है, तब सत्ता प्राप्ति के लिए नेतागण mind game (बुद्धि द्वंद) से छल करने लगते हैं। वो ढोंग, कपट, छल, कूट का प्रयोग करके जनता को लुभाते हैं, और सत्ता में पहुंच कर निजी स्वार्थ को पूर्ण करने लगते हैं।

समाज के सामने बहोत कम ऐसे उदाहरण हैं जब किसी नेता ने वाकई में ,यानी बहुत उच्च मानक से उच्च मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्ष किया हो। विश्व पटल पर भारत से ऐसा एक नाम गांधी जी का है। ये आप google और wikipedia से तफ्तीश कर सकते हैं। जब संसार में किसी व्यक्ति ने सच्चे दिल से खुद भी उन शब्दों का पालन किया हो, जो उसने दूसरों से मांग करी हो। Pure acts of Conscience.

जब कपटकारी राजनीति, जिसे आम भाषा में कूटनीति करके पुकारा जाता है, एक गुणवान व्यवहार माना जाता है, तो नेता भी यही प्रतिबिंबित करते हैं। 

ऐसे में आज के तथाकथित राजनीतिज्ञों के भीतर भी एक राजनैतिक द्वंद चल रहा होता है। कि, क्या उन्हे आदर्शो के मार्ग पर चल कर राजनीति करनी चाहिए, या फिर पैंतरा बाजी करके राजनीति करनी चाहिए।

उदाहरण के लिए,

राहुल गांधी जब भारत में प्रजातंत्र के विस्थापन का आरोप लगा चुके हैं, तब फिर इसके आगे उन्हे शरद पवार की बातों में आ कर अडानी को हिन्डेनबर्ग मामले में निकल देना चाहिए, या फिर अडानी को दोषी ठहराते रहना चाहिए। 

यानी, राहुल को शरद पवार के वोटों की खातिर (निजी स्वार्थ के खातिर) अडानी को बच निकल जाने का पैंतरा खेलना चाहिए,
 या फिर 
प्रजातंत्र के आदर्शों और मूल्यों के अनुसार अडानी को मोदी के संग मिलीभगती करके प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ, मीडिया को डहाने का दोषी बताते रहना चाहिए?

राजनीति आदर्शों से करनी चाहिए, या पैंतराबाजी से ?

क्यों हो रहा है विश्व व्यापक प्रजातंत्र का पतन?

 क्यों हो रहा है विश्व व्यापक प्रजातंत्र का पतन?

क्योंकि शायद प्रजातंत्र अव्यवहारिक, निरर्थक हो गए हैं समाज को स्थिर और उन्नत बनाए रखने में? क्या ऐसा कहना सही है?

यदि समाज में विज्ञान औ प्रोद्योगिकी नही बढ़ रही हो, तब शायद प्रजातंत्र निर्थक हो जाते हैं। अलग अलग गुटों को बारी बारी से जनधन को लूट खसोट करने का मौका देते है बस, और कुछ नहीं। इस प्रकार से प्रजातंत्र मूर्खता और पागलपन का दूसरा पर्याय समझे जा सकते हैं। 

इसी लिए कुछ अंतर के साथ नए प्रकार के चरमवादी प्रजातंत्र निकल आए हैं। शुरुआत दक्षिणपंथियों ने करी है। समूचा तंत्र जीवन पर्यंत हड़प लेने की पद्धति लगा दी है, प्रत्येक संस्था पर अपने लोगो तैनात करके। 

इनमे स्थिरता है या नहीं, समाज और दुनिया को शांति देने का चरित्र है या नही , ये अभी देखना बाकी है। 

फिलहाल ये नए चरमवादी प्रजातंत्र परमाणु बमों की धमकी पर विश्वशांति कायम कर रहे हैं। जो कि अत्यंत असुरक्षित है,कभी भी खत्म हो सकती है, एक छोटी सी चूक से।

देश के भीतर ये तंत्र तीव्र असंतुष्टि को जन्म दे रहे हैं। ये अमीर गरीब के फासले बढ़ा रहे हैं। बेरोजगारी और शोषण ला रहे हैं, भ्रष्टाचार को एक पक्षिय कर के सारा धन केवल कुछ सत्ता पक्ष घराने की झोली में डाल रहे हैं। सरकारी संरक्षण वाला वर्ग खुल कर खा रहा है। झूठ, मक्कारी, अल्पसंख्यकों का दमन सरकारी संरक्षण में हो रहा है। नागरिक स्वतंत्रता की गुपचुप निगरानी हो रही है। सरकार ही शोषण भी कर रही है, और बचाव का ढोंग भी।

देखना होगा, कहां ले कर जायेंगे देश दुनिया को, नए चरमपंथी प्रजातंत्र।

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