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हिन्दू योग और बौद्ध योग में अंतर

योग जिसने दुनिया में भारत को पहचान दिलवायी, यह योग वो वाला नही था जो वैदिक धर्म से निकलता था। बल्कि वह जो बौद्ध धर्म के अनुयायिओं वाला योग था।
अभी कुछ-एक वर्ष पहले थाईलैंड में एक छात्र दल मनोरंजन क्रीड़ा के खोजी अभियान के दैरान एक भूमिगत गुफा में प्रवेश कर गया था। फिर वह लोग नीचे उतरते चले गये और कक्षाओं व्यूह के बीच अपना रास्ता भूल बैठे थे। बहोत जबर्दस्त बचाव अभियान के बाद एक ब्रिटिश दल ने उन्हें बहोत दिनों बाद बचा लिया। हालांकि बचाव अभियान के दौरान थाईलैंड के अपने नौसैनिक दस्ते के एक सदस्य ने अपनी जान खो दी थी।
बाहर निकलने पर छात्र दल ने बौद्ध योग संस्कृति के माध्यम से अपने मन और शरीर की क्रियाओं को नियंत्रित करने को अपना जीवन रक्षक प्रेरणा स्रोत बतलाया था। छात्र दल के शीर्ष ने न सिर्फ अपनी जान बचायी, बल्कि योग द्वारा विकसित सब्र, धैर्य जैसे गुणों से समूचे दल को विचलित होने से रोक, नियंत्रण बनाये रखा, विद्रोह नही होने दिया और सीमित भोजन, वायु, प्रकाश, और निराशा से भरे माहौल में भी किसी को टूटने नही दिया था।
यह अंतर है बौद्ध धर्म के योग क्रिया और तथाकथित हिन्दू योग क्रिया में।
हालांकि बौद्ध योग क्रिया अपने आप में वैदिक संस्कृति से ही आती है, मगर फिर भी वह अपने आप में इतना सशक्त पृथक विचार है की इसको अपनी नयी पहचान से ही बुलाना उचित माना गया है।
हिन्दू धर्म के योग का केंद्र बल होता है शरीर को अलग अलग मुद्राओं में मरोड़ने से अलग-अलग शारीरक लाभ और रोगों का निराकरण ।
जबकि बौद्ध धर्म के द्वारा विश्व में प्रचार किया हुआ योग का उद्देश्य है मन पर नियंत्रण करना क्योंकि भटकता हुआ मन ही तमाम शारीरिक और सामाजिक दुखों का जड़ है । मन पर नियंत्रण से शरीर भी स्वस्थ बनता है, और समाज से भी पाप और अधर्म समाप्त होता है। व्यक्ति को क्रूरता, क्रोध, स्वार्थ , दुष्ट कृत्य, इत्यादि दोष को अंदर नियंत्रण करना आ जाता है और जिससे अच्छा समाज बनता है।
बौद्ध विचारधारा ने दुनिया को ज्यादा प्रभावित किया था, वैदिक विचारधारा से कही ज्यादा। अफ़ग़ानिस्तान से होता हुआ जो 'रेश्म मार्ग' जाता था, उसपर पड़ने वाले बेमियान शहर में बड़ी विशाल बौद्ध मूर्तियों का निर्माण इस दावे के तामन सूचक हैं। पूर्व एशिया में जापान, चाइना, विएतनाम, कोरिया तक आज भी बौद्ध धर्म प्रचलित है, वैदिक धर्म नहीं।
मगर दिक्कत की बात यह है की आज भी भारत देश में बैठा ब्राह्मणवाद झूठ और मक्कारी से बौद्ध उपलब्धियों को हड़प करके हिन्दू या वैदिक ही बताता है। शायद यही वह अचंभित करने वाला कारण है कि भारत में बौद्ध धर्म के इतने अनुयायी आज भी नही हैं जितने की जापान, कोरिया, थाईलैंड, म्यांमार , कंबोडिया इत्यादि में हैं।
हिन्दू धर्म का योग शरीर को तोड़ने-मरोड़ने यानी contorting का नाम है। आप बार-बार भारत सरकार में ऐसे लोगों को योग के लिए सम्मानित होते देखेंगे जो की 'x-णायाम ' आसान कर लेते है, न की वो जो की तन के अलावा मन को नियंत्रित करने पर भी जोर देते हो।
बौद्ध योग यहीं पर अलग अलग है। बौद्ध योग है ही बौद्धिक क्षमता का विकास, यानी सहनशीलता बढ़ाना, धैर्य का प्रसार, शब्द और वाणी पर नियंत्रण, श्रवण शक्ति और समझने की शक्ति का प्रसार, उच्च ध्यान शक्ति, मानसिक नियंत्रण,  और आजीवन उपभोग का परित्याग, भावनाओं पर नियंत्रण करना - न ज्यादा जोशीला, खुशनुमा और न ही ज्यादा दुखी , अप्रसन्न रहना इत्यादि।
तो बौद्ध योग अलग है हिन्दू योग से। हिन्दू योग को अपने और भी अविकसित रूप में आप नागा साधुओं या औघड़ों में देख सकते हैं। वह लोग शरीर के हिस्सों को, या की जननेन्द्रियों, केश , दंत इत्यादि को अज़ीब तरीकों से मोड़ सकते हैं, वजन उठा लेते हैं, या ऐसी यातनाओं पर भी दर्द को महसूस नही करते जिन्हें देख कर ही साधारण मानव भयभीत हो जाते हैं। सांसों को लंबा रोक सकते हैं, छाती और रीढ़ से करतब दिखलाने वाली क्रियाएं कर सकते हैं।
यह हिन्दू योग है।
यह वास्तव में बौद्ध योग का पिछड़ा स्वरूप है, या दृष्टिकोण को बदल कर कहें तो - हिन्दू योग ही बौद्ध योग का जनक है।

कथा वाचन और u turn लेती वर्तमान काल की राजनीति

सत्य के साथ मे मुश्किल यह होती है कि वह औझल ही रहता है और फिर लंबे समय के उपरांत तभी प्रकट होता है जब कोई शोध, अन्वेषण या अविष्कार किया जाता है।
सत्य की आवश्यकता इंसान और समाज को इसलिए होती है क्योंकि इसके बिना तो समाज मे शांति,विकास और  समस्याओं का समाधान मुमकिन नहीं होता है।

इतिहास के विषय मे सत्य के अप्रकट होने से समाज मे अपनी दिक्कतें घटने लगती हैं। सामाजिक इतिहास के तथ्य तम्माम समाजों को आपसी संपर्क होने पर तुरंत प्रतिक्रिया करने का प्रेरक होते हैं। वर्तमान काल के कूटनीतिज्ञ इसीलिए सामाजिक इतिहास के आसपास के तथ्यों को एक समान प्रमाणित होने देने से बचना चाहते हैं। क्योंकि एक ही बार में  बड़ी तादाद में वोटों को किसी एक के पक्ष में, या विरुद्ध में स्थानांतरित करने का सबसे आसान युक्ती इतिहासिक तथ्यों की मदद से अलग-अलग कथा 【 narrative 】 लिखने से ही बनती है। तभी तो सामाजिक तथ्यों में वही स्वतंत्रता संग्राम, वही गांधी और वही नेहरू है, मगर दोनों पक्षों की कथाएं अलग-अलग हैं इन सब इतिहासिक तथ्यों के प्रति।

कथा रचना और इतिहास को समझाने के बीच मे बहोत ही महीन अंतर होता है। कारण इंसानी मनोविज्ञान में बैठा है। कि,हर कोई हर घटना और तथ्य को अपने अपने पक्ष में से देखता है। इसे ही " दृष्टिकोण " कह कर पुकारा जाता है। हर इंसान का अपना दृष्टिकोण होता है घटनाओं और तथ्यों को समझने का।
और फिर दृष्टिकोण से जो विस्तृत खाका तैयार होता है, उसे ही कथा कहते हैं। कथा वाचन के माध्यम से आप नई पीढ़ी को अपने पक्ष के दृष्टिकोण को उसके बचपन से वैसे ही समझाते हुए तैयार करते रहते हैं।
यहां से सामाजिक इतिहास के सत्य की दिक्कत आती है। कि , यदि इंसानों द्वारा कभी कोई पूर्ण निर्माह और निष्पक्ष सत्य कभी तलाश भी कर लिया गया था, तब भी वह फिर से गुमशुदा बनाया जा सकता है तमाम कथाओं के बीच मे बस एक और कथा बन कर।
तो इस तरह से इंसानों के समाज को कूटनीतिज्ञ कठपुतलियों के तरह आसानी से नचाते रहते हैं। जब चाहा, कथा को बदल दो और आसानी से दोस्ती को दुश्मनी और फिर वापस दोस्ती में बदलते रहो।
कथा को बदल देना तो आजकल के युग मे और भी आसान हो गया है। अखबारों में , फिल्मों से, सोशल मीडिया के लेखों से, प्रचार और विज्ञापन के माध्यमों से जब चाहो जैसी चाहो वैसी कथा के अनुसार तथ्यों पर प्रकाश डालते रहो और सम्बद्ध कथा का प्रचार करवा दो। तो इस तरह u-turn पॉलिटिक्स आजकल का बेशर्म सत्य हो चली है। सत्ता स्वार्थ के खातिर जो दो लोग कल विरोधी थे,वही आज सहयोगी बन जाते हैं, और फिर वापस परसों विरोधी बन कर, फिर दुबारा सहयोगी बन जाते हैं। इस खेल में सिर्फ कथावाचन ही महत्वपूर्ण बिंदु है। क्योंकि कथा वाचन ही जनता को नचाने की डोर होती है,जिससे जनता को कठपुलती की तरह नचाया जाता है।
मगर कथावाचन के तमाम हथकंडों के बावजूद ऐसा नही है कि निष्पक्ष और निर्मोह सत्य का अर्थ और अभिप्राय ही इंसानी चेतना में से समाप्त हो गया है। सत्य अभी भी अस्तित्व करता है,उसकी आवश्यकता आज भी उतनी ही है, मगर बस वही - कि, वह ओझलता के बादलों से घिरा हुआ  रहता है।
राजनैतिक हालातों में क्या फैसला वाकई में तुरत आवश्यक है, और क्या नही इसकी सत्य ज्ञान अंततः प्रत्येक इंसान को खुद अपने ही परख से करना होता है,अन्यथा बाकी सभी माध्यम तो कथा वाचन  के अस्त्र बन चुके हैं। निष्पक्षता और निर्मोह में यह बिल्कुल सम्भव है कि किन्ही दो पुराने विरोधियों को सामाजिक ज़रूरतों के चलते सहयोगी बन जाना आवश्यक हो जाये, मगर फिर सामाजिक जरूरत का सत्य भी तो खुद में कथावाचन का मोहताज़ होता है।

जिसके पास कथावाचन के अस्त्र अधिकः मौजूद होते हैं, जो विज्ञापन और प्रचार का प्रयोग अधिक करते हैं, प्राय: वही लोग जनता को गुमराह भी अधिकः करते हैं, क्योंकि सत्ता में उनका ज्यादा स्वार्थ होता है।

इंजिनीरिंग प्रौदयोगिकी की अंतर्मयी सीमाएं और नागरिकों की जान से खिलवाड़


(निम्मलिखित लेख एक गैर-अभियांत्रिकी प्रोफेशनल द्वारा लिखा गया है, जिसमे वह अपने स्वयं के व्यवसाय से प्राप्त अभियांत्रिकी की सैद्धांतिक ज्ञान के आधार पर विषय चर्चा करना चाहता है।)

मुम्बई में कल शाम विश्वविख्यात छत्रपति शिवाजी महाराज रेल टर्मिनल  के समीप एक नागरिक पैदलगामी पुल यकायक ध्वस्त हो गया, जिसमे कुछ जानें भी गयी है।
बड़ी बात यूँ है की पिछले ही वर्ष इसी तरह से एक एल्फिंस्टोन पुल  भी "यकायक" ध्वस्त हुआ था और जिसमे जानें भी गयी थी।
जैसा की होता है, कई सारे लोगों ने दावा किया है की उन्होंने अपने सोशल मीडिया के माध्यम से अपने पुराने पोस्ट के द्वारा इन पुलों के असुरक्षित होने की चेतावनी नगरमहापालिका को भेजी थी।
तो इन लोगों के अनुसार यह घटनाएं "यकायक" सिर्फ दिखने मात्र हैं, क्योंकि इन पुलों के रखरखाव से संबद्ध सरकारी संस्थाएं अपने कार्य में लापरवाही करते हुए उनकी चेतावनियों को अनदेखा करती हैं, जिसकी वजह से अंत में यह दुर्घटनाएं एक के बाद एक हो रही है।

सरकारी नौकरशाह की लापरवाही विषय में लोगो के ध्यान ज्यादातर भ्रष्टाचार की ओर जाता है जिसमे की प्राइवेट कॉन्ट्रेक्टर और सरकारी विभाग के अभियंता के बीच रिश्वत से बनी मिलिभागति में पुल गिरने का कारण छिपे होते हैं। जैसे कि कच्चे निर्माण; गुणवत्ता विहीन निर्माण; अपर्याप्त अभीयांत्री निगरानी जब मज़दूर लोग निर्माण पदार्थ के मिश्रण के लिये सीमेंट, बालू और पानी को मिलाते है, या उनकी अनुपात में हुई छेड़छाड़ इत्यादि को दोषी माना जाता है।

मगर एक बात यह है कि सरकारी विभाग के अभियंता अपना बचाव हमेशा इस तर्क पर करते हैं कि किसी अमुक नागरिक की सूचना देने मात्र से किसी भी इमारत को असुरक्षित घोषित नही किया जा सकता है। तो वह लोग इमारत की मज़बूती के अभीयंत्री test, (जांच, परख) करवाते हैं, जिसके बाद ही यह निर्णय होता है की अमुक इमारत/ढांचा की सुरक्षा परिस्थिति क्या है।

तो कहने का मतलब है कि यदि नागरिक की सूचना के बावजूद वह ढांचा चालू है तो कारण यही नही की कोई लापरवाही हुई है, बल्कि यह की वह इमारत अपने structure test में सुरक्षित आंकलन करि गयी है।

अब यहाँ पर सवाल वास्तव में तकनीकी विषय में गोते लगा देता है जहां की साधारण आम नागरिक को विषय ज्ञान अपर्याप्त पड़ जाता है। क्योंकि इमारत तो अंत में "यकायक" ड़ेह करके कुछ निर्दोष जानें ले चुकी है इसलिये कानूनी सिद्धांतों में किसी इंसान को तो दोषी हो आवश्यक है अन्यथा समाज में यूँ ही जानें जाती रहेंगी और रोकथाम का कोई भी प्रबंध नही हुआ होगा। अपने आप में यह खुद भी एक wrong यानी गलत है, और न्यायिक सिद्धांतों में यह बात अच्छे से पहचान हुई विचार है - किसी भी सभ्य समाज में यह कदाचित स्वीकृत नही किया जा सकता कि निर्दोष व्यक्तियों की जाने किसी अंजान या अज्ञात कारणों से जाती रहें, जिस पर की मानो इंसानो का कोई नियंत्रण ही नही था और इसलिये कोई दोषी ही नही पाया गया !!

तो अब सवाल है की वो जो अभीयंत्री structure test किये जाते हैं, क्या उनमें ही तो खोट नहीं छिपा हुआ है?

यहां पर एक गैर-अभीयंत्री आम नागरिक को थोड़ा बहोत जो विषय ज्ञान उपलब्ध है, वह यह की किसी भी इमारत ढांचे की मज़बूती को परख करने की गणितीय पद्धिति एक संभवित विचारधारा  से निकलती है। जांच करने के लिए संबद्ध अभियंता लोग ढांचे के कुछ एक random नमूनों को एकत्र करते है, और इसके आधार पर आगे की प्रक्रिया करते हुए अपनी रिपोर्ट तैयार करते हैं। नमूना एकत्र करने में कभी-कभी थोड़ी सी तकनीकी statistics भी प्रयोग करि जाती है। जैसे कि, नमूनों को तलाशने की उचित स्थान कुछ विशेष जानकारी पर आधारित किया जाता है। उनको निकालने की विधि, निकालने के दौरान ध्यान देने की विशेष बातें, इत्यादि।
कुल मिला कर सोचने-समझने वाली बात यह है की इमारत ढांचे की सुरक्षित होने का test कोई निश्चयमयि निर्णय (determined conclusion) नही होता है, बल्कि एक संभावित निर्णय (probable conclusion) ही होता है। इसलिए क्योंकि यह सब पहले से ही सांख्यिकी पर आधारित होता है। यह दूसरा बिंदु है कि नमूना एकत्र करने की विधि का उचित अनुपालन नही किया जाये- जो की इंसानी गलती होती है- या कोई असक्षमता वश, या फिर किसी fraud या corruption (भ्रष्टाचारी) आचरण के चलते।

तो इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि यदि किसी अभीयंत्रीय test के बावजूद इमारतें "यकायक" गिर कर निर्दोष नागरिकों की जाने ले रही हैं, तो फिर कारण नौकरशाही असक्षमता में भी छिपे हो सकते है, भ्रष्टाचार के अलावा। मगर किसी भी सूरत में इंसानी दोष तो तय है।

अब यदि यह असक्ष्मता वश हुई गलती है तो फिर इसका कोई न कोई इंजिनीरिंग इलाज़ भी होना चाहिए ।  मगर उससे भी पहले, test के सैद्धांतिक दोष की बात भी आ जाती है कि जांच प्रक्रिया खुद ही एक संभावित विचारधारा  पर निर्मित हुई है । तो सबसे प्रथम तो एक उपचार इसका ही होना चाहिए की सम्भावना का दायरे में कब तक इंसान की जान को खतरे के बाहर माना जाये ? यहाँ पर तकीनकी विचाधारा में service life जैसी बातें आती है । इसमें इंजीनियरिंग test की पद्धति को एक समयकाल के बाद अपने आप में अपर्याप्त  मान लिया जाता है , और अब निर्णय मात्र इस जानकरी पर लिया जाता है की ईमारत / ढाँचे ने कितने वर्ष मौसम और ऑपरेशन हालात की मार झेल लिया है, जिसके उपरांत उसे असुरक्षित खुद ही मान लिया जाये, चाहे आगे की structure test  रिपोर्ट उसे भले ही  सुरक्षित होने का "सबूत" देती रहे ।

सम्भवता यह भी वह एक बिंदु है जिसमे की देश की नौकरशाही और सरकारी विभागों में बैठे अभियंता देश की जनता की जान के संग अनजाने में जुआं खेल रहे रहे होते  हैं

आगे, क्योंकि देश में हाल-फिलहाल में इस तरह पुल/इमारत गिरने के कई हादसे हुए है और जिसमे की किसी की भी जिम्मेदारी आज तक तय ही नही हुई है और न ही सज़ा हुई है, तो फिर नौकरशाही को दोषी मान लेने एक सहर्ष निष्कर्ष माना ही जाना चाहिए। नौकरशाही के पास तमाम वैधानिक और तकनीकी रास्ते उपलब्ध होते हैं, गलती करके बच निकलने के। जब वह लोग अभीयंत्री जांच (test) में खोट डाल सकते है, तो फिर दुर्घटना उपरान्त कारणों की जांच में मामले को बहला देना तो और भी आसान होता है। अब चाहे वह मूल वजह किसी अभीयंत्री असक्षमता से उत्पन्न हुई हो, या फिर किसी भ्रष्टाचारी कारणों से।
किसी निर्माणाधीन इमारत/पुल के गिरने के दौरान भी ऐसी ही कहानी का घट जाना संभव है। जैसे, निर्माण के दौरान जो कुछ असुरक्षित हालात उत्पन्न होते हैं, उससे अक्सर करके मार्गों को दीर्घ काल तक अवरोधित करने का उपाय ही रह जाते हैं। ऐसे में वैकल्पिक मार्ग का निर्माण ही तरीका बनता है। यह सम्भव है कि वैकल्पिक मार्ग के निर्माण का खर्च उस पुल के निर्माण में पहले से ही योग करि हुई भ्रष्टाचार की कीमत को और अधिक व्यय करवा दे। तो वह वैकल्पिक मार्ग के निर्माण को ही "वैकल्पिक" बना कर के, करवाएं ही नही।
तो इस प्रकार हमारा देश अथाह भ्रष्टाचार की असली कीमत इंसानी जान की आहुति के मार्ग पर निकल चुका है। भ्रष्टाचार से अक्षमता भी पदूनाति प्राप्त करती है, और जब असक्षमता शासन शक्त बनती है तब यूँ ही पुल/इमारतें गिरने लगती हैं।

ग़ुलामी और दासता में क्या अंतर है? पूर्वी संस्कृति में स्वतंत्रता के अभिप्राय क्या है?

ऑफिस के कंपाउंड में एक खुल्ली जगह पर एक कैंटीन हैं। कैंटीन वाले ने अंदर ही एक बड़े से पिंजड़े में दो तोते पाले हुए हैं। वो रोज़ दोपहर में पिंजरे को एक-दो घंटे के लिए खोल देता है। तोते बाहर आते हैं, उड़ कर इधर उधर पेड़ो की डालियों पर बैठते हैं। शायद थोड़ा मटरगश्ती करते है। फिर कैन्टीनवाला एक छड़ से उनको थोड़ा परेशान करता है, या शायद इशारा करता है। दोनों ही तोते थोड़े समय मे खुद ही उड़ते हुए आ कर पिंजरे में बैठ जाते हैं, और फिर पिंजरे का दरवाजा बंद कर दिया जाता है।

फिर बगल में 10-12 कबूतरों वाला पिंजरा है। उनके साथ भी यही सिलसिला दोहरता है।

अब दोनों ही पक्षियों के संग यह पूरा सिलसिला प्रतिदिन कई सालों से होता आ रहा है।

कहने का मतलब है कि जो लोग यह सोचते हैं कि पंक्षी का निवास आज़ादी से खुल्ले आकाश में उड़ना है, तो वो लोग शायद गलत है। अगर आराम से रोज़ाना भोजन यूँ ही आसानी से मिलता रहे, और संग में रहने को सुरक्षित छत्र-छाया, और फिर थोड़ी-सी एक-आध घंटों की आज़ादी, तो फिर यह तथाकतीत ग़ुलामी तो पंक्षियों को भी खराब नहीं लगती हैं।

बड़ी बात सोचने वाली यह है कि ग़ुलामी और पालतू बनाये जाने में ज्यादा अंतर नही है। 

जो लोग आज़ादी के लिये लड़ रहे हैं, या जो किसी किस्म की राजनैतिक व्यवस्था - जैसे कि तानाशाही, या प्रजातन्त्र,- के पक्ष अथवा विरोध में रहते हैं, उन्हें इस सूक्ष्म बात पर दीर्घ चिंतन करना चाहिए।

 आखिर क्या अंतर है ग़ुलामी और पालतू में ? और ,क्या गुण-लाभ होते हैं मनुष्य को ग़ुलामी या पालतू बनने में?

इंसानी जीवन मे पालतू शब्द का प्रयोग उचित नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें तिरस्कार और अनादर का भाव होता है। मगर इसका यह मतलब नही की ऐसा कोई व्यवहार इंसान में पाया ही नही जाता है। इंसानों में इसी तरह के मिलते-जुलते व्यवहार को भक्ति भी कहते है और ग़ुलामी भी।

 मगर फिर भक्ति और ग़ुलामी  में क्या अंतर है?

 भक्ति स्वेच्छित होती है, और ग़ुलामी अस्वेच्छित। बल्कि हिंदी भाषा मे तो शायद यह अंतर कभी टटोला ही नही गया है, क्योंकि दोनों के लिए शब्द विचार ही एक है - दास  !!

 यदि पूर्व की संस्कृति से सोचा जाए तो दास बनने के अपने ही गुण लाभ होते हैं। दास बनने में मन-मस्तिष्क को शांति मिलती है। जब आप सहर्ष किसी को अपना ईष्ट स्वीकार कर लेते हैं, तो आपकी स्वतंत्रता की जंग का अंत हो जाता है, और इससे दोनों को - स्वामी और दास- को शांति मिल जाती है। इससे दोनों के मध्य आपसी प्रेम का प्रसार होता है, इससे दोनों में एक दूसरे के प्रति विनम्रता और सम्मान आता है, इससे किसी भी किस्म के शोषण - आर्थिक या श्रमिक का विचार ही नष्ट हो जाता है, इससे समाज मे सौहार्दय बढ़ता है।

तो हम समझ सकते हैं कि दास बनने के बहोत ही लाभ होते है। 

पूर्व की संस्कृति में दास जीवन के बहोत सारे आदर्श उपलब्ध हैं। हनुमान जी भगवान् श्रीराम के दास ही हैं।  

मगर पश्चिम की संस्कृति में दास के सम्मानजनक उदाहरण शायद एकदम भी जाने ही नहीं जाते हैं। वहां दास और ऐसी परिस्थिति को हमेशा ही नकारात्मक छवि में ही जाना जाता है। दास का सीधा अर्थ है शोषण - आर्थिक और श्रमिक।

 तो फिर उनके दृष्टिकोण से दास परिस्थिति में नुकसान क्या-क्या है?
सर्वप्रथम तो यह कि दासता में समालोचनात्मक चिंतन यानी critical thinking का नाश हो जाता है। जब आप दास बन जाते हैं , तब आप कई सारे प्रश्नों को पूछना ही स्वयं से स्वेच्छित ही त्याग कर देते हैं, या फिर उन प्रश्नों के भ्रमकारी उत्तरों को बिना गहन विश्लेषण ही स्वीकार कर लेते हैं। इसमे आप प्राकृतिक शक्तियों के टटोलने और समझने के प्रयास ही बंद कर देते हैं, और उसकी जगह आप इन शक्तियों के आगे नतमस्तक हो कर चिंतन विहीन बन जाते हैं। दिक्कत यह हो जाती है कि आप वैज्ञानिक विचारधारा वाले व्यक्ति नहीं रह जाते है। आप कई सारी प्राकृतिक आपदाओं के सामने आसानी से हार जाते हैं - जैसे कि बीमारियां,भूकंप, तूफान, समुन्द्र की गहराई,आकाश और अंतरिक्ष की ऊंचाई।  दासता में शोषण को चिन्हित करने की काबलियत ही विकसित नहीं हो पाती है। इसके अलावा आप मे एक विचित्र किस्म की असहिष्णुता भी उत्पन्न हो जाती है, जो कि तब ही प्रकट होती है जब आप किसी दूसरी संस्कृति या दूसरे ईष्ट के भक्त से रूबरू हो रहे होते हैं। किसी एक ईष्ट का भक्त  या दास , किसी दूसरे ईष्ट के दास से बस तब ही तक सहअस्तित्व कर सकता है जहां तक दोनों की प्रथाएं टकराएं न। दोनों एक दूसरे को समझ कर आपसी संघर्ष को टालने में बिल्कुल भी प्रयास नही करते है। क्योंकि आपसी समझ की प्रक्रिया के दौरान दोनों ही अपनी सूक्ष्म दृष्टिकोण को देखकर आत्मग्लानि के शिकार हो सकते है। 

 दासता में अन्तर्रात्मा के विकास का बंधित हो जाना आसान है। यानी दास भाव में वाले इंसान में संवैधानिक मान्य(वैधता) या अमान्य (अवैधता) को चिन्हित कर सकने की क्षमता कमज़ोर होती है। वह "तर्कशील"  प्रमाण के नियम नहीं पहचान सकता है। उसके स्थान पर वह "विश्वास-कारी  प्रमाण के नियम  का प्रयोग ही करता है। 

तो फिर समझ सकते हैं कि भारत जैसी संस्कृति में प्रजातन्त्र व्यवस्था की समस्या यह है कि बहोत बड़ी आबादी दासता के "सुखमयी" जीवन मे जी रही है, और इसे असल मे पश्चिमी अभिप्रायों वाली स्वतंत्रता नही चाहिए, बस पश्चिमी स्वतंत्रतावाद के कुछ एक वैज्ञानिक और तकनीकी उत्पाद ही चाहिए जैसे कि बीमारी के निराकरण की तकनीकें, और प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व सूचना वाले कुछ एक उपकरण इत्यादि। बस। और जो कि वह विदेश से आयात करके मंगवा करके काम चला लेते हैं। थोड़े बहोत छोटे मोटे श्रमिक शोषण निरोधी कानून। मुक्ति को यहां स्वतंत्रता में नही,बल्कि सहर्ष-स्वीकृत , स्वेच्छित दासता में तलाशा जाता है।

क्यों राष्ट्रवाद गुंडागर्दी की अंतिम शरणस्थली होती है

अगर राष्ट्रवाद ही गुंडागर्दी की अंतिम शरणस्थली है , तो वह सिर्फ इसलिए नही कि राष्ट्रवाद के नाम पर सारे दुष्कर्मों को मान्य साबित किया जाता है, बल्कि इसलिए कि राष्ट्रवाद से नैतिकता की वह लकीर ही नष्ट हो जाती है जिससे सत्कर्म और दुष्कर्म का भेद किया जाता है।

~राल्फ बार्टन पैरी

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भले ही आप उन्हें सूट ,टाई और चमकते बूटों  में देख कर चंकचौध हो जाते हो, और उनकी प्रवेश परीक्षा की कठिनता के चलते आप पहले से ही उनके प्रति नत...

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