इंजिनीरिंग प्रौदयोगिकी की अंतर्मयी सीमाएं और नागरिकों की जान से खिलवाड़


(निम्मलिखित लेख एक गैर-अभियांत्रिकी प्रोफेशनल द्वारा लिखा गया है, जिसमे वह अपने स्वयं के व्यवसाय से प्राप्त अभियांत्रिकी की सैद्धांतिक ज्ञान के आधार पर विषय चर्चा करना चाहता है।)

मुम्बई में कल शाम विश्वविख्यात छत्रपति शिवाजी महाराज रेल टर्मिनल  के समीप एक नागरिक पैदलगामी पुल यकायक ध्वस्त हो गया, जिसमे कुछ जानें भी गयी है।
बड़ी बात यूँ है की पिछले ही वर्ष इसी तरह से एक एल्फिंस्टोन पुल  भी "यकायक" ध्वस्त हुआ था और जिसमे जानें भी गयी थी।
जैसा की होता है, कई सारे लोगों ने दावा किया है की उन्होंने अपने सोशल मीडिया के माध्यम से अपने पुराने पोस्ट के द्वारा इन पुलों के असुरक्षित होने की चेतावनी नगरमहापालिका को भेजी थी।
तो इन लोगों के अनुसार यह घटनाएं "यकायक" सिर्फ दिखने मात्र हैं, क्योंकि इन पुलों के रखरखाव से संबद्ध सरकारी संस्थाएं अपने कार्य में लापरवाही करते हुए उनकी चेतावनियों को अनदेखा करती हैं, जिसकी वजह से अंत में यह दुर्घटनाएं एक के बाद एक हो रही है।

सरकारी नौकरशाह की लापरवाही विषय में लोगो के ध्यान ज्यादातर भ्रष्टाचार की ओर जाता है जिसमे की प्राइवेट कॉन्ट्रेक्टर और सरकारी विभाग के अभियंता के बीच रिश्वत से बनी मिलिभागति में पुल गिरने का कारण छिपे होते हैं। जैसे कि कच्चे निर्माण; गुणवत्ता विहीन निर्माण; अपर्याप्त अभीयांत्री निगरानी जब मज़दूर लोग निर्माण पदार्थ के मिश्रण के लिये सीमेंट, बालू और पानी को मिलाते है, या उनकी अनुपात में हुई छेड़छाड़ इत्यादि को दोषी माना जाता है।

मगर एक बात यह है कि सरकारी विभाग के अभियंता अपना बचाव हमेशा इस तर्क पर करते हैं कि किसी अमुक नागरिक की सूचना देने मात्र से किसी भी इमारत को असुरक्षित घोषित नही किया जा सकता है। तो वह लोग इमारत की मज़बूती के अभीयंत्री test, (जांच, परख) करवाते हैं, जिसके बाद ही यह निर्णय होता है की अमुक इमारत/ढांचा की सुरक्षा परिस्थिति क्या है।

तो कहने का मतलब है कि यदि नागरिक की सूचना के बावजूद वह ढांचा चालू है तो कारण यही नही की कोई लापरवाही हुई है, बल्कि यह की वह इमारत अपने structure test में सुरक्षित आंकलन करि गयी है।

अब यहाँ पर सवाल वास्तव में तकनीकी विषय में गोते लगा देता है जहां की साधारण आम नागरिक को विषय ज्ञान अपर्याप्त पड़ जाता है। क्योंकि इमारत तो अंत में "यकायक" ड़ेह करके कुछ निर्दोष जानें ले चुकी है इसलिये कानूनी सिद्धांतों में किसी इंसान को तो दोषी हो आवश्यक है अन्यथा समाज में यूँ ही जानें जाती रहेंगी और रोकथाम का कोई भी प्रबंध नही हुआ होगा। अपने आप में यह खुद भी एक wrong यानी गलत है, और न्यायिक सिद्धांतों में यह बात अच्छे से पहचान हुई विचार है - किसी भी सभ्य समाज में यह कदाचित स्वीकृत नही किया जा सकता कि निर्दोष व्यक्तियों की जाने किसी अंजान या अज्ञात कारणों से जाती रहें, जिस पर की मानो इंसानो का कोई नियंत्रण ही नही था और इसलिये कोई दोषी ही नही पाया गया !!

तो अब सवाल है की वो जो अभीयंत्री structure test किये जाते हैं, क्या उनमें ही तो खोट नहीं छिपा हुआ है?

यहां पर एक गैर-अभीयंत्री आम नागरिक को थोड़ा बहोत जो विषय ज्ञान उपलब्ध है, वह यह की किसी भी इमारत ढांचे की मज़बूती को परख करने की गणितीय पद्धिति एक संभवित विचारधारा  से निकलती है। जांच करने के लिए संबद्ध अभियंता लोग ढांचे के कुछ एक random नमूनों को एकत्र करते है, और इसके आधार पर आगे की प्रक्रिया करते हुए अपनी रिपोर्ट तैयार करते हैं। नमूना एकत्र करने में कभी-कभी थोड़ी सी तकनीकी statistics भी प्रयोग करि जाती है। जैसे कि, नमूनों को तलाशने की उचित स्थान कुछ विशेष जानकारी पर आधारित किया जाता है। उनको निकालने की विधि, निकालने के दौरान ध्यान देने की विशेष बातें, इत्यादि।
कुल मिला कर सोचने-समझने वाली बात यह है की इमारत ढांचे की सुरक्षित होने का test कोई निश्चयमयि निर्णय (determined conclusion) नही होता है, बल्कि एक संभावित निर्णय (probable conclusion) ही होता है। इसलिए क्योंकि यह सब पहले से ही सांख्यिकी पर आधारित होता है। यह दूसरा बिंदु है कि नमूना एकत्र करने की विधि का उचित अनुपालन नही किया जाये- जो की इंसानी गलती होती है- या कोई असक्षमता वश, या फिर किसी fraud या corruption (भ्रष्टाचारी) आचरण के चलते।

तो इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि यदि किसी अभीयंत्रीय test के बावजूद इमारतें "यकायक" गिर कर निर्दोष नागरिकों की जाने ले रही हैं, तो फिर कारण नौकरशाही असक्षमता में भी छिपे हो सकते है, भ्रष्टाचार के अलावा। मगर किसी भी सूरत में इंसानी दोष तो तय है।

अब यदि यह असक्ष्मता वश हुई गलती है तो फिर इसका कोई न कोई इंजिनीरिंग इलाज़ भी होना चाहिए ।  मगर उससे भी पहले, test के सैद्धांतिक दोष की बात भी आ जाती है कि जांच प्रक्रिया खुद ही एक संभावित विचारधारा  पर निर्मित हुई है । तो सबसे प्रथम तो एक उपचार इसका ही होना चाहिए की सम्भावना का दायरे में कब तक इंसान की जान को खतरे के बाहर माना जाये ? यहाँ पर तकीनकी विचाधारा में service life जैसी बातें आती है । इसमें इंजीनियरिंग test की पद्धति को एक समयकाल के बाद अपने आप में अपर्याप्त  मान लिया जाता है , और अब निर्णय मात्र इस जानकरी पर लिया जाता है की ईमारत / ढाँचे ने कितने वर्ष मौसम और ऑपरेशन हालात की मार झेल लिया है, जिसके उपरांत उसे असुरक्षित खुद ही मान लिया जाये, चाहे आगे की structure test  रिपोर्ट उसे भले ही  सुरक्षित होने का "सबूत" देती रहे ।

सम्भवता यह भी वह एक बिंदु है जिसमे की देश की नौकरशाही और सरकारी विभागों में बैठे अभियंता देश की जनता की जान के संग अनजाने में जुआं खेल रहे रहे होते  हैं

आगे, क्योंकि देश में हाल-फिलहाल में इस तरह पुल/इमारत गिरने के कई हादसे हुए है और जिसमे की किसी की भी जिम्मेदारी आज तक तय ही नही हुई है और न ही सज़ा हुई है, तो फिर नौकरशाही को दोषी मान लेने एक सहर्ष निष्कर्ष माना ही जाना चाहिए। नौकरशाही के पास तमाम वैधानिक और तकनीकी रास्ते उपलब्ध होते हैं, गलती करके बच निकलने के। जब वह लोग अभीयंत्री जांच (test) में खोट डाल सकते है, तो फिर दुर्घटना उपरान्त कारणों की जांच में मामले को बहला देना तो और भी आसान होता है। अब चाहे वह मूल वजह किसी अभीयंत्री असक्षमता से उत्पन्न हुई हो, या फिर किसी भ्रष्टाचारी कारणों से।
किसी निर्माणाधीन इमारत/पुल के गिरने के दौरान भी ऐसी ही कहानी का घट जाना संभव है। जैसे, निर्माण के दौरान जो कुछ असुरक्षित हालात उत्पन्न होते हैं, उससे अक्सर करके मार्गों को दीर्घ काल तक अवरोधित करने का उपाय ही रह जाते हैं। ऐसे में वैकल्पिक मार्ग का निर्माण ही तरीका बनता है। यह सम्भव है कि वैकल्पिक मार्ग के निर्माण का खर्च उस पुल के निर्माण में पहले से ही योग करि हुई भ्रष्टाचार की कीमत को और अधिक व्यय करवा दे। तो वह वैकल्पिक मार्ग के निर्माण को ही "वैकल्पिक" बना कर के, करवाएं ही नही।
तो इस प्रकार हमारा देश अथाह भ्रष्टाचार की असली कीमत इंसानी जान की आहुति के मार्ग पर निकल चुका है। भ्रष्टाचार से अक्षमता भी पदूनाति प्राप्त करती है, और जब असक्षमता शासन शक्त बनती है तब यूँ ही पुल/इमारतें गिरने लगती हैं।

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