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EVM fraud के सामाजिक प्रभाव

ग़ुलामी की ओर तो बढ़ने लगे हैं, हालांकि यह होगी यूँ की अब फर्जी राष्ट्रवाद सफल होकर असली राष्ट्रीय एकता की भावना को ही समाप्त कर देगा।
Evm fraud वाली राजनीति की आवश्यकता होगी कि हर महत्वपूर्ण पद पर अपने गुर्गे बैठाए जाएं ताकि तैयारी बनी रहे यदि कोई जन विद्रोह सुलगना शुरू हो तो तुरंत बुझाया जा सके।

तो अपने गुर्गे बैठाने की हुड़क में भेदभाव, पक्षपात वैगेरह जो कि पहले से ही चलते आ रहे थे, और अधिक तूल पकड़ लेंगे। फिर,भाजपा-समर्थक और भाजपा-विरोधी जो की पहले से ही आरक्षण नीति के व्यूह में जाति आधार पर विभाजित होते हैं, भाजपा के गुर्गे अधिकांश उच्च जाति और उच्च वर्ग के लोग ही होंगे जो कि भेदभाव और पक्षपात करके ऊपर के पद ग्रहण करेंगे।

तो भेदभाव और पक्षपात एक व्यापक isolation की भावना फैलाएगा, जो कि राष्ट्र भाव को धीरे धीरे नष्ट कर देगा।

सेनाओं में अधिकांश लोग व्यापारिक परिवारों से नही बल्कि किसानी वाले पिछड़े वर्गों के है। औपचारिक गिनती भले ही टाली जाए,वास्तविक सत्य से निकलते प्रभाव को रोका नही जा सकता है। सत्य के प्रभाव चमकते सूर्य की ऊष्मा जैसे ही होते हैं। जितना भी पर्दा करके सूर्य को छिपा लो, वह अपने अस्तित्व के प्रमाण दे कर रहता हैं।

तो evm fraud के सामाजिक प्रभाव यूँ पड़ सकते है कि सेनाओं के मनोबल कमज़ोर पड़ने लगे। सिर्फ एक-तरफा विचारधारा ही प्रसारित और सफल होती रहेगी, और जो कि विपरीत विचार के लोगो को हताश और निराश करेगी। उनके लिए कोई स्थान और सफलता का मुकाम बचेगा ही नही। वह स्वयं आत्म बल खो करके असफलता को स्वीकार कर लेंगे, मनोबल से टूट जाएंगे, और ग़ुलामी को अपना चीरभाग्य मान लेंगे।

और फिर ग़ुलामों की फौज से राष्ट्र की रक्षा होती है क्या ?

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Evm fraud की आवश्यकताओं के चलते अब प्रशासन के समर्थकों की सोच के विपरीत विचारधारा के लिए कोई भी स्थान बचेगा नही। आलोचना करके फायदा नही रहेगा, क्योंकि भय होगा, कब कहाँ क्या हानि कर दी जाए। वैसे भी, आलोचनाओं का कोई असर नही पड़ने वाला होगा, क्योंकि अब उम्मीद नही बचेगी की evm fraud से आगे बढ़ कर उस विपरीत विचार के समर्थक जीत जाये और अपनी नीतियों को लागू करके उसकी सफलता को साबित कर सकें।

तो विपरीत विचार रखने का अर्थ ही नष्ट हो जाएगा, शून्य चित हो कर वापस मन मस्तिष्क को चीर निंद्रा में डुबो देना ही आत्म शांति का मार्ग बनेगा। राजनैतिक और सामाजिक राष्ट्रीय जागरूकता प्राप्त करने से पहले ही वापस सुला दी जाएगी। किसी भी बड़े राष्ट्रीय उद्देश्य को प्राप्त करने का मूल संसाधन सामाजिक जागृति ही है। वरना गुलामो की फौज से ही तो उत्तरी कोरिया भी एक बेहद अनुशासित और सजा-धजा, chaos रहित देश है।

संविधान निर्माताओं की गलती के परिणामों को भुगत रहा वर्तमान भारत

*मानो न मानो इन सब अंधेर नगरी प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था के लिए अम्बेडकर का कानून ही जिम्मेदार है।*

अम्बेडकर के संविधान की असली महिमा तो यूँ है कि अगर इसे राम राज्य में भी लगा दिया गया तो वह भी कुछ सत्तर-एक सालो में आज के भारत जैसे अंधेर नगरी में तब्दील हो जाएगा।

*आखिर इस संविधान में गलती क्या है जिसकी वजह से यह सब हो रहा है ?*

इस संविधान की गलती है कि इसमें अंतःकरण की ध्वनि की रक्षा करने वाली भूमिका के लिए कोई भी पद या संस्था है ही नही !

इसलिए यहां अंतःकरण की ध्वनि पर काम करने वाले का हश्र अशोक खेमखा या संजीव चतुर्वेदी या सत्येंद्र दुबे हो जाएगा।

असल मे भारत के राष्ट्रपति का पद भी एक नौकरी के रूप में है, अन्तःकरण की रक्षा की भूमिका के लिए बना ही नही है। कारण है राष्ट्रपति के चयन का तरीका उन्ही सांसदों के हाथ मे है जिनकी शक्ति को उसे संतुलित करने के किये check and balance देना था, और उसका कार्यकाल 5 पंचवर्षीय ही है।

तो अब यहाँ संसदीय political class सर्वशक्तिशाली है जिसका चेक एंड बैलेंस के लिए कोई भी नही है। सर्वोच्च न्यायालय की judicial review की शक्ति को भी गुपचुप राष्ट्रपति पद के माध्यम से अपने पसंद के व्यक्ति की वरिष्ठता से आगे बढ़ा कर पदासीन करके नियंत्रित किया जा सकता है। कम से कम अपना ही जज मामले की सुनवाई को टाल करके सरकार के कुकर्म और असफलताओं के लिए उन्हें सजा से बचा सकेगा।

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अम्बेडकर शायद किसी भी राजशाही से घृणा करते थे। इसलिए उन्होंने किसी भी किस्म की राजशाही को भारत मे लागू नही करने का पूर्वग्रहीत मन बना लिया था।
तो drafting committee ने प्रजातंत्र में राजशाही की उपयोगिता को खुले मन से समझा ही नही की किसी राजशाही प्रजातंत्र की शक्ति संतुलन व्यवस्था में कैसे राजशाही और संसद एक दूसरे के पूरक और शक्तिपीठ विपरीत भूमिका निभाते हैं। हाँ, राजशाही पर कुछ व्यक्तिगत अंकुश और प्रतिबंध भी इन्ही वजह से थे। जैसे कि राजशाही का किसी भी रूप में राजनैतिक बयान या निर्णय प्रतिबंधित हैं। वर्तमान संविधान में राष्ट्रपति के पद में वह अंकुश तो लगाए, titular head बनाया, मगर अन्तःकरण भूमिका के लिए पूरी तरह तैयार ही नही, उसके चयन और कार्यकाल की दृष्टि से।

यह अकस्माक नही है कि दुनिया के सफल प्रजातंत्रों में अधिकांश आज भी *राजशाही प्रजातंत्र* हैं। सिर्फ अमेरिका ही उदाहरण से कुछ हद तक एक सफल *गणराज्य प्रजातंत्र* है।
1947 से 1950 के बीच संविधान निर्माण समिति ने गलत प्रयोग यह करि की उन्होंने राजशाही प्रजातंत्र वाले administrative gear यंत्र में सिर्फ राजशाही के स्थान पर राष्ट्रपति को बैठा करके उसे एक गणराज्य प्रजातंत्र बनाने का प्रयास कर दिया।

यह प्रयोग कुछ ऐसा ही साबित हुआ कि BMW गाड़ी के पहिये बदल कर ट्रक के पहिये लगा दिया और फिर उम्मीद करि कि यह नई गाड़ी BMW की तरह तेज़ी से भी चलेगी और ट्रक की तरह मजबूत और अधिक भार भी उठाएगी।

*सच यह है कि किसी राजशाही प्रजातन्त्र के संवैधानिक प्रशासनिक ढांचा एक दम अलग होता है गणराज्य प्रजातन्त्र से। दोनों को आपस मे मिक्स करके एक से दूसरे में तब्दील नही किया जा सकता है।* drafting committee ने यह गलती कर दी, जिसकी सज़ा आज वर्तमान भारत भुगत रहा है।

फिर , तत्कालीन भारत के संविधान निर्माण समिति में एक गुपचुप गुट ऐसा भी बैठा था जो कि वाकई सामंतवादी मानसिकता का था, और जो कि चाहता ही नही था कि नागरिकों का किसी आदर्श प्रजातंत्र के जैसा पूर्ण सशक्तिकरण किया है। वह पूर्ण सशक्तिकरण को नागरिको की अशिक्षा और अबोधता के बहाने किसी विस्मयी दिन तक के लिये टलवा देने का हिमायती था, क्योंकि ऐसा करने से वास्तविक प्रशासन शक्ति और दंड उन्हें गुट के हाथों में थमा रह जायेगा जो कि अतीत से इसे थामते रहे है -- सामंत। बस सामंतों का चेहरा बदल जायेगा, प्रकृति वही रहेगी - vvip culture का रूप ले लेगी।

Why there is no SANTA CLAUS in Catholic Christianity ?

Notice that Santa Clauz is a typical invent of the Protestant Christianity, and not Catholic .
Santa Clauz comes in England, Norway, Denmark and these Protestant nations, but not in Vetican, the country of Pope.

Since Protestant see a direct communion between Man and God, therefore, they don't like or promote any Church based diktat to regulate the life of common man. Therefore, the saints of the fold of Protestant also have easy, happy-go-lucky nature, who can sing around, and make merry, and go around distributing gifts as a pleasant surprise for children and adults alike. This behavior is unlike the saints of Catholic fold, where a saint is a high figure, sombre, revered, strict-looking, serious person, does not joke around, and who will never 'indulge' in merry-making, or even singing and galloping. Perceivably because he needs to put such demeanour by which he may regulate the conduct and behavior of common man every now and then.
   
Saint Nicholus has transformed into Santa Claus in Protestanism , not in Catholism.

Protestant Christianity, Secularism, और democracy में जोड़

पश्चिम में ज्यादातर डेमोक्रेसी आज भी राजपाठ वाली monarchical democracy हैं।  बड़ी बात यह भी है कि यह सब की सब protestant christianity का पालन करती हैं, catholic christianity का नही। secularism एक विशेष सामाजिक और धार्मिक आचरण है जो कि सिर्फ protestant christianity में ही मिलता है, catholic christianity में नही। और secularism को ही संरक्षित करने के लिए आज भी  यहां तक कि शासक और उसके परिवार को protestant समूह में ही शादी करना अनिवार्य है, catholic में शादी करने से राजपाठ गवां देने पड़ेगा। सिर्फ ब्रिटेन के संसद ने अभी सं2013 में कानून पारित करके करीब 500 सालों बाद राजशाही परिवार को catholic लोगो मे विवाह की अनुमति दी है। स्वीडन , नॉर्वे, denmark में तो अभी भी प्रतिबंध लागू है।

राजशाही को तो राजशाही के भीतर ही शादी अनिवार्य भी थी। राजकुमार विलियम और शुश्री केट का विवाह विशेष अनुमति से हुआ है।

राजनैतिक शास्त्र में दिलचस्पी रखने वालों को इन सब बातों का सामाजिक प्रशासनिक अभिप्राय समझना चाहिए। power balance theory में यह सब अनिवार्यता और प्रतिबंध कैसे पश्चिम की डेमोक्रेसी को शक्तिशाली और सफल बनाते हैं।

आरएसएस और भक्तों को यह बात समझ मे नही आ रही है। उनको सभी christanity एक जैसी दिखती है - protestant और catholic। इसका भेद और सामाजिक इतिहास भक्तो को पता नही है। आरएसएस आरक्षण विरोधी upper क्लास, upper caste लोगो का समूह है। इसलिए इनके दिमाग खुलेंगे ही नही protestant christianity और secularism का वास्तव अभिप्राय-गठजोड़ को समझने के लिए। और democracy क्यों secularism से जुड़ता है।

आरएसएस को सिर्फ यह दिखता है कि सब देश christian देश है । वहाँ christainity की शिक्षा स्कूलों में दी जाती है।
जब सामाजिक इतिहास का ज्ञान नही होता है,और खुद की अकल किसी आत्म मुग्ध विश्वास से बंद होती है, तब वह भक्त ही बनता है।

संविधान का आलोचनात्मक अध्ययन

संविधान का आलोचनात्मक अध्ययन

ऐसा नही की यह संविधान बिना किसी आलोचना के, सर्वस्वीकृत पारित किया था। खुद अम्बेडकर जी ,जो कि ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष थे, उन्हें भी संविधान के अंतिम स्वरूप को एक workable document कहकर पुकारा था, यह समझते हुए की इस डॉक्यूमेंट से सभी गुटों की मांगें और जायज आलोचनाएं पूर्ण नही हो सकी है, मगर इससे अधिकांश जायज आलोचना को शांत करने का मात्र एक प्रयास हुआ है। उन्होंने संविधान के अंतिम प्रपत्र को सभा को देते हुए उम्मीद जताई कि शायद भविष्य में इन के द्वारा निर्मित प्रक्रियों को अपना करके हमारा देश भविष्य काल मे कभी सारी जायज आलोचना को शांत कर सकेगा। 

क्या थी भारत के संवीधन की आलोचनाएं, यह इस लेख में चर्चा का बिंदु है।

1) सर्वप्रथम आलोचना थी कि अधिकांश उच्च वर्ग, उच्च जाति (upper class, upper caste) गुटों ने आरक्षण सुविधा को स्वीकृत नही किया था। यह गुट वैसे भी भारतीय समाज मे हुए भेदभाव के ऐतिहासिक तथ्य को सत्य नही मानता है, और इसलिए भेदभाव के उपचार को भी स्वीकार आखिर क्यों करता ?

2) संविधान की एक आलोचना यह थी कि वह इतना विस्तृत और घुमावदार भाषा , तथा अनुच्छेद वाला है कि साधारण, विशेष अध्ययन किये बिना किसी को उसके भीतर की मंशा और तर्क प्रवाह समझ मे ही नही आएगा।
   खास तौर पर अमेरिका के नागरिक अधिकार, ब्रिटेन के सरल कानूनों के समक्ष भारत का संविधान बहुत ही जटिल लेखा जोखा है।
   इस आलोचना के प्रतिउत्तर में अंबेडकर और अन्य लोगो ने कहा कि इतना जटिल , विस्तृत करने से दोहरे उच्चारण की संभावना निम्म हो जाती है।

हालांकि वर्तमान में पलट कर देखें तो लगेगा कि असल मे आलोचक ही सही साबित हुए। संविधान की जटिलता के चलते कानून में से predictibility का गुण नष्ट हो गया है। आज वास्तव में कोई भी नागरिक पूर्ण विश्वास के साथ अंदाज़ा नही लगा सकता है कि किस स्थिति में सही उच्चारण क्या है !? कानून सिमट करके के कोर्ट के चौखटे के भीतर जज की मनमर्ज़ी बन गया है, और जज सही कह रहा है या  नही, इसको माप करने का कोई मापदंड बचा ही नही है।। कोर्ट के चौखटे के बाहर सिर्फ जज का निर्णय निकलता है, उसका तर्क और विपक्ष की आलोचना या कटाक्ष नही, और जिसका कुछ किया भी नही जा सकता।

3) एक आलोचना यह भी रही थी कि केंद्रीय सरकार कही अधिक बलवान और शक्तिशाली हो जाएगी राज्य सरकारों से, और राज्य सरकार शक्तिशाली हो जाएगी स्थानीय सरकारों से।
  इस आलोचना के प्रतिउत्तर में अम्बेडकर जी का जवाब था कि यह तो दुनिया भर में सर्व सत्य है , और इसे रोकना बहोत मुश्किल होगा। संविधान में प्रयास है कि राज्य सरकारों या स्थानीय सरकारों के लिए कुछ विषय संरक्षित किये जा सकें। इतना भी यदि प्राप्त कर सके तो काफी होगा।
   मगर आज यदि हम पलट कर सोचे तो देखेंगे कि आलोचक ही सही साबित हुए। केंद्र कही अधिक शक्तिशाली हो कर सरकारों को राज्यपाल के हस्तक्षेप से गिरवा भी लेता है। या स्थानीय सरकार में विपक्ष आ जाये तो असहयोग करके, या बजट के चाबुक से उसे जनहित कार्य करने में बंधित करता है। ताकि जनता में उस पार्टी की छवि धूमिल कर के अपने नंबर बढ़ा लें।

4) एक आलोचना यह थी कि न्यायपालिका के अवैध, अनैतिक आचरण के प्रति संविधान में कोई भी रोकथाम उपलब्ध नही है। यदि न्यायपालिका ही नागरिक हित को खाने लगे तो फिर आगे कुछ भी मार्ग नही बचता।

इस आलोचना के जवाब में अम्बेडकर जी ने man is vile by nature , then कहकर खंडन किया और  उम्मीद रखी कि शायद महामहिम राष्ट्रपति जी का शक्तियों का प्रयोग इसको रोक सकेगा, और यदि राष्ट्रपति भी अंतरात्मा के रक्षक की भूमिका नही दे सके तो फिर शायद हम सबको स्वीकार कर लेना होगा कि इंसान का स्वाभाविक चरित्र निर्माण ही अनैतिकता से हुआ है और ऐसे में दुनिया का कोई भी संविधान बेकार हो जाने वाला है।

आलोचकों ने यहाँ राष्ट्रपति पद के नियुक्ति और कार्यकाल प्रक्रिया पर कटाक्ष किया कि अपरिपक्व हैं , इसमे ही गलती है। अम्बेडकर जी के man is vile वाले प्रतिउत्तर के premature होने की आलोचना हुई कि अभी सभी प्रयास और विकल्प तलाशे बिना ही अम्बेडकर जी इस विचार पर आ गए। मगर इस आलोचना को अनदेखा , अनसुना से कीया गया। राष्ट्रपति के non-partisan या bi-partisan होने का debate यही से आरम्भ हुआ था। आज तो उल्टे partisan व्यक्ति ही राष्ट्रपति बनते हैं। 

कैसे ब्रिटेन की प्रशासनिक व्यवस्था स्वायत्तता प्राप्त करती है राजनैतिज्ञ वर्ग से

ब्रिटेन में bbc को कैसे समाज को सही मार्ग या सत्मार्ग दिखाने वाली खबर और जानकारी देने की स्वायत्तता मिल जाती है, बिना इस बात के डर से की कुछ शीर्ष पदों के तबादले, निलम्बन या सेवामुक्ति देखने पड़ सकते हैं ?

यहां दूरदर्शन के दो मुलाजिम प्रधानमंत्री के भाषण की रिकॉर्डिंग के दौरान मात्र हंस क्या दिए, उनको नौकरी से हाथ धोना पड़ गया। किसी एक मुलाज़िम ने जनता के बीच जा कर सच क्या बोल दिया कि कोई एक भाषण वाकई में किस तारीख में रिकॉर्ड हुआ था, उसे भी परिणाम भुगतने के लिए नौकरी से निकाल दिया गया। 

Whatsapp के सदवाणी संदेश कहते है कि संसार का बुरा किसी बुराई के कर्म करने वालो से इतना अधिक नही होता है, जितना कि भले लोगो के चुप रहने से, और बर्दाश्त कर जाने से होता है।

अबोध भारत की बहोत बड़ी आबादी अपने भ्रमकारी कुतर्क से यह समझती/समझाती है कि समाज को भ्रष्टाचार मुक्ति दिलाने के लिए प्रशासनिक तंत्र आवश्यक नही है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को भ्रष्टाचार विमुक्त आचरण से ही मुक्ति मिलेगी। खास तौर पर वर्तमान काल के राजनैतिक वर्ग यही कुतर्क जनता में बेचना चाहता है, और लोकपाल क़ानूम जैसे विधान आने के बावजूद उन्हें लागू करने से बचना चाहता है। 

   सवाल लोकपाल कानून या जनलोकपाल कानून का नही है, बल्कि यह है कि भ्रष्टाचार, राजनैतिक स्वार्थ लिए controversy, मीडिया के पक्षपात, इत्यादि से मुक्ति दिलाने के लिये आवश्यक संसाधन क्या है ---? क्या समाज को ईमानदारी का फल तभी खाने को मिलेगा जब प्रत्येक व्यक्ति ईमानदार बनेगा, या तब जब समाज के कुछ एक व्यक्ति जो ईमानदारी की मिसाल है, जो कि कभी जीवन मे एक ईमानदारी का निर्णय लेते है, उन्हें सहायक माहौल देने वाले प्रशासनिक तंत्र की स्थापना होगी?

ऐसा नही की भारतिय समाज मे ईमानदार लोगो की कमी थी, जिस कमी की वजह से भारत मे अथाह भ्रष्टाचार है। बल्कि भारत के प्रशासनिक राजनैतिक तंत्र मे ईमानदारों के संग जो हश्र हुआ है - उन्हें अशोक खेमखा और संजीव चतुर्वेदी बना दिया जाता है, जज की संदेहास्पद हत्या हो जाती है, और मनपसंद जज को राज्यपाल पद दे दिया जाता है, 
तो खुद ही सोचिए कि बुराई पर चुप्पी नही रखने वाला, बर्दाश्त नही करने वाला कोई ईमानदार कैसे पनपे का इस समाज मे और मुक्ति दिलाएगा ?

मगर ब्रिटेन की प्रशासनिक व्यवस्था में यह मुक्ति कैसे मिलती है ? वहां की मीडिया और उच्च शिक्षा संस्थान कैसे बिना किसी प्रशासनिक प्रतिक्रिया के भय के अपने विचार को सुदृढ़ता से प्रकट कर देते है, निष्पक्षता और सदमार्ग का प्रसार कर लेते है, समाज को जागृत बनाये रखते हैं ?

इस सवाल का जवाब वहां के प्रशासन व्यवस्था के उपज के सामाजिक-इतिहासिक घटनाओं में छिपा है।

बीबीसी जैसी जनसूचना की उच्च संस्था *संसदीय कानून* से नही बल्कि *शाही फरमान* से चलती है। ब्रिटेन में सरकार को चलाने के लिए एक नही, दो अलग अलग उच्च केंद्र है। *act of parliament (संसदीय कानून)* अलग है , और *royal charter (शाही फरमान)* अलग है।

बीबीसी और इसके ही जैसे सेकड़ो उच्च संस्थान , उनकी शास्त्र सेनाएं, professional associations इत्यादि *संसदीय कानून* की बजाए *शाही फरमान* के आधीन निर्मित हुए और कार्य करते है। यह *प्रधानमंत्री कार्यालय* के जगह *crown services*  से आदेश प्राप्त करती है। विकिपीडिया के अनुसार 15वी शताब्दी से लेकर आज तक 900 से अधिक शाही फरमान जारी हुए हैं जिनसे वहां के उच्च शिक्षण संस्था, professional association, इत्यादि निर्माण हुई है और वह संसदीय कानूनों का पालन तो करती है, मगर प्रधानमंत्री कार्यालय के आधीन नही आती है, इसलिए राजनैतिक वर्ग उन्हें अपनी सुविधा के अनुसार निलंबन, बर्खास्त, या तबादला नही कर सकता है। 

भारत मे राष्ट्रपति है, राजशाही है ही नही। और राष्ट्रपति खुद ही पांच साल की नौकरी वाले है; अधिकांश राष्ट्रपति और राज्यपाल राजनीतिज्ञों की पृष्टभूमि वाले है;राष्ट्रपति  पद किसी बुज़ुर्ग राजनीतिज्ञ को पार्टी की वफादारी का इनाम देने के लिए, या किसी विरोधी की राज्यसरकार का चक्का केंद्र सरकार के हाथों डगमगाने के लिए।

शाही फरमान जैसी व्यवस्था भारत मे presidential order है। मगर साधारण गूगल सर्च से बात मालूम देती है की  presidential order आज तक एक ही निकला है, वह भी गुप्त तरीके से , राजनैतिक -प्रजातांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध , संविधान में अनुच्छेद 35A डालने के लिए, राष्ट्रहित के विरुद्ध !

भारत में अमूमन एक कच्ची गिनती से १३ हज़ार से अधिक कानून है, मगर राष्ट्रपति फरमान (presidential order ) सिर्फ एक बार ही निकला है | ब्रिटैन में भी संसदीय कानून बहोत हैं , मगर शाही फरमान 900 से अधिक बार निकला है | तरह ब्रिटैन में राजनीतिज वर्ग और शाही घराना , दोनों ही एक दूसरे से मुक्ति ,  स्वायत्तता प्राप्त करते हैं |   


रेफरी विहीन shouting मैच है भारत की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्था

प्रश्न:-
Via Mani M

अपना मानना है कि यदि नरेंद्र मोदी लड़कपन में संघ दफ्तर नहीं पहुंचते और उसकी जगह शेयर बाजार पहुंचते तो वे अरबपति बने हुए होते । वे राजनीति में आए तो धुन ने ही उनको संघ परिवार के शीर्ष पर पहुंचाया। इस धुन का कोर तत्व मार्केंटिग है। मोदी के जीवन के हर चरण में मार्केटिग ही सफलता की सीढ़ी रही है | मार्केटिंग का पहला और अंतिम मूल मंत्र यह है कि ग्राहक को रिझाने के लिए ऐसा कुछ लगातार होता रहे जिससे वह लगातार विश्वास दिए रहे।

इस बात को और बारीकी से समझना है तो सोचें क्या राहुल गांधी झाडू ले कर स्वच्छ भारत का आईडिया या इवेंट बना सकते थे? क्या ममता बनर्जी संकट की घड़ी में अपनी मां को बैंक में भेज कर नोट निकलवाने का आईडिया सोच सकती थीं? क्या नीतीश कुमार अरबपतियों का जमावड़ा कर मेक इन इंडिया जैसा इवेंट कर सकते हैं? क्या अरविंद केजरीवाल अचानक लाहौर पहुंच कर नवाज शरीफ के साथ पकौड़े खा सकते थे? क्या मनमोहनसिंह हैदराबाद हाउस में बराक ओबामा के आगे लखटकिया सूट पहन चाय पिलाने, उन्हें तू और मैं के संबोधन वाले दोस्त का फोटो सेशन का आईडिया बना सकते थे? क्या आटे की बात करने वाले लालू यादव डिजिटल इंडिया का आईडिया निकाल सकते हैं? क्या नीतीश कुमार न्यूयार्क में प्रवासी भारतीयों का जमावड़ा बना कर रॉक स्टार शो दे सकते हैं? क्या कोई भी एक्सवाई नेता एक दिन टीवी पर यह घोषणा कर सकता था कि आज रात 12 बजे बड़े नोट बंद? क्या अखिलेश यादव गंगा में नरेंद्र मोदी की भगवा, रूद्राक्ष माला वाली पोशाक के साथ आरती का आईडिया बना सकते? क्या मायावती पीओके के भीतर सर्जिकल स्ट्राइक कर उससे देश को सन्ना देने का आईडिया सोच सकती थीं?

य़े सब आईडिया हैं, घटनाएं हैं जो चौबीस घंटे जनता को मैसेज देने की धुन के मकसद से हैं। हर दिन ऐसा कुछ जिससे लोगों में मैसेज बने और आंखों के आगे, दिमाग में नरेंद्र मोदी का चेहरा घूमता रहे। इसमें पूरा महत्व विजुअल का है। तस्वीर को, बात को अलग-अलग तरीकों से पैठाने का है। कभी दहाड़ कर, कभी रो कर, कभी अपनी कुर्बानी को याद दिला कर, कभी राम बन कर, कभी सेवक बन कर तो कभी ललकार कर!

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उत्तर :-
बात सही है। मगर मार्केटिंग की ऐसी ट्रिक्स कामयाब ही इसलिए हो रही है कि right knowledge देने वाली जनमान्य संस्था देश मे कोई बची ही नही है।

मोदी जी की मार्केटिंग तकनीक से वाशिंगटन पोस्ट, बीबीसी , न्यूयॉर्क टाइम्स , या nobel prize विजेता, लंदन school ऑफ economic जैसी संस्थाएं प्रभावित कभी भी नही करि जा सकती है।जैसा कि हम देख भी रहे हैं।

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मोदी की मार्केटिंग तकनीक नही है, यह भारत के राजनैतिक प्रशासनिक तंत्र की कुव्यवस्था का नतीजा है कि झूठ ज्यादा बिक रहा है सच से।

*क्योंकि भारतीय व्यवस्था में कोई भी स्थायी संस्था नही है जो कि व्यवस्था में keeper of the conscience की भूमिका अदा कर सके।*

क्या है यह भूमिका इसको समझने के लिये कुछ अन्य व्यवस्थाओं से तुलनात्मक अध्ययन करने पड़ेंगे।

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भारत ने अपना प्रशासनिक तंत्र ब्रिटेन से हस्तांतरण में प्राप्त किया था।
और ब्रिटेन ने यह तंत्र स्वयं अपने विशिष्ट सामाजिक -ऐतिहासिक घटनाओं से trial and error से रचा बुना था।
इसीलिये उनके तंत्र की खासियत आज भी यह है कि वह republican डेमोक्रेसी नही, बल्कि monarchical डेमोक्रेसी है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहां डेमोक्रेसी तब आयी जब जनता के आक्रोश ने राजा को आंतरिक युद्ध के बाद हरा दिया था।

मगर उनके विचारक चालक बुद्धिमान थे। उन्होंने यह मानवीय ज्ञान प्राप्त कर लिया की power corrupts, absolute power absolutely corrupts। तो उन्हें पावर को नियंत्रित करने का तरीका ढूंढा power balance (या checks and balance) के सिद्धांत पर। इसके लिए राजशाही को खत्म नही किया बल्कि संसद बना कर राजशाही को लगाम में कर दिया।

इससे क्या मिला , जो कि भारत मे नकल करके लिए republican democracy तंत्र में नही है ?

भारतीय तंत्र में ब्रिटेन के मुकाबले Keeper of the conscience की भूमिका देने वाला पद कोई भी नही बचा। britain में चूंकि राजशाही dynasticism पर है, इसलिए वह आजीवन उस पद पर रहते हैं , और उनके उपरांत पद का उत्तराधिकारी संसद के चुनाव से नही, बल्कि वंशवाद पद्धति से आता है। यानी राजा स्वंत्र चिंतन का व्यक्ति है।
भारत मे राष्ट्रपति संसद ही चुनता है, और वह पांच साल में रिटायर भी होता है। इसलिए वह मोहताज़ है अपने अगले कार्यकाल के लिए politicial class का।तो वह keeper of conscience की भूमिका नहीं देता है । अगर राष्ट्रपति कलाम साहब की तरह propriety का सवाल करे तो फिर फाइल को उनकी मेज़ तक नही पहुचने दो, उसके  रिटायरमेंट के इंतेज़ार कर लो !!। तंत्र को छकाने के जुगाड़ी तरीके तमाम है। मगर ब्रिटेन में तो आजीवन बने रहने वाली राजशाही है। और britain के बढ़े शिक्षण संस्थाएं, और बीबीसी जैसे जन सूचना संस्थाएं सीधे राजा के अधीन है, संसद के नही। और उनका  धन खर्च गणितीय फॉर्मूले से स्वतः मिलता है।

अमेरिका का republican democracy सिस्टम का उत्थान उसकी अपना सांस्कृतिक-इतिहासिक घटना क्रम है। यह तंत्र व्यवस्था भी check एंड3 balance सिद्धांत पर टिका है, मगर यहां power के पदाधिकारी britain व्यवस्था से पूरे भिन्न है। वहां यह check and balance संसद (जिसे Congress बोलते है) और वहां के राष्ट्रपति के बीच का है। राष्ट्रपति को जनता के बीच से सीधा चुनाव से निर्वाचित किया जाता है। मगर वहां के न्यायायलय के पद स्वतंत्र है और यहां तक कि  मुख्य न्यायालय के  न्यायधीश रिटायर नही होते। वह आजीवन कार्यकाल के होते है, या फिर की जब तक वह अपनी इच्छा से retirement न ले, या फिर unsound mind की वजह से हटाए न जाएं।

भारत ने दोनों देशो की भिन्न भिन्न तंत्र व्यवस्था का मिला जुला तंत्र बनाया है, और असल मे सब गुड़गोबर कर दिया है।

EVM fraud और इसका सामाजिक विश्वास पर प्रभाव

सुब्रमण्यम स्वामी ने 2013 में जब evm fraud की शिकायत करि थी, तब भी कांग्रेस की सरकार के दौरान कोर्ट इतने पक्षपाती न थे और मामले के समाधान में vvpat उसी शिकायत के समाधान में लाया गया था। सच को स्वीकार करना ही पड़ेगा, तब भी जब की सच कांग्रेस के पक्ष में खड़ा हो--कि, अगर कांग्रेस की सरकार evm fraud में गंभीरता से लिप्त होती तब फिर शायद 2014 के लोकसभा चुनावों में सत्ता परिवर्तन कभी होता ही नही।

मगर क्या आज भी ऐसा ही है ?

आज देश की बड़ी आबादी evm और vvpat की शिकायत कर रही है। 2013 में सिर्फ भाजपा और सुब्रमण्यम स्वामी ही शिकायत कर्ता थे। आज देश की करीब करीब सभी चुनावी पार्टी इसकी शिकायत कर चुके है।

कोर्ट कितना पक्षपाती हो सकता , इस पर समूचे देशवासियों की नज़र है। कोर्ट के किसी भी पक्षपाती फैसले या टालमटोल से तकनीयत में भले ही बड़ीआबादी को चुप रहने पर मजबूर करा जा सकता है, मगर समाज मे आपसी विश्वास यानी public trust को नष्ट होने से नही रोका जा सकता है।

पब्लिक ट्रस्ट क्या है, मैंने इस विचार को समझता हुआ एक निबंध कभी पढ़ा था जो कि किसी साहित्य में नोबल पुरस्कार प्राप्त लेखक ने लिखा था। वास्तव में  इंसानों को समाज मे जीवन आचरण कर सकने का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व सामाजिक विश्वास यानी पब्लिक  ट्रस्ट है। बुनियादी सामाजिक सहवास में से राष्ट्र का निर्माण public trust के खाते के निर्माण से ही होता है। संस्थाएं बनाई जाती है इसी खाते की देख रेख और रख-रखाव के लिए। public ट्रस्ट ही सुनिश्चित करता है राष्ट्र में सभी की बराबर की हिस्सेदारी होगी। कोई समुदाये किसी दूसरे की कुर्बानी और बलिदानों पर आराम नही भोगेगा। न्यायालय और न्याय के सूत्र public trust की रक्षा करते हुए ही कार्य करते हैं।

भक्तों को गांधी की उपलब्धि नही समझ में  आई कि गांधी ने कैसे पब्लिक ट्रस्ट को रचा बुना था। गांधी की हत्या करि और अब evm के झोल पर मिली जीत से भक्त वापस गांधी की बनाई बहमूल्य सौगात public trust को नष्ट करने लगे हैं। भारत बहु सांस्कृतिक आबादी और समुदायों वाला देश है। और आज का भारत एक कठिन राजनयिक भूगौलिक स्थान पर बसा हुआ देश है। public ट्रस्ट को लगे  आघात से हमारी विविधता  कभी भी हमारी कमज़ोरी बन सकती है।

पता नही की भक्त, निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका को यह सब समझ आता है या नही।

Modern times habit of revisionism

Btw, revisionism is in high gear these days. And not just in History, but also in mythology.

Whatsapp messages are in circulation speaking Ravan was not a symbol of evil, but rather an ideal brother who was out to revenge his sister's dishonor.

Almost all thing that we know of the Hinduism is being put to revisionism. The problem is that while freedom of expression has come to the people, armed with the tool of social media where quick dissemination is possible, most people are not articulate thinkers, practised enough in the Critical Thinking. Moreover , India does not have institution as the high brand colleges of liberal arts and other think tank organization which may help to provide to the masses the right knowledge.

Result is that Intolerance has grown along with the growth of power to achieve wider dissemination of one's idea - namely, the social media.

Of course the evil bend  political outfits have rushed to capture the intolerance of masses to propel themselves to power.

मुस्लिम घृणा से राष्ट्र निर्माण का कोई मूल्य नही बनता

मुस्लिम-घृणा कोई ऐसा सामाजिक मूल्य नही है जिसके आधार पर इंसानों की बड़ी आबादी को शांति पथ पर चल कर सामना अचार संहिता यानी संविधान का आपसी संकल्प लेने के लिए प्रेरित किया जा सके।

मुस्लिम घृणा से सिर्फ वोट बैंक कमाया जा सकता है, इंसानों को संतुष्ट नही किया जा सकता है कि सभी के लिए कुछ है।
जब जस्टिस कर्णनं एक पदस्थ जज हो कर भी भ्रष्टाचार के मात्र आरोप लगाने पर जेल भेज दिए जाते है, और जस्टिस दीपक मिस्र न्यायलय के आंतरिक कानून का हवाला दे कर अपने ही खिलाफ कार्यवाही के मुकदमे में खुद जज बन कर फैसला करते है,
तब बड़ी आबादी को पोल खुल कर पता चल जाता है की अब इस समाज के मूल्य क्या है, और किसके हितों की रक्षा के लिए है, जबकि फौजो में लहू कौन सी आबादी बहाने के लिए आगे जाती है।

जब कोर्ट के फैसले किसी पैसे वालो के हक़ में रहस्मयी क़त्ल में जाने लगते है तब बड़ी आबादी को पता चल जाता है जी आखिर किस आबादी के धन और सुख-सुविधा के हित मे कौन सी आबादी अपना लहू बहाती है सैनिक बन कर।

EVM Fraud - an attack on the public trust

सुब्रमण्यम स्वामी ने 2013 में जब evm fraud की शिकायत करि थी, तब भी कांग्रेस की सरकार के दौरान कोर्ट इतने पक्षपाती न थे और मामले के समाधान में vvpat उसी शिकायत के समाधान में लाया गया था।

आज देश की बड़ी आबादी evm और vvpat की शिकायत कर रही है। 2013 में सिर्फ भाजपा और सुब्रमण्यम स्वामी ही शिकायत कर्ता थे। आज देश की करीब करीब सभी चुनावी पार्टी इसकी शिकायत कर चुके है।

कोर्ट कितना पक्षपाती हो सकता , इस पर समूचे देशवासियों की नज़र है। कोर्ट के भी पक्षपाती फैसले या टालमटोल से तकनीयत में भले ही बड़ीआबादी को चुप रहने पर मजबूर करा जा सकता है, मगर समाज मे आपसी विश्वास यानी public trust को नष्ट होने से नही रोका जा सकता है।

पब्लिक ट्रस्ट क्या है, मैंने इस विचार को समझता हुआ एक निबंध कभी पढ़ा था जो कि किसी साहित्य में नोबल पुरस्कार प्राप्त लेखक ने लिखा था। वास्तव में  इंसानों को समाज मे जीवन आचरण कर सकने का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व सामाजिक विश्वास यानी पब्लिक  ट्रस्ट है। बुनियादी सामाजिक सहवास में से राष्ट्र का निर्माण public trust के खाते के निर्माण से ही होता है। संस्थाएं बनाई जाती है इसी खाते की देख रेख और रख-रखाव के लिए। public ट्रस्ट ही सुनिश्चित करता है राष्ट्र में सभी की बराबर की हिस्सेदारी होगी। कोई समुदाये किसी दूसरे की कुर्बानी और बलिदानों पर आराम नही भोगेगा। न्यायालय और न्याय के सूत्र public trust की रक्षा करते हुए ही कार्य करते हैं।

भक्तों को गांधी की उपलब्धि नही समझ में  आई कि गांधी ने कैसे पब्लिक ट्रस्ट को रचा बुना था। गांधी की हत्या करि और अब evm के झोल पर मिली जीत से भक्त वापस गांधी की बनाई बहमूल्य सौगात public trust को नष्ट करने लगे हैं। भारत बहु सांस्कृतिक आबादी और समुदायों वाला देश है। और आज का भारत एक कठिन राजनयिक भूगौलिक स्थान पर बसा हुआ देश है। public ट्रस्ट को लगे  आघात से हमारी विविधता  कभी भी हमारी कमज़ोरी बन सकती है।

पता नही की भक्त, निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका को यह सब समझ आता है या नही।

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