संविधान निर्माताओं की गलती के परिणामों को भुगत रहा वर्तमान भारत

*मानो न मानो इन सब अंधेर नगरी प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था के लिए अम्बेडकर का कानून ही जिम्मेदार है।*

अम्बेडकर के संविधान की असली महिमा तो यूँ है कि अगर इसे राम राज्य में भी लगा दिया गया तो वह भी कुछ सत्तर-एक सालो में आज के भारत जैसे अंधेर नगरी में तब्दील हो जाएगा।

*आखिर इस संविधान में गलती क्या है जिसकी वजह से यह सब हो रहा है ?*

इस संविधान की गलती है कि इसमें अंतःकरण की ध्वनि की रक्षा करने वाली भूमिका के लिए कोई भी पद या संस्था है ही नही !

इसलिए यहां अंतःकरण की ध्वनि पर काम करने वाले का हश्र अशोक खेमखा या संजीव चतुर्वेदी या सत्येंद्र दुबे हो जाएगा।

असल मे भारत के राष्ट्रपति का पद भी एक नौकरी के रूप में है, अन्तःकरण की रक्षा की भूमिका के लिए बना ही नही है। कारण है राष्ट्रपति के चयन का तरीका उन्ही सांसदों के हाथ मे है जिनकी शक्ति को उसे संतुलित करने के किये check and balance देना था, और उसका कार्यकाल 5 पंचवर्षीय ही है।

तो अब यहाँ संसदीय political class सर्वशक्तिशाली है जिसका चेक एंड बैलेंस के लिए कोई भी नही है। सर्वोच्च न्यायालय की judicial review की शक्ति को भी गुपचुप राष्ट्रपति पद के माध्यम से अपने पसंद के व्यक्ति की वरिष्ठता से आगे बढ़ा कर पदासीन करके नियंत्रित किया जा सकता है। कम से कम अपना ही जज मामले की सुनवाई को टाल करके सरकार के कुकर्म और असफलताओं के लिए उन्हें सजा से बचा सकेगा।

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अम्बेडकर शायद किसी भी राजशाही से घृणा करते थे। इसलिए उन्होंने किसी भी किस्म की राजशाही को भारत मे लागू नही करने का पूर्वग्रहीत मन बना लिया था।
तो drafting committee ने प्रजातंत्र में राजशाही की उपयोगिता को खुले मन से समझा ही नही की किसी राजशाही प्रजातंत्र की शक्ति संतुलन व्यवस्था में कैसे राजशाही और संसद एक दूसरे के पूरक और शक्तिपीठ विपरीत भूमिका निभाते हैं। हाँ, राजशाही पर कुछ व्यक्तिगत अंकुश और प्रतिबंध भी इन्ही वजह से थे। जैसे कि राजशाही का किसी भी रूप में राजनैतिक बयान या निर्णय प्रतिबंधित हैं। वर्तमान संविधान में राष्ट्रपति के पद में वह अंकुश तो लगाए, titular head बनाया, मगर अन्तःकरण भूमिका के लिए पूरी तरह तैयार ही नही, उसके चयन और कार्यकाल की दृष्टि से।

यह अकस्माक नही है कि दुनिया के सफल प्रजातंत्रों में अधिकांश आज भी *राजशाही प्रजातंत्र* हैं। सिर्फ अमेरिका ही उदाहरण से कुछ हद तक एक सफल *गणराज्य प्रजातंत्र* है।
1947 से 1950 के बीच संविधान निर्माण समिति ने गलत प्रयोग यह करि की उन्होंने राजशाही प्रजातंत्र वाले administrative gear यंत्र में सिर्फ राजशाही के स्थान पर राष्ट्रपति को बैठा करके उसे एक गणराज्य प्रजातंत्र बनाने का प्रयास कर दिया।

यह प्रयोग कुछ ऐसा ही साबित हुआ कि BMW गाड़ी के पहिये बदल कर ट्रक के पहिये लगा दिया और फिर उम्मीद करि कि यह नई गाड़ी BMW की तरह तेज़ी से भी चलेगी और ट्रक की तरह मजबूत और अधिक भार भी उठाएगी।

*सच यह है कि किसी राजशाही प्रजातन्त्र के संवैधानिक प्रशासनिक ढांचा एक दम अलग होता है गणराज्य प्रजातन्त्र से। दोनों को आपस मे मिक्स करके एक से दूसरे में तब्दील नही किया जा सकता है।* drafting committee ने यह गलती कर दी, जिसकी सज़ा आज वर्तमान भारत भुगत रहा है।

फिर , तत्कालीन भारत के संविधान निर्माण समिति में एक गुपचुप गुट ऐसा भी बैठा था जो कि वाकई सामंतवादी मानसिकता का था, और जो कि चाहता ही नही था कि नागरिकों का किसी आदर्श प्रजातंत्र के जैसा पूर्ण सशक्तिकरण किया है। वह पूर्ण सशक्तिकरण को नागरिको की अशिक्षा और अबोधता के बहाने किसी विस्मयी दिन तक के लिये टलवा देने का हिमायती था, क्योंकि ऐसा करने से वास्तविक प्रशासन शक्ति और दंड उन्हें गुट के हाथों में थमा रह जायेगा जो कि अतीत से इसे थामते रहे है -- सामंत। बस सामंतों का चेहरा बदल जायेगा, प्रकृति वही रहेगी - vvip culture का रूप ले लेगी।

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