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प्रचारकों और सुधारकों के मध्य की निरंतर युगों से चलती आ रही राजनैतिक क्रीड़ा

भारत की साधुबाबा industry में बतकही करने वाले ज़्यादातर साधुबाबा लोग के अभिभाषण एक हिंदू धर्म के प्रचारक(promoter) के तौर पर होते हैं, न कि हिंदू धर्म के सुधारक(reformer) के तौर पर।

अगर आप गौर करें तो सब के सब बाबा लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म की तारीफ़ , प्रशंसा के पक्ष से ही अपनी बात को प्रस्तावित करते हैं, आलोचना(-निंदा) कभी भी कोई भी नही करता है। यह प्रकृति एक प्रचारक (promoter) की होती। इन सब के व्याख्यान बारबार यही दिखाते है, सिद्ध करने की ओर प्रयत्नशील रहते हैं कि "हम सही थे, हमने जो किया वह सही ही था, हमने कुछ ग़लत नही किया"

मगर एक सुधारक की लय दूसरी होती है। सुधारक गलतियों को मानता है, सुधारक का व्याख्यान ग़लत को समझने में लगता है।

दिक्कत यूँ होती है कि सुधारक को आजकल "apologists" करके भी खदेड़ दिया जाता है। उसके विचारों को जगह नही लेने दी जाती है जनचिंतन में।

वैसे promoter और reformer के बीच का यह "राजनैतिक खेल" आज का नही है, बल्कि सदियों से चला आ रहा है। धार्मिक promoters हमेशा से ज़्यादा तादात में रहे हैं धार्मिक reformers के। reformatiom(सुधारक) अनजाने में promoters(प्रचारकों) के business पर attack कर रहे होते हैं। इसलिये प्रचारक कभी भी उन्हें पसंद नही करते हैं। बल्कि promoters की लय यह होती है कि आलोचना करने की कोई आवश्यकता नही होती है, क्योंकि यदि आपको कुछ भी ग़लत या ख़राब लगता है, तब फ़िर आप धर्म की आलोचना करने के स्थान पर प्रचारक के तौर पर अपना खुद का नया सुधारकृत पंथ आरम्भ कर सकते है ! इस प्रकार आप मौजूद स्थिति का विश्लेषण और आलोचना करने से बच जाएंगे और फिर आप अप्रिय भी नही होंगे।

आलोचना और सुधार की बात करने वाले लोग हमेशा अप्रिय होते है। 'प्रचारक' लोग इस तथ्य का लाभ कमाते हैं। वह अंत में अपने बिंदु वही से ग्रहण कर रहे होते है जो बातें (और कमियां) कि आलोचक या सुधारक बोल रहे होते हैं, बस प्रचारक लोग चतुराई से उस बात कि लय बदल देते हैं जिससे की वह अप्रिय न सुनाई पड़े। वह बात में सुधार की लय को बदल कर प्रचार की लय को रख देने में माहिर होते है। इस तरह वह बात जनप्रिय बन जाती है।

प्रचारकों और सुधारको के मध्य ये "राजनीति का खेल" जनप्रियता को प्राप्त करने के इर्दगिर्द चल रहा होता है। जबकि एक कड़वी सच्चाई यह है कि प्रचारकों की प्रवृति के चलते ही धर्म और संस्कृति में बारबार ग़लत को प्रवेश करने का मार्ग मिलता है। इसलिये क्योंकि प्रचारक कभी भी ग़लत को स्पष्ट रूप से ग़लत नही कहते हैं। ऐसा करने से जनचेतना विकसित होने में अपरिपक्व बनी रहती है कि आखिर ग़लत होता ही क्या है। जनमानस ग़लत को समझने में क्षुद्र होने लगता है। और कहीं न कहीं हर बार कोई ग़लत किसी प्रचारक की थोड़ा से चतुराई के चलते मरोड़े हुए परोक्ष रूपरेखा से धर्म में प्रवेश कर जाता है।

प्रचारक और सुधारक , दोनों के अपने अपने महत्व होते हैं।

मगर दिक्कत यह है की जनचेतना पर इस बिंदु पर चर्चाएं अभी तक भरपूर नही हो सकी है। इसलिये जनता बारबार प्रचारकों के प्रिय सुनाई पड़ने वाले अभिभाषणों से मोहित होकर उनकी ओर झुकाव रखती है। सुधारकों के अप्रिय "कड़वे बोल" से दूर भागती है और फ़िर गलत को स्पष्टता से समझने में पर्याप्त बौद्ध विकसित नही कर पाती है।

पश्चिम में संसद भवनों को दो भागो में विभाजित करके रचने के पीछे में जो दार्शनिक उद्देश्य है - bi cameral parliament - जिसमे एक upper house होता है, और एक lower house , उसका दर्शन प्रचारकों और सुधारकों में मध्य निरंतर चलने वाले "राजनैतिक खेल" से ही होता है।


भक्त गिरी की गंगोत्री है "यदि" के क्षितिज से उठाये गये प्रश्न

 संघ ने देश में इतनी बड़ी तादाद में भक्त कैसे पैदा किये है ? जबकि संघ का खुद का इतिहास काला है। वो अंग्रेजों से अपना आर्य जाति का भाई वाद रिश्ता जोड़ते थे।  वो भारत के ग्रामीण जीवन मे गर्व करने को प्रसारीत करते हुए इसी गर्व मई लेप् में छिपा कर जातिवादी भी प्रसारित करते थे।

इतने अपरस्पर विचारों के  बावजूद इतनी बड़ी आबादी में लोगो का संघ की ओर झुकाव आखिर बना ही कैसे? आज यह लोग पूर्ण बहुमत न सही, मगर फिर भी, एक विशालकाय सम्मानजनक संख्या में हैं। ऐसा कैसे हुआ?

संघ ने चतुराई से कार्य किया है। संघ ने जन चिंतन में जो कथा - narrative - बहोत जुगत लगा कर बेची है इतने वर्षों से , वह एक hypothetical - परिकल्पनिक कथा है - जिसका आरम्भ "यदि" के विशेषण से होता है --- "यदि" नेहरू की जगह पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तब क्या होता? "यदि" गांधी की जगह सुभाष बोस देश की आज़ादी के सूत्रधार होते तो क्या होता?

गंम्भीर सत्यवचन यह है कि परिकल्पनिक कथाओ में बसे सवालो और पहेलियों को सटीकता से उत्तर तो धरती का कोई भी इंसान नही दे सकता है। मगर फिर इन परिकल्पनिक सवालों को उठाने से आप आबादी में दुखी मन से बैठे हुए कई सारे लोगो को उकसा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए तैयार कर सकते हैं। ऐसे लोग जो कि मनोचिकितसिय तौर पर identity pride-  - स्वपरिचय अभिमान को तलाश करने में भटक रहे होते हैं। वो जो कि गर्व की kick चखते रहने के addict होते हैं । ऐसे गर्व-addict लोगो को reality distort करना, illusion में डालना आसान होता है। drug addicts तो वैसे भी hallucinations से पीड़ित रहते हैं।

तो गर्व-addicts आबादी को यह नही मालूम है कि संघ के काले इतिहास के तथ्य क्या है। मगर इन्हें पूरे यकीन से यह ज़रूर मालूम है कि यदि नेहरू की जगह पटेल आ जाते तो क्या होता, और गांधी की जगह सुभाष होते तो क्या होता।

संघ ने कांग्रेस को धिक्कारने वाली नस्ल 70 साल मेहनत करके फसल बोई थी। अब corporate साथियो की धनशक्ति से IT Cells का tractor लगा कर फसल काट रही है।

जबकि कांग्रेस तब एक राजनैतिक पार्टी नहीं थी, बल्कि एक मंच था, जहां से भारत का जनमानस अंग्रेज़ो से अपनी स्वायत्ता के लिए तमाम न्यायोचित तरीको से संघर्ष करता था। इस मंच को congress नाम इसी वजह से दिया गया था। आज जब आप आज़ादी के युग वाली congress को धिक्कारते हैं, तब आप वास्तव में भारत के जनमानस को धिक्कार दे रहे होते हैं। यह अलग बात है कि आज वो congress एक पार्टी बन कर रह गयी है, और कितने बड़े जनमानस की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है, यह सवालों के घेरे में है।

तो ऐसा तरीको से संघ ने "यदि" के क्षितिज पर कथा रच कर, गौरव- करण मनोरोग से ग्रस्त आबादी को अपने "अंधभक्त" में तब्दील करने में सफलता प्राप्त करि है।

बच्चों का लालन पोषण में मातापिता की खामियां

16~17 साल की आयु के बच्चों को real world issues से वास्ता करना आरम्भ कर देना चाहिए।

हम middle class परिवारों में बच्चों के लालन पोषण में बहोत खामियां है जिसकी वजहों से हमारे बच्चे वयस्क हो कर सफ़ल , आर्थिक उन्नत कर सकने वाला तथा कामगार व्यक्ति नही बन पा रहें हैं।

दिक्कत यूँ है कि हमारे बच्चे किताब-कागज़ों के बीच में अपने चिंतनशील मस्तिष्क को खो रहे है, उनके ख़्वाब समाप्त हो जा रहे हैं, उनमें से उत्साह नष्ट हो जा रहा है।

ऐसा क्यों हो रहा है🤔 ?
क्योंकि बच्चों को वास्तविक दुनिया की समस्याओं से परिचय करने का अवसर और प्रोत्साहन नही मिल रहा है।

यह सही है की अत्यधिक छात्र राजनीति एक किस्म कि मानसिक रोग होता है, मगर छात्र जीवन में वैश्विक संवाद से अलग थलग पड़े रहना - वह भी पढ़ाई करने, "एग्जाम की तैयारी कर रहा हूँ" के नाम पर -- यह भी सरासर अनुचित है, और फलदायक के विपरीत होता है।


किताबों का ज्ञान आखिर में क्या होता है, और इसकी खुद की उत्पत्ति कहां से होती है? 
हम जब भी अपने ही बच्चे को, अपनी ही संतान को "तुम सिर्फ पढ़ाई करो/ पढ़ाई पर ध्यान दो", करके उसको मित्रों से, मंडलियों से, वैश्विक कलापों से जुदा करते है - असल में हम तब ही उनकी असफलता की किस्मत को खुद अपने ही हाथों से लिखना शुरू कर देते हैं।

क्योंकि सच तो यह है कि वास्तविक ज्ञान किताबो में तो मात्र संग्रहित ही होता है, मगर उसका अन्वेषण संवाद(dialecticalमें से होता है - वहां जहां पर राजनीति, मंथन और मत-विभाजन की क्रियाएं भी साथ ही साथ घट रही होती हैं।
और फिर किताबी ज्ञान का अधिग्रहण भी वापस संवाद से ही किया जा सकता है - मित्र मंडलियों के बीच संवाद और चर्चा के माध्यम से। इसलिये क्योंकि ज्ञान को पुस्तकों के द्वारा संरक्षण का उद्देश्य ही संवाद को प्रसारित करने का होता है, संवाद - जो की किताबी ज्ञान की जन्मभूमि होती है।

कहने का अभिप्राय यह है कि एकाकी छात्र का मात्र किताब पढ़-पढ़ कर के जीवन में सफ़ल हो सकना बहोत मुश्किल घटना होती है। क्योंकि यह किताबी ज्ञान उसे "लगने वाला" नही है - यानी उसके मस्तिष्क में बैठे गा नही, जमे गा नही, उसके किसी कार्य में उपयोग नही आयेगा - और शायद ही उसे किसी परीक्षा के उत्तीर्ण करा सके - जो की एक lottery घटना वश ही हो।

किताबी ज्ञान और "परीक्षा की तैयारी" में व्यस्त छात्र कुछ ऐसा होता है जो कुछ तो समाधान ढूंढ रहा व्यक्ति है, मगर जिसे समस्या ही नही पता हो ! 
और यह उद्देश्य-हीनता फिर धीरे धीरे -- 1 से डेढ़ साल के भीतर में - उसमे एक मनोचिकित्सीय रोग पैदा कर देती है - अर्थहीनता, गंतव्यहीन गति करते रहने की - आत्म स्वाहा करने की भावना का।

वैश्विक समस्याओं को पहचान सकना, परिचय बनाना -- किताबी ज्ञान की ओर झुकने से पूर्व का बढ़ा कदम होता है। मगर आश्चर्य जनक तौर पर हम अपनी संतानों को इस  प्रक्रिया से गुज़रने ही नही देते हैं।

क्यों ?
क्योंकि हम खुद भयभीत रहते हैं कि दोस्तों के बीच में रह कर कहीं हमारा बच्चा गुमराह नही ही जाये, वह पढ़ाई-लिखाई करने से भटक नही जाये !
मगर यह हमारे सोच की त्रुटि है

क्योंकि ऐसा करके हम बच्चे के बौद्धिक-सामाजिक विकास को अवरोधित कर देते है -खुद अपने ही हाथों अपनी संतान के विकास को रोक देते हैं। 

हम गलती यह कर रहे होते हैं कि मित्र-मंडली की क्रिया में समस्या यह बूझ लेते है कि हमारे बच्चे को भटका देगी, बजाये यह देखने के कि मित्र मंडली की गुणवत्ता कैसी है - वह समस्याओं को पहचान करने वाली, और खुल कर संवाद करने वाली है - या कि एक-दूसरे पर शिकंज कसने वाली है। 

एक अच्छी, दुरुस्त मित्र मंडली में छात्र को स्वयं को महसूस करने का और अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता है - बिना भय, तिरस्कार , अपमान , मज़ाक बने, और ताना कशी का शिकार हुए। जब कोई छात्र / युवा अपनी अनुभूतियों को चिन्हित करके अभिव्यक्त करना सीख जाता है, तब उसमे सामाजिक चेतना, अन्तरात्मा का उदय होना आरम्भ हो जाता है। और फिर वहां से उसमे प्रेरणा आने लगती है,जिससे उसमे अन्तर्ज्ञान होने लगता है। अंतर्ज्ञान एक ऐसी अवस्था है जब ज्ञान का उदय किताबो से नही , बल्कि अंदर से, - खुद के भीतर में से होने लगता है।

और अन्तर्ज्ञान की इस अवस्था को प्राप्त सकने की condition होती है - दो क़िस्म की चेतना का विकास - अनुभूति(feelings) कर सकने की क्षमता, विचार(thinking) कर सकने की क्षमता ।
यह दोनों चेतना - आप इसे दिमाग के "CPU" की processing box समझ सकते है।  और इनमें से output आता है - अभिव्यक्ति (यानी expresssions) , और कल्पना (यानी imagination, dreams) बन कर। 
छात्र जब dreams देखने लगे तब यह एक लक्षण होता है कि वह चेतना प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर है। यह dreams ही तो उसकी विकसित होती हुई अंतरात्मा का सूचक होते है। और जब dreams आते है तभी inspiration और motivation आता है - अंदर से, खुद के भीतर में से। self वाला motivation

मगर यह self motivation तभी तक टिक सकता है जब तक इसे कुछ कर गुज़रने के ललक मिलती रहे। 

क्योंकि यह self-motivation कुछ कर गुज़रना चाहता है ।
यह दुनिया की किसी समस्या को हल कर देना चाहता है। 

यानी, यदि किसी छात्र को दुनिया की समस्या का पता ही नही हो, तब वह क्या करेगा self-motivation के प्रवाह में रहते है ? 
--"कुछ नही!"

और जब वह कुछ भी नही करेगा , तब क्या होगा उसके self motivation से ? 
कुछ नहीं, थोड़े समय में वह self motivation की ज्योत खुद ही बूझ जाती है, और वह छात्र विफल हुआ सा, depression में प्रवेश कर जाता है।

हर एक स्वस्थ बालक के युवा अवस्था में एक न एक बार यह self-motivation की ज्योंति को जलने का समय आता ही है - यदि उसके लालन पोषण में कोई बाधा नही हुई हो तो। दिक्कत यूँ होती है कि अक्सर माता-पिता ही इस ज्योंति को बढ़ने की बजाये बुझा देने की गलतियां कर देते है - उसको कर्महीनता में  डाल कर - उसको मित्र मंडली और उसके सहयोगियों से जुदा करके - पढ़ाई के नाम पर किताबों के अंधे कुँए में धकेल कर के।उसे वैश्विक कलापों में शाम्मलित होने के लिए प्रोत्साहित नहीं करके।

छात्र को पूर्ण मानसिक विकास प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि माता पिता उसे खुद को अनुभूति और अभिव्यक्त कर सकने में सहयोग दें। इसके लिए आवश्यक होता है कि उसे उसके दोस्तो से दूर नही करें। उसका मेल-जोल नही रोके, पढ़ाई-लिखाई करने के दबाव बना बना कर के। उसे वैश्विक कलापों में शाम्मलित होने के लिए प्रोत्साहित करें ।  

संग में, यह भी आवश्यक होता है की छात्र की मित्र मंडली ऐसी हो जो उसके ललक और झुकावों में सहयोग देती हो,न कि उसकी अभुभूति को अभिव्यक्त करने पर उसका मज़ाक बनाती हो, या उसमे desonance प्रकट करती हो । यानी मित्र मंडली में आपसी विश्वास - trust कर सकने वाली व्यक्तियों को होना चाहिए। मित्र मंडली का संवाद आपसी झगड़े वाले , रंजिश पैदा करने वाला नही होना चाहिए,  बल्कि विचारो को और अधिक सरलता से बूझने में सहयोग देने वाला चाहिए। उसकी मित्र मंडली का वैश्विक दर्शन - world  view  - दुखद और विसंगत नहीं होना चाहिए।  

छात्र को अपने विचार और अनुभूति को दर्ज़ करते रहना आवश्यक प्रकिया है। 
क्योंकि आवश्यक नही कि छात्र की अनुभूति और विचार को हर बार उसके माता पिता , या मित्र समझ ही लें। यह भी आवश्यक नहीं की उसकी अनुभूति और विचार वैश्विक विचार धारा के अनुरूप, सही ही हों।  अक्सर करके बात को समझते-समझते अरसा लग ही जाता है। ऐसे में बात को कही न कही लिखित दर्ज़ करके संरक्षित करना आवश्यक होता है। आखिर में जब कोई विचार कहीं पर संरक्षित होता है, तब ही तो वह किसी दिन बूझने लायक पल को प्राप्त कर सकता है। वर्ना अनुभूति और विचारो का क्या है-यदि संरक्षण नही करे कोई इन्हें, तब यह पल भर में छू हो जाते है - जितनी जल्दी यह हमारे भीतर में जन्म लेते है, उतनी ही जल्दी छू भी हो लेते है।

तो फ़िर छात्र को प्रशिक्षित रहना चाहिये कि अपने क्षणभिंगुर विचारों को छू हो जाने से पूर्व ही संरक्षित कर सके - उनको कही पर दर्ज़ करके -या तो डायरी में नोट बना कर के, या एक email करके , या  किसी को संदेश बना कर भेज करके, या कि audio note बना करके, या किसी से फोन पर बात करके, जिस फोन call का recording बना ले। 
मगर कही न कही उसको दर्ज़ ज़रूर करे।  शायद कभी भविष्य में अपने ही अनुभूति और विचार को यदि वह पलट कर देखे तब शायद वह खुद ही अपनी अभिव्यक्ति को थोड़ा अधिक सरलता और स्पष्टता का रूप दे दे ।

अनुभूति और विचार को दर्ज़ करने का , यानी संरक्षण करने का यही परम उद्देश्य होता है।

यदि evm के दिक्क्त आपको व्यक्तिगत स्तर तक समझ में नहीं आ रही हो, तब कृपया evm को बर्दाश्त करना सीख लीजिये

 मैं जानना चाहता हूँ कि EVM तंत्र से आखिर दिक्कत किसी को क्या है?

अगर दिक्कत यह है कि अब सिर्फ भाजपा का ही राज कायम रहेगा, सपा ज़ बसपा और राजद को मौका नही मिलने वाला है, तब फिर यह दिक्कत तो इन पार्टियो की हुई, न कि आप की।

सवाल आपसे है -- कि आपको क्या दिक्कत है? न कि पार्टीयों से है।

भाजपा की कौन सी नीत आपको सताती है? भाजपा आपसे आपका क्या छीन रही है? क्या अवसर है, जो कि भाजपा आपको नही देती है? 

जब तक आप सवाल का जवाब इन मापदंड पर तय नही कर लेते है,तब तक आपको EVM को चुपचाप सहन कर लेना ही बेहतर होगा।

अखिलेश जी का समाजवाद

05/12/20
अखिलेश जी को सोच थोड़ा सा adjust करना होगा। शायद उनको पहले से ही एहसास हो।
कि, गरीब होना कोई उपलब्धि नही होती है, बल्कि बेवकूफी की निशानी है।
अगर कोई मज़दूरी कर रहा है, तो यह उसकी जीवन निर्णयों की बेवकूफी है।
फिर ऐसे व्यक्ति या समूह के "हितों की रक्षा" के लिए राजनैतिक संघर्ष करना कोई अधिक समझदारी नही होती है।
वास्तविक समस्या ये नही है कि गरीब को क्या मिला सरकार से, या कि सरकार गरीबों की परवाह नही करती है।
वास्तविक समस्या है कि वो गरीब क्यों है, उसने जीवन निर्णयों में क्या कमियां दिखाई, और अब समाज और प्रशासन उनके "उत्थान" (=जीवन-निर्णयों में हुई गलतियों की पहचान करना, और सुधार के अवसर देना ) के लिए क्या कर सकता है। 
गरीब को रोटी खिलाना उसकी सहायता करना नही होता है। क्योंकि ऐसे में वह और अधिक पर निर्भरता ग्रस्त हो जाता है।
असली सहायता होती है उनको गरीबी से निकालना। ये मुश्किल काम होता है।
मगर लक्ष्य मुश्किल कामो के ही साधे जाते है।
सामाजिक और धार्मिक पर्यावरण में बदलाव लाने होंगे। शिक्षा नीति में बदलाव लाने होंगे। प्रशासन में बदलाव लाने होंगे, जिससे गरीबी को नष्ट किया जा सके।
गरीब के लिए ट्रेन में मज़दूरों, कुली का काम, ac की सफाई, या बिना ac की सस्ते डिब्बों की ट्रेन चलवाने की मांग जमती नही है।

स्वतन्त्र अभिव्यक्ति और perceptions की अभिव्यक्ति

 कुणाल कामरा के ट्वीट सब के सब mere perceptions ही कहेै जा सकते हैं। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत हर व्यक्ति को किसी भी घटना, व्यक्ति इत्यादि पर अपना मत रखने का अधिकार है। ये perceptions वही मत होते है।

प्रशांत भूषण मामले में सोली सोराबजी के विचारों के अध्ययन से एक बात समझ मे आ जाती है - कि, प्रशांत भूषण की गलती बस यह थी कि किसी ताथयिक बात को गलत प्रस्तुतिकरण किया था। हालांकि वह भी ताथयिक गलती छोटी ही थी, और अर्धसत्य भी थी।

तो बात यह बनती है कि किसी तथ्य को यदि जानबूझकर गलत या मरोड़ करके प्रस्तुत किया जाता है किसी भी छवि को बनाने, बिगड़ने के उद्देश्य से, तब और केवल तब ही मानहानि का मुकदमा ठहरता है, अन्यथा मुकदमा विलय कर जाता है

कुणाल कामरा के tweets में तो कुछ भी ताथयिक है ही नही। केवल perceptions ही है ! उनकी खुद की मन की छवि कोर्ट के प्रति ! भले ही वह नकारात्मक ही क्यों न हो , मगर वह ताथयिक नही है, महज़ perception है।

box बुद्धि, इंसान की बौड़मता

 इंसान बौड़म क्यों होता है?

इंसान की बुद्धि जन्म से ही box में बंद हो कर सोचने के लिए निर्मित होती है। यह box उसका जीवन रक्षक अस्त्र होता है और संग में यही उसके बौड़म होने का कारण भी होता है।
Box को खोल देने से इंसान को स्व-मूर्खता से मुक्ति मिलने लगती है।
मगर box को खोला कैसे जाता है?
आज मित्रों के संग बैठे बैठे बात निकल पड़ी कि अच्छे, गुणवत्तापूर्ण दीर्घायु जीवन का क्या कारण है- राज क्या होता है? बात आरम्भ हुई थी अर्जेंटीना के फुटबाल सितारे डिएगो माराडोना के निधन से, जो कि कल के दिन मात्र 60 वर्ष की आयु में हृदय गति रुकने की वजह से चले गये। तो प्रथम बात यह निकली कि एक खेल प्रतियोगी होने के वास्ते जहां उनकी चुस्ती-फुर्ती बाकी इंसानों से कुछ बेहतर अपेक्षित करि जानी चाहिए थी, उसके बावजूद उनके संग ऐसा हो गया।
यहां से किसी मित्र ने बात की दिशा यों दे दी कि शहरी जीवन थोड़ा कमज़ोर हो ही गया है, जहां अब अल्पायु आम बात हो चली है। मुझे अपना आभास यूँ था कि अगर हम दीर्घायु गुणवत्तापूर्ण जीवन की बात जनमानस के निवास क्षेत्र - शहरी अथवा ग्रामीण - के आधार पर ही करनी है तब शायद ग्रामीण जीवन ख़राब होता है शहरी जीवन से एक दीर्घायु, गुणवत्तापूर्ण जीवन दे सकने में।
मित्र मंडली के बीच अपने अपने कटाक्ष निकलने लगे थे शहरी आवास बनाम ग्रामीण आवास के पक्ष-विपक्ष में।
तभी मुझे हमारे एक विश्लेषण आधार के आसपास में एक box बुद्धि के होने का एहसास हुआ। box बुद्धि यह कि हम ऐसे विषयों के चिंतन के दौरान बारबार विश्लेषण के आधार को आवास क्षेत्र ही क्यों चुनते हैं? क्या कुछ भी मापन पूर्ण, meaningful निष्कर्ष अध्ययन हुआ भी है, इस दिशा से ?
नही, न?

तो क्यों न हम box बुद्धि को तोड़ देने की चेष्टा करते हैं? क्यों नहीं हम दीर्घायु, गुणवत्तापूर्ण जीवन के भेद को समझने के प्रति विश्लेषण का आधार बदल देते हैं - उद्योग स्वामी बनाम उद्योगिक कर्मी - का आधार चुनाव कर लेते हैं ?
आखिर इस आधार पर तो हमारे मध्य कोई मतभेद नही ही रहने वाला है कि अधिक पैसे वाले लोग शायद ज्यादा सरलता से दीर्घायु प्राप्त कर रहे हैं आजकल, और संग में गुणवत्तापूर्ण जीवन भी, बनस्पत कार्मिक जीवन वाले व्यक्तियों के।
कहीं हालफिलहाल की किसी whatsapp पोस्ट में यह सुझाव भी दिया गया है की जहां जहां retirement आयु कम है, वहां दीर्घायु जीवन औसतन बेहतर है।
पता नहीं की यह whatsapp पोस्ट सही है या कोई नया षड्यंत्र है जनमानस के मंथन को नियंत्रित करने का।
मगर एक बात तो है, कि शुद्ध वायु और स्वच्छ जल के आसपास में गुणवत्तापूर्ण दीर्घायु जीवन प्राप्त करना अधिक सरल है, बजाये दूर दराज क्षेत्र में रहते हुए, यदि वह दूर दराज़ क्षेत्र प्रदूषण के स्रोतों से विमुक्त नही हो सके तो।
दीर्घायु जीवन की एक कुंजी होती है अच्छे भोजन, शुद्ध वायु वातावरण, और स्वच्छ जल की सहज़ उपलब्धता । इस बात पर सभी में आम सहमति है। मतभेद सिर्फ यह है कि क्या यह शहर में आसानी से उपलब्ध होता है, या फ़िर कि ग्रामीण क्षेत्र में? क्या यह अच्छे धनवान लोगों को सहजता से उपलब्ध होता है, या कार्मिक middle class के व्यक्ति को?
हम जब box बुद्धि से मंथन करते हैं, तब विचारों की गंगा का प्रवाह सिर्फ श्रेष्ठता सिद्ध करने में बहने लगता है - कि, शहरी जीवन अधिक श्रेष्ठ होता है, या की ग्रामीण जीवन। ऐसा करने में हमे एहसास नही रह पाता है कि हम box बुद्धि में फँस चुके हैं ।
क्योंकि हम यह भूल बैठते हैं कि वास्तविक मुद्दा यह है ही नही कि श्रेष्ठ जीवन कहां पर मिलता है! बल्कि तुलना करने का उद्देश्य है कि कम कुंजी या उन भेदों को चिन्हित करें जो कि दीर्घायु गुणवत्तापूर्ण जीवन देने में भूमिका निभाते हों।
Box बुद्धि अक़्सर यही करती है मंथन , चिंतन के दौरान। वास्तविक विषय से हल्का सा भटकाव आसानी से प्रवेश कर जाता है, क्योंकि लोग अभ्यस्त किये जा चुके होते हैं बारबार किसी एक विशेष दिशा से ही विषयवस्तु का दर्शन करते रहने के।
यह box बुद्धि ही इंसानो को बौड़म बनाती है।
Box बुद्धि में फँसा हुआ व्यक्ति बारबार एक ही आधार से तुलना करके बारबार उसी निष्कर्ष, उसी कुतर्क में धंसता रहता है। box बुद्धि से मुक्ति तब मिलती है जब हम कुछ नया आधार ले कर कुछ नया मत प्रस्तुत करना सीख जाते हैं, और फ़िर उस नये मत को सिद्ध करने के नये विद्धि भी हम ही प्रस्तावित करने लगते है, जो की सर्वसम्मति को प्राप्त कर सकें।
वास्तव में हमारे जीवन में ऐसे अवसर कम मिलते हैं जब हम box बुद्धि को तोड़ते हुए कुछ कर गुज़रे। हम सब box बुद्धि से ग्रस्त लोग है। box बुद्धि को तोड़ने वाला व्यक्ति अक्सर पहेलियों और रहस्यों को सुलझाने की अभिरुचि का व्यक्तित्व रखने वाला होता है। क्योंकि रहस्य और पहेली सुलझाने में भी ठीक यही मानसिक-बौद्धिक कौशल का प्रयोग किया जाता है -- सर्वप्रथम किसी प्रस्तावित प्रत्यय (hypothesis) को प्रस्तुत करना, फ़िर उसके परीक्षण या सिद्ध करने की विधि भी खुद से ही प्रस्तावित करना। और यदि परीक्षण विद्धि सर्वसमति प्राप्त कर ले, तब फ़िर प्रस्ताव को सिद्ध होने के लक्षण दे कर उसे प्रत्यय यानी theory में तब्दील कर देना। और फ़िर यदि theory वापस सर्वसिद्ध हो गयी, तब उसे एक नियम में तब्दील कर देना।
Box बुद्धि के टूट जाने वाली क्रिया हमारे इर्द गिर्द शायद ही कभी हमें घटते हुए देखी हो तो हो।

Advance automation work environments and the causes of failures of the conventional Indian managerial style

 Imagine working on a product-tanker ship , with slender crew on board , just 17 or so, and of multinational denomination.

In your understanding, what type of leadership and the management style will serve best to operate such a ship?

And now imagine if you have to do training and teaching all the time with those 17 crew instead of the regular Planned Maintenance Schedule jobs. How easy or difficult would it be to you?

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The leadership and the management style of an Indian is usually derived, in my thinking , from the models of a tea-estate plantation manager .

Tea plantation was the first industrialized activity ever done by the mankind. It is to be remembered that  our country, India , is the biggest producer of Tea in the world. The European traders came to India as mariners, via sea route, for her riches of the spices. Tea, a small shrub, is also one such spices which caught the interest of the European traders, but at that time it would be found only as some wild growth in some remote forest place. The British, as they realised the potential profits that tea could bring to them, decided to grow tea as a domesticated farm product. That would mean that now the native indians were required to be domesticated too, to work as the Industrial farm labourers, who could be used for the growing of the tea. Indians , until then were casual "villagers"(the non-industrial persons) with their interest confined to the agricultural fields and the soldiery work. "Villagers" were the people who did not know what it was like to work for any interest beyond the service of the agricultural fields and the king, as his soldier . An industrial labour gives his service for the interest centering around money, whereas a casual villager works merely to fill his stomach and to save his life from the fury of the king,
It took the British to coin out the money and to cultivate interest of the villager type Indians in that money in order to make the Industrial labourers out of them. The domestication of the lifestyle and the cultivation of interest in money of the villager Indians was not an easy challenge before the British. The mechanics of domestication of the people was same as the sheep-and-the-dog tactics used by the shepherds. A more aggressive natured person was picked from the Indian people, and then reigned in , ridden like an young colt, who may in turn , use his aggression to control the large mass. This young colt was the classical tea-estate manager.

So, what kind of leadership and the managerial style leads to the production of the Tea in such large volume ?

A traditional Tea estate manager , in my views, was and is, a very cunning, deceitful, manipulative , exploitative person who abused the illiterate Tea plantation worker - physically, economically and even sexually at times, which perhaps led to the rise of the Marxist ideologies among the masses where ever Tea Plantation was being done at an Industrial scale. This observation may perhaps best explain the common factor in why the Left Ideology political parties are dominating in both , the West Bengal and Kerela. The common-factor reasoning is that both are the places where Tea Plantation at an Industrial scale was started in India by the British.

But my interest is to decipher the kind of managerial style - which I would call by a name-  the Conventional managerial style-  that one should expect from an average Indian. In my thinking Management and the Leadership is something that comes to man , both in the Natural format , and the school-trained polished format.

Therefore , even if a person is not exposed to any formal learning , it would be wrong of us to assume that the person doesn't have any managerial style of his own. Rather , the question we should seek to know is - what kind of managerial style should we expect from a person who has had no formal lessoning of the different managerial style and the Leadership courseware . This question is more important to be answered, because, as we can see, the informal (or the non-school trained) style or the the natural format style is what is more prevalent and is what is more regularly practiced by the people.

It is here that our Tea-estate managerial style model comes into picture, because this is the closest explanation of the informal model . A basic understanding of how a Tea estate worker accomplishes his task, and a model of how his estate manager deals with him - will give the best picture of what kind of managerial style one should expect from an average Indian . 

Indeed one may also explore , through this model, why the Nawabi - The Raja babu or the 'velvet gloves'" leadership style of a Lucknowi person may be loathed by the people of the Tea-estate regions .

Having worked on ships which had very lean level of manning , my views are that such ships can be handled only when the crew members are already well-trained , post-beginner level , whom I would like to refer to as the "professional". The idea in my usage of the word "professional" can be best understood by comparing it with the terms "amateur " or the "beginner".

So, these ships are the ones where a shipping company can obtain the best profits only when they have spent enough towards the crew salary so as to pick the most "professional" level crew members from the labour market.  

This theory about the selection of the crew for a slim-manned ship goes well with the level of automation that the ship has been provided with. The shipowners may never obtain profits from their spending on the automation technology unless they operate the ship as per the standards that they have conceived in the design and the construction of the ship . Advance level Automation is a very useful means of saving the potential losses to the ship owners from factors such as delays in time, improving the efficiency with respect to the manual operation. Automation, thus, saves losses to the ship owners from the crew inefficiency related causes. Such crew-inefficiency related losses occur  in terms of training of the crew, Supervision , the overtime component of their salary , and such on. 

But the Automation comes with another price tag of its own. That, the skill standards required of the crew  to operate the automation of ships must be of the "professional" level. Otherwise the Automation will start working just the opposite of what it is intended for.

Now that we know that the crew of leanly-manned automated ships is having the skill of the standards designated as the "professional" level,  try making a guess what leadership style should be the best style to be practiced on such ships ? 

To put the question more straight - which is the best style of Leadership to be practiced in an environment where the workers are suppose to be of "professional" level skill standards ?

I was working on ships where the Company , the ship owners, discouraged the practice of giving overtime related salaries altogether . 

Now, that makes the challenge of Managerial style even more straight . But this handicap on the manager gives a hint to our query of the working style of the manager .

When the crew is not expected to be given a reward in term of the overtime payment, the answer is that the shipowners want the crew and officer to work only within the defined framework of the the Standards Operation Procedure or the SOPs. The crew, whose skill level is Advanced enough , is expected to know how to execute out their task. The only issue is that they only have to do their tasks while keeping within the framework of the SOPs, which means without any expectations of the extraneous reward such as the overtime allowance. 

By the way, what does it speak about the ship owner's idea of what is the overtime payment ? 

 The shipowners think that the Overtime payment is a "rewarding and a punishing tool" given to the person in managerial role for no good reason because that way the overtime payment is often crookedly secured by the crew, but which is a loss to the ship owner's pocket. On ships where the crew is known to be of the skill level of "beginner /amateur "; and that the overtime payment system is practiced, it is observable that the overtime "reward/punishment" system works - more often- to destroy or damage the machinery ,  which the crew is habituated to do for creating an artificial justification ploy for not conforming with the pre-defined framework of the SOPs . 

Now that is a complex truth to understand. But we must take out time and apply our minds , to think it out.

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More about the tea-estate managerial style : -

The conventional , tea-estate style of person in a managerial role , has an in-built cultural attitude where a cat-and-mice game is played between the workers and the managers, somewhat like the tom-and-jerry show . The worker have a cultural skills to skive off the task, to fail the task and to blame the cause of failure to something that the manager is supposed to be responsible for. 

And the manager bear their cultural skills to identify some person whom he may put as a guinea pig - to send out his message of discipline. He knows it, culturally, to how to humiliate, insult, demoralize and to discipline the selected guinea pig person. 

The game sets on by itself in any work space where there are sufficient Indian people are around. It is during this psychological game that the human values, (the human considerations for a fellow human) are also used as a coin to hit out against each other . Within this managerial work environment, a manager who allows for the humane consideration to his worker is seen as emotionally weak to have succumbed to the coin  thrown by the worker at him.

Since, in the tea-estate managerial style , the human consideration are , inter alia, used as the attack weapons , therefore , the manager is expected  to be hardened , and often cruel or even inhuman in his ways. Obviously ,the Lucknowi style, where Tea is not grown, but merely sipped and enjoyed, such a  managerial style is loathed . But , in turn , the Tea-estate managers who are from the plantation regions of India, see the Lucknowi 'velvet glove' managerial style itself as impotent , powerless , and inefficient. 

However , the work environment that I am referring about --  the slim-manned ship having crew member of multiple nationality , a barriers come into play when a traditional tea-estate style manager is put into it. The ideal relationship between the worker and the manager must be centered around the willingness, and the sincerity of the commitment made to each other. But the cat-and-mice game tea-estate  managerial style is filled with insincerity. 

The tea-estate manager is not acquainted with the ideal of sincerity. Neither does he know how to honour the free-will of a person. Being crooked comes as naturally to the tea-plantation manager as is the poison to a serpent. But a lean-manned, hi automation level ship can hardly afford insincerity of the crew  and the officers. 

राजनीति अस्त्र और कूटनीति अस्त्र अलग होते हैं

 राजनीति अस्त्र अलग होता है, और कूटनीति अस्त्र अलग। ये दोनो ही अलग किस्म के  अस्त्र होते हैं।

मगर शासन शक्ति तक पहुंचने के लिए दोनों अस्त्रों का प्रयोग करने में महारथ चाहिए होती है। 

 राजनीति अस्त्र का प्रयोग होता है जनता को लुभाने के लिए । कूटनीति का प्रयोग होता है विरोधियो को हराने के लिए। 

चुनाव प्रक्रिया आजकल कूटनीति अस्त्र का मैदान बन चुकी है। evm के प्रति लोगो की आशंका  कूटनीति का पायदा है। फिर,  वोट की गिनती की प्रक्रिया, vvpat की गणना, चुनाव अधिकारीयों के राजनैतिक झुकाव, ये सब कूटनीति अस्त्र का अंश बन चुके हैं। मीडिया से wave बनाना,court से अपने पक्ष के फैसले दिलवाना, यह भी अंश है कूटनीति अस्त्र के।

भूखी,गरीब, अल्प पढ़ी लिखी समर्थक भीड़ इन सब कूटनीति अस्त्र को कटाक्ष करने के लिए तैयार नहीं होती है। वो सिर्फ नारेबाजी करके, और या फ़िर मोटरसाइकिल पर पार्टी के झंडे लगा करके काफिले बना कर रैली करने के ही काम आ सकती है। 

जबकि भाजपा के समर्थकों में बुद्धि से ताकतवर sales और marketing रणनीति में महारथी भीड़ है। कभी LED टीवी बेच कर, और कभी मोटरसाइकिल बेच कर वोट कमाए जाते हैं।

विपक्ष कूटनीति अस्त्र में बारबार कमज़ोर पड़ रहा है।

Exit Polls चुनावी प्रचार का हिस्सा ही होते हैं

 ऐसा कैसे की बिहार चुनावों में exit poll के नतीजे राजद को बहुमत होने का इशारा कर रहे थे, भाजपा गठबंधन को अल्पमत, 

मगर जब असली नतीजे आये तब उल्टा ही हो गया। जबकि ज्यादातर राज्य चुनावो में exit poll उल्टे ही रहे हैं, भाजपा गठबंधन को ही बहुमत मिलने की भविष्यवाणी करते रहे हैं।

दरअसल, इस बार exit poll भी चुनाव प्रचार का ही हिस्सा है, जो कि वोट पड़ जाने के बाद किया जाता है। exit poll का प्रयोग बिहार चुनावों में लोगो को डराने के लिए हुए है कि यदि राजद आ गई तब भाजपा समर्थको के संग क्या सलूक हो गा ! चुनाव अधिकारियों में भाजपा के समर्थक अधिकारी लोग हेरफेर करके भाजपा को जिताने में लग गए।

बाकी हर बार दूसरे राज्यों में exit poll का प्रयोग होता है भाजपा के हक़ में wave बनाने के लिए कि यदि बहुमत कम पड़े तब आसानी से पार्टनर मिल जाये।

राजद के पास समर्थक वैसे भी गरीब, भूखी जनता थी, जबकि भाजपा ने तो शासन शक्ति के भीतर अपने समर्थक बैठा रखें हैं।


The problem with the courseware on Managerial Leadership

 The single biggest problem that I see in the courseware on leadership and managerial style , particularly the caselets type, like "Capt Dayal- old man with valve gloves" and "Chief Engineer Swamy , man with iron fist" , is that these caselet studies entrap the minds of the learners instead of helping it to open out.

How ?

The courseware captivates away the thinking of the learners to see the leadership roles from the two frames alone -that of 'velvet gloves' attitudes and that of 'iron fist'. 

Many uninitiated learners will get induced through the courseware , to think that the Motivation, which is an important role in the leadership, is done by way of acting soft and Humane, which then is the way to get the job done .

Here lies the trouble.

The courseware tends to send a message that behaving human considerate should bear a selfish motive -  that of getting the job done . A shallow thinking learner may fail to see that the human-considerate behaviour is expected to be done without selfishness, by all  the sources of moral values - the religious philosophies and the society. And as a result , the uninitiated learner may cultivate a kind of a highly sophisticated but pathological mind within himself wherein he would start to  conduct his considerate, human-side  with another  person  in a very selfish manner , that  the receiver must reciprocate in terms of his sweat.

Such an immature learner, through the courseware , may be tricked to think that if his human-considerate side is not being reciprocated properly by the crew members though his labour, then it would put a black mark on his leadership abilities . And in such a situation , he would need to switch to the iron-fist conduct , wherein , in future  it would become legitimate for him to stop granting the human considerate  needs to his crew , no matter how grave the situation may be.

The course material may bear impact on the mind of the crew as well in their off-classroom learners role , wherein they may become immunized to the grants received of Human-value considerations.  The crew may start to  think that every time a master or a Chief Engineer is acting with a velvet glove, then there is a "leadership"-related selfish motive hidden underneath it. The mere knowledge that this the course material on the leadership has these contents will be enough to set a psychological "insincerity" game between the active learners of the course and the off-classroom learners !

The biggest victim would be the humanity itself , wherein , many of the the unmindful active learners may become truly transactional while giving human consideration to each other.
And a large part of the off-classroom learners may begin to objectify the grants that they may have received.  and then act psychopathic on occasions .

The insincerity may become a cultural-attitude , between the classroom-learners and the off-classroom learners. The transactional type relationship would pervade through the society all over.

In my views , the caselets should also send out the lessons that leadership should not cultivate a highly transactional relationship lesson within the learners, in regard to conducting oneself with human consideration with the fellow seaman . One must not forget, in his haste to practice his leadership courseware , to act human with the subordinate in a genuine and sincere manner.

Also, the Motivation function should be prevented from becoming trapped with the 'velvet gloves'" conducts and the "iron fist" conducts .

In my own experiences at sea, where i have worked with slim-manned crew, just around 17 or so , on product tanker ships, and of multinational denomination, I believe that cultural barriers , understanding the cultural Mooring of the people , is more important knowledge in order to get the tasks onboard the ship accomplished .

In my thinking , a free, willing and a submissive person is the best type that we can have on board , both in the leadership roles and the followership roles.

The common mis-knowledge that courseware on leadership and the managerial style brings about with it is that it teaches that the leadership personality should be dominating type , and the followership personality should be submissive type. Consequently, the courseware advocate and promotes the proverbial   wolf-and-lamb combination , wherein more mishaps occur on ships , misconducts and inter-personal troubles are reported on board, and the unwilling , reluctant crew is seen on ships which results into more of Machinery failures due to improper maintenance, under the effect of crew or the officer Playing truant from work.

The real challenge on board , in my view, is to get the free-willing persons on board, those types  who would be ready to contribute their sweat on their own motivation . Towards this, a soft natured officers are important to be present in the senior capacity whose conducts with the submissive crew should not put off the latter.

Filipino crew, i see, are more submissive and high -rated in their sincerity towards work . This is perhaps because of the religious -cultural upbringing that they receive.

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By pitting the humane behaviour of the velvet gloved Captain Dayal against the cause of his self-anxiety that he is losing grip over the crew,

The caselet has done a huge damage to the society because the society is induced to think that IN A good , balanced leadership even the humane consideration should be used with transactional motives !

That is a huge , irreparable damage done to the social and moral values of the  society, by such caselet studies.

The effect that the study material being around is somewhat like it immunizes the population to view even the human consideration acts with suspicion. Thus  , in our society the well is dried up from where the genuine motivation could have been drawn. 

Plus, the caselet, by using the humane conduct as a weak sign of leadership , weakens the case of using human behaviour for the purpose of inspiring and motivation in the situations where the  Transformational leadership is required. The caselets , unbeknownst, promotes the Transactional leadership as the only and the best style.

It so happened that in the past that one Changez Khan, the greatest conqueror of Human history , and therefore undeniably a great leader of his time, made his military achievements by way of establishing a fear among his rivals and his own armies alike. The fear was showed by acting too cruel and inhuman with the enemy whom he attacked as a looter and a plunderer. He is know to straight off behead the innocent people in large hordes overnight , which established his strongly fearful image in the population.  It thus came to be understood within the military that fearful image is the best source of motivation and therefore the leadership .
The caselet studies promotes the case but the a convoluted angle. It advocates that the being human is a weak leadership . 

But the truth of the modern democratic society is that Fear cannot and should not be given any place for exercising of the Control within the business organizations in order to be a genuine achiever. 

Teaching of Civics and History to the students in India - a defect in our education system

 In the Education System, we are spending more energy in teaching the history around the development of the Constitution, which unfortunately doesn't bear any lessons or perspective to reveal to the learners the foundation of those legal principles which are enshrined within the Constitution.


Thus, we are not spending a single dime of efforts to ensure the robust implementation of the Constitution by our generations. Instead we are spending energy to teach those topics and events of our History which can , at best, be used to Itch the old wounds and make them worse.


I am firmly of the opinions that secondary school level teaching must bring certain changes in the curriculum of  History and Civics, and start teaching about the foundation /history behind the Legal Principles by which the high ideals of the Constitution can be implemented by the students by practising the values in their day today lives.


The workplace harassment, the unfairness is a very casual event within the Indian social space . And these things are happening because the Indian laws are still too much lacking to protect the innocent , to prevent the harassment. Justice , within Indian set-up , is repeatedly becoming Political, rather than procedural . That is why "politics" or an undesired clubbing of people happens in order to protect their interest against those whom perceive as the offender.


And why is the Justice always political in an average Indian social Club? 

Because people do not have basic knowledge of the Judicial principles by which they should conduct their business and professional relationship .

Fake News और Fact Check में भी जालसाज़ी की strategy

 *Fake News और Fact Check में भी जालसाज़ी की strategy !* 


आजकल IT Cell वालों की एक startegy यह भी है कि खुद ही झूठ फैला कर फिर उसका fact check करके "भंडाफोड़" कर लो, जिससे कि खुद सत्यवान साबित हो जाओ !!


अर्रे, कभी कभी तो एक स्ट्रेटेजी के तहत ऐसा भी करते हैं कि झूठ फैलाते हैं और फिर ख़ुद ही उसे fact check में पकड़वा  करके fact check में ही नया झूठ फैला देते हैं ! यानी fact chcek में ही झूठ फैला दिया, जिससे लोग और ज्यादा विश्वास के साथ झूठ पर विश्वास कर बैठें !!


😁😁


गज़ब चालाक लोग है

भारत में 'कानून' और 'धर्म' में संबंध नही है

 कानून और धर्म में संबंध नही है। जो की विचित्र बात है।

कानून का संबंध roman canons से है, धर्म(dharmic faith) से नही है। ये वो बड़ी बात है जो की आधे से ज़्यादा भारतीयों की बुद्धि में घुस नही रही है !
कानून शब्द का आगमन तुर्की भाषा में से होता है, और यह समाज में सही और ग़लत की मर्यादाओं को प्रतिबिम्बित करता है। मगर कौन से समाज ? रोमन प्रथाओं वाला समाज।

भारत में जाहिर है कि कानून अपनी मूल रचना में नही मिल सकता था
उसके स्थान पर भारत में धार्मिक मर्यादाये थी।

जो कुछ भी रोमन विचारधाराओं से प्रभावित समाज में सही और ग़लत हुआ करते थे, उनमे से ग़लत को घटने से रोकने के लिए समाज में canons आये। वही तुर्की भाषा में कानून कहलाये ।

एक अन्य मिलता जुलता शब्द cannon का अर्थ होता है तोप से। कृपया confuse मत होइएगा।
रोमन समाज बाद में ईसाई धर्म के अन्तर्गत चले गये। इसलिये हम केह सकते हैं कि ज्यादातर कानून ईसाई धर्म के स्थापित मानक वाले सही और ग़लत में से निकलते हैं। कहने का मतलब है कि उनका संबंध भारत की धार्मिक मर्यादाओं से नही है।

शायद अब हम समझ सके कि भारत में कानून का पालन कमज़ोर क्यों होता है ? सीधा जवाब है, कि कानून तो भारतीय समाज में जाना ही नही जाता है ! इसका भारत के native धर्म , पौराणिक धर्म, से सम्बन्ध ही नही है !
तो जब सवाल उठता है कि "फंलाना कर्म में ग़लत क्या है?", तब जवाब पल पल यही मन में आता है कि "कुछ भी तो नही!" । भाई मर्यादाओं को भारतीय मानव स्वचेतना से जान लेने का काबिल है, मगर "ग़लत" का कैसे हो सकता है?! भारत भूमि का आदमी कोई roman थोड़े ही है !

यह होता होगा कि रोमन कानून में किसी को सज़ा केवल राजा ही दे सकने का अधिकार रखता है, और सज़ा से पूर्व एक न्याय पालिका के समक्ष सवाल जवाब किये जाएंगे, जहां प्रमाण देने होंगे, दोनों पक्ष बराबर होंगे और यहाँ तक की राजा की पुलिस का पक्ष भी आरोपी के बराबर का स्थान ही रखेगा !

मगर यह सब भारतीय मर्यादाओं के अनुरूप नही है। भारत में "धर्म" है। यहाँ पहले किसी का "वध" या "संहार" किया जाता है, और फ़िर लेख/ग्रंथ लिख-लिख कर उसका चरित्र हरण करके उसे अधर्मी,विधर्मी साबित कर दिया जाता है। यहां कोई न्यायपालिका नही होती है। जहां सज़ा से पूर्व यह कार्यक्रम किया जाये। और सबसे बड़ा खोट - कि, कैसे राजा की पुलिस का स्थान किसी आरोपी के बराबर का हो सकता है ?!!

नही , न?

Post Truth राजनैतिक संस्कृति और समाज में व्यापक मनोविकृति

 Post Truth वाली राजनैतिक संस्कृति अपने संग में व्यापक मनोविकृति भी ले कर आयी है। 


लोग और अधिक अमानवीय, क्रूर, शुष्क, कठोर और आक्रांत व्यवहार करने लगे है एक दूसरे से।


ऐसा क्यों? क्या संबंध होता है राजनैतिक व्यवस्था का समाज की व्यापक मनोअवस्था से? क्या अत्यधिक छल वाली राजनीति अपने संग व्यापक मनोविकृति ले कर आती है?


Post truth की मौजूदा राजनैतिक संस्कृति ने सत्य और न्याय के परखच्चे उड़ा कर रख दिये हैं। कभी भी, कुछ भी सत्य अथवा असत्य साबित किया जा सकता है, चाहे वह कितनों ही भीषण विपरीत बोधक क्यों न हो।  

ऐसा हो जाने से लोगों की व्यापक मानसिकता पर क्या असर आता है?

लोगों को आशंका और भय सताने लगता है! लोगों को यह "जागृति" आती है कि सत्य से ज़्यादा आवश्यक होती है नेता के प्रति निष्ठा । सत्य अब विस्थापित हो जाता है निष्ठा और चापलूसी से। लोगों का समझ आने लगता है कि यदि वह चापलूसी नही करना चाहते हैं तब उनको जीवन जीने का एकमात्र तरीका है कि "अपने को बचा कर चलो। वरना पता नही कब कहां तुन्हें फँसा दिया जाये और तुम कितने ही सही क्यों न हो, प्रशासन यदि तुमसे खुस नही है (क्योंकि तुमने उनकी खुशामद यही करि थी) तब तुम्हे वह आसानी से ग़लत साबित कर देंगे। यह post truth प्रशासन है, जहां सत्य वह है जो प्रशासन को पसंद है। और ऐसे में आपका सही होना तो कोई ममतलब ही नही रखता है"।


यह जो ऊपर वाली विचार शैली है, अंग्रेज़ी भाषा में इसे cynicism बुलाते है। संक्षेप में बोल तो, लोग cynicism पर उतर आते है।।cynicism ही उनके हर निर्णय और कर्म को प्रोत्साहित/हतोत्साहित करता है। कल को किसी सड़क दुर्घटना में किसी की मदद करेंगे तो क्या भरोसा कहां किस पचड़े में फंस जाएं।

पता नही कब कहां आपको फसाया जाये किस ग़लती के लिए, किस अमुक घटना में।


कोरोना महामारी के आरम्भ के महीनों में यही सोच लोगों को और अधिक अमानवीय बनाती रही थी। मानव शव बहोत बुरी तरह से उठाये गये थे, उनका सम्मान नही हुआ है। मृतकों के परिजनों को कठोरता से वियोग में रोका गया और प्रतिबंधित किया गया। 


नतीज़ा क्या हुआ है?

एक व्यापक भय और cynicism मनोविकृति का प्रसार। की कब कहां हमारा भी नम्बर न लग जाये? 

तब लोगों ने अपनी जान के बचाव के लिए क्या कदम उठाये? और कठोरता और अमानवीयता से , निष्ठुरता से अपने पड़ोसी से पेश आना शुरू कर दिया। उनके मन की आशंका थी कल को वह फंस गये तो क्या भरोसा कोई उनकी मदद को आयेगा भी की नही? यही आशंका उनके आचरण को तय करने लग गयी।


प्रशासन भी कोई मददगार नही रह गया था। वह तो उल्टा आपके ही पीछे हाथ धो कर पड़ जा रहा था , और आज भी है। कहीं गलती से भी कोई उल्टा angle निकल आया, तब तो गोदी मीडिया और फ़िर प्रशासन, आपके हालात को उल्टा कर सकता है। यही सोच लोगों के दिमाग में हावी हो गयी है।


Post truth की राजनैतिक संस्कृति ने इस तरह से समाज को बर्बाद करना आरम्भ कर दिया है, व्यापक स्तर पर।

खेती संबंधित विधेयक और समाजवादी मानसिकता

 खेती संबंधित विधेयक में मोदी सरकार के विचार इतने ख़राब नही है, हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर इस विधेयक के मूल विचार किसी भी समाजवादी मानसिकता के समाज मे आसानी से उतरने वाले नही है।


समाजवादी मानसिकता मौजूदा युग मे विकास के पथ की सबसे बड़ी अवरोधक है। समाजवादी लोग वो होते हैं जो व्यापार, उद्योग और विज्ञान को अपने आचरण में उतारने में पिछड़े होते हैं। वह अपने बच्चों को विज्ञान पढ़ाना पसंद तो करते हैं, मगर यदि वही विज्ञान जीवन मे उतारना पड़ जाए, तब वह विरोध करने लगते हैं।


खेती और मौजूदा समाज का विषय देखिये ।बढ़ती हुई आबादी का पोषण कैसे किया जाएगा, ताज़ा, cancer रोग तत्वों से मुक्त organic अन्न कैसे उपज किया जाएगा बड़ी मात्रा में ताकि बड़ी आबादी का पोषण किया जा सके, पशुओ से meat आहार , दुग्ध कैसे प्राप्त होगा ताकि बाजार को मिलावटी दूध और मिठाइयों से मुक्ति मिल सके, यह सब के सब प्रश्न समाजवादी "पिछड़ी" बुद्धि के परे चले गए हैं। 

तो समाजवादी सोच में खेती को उद्योग बनाने की अक्ल थोड़ा सा मुश्किल हो गयी है। कैसे और क्यों निजी कंपनियों या की सहकारी समितियों को आमंत्रण देना आज की आवश्यकता हो गयी है, भविष्य को संरक्षित करने के लिए,इसकी विधि को समझ लेना समाजवादी सोच के लिए मुश्किल पड़ने लगी है।


निजी कंपनियां असल मे किसान की partner के रूप में बाजार में उतारने की तैयारी है, न कि उद्योग स्वामी के रूप में। क्यों? क्योंकि खेती उद्योग के लिए आवश्यक संसाधन - भूमि और श्रम- वह तो दोनों ही किसान के ही पास में हैं ! कंपनि तो मात्र बाजार संबंधित marketting कौशल लाएगी, या कि खेती में उच्च वैज्ञानिक तकनीक , मशीन संसाधन इत्यादि को एकत्रित करेगी ! 


अब यही बात एक समाजवादी मानसिकता के दृष्टिकोण से देखिए और अपने अंदर में क्रोध , आक्रोश को पलते हुए खुद को महसूस करिये। :--

-  "किसान को minimum price सुनिश्चित नही रह जायेगी"।

--  " किसान कंपनी के विरुद्ध कोर्ट में नही जा सकेगा।"

---  " किसान अपनी ही जमीन पर मज़दूर बना दिया जाएगा।"

---- " किसान की ज़मीन हड़पने की तैयारी है।"

--- "किसान की जमीन बड़े बड़े धन्नासेठों को सौंपने की साज़िश हो रही है।"


सच मायने में सोचें तो मोदी सरकार की नीति खराब नही है। नियत भले ही ख़राब हो, कि उत्तर भारत के "समाजवादी" और "सरकारीकरण" मानसिकता के लोग इससे पहले की उद्योग और व्यापार को समझ सकें, इसकी आवश्यकता को बूझ सकें, मोदी जी के गुजरात के उद्यमी मित्र पहले ही बाजार पर कब्ज़ा करके monopoly बना चुके होंगे !

फ़िल्म actor , राजनैतिक पार्टी विवाद और तंत्र में political neutrality की कमी

 critically speaking, यह जितना भी ड्रामा चल रहा है भाजपा से समर्थित कंगना रनौउत और शिवसेना के मध्य में, इसका सिर्फ और सिर्फ एक ही मूल कारक है -- कि , तंत्र में political  neutrality  नहीं है ! 

भारत के संविधान में एक अभिशाप दिया हुआ है अपनी तमाम खूबियों के बीच में।  वह यही है -- कि , तंत्र में शक्ति का पर्याप्त विभाजन करके संतुलन नहीं किया गया ! इसके परिणाम गंभीर निकले  ७० सालों की तथाकथित "स्वतंत्रता" के बाद, कि  वास्तव में प्रत्येक नागरिक की आत्मा आज भी बंधक है तंत्र की !! --गुलाम

bmc  जो की शिवसेना+भाजपा द्वारा नियंत्रित है, उसकी कार्यवाही की टाइमिंग वाकई में संदेहास्पद है।  यदि हम नागरिकों ने यह संदेह नहीं उठाया तो फिर  इसके प्रजातंत्र व्यवस्था पर गंभीर नतीजा होगा --!! 

क्यों ?

क्योंकि, प्रत्येक नागरिक कहीं न  कहीं कुछ न कुछ छोटी मोटी गलतियां तो ज़रूर करता है।  होगा क्या, कि  तंत्र आपकी गलतियों की पर्ची बना जेब में रखा रहा करेगा, और -- क्योंकि तंत्र में political  neutrality  पहले से ही नहीं है -- तो वह अपनी मनमर्ज़ी से कभी भी आपके नाम की पर्ची निकल कर आपको प्रताड़ित करता रहेगा !!

संजीव भट्ट का केस देखिये !! २० साल पुराने मामले में अब जा कर कार्यवाही करि गयी है ! 

बात साफ़ है -- कि  तंत्र में काबलियता है --psychopathic  तरीके से sadistic  pleasure  लेने की। मनमर्ज़ी से तथकथित "न्याय " को चाबी आपके खिलाफ घुमन कर आपको , आपके ज़मीर को , आपके अन्तरात्मा की आवाज़ को दमन कर सकता है !!

1950  में तो सिर्फ संविधान आया था , कानून तो वही सब पुराने वाले ही रह गए थे !! वही वाले कानून (acts ) जो की 1857 की ग़दर के बाद से सैनिको और बाबू शाही  में अन्तर्मन की आवाज़ को दमन करने के उद्देश्य से व्यूह रचन करे गए थे - कि , दुबारा कोई ग़दर न हो ! 

लोग वही व्यवस्था अनुभव करते आ रहे है। . और इसलिए पैदाइशी psychopath  होते है -- sadistic  pleasure  लेने वाले ! उनको political  neutrality  की गड़बड़ मानसिक तौर पर समझ  ही नहीं आती है।   शायद उनके IQ  के ऊपर चली जाती है बात !

अब केंद्र में बैठी सर्कार ने भी सोच समझ कर , political  neutrality  की कमी का फायदा उठा कर Y + category  की सुरक्षा मुहैय्या करवाई है ! शिव सेना के क्रोध को कंगना के बोल उबालेंगे , और शिवसेना गुंडागर्दी की अपनी पुरानी छवि की कैदी खुद ही बनती चली जाएगी !!! उसके वोट कटने लगेंगे !

game  सीधा सा है !

मगर वास्तव में यह game नहीं है , यदि आपमें वह तंत्रीय psychopathy  से खुद को बचा सकने की क्षमता हो तो ! यदि आप वाकई में प्रजातंत्र के हिमायती है, आपको EVM से दिक्कत है, तब आप इस "game " को मज़े लेते हुए नहीं देखें।  इसके माध्यम से तंत्रीय गड़बड़ को समझें।

भारत का संविधान और Work Place fairness की कमी

 भारत का संविधान और Work Place fairness की कमी 


मेरा अपना मानना है कि  इस देश में प्रजातंत्र अपने वास्तविक रूप में अस्तित्व ही नहीं करता है ।  जो है, वो छद्म प्रजातंत्र हैं।  जैसे , छद्म secularism  भी है।  कांग्रेस पार्टी ने ७० सालों के शासन के दौरान सभी राजनैतिक आस्थाओं का छद्म रूप इस देश की संस्कृति में प्रवेश करा कर संविधान को भीतर से खोखला कर दिया है। संविधान के शब्द हैं, मगर उनमे आत्मा नहीं बची है।  


मगर कांग्रेस सीधे जिम्मेदार नहीं है।  ब्राह्मणवाद जिम्मेदार है।  कांग्रेस जनक है ब्राह्मणवाद की।  ब्राह्मण वर्ग की नीति और सोच अक्सर राष्ट्रवाद का चोंगा पहन कर कार्य करती है, ठीक वैसे जैसे मंदिरों में राम नाम की चोली पहन कर और जनेऊ का धागा बांध कर के नगरवधू के मज़े लेते थे, शूद्रों का दमन , शोषण किया करते थे।  "अनुशासन" प्रथा ब्राह्मणी सोच की कमी और अवगुण है। वह लोगों को अपनी सोच और मानस्कित के "अनुशासन" से समाज को चलाना  चाहते थे, और आज भी हैं।


अंग्रेज़ों ने 1857 के ग़दर के बाद वैसी सैनिक ग़दर की पुनरावृति से बचने के कई उपाए लगाए थे।  यह जो अनुशासनिया व्यवस्था है, यह वही की देन है।  लोग अपनी अन्तरात्मा से कार्य करने के लिए बचपन से ही मनोवैज्ञानिक अवरोधित है।  क्योंकि अतीत के रेकॉर्डों पर दर्ज़ अनुशासन कार्यवाही के किस्सों ने उन्हें पैदाइशी सन्देश दे दे कर अवरोधित किया हुआ है।  अँगरेज़ भारतीयों को सख्त "अनुशासन " अर्थात अपनी अंतरात्मा की धवनि को अनदेखा करते हुए आज्ञा पालन करने के लिए प्रशिक्षित करते थे।  इसे वह "अनुशासन" बुलाते थे।  ऐसा करने से सैनिक ग़दर के लिए दुबारा कदाचित संघठित नहीं सकते थे।  !  


1947 की आज़ादी के बाद यह अनुशासन का शब्द ब्राह्मणवाद की मानसिकता से मेल खा गये।  ब्राह्मणों ने कोर्ट पर कब्ज़ा किया, उच्च पदों पर कब्ज़ा किया।  और अनुशासन कार्यवाहियों के कारनामों से देश के जन  प्रशासन में से political  neutrality  ही नष्ट कर दी। इसके बाद से लोगों को कार्यालयों में गुट  बना  कर ही लाभ मिल सकता था।  यही workplace politics कहलाती है।


उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति का आरम्भिक जन्म ऐसे ही हुआ।  workplace politics । ये जो  "समाजवादी" मानसिकता की पार्टियों का जन्म है, यह ऐसे ही  प्रताड़ित लोगों से हुआ है, जो कार्यालयों में अनुशासन प्रक्रिया से त्रस्त थे, और इसका दोषी किस उच्च पद पर बैठे  "ब्राह्मण " को मानते थे , जो की उनकी बात को सुनता नहीं था, और उनके संग न्याय नहीं करता था। promotion  और posting , transfer  और leaves  के मामले में , disciplinary  एक्शन  की कार्यवाही में।  ऐसे  प्रताड़ित लोगों को जब लगाने लगा की नारायण दत्त तिवारी की सरकार  को हटा करके ही अपने हितों की रक्षा करने के लिए मार्ग बन सकता है, तब इस देश में "बहुजन समाज" , और "समाजवादी " विचारधारा वाली पार्टियों को जन्म हो गया , इन्ही प्रदेशों में।  


मगर तथाकथित "ब्राह्मणवाद" का निराकरण आज भी नहीं हो सका है. क्योंकि इन पार्टियों ने तो सिर्फ ब्राह्मणो को स्थानांतरित करके उनकी जगह अपने लोग बिठाने का कार्य किये था , procedural  fairness  को प्रसारित करने हेतु कुछ भी नहीं किया।  


 नतीजा क्या हुआ ? समाजवादी सत्ता में आये , उन्होंने खीर चट  करि , और संघी भूखे पेट देखते रह गए।  और फिर संघी आ गए , उन्होंने खीर चट  करना शुरू किया , और समाजवादी भूखे पेट देख रहे हैं।  यह चूहे -बिल्ली का खेल चालू है तब से।  


और workplace  fairness  लाश बानी पड़ी है आज भी, -- वो जिसमे आज़ादी की आत्मा बसनी चाहिए थी आज़ादी के उपरांत।  और जब आज़ादी की आत्मा का आगमन ही नहीं होगा प्रत्येक इंसान के भीतर में , तब फिर संविधान को लूट लेना, बर्बाद कर देना तो बाए हाथ का खेल बन ही जाएगा। और समाज एक सही खिलाडी के आने का इंतज़ार करेगा की कोई आये और उड़ा दे धजज्जिया !


 नरेंद्र मोदी और संघी वही top खिलाडी है, संविधान की धज्जियाँ उड़ाने वाले।

अभद्र बोल वाले भोजपुरी गीत -- क्या भाषा जनित भेदभाव का मुद्दा है , या की यह नज़ाकत और नफासत की कमियां है ?

 सुशांत सिंह राजपूत विषय में से एक और सामाजिक तथा क्षेत्रीय संस्कृति विषय सामने निकल कर बाहर आया है।

The Print समाचार पत्रिका के लिये कार्य करने वाली पत्रकार सुश्री ज्योति यादव जी ने संदिग्ध रिया चक्रवर्ती के लिये प्रयोग किये गये आपत्तिजनक शब्दों का मुआयना किया और अपनी तफ़्तीश का कोण यह रखा है कि आखिर क्यों सुशांत तथा उनके परिजनों में मधुर संबंध नहीं थे । रिया चक्रवर्ती के लिए प्रयोग किये गये आपत्तिजनक शब्द अधिकतर सुशांत के fans और भोजपुरी-भाषी समर्थक पक्ष से आये हैं, जिनमे रिया पर काला जादू , बंगालन जादूगरनी इत्यादि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किया गया है ।


पत्रकार सुश्री ज्योति यादव जी (मूलनिवास हरियाणा) का लेख प्रत्यक्ष तौर पर रिया के बचाव में तो नही हैं, हालांकि यह सुशांत के परिजनों के सम्बंधो को कुछ सामाजिक और क्षेत्रीय चलन के आधार पर मुआयना करता है, कि कहीं सुशांत , उनके पिता और अन्य परिजनों में मधुर सम्बद्ध नही होने का कारण "वही पुराना" मानसिकता का कारण तो नही है जो कि उत्तर भारतीय परिवारों -- विशेषतौर पर बिहारी परिवारों में - देखने को मिलता है - एक आदर्श पुत्र श्रवण कुमार का खाँचा-- जब माता पिता अपने पुत्र को एक श्रवण कुमार के खांचे में से देखते हैं - और पुत्र को स्वायत्ता में जीवनयापन को समझ नही पाते हैं, उसकी अपनी पसंद की girl friend को स्वीकार नही कर पाते हैं - , तथा लड़की से तथा पुत्र से सम्बद्ध विच्छेद हो जाता हैं।


ज्योति यादव , पत्रकार, इस प्रकार के पारिवारिक माहौल को toxic यानी ज़हरीला कह कर पुकारती हैं, जब पुत्र को श्रवण कुमार के खाँचे में बड़ा किया जाता है, लालन-पालन किया जाता है, मगर वह बड़ा हो कर स्वायत्ता भरे आचरण से जीवन जीने लगता है, और तब मातापिता उस पर "बुढ़ापे में देख भाल नही करने " का दोष मढ़ने लगते हैं।

वह अपने पुत्र की big-city girlfriend को स्वीकार नही कर पाते हैं। और यदि ऐसे में ग़लती से भी उनके पुत्र को कुछ हो जाये तब ज़ाहिर तौर पर, सारा दोष उस girl friend को दिया जाना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानी जा सकती है, इन toxic परिवारों के परिजनों की।


इस बीच हुआ यूँ कि भोजपुरी भाषा क्षेत्र से काफ़ी सारे भोजपुरी भद्दे ,फ़ूहड़ गायकों ने तमाम गाने रिया को खरीखोटी सुनाने के लिए निकाल दिये हैं। 


बड़ी सवाल यह है कि क्या ज्योति का प्रस्तुत किया गया दर्पण उचित है सुशांत और उनके पिता तथा परिजनों के संबंध को टटोलने, तथा समझने के लिए ? कम से कम, जिस प्रकार से ज्योंति ने बिहारी-भोजपुरी समाजों और परिवारों के प्रति toxic (जहरीले) माहौल का चित्रण किया है, इस भोजपुरी गानों में रिया के प्रति लिया गया नज़रिया तो यही प्रस्तुत करता हैं।


एक अन्य सवाल खुद भोजपुरी भाषा के गानों में प्रयोग किये जाने वाले फ़ूहड़/ भद्दे शब्दों का भी बनता है। हो यह रहा है कि संभवतः भोजपुरी समाज बौद्धिकता के इस शिखर को अभी तक प्राप्त नही कर सका है जहां pornography और erotica के बीच में अन्तर रेखा के अस्तित्व को स्वीकार किया जा सके। बल्कि एक बौड़म , मंदबुद्धि शैली में भोजपुरी समाज अपने इस भद्दे और फ़ूहड़ "संगीत" को भाषा जन्य विषय बता कर के आरोप दर्शकों और श्रोताओं पर ही लगा दे रहा है कि बैरभाव उनमें ही है कि English में गंदे शब्दों को स्वीकार कर लेते हैं, जबकि वही बात जब हिन्दी/अथवा भोजपुरी में कही जाती है, तब भद्दा/फ़ूहड़ होने का दोष मढ़ देते हैं !


तफ्तीश का सवाल , जो की जनचेतना में से विलुप्त है -वह यही है कि भोजपुरी भाषा के गीतों में दिखाई पड़ने वाला यह विवाद क्या भाषा-जन्य भेदभाव का विवाद है, या फ़िर नज़ाक़त/नफ़ासत की बौद्धिक अप्रवीणता है ? 


सवाल जनता के court में है - सवाल जनचेतना के समक्ष रखा जा चुका है

The amount of interest that the Common people put in the Justice Karnan matter and Prashant Bhushan lawsuit matters -- the difference in the amount is NOT an outcome of the society's prejudicial leanings

The amount of interest that the Common people put in the Justice Karnan matter and Prashant Bhushan lawsuit matters -- the difference in the amount is NOT an outcome of the society's prejudicial leanings 

Dilip Mandal ji is apparently not able to judge with a high resonating conviction, whether Justice Karnan matter was a case of personal incompetence, or of prejudice and discrimination !

What part of the Justice Karnan episode is bearing the Discrimination angle, Dear Mandal ji must make-up his mind on that and refrain from spreading Caste-based prejudice without sufficient logical backing on prejudice aspects of the case matter from those angles where there is none !

In summary, the Dilip Mandal ji 's tale is becoming like a short story , where a stupid man in a Fools' country is crying out how people are being racially prejudiced towards him by not buying and eating the poison from his shop, whereas few "high caste others" are selling that same poison which everyone is so pleasingly buying and eating !

That is how stupid the Discrimination claim and the approach has become .

Justice कर्णन और प्रशांत भूषण मामले में क्या भिन्नता है ?

 सच मायने में दिलीप जी का लेख , जब वह प्रशांत भूषण और जस्टिस कर्णन मामले में समानता देख लेते हैं , भिन्नता नहीं,

तब दलित और पिछड़ों की बेवकूफ़ी का खुलासा होता है ! जब तक दलित और पिछड़ा इतने rational न हो जाएं की court को प्रक्रियों और उनके तर्कों को न समझ ले, तब तक दलित और पिछड़े यह तथाकथित "भेदभाव" झेलते रहेंगे ! जो की वास्तव में तो दलित-पिछड़ों की बौद्धिक अयोग्यता होगी !
Justice कर्णन ने पहले तो एक गुप्त पत्र लिखा था, खुद सर्वोच्च न्यायालय की जजों को ही भेज दिया था ! जबकि प्रशांत भूषण के ट्वीट का मामला था। यानी भूषण ने सीधे आमआदमी (जनता) के समक्ष बात रखी थी, न की private पत्र में !!
भूषण जनहित मामले के लिये जगप्रख्यात व्यक्ति हैं। दलित पिछड़ा वर्ग में देशहित, जनहित, इत्यादि के लिए ऐसे लड़ने वाला कोई शायद विरले ही मिलेंगे !
Justice कर्णन पहली बार जनता में नज़र ही आये जब उनको सज़ा सुनाई गयी
कर्णन जी ने सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय के आमंत्रण तक को नकार दिया था, और सज़ा तो उनके इसके उपरान्त दी गयी। यानी कर्णन जी अडिग खुद ही नही थे, न ही लड़ने को तैयार थे ! court को प्रक्रियात्मक गलतियां करने के लिए set ही नही होना पड़ा ! जबकि भूषण अडिग रहे, और मामले को आगे बढ़ाया, जिसमे court ने procedural गलतियां कर दी है, जैसे कि suo moto मामले को पकड़ना, closed door sitting करना, और सबसे बड़ी, freedom ऑफ speech का मामला, क्योंकि भूषण जी ने तो tweet किया था, कोई letter वगैरह लिख कर शिकायत नही करि थी !!
प्रिय मंडल जी,
मेरा विचार है कि हमें सामूहिक तौर पर rational thinking को निखार लाने की ज़रूरत है।
मेरे अनुसार कर्णन मामले में एक ही बड़ी गलती हुई है सामूहिक तौर पर - कि, जज चेलामेस्वर साहब को कर्णन जी को सज़ा देने के लिए रज़ामंदी नही देनी चाहिए थी !
धन्यवाद

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