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"राजनीति" शब्द मूल पर एक विचार

जन संवाद में प्रयोग होने वाला शब्द "राजनीत" एक भ्रामक है।

राजनीत का मूल शब्द-विचार है 'राज्य चलाने की नीतियां'।
आदर्श स्थिति और वातावरण में नीतियों का निर्माण करने हेतु विभिन्न विचारों को संगृहीत करा जाता है, विचार विमर्श होतें हैं, सही और गलत, उचित और अनुचित विचारों में भेद करने के लिए इन विचारों के प्रतिनिधि आपस में वाद-विवाद करते हैं , तर्क भेद होते हैं, और इस प्रकार की विधियाँ प्रयोग होती हैं।
इस क्रिया में भिन्न-भिन्न विचार, पर्याय शब्दम 'मत', वाले दल उत्पत्ति में आते हैं।
इन तमाम क्रिया और पद्दतियों का परम उद्देश्य होता है जन कल्याण।

विचार-विमर्श और वाद विवाद के लिए स्थाई, और जन-सुलभ स्थान, कक्ष अथवा गृह निर्माण करवाया जाता है--जिसे संसद कहते हैं।
गौर करे तो न्यायलय और संसद में यह समानता है की वाद-विवाद दोनों स्थानों का स्थाई उद्देश्य होता है।
शायद इसी लिए अधिवक्ता और वकीलों का प्राकृतिक झुकाव राज्य की निति निर्माण में होता है। वैसे भी, नीतियाँ न्यालयों के वाक्यों को प्रभावित करतीं हैं, और न्यायालयों के वाक्य नीतियों को।

हम वर्त्तमान में अपने आसपास जो आभास कर रहे हैं यह उस मूल विचार राजनीति से बहुत अलग है।
इसलिए क्योंकि यह दल अब नैतिकता को त्याग कर कूटनीति का प्रयोग करते हैं अपने मत को शासन शक्ति के प्रयोग का कारक बनाना चाहते हैं (अपने हितों के अनुसार देश की नीतियाँ बनवाना चाहतें है, न्याय, नैतिकता और जन-कल्याण की दृष्टि से नहीं)।

'राजनीतिकरण' का अर्थ हुआ भिन्न-भिन्न मतों/विचारों का प्रतिनिधित्व करते हुए दलों से सम्बद्ध हो जाना, और कूटनैतिक विधि(जैसे छल, असत्य, पाखण्ड, आपराधिक, भ्रष्टाचारी, अनैतिक) का प्रयोग करके अपने दल का प्रशासनिक शक्ति(स्त्तारूड़) प्राप्त करना।

उद्धाहरण का वाक्य : पुलिस का 'राजनीतिकरण' होना।
भावार्थ: पुलिस कर्मियों का अपने वास्तविक कर्तव्यों से विमुख हो कर किसी न किसी सत्ता प्रतिस्पर्धी दल से सलग्न हो जाना और कूटनैतिक पद्दतियों को प्रयोग करना, अथवा सहयोग देना, और फल स्वरुप अपनी पद्दोनति अपने सहकर्मी की उपेक्षा की कीमत पर प्राप्त करना।

अंग्रेजी भाषा का शब्द Realpolitik वर्तमान की स्थिति को दर्शाने के उपयुक्त शब्द हैं।

अधर्म, दल-गत कूटनीति, और समाज में व्याप्त गरीबी तथा अपराध

क्या आपने कभी टीवी पर आ रहे महाभारत धारावाहिक को देखा है?
श्री कृष्ण बार-बार अर्जुन को धर्म का ज्ञान देते समय 'सृष्टि' , 'समाज' और 'प्रकृति के नियम' जैसे शब्दों का प्रयोग करते सुनाई देते हैं। क्या सम्बन्ध, क्या प्रसंग है इन शब्दों का धर्म के साथ? कभी सोचा है?
    प्रशासन नीति में यह शब्द जन कल्याण(public welfare), सामाजवाद(socialism) और साम्यवाद (communism) के विचारों का स्मरण कराते हैं। धर्म का सम्बन्ध एक अकेले मनुष्य से नहीं है , वरन् मनुष्यों के समूह से है। और धर्म तभी होता है जब पूरे समूह पर नीति एक समान क्रियान्वित होती है, किसी भेदभाव पद्दति से नहीं। अर्थात न्याय ही धर्म है। और धर्म तभी होता है जब सबका उत्थान एक साथ होता है।
   इन्टरनेट पर एक विचार अक्सर सुनने को मिलता है- जिसमे एक प्रोफेसर अपने छात्रों को एक परीक्षा पत्र देता है। फिर उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने के उपरान्त वह सभी छात्रों के अंकों का औसत निकाल कर सभी को एक समान अंक दे देता है। इससे कुछ मेहनती छात्रों के अंक कम हो जाते है, और आलसी छात्रों के अंक बढ़ जाते हैं। कहानी अपने पाठकों पर यही प्रभाव छोड़ती है की प्रोफेसर का ऐसा करना अधर्म-पूर्ण था, और अन्याय था। यह क्रिया प्रशासन नीति में समाजवाद जैसे विचारों के समतुल्य थी, और इस प्रकार समाजवाद भी एक अधर्मी विचार है।
     ऊपर लिखी कहानी श्रीकृष्ण के बताये धर्म के ज्ञान से थोडा विरोधाभास में है। क्योंकि इसके निष्कर्ष के अनुसार तो कोई भी जनकल्याण कारी कार्य किसी न किसी के साथ अन्याय होगा और अधर्म करेगा ! यह विचार इस कहानी में लिप्त भ्रान्ति की सूचना देता है।
   विचार करिए की प्रोफेसर उन उत्तर तालिका के अंकों के अनुसार ही छात्रों को आगे की कक्षा में प्रवेश देता है। और वह ऐसा असंख्य बार करता है। तब फिर एक दीर्घकाल में उस कक्षा में कितने छात्र उपलब्ध होंगे? क्या उत्तर है? एक? तो क्या एक छात्र से भी कोई कक्षा बनती है? जी हाँ, जब एक ही छात्र रह जायेगा, तब वह कक्षा ही नष्ट हो जायेगीं । इन्टरनेट की कहानी में अर्धसत्य है। प्रोफेसर को छात्रों के अंकों का औसत करना अन्याय तो है, मगर कमज़ोर और पिछड़े छात्रों के लिए कोई विशिष्ट सुविधा भी बनानी पड़ेगी अन्यथा वह कक्षा ही नष्ट हो जाएगी। शायद प्रकृति में जैव-विविधता का यही उपयोग है। और प्रोफेसर को भी छात्रों की प्रतिस्पर्धा का नियंत्रण किसी प्रकार की विविधता के माध्यम से करना होगा अन्यथा सर्वनाश हो सकता है।
   धर्म जन-कल्याण से जुड़ता है- यह सर्वमान्य है। इसलिए प्रशासन नीति में धर्म महत्वपूर्ण है, यह स्व-निष्कर्ष हैं। प्रशासन नीति वर्तमान तंत्र में दल-गत कूट नीति में से प्रफुल्लित होती है, जिसे हम politics कह कर बुलाते हैं। यदि दल-गत कूटनीति ही अधर्मी पथ ("जुगत-जुगाड़") से पूरित होगी तब इससे शासन में आया दल एक धर्म-संगत प्रशासन नीति कैसे निर्मित करेगा? कैसे वह जनकल्याण को प्राप्त करेगा? वह नीति निर्माण में स्वयं के अधर्म को बचाने की ही चेष्टा करेगा-यानि अपने हितों की रक्षा सर्वप्रथम करेगा।
  यदि भारत जैसा प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध देश अपने अन्दर व्याप्त गरीबी और अपराध को नियंत्रित नहीं कर पा रहा है तब क्या उसके प्रशासन नीतिकारों की क्षमताओं और पद्धतियों पर प्रश्न नहीं उठता है? क्या यह दल-गत कूटनीति में व्याप्त अधर्म का नतीजा नहीं है?

The UPSC C-SAT Issue and the alleged anti-Hindi exam process

It seems like the Hindi speaking UPSC candidates are seeking a political solution to a technical challenge before them of passing the C-SAT (civil services aptitude test).
   We don't expect any other thing than 'Politicing' when such candidates come around through UPSC into the bureaucracy. That India's fate is in the hands of Idiots and buffoons is a foregone conclusion now, who come in various shapes and forms such as the Bureaucracy, Politicians and the vernacular news media.
   C-SAT consist of logical reasoning, language comprehension, analytical ability-those very mental skills which make up the IQ(intelligent quotient) of a person. Being unable to clear this exam-the obvious failed candidates are lobbying up as "Rural background,hindi speaking candidates" (being discriminated against systematically through the CSAT).
    From a distance it should be a default conclusion that a candidate who cannot come through the test of these brain skills is  NOT "capable"(i am deliberatly avoiding the word "unworthy") of serving the society and the nation through the bureaucracy. In my own experience, just as the pressure of RTI Act has begun to mount higher on the presently serving bureacracy to adopt more transparent decision-making process, communication skills-cum-analytical ability have become more important requisites for a bureaucrat.
  How then does this lobby of unsuccessful candidates demand and convince the people of india of their potentials and their capacities? The contest they make is not just against the Government BUT THE ENTIRE NATION.
Does this lobby not have the Intellect to know that raising a political demand to lower the standards of the UPSC exam (by scrapping the CSAT exam on the pretext of Language discrimination) is no wiser solution THAN to resolving BY improving their standards. How does this lobby convince to everyone that their standards are already ripened and saturated, and that no language-fix can be an alternate solution??

  There are no samples of the CSAT paper in the public domain for everyone to fairly judge the problem aspect by his own senses. Is it fair and reflecting good on the wisdom of this lobby to press their demand without having come openly in the public space?

India suffers from illness of Stupidity and I, for one, is keen to detect where all does the stupidity creep into our system. In the CSAT issue, I see a big source of the illness making the inroads.

हिंदी अनुवाद:

ऐसा लगता है की हिंदी भाष्य लोक सेवा परीक्षार्थी अपने समक्ष प्रस्तुत "लोक सेवा मनोभाव योग्यता परीक्षा" की तकनीकी चुनौती का समाधान एक दल-गत कूटनीति के दरवाज़े से चाहते हैं।
  भविष्य में ऐसे समाधान द्वारा सफल हो कर आये इन परीक्षार्थियों से हमे दल गत कूटनीति के अलावा कोई बेहतर निवारणों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह तो मान कर ही चलें की भारत का भविष्य मानसिक और बौद्धिक रूप से असक्षम और अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में है जो की कई रूपों में, जैसे नौकरशाही, राजनेता और स्थानीय भाषा में की पत्रकारिता, इत्यादि रूपों में हमारी नियति पर विराजमान हैं।
  लोक सेवा मनोभाव-योग्यता परीक्षा में परीक्षार्थी की तार्किक सक्षमता, भाषा- संवाद-संचार सक्षमता, विश्लेषण सक्षमता की जांच करी जाती है। यह सब सक्षमताऐ मनुष्य की समुचित मानसिक और बौद्धिक योग्यताओं का अंश होती हैं। अब इस प्रकार की परीक्षा में असफल हो रहे परीक्षार्थी जाहिर तौर पर एक दल बना रहे हैं, "ग्रामीण परिवेश, हिंदी भाषी" नामक वर्ग के तहत और अपनी असफलता का तकनीकी समाधान के स्थान पर दल-गत कूटनैतिक समाधान दूंढ रहे हैं यह आरोप लगा कर की परीक्षा के माध्यम से उनके विरुद्ध व्यवस्था-प्रसारित भेद-भाव किया जा रहा है।
   दूर से समस्या का मुआयना करने पर समस्त देशवासियों को यही आरंभिक आभास होना चाहिए कि जो परीक्षार्थी इस मनोभाव परीक्षा में असफल होते हैं उनके लोक-सेवा कार्य (समाज और राष्ट्र निर्माण के कार्य) के लिए "अन-उपलब्ध" ही माना जाना चाहिए (यहाँ एक ख़ास प्रायोजन से मैं इन परीक्षार्थियों को 'अयोग्य' नहीं कहना चाहूँगा)। मेरे खुद के विचारों में आज जहाँ सूचना अधिकार अधिनियम का दायरा बड़ा और विक्सित हो रहा है, वर्तमान  नौकरशाहों के ऊपर सूचना अधिनियम एक दबाव बनाता सा लग रहा है की वह अपनी निर्णय-प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी बनायें, ऐसे में नौकरशाहों को संवाद-संचार तथा विकीश्लेषण क्षमता की अधिक विक्सित योग्यताओं की आवश्यकता पड़ने वाली है।
   ऐसे हालात में यह असफल परीक्षार्थियों का उभरता हुआ दल कैसे अपनी जटिल और विक्सित मानसिक क्षमता का भरोसा हम देशवासियों को दिलाना चाहेगा? यह परीक्षार्थी दल अपना विवाद सिर्फ सरकार के विरुद्ध नहीं कर रहा है, यह समस्त देश के विरुद्ध भी है।
  क्या इस दल की बौद्धिक क्षमता इतनी निम्न है कि वह यह भी ऐहसास भी नहीं कर सक रहे हैं की वह एक चुनौती का निवारण उसे पार लगाने की अपेक्षा उस चुनौती के स्रोत को ही नष्ट कर देने में दूंढ रहे हैं-यह आरोप लगा कर की यह मनोभाव-योग्यता परीक्षा उनके विरुद्ध भाषा-गत भेदभाव है। यह दल कैसे इस देश के नागरिकों को यह विश्वास दिलाना चाहेगा की उनकी मनोभाव-योग्यता परिपूर्ण है और संवाद-संचार तथा विश्लेषण क्षमता पूर्णतः समृद्ध हैं , इस लिए परीक्षा का निरस्त्रीकरण ही एकमात्र समाधान है , तथा परीक्षा पत्र की भाषा में सुधार की गुंजाइश से समाधान नहीं हो सकता है।
  लोक सेवा मनोभाव योग्यता परीक्षा का उद्धाहरण प्रश्न पत्र अभी जन जागृति में नहीं है जिसे की कोई भी नागरिक स्वयं अपनी इन्द्रियों के प्रयोग से तय कर सके की इस दल की समस्या है क्या। ऐसे में क्या इस "ग्रामीण परिवेश, हिंदी भाषी" दल का आरोप उनकी बुद्धिमानी पर ही प्रश्न चिन्ह नहीं खड़ा करता है की बिना पूर्ण तथ्य को जग-जाहिर किये वह एक विरोद्ध प्रदर्शन और अन्याय का आरोप लगा रहे हैं।

   मेरे विचारों में भारत मूर्खता (मानसिक और बौद्धिक असक्षमता) के रोग से ग्रस्त है और मैं बहोत उत्तेजित हूँ यह जानने के लिए कि यह मूर्खता हमारी व्यवस्था में कैसे-कैसे प्रवेश करती है। लोक सेवा परीक्षा से सम्बंधित इस विवाद में मैं मूर्खता को प्रवेश करने के लिए एक विशाल द्वार को खुलता हुआ देख रहा हूँ।

हिंदी भाषी -अंग्रेजी भाषी विवाद

यद्यपि हिंदी मेरी मात्रभाषा है और यह लेख भी हिंदी भाषा में लिखा है , मगर मैं हिंदी भाषा के लिए किसी दया भाव से यह विचार नहीं लिख रहा हूँ। मैं यथासंभव निष्पक्षता और निर्मोह के साथ हिंदी भाषा और भाषियों के ऊपर टिप्पणी कर रहा हूँ जिसमे हो सकता है की आपको मेरी तरफ से कुछ क्रूरता महसूस हो, हालाँकि की मेरी मंशा मात्र एक निर्मोहित आलोचना और विश्लेष्ण की ही है। मेरा ऐसा करने का मकसद आत्म-सुधार है, आत्म-सम्मान को चोट देना नहीं।
    मेरे अपने देखने भर में अंग्रेजी भाषा की तुलना में हिंदी भाषी लोग अधिक मुर्ख और अयोग्य लगते हैं, भले ही एक हिंदी और एक अग्रेज़ी भाषा व्यक्ति , दोनों ही एक सामान डिग्री रखते हों, जिसकी वजह से मुझे मेरे कथन को सिद्ध करने का मापक नहीं है। बल्कि शायद लोक सेवा आयोग की परीक्षा में हिंदी -अंग्रेजी उमीदवारों के उत्तीर्ण होने के प्रतिशत को ही एक लक्षण माना जाना चाहिए, जिसे की हिंदी भाषी उम्मीदवार एक प्रशन चिन्ह का सूचक मान रहे हैं।
    तकनीकी, सिद्धान्तिक, दार्शनिक और मानवियता के स्तम्भ से हिंदी भाषी, और कोई भी अन्य भारतिय राज्य भाषा के व्यक्ति, अंग्रेजी भाषी व्यक्ति से अपेक्षाकृत 'कम जटिल'(मूर्ख) समझ वाले होते हैं। मानसिक योग्यता के पैमानों पर भले ही यह दो व्यक्ति, एक अंग्रेजी भाषी और एक भारतीय भाषी, एक समान मापे गए हों(या की भले ही हिंद भाषी किसी अंग्रेजी भाषी से अधिक अंकित हो), मगर बौद्धिक स्तर पर अंग्रेजी भाषी अधिक प्रबल होता है। शायद इसी अंतर को लोक सेवा विवाद में वैचारिक अन्तराल ("communication gap") कह कर बुलाया जा रहा है,(जबकि शायद उचित शब्द Observation Viewpoint Difference होना चाहिए।यह ऐसे ही है की मानो एक व्यक्ति किसी पर्वत चोटी से देख रहा हो, और दूसरा घर में टेलीविज़न से, और दोनों में वैचारिक मतभेद हो जाये !)
   यह स्पष्ट कर दूं की मैं मानसिक योग्यता को बौद्धिक योग्यता से भिन्न कर के देख रहा हूँ, और ऐसा करने वाला मैं एकमात्र व्यक्ति नहीं हूँ। कृष्ण समाज अनुयायियों की धर्म दर्शन की एक पुस्तक में मैंने पहले भी इनसानी समझ का ऐसा वर्गीकरण पढ़ा है जिसमे की मानसिक(Mental), बौद्धिक(Intellectual) और अंतरआत्मीय(Spiritual) क्षमता कर के मानव बुद्धि की क्षमता के तीन वर्ग प्रयोग करने गए हैं।
     यह भी स्मरण रहे की कोई भी परीक्षा मानवीय बुद्धि के सूचक ही दर्शाती है(proxy indicator), कोई ठोस प्रमाण (concrete evidence) नहीं देती है। इसलिए यहाँ इस विचार-लेख में मैं यह टटोलते समय कि पश्चिमी-पूर्वी सभ्यता के अंतर की दृष्टि से लोक सेवक की योग्यता के लिए आयोग को उम्मीदवारों में क्या -क्या जांच करना चाहिए, यह आलोचना भ्रामक मानूंगा की "ऐसा कैसे की एक भी भारतिय भाषी उम्मीदवार का चयन क्यों होना चाहिए अथवा क्यों नहीं?"। संक्षेप में, परीक्षा का अर्थ उपयोगी व्यक्ति की तलाश है,किसी भाषा विशेष व्यक्ति को प्रोत्साहित करना नहीं। इसलिए यदि कोई भाषा विशेष व्यक्ति समूह तलाश क्रिया में सफल नहीं हो तब 'तलाश क्रिया' यानी परीक्षा को कूटनैतिक द्वेष भाव से न देखें।
    भारतिय संविधान अंग्रेजी विचारों पर आधारित है जिसकी वजह से अंग्रेजी भाषी और भारतिय भाषी लोगों में संविधान में प्रयोग करीब करीब सभी विचारों का भ्रमित उच्चारण निर्मित कर लिया है। भारतीय भाष्य का राष्ट्र का विचार अंग्रेजी के Nation के विचार से भिन्न है,  ठीक वैसे ही जैसे समाजवाद और Socialism, धर्मनिरपेक्षता और Secularism, प्रजातंत्र और Democracy, संसद और Parliament, न्यायपालिका और Independent Judiciary, अभिलेखा आयोग और CAG, राष्ट्रपति और President as the Head of State. 
    भारत में सभी विचार मिथकों(pseudo-) के हवाले हैं। इसका एक सम्भावित कारण अनुवाद हुई भाषा का प्रयोग है-जिसमे मूल उत्त्पत्ति राजनैतिक दर्शन विचार की सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि छिप जाती है और अनुवाद करी गयी भाषा संस्कृति में एक भ्रमकारी मिथक विचार का जन्म होता है।
     इस प्रकार से अंतर मात्र भाषा का नही है बल्कि बौद्धिक स्तर का है, जिसे चलत में communication gap बोल दिया जा रहा है। ऐसा भी नहीं है की अंग्रेजी में बातचीत करना बौद्धिकता का प्रमाण है(जब की यह भी एक खरा सत्य ऐसा भी है) मगर संभावना प्रतिशत उन्ही  के हक़ मे होगा।

 
 

न्यायलयों में बौद्धिक असक्षमता से जुड़ा एक प्रसंग

Stupidity(बौद्धिक असक्षमता) हम भारतियों का सबसे बड़ा गुनाह है। सदियों की गुलामी और एक खिचड़ी सभ्यता ने हम लोगों को भ्रांतियों, कुतर्कों , अनैतिक तर्कों, अंतर-विरोध विचारों, और द्वि-मापियाँ न्याय( पाखण्ड) से भर दिया है।अपनी इस खिचड़ी मानसिकता का निवारण करने के स्थान पर हम भारतीय उसपे गर्व करना सीखते है,जिसे हम गंगा-जमुनिवी तहज़ीब,syncretic beliefs, हिंदुस्तानी परंपरा ,मिली-जुली सभ्यता, संगम विचारधारा, इत्यादि गर्वान्वित नामों से पुकारते हैं।
   वरिष्ट अभिवक्ता राम जेठमलानी ने एक बार न्यायलय में किसी मुकद्दमे के दौरान न्यायलय और न्यायधीश को केस का कोई पेंचीदा पहलू समझाने के दौरान परेशान हो कर न्यायलय को क्रोधवश Intellectually Bankrupt (बौधिक रूप से कंगाल) होने का इलज़ाम लगाया था।
  अपने इस इलज़ाम के लिए जेठमलानी को चौतरफ़ा आलोचना का सामना करना पड़ा था, जिसमे से कुछ दिलचस्प आलोचनाएं अगले दिन के समाचारपत्र ,Times of India, में प्रकाशित हुई थी।
  सबसे पहले तो जेठमलानी को न्यायलय की अवमानना का सामना करना पड़ा था।
फिर , जेठमलानी के साथी अधिवक्ताओं ने इतनी देर से इतने बड़े सत्य का खुलासा करने के लिए आलोचना करी थी। कई छोटे अधिवक्ताओं ने इस सत्य को पहले भी महसूस किया था मगर वह न्यायलय की अवमानना के भय से कभी इसे कह नहीं पाए थे। आज इतनी देर बाद एक वरिष्ट अधिवक्ता के मुख से इस सत्य की घोषणा सुन कर वह क्रोधित थे की इतनी देर क्यों लगा दी।
  जेठमलानी के साथी अधिवक्ताओं ने उन की यह भी आलोचना करी की वह अपने पेशेवर कार्यकाल में अभी तक इसी सत्य के भरोसे ही तो केस जीतते आये हैं। जेठमलानी ने ज्यादातर मुकद्दमे उस पक्ष के लिए लड़े हैं जिनकी जनता में छवि अनैतिक और दोषी होने वाली रही है। मगर न्यायपालिका से जेठमलानी ने अपने इन क्लाइंट्स को दोषमुक्त करार दिलवाया था। आज जब जेठमलानी केस की पेचीदगी को न्यायपालिका को समझा नहीं पा रहे है तब वह अपने फायदे के लिए यह आरोप लगा रहे हैं। अतीत में उनके विरोधी अधिवक्ताओं को जब न्यायलय इस प्रकार की बौधिक असक्षमता का सामना करना पड़ता था तब यही जेठमलानी शायद न्यायलयों को अपना केस जीतने के वास्ते और अधिक भ्रमित करते थे, और विरोधी को अवमानना के भय से निरउत्साहित करते थे। यानी जेठमलानी सिर्फ अपने फायदे के लिए ही यह आरोप लगा रहे थे।

   इस घटना के तीसरे दिन के समाचारपत्रों में जिसमे की Times of India, ने भी भारतीय न्यायालयों के फैसलों का एक ब्यौरा प्रकाशित किया था जिससे यह स्पष्ट होता था की न्यायालयों में Intellectual Bankruptcy वाकई में थी।

Mr Ashok Khemkha, IAS case- how the honest and high-integrity people are put to utility in a corrupt system

BJP's act of middleman -business.
BJP is propagting among the populace the transfer of Haryana IAS Mr Ashoka Khemka to the centre as a response at anti-Corruption measures by them. But  people need to question back to BJP if this publicity can this ever be a substitue for their desire and intention to NOT to proceed against Robert Vadra and his syndicate?
Before this, the BJP also transferred Ms Sunita kejriwal, w/o Arvind , to MCD which was resisted by their own party, while they being the elected rulers of MCD are being accused of massive corruption.
What effectively is the BJP achieving by promoting the cause of the honest and high-integrity people, while intending not to proceed against the high and mighty political level corruption?
Discreetly, it can serve two purposes. Just as more and more people, new and rising politician, become embroiled in any kind of dispute or a court proceeding, it brings in "negotiation capabilities" to the already dirty clan of politicians survivng the public bashing, against these new strants for secret deals, party-coalition, etc. It is through this "use" ( a rather surreptitious abuse) of the honest and high-integrity people that the "humaam mein sab nange" situation is achieved, which is covertly advantageous to the larger clan called the politicians. This purpose of acquisition of negotiation capability is akin to the business style of the middlemen in the trading world. Hence, the title of this purpose and concept, 'the middleman -business'.
Secondly, the high-integrity honest people contribute to the bigger corrupt leaders by keeping in check the small-scale corruption by the lower masses, thus effectively bringing the perception among the populace to be acting against corruption. Corruption, otherwise, breaks the back of Trust depository in any civil society completely, and can lead to civil commotion. Thus, the big-fish Politicians "apply" the smaller honest and high-integrity people to hold in the society while yet continuing on their own corrupt mis-deeds.
Smart strategy, na??
(I have been barred by India Against Corruption facebook community to post my comments on their post. Quite obviously, it is front community of Ms Bedi and likes who are working for the BJP's cause to divert or contain the Good Smaritans from the corruption agenda started by erstwhile Mr Hazare's team.)

on Germany winning the FIFA World Cup 2014

Germany has won the world cup.

Possibly not relevant to this victory but I am reminded of how the German economy has been the only sustaining economy in the EU in the past few years. Germany has been a target of the US Espionage , as revealed by whistle blower Snowden-for reasons I still like to guess.
    Germany has been a great performer in football for quite sometime although victory kept eluding them by acts of fate, not because of lacking efforts. Kahnu Kahn their goalkeeper has not vanished from my memory who played in the WC two editions ago.
  Michael Schumacher, the F1 champion made his fans cry when he met with an accident while skiing. And his recovery from a longest medically induced coma was  a greater and more emphatic victory than all his F1s. It qualified supremely all his physical and mental endurances.
    From the era of Hitler, I am reminded of the the fascist beliefs of his regarding the superiority of the German Aryans race. Hitler's T4 Eugenics program, in which the defective newborn babies were medically indentified in the childhood and eliminated then itself(how cruel of the germans!) ,to bring around a still better quality racial gene, -- is the instant thought I get whenever I have to suffer the illogicals, the stupids and the idiots. India is full of such a population.
  Germany has been the homeland of some of the best Psychologist the world has ever had. Psychology is field of Humanity in which the learning brings about immense self-awareness, self-knowledge.( Humanities are the field of study for this very reason). It is the birth country of Protestant Christianity, the social-religious change from which the authentic Secularism emerged later.

the neo B School education culture

you see, as  I had previously said , that B Schools are giving to their students a poison cocktail of well-established philosophies (where each philosophical view has it's limits) so to get rid of the guilt-conscience , and sometimes the conscience as a whole, to execute out even the worst of unthical and unjust deeds which come in way of their business profits.
There is a news today, that the American MBA is losing its shine. Perhaps to concur with my observations and belief.

On Corruption and the consequent loss of public trust in institutions

Where there is corruption, everything is possible.
When everything is possible, nothing is trustable.
When nothing is trustable , there is no quality control.
No quality control means goodbye to quality of life.
Thus, Unworthy, un meritorious , un deserving people will rule over you.

You will duly choose a Chaiwala over an IITians.

कश्मीर मुद्दे पर एक बहमूल्य विचार-प्रभावित व्यक्तियों की राय परम आवश्यक न्याय है।

अब, जब की रामदेव के सहयोगी भी कश्मीर मुद्दे पर उसे पृथक करने के विचार रखते हुए "पकडे गए हैं" ,जिसके लिए कुछ लोगों ने प्रशांत भूषण जी से हाथापाई भी करी थी --तब जनता जनार्दन को एक विस्तृत सत्य को समझने का समय आ चुका है।
   वह विस्तृत सत्य यह है की यदि आप कश्मीर के रहने वाले नहीं हैं और आपका कश्मीर से कोई व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं और रिश्ते-नातेदार नहीं है , यदि इसके बावजूद आप कश्मीर को भारत से पृथक कर देने के विचार मात्र को मस्तिष्क में स्थान दे सकने में असमर्थ हैं-- तब आप किसी मानसिक द्वेष, घृणा से ग्रस्त है -आप मानसिक रोगी हैं जो कि निष्पक्ष न्याय कर सकने में असमर्थ है, और आपको मनोचिकित्सा की आवश्यकता है।
   निष्पक्षता न्याय करने के प्रथम सूत्रों में है। और निष्पक्षता में निर्मोह आवश्यक है-बिना किसी बात अथवा फल के मोह से लिया गया निर्णय। यह भागवद गीता का ज्ञान है-यह धर्म है। यदि पृथक होने का मोह आप में अब भी है ,तब आपमें निर्मोह नहीं है--आप न्याय नहीं कर रहे हैं।
   प्रशांत भूषण ने मात्र इतना ही कहा था कि कश्मीर से सम्बंधित कोई भी निर्णय(अथवा न्याय)करने में पहले कश्मीरियों की राय लेना आवश्यक है। यह विचार पूरी तरह धर्म संगत है। किसी दूसरे व्यक्ति के घर से सम्बंधित कोई भी निर्णय लेने से पूर्व उस व्यक्ति की आशाएं और चाहत जानना सर्वोपरि है। अनयथा किसी को भी उसके घर से संम्बंधित न्याय करने का मौलिक अधिकार नहीं है। यही विचार  उभर कर सयुंक्त राष्ट्र का कश्मीर से सम्बंधित सन1947 की प्रतिज्ञा(resolution) है। जनमत या फिर मतदान -कुछ तो करना होगा।
   दिककत यह है कि विवाद में यदि एक पक्ष निर्मॊह को अपनाता भी है तो क्या दूसरा पक्ष निर्मोह स्वीकारने के लिए तैयार होगा? यानी की इससे सम्बंधित साम्प्रदायिक और राजनैतिक हालात कश्मीरी प्रशन की आगे की दुविधाएं हैं। मगर सबसे प्रथम न्याय यही रहेगा कि कश्मीरियों की राय लेना अत्याग्य होगा।
  प्रशांत भूषण के विचार मूलभूत गलत नहीं हैं।

On Dr Ashok Khemkha's possible deputation to the Center

Copied comments of someone from facebook, reference Ashok Khemka transfer to centre:

Quote "
I am yet to find a person in the private sector who repeatedly differs with the boss and retains his job for long. Victimization can be for one, two or few  times. But if someone has a problem with nearly everyone he works with, probably it is time for him to seek another area of interest for rest of his life! ... I did support his efforts to bring out the Wadra Caucus!

Politicians'promises , hopefulness and intentions are like mirage in a desert.

Regarding 'Intentions' and 'hopes' -how long are we going to keep these intricate aspects of a judicious behaviour as *uninformed choices*?
    Can we not apply ourselves, our reasoning ability to read the signs , to make calculated anticipations of what is about to come?

Political Hopes are often like Mirage in a desert- can make us, the 'hopeful' citizens run fruitlessly unless we drop dead or giveup altogether. This same truth goes with the overt (as against the hidden) Intentions of the politicians.
It happens more frequently than not, that hopes sold out to citizen are meant to exhaust out his energies and beliefs of seeing a truly good, prospering nation before him.
   Political Hopes activate the Emotional self, obvious to say, they switch off our minds. How long are we going to justify our wrong political choices on the argument of "lets hope this time..." ?

निर्मोह, निष्पक्षता , न्यायसंगत नेत्रित्व और एक सफल समाज को जोड़ने वाली कड़ी श्रंखला

समाचार पत्रों से देश में चल रही दल-गत कूटनीति का संज्ञान लेते समय हम अक्सर यह त्रुटी कर देते है की हम सही-गलत का आत्म-ज्ञान परिपक्व करने के अपेक्षा स्वयं ही किसी न किसी राजनैतिक दल से अपनी आस्था जोड़ लेते हैं।
  यह आत्म-साक्षात्कार से विमुख, अज्ञानता का मानव व्यवहार है।
सभ्य नागरिक के लिए आवश्यक यह नहीं है की वह किसी न किसी दल से आस्था रखे। आवश्यक यह है की अधर्म और अन्याय न हो। समाज न्याय के स्तंभ पर टिका है जिसका अर्थ है की जिसके साथ जिस अवस्था में जो आचरण उचित माना गया है, तब दूसरे सभी व्यक्तियों को भी उस अवस्था में वही आचरण स्वीकारना होगा।
अगर कोई भी राजनैतिक दल धर्म और न्याय संगत आचरण नहीं करता है तब नागरिक निष्पक्ष रहने के लिए स्वतंत्र होता है।इसके लिए नागरिकों को निर्वाचन सूची में NOTA का प्रावधान दिया गया है।
  हम सभी मनुष्य जन्म के साथ ही अपने आस-पड़ोस, अपने परिवार और अपने सम्प्रदायों और पंथ से एक अंतर्मायी ज्ञान प्राप्त करने लगते हैं। आगे जा कर यह ज्ञान हमारी समझ का मूल ढांचा बनाता है जिसके भीतर हम समाचार पत्रों अथवा किसी भी वैश्विक जानकारी का मूल्यांकन करते हैं। फिर समाचार पत्रों, सोशल नेटवर्क की चर्चाओं,  अथवा जो विचार हमारी समझ के मूल ढांचे पर प्राहार करती लगती है हम उससे रुष्ट हो जाते है।
   यही पर ज्ञानी और अज्ञानी , बौद्धिक व्यक्ति और मूर्ख व्यक्ति का अंतर प्रकट होता है।
आत्म-ज्ञान की खोज में निकले मन और ह्रदय वाले व्यक्ति अपने क्रोध को नियंत्रित कर के वह फिर भी इन विरोधी विचारों को सुनते हैं और समझ के दांचे को प्रतिस्पर्धि विचार को गृहीत करने के लिए विस्तृत करते हैं।
  ठोस और अल्पाकार समझ वाले व्यक्ति अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाते,वह रुष्ट होते हैं, क्रोधित होते हैं और परिणाम स्वरुप किसी निश्चित राजनैतिक दल के साथ अपनी आस्था को सलंग्न कर लेते हैं।
   यहीं आचरण में समझ का नाश होता है जब वह विस्तृत और परिपक्व होना समाप्त कर देती है। जब अल्पाकार समझ के नागरिक बाहुल्य हो जाते हैं तब समाज विखंडित होना आरम्भ हो जाता है। एक विखंडित होते समाज के सूचक होते हैं-- बढ़ाते हुए राजनैतिक दल, उनकी बढती संख्या और बहुमत प्रशासन के लिए गिरता समुचित मत प्रतिशत,क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय दलों के बनस्पत उत्थान --यह सब  । और इससे भी गंभीर,यह एक पूर्व सूचना है--गिरती हुई मानवीय समझ का। क्योंकि नागरिक समूह न्याय पूर्वक अपने मतभेदों को सुलझाने के स्थान पर मतभेदों से उत्पन्न मतदान की राजनैतिक सफलता में व्यस्त होने लगते हैं।
   ऐसे देशों में नागरिक समूह अपनी सामजिक और आर्थिक समस्याओं का सामूहिक निवारण करने के स्थान पर आपसी कूटनीति कर के अपने दल की विजय में अधिक बल देते हैं। न्याय परास्त होने लगता है और अयोग्य मगर दल गत कूटनीति में परिपक्व लोग विजयी हो कर तमाम कार्यक्षेत्रों में आगे बढ़ते है और प्रोसाहित होते हैं। उनके उत्थान के साथ ही अपराध दर, आपसी विवाद , बेरोज़गारी जैसे असफल समाज वाले सूचक भी बढ़ने लगते हैं।

   यह आवश्यक है की विचार विमर्श , लेख पाठन और मंत्रणा के समय हम अपने आवेष और भावनाओं पर नियंत्रण रखना सीखें। उचित न्याय के लिए आवश्यक है की हम विचारों की प्रतिस्पर्धा होने दें। विचारों के मतभेद से सत्य निकलता है। सत्य से न्याय , और न्याय से धर्म। धर्म सभ्यताएं बनाता और उनमे विकास लाता है। विकास का अर्थ ऊंची , गगनचुम्बी बहुमंजिला नहीं, ठन्डे वातानूकूलित शौपिंग मौल नहीं, चिकनी तेज़ सड़क नहीं - नागरिकों को अपनी समस्याएं खुद सुलझा सकने की योग्यता है।
   विकास की शुरुआत न्याय की स्थापना से होती है। एक समुचित कोण से देखें तो विकास की शुरुआत विचारों के प्रति सहनशीलता, उनकी प्रतिस्पर्धा और उससे तलाशे गए न्याय से होती है। विचारों की प्रतिस्पर्धा- योग्यता यहीं से प्रमाणित होती है, जो फिर एक कामयाब नेत्रित्व प्रदान करती है ।

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