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जापान ने कोरोना संक्रमण को कैसे परास्त किया-- जापानियों का अनुशासन या फिर बौद्ध धर्म की शिक्षा

जापान के बारे में बताया जा रहा है कि उन्होंने corona संक्रमण को करीब क़रीब हरा दिया हैं।
और जापानियों ने  कर दिखाया है बिना कोई test kit की सहायता से, न ही कोई दवा ईज़ाद करके !
तो फ़िर उन्होंने यह कैसे कर दिया? मात्र mask और gloves(दस्तानों) की सहायता से!

जापानी लोगों का "अनुशासन" बहोत चर्चित चीज़ है, दुनिया भर में। अगर कोई ऐसा कार्य हो जो कि विस्तृत सामाजिक स्तर पर समन्वय प्राप्त करने पर ही सफ़लता दे सकता है, तब जापान ही ऐसा एकमात्र देश होगा जो कि ऐसा समन्वय वास्तव में प्राप्त कर सकता है! ऐसे समन्वय को ही हम भारतीयों की छोटी बुद्धि के अनुसार "अनुशासन" बुलाया जाता है। क्योंकि हम सैनिकिया टुकड़ियों में एकसाथ क़दम ताल करते समय ही एकमात्र पल है जब आबादी के छोटे टुकड़े का आपसी परमसहयोग का अनुभव करते हैं। सैनिकों में यह आपसी सहयोग बाहर से पिटाई/हिंसा इत्यादि "बाहरी ज़बरदस्ती" के मार्ग से लाया जाता है, जिस प्रशिक्षण के दौरान इसे निरंतर "अनुशासन" बुलाया जाता है।

मगर जापानियों में यह "अनुशासन" 'बाहरी' नही है। अभी दक्षिण कोरिया ने जब ऐसा ही कुछ corona संक्रमण के प्रति प्राप्त किया था , तब बहोत सारे लोगों ने इसका श्रेय दक्षिण कोरिया के राष्ट्रनीति conscription को दिया था, जिसके तहत वहां देश के प्रत्येक युवा को कम से कम तीन वर्ष की सैनिकिय सेवा देना आवश्यक कानून होता है। भारत के बड़े उद्योगपति श्री आनंद महेन्द्रा जी ने भी हालफिलहाल में भारत में conscription को अनिवार्य करने का सुझाव दिया है। बताते हैं की भारत का औसत युवा किसी भी क्षेत्र में सेवा देने योग्य बौद्धिक तौर पर विकसित नही होता है।

बरहाल, जापान में conscription अनिवार्य नही है, मगर तब भी जापानियों में यह सामाजिक स्वतः क्रिया करने की क्षमता अपार होती है। जो काम एक व्यक्ति करता है, उसे स्वतः ही पूरा देश अपना लेता है और पालन करता है बिना की "आदेश" , police के दबाव इत्यादि के ही।

ऐसा क्यों ? क्या यह "अनुशासन" की देन है?
ध्यान दें, तो जापान और दक्षिण कोरिया, यहाँ तक की उतरी कोरिया और चीन - यह सब देश बौद्ध धर्म की सामाजिक संरचना नीति वाले देश हैं। 

बौद्ध धर्म का क्या योगदान हो सकता है समाज में तथाकथित "अनुशासन" को प्राप्त करने में?

बौद्ध धर्म का जो प्रकार इन देशों की सामाजिक संरचना में कितनों ही युगों से वास करता है, उसमे आत्मसंयम, आत्म ज्ञान, इत्यादि पर बल दिया जाता है। इंसान का उसी आयु के अनुसार विकास में एक पायदान बौद्धिक विकास का भी होता है जब इंसान आपसी सहयोग को स्व:प्रेरणा से प्राप्त करना सीख जाता है। बौद्ध धर्म का योगदान यही है कि उसकी शिक्षा में ही समाज की बड़ी आबादी में इस के उच्च बौद्धिक विकास को प्राप्त कर सकने का मार्ग जुड़ा हुआ है। जहां हमारे यहाँ देश में योग का नाम पर yoga pants निकल पड़ी हैं, और योग का अर्थ किसी किस्म की शारीरिक exercise मान लिया गया है, जापानी,कोरिया और चीन से लेकर विएतनाम , थाईलैंड और बर्मा तक के बौद्ध धर्म में योग का अभिप्राय आत्म-संयम, आत्म-साक्षात्कार, इत्यादि से है।  इसलिये यह लोग बिना किसी बाहरी "आदेश" या अनुशासन के ही "स्व:प्रेरणा" से यह सब प्राप्त कर लेते हैं।

बौद्ध धर्म का जापानी वर्णन उनके देश की बड़ी आबादी को आत्म-मुग्धता से निवृत करता है। भारत की बड़ी आबादी आत्म-मुग्धता से ग्रस्त है। आत्म-मुग्धता इंसान में सत्य के दर्शन करने की सबसे बड़ी बाधा होती है। जिसे कहावत में कहते हैं कि "खुद को आईना दिखाना" ,  आत्ममुग्धता ही वह बाधा है, जो इंसान को खुद को मन के आईना में देखने से रोकती है, यानी सत्य को पहचान कर उसे स्वीकार करने से रोकती है। 

बड़े ही आश्चर्य की बात है की आत्ममुग्धता के प्रति यह ज्ञान रामायण और महाभारत जैसे काव्यों से ही निकला है मगर आज इस ज्ञान का निवास भारत की संस्कृति में नही मिलता है ! रामायण में जहां रावण के चरित्र में आत्ममुग्धता अगाध है, वहीं महाभारत के गीतासंदेश में भी निर्मोह की शिक्षा है, कर्तव्यों के पालन के प्रतिआत्ममुग्धता से मुक्ति का साधन निर्मोह ही होता है। क्योंकि मोह ही तो मुग्धता को उतपन्न करता है। 

मोह आवश्यक नही है कि वह प्रेम के प्रकार में ही हो ! घृणा भी एक प्रकार का मोह होता है। जब इंसान किसी से घृणा करता है, तब वह निरंतर उसी घृणा पात्र के विषय व्यसन करता है, और तब वह अनजाने में उस पात्र से मोह कर रहा होता है। वह किसी नये, अच्छे ज्ञान को स्वीकार कर सकने के प्रति सचेत नही हो पाता है। मोह से मुक्ति को निर्मोह कहा जाता है। निर्मोही इंसान ही नये ज्ञान , नये मार्ग के प्रति सचेत होते हैं। और फ़िर अन्य बौद्धिक निर्णयों में भी ऐसे इंसान प्रवीण बनते हैं।

जापान के लोग आयु में भी दुनिया के सबसे वृद्ध आबादी के लोग है। कहा जा रहा है कि corona संक्रमण वृद्ध आबादी पर ज़्यादा घातक साबित हो रहा है। मगर तब भी जापानियों ने अपने स्वतःस्फूर्त समन्वय से काबू में कर दिखाया है। 

Theoretical संभावना का प्रमाण पर्याप्त माना जाना चाहिए था, Emperical प्रमाण से तो मिली-भगत होने की गंध आती है

EVM के विषय मे केस तो तब ही ख़त्म हो जाना चाहिए था जब court में मामला theoretical प्रमाणों से आगे निकल कर emperical सबूतों पर आ गया था।

जब निर्वाचन आयोग ने evm की fixing की theoretical संभावनाओं को खंडन करके न्यायालय के समक्ष अपनी दलील दी कि कोई emperical प्रमाण आज तक नही मिला है कि evm मे छेड़छाड़ हुई है, तब ही वास्तव में चैतन्य जनमानस को समझ लेना चाहिए था कि केस अब बेवजह घसीटा जा रहा है। और असल बात यह है कि निर्वाचन आयोग और न्यायालय में मिली-भगत हो चुकी है।

मान लीजिए कि किसी परीक्षा के दौरान कक्षा में कोई छात्र cheating कर रहा है। 

सवाल आपके चैतन्य से यह है कि आप invigilator (निरक्षक) द्वारा कब , किस प्रमाण के आने पर यह मान लेंगे की वो छात्र cheating कर रहा था?

अगर निरक्षक उस छात्र के पास से ज़ब्त करि गयी किसी chit , या किताब को दिखा दे तो क्या यह पर्याप्त सबूत नही होगा कि cheating करि गई है?

दुनिया भर के न्यायायिक मानक में इतना सबूत पर्याप्त माना जाता है कि chit अथवा कुछ अन्य पदार्थ /दस्तावेज़ की प्राप्ति करि गयी है।

मगर यदि फिर भी कोई प्रधानाध्यापक किसी निरक्षक के इतने सबूत को स्वीकार नही करे, बल्कि उस दुराचारी छात्र के दावे को स्वीकार करे कि मात्र दस्तावेज़ को ज़ब्त करना पर्याप्त नही है , यह भी सबूत दीजिये की आरोपी छात्र उसमें किस विशेष पेज संख्या पर किस विशेष सवाल का ज़वाब cheating कर रहा था, 

तब समझदारी यही कहती है कि आप समझ जाएं कि प्रधानाध्यापक और उस आरोपी छात्र में मिली-भगत हो गया है।

क्योंकि प्रधानाध्यक theoretical सबूतों के आगे emperical सबूतों की मांग को पारित कर रहा है !

EVM प्रकरण में इस देश की न्यायपालिका में वही दुष्ट कारनामा चालू हो चुका है सन 2018 के बाद से।

अक़्सर जो सभी उच्च गुणों और मूल्यों के पालन करने का दावा करते हैं, वो कुछ भी पालन नही कर रहे होते हैं

भक्त कहते हैं कि हिंदुत्व में सब ही कुछ है - सहिष्णुता है, सहनशीलता है, पंथ निरपेक्षता भी है, प्रजातंत्र भी है, समानता भी है !!

अक्सर करके जब कोई सभी अच्छे विचारों को अपनाने की कोशिश करता है तब वह अनजाने में Mix-up कर बैठता है। विचारों को उनके उचित क्रम में रखना एक परम आवश्यक ज़रूरत होती है, अन्यथा एक horrible mix तैयार हो जाता है, जो की ज़हर की तरह घातक हो सकता है।

विचारों के Mix up और उसके घातक परिणामों को समझने के लिए  एक उदाहरण लेते हैं। कल्पना करिये कि किसी व्यक्ति के पास में Kent-RO की पानी स्वच्छ बनाने वाली मशीने है। kent की मशीन पानी को reverse osmosis विधि से filtre करने के दौरान काफ़ी सारा दूषित जल , जो की देखने में स्वच्छ ही लगता है, उसे एक pipe से निष्काषित करती रहती है।

वो लोग जो की "सभी " अच्छे, उच्च आदर्शों के पालम करने का दावा करते हैं,  अक़्सर वह बौड़मता से ग्रस्त हो जाते है, और वो उस दूषित निकास जल को वापस अपने पानी के ग्लॉस में मिला देते हैं, "जल संरक्षण' के अच्छे उच्च आदर्श के पालन करने के नाम पर। ! 

कल्पना करिये की आप बौड़म लोगों से कैसे तर्क करके उनके समझाएंगे कि ऐसा करना ग़लत होगा।

कैसे आप उन्हें बताएंगे कि मौजूदा हालात में जल संरक्षण का उच्च विचार का पालन करना गलत होगा?

आप कैसे किसी बौड़म व्यक्ति को बताएंगे कि अब ग्लॉस वाला जल वापस दूषित हो चुका है ! 
आप क्या करेंगे जब वो आपके मुंह पर जल के स्वच्छ किये जाने का प्रमाण उछाल कर फेंकेगे कि क्या इतनी बड़ी RO मशीन दिखाई नही पड़ रही है, जल को filtre किया गया है?

और अब यदि आप उसे मशीन के निकलते स्वच्छ जल और दूषित निष्कासित जल के मिलन की शिकायत करेंगे , तब वो बात घुमा कर वापस "जल संरक्षण प्रयास" में ले जायेगा, जहां से यह सारा debate /argument आरम्भ हुआ था !

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बौड़मता का अभिश्राप आसानी से परास्त नही किया जा सकता है। 
 Never argue with the stupids; first they bring you down to their standards and then they bear you down with their experience.

भारतीय समाज में कुछ गैर-संवैधानिक आरक्षण कारणों के चलते विज्ञान और छदमविज्ञान को मिश्रित कर देने वाले वाले मिश्रण वर्ग ने देश के अध्यात्म को कब्ज़ा किया हुआ है और छेका हुआ है।

10/05/2020
शायद अंग्रेज़ी भाष्य लोग इस लेख को कभी भी न पढ़े। 

मगर जो आवश्यक चितंन यहां प्रस्तुत करने की ज़रूरत है वह यह कि भारतीय समाज में कुछ गैर-संवैधानिक आरक्षण  कारणों के चलते विज्ञान और छदमविज्ञान को मिश्रित कर देने वाले वाले मिश्रण वर्ग ने देश के अध्यात्म को कब्ज़ा किया हुआ है और छेका हुआ है।

भारत की ज्ञान गंगा में पिछले चंद सालों से सामाजिक चिंतन में शुद्धता और पवित्रता लाने वाली संस्थाएं कमज़ोर पड़ती चली गयी हैं क्यों कि राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रवाद के मार्ग से सही और ग़लत का मिश्रण कर देने वाले वर्ग ने देश पर राजनैतिक कब्ज़ा जमा लिया है !

यह वर्ग विज्ञान को उनके प्रक्रियाओं से पहचान कर सकने में असक्षम में, बस विज्ञान को उनके उत्पाद से ही पहचान पाता है। और क्योंकि अभी राजनैतिक वर्चस्व में है, तो फिर तमाम तिकड़म प्रयासों से उत्पाद पर label बदल कर धर्म का लगा देता हैं, जिससे समाज में धर्मान्ध व्यापक होने लगी है।

क्यों करता है वो ऐसा?

क्योंकि वह खुद नाक़ाबिल लोग का मिश्रण वर्ग है - जो विज्ञान चिंतन शैली से नावाक़िफ़ है। वो नही समझ सकता है कब क्या , क्यों किसी विचार को वैज्ञानिक मानते है, और कब नही। तो वह भ्रामक विचारों से लबालब , राजनैतिक वर्चस्व के माध्यम से स्वयं को समाज में सिद्ध करने पर उतर आ रहा है।

व्यंग अक्सर करके तुकों को उल्टा कर देते हैं।

व्यंग अक्सर करके तुकों को उल्टा कर देते हैं।
व्यंग सुनाई पड़ने में हास्य रस से भरपूर होते हैं, और इसलिये चिंतनशील मस्तिष्क को बंधित कर देते हैं समालोचनात्मक विचारों को शोध करने में।
इसलिये व्यंग हास्य में ही अक्सर उल्टी-बुद्धि , या अंधेर नगरी आदर्शों को प्रचारित किया जाता है। अगर लोग गंभीर अवस्था में होंगे तो ग़लत बात को तुरंत अस्वीकार कर देंगे। तो फ़िर उनको उल्टी बुद्धि का ज़हर कैसे बचा जा सकता है ?
 उत्तर है - व्यंग हास्य की चाशनी में डुबो कर !

हम लोग lockdown यानी देशबन्दी में समाधान को ढूंढ कर ग़लत कर रहे हैं।

10/05/2020
कभी कभी सोचता हूँ कि हम लोग lockdown यानी देशबन्दी में समाधान को ढूंढ कर ग़लत कर रहे हैं।

देशबन्दी से हम शायद शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छिपा कर खुद को यह समझा रहे है कि ख़तरा टल गया है।
घरों में कौन कौन रहने की क्षमता रखता है? जवाब सचाई से सोचिये गा। बहकावे में मत आइये की घरों में रहने से देश को महामारी से बचा लेंगे। हर कोई इतना सामर्थ्य का नही है - आर्थिक, शारीरिक तौर पर - की घरों में दुबक कर बैठ ले, और अन्य समस्याओं से निपट ले।

घर की चार दीवारें सभी को वैसी सुरक्षा नही देती है जो आप समझें हुए हैं जब आप मंद बुद्धि हो कर जरूरत से ज़्यादा ज़ोर देकर जनता से अपील करते है कि घरों में रहिये, सुरक्षित रहिये।

सचाई यह है कि अब हमें दूसरी रणनीतियां भी टटोलनी पड़ेंगी। मिसाल के तौर पर, test करने पर ज़ोर देने की रणनीति, जिससे हम industry भी चला सकें। चाइना की सरकार ने जब wuhan में देशबन्दी करि थी, तब सिर्फ lockdown करके वह महामारी से जीत नही गए थे। उनकी सम्पूर्ण रणनीति का दूसरा हिस्सा यही था - घर घर जा कर test करना । बिना इन कदम को उठाये आखिर कितने दिनों हम देशबन्दी करके बैठे रहेंगे ? क्या सिर्फ देशबन्दी के भरोसे हम रोगियों को स्वयं से पकड़े जाने का इंतेज़ार करके काम चला लेंगे? जबकि हमे मालूम है कि wuhan में तमाम देशबन्दी के बाद, और इतनी असीम सफलता के बाद भी आज भी कुछ न कुछ कोरोना संक्रमित रोग मिल रहे हैं।

हमें रणनीतियां बदलनी होंगी । देशबन्दी तक सीमित रहने से हम लोग भुखमरी और अकाल को बढ़ावा दे रहे हैं।  हमे सरकार के भरोसे बैठना बन्द करना होगा। हम पुलिस के डंडे के ज़ोर पर सामाजिक दूरी अपनाने के तरीकों बदलना होगा। हमे कम साथियों की उपस्थिति में श्रम करने पड़ेंगे, जिससे की social distance भी कायम रहे, और उत्पादन भी नही रुके।

हमे अपने रोगियों की देखभाल खुद से करनी होगी। हमे लक्षणों को खुद से पहचान करके सहायता और चिकित्सा लेने को निकलना पड़ेगा। हमे डॉक्टरी और nursing के कामों में सहयोग कर्मी बल स्वेच्छा से निर्मित करने होंगे।
टेस्ट kit को ईज़ाद करना सबसे परम आवश्यक कदम होगा, हालांकि वह नियत कार्यवाही नही हो सकता है।
तब तक दूसरे मार्ग सोचने पड़ेंगे।

ऐसा क्यों हुआ यूपी बिहार के समाजों में? क्यों यहां के लोग आर्थिक शक्ति बनने में कमज़ोर पड़ते चले गए?

यूपी बिहार के लोगो की आर्थिक हालात देश मे सबसे ख़स्ता हाल है। यहां के गरीब इंसान के परिवार के बच्चे सिर्फ राजनीति की बिसात पर पइदा बनने के लिए ही जन्म लेते हैं। कुछ बच्चे तो बड़े हो कर कौशल हीन मज़दूर बन कर दूसरे सम्पन्न राज्यों में प्रवास करके, झुग्गी झोपड़ियों में रहते हुए मज़दूरी करते हैं, उन राज्यों के मालिक के शोषण, मार और गालियां, उनके घमंडी हीन भावना का शिकार बनते है,

और बाकी बच्चे देश की सेनाओं और पैरामिलिट्री में भर्ती को कर बॉर्डर पर भेज दिए जाते हैं, गोली खाने।

ऐसा क्यों हुआ यूपी बिहार के समाजों में? क्यों यहां के लोग आर्थिक शक्ति बनने में कमज़ोर पड़ते चले गए? गौर करें तो यह सिलसिला आज से नही , बल्कि पिछले कई शताब्दियों से है क्या गलतियां है? क्यों ऐसा हुआ?

मेरा अपना मत है कि इसका कारण छिपा हुआ है यूपी बिहार में प्रायः पायी जाने वाली धार्मिकता में। प्रत्येक समाज को सशक्त और विकास के पथ पर अग्रसर करने की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी होती है - आपसी विश्वास। और आपसी विश्वास का जन्म और स्थापना होती है उस समाज के प्रचुर धार्मिक मूल्यों से।

दिक्कत यूँ है कि यूपी बिहार के समाजों में प्रायः पाए जाने वाले धार्मिक मूल्य बहोत अधिक दूषित हो चुके हैं। यहां कुतर्क और आत्ममोह का बोलबाला है। 

यूपी बिहार ने पिछले कई दशकों से कोई भी बड़े धार्मिक नेतृत्व देने लायक जनप्रिय नेता भी नही दिया है। गौर करें कि जो भी दिग्गज नेता यूपी से आये है जो राष्ट्रीय राजनीति पर राज कर सके , वो ब्राह्मण कुल से थे। ब्राह्मण कुल में स्वार्थ , आत्म मुग्धता बहोत अधिक मिलती है। वही हश्र हुआ है इन क्षेत्रों की धार्मिकता का भी। अटल बिहारी बाजपेयी भी कोई इतने अधिक जनप्रिय नही बन सके कि खुद अपनी पार्टी की सरकार को दुबारा कायम कर सके थे।

वो व्यक्तिगत तौर पर बड़े नेता हुए, मगर जनप्रियता में इतने सक्षम नही थे कि सामाजिक कायापलट कर दें।
धार्मिक नेता का उत्थान समाज को विकास की राह पर मोड़ने के लिए आवश्यक कदम होता है। महाराष्ट्र में शिरडी के साईं बाबा से लेकर बाल गंगाधर तिलक और खुद वीर सावरकर ने भी बहोत कुछ योगदान दिया अपने समाज के धार्मिक मूल्यों को उच्च और निश्छल बनाये रखने के लिए।

धार्मिक मूल्यों की निश्छलता को कायम रखना और जनमानस में उनके प्रति आस्था को बनाये रखना आपसी विश्वास की सबसे प्रथम कड़ी होती है।

मगर यूपी में यह कमी पिछले कई शताब्दियों से उभर कर सामने आई है। लोग आस्थावान तो हैं, बिखरे हुए हैं अलग अलग धार्मिक नेतृत्व की छत्रछाया में। लोग अंध श्रद्धा वान बनते चले गए हैं

और बड़ी दिक्कत है कि धार्मिकता ने स्वयं की शुद्धता , पवित्रता और आधुनिकता को बनाने के प्रयास समाप्त कर दिए हैं। जबकि इधर महाराष्ट्र , गुजरात मे आधुनिक धार्मिक शिविर जैसे iskcon और स्वामीनारायण ने जन्म लिए और धर्म को नव युग की आवश्यकता के अनुसार संचालित करने कार्य निरंतर पूर्ण किया है।

क्या आप जानते हैं कि बहिन मायावती क्यों उत्तर प्रदेश से आये प्रवासी मज़दूरों को कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रदान मदद के विरुद्ध मोर्चा खोल कर खड़ी हो रहीं है ?

क्या आप जानते हैं कि बहिन मायावती क्यों उत्तर प्रदेश से आये प्रवासी मज़दूरों को कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रदान मदद के विरुद्ध मोर्चा खोल कर खड़ी  हो रहीं है ?

बहन मायावती न तो प्रवासी मज़दूरों को खुद कोई मदद करने के लिए आगे बढ़ीं हैं, और न ही वह चाहती हैं की कोई और पार्टी आगे आये। 

क्यों? क्या प्रवासी मज़दूरों में दलित -पिछड़ा वर्ग नहीं है ? क्या यह सब सवर्ण लोग है ? 

नहीं।  

सन २०११ में जब मायावती जी की उत्तर प्रदेश में सरकार  थी और विधान सभा चुनाव आने वाले थे, तब कांग्रेस पार्टी की चुनावी भाषण में राहुल गाँधी ने उत्तर प्रदेश के गरीब जनसँख्या के भयावह सत्य से परिचय खुल्ले मंच से करवा दिया था।  की उत्तर प्रदेश की आत्मदाह करती राजनीति ने पार्क  और अम्बेडकर के मूर्तियों, हाथियों  की मूर्तियों के निर्माण में यूँ  जन धन व्यर्थ किया है की यहाँ की शिक्षा व्यवस्था , चिकित्सा व्यवस्था जब स्वाहा हो चुके हैं। राहुल गाँधी ने खुले शब्दों में कह दिया था कि यूपी के लोग आज महाराष्ट्र और पंजाब में जा कर गरीब मज़दूरी करते हैं , भीख मांगते हैं, झुग्गी झोपड़ियों और चौल में रहा कर , कैसे भी दरिद्रता में गुज़ारा करते हुए , शोषण हैं, पिटाई खाते हैं , हिंसा झेलते हैं।   राहुल गाँधी में विद्वानता तब भी इतनी थी की इस सच को देख लिया था कि  यूपी की राजनीती इंसानी मस्तिष्क में आत्ममुघ्ता के वैसे वाले नशे दे रही है जिसमे इंसान अपने ही देश और समाज का दहन कर देते हैं।  

ज़ाहिर है कि  क्योंकि मायवती ही मुख्यमंत्री थीं, तो उन्होंने राहुल गाँधी के इस सत्य कथन का जम कर विरोध किया था क्योंकि इसको स्वीकार करने का अर्थ था की मायावती ही वो आत्ममुग्ध राजनेता थीं जो राजनीति के नशे में चूर अपने समाज का दहन करे जा रही थीं जन धन को बेमतलब की जगहों पर खर्च करके ! तो मायावती जी और भाजपा के नेताओं ने तुरंत  राहुल गाँधी पर आरोप लगाया की राहुल ने यूपी  के लोगों का अपमान किया है। 
आप यह सब रिपोर्ट गूगल सर्च करके आज भी पढ़ सकते हैं। 

 मायावती ने कहा की यूपी के लोग  बहोत स्वाभिमानी होते है ,  वो मेहनत और श्रम करके कमाते हैं और जीवन यापन करते हैं।  मायावती ने और भाजपा ने यूपी के लोगों की दरिद्रता  के सत्य को कभी स्वीकार ही नहीं किया।  जब मर्ज़ की पहचान गलत होती हैं ,तब इलाज़ भी गलत होता है।  आत्ममुघ्ध लोग दरिद्रता के सत्य को पूर्ण खंडन  कर देते हैं।  क्योंकि ऐसे सच उनको गर्व करने का नशा नहीं होने देते हैं।

Secularism-विरोधी तंत्र मूर्ख तंत्र होते हैं

मूर्खों के देश में विज्ञान अस्तित्व नही करता है। वैज्ञानिक सत्य कुछ नही होता है, कोई भी वस्तुनिष्ठ मापन पैमाना नही होता है। मूर्खों को लगता है कि सब वैज्ञानिक सत्य भी तो कहीं न कहीं इंसानी हस्तक्षेप से प्रभावित किये जा सकते हैं। यानी सब किस्म के सत्य राजनैतिक वर्चस्व के द्वारा संचालित होते हैं। जो राजनैतिक वर्चस्व बनायेगा, वही तय करेगा की वैज्ञानिक सत्य क्या है।

विज्ञान दो प्रकार के होते हैं। perfect science और imperfect science । imperfect science के अस्तित्व को मूर्ख देश में कला-बोधक विषय के समान मानते हैं। यानी इस विषय के सवाल को मूर्ख नागरिक पूर्णतः व्यक्तिनिष्ठ मानते है - यानी, जिसका राजनैतिक वर्चस्व होगा, सत्य वही होगा।

कुल मिला कर मूर्ख देश के लोग राजनैतिक वर्चस्व को ही सत्य का अंतिम पायदान समझते हैं। वह सत्य की तलाश नही करते है, अनुसंधान या शोध धीरे-धीरे उनके देश में खुद ही घुटन से दम तोड़ देते हैं, क्योंकि कोई इंसान इतनी मानसिक बुद्धि का बचता ही नही है जो सत्य की तलाश में यह सब मार्ग पर चल कर साधना करे। मूर्ख देश के सभी नागरिक राजनैतिक वर्चस्व की आपसी लड़ाई में तल्लीन होते हैं।

इसलिये मूर्ख देश में महामारी फैल जाना लाज़मी होता है। 

क्यों? 

क्योंकि कोई भी योग्य डॉक्टर बचता ही नही है। आखिर डॉक्टर की योग्यता की नाप का कोई तो पैमाना होना ही चाहिए, जिससे की पदार्थ
वादी ईलाज़ दे सकने योग्य आदमी चिकित्सा तंत्र पर पहुंचे। मगर जब वस्तुनिष्ठ पैमाना नही है, तो डॉक्टर की योग्यता खुद भी राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई बन कर रह जाती है। ऐसे लोग डॉक्टर और इंजीनयर की उपाधि ले कर तंत्र में उच्च पदस्थानों में विराजमान हो जाते है, जो कुछ भी पदर्थिय समाधान दे सकने में नाक़ाबिल होते हैं। सिर्फ placebo पद्धति के ईलाज़ से काम।चलाते हैं। फिर जब जनता की पीड़ा बढ़ती है, जनता सहायता की गुहार करती हैं तब अमानवीयता से उनकी आवाज़ को दमन करने का मार्ग ही उनका एकमात्र युक्ति रह जाती है।

तो मूरखतंत्र में संस्थाओं का नेतृत्व अयोग्य डॉक्टर और इंजिनीयर करते है, जिनका सबसे प्रचुर नेतृत्व तरीका होता है दमनकारी अनुशासन, तथा पाबंदी। अमानवीयता।

मूर्ख तंत्र नाकबिलों से निर्मित होते है। ऐसे नाक़ाबिल जो कि एक से एक महारत उपाधि से सुसज्जित होते हैं, मगर व्यवहारिकता में कोई भी समाधान नही दे सकते हैं।

Secularism जीवन शैली के शिखर उदाहरण

Secularism एक सांस्कृतिक आचरण होता है।

चार महिलाओं की जीवनी को टटोलें। 

Bill gates, microsoft computer उत्पाद , और दुनिया के सबसे अमीर आदमियों में शुमार , इनकी पुत्री जेनिफर कैथरीन गेट्स ने इसी साल जनवरी माह में engagement करि है egypt(मिस्र) देश के मूल वाले अमेरिकी मुस्लिम नयाल नासर के संग।
पूरी दुनिया को जो केहना है, करती रहे, कहती रहे, मगर मैडम को तनिक फ़र्क नही है अपने जीवन निर्णय लेने में।  यही secularism सांस्कृतिक आचरण की निशानी है।

दूसरा व्यक्ति है, norway के crown pince की पत्नी Mette-Marit. वो पहले एक waitress थीं , शादी शुदा थी, ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं है। मगर जब भी  Crown prince श्री हाकों (श्री Haakon) को उनसे ब्याह करना था, इनको दुनिया की लोकलाज का कोई असर नही पड़ा ! यह secularism की निशानी है।

तीसरी व्यक्ति हैं barrack obama जी की पुत्री, Malia Ann Obama. अमेरिक का इतिहास में प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति श्री ओबामा जी की पुत्री बड़े ही बिंदास तरीके से श्वेत boyfriend के संग रहती हैं।

और चौथी महिला हैं ईमरान खान की पत्नी Jemima Goldsmith.इमरान से निकाह किया, कितने ही साल वहां पाकिस्तान में उनके संग मुस्लिम बेग़म बन कर रही, और फ़िर जिस दिन मूड फ़िरक़ा, समान उठा कर घर वापस हो गयी, और किताब लिख कर दुनिया में बदनाम अलग से कर दिया। आसानी से आजीवन बंधन में बंधने वाला चरित्र नही होता है। स्वछन्द दिल से ही जीवन जीते हैं, हर पल हर क्षण । किसी भी लोकलाज के दबाव में नही आने वाले हैं आसानी से। और न ही मर्यादा के दबाव में ! अंतरात्मा इंसान को बांधने के लिए नही है, बल्कि जीवन जीने में सहयोग देने के लिए है।

एक और महिला है, british राजकुमार श्री henry  और उनकी पत्नी meghan markle। राजपाठ त्याग देने में हिचक नही हुई, अपनी मनमर्जी से, अपनी शर्तों से ज़िन्दगी जीने में।

जापान की राजकुमारी ने भी यही किया था।।अपने मन का जीवन साथी चुनने के लिए राजपाठ का त्याग कर दिया।

और सबसे अंत में british राजकुमारी princess diana को स्मरण करें। अंतिम boyfriend  एक मुस्लिम थे, डोडी अल फाएद। 

यह वो लोग हैं जो की मिसाल है, जहां से हम शायद secularism के आचरण को समझ सकें।

Misgovernance, Democracy and Indian soldiers and the police constables

16 April 2020 A stitch in time, saves nine.
A timely speech , speaking clearly about the extension or the completion , as reasonable, about the lockdown
Could have saved the people the miseries of life , and also saved the police from the guilt of having to use their hard acquired military forces against the common citizen whose only longing is to succeed to find his way back to home.
The common man longing to return back home is something similar to the soldier standing at the battlefront , craving to get back home.
The migrant worker is BUT  the economy variant of that classical military version whom we have known through our movies and other literature.
It is such a sorrow that the bad style of governance by the political leadedhsip is exposing the foot soldiers of the Economy, aka the migrant workers, to the violent forces received at the hand of the ever obedient attitude of the  police constable who so have long ago abjured their inner divine power of the CONSCIENTIOUS OBJECTION.  Ever since the British setup the cultural environment within the barracks of the soldiers and the sepoys, so to avoid the formation of the storm of a second sepoy mutiny on the Indian soil,,  after the first sepoy mutiny of 1857, to act mechanically,  avoiding  any use of  Conscience, and to apply violence measure against their own common people , reminiscent of how General Dyer the lone British man used the contigent of Indian men as his soldiers to shoot at the Indian people at the Jalianwala Bagh.
The common Indian man must hold least expectations of a Conscientious Objection from the force unit of Indian people. The plug that the British succeeded in putting over the Conscientious of the soldiers and sepoys through the cultural conditioning remains in place even to this date , and one should never expect that any India sepoys and constable will ever have the courage to throw off the plug in order act genuinely to protect the life and property of the common man.
The soldiers are designed for over 200 years to act only as per the Obedience protocol , not by the CONSCIENTIOUS OBJECTION . The system and the laws have been put in place , right from the British era days to this date, firmly enough to never let the conscience of the sepoy to act larger than this intense cultural drilling to obey.
The common man, therefore is at the mercy of the bad governance, unable to find his way back to home
And look at who is the one who is stopping him. The very soldier whose pathos and the longing to see his home have been documented so emotionally in the cinema and the literature elsewhere.

संघ का बारबार आरोप यह है कि भारत का इतिहास मार्क्सिस्टवादियों ने ऐसा लिखा है जिसमे प्राचीन और पैराणिक भारत को "सही से दर्शाया नही गया"। संक्षेप में यदि हम संघियों की बात सुने तो वह कहना यह चाहते हैं की हिन्दू धर्म वाले भारत को मौज़ूदा इतिहासकार गौरान्वित नही करते हैं, जबकि मुग़लों और ब्रिटिशों वाले भारत को करते हैं।

वैसे मनोविज्ञान की जानकारी में सबसे प्रथम तो यही ज्ञान सांझा कर ली जाये कि बारबार अपने आसपास गौरव ढूंढना एक मनोरोग होता है। इसे narcissism पुकारते हैं। हिन्दी चलन भाषा में इसे घमण्ड कहा जाता है। घमंडी व्यक्ति ऐसे सत्य को स्वीकार नही करते हैं जिससे उनको स्वयं के श्रेष्ठ होने का अहसास नही मिलता हो। ऐसे इंसान cause and effect में गलतियां करते हैं, क्योंकि यदि कोई ऐसे cause सामने आये जो उनके "गौरव" के अनुरूप नही हो, तब वह उसे अस्वीकार कर देते हैं।स्वाभाविक है, यदि cause की पहचान उचित नही होती है, तब ईलाज़ भी गलत होता है। ऐसे लोग अपने परिवार, समाज और पूरे देश को तक तबाह कर बैठते हैं। उदाहरण में रावण को देखिये जिसने परिवार और देश तबाह किया, और मौजूदा में north korea को देखिये। hitler से लेकर सद्दाम तक , यह मनोरोग तमाम तानाशाहों की मूलभूत समस्या थी जिसके चलते उन्होंने देश और समाज बर्बाद कर दिये हैं।

मनोवैज्ञानिक बताते हैं की narcissist व्यक्तियों के मस्तिष्क को एक किस्म का आनंद प्रवाह होता है "गौरव" या "अभिमान" के दौरान। इन व्यक्तियों के मस्तिष्क में dopamine और कुछ अन्य आनंद देने वाले hormones का रिसाव बड़ जाता है, जो की सामान्यतः अन्य इंसानो में यौन क्रिया के दौरान अधिक पाया जाता है। तो, गौरव करने का आनंद तुलना करने पर कुछ यौन क्रिया के जैसा ही होता है, जो की narcissism से ग्रस्त व्यक्ति के मस्तिष्क की निरंतर मांग बनी रहती है।

इतिहास के अन्वेषण का सत्य उद्देश्य क्या होना चाहिये, यह दार्शनिक सवाल आज संघ ने हमारे चितंन को प्रस्तुत किया है।

क्या इतिहास का अन्वेषण गौरव ढूढ़ने के मकसद से होना चाहिये, या सत्य कारणों (cause) को चिन्हित करने के लिए जिससे की समाज अथवा देश पुनः उसी गलतियों को दोहरा न बैठे जहां से समाज में बर्बादी और तबाही आयी थी ?

वैसे वास्तविक हिन्दू धर्म शिव का धर्म माना गया है, जहां सत्य को सर्वश्रष्ठ स्थान मिलता है, शिव से भी आगे और सुन्दर से भी आगे। शिव पूजन का बड़ा मंत्र यही है-- सत्यम, शिवम सुंदरम। मगर आजकल इसी हिन्दू धर्म के संरक्षण की आड़ में ही यह खेल किया जा रहा है की शायद शिव को सत्य के आगे कर देने की चेष्टा हो रही है। यदि इतिहास के अन्वेषण का उद्देश्य यह मान ले कि उसमे कुछ गौरान्वित करने वाला होना चाहिये, तब हम ऐसे शक्तियों को प्रोत्साहित कर बैठेंगे जो दंभ को "गौरव" बुलाती है, और हर उस सत्य को अस्वीकार कर देती है, जो उनको यौन परमसुख का अहसास नही देती हैं !

इतिहास के अन्वेषण के दैरान यह हिन्दू दंभ ग्रस्त मानसकिता शायद सत्य के संग छेड़छाड़ कर रही है। उसे मुग़लों की श्रेष्ठता पसंद नही है, क्योंकि वह उसे "गौरव" करने का सुख नही देती है। वो अकबर की greatness से तिलमिला कर महाराणा प्रताप का ज़िक्र इसलिये ही छेड़ती है, यह भूल कर कि अकबर की greatness तमाम मुग़ल बादशाहो की सूची में से भी करि जाती है। मुग़ल इसलिये क्योंकि भारत भू खंड पर मुग़लों ने बहोत लंबे समय शासन किया है, जबकि महाराणा प्रताप ने नही किया है।

दम्भ से ग्रस्त हिन्दू वैचारिकी मुग़लों और फिर उनके उपरान्त british की श्रेष्ठता में "स्वाभिमान' (आत्मविश्वास) या self confidence की हानि समझती है। शायद इसलिये कि वह तस्वीर के अन्य रुख पहचान नही सकती है जहां हम अपने आत्मविश्वास को निर्मित करने की दूसरी भी क्षमता रखते हैं। आत्मविश्वास और "दंभ करने" में अंतर सूक्ष्म होता है। आत्मविश्वास दूसरे के तिरस्कार और अपमान पर खड़ा नही होता है। जबकि दंभ बारबार यही करता है। दंभ सदैव ही अपमान, उपहास, तिरस्कार पर खड़ा होता है, बारबार स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करता है। चाहे जितना और विचित्र कोण क्यो न हो।

आप बारबार ताजमहल की श्रेष्ठता को अस्वीकार नही कर देते हैं, हिन्दू मंदिरों की श्रेष्ठता को साबित करने के लिए। श्रेष्ठ दोनों ही है, मगर जब किसी एक का चुनाव करना आवश्यक बन जाता है तब तमाम दार्शनिक कारणों से चुनाव समिति किसी एक के पक्ष में निर्णय दे देती है। आप मतभेद नही कर बैठते हैं कि आपके संग अन्याय हुआ है।और फिर बात को ठान कर इस हदों तक चले जाएं कि आरोप लगाये कि समूचा इतिहासकार समूह ही "marxist वादी " था, उसने आपके पक्ष को सही से दिखाया नही।

आप मुग़ल घृणा से स्वयं को ग्रस्त कर लें तो ग़लती आप की ही होगी। यदि आपको बारबार हर एक आक्रमणकारी ने रौंदा है तो सत्य कारणों को चिन्हित करना आपकी जिम्मेदारी है। आप जयचंद और मीर जफ़र के नामों के पीछे छिप कर अपने दंभ के प्रकोप से निकलते परिणामों से मुंह कब तक छिपाएंगे। कुछ न कुछ कमी आपकी भी होगी, जो सत्य आप स्वीकार नही करना चाहते हैं। याद रखिये की असल हिन्दू समाज में तो विभीषण को भी पूजा गया है, की धर्म और मर्यादा की रक्षा के लिए उसने अपनो का भी त्याग कर दिया था। बोलने वालों से भले ही उसे घर का भेदी बुलाया है, मगर धर्म संस्कारों में विभीषण मर्यादा पुरषोत्तम राम के परमभक्त माने गये हैं। धर्म ही श्रेष्ठ था, चाहे फ़िर धर्म की रक्षा में अपनो के ऊपर ही तीर क्यों न चलाने पड़े , यह भगवद गीत में भी कहा गया हैं। आप धर्म के मार्ग में अपने से विमुख हो कर उठाये गए विभीषण के कदमों को देशद्रोह और राजद्रोह करके अपने दर्भ ग्रस्त आचरण को छिपा नही सकते हैं। आपको अपने बचाव के प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिए थे की आप धर्म संगत थे। ।

जिस धर्म में सत्य को शिव के ऊपर का स्थान है, उस धर्म की परिभाषा में सत्य ही आता है। कहीं आप सत्य के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? क्या आप सत्य की चिन्हित करने में secular प्रमाणों के मानदंड को अस्वीकार कर देना चाहते हैं? क्या आप secular approach और secular class of evidence के मानक का खंडन कर देना चाहते हैं?

तमाम तर्कों की जटिलताओं में छिपे भेद को देखने में गलतियां करि जा रहीं हैं। आयुर्वेदा (और यूनानी, homeopathy, ) क्यों मुख्य धारा की चिकिस्ता पद्धति नही माने जाते है, इसके पीछे में जो secular evidence की कहानी है, शायद आप उससे वाकिफ़ नही है

आपके मौज़ूदा सारे प्रयास और चेष्टाएं खुद आपको ही दंभ ग्रस्त दर्शाने लगे हैं। आप समाज की जनसख्या में दंभ का प्रसार कर रहे है, उनमे उन्माद का संचार कर रहे हैं।

Monotheist धर्म और Polytheist धर्म

Monotheist धर्म और Polytheist धर्मों में सांस्कृतिक फांसले ठीक वैसे ही हैं जैसे अशिक्षित मिठाईवाले के बेटा के विदेश से डॉक्टरी की पढ़ाई करके घर लौटने पर दिखते हैं।
Polytheist धर्म फ़िट बैठते हैं अशिक्षित मिठाईवाले की भूमिका में , जबकि monotheist धर्म उसकी विदेश से शिक्षित हो कर लौटी संतान के समान होते है।
Polytheist धर्मों ने दुनिया भर में जहां भी रहे , समाज में भयंकर अंतर द्वन्द को जन्म दिया। monotheist धर्म का जन्म इस द्वन्द की प्रतिक्रिया से प्राप्त समझदारी और चेतना में हुआ है। एक प्रकार से समझें तो monotheist धर्म एक निवारण थे।
शायद यूसु मसीह के बाद से polytheist धर्मो का उत्थान पूरी तरह से समाप्त हो गया। और जितने भी पुराने polytheist धर्म थे, वो सब के सब अपने अनुयायिओं में अप्रिय हो कर बंद होते चले गये।
क्या कारण रहे होंगे इनके लोगों में अप्रिय होने में?
दुनिया भर से polytheist पंथ के अनुयायी तब्दील हो कर नये युग की चेतना में प्रवेश कर गये, और monotheist धर्मो में धर्म परिवर्तित हो गये। शायद ही कुछ एक पिछड़ी, जड़ भूमियों में कुछ polytheist धर्म बाकी रह गये हैं, जैसे भारत में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म के अनुयायी।
Polytheist धर्म पंथ की अपनी बहोत से कमियां थी, जो की वर्तमान के अनुयायी आजभी न तो समझते हैं, न स्वीकार करते हैं। मज़े की बात है कि ऐसा नही की इन कमियों के बाद इनके समाज स्वस्थ है, और शांति और विकास को प्राप्त कर रहे हैं। बल्कि इनके समाज बेहद अस्वस्थ हैं, बेहद हिंसा से ग्रस्त हैं, अशांत हैं, वापस अंतर द्वन्द को भोग रहे हैं, बाहरी आक्रमणकारियों का शिकार बनते रहते हैं, अंतरात्मा से बेहद भ्रष्ट हैं, नैतिकता में कमज़ोर हैं, विधि का पालन कर सकने में असक्षम हैं, नीति निर्माण में भेदभाव और पक्षपात से विनुक्त नही हो सकते हैं, बौद्धित विकास को प्राप्त नही कर सकते है, बौड़म होते हैं, तथा आज भी निरंतर पाखण्ड से जूझ रहे हैं, ठग और धोखाधड़ी, शोषण भोगते है धर्म के नाम पर।
और इन सबके चलते खुद इनके भीतर आज भी नित नये monotheist उपपंथ जन्म ले रहे हैं, अपने अपने स्थानीय समाजों को एकत्र करके संरक्षित करने के लिए। उन्हें सुरक्षा और शांति दे कर विकास पथ पर अग्रसर करने हेतु।
Polytheist धर्मों में क्या कमियां होती है?
Polytheist धर्मों में औघड़ पना होता है। औघड़ पन को आप neanderthalism करके समझें। यह इंसान के क्रमिक विकास की वो अवस्था थी जब आदिमानव इंसान अभी जंगली वनमानुष से थोड़ा विकास करके गुफ़ाओं में आ कर निवास करना आरम्भ ही किया था। ऐसे काल में मनुष्य की ज़रूरत थी अपने भय पर काबू करना। धार्मिकता का उत्थान उसी मनोवैज्ञनिक आवश्यकता में से हुआ है, आदिमानव के भीतर। भय को काबू करने की ज़रूरत।
इसके लिए प्रत्येक आदिमानव ने जब , जहां जो भी शक्तिशाली महसूस किया, जो की उनके भय के पदार्थ /वस्तु को पराजित कर सकता हो, उनकी आराधना आरम्भ कर दी, ताकि उस आराध्य ईष्ट देव की शक्ति के भरोसे खुद को संरक्षित कर सकें।
तो यहाँ से आरम्भ हुआ आदिमानव इंसानी दिमाग में "भगवान" या देवीदेवता नामक ईष्ट के चलन का। और यही से धर्म निकाल पड़ा।
धर्म ने समाज को बसाने में बहोत अहम भूमिका निभाई हुई है, जो कि वह आज भी निभा रहा है। धर्म से ही आरंभिक नैतिकता निकली है, और नैतिकता के नये आधुनिक युग के संस्करणों से ही विधि यानी कानून और संविधान का निर्माण हुआ है। हालांकि नैतिकता सदैव हर युग में स्थायी नही रही है। पुरानी नैतिकताएं कच्ची-पक्की थी, अभी भी बहोत कमज़ोर थी कि जिनसे वो समाज के बढ़ते दायरे में से राष्ट्रों का निर्माण कर सकें। प्राचीन नैतिकताएं खामियों से भरी हुई हुआ करती थी, अन्याय और अमानवीयता के कर्मो और कार्यों से प्रदूषित थी। समय काल में बौद्धिकता के बढ़ते प्रभाव और प्रसार में इंसानो ने इन अशुद्धियों को समाप्त किया, इन पर विजय प्राप्त करे, और तब जा कर वह छोटे छोटे समाज आपस में जुड़ कर आधुनिक राष्ट्र वाले अवस्था को प्राप्त कर सके।
शक्तिशाली राष्ट्र की अवस्था नैतिकता में और अधिक शुद्धता लाने से निर्मित होती है।
Polytheist पंथों की नैतिकताओं में अशुद्धता बहोत अधिक होती थी और है। उदाहरण के तौर पर - यह समाज भ्रष्टाचार से ग्रस्त रहते हैं क्योंकि लेन-देन या ईश्वर की खुशामद करना, "प्रसाद चढ़ना" इनके अंदर मान्य प्रक्रिया होती है। वहां ये चलन बकायदा प्रसारित करि जाती है। इसी प्रकार, polytheist पंथ में शोषण (आर्थिक और श्रमिक) के विचार के लिए स्थान नही ही। वहां इसको झेलने की शक्ति प्राप्त करने की ईश्वर स्तुति करि जाती है, बजाये की ईश्वरीय आदेश से शोषण को नियंत्रित करें या समाप्त करें।
Polytheist पंथ के समाजों में स्वामी और दस के संबंध में आज भी विचरण करते हैं। इनमें स्वाधीनता के विचार का प्रसार नही है। बल्कि कई इंसानो की अन्तरात्मा आज भी बड़ी सहजता से इस प्रकार के संबंध को स्वीकार करे हुई है। वहां शोषण की पहचान नही है, बल्कि दासत्व में ही निर्वाण और मुक्ति देखी जाती है, ईश्वर से समीप सम्बद्ध प्राप्त करने का मार्ग दिखता है। तो फ़िर आवश्यकता के अनुसार तथाकथित शोषण को झेलने की आवश्यक शक्ति दी जाती है, न कि विद्रोह करके मुक्ति पाने की युक्ति !
Polytheist पंथों में तर्क बेहद प्रौढ़ अवस्था में होते है, जिसके चलते इनके अनुयायी मानसिक तौर पर बौड़म होते हैं। बल्कि polytheist पंथ तर्क से कम, विश्वास के सहारे अधिक खड़े हुए हैं। polytheist पंथ उस काल में उत्पत्ति लिए है जब ज्ञान का भंडार बना ही नही था। तब इंसान सिर्फ विश्वास , या श्रद्धा के अनुसार ही जीव की समस्यायों का समाधान करता था। तब तर्क नही के बराबर हुआ करते थे। यह विश्वास ही आधुनिक युग में, तर्कों के प्रसार के उपरान्त "अंधविश्वास" बनते चले गये। दिक्कत यह है की polytheist पंथों के अनुयायी आज भी अंधविश्वास और तर्क में भेद कर सकने में मानसिक तौर पर योग्य नही होते हैं, और इसलिये बौद्धिक विकास में अपरिपक्व , यानी बौड़म होते हैं।

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