An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
साहित्य (यानी कहानियां , कविताओं, फिल्मों, टीवी नाटकों , उपन्यासों इत्यादि) को छोटे बच्चों को कैसे पढ़ाया जाना चाहिए?
ब्राह्मणवाद क्या है? इसको कैसे समझा जाये?
गैर–ब्राह्मण हिंदू समाज में ब्रह्म की पूजा क्यों नहीं करी जाती है
धरती पर सिर्फ एक ही मंदिर था, पुष्कर (राजस्थान) में, जहां कि ब्रह्मा की पूजा होती थी।
जानते हैं क्यों?
पुराने लोग आपको बताएंगे कि तीनों महादेवों में सिर्फ ब्रह्म जी की ही पूजा नहीं करी जाती है क्योंकि उन्होंने एक बार झूठ बोला था ।
मगर आजकल ऐसा नहीं है। दरअसल ये चलन टीवी के युग में चुपके से ब्राह्मणों ने साजिश करके बदल दिया है ! क्योंकि ब्राह्मण लोग खुद को ब्रह्म की संतान बताते हैं, तो फिर वो कैसे अपने परमपिता, ब्रह्मा, की संसार में ऐसी अवहेलना होते देख सकते हैं। इसलिए उन्होंने थोड़ा हिंदूवाद, धर्म-पूजा पाठ, आस्था का चक्कर चलाया और नई पीढ़ी को हिंदू – मुस्लिम करके बेवकूफ बना लिया है।
पुराने लोग आपको शायद ये भी बताते कि कैसे हिंदुओं का कोई भी त्रिदेव अवतार जिसकी पूजा हुई है संसार में, वो ब्राह्मण वंश में नहीं जन्मा। और यदि किसी त्रिदेव ने ब्राह्मण वंश में जन्म लिया भी, —तो फिर उसकी पूजा नहीं करी गई संसार ने। जैसे कि, —
राम चंद्र जी — विष्णु अवतार, क्षत्रिय वंश में थे, और संसार में पूजा होती है
भगवान कृष्ण — विष्णु के अवतार , क्षत्रिय हुए और संसार में पूजा होती है
वामन — विष्णु के अवतार , ब्राह्मण कुल में थे, मगर उनकी पूजा नहीं हुई संसार में।
दक्षिण भारत में मात्र दो वर्ण माने जाते रहे है - क्षत्रिय और ब्राह्मण।
जबकि उत्तर भारत में चार वर्ण हैं — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र।
ऐसा क्यों ? और उत्तर भारत में ये "भूमिहार" जाति का क्या चक्कर है?
मान्यता यूं थी कि ब्राह्मण थे ब्रह्मा के वंशज, जबकि क्षत्रिय थे विष्णु के वंशज। संसार की मान्यताओं के अनुसार सबसे महान और आदिदेव थे— सदाशिव, महादेव। और फिर विष्णु को स्थान मिला। और सबसे नीचे के पद पर आए ब्रह्म जी। तमाम पौराणिक कथाएं इस बात को प्रतिपादित करती रहती हैं, जैसे कि दक्षिण भारत, केरल में राजा बलि और वामन की कथा। टीवी युग से पहले, मूल मान्यताओं में दक्षिण भारत में ओणम के पर्व में वामन देवता की पूजा नहीं करी जाती थी, जबकि वामन को विष्णु का अवतार जरूर मानते थे।
सोचिए, कि वामन की पूजा क्यों नहीं होती थी?
क्योंकि वामन, जो की विष्णु जी का ब्राह्मण जाति अवतार माना गया है, उसने धोखे से अपनी प्रजा में प्रिय राजा, बलि, को बातों में फंसा कर के उससे उसका राज्य हड़प लिया था। इस कथा से जनता के मन में यह बात घर कर गई थी कि ब्राह्मण, जो बुद्धि से और वाकपटुता में अधिक सुसज्जित होता है दूसरी जातियों से, वो अपने कौशल और गुणों का प्रयोग छल करने के लिए करता है, तथा बातों में फंसा कर आप से संपत्ति हड़प लेता है।
इससे पहले ब्रह्मा जी के रावण से झूठ बोल देने की बात तो पहले ही संसार में जानी जाती रही थी, और जिसके लिए संसार में ब्रह्मा की पूजा करने का चलन समाप्त हो गया था।
आजकल , मगर , टीवी युग में फिर से ब्राह्मणों ने चतुर चंटई करके नए नए चलन निकाल दिए हैं।
आजकल महर्षि परशुराम जी की भी जयंती मनाई जाने लगी है। जबकि टीवी युग से पूर्व , मूल मान्यताओं में, परशुराम की भी पूजा नहीं करी जाती थी। ये सब बदलाव ब्राह्मण समुदाय की चालाकी का कमाल है, जिसे कि हमारे अनजान, नादान बच्चे टीवी से देख सीख कर असली सामाजिक और पौराणिक ज्ञान को भुलाते जा रहे हैं।
परशुराम भी तो ब्राह्मणों के भगवान है, खासतौर पर भूमिहार लोगों के जनक देवता।
भूमिहार कौन हैं? और उनकी उत्पत्ति की क्या कहानी है? संसार में इनके प्रति क्या आस्था थी, टीवी युग से पूर्व?
दरअसल एक समय ऐसा भी आया था समाज में, जब ब्राह्मणों की सभी गैर–ब्राह्मण जनों से शत्रुता हुआ करती थी। ये हुआ था भगवान बुद्ध के आगमन के बाद। भूमिहार की उत्पत्ति ब्राह्मणों में से हुई मानी गई है, — वो ब्राह्मण जिन्होंने शास्त्र रख दिए थे और शस्त्र उठा लिया थे। भूमिहार शब्द के प्रयोग उत्पत्ति की कहानी यूं है कि जिन ब्राह्मणों ने धरती यानी भूमि का आहार लेना शुरू कर दिया था, वे भूमिहार कहलाने लगे। मूल मान्यताओं में ब्राह्मण केवल दक्षिणा लेकर ही आहार करते थे, खुद से खेती करके भूमि से उगा कर के नहीं। मगर बुद्ध के आगमन के बाद में, बुद्ध की शिक्षा से जब संसार प्रभावित होने लगा तब लोगों ने धीरे धीरे करके ब्राह्मणों से नाता तोड़ लिया और दक्षिणा देने का चलन करीबन समाप्त हो गया। ऐसे में ब्राह्मणों को मजबूरी में खुद से खेती और पशुपालन करने पर उतरना पड़ गया था। ऐसा मौर्य शासन काल में अधिक प्रसारित हुआ संसार में। बौद्ध लोग अहिंसा में आस्था रखते थे ,और भगवान बुद्ध की तरह अपने शत्रु को प्रेम के बल पर विजई होने की आस्था रखते थे, ठीक वैसे जैसे भगवान बुद्ध ने डाकू अंगुली मल का हृदय परिवर्तन करके उस क्रूर डाकू पर विजय प्राप्त करी थी।
ब्राह्मण का आरोप बौद्धों पर,आजतक, ये है कि बुद्ध की ऐसी शिक्षा के चलते ही भारत कमजोर हुआ और तब यहां के क्षत्रियों ने शस्त्र उठाना बंद कर दिया। जिससे की भारत हारता रहा हर एक आक्रमणकारी से, खासतौर पर मुस्लिमों के हाथों।
फिर जब मौर्य काल और नंद वंश के दौरान यूनानी सम्राट alexander ने हमला किया था, उस दौरान ब्राह्मणों ने अपनी खेती बाड़ी की भूमि की रक्षा करने के लिए शस्त्र उठाना शुरू कर दिया और वही लोग भूमिहार कहलाने लग गए।
भूमिहारों की बौद्धों और जैनियों से नहीं बनती थी, क्योंकि भूमिहार अपने दार्शनिक विचारों से हिंसा करने में आस्था रखते थे, जबकि बौद्ध और जैन दोनो ही अहिंसा के पुजारी थे।
कहा जाता है कि इसी युग काल के दौरान जैन लोग भगवान महावीर और चार्वाक संस्कृति में आ गए, नास्तिक बन गए और इन लोग ने ब्राह्मणों के रचे शास्त्रों में आस्था रखना बंद कर दिया। जैन समुदाय आज भी ब्राह्मणों के रचे वेद ,उपनिषद और अन्य शास्त्रों में आस्था नहीं रखते हैं हालांकि अपना ये रवैया वो लोग छिपा कर गुप्त रखते हैं।
और गुप्त क्यों रखते है, ये सवाल आपको खुद से बुझना होगा इस लेख को पढ़ने समझने के बाद में।
भूमिहारों के प्रथम राजा, पुष्यमित्र शुंग, ने नंद राजा बिम्बिसार की छल से हत्या करके शासन अपने कब्जे में कर लिया। नंद और मौर्य राजा लोग बुद्ध और जैन दोनो में आस्था रखते थे, और ब्राह्मण के रचे शास्त्रों से विमुख हो चुके थे। मौर्य काल में ब्राह्मणों का शासन में प्रभुत्व नहीं हुआ करता था । मगर अब भूमिहार राजा, शुंग के आ जाने के बाद से वापस ब्राह्मण खुद ही राजा बन कर वापस सत्ता और प्रभुसत्ता में लौट आए । और इसके बाद भूमिहारों ने बौद्ध भिक्षुओं और जैन मुनियों पर बहुत सितम किए और कईयों का वध कर दिया। कुछ जैन मुनियों के दावे कहते हैं की एक रात में आठ हजार से अधिक जैन मुनियों का सिर काट दिया गया था, भूमिहारों द्वारा।
मौर्यों और नंदों के शासन के समय भारत की भूमि आज तक की सबसे विशाल क्षेत्रफल की थी। मगर भूमिहारों के बाद से ये वापस छोटे छोटे राज्यों में टुकड़ों में विभाजित हो गई , और छोटे छोटे नए राज्य निकल आए जो आपस में शत्रुता रखते थे।
आपसी शत्रुता इसलिए शुरू हुई, क्योंकि इससे पूर्व मौर्यों के दौरान बौद्ध शिक्षा की जब शासन पर मजबूत पकड़ थी, तब राजा लोग अच्छे शासन करने पर अधिक व्यसन करते थे, बजाए की अपने अहम को पालते रहे और महत्वाकांक्षी बन आपस में द्वंद करें।
ब्राह्मण महत्वकांक्षी होते हैं, अहम पालते हैं मन ही मन में और प्रभुत्व रखने की गुप्त इच्छा रखते हैं। जबकि बौद्ध और जैन अपने आत्म संयम से अहम को नियंत्रित या विजई होने में व्यसन करते हैं। इसलिए ही बौद्ध अक्सर अधिक विनम्र और शांतिप्रिय होते हैं, ब्राह्मणों के मुकाबले।
मगर जब संसार पर बौद्ध शिक्षा का प्रभाव समाप्त होने लग गया , तब संसार में अहम और अभिमान , प्रभुत्व करने की लालसा वाली शक्ति पैर जमाने लग गई। बस यही से भारत में टुकड़े टुकड़े हो कर छोटे छोटे राज्य निकल आए जो आपस में शत्रुता पालते थे।
ये सब ब्राह्मणी सोच और शिक्षा का कमाल था, और जो की बौद्ध और जैन शिक्षा से वैमनस्य पालते हुए निर्मित हुई थी। बौद्ध की सोच से ठीक उल्टी सोच।
ब्राह्मण बनाम बौद्ध तथा जैन के संघर्ष की कहानी
भूमिहारों के सत्ता में आने से संसार भूमिहार राजाओं के चलाए गए ब्राह्मणवाद के चपटे में आ गया। शायद इसी काल के दौरान जातिवाद ने वो चिरपरिचित ऊंच–नीच वाला चरित्र पकड़ लिया था, जिसमे कि शूद्रों के साथ अमानवीय , अछूत व्यवहार करने का सामाजिक चलन निकल पड़ा था। ये शायद ब्राह्मणों के प्रतिशोध में से निकला व्यवहार था, समाज में। ये सभी इतिहासिक घटनाएं उत्तर भारत में घटित हुई थीं। और शायद ये बात उत्तर दे सके कि क्यों उत्तर भारत में चार सामाजिक वर्ण बने जबकि दक्षिण भारत में दो सामाजिक वर्ण रह गए।
ब्राह्मण–भूमिहार राजाओं ने बौद्धों को समाप्त तो किया ही, साथ में उनकी अनाथ संतानों को परिवर्तित करके हिंदुओं में वापस ले लिया तथा नीचे की वर्ण व्यवस्था निर्वाचित कर के पीढ़ियों तक अपना दास बनाने हेतु तैयार करना आरंभ कर दिया। तब से ले कर आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी लोग ब्राह्मणी सोच से ही संसार को देखते समझते हैं। खुद को 'हिंदू' मानते है, और ये तक स्मरण कर सकते हैं कि कभी किसी युग में उनके पूर्वज बौद्ध अनुयाई हुआ करते थे। हालांकि अद्भुत बात ये है कि समाज में ब्राह्मणों के प्रति विरोध आज भी व्याप्त है, मगर जो की जातिवाद के रूप में देखा और जाना पहचाना जाने लगा है । आज उत्तर भारत कि राजनीति जातिवाद के मुद्दो पर चलती हुई जानी और देखी जाती है, जिसमें झगड़े की हड्डी (bone of contention) की भूमिका निभाता है आरक्षण का विषय। तो देशवासी, जो ब्राह्मणवाद, पुष्यमित्र शुंग या भूमिहार की उत्पत्ति के विषय में सत्य ज्ञान नहीं रखते हैं, वे समाज में व्याप्त ब्राह्मण विरोध की ललक को आरक्षण की राजनीति के रूप में देखते- समझते हैं ।
इधर, बाद के समय में भूमिहारों ने भी अपने उत्पत्ति की कथा वैदिक घटनाओं से होने की रच –बुन ली और समाज में प्रसारित करना आरंभ कर दिया, की कैसे भूमिहार लोग महर्षि परशुराम से उत्पत्ति करें है, वैदिक युग से। ऐसा प्रसारण हो जाने से समाज में अबोधता और अज्ञानता व्याप्त हो गई ,जिसने सत्य सामाजिक–इतिहासिक ज्ञान को अगोचर हो जाने में सहायता किया।
बौद्ध धर्म भारत में उत्पत्ति हुआ और कई सारे अन्य देशों में प्रचलित हुआ, जिसमे पूर्व के देश –चीन , जापान, कोरिया, वियतनाम, थाईलैंड, बर्मा, तिब्बत,श्रीलंका, कंबोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, वगैरह विशेष है । मगर ये इतिहासकारों में आश्चर्य का विषय रहा है कि आखिर ये धर्म भारत में ही क्यों इतना कम प्रचलित छूट गया। इस सवाल का जवाब भी शायद ये बौद्ध–भूमिहार संघर्ष की कहानी में छिपा हुआ है।
आज कल अपना कुलनाम "सिंह" कोई भी रख लेता है और तर्क देता है की इसका अर्थ तो क्षत्रिय वंश के संबद्ध होने से होता है, मात्र।
जबकि आज भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के पुराने लोग आपको बताएं वास्तव में "सिंह" कुलनाम इस क्षेत्र में केवल भूमिहार लोग रखते थे, जो की उनके प्रथम राजा, पुष्यमित्र शुंग, के नाम में से उत्पत्ति हुई थी। तत्कालीन युग में केवल शक्तिशाली भूमिहार जाति के लोग ये नाम रखते थे और दूसरे लोगो को ये कुलनाम नहीं रखने दिया जाता था — ताकि कोई छल से उनके समाज में न बैठने लग जाए ! और फायदा निकाल ले ।
जी हां, ये अजीबोगरीब बात है, मगर दूसरी जातियों आज वही कुलनाम प्रयोग करने लगी है, जो की किसी समय उनके पूर्वजों के सितमगर हुआ करते थे। 🙀🤫🤫😳
इतिहास और समाजशास्त्र में दुखद मगर कड़वा सच ये है की संसार में कई बार जब वंशवध घटे हैं, नरसंहार किए गए है, तब कोई कहानी बताने वाला भी जीवित नहीं बचा है। और ऐसे में मरने वालो की अनाथ हुई संतानों ने अनजाने में उसे ही अपना जनक मान कर उसकी प्रथा को निभाना शुरू कर दिया जो कि उसके वास्तविक माता पिता का हत्यारा था ! 😳😥🤫
भारत भूमि पर तो खास तौर पर इस प्रकार की कष्टदाई घटनाएं आपको बार बार देखने को मिलेंगी जब बड़े ही फक्र से, किसी उलूम जुलूल तर्क के लपेटे में फंसे हुए, कुछ लोग बड़ा विचित्र काम कर रहे होते है, जिसकी उनको टोह भी नहीं होती है कि सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से इसका क्या अर्थ होता है, ये कितना बड़ा अनर्थ कर्म है।
संसार में लोगों को शायद ये भी नहीं एहसास होगा कि आज जो इतने दमखम से हिंदू बने हुए हिंदू धर्म को मुसलमानों से बचाने के लिए जमे हुए है, वो सब कभी किसी युग में बौद्ध थे और ब्राह्मणों के रचे शास्त्रों से अलग हो चुके थे।
ऐसा सब कमाल हुआ है नृशंस नरसंहारों की बदौलत, जिसमे कोई भी जीवित नहीं बचा था कहानी बोलने और लिखने को। बस कुछ दंतकथाएं ही रह गई हैं, और कुछ एक अजीब से दिखने वाले व्यवहार और घटनाएं, जो अवशेष बनी हुई गवाही देती है की कहीं, कुछ तो अटपटा रहस्यमई है, जिसके सच को आधुनिक काल में लोग भूल चुके हैं।
चाणक्य और अर्थशास्त्र के प्रति क्या अजीब बात है? क्या जानते हैं आप इसके बारे में?
चाणक्य मौर्य शासन काल का चरित्र है। मौर्य शासन के बारे में पुरातत्व विज्ञानी, जो की इतिहासकारों का कर्मवादी प्रमाण देने वाला वर्ण होता है, वो बताते हैं कि करीब २ री शताब्दी ईसा पूर्व में थे। मगर चाणक्य नामक के बारे में जो भी जानकारी जानी जाती है, वो ६ वी शताब्दी में रचे गए एक काव्य में से मिलता हैं –मुद्राराक्षस — जिसे विष्णुगुप्त नामक किसी कहानीकार ने लिखा था। चाणक्य के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ भी तथ्य उपलब्ध नहीं है, कि उसका जन्म कब हुआ, माता - पिता कौन थे, पत्नी और संतान कौन थी। सिवाय इसके कि वो ब्राह्मण था। ये सब बातें इशारा करती हैं कि संभवतः ये काल्पनिक चरित्र है, जिसे ब्राह्मणों ने रचा था लोगों की स्मृति में से बौद्ध अनुयायी शासकों की, जो अशोक के वंश के थे, उनके सुशासन की उपलब्धियों को हड़पने के लिए ! (To appropriate the legacy of good governance by the Mauryan Rulers) ।
भूमिहार ब्राह्मणों के हाथों से जैन मुनियों की प्रताड़ना का इतिहास भी आज करीबन विलुप्त हो कर भुलाया जा चुका है। सिवाय कुछ एक जैनियों के, लगभग सभी इस ऐतिहासिक सांस्कृतिक घटना को भूल चुके है। फिर भी, आचार्य ओशो रजनीश , जो की जैन थे, उनका 1980 के आसपास का रिकार्ड किया हुआ एक अभिभाषण सहज उपलब्ध है इंटरनेट पर, जिसमे वो प्रश्न कर रहे हैं कि चार्वाक का साहित्य क्यों नष्ट कर दिया – ब्राह्मणों ने । और फिर एक विस्तृत वाचन देते हैं कि ब्राह्मणों को क्या दिक्कत थी चार्वाक की नास्तिक विचारधाराओं से, जो ब्राह्मणों ने जैनों की प्रताड़ना तो करी ही, साथ में उन के साहित्यों ग्रंथों को भी नष्ट कर दिया था।
क्यों एक इंजीनयर या डॉक्टर को कदापि IAS IPS नहीं बनाना चाहिये
जन्मजात पंडित और व्यक्तिव का confidence का भारत के जनमानस पर धाक
हमारे एक मित्र, मxxष मिश्रा, कुछ भी लेख लिखते समय confidence तो ऐसा रखते हैं जैसे विषय-बिंदु के 'पंडित' है, जबकि वास्तव में ग़लत-सलत होते हैं। तब भी, उनके व्यक्तित्व में confidence की झलक होने से उनके लाखों followers है !
सोच कर मैं दंग रह जाता हूँ कि देश की कितनी बड़ी आबादी अज्ञानी है, जिसका कि जगत को पठन करने का तरीका ही मxxष मिश्रा जैसे लोगों के उल्टे-शुल्टे लेखों से होता है, सिर्फ इसलिये क्योंकि मxxष जी जन्मजात पंडिताई का confidence रखते हुए लोगों को आसानी से प्रभावित कर लेते हैं ।
भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में तमाम प्रबंधन शिक्षा के गुरु लोग ऐसे ही नहीं बार-बार 'व्यक्तिव में confidence' रखने की बात दोहराते रहते हैं। बल्कि वो लोग तो सफाई भी देते रहते हैं कि अगर आप के व्यक्तिव में confidence है, तब अगर आप ग़लत भी हो, तब भी आप अपनी बात को जमा सकते हैं।
प्रबंधन गुरु लोग ग़लत नहीं हैं। हमारे देश की आबादी में औसत आदमी किताबी अध्ययन करने वाले बहोत ही कम हैं। ऐसे हालात में लोगों को किसी भी विषय पर सही-ग़लत का फैसला करने के संसाधन करीब न के बराबर होते हैं। ये देश अज्ञानियों का देश है। मूढ़ लोगों का देश, जहां की संस्कृति में मूर्खता समायी हुई है। कम संसाधनों के चलते लोग बाग हल्के तरीकों से गूढ़ विषय पर तय करने को बाध्य होते हैं कि बात सच है या कि झूठ। सत्यज्ञान है, या कि नहीं। ऐसे में, व्यक्तिव का confidence , भले ही बनावटी हो, विषय की गहन पकड़ में से नहीं उभरता हो, सत्यज्ञान के स्वाभाविक आवेश में से नहीं उद्गम करता हो, तब भी लोगों की बीच वो धाक जमा सकता है।
यानी,
अगर आप असल ज्ञानी पंडित न भी हो, बनावटी अथवा जन्म-जात पंडित होने से भी यदि "व्यक्तिव का confidence" रखते हो, तब भी , कम से कम भारतीय संस्कृति में तो आपकी धाक जम जायेगी !
आरएसएस का देश के बौद्धिक चिंतन, जागृति पर दुष्प्रभाव
What is the difference between Caste and Community
बच्चों की शिक्षा के प्रति मातापिता के लिए नया, उभरता उत्तरदायित्व
कहाँ से, कैसे आये हैं भारत के उद्योगपति
और उनके पास निवेश करने की पूंजी कहां से आई है?
पुराने जातिगत पेशे तथा सामुदायिक प्रथाओं से तैयार करी है ये पूंजी<
आज भी जब व्यवसायिक "शूद्र" जातियां आरक्षण के लिए संघर्ष कर रही है, व्यापारिक जातियां अपने आदमी को प्रधानमंत्री बनाने की युक्ति करने में लगी। शूद्रों के बुद्धिजीवियों की बुद्धि अपने समाज को "शूद्र–कारी आरक्षण" से हटा कर, उद्योग समुदाय में तब्दील हो जाने की दिशा में खुली नहीं है।
04 Jan 2023
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