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साहित्य (यानी कहानियां , कविताओं, फिल्मों, टीवी नाटकों , उपन्यासों इत्यादि) को छोटे बच्चों को कैसे पढ़ाया जाना चाहिए?

साहित्य (यानी कहानियां , कविताओं, फिल्मों, टीवी नाटकों , उपन्यासों इत्यादि) को छोटे बच्चों को कैसे पढ़ाया जाना चाहिए?

 साहित्य पढ़ाने का उद्देश्य क्या होता है? 

 हिंदी cartoon, वीर द रोबोट boy, और जापानी कार्टून डोरेमॉन, या sinchan में क्या अंतर है? 

 भारतीय संस्कृति में साहित्य के पठान का उद्देश्य बच्चों को किसी विशेष सोच, संस्कृति, नैतिकता, और धर्म को स्मरण करवाना होता है। जब हम भारत में निर्मित हुए छोटे बच्चों के टीवी वाले cartoon कार्यक्रमों, जैसे की vir the robot boy को देखते हैं और फिर उनकी तुलना किसी अन्य देश (अथवा संस्कृति) से करते है, जैसे की doreamon (जापानी) तब आपको इस भेद का आभास खुद ब खुद होने लग जाता है। जापानी कार्टून अपने बच्चों के जहन (conscience) में कोई पूर्व निर्धारित नैतिकता, धर्म या सही–गलत प्रवेश करवाने की चेष्टा नहीं कर रहे दिखते हैं, जबकि भारतीय कार्टून ऐसा करते महसूस किए जा सकते हैं। 

 मातापिता की अपने बच्चों से कुछ अपेक्षा होना जाहिर बात है और जो कि सभी देशों की संस्कृतियों में प्रायः दिखाई पड़ती है। अंतर सिर्फ ये है कि भारतीय संस्कृति में अपेक्षा में किसी विशेष धर्म, तौर तरीके, नैतिकता को सोखने की भी चेष्टा होती है, जबकि कई अन्य संस्कृतियों में मात्र critical thinking को जागृति करके स्वयं से धर्म, नैतिकता को बूझना सीखने का अवसर देने चेष्टा होती है। डोरेमॉन में नोबिता के माता पिता उससे सिर्फ खूब पढ़ाई लिखाई करके सफल व्यक्ति बनने की चेष्टा करते हैं – आर्थिक तौर पर सफल व्यक्ति, बस। उससे किसी विशेष सांस्कृतिक प्रथा, धर्म या नैतिकता वाला व्यक्ति बनने की अभिलाषा नही रखते है। जबकि डोरेमॉन कार्टून अपनी कहानियां के माध्यम से बाल दर्शको को प्रेरित करके छोड़ देता है कि वे स्वयं से तय करें कि उचित नैतिकता क्या और कैसी होनी चाहिए। 

 ऐसे ही, sinchan एक नादान छोटा बालक है और अभी कई सारे सांस्कृतिक चलन के प्रति good taste अथवा discretion नहीं रखता है जैसे कि privacy, secrecy, sense of possession, और अन्य मानवीय चरित्र के गुप्त दुर्गुण जैसे कि jealousy(ईर्ष्या), anger(क्रोध) इत्यादि। वो नादानी में गलत जगह कुछ अटपटा बोल करके अपने मातापिता को थोड़ा सामाजिक असमंजस में डालता रहता है। ऐसा करने से वो कभी कभी अधिक चतुर भी दिखाई पड़ता है। 

 मगर दर्शक बन कर बैठे बाल मन को ये सब आभास कोई स्पष्ट वाचन या नैतिक कहानी के माध्यम से नहीं कहा जाता है, बल्कि जापानी कार्टून मात्र खुद से सोचने को प्रेरित करके छोड़ देता है। हिंदी कार्टून में कोई दादा दादी होते हैं जो कि स्पष्ट शब्द से ऐसा कह देते है और इस तरह नैतिकता या धर्म की एक गाढ़ी लकीर खींच देते है बाल मन पर। उसे खुद से सवाल जवाब के माध्यम से बूझने का अवसर नहीं लेने देते हैं। इस तरह भारतीय संस्कृति नैतिकता और धर्म के विषय में बाल्यकाल से ही सवालों को उठा कर धर्म को तल्शने का मार्ग नहीं अपनाती है। 

 इस प्रकार भारत में साहित्य के पठन के दौरान आपसी विमर्श किए जाने का चलन ही नही है। टीचर भी अक्सर साहित्य पठन के दौरान वही "दादा दादी" की भूमिका अपना लेते है और fixated तरीके से धर्म-नैतिकता प्रसारित करने लगते हैं। सवाल जवाब का समाना करके खुद से बूझना सीखना का अवसर नहीं देते हैं।

 साहित्य पठन का उद्देश्य विमर्श क्रिया को प्रज्वलित करना होना चाहिए बाल्य समाज के बीच में, जहां कि वे खुद से ही धर्म को conceptually absorb करना (बूझ कर तलाश लेना) सीखना शुरू कर दें। 

 हमारे समाज को ये समझना होगा कि बिना विमर्श करें किसी भी साहित्य का पठन अधूरा होता हैं।

ब्राह्मणवाद क्या है? इसको कैसे समझा जाये?

ब्राह्मणवाद क्या है? इसको कैसे समझा जाये?

महान यूनानी दार्शनिक और चिंतक, एरिस्टोटल, जिनके पास अपने समय के समाज वालों के बहुत सारे सवालों और प्रकृति के रहस्यों का जवाब था , वे अक्सर लोगों के सवालों के जवाब देते-देते  विवादों और शास्त्रार्थों में दूसरो के साथ उलझ जाया करते थे। इस भीषण बौद्धिक द्वन्द के दौरान वे अपने जवाब को उचित सिद्ध करने की चेष्ट करते थे, और कई कई बार वे सिद्ध भी हो जाया करते थे। इसलिये उनके समाज के मान्य लोगों में उनका बहुत सम्मान हुआ करता था। अपने समर्थकों से प्ररित हो कर एरिस्टोटल ने ही ऐसे उपवन तथा वाटिकाओं को आरम्भ किया था जहां वे अपने शिष्यों के संग विचरण करते हुए समाज के सवालों का और प्रकृति के रहस्यों पर विमर्श करते हुए उनके गुत्थीयों को तलाशते थे। एरिस्टोटल के वे उपवन तथा वाटिका ही अकादमी कहलाने लगे जहां तत्कालीन यूनानी समाज के समृद्ध और उच्च कोटि वर्ण के लोग अपने बालको को एरिस्टोटल के पास भेजा करते थे विमर्श करते करते अपनी बौद्धिक कौशल को प्रवीण करने के लिए। वह अकादमी (academy) भविष्य में जा कर ये आधुनिक कालीन पाठशालाओं की नींव बनी। 

मगर एरिस्टोटल तक अपने समय के कुछ लोगों से बहस करने में डरते थे। और अपने शिष्यों को भी ऐसे लोगों को तुरंत उनकी बातचीत और विचारो के माध्यम से पहचान करके उनसे दूरी बना लेने की सीख दिया करते थे। इन प्रकार के लोगों को एरिस्टोटल के समाज वाले sophist करके पुकारा करते थे, ऐसे लोग जो की बहोत जटिल , विपरीत बोधक विचारो को एक संग अपना कर अपने दिमाग में पालते थे, तथा अपनी सुविधानुसार प्रयोग करते हुए एरिस्टोटल को शास्त्रार्थ में आसानी से पराजित करके ग़लत सिद्ध कर देते थे।

दरअसल एरिस्टोटल ने पहचान लिया था की sophist लोगों के विचारो की बुद्धि में बहोत सारे विचारो का मिश्रण होता है – और वे लोग एक अन्य, एक "विशेष प्रकार की बुद्धि", जो उनके पास पाई नहीं जाती है, और इसलिए उसके प्रयोग को नहीं करने से इन तमाम मिश्रण में एक विचार से किसी दूसरे विचार से विपरीत होने की शिनाख़्त नही कर पाते है। दो विपरीत बोधक विचारों को पहचान करके उनको अलग कर देने के लिए उनके दिमाग में कुछ बुनियादी नियम नही निर्मित हो सके है। ये "विशेष प्रकार" की बुद्धि किसी एक विचार से निकलने वाले तमाम अभिप्रायों और निष्कर्षों को तय कर करके दूसरे विचारों से उनका विपरीत होना सिद्ध करती है।

बुद्धि के इन बुनियादी नियमों को एरिस्टोटल logic करके पुकारते थे।

आधुनिक काल में logic के ये नियम सुनने में बहोत सर्वसाधारण सुनाई पड़ेंगे, मगर उनके अपने समय में ये वौद्धिक कौशल के नियम करीब अनभिज्ञ हुआ करते थे , तथा एरिस्टोटल जैसे विर्ले लोगों के पास ही होते थे। sophist वे वर्ग के लोग थे जो इन नियमों को न ही जानते थे, न स्वीकार करते थे। इसलिये एरिस्टोटल उनसे दूर भागते थे, और ऐसी ही शिक्षा अपने शिष्यों को भी देते थे, उनके प्रति।

ब्राह्मणवाद हमारे आधुनिक काल के भारत के वही sophist वर्ग के तौर पर समझे जा सकते है, जो की वैचारिक शुद्धता नही रखते हैं। वैचारिक शुद्धता का अर्थ ये नही है कि अनैतिक, व्यभिचारी ,गंदे विचार रखते है। बल्कि अशुद्ध का अर्थ है की तमाम विचारो का मिश्रण करके एक संग रखते है, तथा logic के बुनियादी नियमों को नही स्वीकार करते हुए दो विपरीत अर्थी विचारो को शिनाख़्त करके अलग-अलग नही करते हैं। वे सुविधानुसार अपनी बातों को पलट दिया करते हैं।

ब्राह्मणवाद का अर्थ किसी विशेष जातिय वर्ग से नही होता हैब्राह्मणवाद एक वैचारिक मिश्रण तरीके की क्षय(disorder) है, जो कि किसी भी जाति के व्यक्ति में पाया जाता है। मगर इसको ब्राह्मणवाद इसलिये नाम दिया गया है क्योंकि इतिहासिक तौर पर भारतीय समाज में अधिकांशतः वैचारिक मंथन करने का नेतृत्व ब्राह्मण जाति के लोगों ने ही किया था, मगर वे लोग अपने से सही और बेहतर विचार के आने पर उन विचारो को तोड़-मरोड़ और विकृत करके अपने को सही साबित करने हेतु परिवर्तित कर दिया करते थे (और हैं)। और फिर समाज में वो विकृत हुआ विचार प्रसारित कर दिया।

हम आज भी 'भक्तगणों' में logic की कमी को देख कर उनकी पहचान कर सकते है। और हम ये भी देख सकते हैं की प्रायः ऐसे लोग किसी एक राजनैतिक पार्टी की और झुकाव रखते है । 

संघी लोग आतंकवाद किसको समझते हैं? क्या गलती है उनमें

गैर–ब्राह्मण हिंदू समाज में ब्रह्म की पूजा क्यों नहीं करी जाती है

कहते हैं की गैर–ब्राह्मण हिंदू समाज में ब्रह्म की पूजा नहीं करी जाती है।

धरती पर सिर्फ एक ही मंदिर था, पुष्कर (राजस्थान) में, जहां कि ब्रह्मा की पूजा होती थी।

जानते हैं क्यों?

पुराने लोग आपको बताएंगे कि तीनों महादेवों में सिर्फ ब्रह्म जी की ही पूजा नहीं करी जाती है क्योंकि उन्होंने एक बार झूठ बोला था ।

मगर आजकल ऐसा नहीं है। दरअसल ये चलन टीवी के युग में चुपके से ब्राह्मणों ने साजिश करके बदल दिया है ! क्योंकि ब्राह्मण लोग खुद को ब्रह्म की संतान बताते हैं, तो फिर वो कैसे अपने परमपिता, ब्रह्मा, की संसार में ऐसी अवहेलना होते देख सकते हैं। इसलिए उन्होंने थोड़ा हिंदूवाद, धर्म-पूजा पाठ, आस्था का चक्कर चलाया और नई पीढ़ी को हिंदू – मुस्लिम करके बेवकूफ बना लिया है।

पुराने लोग आपको शायद ये भी बताते कि कैसे हिंदुओं का कोई भी त्रिदेव अवतार जिसकी पूजा हुई है संसार में, वो ब्राह्मण वंश में नहीं जन्मा। और यदि किसी त्रिदेव ने ब्राह्मण वंश में जन्म लिया भी, —तो फिर उसकी पूजा नहीं करी गई संसार ने। जैसे कि, —
राम चंद्र जी — विष्णु अवतार, क्षत्रिय वंश में थे, और संसार में पूजा होती है
भगवान कृष्ण — विष्णु के अवतार , क्षत्रिय हुए और संसार में पूजा होती है
वामन — विष्णु के अवतार , ब्राह्मण कुल में थे, मगर उनकी पूजा नहीं हुई संसार में।

दक्षिण भारत में मात्र दो वर्ण माने जाते रहे है - क्षत्रिय और ब्राह्मण।
जबकि उत्तर भारत में चार वर्ण हैं — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र।

ऐसा क्यों ? और उत्तर भारत में ये "भूमिहार" जाति का क्या चक्कर है?

मान्यता यूं थी कि ब्राह्मण थे ब्रह्मा के वंशज, जबकि क्षत्रिय थे विष्णु के वंशज। संसार की मान्यताओं के अनुसार सबसे महान और आदिदेव थे— सदाशिव, महादेव। और फिर विष्णु को स्थान मिला। और सबसे नीचे के पद पर आए ब्रह्म जी। तमाम पौराणिक कथाएं इस बात को प्रतिपादित करती रहती हैं, जैसे कि दक्षिण भारत, केरल में राजा बलि और वामन की कथा। टीवी युग से पहले, मूल मान्यताओं में दक्षिण भारत में ओणम के पर्व में वामन देवता की पूजा नहीं करी जाती थी, जबकि वामन को विष्णु का अवतार जरूर मानते थे।

सोचिए, कि वामन की पूजा क्यों नहीं होती थी?

क्योंकि वामन, जो की विष्णु जी का ब्राह्मण जाति अवतार माना गया है, उसने धोखे से अपनी प्रजा में प्रिय राजा, बलि, को बातों में फंसा कर के उससे उसका राज्य हड़प लिया था। इस कथा से जनता के मन में यह बात घर कर गई थी कि ब्राह्मण, जो बुद्धि से और वाकपटुता में अधिक सुसज्जित होता है दूसरी जातियों से, वो अपने कौशल और गुणों का प्रयोग छल करने के लिए करता है, तथा बातों में फंसा कर आप से संपत्ति हड़प लेता है।

इससे पहले ब्रह्मा जी के रावण से झूठ बोल देने की बात तो पहले ही संसार में जानी जाती रही थी, और जिसके लिए संसार में ब्रह्मा की पूजा करने का चलन समाप्त हो गया था।

आजकल , मगर , टीवी युग में फिर से ब्राह्मणों ने चतुर चंटई करके नए नए चलन निकाल दिए हैं।

आजकल महर्षि परशुराम जी की भी जयंती मनाई जाने लगी है। जबकि टीवी युग से पूर्व , मूल मान्यताओं में, परशुराम की भी पूजा नहीं करी जाती थी। ये सब बदलाव ब्राह्मण समुदाय की चालाकी का कमाल है, जिसे कि हमारे अनजान, नादान बच्चे टीवी से देख सीख कर असली सामाजिक और पौराणिक ज्ञान को भुलाते जा रहे हैं।

परशुराम भी तो ब्राह्मणों के भगवान है, खासतौर पर भूमिहार लोगों के जनक देवता।

भूमिहार कौन हैं? और उनकी उत्पत्ति की क्या कहानी है? संसार में इनके प्रति क्या आस्था थी, टीवी युग से पूर्व?

दरअसल एक समय ऐसा भी आया था समाज में, जब ब्राह्मणों की सभी गैर–ब्राह्मण जनों से शत्रुता हुआ करती थी। ये हुआ था भगवान बुद्ध के आगमन के बाद। भूमिहार की उत्पत्ति ब्राह्मणों में से हुई मानी गई है, — वो ब्राह्मण जिन्होंने शास्त्र रख दिए थे और शस्त्र उठा लिया थे। भूमिहार शब्द के प्रयोग उत्पत्ति की कहानी यूं है कि जिन ब्राह्मणों ने धरती यानी भूमि का आहार लेना शुरू कर दिया था, वे भूमिहार कहलाने लगे। मूल मान्यताओं में ब्राह्मण केवल दक्षिणा लेकर ही आहार करते थे, खुद से खेती करके भूमि से उगा कर के नहीं। मगर बुद्ध के आगमन के बाद में, बुद्ध की शिक्षा से जब संसार प्रभावित होने लगा तब लोगों ने धीरे धीरे करके ब्राह्मणों से नाता तोड़ लिया और दक्षिणा देने का चलन करीबन समाप्त हो गया। ऐसे में ब्राह्मणों को मजबूरी में खुद से खेती और पशुपालन करने पर उतरना पड़ गया था। ऐसा मौर्य शासन काल में अधिक प्रसारित हुआ संसार में। बौद्ध लोग अहिंसा में आस्था रखते थे ,और भगवान बुद्ध की तरह अपने शत्रु को प्रेम के बल पर विजई होने की आस्था रखते थे, ठीक वैसे जैसे भगवान बुद्ध ने डाकू अंगुली मल का हृदय परिवर्तन करके उस क्रूर डाकू पर विजय प्राप्त करी थी।

ब्राह्मण का आरोप बौद्धों पर,आजतक, ये है कि बुद्ध की ऐसी शिक्षा के चलते ही भारत कमजोर हुआ और तब यहां के क्षत्रियों ने शस्त्र उठाना बंद कर दिया। जिससे की भारत हारता रहा हर एक आक्रमणकारी से, खासतौर पर मुस्लिमों के हाथों।

फिर जब मौर्य काल और नंद वंश के दौरान यूनानी सम्राट alexander ने हमला किया था, उस दौरान ब्राह्मणों ने अपनी खेती बाड़ी की भूमि की रक्षा करने के लिए शस्त्र उठाना शुरू कर दिया और वही लोग भूमिहार कहलाने लग गए।

भूमिहारों की बौद्धों और जैनियों से नहीं बनती थी, क्योंकि भूमिहार अपने दार्शनिक विचारों से हिंसा करने में आस्था रखते थे, जबकि बौद्ध और जैन दोनो ही अहिंसा के पुजारी थे।

कहा जाता है कि इसी युग काल के दौरान जैन लोग भगवान महावीर और चार्वाक संस्कृति में आ गए, नास्तिक बन गए और इन लोग ने ब्राह्मणों के रचे शास्त्रों में आस्था रखना बंद कर दिया। जैन समुदाय आज भी ब्राह्मणों के रचे वेद ,उपनिषद और अन्य शास्त्रों में आस्था नहीं रखते हैं हालांकि अपना ये रवैया वो लोग छिपा कर गुप्त रखते हैं।
और गुप्त क्यों रखते है, ये सवाल आपको खुद से बुझना होगा इस लेख को पढ़ने समझने के बाद में।

भूमिहारों के प्रथम राजा, पुष्यमित्र शुंग, ने नंद राजा बिम्बिसार की छल से हत्या करके शासन अपने कब्जे में कर लिया। नंद और मौर्य राजा लोग बुद्ध और जैन दोनो में आस्था रखते थे, और ब्राह्मण के रचे शास्त्रों से विमुख हो चुके थे। मौर्य काल में ब्राह्मणों का शासन में प्रभुत्व नहीं हुआ करता था । मगर अब भूमिहार राजा, शुंग के आ जाने के बाद से वापस ब्राह्मण खुद ही राजा बन कर वापस सत्ता और प्रभुसत्ता में लौट आए । और इसके बाद भूमिहारों ने बौद्ध भिक्षुओं और जैन मुनियों पर बहुत सितम किए और कईयों का वध कर दिया। कुछ जैन मुनियों के दावे कहते हैं की एक रात में आठ हजार से अधिक जैन मुनियों का सिर काट दिया गया था, भूमिहारों द्वारा।

मौर्यों और नंदों के शासन के समय भारत की भूमि आज तक की सबसे विशाल क्षेत्रफल की थी। मगर भूमिहारों के बाद से ये वापस छोटे छोटे राज्यों में टुकड़ों में विभाजित हो गई , और छोटे छोटे नए राज्य निकल आए जो आपस में शत्रुता रखते थे।

आपसी शत्रुता इसलिए शुरू हुई, क्योंकि इससे पूर्व मौर्यों के दौरान बौद्ध शिक्षा की जब शासन पर मजबूत पकड़ थी, तब राजा लोग अच्छे शासन करने पर अधिक व्यसन करते थे, बजाए की अपने अहम को पालते रहे और महत्वाकांक्षी बन आपस में द्वंद करें।

ब्राह्मण महत्वकांक्षी होते हैं, अहम पालते हैं मन ही मन में और प्रभुत्व रखने की गुप्त इच्छा रखते हैं। जबकि बौद्ध और जैन अपने आत्म संयम से अहम को नियंत्रित या विजई होने में व्यसन करते हैं। इसलिए ही बौद्ध अक्सर अधिक विनम्र और शांतिप्रिय होते हैं, ब्राह्मणों के मुकाबले।

मगर जब संसार पर बौद्ध शिक्षा का प्रभाव समाप्त होने लग गया , तब संसार में अहम और अभिमान , प्रभुत्व करने की लालसा वाली शक्ति पैर जमाने लग गई। बस यही से भारत में टुकड़े टुकड़े हो कर छोटे छोटे राज्य निकल आए जो आपस में शत्रुता पालते थे।

ये सब ब्राह्मणी सोच और शिक्षा का कमाल था, और जो की बौद्ध और जैन शिक्षा से वैमनस्य पालते हुए निर्मित हुई थी। बौद्ध की सोच से ठीक उल्टी सोच।

ब्राह्मण बनाम बौद्ध तथा जैन के संघर्ष की कहानी

भूमिहारों के सत्ता में आने से संसार भूमिहार राजाओं के चलाए गए ब्राह्मणवाद के चपटे में आ गया। शायद इसी काल के दौरान जातिवाद ने वो चिरपरिचित ऊंच–नीच वाला चरित्र पकड़ लिया था, जिसमे कि शूद्रों के साथ अमानवीय , अछूत व्यवहार करने का सामाजिक चलन निकल पड़ा था। ये शायद ब्राह्मणों के प्रतिशोध में से निकला व्यवहार था, समाज में। ये सभी इतिहासिक घटनाएं उत्तर भारत में घटित हुई थीं। और शायद ये बात उत्तर दे सके कि क्यों उत्तर भारत में चार सामाजिक वर्ण बने जबकि दक्षिण भारत में दो सामाजिक वर्ण रह गए।

ब्राह्मण–भूमिहार राजाओं ने बौद्धों को समाप्त तो किया ही, साथ में उनकी अनाथ संतानों को परिवर्तित करके हिंदुओं में वापस ले लिया तथा नीचे की वर्ण व्यवस्था निर्वाचित कर के पीढ़ियों तक अपना दास बनाने हेतु तैयार करना आरंभ कर दिया।  तब से ले कर आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी लोग ब्राह्मणी सोच से ही संसार को देखते समझते हैं। खुद को 'हिंदू' मानते है, और ये तक स्मरण कर सकते हैं कि कभी किसी युग में उनके पूर्वज बौद्ध अनुयाई हुआ करते थे। हालांकि अद्भुत बात ये है कि समाज में ब्राह्मणों के प्रति विरोध आज भी व्याप्त है, मगर जो की जातिवाद के रूप में देखा और जाना पहचाना जाने लगा है । आज उत्तर भारत कि राजनीति जातिवाद के मुद्दो पर चलती हुई जानी और देखी जाती है, जिसमें झगड़े की हड्डी (bone of contention) की भूमिका निभाता है आरक्षण का विषय। तो देशवासी, जो ब्राह्मणवाद, पुष्यमित्र शुंग या भूमिहार की उत्पत्ति के विषय में  सत्य ज्ञान नहीं रखते हैं, वे समाज में व्याप्त ब्राह्मण विरोध की ललक को आरक्षण की राजनीति के रूप में देखते- समझते हैं ।

इधर, बाद के समय में भूमिहारों ने भी अपने उत्पत्ति की कथा वैदिक घटनाओं से होने की रच –बुन ली और समाज में प्रसारित करना आरंभ कर दिया, की कैसे भूमिहार लोग महर्षि परशुराम से उत्पत्ति करें है, वैदिक युग से। ऐसा प्रसारण हो जाने से समाज में अबोधता और अज्ञानता व्याप्त हो गई ,जिसने सत्य सामाजिक–इतिहासिक ज्ञान को अगोचर हो जाने में सहायता किया।
बौद्ध धर्म भारत में उत्पत्ति हुआ और कई सारे अन्य देशों में प्रचलित हुआ, जिसमे पूर्व के देश –चीन , जापान, कोरिया, वियतनाम, थाईलैंड, बर्मा, तिब्बत,श्रीलंका, कंबोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, वगैरह विशेष है । मगर ये इतिहासकारों में आश्चर्य का विषय रहा है कि आखिर ये धर्म भारत में ही क्यों इतना कम प्रचलित छूट गया। इस सवाल का जवाब भी शायद ये बौद्ध–भूमिहार संघर्ष की कहानी में छिपा हुआ है।

आज कल अपना कुलनाम "सिंह" कोई भी रख लेता है और तर्क देता है की इसका अर्थ तो क्षत्रिय वंश के संबद्ध होने से होता है, मात्र।

जबकि आज भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के पुराने लोग आपको बताएं वास्तव में "सिंह" कुलनाम इस क्षेत्र में केवल भूमिहार लोग रखते थे, जो की उनके प्रथम राजा, पुष्यमित्र शुंग, के नाम में से उत्पत्ति हुई थी। तत्कालीन युग में केवल शक्तिशाली भूमिहार जाति के लोग ये नाम रखते थे और दूसरे लोगो को ये कुलनाम नहीं रखने दिया जाता था — ताकि कोई छल से उनके समाज में न बैठने लग जाए ! और फायदा निकाल ले ।

जी हां, ये अजीबोगरीब बात है, मगर दूसरी जातियों आज वही कुलनाम प्रयोग करने लगी है, जो की किसी समय उनके पूर्वजों के सितमगर हुआ करते थे। 🙀🤫🤫😳

इतिहास और समाजशास्त्र में दुखद मगर कड़वा सच ये है की संसार में कई बार जब वंशवध घटे हैं, नरसंहार किए गए है, तब कोई कहानी बताने वाला भी जीवित नहीं बचा है। और ऐसे में मरने वालो की अनाथ हुई संतानों ने अनजाने में उसे ही अपना जनक मान कर उसकी प्रथा को निभाना शुरू कर दिया जो कि उसके वास्तविक माता पिता का हत्यारा था ! 😳😥🤫

भारत भूमि पर तो खास तौर पर इस प्रकार की कष्टदाई घटनाएं आपको बार बार देखने को मिलेंगी जब बड़े ही फक्र से, किसी उलूम जुलूल तर्क के लपेटे में फंसे हुए, कुछ लोग बड़ा विचित्र काम कर रहे होते है, जिसकी उनको टोह भी नहीं होती है कि सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से इसका क्या अर्थ होता है, ये कितना बड़ा अनर्थ कर्म है।

संसार में लोगों को शायद ये भी नहीं एहसास होगा कि आज जो इतने दमखम से हिंदू बने हुए हिंदू धर्म को मुसलमानों से बचाने के लिए जमे हुए है, वो सब कभी किसी युग में बौद्ध थे और ब्राह्मणों के रचे शास्त्रों से अलग हो चुके थे।

ऐसा सब कमाल हुआ है नृशंस नरसंहारों की बदौलत, जिसमे कोई भी जीवित नहीं बचा था कहानी बोलने और लिखने को। बस कुछ दंतकथाएं ही रह गई हैं, और कुछ एक अजीब से दिखने वाले व्यवहार और घटनाएं, जो अवशेष बनी हुई गवाही देती है की कहीं, कुछ तो अटपटा रहस्यमई है, जिसके सच को आधुनिक काल में लोग भूल चुके हैं।

चाणक्य और अर्थशास्त्र के प्रति क्या अजीब बात है? क्या जानते हैं आप इसके बारे में?

चाणक्य मौर्य शासन काल का चरित्र है। मौर्य शासन के बारे में पुरातत्व विज्ञानी, जो की इतिहासकारों का कर्मवादी प्रमाण देने वाला वर्ण होता है, वो बताते हैं कि करीब २ री शताब्दी ईसा पूर्व में थे। मगर चाणक्य नामक के बारे में जो भी जानकारी जानी जाती है, वो ६ वी शताब्दी में रचे गए एक काव्य में से मिलता हैं –मुद्राराक्षस — जिसे विष्णुगुप्त नामक किसी कहानीकार ने लिखा था। चाणक्य के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ भी तथ्य उपलब्ध नहीं है, कि उसका जन्म कब हुआ, माता - पिता कौन थे, पत्नी और संतान कौन थी। सिवाय इसके कि वो ब्राह्मण था। ये सब बातें इशारा करती हैं कि संभवतः ये काल्पनिक चरित्र है, जिसे ब्राह्मणों ने रचा था लोगों की स्मृति में से बौद्ध अनुयायी शासकों की, जो अशोक के वंश के थे, उनके सुशासन की उपलब्धियों को हड़पने के लिए ! (To appropriate the legacy of good governance by the Mauryan Rulers) ।

भूमिहार ब्राह्मणों के हाथों से जैन मुनियों की प्रताड़ना का इतिहास भी आज करीबन विलुप्त हो कर भुलाया जा चुका है। सिवाय कुछ एक जैनियों के, लगभग सभी इस ऐतिहासिक सांस्कृतिक घटना को भूल चुके है। फिर भी, आचार्य ओशो रजनीश , जो की जैन थे, उनका 1980 के आसपास का रिकार्ड किया हुआ एक अभिभाषण सहज उपलब्ध है इंटरनेट पर, जिसमे वो प्रश्न कर रहे हैं कि चार्वाक का साहित्य क्यों नष्ट कर दिया – ब्राह्मणों ने । और फिर एक विस्तृत वाचन देते हैं कि ब्राह्मणों को क्या दिक्कत थी चार्वाक की नास्तिक विचारधाराओं से, जो ब्राह्मणों ने जैनों की प्रताड़ना तो करी ही, साथ में उन के साहित्यों ग्रंथों को भी नष्ट कर दिया था।



क्यों एक इंजीनयर या डॉक्टर को कदापि IAS IPS नहीं बनाना चाहिये

किसी IIT, AIIMS से पढ़े व्यक्ति को IAS IPS बना कर ये सोचना कि देश अब अच्छे से चलेगा, ये तो कुछ ऐसा हुआ कि पढ़ाई में अच्छे लड़के को क्लास का मोनिटर बना कर सोचना कि पूरी क्लास अब बेहतर परफॉर्म करेगी ! 
घंटा! 
उल्टे समाज को ज़रूरतमंद professional इंजीनयर और डॉक्टर से वंचित कर दिया,और कुछ नहीं ।

सांस्कृतिक इतिहास की कहानी ये बताती है कि अच्छे प्रजातंत्र में professional प्रधान होता है क्योंकि वो समाज की ज़रूरतों को पूरा करता है। न कि सरकारी मुलाज़िम, जो केवल प्रशासनिक कार्य देख रेख करता है। अच्छे लड़के को मोनिटर नियुक्त कर देने से बाकी छात्र अच्छे पेंटिंग अच्छे डांस, अच्छे गणित,  या अच्छे जीवविज्ञान नहीं पढ़ने लग जाते हैं। उल्टे वो अच्छे बच्चा भी मोनिटर बन जाने पर पढ़ाई लिखाई और अपने कौशल से ध्यान भंग हो जाने से भटक जाता है।

 कोई भी सरकारी मुलाज़िम कभी भी professional नहीं हो सकता है। professional सैदव market से कमाता है, अपनी सेवा या उत्पाद बेच कर। सरकारी मुलाज़िम की तरह जनता से जबरन जमा करवाये टैक्स में से तंख्वाह नहीं लेता है - एक सुरक्षित, निश्चित आय, जो कभी नहीं घटती हो - चाहे देश में सूखा पड़े, बाढ़ आ जाये, दंगे हो जाये या डकैती, लूटपाट और आगज़नी होती रहे!!

एक सरकारी मुलाज़िम को professional मान लेना, ये तो केवल उन्ही मूरखचंद समाजों में हो सकता है जहां की नदियों नालों के समाम गंदी होती है। कम अक्ल लोगों को पता ही नहीं होता है कि नदी क्या है, नाला क्या है, और क्यों  दोनों को हमेशा अलग रखना चाहिए, कभी भी मिलने नहीं दिया जाना चाहिए।


Some management philosphy quotes

 






जन्मजात पंडित और व्यक्तिव का confidence का भारत के जनमानस पर धाक

हमारे एक मित्र, मxxष मिश्रा, कुछ भी लेख लिखते समय confidence तो ऐसा रखते हैं जैसे विषय-बिंदु के 'पंडित' है, जबकि वास्तव में ग़लत-सलत होते हैं। तब भी, उनके व्यक्तित्व में confidence की झलक होने से उनके लाखों followers है !

सोच कर मैं दंग रह जाता हूँ कि देश की कितनी बड़ी आबादी अज्ञानी है, जिसका कि जगत को पठन करने का तरीका ही मxxष मिश्रा जैसे लोगों के उल्टे-शुल्टे लेखों से होता है, सिर्फ इसलिये क्योंकि मxxष जी जन्मजात पंडिताई का confidence रखते हुए लोगों को आसानी से प्रभावित कर लेते हैं ।

भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में तमाम प्रबंधन शिक्षा के गुरु लोग ऐसे ही नहीं बार-बार 'व्यक्तिव में confidence' रखने की बात दोहराते रहते हैं। बल्कि वो लोग तो सफाई भी देते रहते हैं कि अगर आप के व्यक्तिव में confidence है, तब अगर आप ग़लत भी हो, तब भी आप अपनी बात को जमा सकते हैं।

प्रबंधन गुरु लोग ग़लत नहीं हैं। हमारे देश की आबादी में औसत आदमी किताबी अध्ययन करने वाले बहोत ही कम हैं। ऐसे हालात में लोगों को किसी भी विषय पर सही-ग़लत का फैसला करने के संसाधन करीब न के बराबर होते हैं। ये देश अज्ञानियों का देश है। मूढ़ लोगों का देश, जहां की संस्कृति में मूर्खता समायी हुई है। कम संसाधनों के चलते लोग बाग हल्के तरीकों से गूढ़ विषय पर तय करने को बाध्य होते हैं कि बात सच है या कि झूठ। सत्यज्ञान है, या कि नहीं। ऐसे में, व्यक्तिव का confidence , भले ही बनावटी हो, विषय की गहन पकड़ में से नहीं उभरता हो, सत्यज्ञान के स्वाभाविक आवेश में से नहीं उद्गम करता हो, तब भी लोगों की बीच वो धाक जमा सकता है।

यानी,

अगर आप असल ज्ञानी पंडित न भी हो, बनावटी अथवा जन्म-जात पंडित होने से भी यदि "व्यक्तिव का confidence" रखते हो, तब भी , कम से कम भारतीय संस्कृति में तो आपकी धाक जम जायेगी !

जय हो !


आरएसएस का देश के बौद्धिक चिंतन, जागृति पर दुष्प्रभाव

आरएसएस ने देश भर में तमाम 'सरस्वती शिक्षा मंदिर' स्कूल चलाये, बहोत जनसेवा करि हुई है, मगर इसके साथ ही देश के समाज में ज़हर भी खूब फैलाया है।

जैसा कि आरएसएस का प्रचलित उपनाम है, रॉयल सेक्रेट सर्विस, आरएसएस ने एक किस्म की विध्वंसक मानसिकता का प्रसार भी किया हुआ है, जो बाल्यकाल से ही ब्रेनवाश करके एक ऐसे समाज की नींव डालता है जो कि गुप्तचरों द्वारा संचालित होता है। यदि कोई समाज सेक्रेट सर्विसेस के द्वारा चलाया जाये तब वो कैसे, किसी एक वर्चस्ववादी वर्ग के द्वारा हड़प लिया जाता है, और वो देश किस प्रकार के आत्मघाती और तबाही मंज़र को देखता है, इसे समझने के लिए आपको जिस देश की ओर देखना चाहिए, वो है रूस ।

रूस और हिटलर के जमाने वाली जर्मनी के इतिहास के जानकार लोग ये बताएंगे आपको कि कैसे सेक्रेट सर्विसेस के बल पर प्रशासन किया जाने वाला समाज किसी एक वर्ग के द्वारा अपने  समाज के दूसरे वर्गों  पर वर्चस्व की दास्तान बन गया। वो देश तकनीक और उद्योगिक विकास से तो वास्तव में दूर भाग रहा होता है, हालांकि एक आभासीय मकड़जाल , एक भ्रम अपने इर्दगिर्द बांध लेता है (और खुद से ही खुद के फैलाये झूठों का शिकार बन कर ये मानने लगता है )कि वो अब तकनीकी विकास करने लगा है।

दोनों, रूस और जर्मनी, में हुई परमाणु शक्ति पर ये कयास हमेशा लगाये जाये रहें हैं कि परमाणु अस्त्र उनके वैज्ञानिकों ने उपलब्धि से नहीं हुआ है, ये तो उनके जासूसों के दम पर है । nuclear weapons के विषय में जो prolifiration (प्रसार) का विषय है, वो वास्तव में रूस की जासूसी संघठन के द्वारा किये गये कार्यवाहियों से बढ़ी वैश्विक चिंता में से उपजा है।

हमारे यहाँ आरएसएस ने भी देश व्यापी स्तर पर एक ऐसा सेक्रेट सर्विस संघठन बना दिया है , उन "सरस्वती शिशु मंदिरों" के बहाने। 

ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की मानसिकता की कमी ये रही है कि वो सदैव स्वयं को श्रेष्ठ होने की चेष्टा करते हुए समाज में भ्र्म और कुतर्को को प्रसारित करते रहे हैं। जब , जो भी गुण जनप्रिय हुए या चलन में आये, आरएसएस की ब्राह्मणवादी मानसिकता ने ये परमचेष्टा करि है सिद्ध कर देने की, कि वो गुण "तो " भारतीय संस्कृति में पहले से ही विधमान है।

दरअसल आरएसएस के द्वारा "भारतीय संस्कृति" को अपने मिशन का केंद्र बनाये जाने के पीछे एक गहरी और साज़िश भारी सोच है । वो ये कि यदि तमाम वर्गों को वो साथ रख कर केवल ब्राह्मण जाति की श्रेष्ठता सिद्ध करने कि कोशिश करेंगे, तब तो कोई भी अन्य वर्ग उनके संग नहीं चलेगा। तो फ़िर दूसरा तरीका ये है कि ब्राह्मण वर्चस्व के मिशन को "भारतीय संस्कृति" का चोंगा पहना दो, और अब भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को साबित करवाने में सब को पीछे लगा दो। लोग-बाग जितना अधिक प्राचीन भारत के वेदों, उपनिषदों , ग्रंथों की श्रेष्ठता को साबित करने में आपसी जुगत करेंगे, वो ये अनदेखा भी करेंगे कि साथ में वो ये भी स्वीकार करने लग रहें है कि ये सब ब्राह्मणों की उपलब्धि से हुआ है। तो यदि सब कुछ अच्छा-अच्छा और भला-भला हुआ है, तो फिर हमे ये सब वापस वैसे ही चलाना होगा जिसा तंत्र के चलने से ये सब भला हुआ था - ब्राह्मणों की सोच के अनुसार देश के समाज को व्यवस्थापित करना पड़ेगा !!!!

आरएसएस ने जब, जो श्रेस्ठ गुण चलन में देखा, त्यों हिंदुओं में भी "शुरू से ही" विद्यमान होने का दाव खेला है। यदि आज secularism और liberalism को समाज और सरकारों के आपसी संबंध के संचालन का श्रेष्ठ गुण माना जाता है, तब उन्होंने ये कुतर्क प्रसारित करे हैं कि हिन्दू तो स्वभाव से ही secular और liberal होता है। ऐसा करने में आरएसएस ने समाज की चेतना में न सिर्फ अप्रमाणित तर्को का समावेश किया है, बल्कि secularism और liberalism प्रत्यय के सत्य अर्थो को भी तब्दील कर दिया है। लोग-बाग अब ये सही अर्थ में समझते ही नही है कि secularism के अभिप्राय क्या-क्या होते हैं ,उन्हें क्या सामाजिक तब्दीलियां करनी चाहिये। क्योंकि वो बड़े आत्म विश्वास में रहते हैं कि उन्हें अच्छे से मालूम है कि secularism और liberalism क्या होता है, और कि वो हिंदुओं में पहले से ही मौजूद है।

यदि कल को कही से ये चलन में आ गया कि देशों को संचालन करने के लिए आवश्यक गुण होगा धार्मिक कट्टरता, तब आरएसएस सुविधानुसार ये भी सिद्ध कर देने वाले तर्क प्रसारित करने लगेगा कि हिन्दू तो शुरू से ही कट्टर था !!

कुल मिला कर ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद , दोनों ही छद्म तर्कों को समाज में प्रसारित करने को तात्पर रहते हैं, केवल अपने वर्चस्व (patriarchy) को कायम रखने के ख़ातिर। वो इस देश की विद्या और ज्ञान संस्कृति में वृद्धि नहीं कर रहे है, हालांकि वो दिखाते ज़रूर ऐसा हैं कि आध्यात्मिक और वैदिक ज्ञानकोष इस देश की संस्कृति से विश्व धरोहर को दिया गया है। और ऐसा कुतर्क कर कर के ब्राह्मणवाद देश की चेतना में वास्तव में सुराख कर रहें है। सत्य को जानने - समझने वालो को सबसे प्रथम कठिन युग्न ये करना पड़ेगा कि देश की जनता को ये बताये कि वो जो कुछ भी इतने आत्मविश्वास से जानते-समझते आये हैं, वो सब कुतर्क, भ्रामक और छद्म ज्ञान है !!!!!

What is the difference between Caste and Community

What is the difference between caste and community

To be able to fully appreciate the differences, sometimes we have to first make an understanding of the similarities.
The principle applies well in the present case. 

Caste and Community have almost no difference in their lexical meaning. They both refer to the social group of people. The difference between the two is only of the sociological context , which reveals how the types of groups are formed and how they conduct. 

We all must have heard the term community being used in reference to social groups as the Gujarati Community, the Minority Community, the Indian community (in context of some overseas setlled Indians), and so on and so forth. And then you must have wondered as to why we don't use the word Caste, instead, in the above cases. 
And that particular thought must have brought you to contemplate over what is the difference between the two words. Because otherwise your dictionary will tell you almost the same meaning for both these words , as though they are synonyms to each other. 

However, after a deep thought contemplation, a philosopher having insights into the sociology might be able to provide you some difference between the two words. 

Caste is formed by a religious diktat , and forced upon a group of persons by virtue of their brith in a certain group which has a a pre designated name , social status and sometimes even the occupational endeavour. 

In contarast, the community is formed by people by their own willingness, and their social status is not pre defined, nor is their occupation. 

This , communities stand up collectiively against the other community to vie for their share in the economic pie, whereas the caste standup collectively to fight against the other castes and the community to gain a good/ respectable social status , so that they don't further lose out in their share in the economic pie. 

You may well understand how a caste group's struggle is sometimes more harsh than that of a community.


Community is decided, often times, based on their language, their regional settlement, or sometimes even by their religious cult practises. They marry within their community, they build their  dwellings together and manytimes practsie their business also, together. This helps them to survive , sustain and sometimes even progress throuvh a common venture if that venture starts to find success. The communities contest with each other ,and make endeavour to send their members in all fields of occupation so they bring exposure and insights from all the directions to the benefit of the entire community. In all this, all the groups of communities stand at the same level of social status.

But the above does not apply in case of the Castes.All the groups of Castes are at different social status, and they all are mysteriously tied to a certain bandwidth of occupation within which only they find their work. They may not adhere well with each other, they often times fragment out from each other , compete with the other members most times, very rarely they take up a common venture and least of all, they find success wherein they may all make economic progress together. 

Often, the common disgruntlement that binds the members of a caste together is their fight for a increased social status . Thus , their common efforts are in the field of Party Politics, where the agenda is to acquire the legislative and the administrative powers of the state, which they may then use to inmprove their social status , as well as put their people in employment within the government services. That is their set path for an economic upliftment.

 In a summary we can say that the fights and struggles of the caste groups is with themselves, and these fights are sourced from how the arguments have formulated from the religious sculptures and settled within the native society. The caste groups are not fighting to conserve and preserve their heritage; but are constantly looking to overthrow the old customs, traditions, practsies, and the occupation, and adopt modern ways, so to prove their superiority and the higher social status to each other. 



बच्चों की शिक्षा के प्रति मातापिता के लिए नया, उभरता उत्तरदायित्व

ज्यों ज्यों इंटरनेट पर अकादमी विषय ज्ञान का संग्रह बढ़ता जा रहा है, त्यों त्यों competitive exams भी मुश्किल होते चले जा रहे हैं। आज मातापिता की मुश्किल ये नही है कि किताबें महंगी है। मुश्किल है कि इतने सारे ज्ञान को अपने बच्चों में सोखा कैसे जाए। 

 बच्चों की मित्रमंडली और दिनचर्या को प्रतिदिन ज्ञान को सोख सकने के अनुकूल बनाए रखना वास्तविक चुनौती हो चुकी है। Coaching classes, online study courses, का बाजार खड़ा हो चुका है। और सभी कि उस तक पहुंच बन चुकी है। बच्चे में बाज़ार के ज्ञान को सोखते हुए अपनी रचनात्मकता को बनाए रखना भी एक चुनौती बन गई है बाजार में रखा अकादमी ज्ञान भेड़चाल को बढ़ावा दे रहा है। बच्चे अब पहले से और अधिक run–of–the–mill "श्रेष्ठ ज्ञाता" बन जा रहे हैं। Unsolved mysteries, unknown questions, puzzles को सुलझाने में बौद्धिक क्षीर्ण। ऐसा होने से बचा लेना मातापिता के नया, उभरता उत्तरदायित्व है।

कहाँ से, कैसे आये हैं भारत के उद्योगपति

भारत में अधिकांश उद्योगपति कोई व्यवसायिक श्रमकर्ता नहीं है अपने उद्योग के क्षेत्र में। वे सब के मात्र निवेशक के तौर पर प्रवेश करके उस उद्योग के स्वामी बने है।

और उनके पास निवेश करने की पूंजी कहां से आई है?
पुराने जातिगत पेशे तथा सामुदायिक प्रथाओं से तैयार करी है ये पूंजी<

 जब अन्य जातियां अंतर्द्वंद से ग्रस्त थी, समाज की अर्थनीति में पैसे का चलन नहीं हुआ करता था, वे सब ब्राह्मणों के धार्मिक प्रपंच बहकावे में जातपात कर रही थी, कुछ मारवाड़ी समुदाय अंतरिक विश्वास और सहयोग करने वाली प्रथाएं अपना रहे थे, जिस सहयोग और विश्वास का प्राप्त करने का साधन बन रही थी —मुद्रा, यानी पैसा। अहीर अभी गाय पशु को ही अपना धन मानता था, जबकि व्यापारी समुदाय गाय से निकाले हुए दूध को बेच कर प्राप्त हुई मुद्रा को अपना धन मानता था। कुम्हार और बढ़ाई अभी राजा की शाबाशी और गले से निकली स्वर्णमाला को अपने बेहतर कारीगरी कौशल का ईनाम मानता था, व्यापारी समुदाय राजा को कर दे कर दोस्ती कर लेने में ईनाम समझता था। ऐसे ये मारवाड़ी और मेवाड़ी लोग(अधिकांशतः जैन परिवार के लोग) धनवान बन गए और वही आगे चल कर बिरला, अदानी अग्रवाल और गोयल बने। कोई व्यवसायिक कौशल नही था, श्रम नही था। इन्हे निवेश करके प्राप्त हुआ है उद्योग का स्वामित्व।

आज भी जब व्यवसायिक "शूद्र" जातियां आरक्षण के लिए संघर्ष कर रही है, व्यापारिक जातियां अपने आदमी को प्रधानमंत्री बनाने की युक्ति करने में लगी। शूद्रों के बुद्धिजीवियों की बुद्धि अपने समाज को "शूद्र–कारी आरक्षण" से हटा कर, उद्योग समुदाय में तब्दील हो जाने की दिशा में खुली नहीं है।                                                       

04 Jan 2023

 

 

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