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Showing posts from July, 2024

भारत भूमि पर भाषा संबंधित विवादो के कुछ विचित्र पहलुओं पर

दक्षिण भारतीय समुदायों की राजनैतिक बिसात में भाष्य विवाद मौहरा बना रहा है पिछले कई दशकों से। शायद इसलिए कि कभी अतीत में किसी केंद्रीय सरकार की नीति में हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश हुई थी। हालांकि तब से ही गलती सुधार में तमिल भाषा को भी बराबर तवज्जो देने की पहल हुई, मगर नेताओ लोग कहां आसानी से अपने मुहारों को गवाना चाहते हैं। वह कैसे भी करके पुराने छोटे जख्मों को कुरेद कुरेद का नासूड बनाने में माहिर लोग होते हैं। मौजूदा में तमिल और कन्नड़ लोग हिंदी और हिंदी भाष्य लोगों से लगभग घृणा करने लगे हैं। इस कदर की अब वह english को lingua franca बनाना चाहते हैं, जबकि english तो भारतीय मूल की भाषा ही नहीं है ! इधर हिंदी भाषी में भी English medium, Hindi medium का चक्कर है। Hindi medium लोग कम अकल, bigot समझे तो जाते हैं ही, बन भी जाते हैं parochial विचार वातावरण के चलते ! उधर English Medium वालो को पश्चिमीकरण से ग्रस्त,अपने ही देश और संस्कृति के प्रति पूर्वाग्रह से पीड़ित माना तो जाता है ही, वातावरण के चलते ऐसे बन भी जाते है !! अंत में हिंदी भाषियों का कोई माई बाप नही बचता है, क्यो

Retirement Day and the trip of Nostalgia

*Long write up. Discretion to skip it is advisable 🤓* Every month, toward the end of the month, many people nearing retirement visit my office to get my approval signatures for permits to bring their families into the port area for a visit. Many of them seek approval to bring as many as 35 or even 40 people. It seems as though they want to bring their entire village into this high-security port to show every family member and neighbor where they spent their working life. Their salaries, drawn from their work here, helped them build their homes and support their families. I always ask each retiree about their length of service with our organization, where their children are now, what they are doing, where they have built their own homes, and their plans for retirement, their second innings  As I listen to their responses, I often reflect on my own journey and that of my late father, who quietly returned home on his retirement day and went to a temple to offer his thanks to the almighty

Text of my voice message to my course mates on our 25th Anniversary meet

Something should be spoken out By each one of us, to all of us About life, about experiences about learning and about our collective legacy to our children That , how we started, Twenty-five years ago, on April 26th, 1998, our paths converged in a manner scripted by fate. Each of us hailing from diverse corners of India, we found ourselves united by a common thread - an arduous examination that served as our gateway to a shared destiny. Though the process may have been fraught with controversies, the telegram from the Shipping Corporation of India served as our beacon, summoning us to muster and embark on a voyage of professional growth. In hindsight, we ponder upon the roads not taken, the alternative paths we might have traversed. Some among us heeded the call of their true calling, veering towards different career streams. Yet, for those of us who remained steadfast in our maritime pursuit, the journey unfolded as a testament to perseverance and dedication. So, what would you or me

बोध की बात को शब्दों में पिरो कर प्रसारित नहीं किया जा सकता है। बोध की बात व्यक्ति को खुद की अक्ल लगा कर पकड़नी पड़ती है

अब, जब प्रकाश को अकेला ही सलोनी से चुपके से जा कर मिलने और उसके घर में रह कर लौटने का नतीजा भुगतने का अनुभव मिल चुका है, तो अब पलट कर घटना का what–if समीक्षा करिए , अपने दिमाग की थोड़ी सी वर्जिश करते हुए, कि क्या होता — क्या बातचीत चल रही होती— यदि प्रकाश  यही सलोनी से मिलने जाने के लिए हमसे पूछ कर के जाने की कोशिश कर रहा होता। संभव है कि हम प्रकाश को मना कर रहे होते , मगर तब हमे उसे यह समझना बेहद मुश्किल हो रहा होता कि उसे सलोनी से क्यों नहीं मिलना चाहिए। हम शायद प्रकाश से बेहद तर्क वितर्क कर रहे होते , — तमाम किस्म की घटनाओं की दुहाई दे रहे होते, — पूराने और मिलते जुलते अपनी जिंदगी की खट्टे मीठे अनुभवों को सांझा कर रहे होते इस उम्मीद के संग की शायद बात का निचोड़ वह खुद की अक्ल लगा कर पकड़ने में समर्थ हो जाएगा। शायद हमारे लिए बेहद मुश्किल होता सीधे, एक पंक्ति के संक्षिप्त तथ्यिक ज्ञान की तर्ज पर अपनी बात को कह गुजरना, क्योंकि इस मामले में तमाम भावनात्मक पहलू, सामाजिक धार्मिक पहलू भी तो थे ,जिनको की प्रकाश (या उसके जैसा कोई भी नौसिखिया इंसान) केवल बोध से ग्रहण कर सकता । मगर ऐ

बोध और ज्ञान का अंतर

बोध और ज्ञान के बीच का अंतर घना होता है। ज्ञान शब्दों से त्वरित किया जा सकता है, एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक। मगर बोध में मानव हृदय की भावना भी सम्मलित होती है, इसलिए वह शब्दों से त्वरित नहीं किया जा सकता है। बोध, यानी realisation , अंदर से आई जागृति होती है. इसमें सूझबूझ, सहूलियत, दूरदर्शिता, आगामी अपेक्षा, प्रेम, द्वेष, जैसे तरल वस्तु भी मिश्रित होते हैं ज्ञान के संग में। इसलिए एक इंसान को बोध अलग हो सकता है, दूसरे इंसान से, सामान विषय ज्ञान पर ! जबकि ज्ञान महज कोई तथ्यिक , वस्तुनिष्ठ बात होती है। ऐसे कई सारे विषय होते हैं इंसानी संबंधों और इंसानी आदान प्रदान के दौरान , जहां किसी अमुक व्यक्ति के किसी निर्णय , कर्म, कथन, इत्यादि के पीछे में अप्रकट  कारणों के पीछे कई विचार हो सकते हैं। अगर कारण खुद से प्रकट भी किए गए हो, तो भी छलावा या गलती की संभावना भी तो होती है। ऐसे में, सत्य या वास्तविक कारण का ज्ञान नहीं किया जा सकता है, उसे केवल बोध करना होता है । बोध के लिए प्रचलित भाषा में दूसरे शब्द अक्सर प्रयोग किया जाता है - "बूझ लेना"। बोध निर्मित करने के लिए प

Is there a difference between complimenting someone and giving a bribe

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When goras do it, it's obligatory bottle of scotch. When it's done by brown smelly indians, it's corruption Xxxxxx_____xxxxx_______xxxxxx Long ago, I read on Harward Business School website , that Giving Complimentary presents is a kind of Expression of one's feeling, joy happiness satisfaction Therefore, "tipping" is protected under Freedom Of Expression Rights !! The forceful extortion of complement, by misconduct, or by underperforming, That's illegal Xxxxxx_____xxxxx_______xxxxxx Warning: a Long Post below The tragedy of socialist countries, or those countries where the labour exploitation has been culturally accepted common practice (such as India) The social cultural and religious acceptance of the Free Will is low , Therefore, as a cultural predisposition, No man does any task properly of his own free will , The giver and the reciever both are in a state of perpetual tussle to achieve psychological dominance over each other.

भीड़ में जाने पर क्या झेलना पड़ता है

बचपन में जब कभी train से जाना होता था, तब sleeper boggie में बैठी भीड़ के संग में बैठा पड़ता था। भीड़ किसको कहते हैं?  ढेर सारे आदमी जब एक साथ इक्कठे हो जाते हैं, उसे भीड़ कहते है।  दिक्कत क्या है भीड़ में? हर एक इंसान का अलग चालचलन, अलग उठने बैठने का तरीका, अलग खाने पीने, और self cleaning का तरीका होता है। कोई मुंह खोल कर चबाता है, कोई मुंह बंद करके,  कोई नाक से सांस लेता है, कोई मुंह से। किसी के मुंह से बदबू आती है, किसी के नहीं। कोई नाक में उंगली डाल कर सफाई कर देता है, यूं ही खुल कर सबके सामने नाक में जमा मलबा निकाल कर, कोई हिचकता है और केवल बाथरूम में जा कर सफाई करता है। कोई तो ऐसी सफाई करके हाथ तक साफ नहीं करता है; बस यूं ही चुप मार कर बैठ जाता है। कोई hygiene समझता है, पूरी सफाई करता है , हाथो से लेकर चहरे तक की। कोई गला खराश करके यूं ही कही, अपने आसपास या बगल में थूक देता है,  और कोई बाथरूम में। ये सब देख कर अंदर से गंदगी में घिर जाने की बेहद घृणा वाली feeling आने लगती है , अपने भीतर में। और हमारा अपना खाना पीना , सांस लेना गंदा लगने लग जाता है। ये होता है भीड़ का चरित्र। इतने