भारत भूमि पर भाषा संबंधित विवादो के कुछ विचित्र पहलुओं पर

दक्षिण भारतीय समुदायों की राजनैतिक बिसात में भाष्य विवाद मौहरा बना रहा है पिछले कई दशकों से। शायद इसलिए कि कभी अतीत में किसी केंद्रीय सरकार की नीति में हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश हुई थी। हालांकि तब से ही गलती सुधार में तमिल भाषा को भी बराबर तवज्जो देने की पहल हुई,
मगर नेताओ लोग कहां आसानी से अपने मुहारों को गवाना चाहते हैं। वह कैसे भी करके पुराने छोटे जख्मों को कुरेद कुरेद का नासूड बनाने में माहिर लोग होते हैं।

मौजूदा में तमिल और कन्नड़ लोग हिंदी और हिंदी भाष्य लोगों से लगभग घृणा करने लगे हैं।

इस कदर की अब वह english को lingua franca बनाना चाहते हैं, जबकि english तो भारतीय मूल की भाषा ही नहीं है !
इधर हिंदी भाषी में भी English medium, Hindi medium का चक्कर है। Hindi medium लोग कम अकल, bigot समझे तो जाते हैं ही, बन भी जाते हैं parochial विचार वातावरण के चलते !

उधर English Medium वालो को पश्चिमीकरण से ग्रस्त,अपने ही देश और संस्कृति के प्रति पूर्वाग्रह से पीड़ित माना तो जाता है ही, वातावरण के चलते ऐसे बन भी जाते है !!

अंत में हिंदी भाषियों का कोई माई बाप नही बचता है, क्योंकि हिंदी भाषा किसी राजनैतिक बिसात का मौहारा नही बनी है अभी तक !

कुल मिला कर हिंदी क्षेत्र वाद अभी तक नही उठा है अभी तक, जबकि सभी प्रांतों में क्षेत्रवाद खुल कर पनपने लगा है।

लेकिन , यदि हिंदी क्षेत्रवाद भी सर उठाने लग गया, बाकी सभी प्रांतों की ही तरह,तब एक बात प्रमाणित हो जायेगी, और एक भविष्यफल अवशयभावी हो जायेगा,

कि भारत पूर्वकाल में गुलाम इसलिए बना था कि भारतीय संस्कृति में विविधता इतनी अधिक और घनी थी कि ऐसा होना तयशुदा था,
और भविष्य में दुबारा से ऐसा होना भी भारत की नियती है।

बाद में, हम लोग अपनी ही खामियों का दोष कभी मुसलमानों को देंगे, और कभी britishers और उनकी तथाकथित divide and rule policy करके किसी बनावटी कृत्रिम वस्तु को ।

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