There is a culture of Anti Reservationism within certain institutions in India. These institutions openly and brazenly ridicule the policy of reservation set by various legislature as if reservation is the cause of all the social disbalances and the ills that this country suffers from. It is shocking and dismaying that what these institutions hold is in conflict with the desires of the legislature, and yet there has never been cry about such a conduct ever.
Supreme Court of India is one such Institution at the top of the list who has often spoken and given commentary on the ills that the policy of reservation brings along with it. But much to the surprise of the downtrodden people, this supreme Institution of justice has perhaps never made any commentary which may stand in line with the will of the legislature and thus reveal to the general public the need and purpose of the reservation policy.
The reservationist on the other hand have truly always been timid and guilt conscious about that extra length of rope they have been given and therefore always acted defensive on the matter. So bad has been the state of affairs that the general public in India is almost unconscious of the core reason why affirmative actions have been regularly chosen as appropriate path in various nations of the world, to offset certain historic and cultural disbalance in them.
Anti-reservation has afforded to stand with audacity of a denialist as if no historic wrongs have ever happened with our country. Many people and organization, particularly the defense forces, the judiciary and medical fields take pride in showcasing that they don't suffer from the ills of reservation policy, but they do not like to reveal to the public their data on how much level-field their organization have fared with regard to those offset which the Reservation policy seeks to redeem.
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
Anti-Reservationism --- the modern form of social discrimination
कलयुग, अंधेर नगरी, इडियोक्रेसी और मोदी सरकार
कलयुग, अंधेर नगरी, इडियोक्रेसी और मोदी सरकार
दूसरे धर्मपंथ जो की भविष्य में क़यामत और "जजमेंट डे" जैसे धरती के अन्त की भविष्यवाणी करते हैं, उनकी ही तरह हिन्दू पंथ में भी प्रलय की बात होती है जब यह सारी सृष्टि नष्ट हो जायेगी। मगर हिन्दू पंथ की मानयताओं में प्रलय के पहले एक काल, कलयुग नाम के समाजिक दौर की भी चर्चा होती है जिसमे इंसान की बुद्धि विक्सित और समृद्ध होने के बजाये विघटित होने लगेगी।
इतिहासकारों की नज़र में जैसे15वी शताब्दी के आस पास के युग को उसकी सामाजिक मान्यताओं के लिए 'अंधकार युग' पुकारा गया है, 17वी शताब्दी को उद्योग और कारखाना युग माना गया है, ठीक इसी प्रकार प्रसिद्द इतिहासकार रामचंद्र गुहा के अनुसार मोदी सरकार आजादी के उपरान्त आज तक की सबसे "बौद्धिकता-विरोधी और विद्यालय गत औपचारिक शिक्षा से अप्रशिक्षित"( "the most anti-intellectual and philistine") सरकार पुकारी गयी है।
शायद मोदी जी की सरकार भारत को कलयुग के मुर्ख देश, अंधेर नगरी,का दर्ज़ा दिलवा कर ही मानेगी।
कलयुग से सम्बंधित बहोत सारी सामाजिक मान्यताये है कि कलयुग में जीवन आचरण कैसे हुआ करेंगे। 1970 के दौर में आई एक फ़िल्म, गोपी, के गीत "राम चंद्र कह गए सिया से...", में इन मान्यताओं को दर्शाया गया है।
जैसे, हंस चुगेगा दाना दुनका, कौआ मोती खायेगा , के प्रसंग से दो संभावित अर्थ निकलते है, जो की दोनों ही कलयुग के आचरण पर उचित माने जा सकते है। पहला अर्थ कि, 'कल' यानी मशीनों से निर्मित यंत्रपुतलियों (या रोबोट) के माध्यम से कुछ भी कार्य प्राकृतिक रूप के विपरीत हो कर भी करवाई जा सकेंगी। और दूसरा अर्थ कि, साफ़ निर्मल निश्छल भाव के मनुष्य बुरे समय को भुगतेंगे ('हंस चुगेगा दाना दुनका'), जबकि कपट और धूर्तता बरतने वाले मनुष्य अच्छे दिन बिताएंगे ("कौआ मोती खायेगा")।
हॉलीवुड में निर्मित एक फ़िल्म "इडियोक्रेसी"" (Idiocracy) में भी हिन्दू मान्यता वाले 'कलयुग' की भांति मनुष्य के IQ के व्यापक विघटन की बात उठी है। इस फ़िल्म में प्रस्तुत विचारों के अनुसार कंप्यूटर , कैलकुलेटर जैसी उच्च, स्वचालित मशीनों के आने से भविष्य की मानव पीढ़ी अकल से बुद्धू हो जायेगी क्योंकि वह साधारण से साधारण कार्यों के लिए भी स्वचालित मशीनों पर निर्भर करेगी, बजाये कि अपनी बुद्धि को कोई समस्या समाधान का अभ्यास दिलाये। इसके नतीजे में एक मानसिक विराम कोशिकाओं और dna स्तर पर मानव बुद्धि का विघटन होगा। चिकित्सा की वैज्ञानिक भाषा में इस कोशकीय विघटन को dysgencis (डिसजेनिक्स) बुलाया गया है। फ़िल्म में कहानी के माध्यम से विचार प्रस्तुत किया गया है की कैसे वर्तमान काल की शासन व्यवस्था, डेमोक्रेसी यानि प्रजातंत्र, धीरे धीरे मुर्ख और औपचारिक विद्यायल गत शिक्षा से अनअभ्यस्त(philistine) लोगों के हाथों में जाकर शासन संचालित होने लगेगी और फिर धरती पर 'अंधेर नगरी' बसा देगी। मूर्खों की धरती पर कुतर्क और असहनशीलता मनुष्य के न्याय में बस जायेंगे, कामुकता , अभद्रता, यौन आचरण व्यापक हो कर सरल हो जायेंगे और उस दौर की भाषा, संस्कृति, राजनीति, चिकित्सा, सब जगह दिखाई देंगे।
इधर "गोपी" फ़िल्म के गीत , "राम चंद्र कह गए सिया से..", में भी इडिओक्रिसी जैसी उदगोषणा है जब पंक्ति आती है "राजा और प्रजा में होगी निष दिन खींचा तानी "। कामुकता और अभद्रता के संस्कृति आचरण बन जाने के विषय में भी एक पंक्ति है कि "घर की बाला" पिता और परिवार वालों के समक्ष ही नाचेंगी । "धर्म भी होगा, कर्म होगा , परंतु शर्म नहीं होगी" के बोल गीत के आरम्भ में ही अभद्र आचरण के कलयुग में व्यापक हो जाने की घोषणा कर देते हैं।
वर्तमान वास्तविकता में सनी लेओनी के जोक्स मानो की स्वाभाविक प्रसंग हो चुके हैं, जो की छोटे अबोध बालको को भी ज्ञात है। अगर कोई महसूस कर सके तो फिर सनी लेओनी ने अपनी वयस्क फिल्मों से शायद समाज में इतनी कामुकता और अभद्रता नहीं फैलाई है जितनी की हम सब ने आपस में सनी लेओनी के jokes को share करके कर दी है। jokes के नाम पर कामुकता का प्रसंग एक परोक्ष सरलता से अबोध बालकों तक को उपलब्ध हो रहा है जो की उनकी भाषा और आचरण में कामुकता को प्रवेश करवा रहा है। तो वास्तविक प्रभाव में हम इन "निर्मल, क्षतिहीन"(innocent, innocuous) jokes(लघुहास्य) के माध्यम से प्रतिदिन कलयुग अभिशाप को भुगतते हुए कामुकता और अभद्रता को संस्कृति बनाते जा रहे हैं। भगवान रामचंद्र के सीता माता को दिए कथन सच हो रहे हैं।
मोदी जी और स्मृति ईरानी की औपचारिक शिक्षा के philistine सत्य भी अब प्रकट हो चुके हैं। टीवी मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से जनता और प्रशासन के बीच रोज़ाना खींचा तानी होता रहती है।
गोपी फ़िल्म के गीत की करीब करीब सभी पंक्तियाँ वर्तमान काल में कलयुग के अभिशाप को सत्य होती सुनाई देती है। जैसे कि, "जो होगा लोभी और भोगी, वो जोगी कहलायेगा"। वर्तमान में जिस गति से पाखंडी और ढोंगी साधू , बाबा, और बापू किस्म के लोग पकड़ में आये हैं, और उनकी संपत्ति के विषय में बाते प्रकट हुयी है, इन पक्तियों के सत्य होने का आभास स्वतः हो जाता है।
एक अन्य पंक्ति , "चोर उच्चके नगर सेठ प्रभुभक्त निर्धन होंगे" के सत्य होने का आभास वर्तमान के उद्योगपति और crony capitalism के विषय को समाचारपत्रों में पढ़ने से मिलने लगता है।
अब तो यह अपने मन में सोचने की बात है कि भगवन रामचंद्र के उस उदघोषित कलयुग और अंधेरनगरी से और कितना दूर है वर्तमान का भारतवर्ष।
Idealism, and the net account of the Compromises and Sacrifices
An Idealist can never come to power in a vastly opinionated country as our. I guess he should neither even be coming over.
However, the bitter truth of life i wish to remind the readers of this post is that no able and successful leader can afford to make expansive departure from the IDEALS either. Indeed, the minor unavoidable departures that one has to make is what is truly described in philosophical terms as PRAGMATISM. Many foolish people in our country think that meaning of Pragmatism is about being Conscience less. Indeed, Conscience-less condition is truly a Psychopath, which can only yield cruel, deceitful , autocratic person whom many other foolish people may mistake for an able, successful leader.
Party Politics is surely about making compromises. But then Politics is the art and science of Good Governance. All the People can be fooled, but not always and neither for ever. Hence, a successful leader is one whose compromises don't go into his soul of changing the objective of Good Governance. People who sacrifice while yet making the compromise make a better leader. It is time we begin to teach our own thoughts the near aaccurate reasons for when one should make a compromise and when one should make a sacrifice. The judgement is truly an art, and more a matter of public perceptions.
Given the electoral successes being enjoyed by Kejriwal, and the drubbing being given to Modi, i can say that public perceptions of Kejriwal's Compromises and Sacrifices is better than that of Narendra Modi's.
काल्पनिक कथा: free basics में भविष्य का युग
कल्पना करिये यदि फेसबुक का free basics गरीबों के नाम पर वर्तमान में आ जाता है तब फिर आज से 50 साल भविष्य की क्या-क्या समस्याएं होंगी, और उन समस्याओं का क्या-क्या आर्थिक और राजनैतिक "समाधान"हो रहा होगा।
low बैंडविड्थ पर गरीबों को कुछ मुफ़्त वेबसाइट उपलब्ध करवाई जा रही हैं मगर गरीबों की लगातार शिकायतें आ रही है कि स्पीड बहोत कम है, और सभी आवश्यक जानकारियां और वेबसाइट खोलने को नहीं मिलती है। दूसरी तरफ उस काल की जनता और आलोचक भूतकाल में घटी free basics की debate को भुला चुके हैं, और वह आलोचना कर रहे है की एक तो 2G सुविधा फ्री दी जा रही है, उसपे भी इन गरीबों के इतने नखरे हैं। दान की बछिया के दांत गिन रहे हैं।
hi बैंडविड्थ वाले मिडिल क्लास उपभोक्ता परेशान है की उनको दाम ₹7000/- प्रति माह से बढ़ा कर ₹9000/- देने पड़ रहे हैं। आज दाम डेटा की मात्र के अनुसार नहीं पड़ते हैं, 700/- में 3gb data, 30 दिनों के लिए । यह तो पुराने ज़माने की बात हो गयी है। आज 2G बैंडविड्थ पर गरीबों को फ्री डेटा मिलता, कुछ लिमिटेड, लौ बैंडविड्थ वेबसाइट से, slow स्पीड पर। और बाकी भोगी लोग जिनको इंटरनेट की लत लगी है, और वह hi स्पीड पर hi बैंडविड्थ website खोलने के शौखीन हैं, वह अपनी हैसियत के अनुसार 3g/4G/5G/6G बैंडविड्थ में से किसी पर भी ₹8000 से लेकर ₹45000/- प्रतिमाह तक पर इंटरनेट पैक लगवा कर चलाते हैं। और साथ में भर-भर कर सरकार पर महंगाई का आरोप लगा कर पानी पी-पी कर कोसते हैं।
सरकार में वही चालबाज़, धूर्त राजनैतिक दल है जिन्होंने reforms के कु-चक्र में अर्थव्यवस्था को डाल कर अपने उद्योगपति दोस्तों का मुनाफा बड़ा रहे हैं। अब उनको लगने लगा है की 2G बैंडविड्थ वाली 'फ्री बेसिक्स' की सुविधा को सुधार करने के लिए उसे मार्किट कॉम्पिटेशन लाना होगा। इसलिए फ्री बेसिक्स के अलवा कुछ एक "economy2G" , "pro-poor" जैसी कुछ और लौ बैंडविड्थ सुविधाएं लानी होंगी। मगर जब तक 2G डेटा फ्री रहेगा, इसको सुधार, यानि reforms, के वास्ते market competetion में नहीं डाल सकते है। अन्ततः , कुछ कम यानि सस्ते दाम पर 2G डेटा पर सुविधा सुधार के नाम पर यह नई कंपनियां भी मार्किट में उतर आई हैं।
सरकार का विश्वास है कि इनके आने से कॉम्पिटेशन होगा जिससे सुविधा में कुछ रिफार्म होगा। जनता में 2G सुविधा की "सब्सिडी" खत्म होने का आक्रोश है, मगर आलोचकों की आलोचना से शर्मसार होकर वह चुपचाप इस low price सुविधा को मार्किट में उतरने देते है। आलोचक कहते हैं की भई आप फ्री में 2G सुविधा भी चाहते हो और उसमे सुधार भी चाहते हो, तब फिर एक साथ दोनों थोड़े ही मिल सकेगा।
तो फ्री बेसिक्स के आत्म-लज्जा से ग्रस्त गरीब अब 2G data के लिए भी कुछ दाम देने को तैयार हो गए है।
उधर मिडिल क्लास उपभोक्ता महंगाई और बढ़ते इंटरनेट दामो को कोसते हुए भी उसे लगवाये हुए है, अपनी सामाजिक शान या फिर बच्चों की पढ़ाई लिखाई और उनका भविष्य संरक्षित करने के वास्ते। मगर और कोई चारा नहीं उपलब्ध है। यदि दाम के मुताबिक सुविधा नहीं मिल रही है तो consumer court जा सकते है, मगर वापस trai जैसी संस्था के द्वारा 2G/3G/4G/5G/6G बैंडविड्थ सुविधाओं को नियंत्रित नहीं करवाया जा सकता है।
इधर राजनैतिक दल में एक ख़ुशी और भी है। भूतकाल में जो जनता फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया सुविधाओं के चलते उनके उल्लू बनाओं षड्यंत्रों से जागृत हो कर बच निकलती थी, अब वह hi बैंडविड्थ पर उपलब्ध फेसबुक और ट्विटर को खोल ही नहीं सकती,क्योंकि इस बैंडविड्थ के दाम इतने अधिक है की कई गरीबों को यह फ़िज़ूल खर्ची लगने लगा है। और वह जनता अब वापस अंधकार युग में जा कर सोने चली गयी है। बस, अब वापस राजनैतिक दलो को जनता को उल्लू बनाने का रास्ता सहज हो गया है।
तीनों समय काल से मुक्त, त्रिकाल दर्शी शायद सिर्फ नारद मुनि है जो ऊपर आकाश गंगा में विचरते हुए इस सारे घटनाक्रम को तीनों युग, भूत, वर्तमान और भविष्यकाल में एक साथ देख कर मुस्करा रहे है की कैसा बुद्धू प्राणी है यह इंसान जो खुद को इतना बुद्धिमान समझता है, मगर असल में खुद ही अपने समाज में जहाँ कोई समस्या नहीं थी, वहां गरीबों की मदद के नाम पर अमीरी-गरीबी की समस्या को जन्म देता है, फिर उसे reforms के कु-चक्र में डालता है, और फिर अनंत मार्किट कॉम्पिटेशन में इसके सुधार का इलाज़ ढूंढता अन्तकाल तक खुद को कॉर्पोरेट का गुलाम बना लेता है। और फिर शुरू से, एक आज़ादी की जंग शुरू कर देता है।
अंधेर नगरी में भ्रष्टाचार की व्यथा (व्यंग रचना)
कल्पनाओं के देश, अंधेर नगरी में पूंजीपति ऐश काट रहे थे। वहां चोन्ग्रेस नाम के राजनैतिक दल सत्ता में था और जनता को अंधेर में रख कर राजकोष और राष्ट्रिय सम्पदा को पूँजीवादियों के हाथों बेचे जा रहा था। कुछ गैर-सरकारी एक्टिविस्ट , खेजरीवाल ,अंधकार से लड़ने के लिए सूचना का कानून जैसी नीतियों के लिए संघर्ष कर रहे थे।
तो चोन्ग्रेस सरकार पूंजीपतियों के साथ मिली भगत में खा पी भी रही थी, और जनता में पकड़ बनाये रखने के लिए खेजरीवाल जैसे एक्टिविस्टों को बढ़ावा भी देती थी। भाई वोट जनता का था, और पैसा पूंजीपतियों का। अंधेर नगरी के बुद्धू जनता आखिर रहेंगे बुद्धू के बुद्धू ही। जनता को बुद्धू बनाने वाले चोन्ग्रेसि असल में खुद भी बुद्धू की जात ही थे और अनजाने में सूचना कानून को पारित कर बैठे। और ऊपर से उस कानून को लाने की वाहवाही भी लूटने में लगे थे। टीवी,रेडियो सब जगह प्रचार करवाते घूम रहे थे।
सुसु स्वामी जैसे कुछ वकीलि राजनेता ने सूचना कानून का सहारा लेकर पूंजीपतियों और चोन्ग्रेस की मिलीभगत के घोटाले पकड़ लिए। मामला सर्वोच्च न्यायलय तक गया और यह पूंजीपति सब मामले हार गए। पूंजीपति वर्ग में सारा दोष चोन्ग्रेस के दोहरे खेल का माना गया। अगर खुद भी खाती थी तब फिर सूचना कानून लाने की क्या ज़रुरत थी।
मगर अब क्या ?
चोन्ग्रेस को सजा दो। चोन्ग्रेस की हिम्मत कैसे हुई कि व्यापारी वर्ग से ही "धंधा" करेगी। अभी सबक सिखाते हैं।
कैसे ?
चोन्ग्रेस को अल्पसंखाओं का तुष्टिकरण में फँसाओं। चोन्ग्रेस यह तो थोडा करती आ ही रही थी। बस इसको वही फसाओ। और उधर चाभपा में अपने आदमी को आगे बढ़ा कर तैनात कर दो अगल प्रधानमंत्री बनने के लिए।
पढ़े लिखे iit पास पर्रिकर, पुराने नेता अडवाणी ज्यादा सुशासन प्रमाणित नितीश जैसे को पछाड़ कर एक अनपढ़, चाय बेचने वाला, दंगाई, सरकारी तंत्रों का दुरपयोग और निजी भोग करने वाला भोन्दु चाभपा का नेता बन गया।
इधर सुसु स्वामी भी बुद्धू के बुद्धू निकले। समाजवादी प्रदेश के समाजवादी यादव को बच्चा बुलाने वाले सुसु स्वामी खुद भी बुद्ध निकले और भोन्दु को चुनावी समर्थन दे बैठे। भोन्दु ने उनको वित्त मंत्री बनाने का झांसा दिया था।
वरिष्ट अभिवक्ता राम मालिनी भी उल्लू बनाये गए। वह चोन्ग्रेस के घपलों को पहले से ही जानते थे इसलिए उनको भी लगा की भोन्दु प्रधानमंत्री बनेगा तब देश में सुधार आएगा।
चुनाव हुए, और चोन्ग्रेस के घोटालों से त्रस्त जनता ने भोन्दु के पीछे बैठे पूंजीपन्तियों को अनदेखा कर के उसे ही भोट दे कर जीत दिया। बहोत सी बुद्धू जनता उसे अल्पसंख्यकों की घृणा में भोन्दु को भोट दे आये क्योंकि भोन्दु की पहचान ऐसे दंगो से ही थी। उसके जीवन की असल उपलब्धि बस यही एक तो थी। बाकी वह मॉडल तो प्रचार और विज्ञापन का छल था। चुनावों के बाद में सोहार्दिक पटेल ने उसकी भी पोल उधेड़ दी थी।
भोन्दु ने सब हाँ हाँ करके सारे कर्म ठीक उल्टे, ना-ना वाले करे। सबसे पहले तो सूचना कानून को लगाम में लिया। और घृणा रोग से पीड़ित अपने समर्थकों से विकास के नाम पर बुद्धू बना कर असल मंशाओं को ढक लिया।
सुसु स्वामी का तूतिया कट गया था। भोन्दु ने उन्हें कोई मंत्री तक नहीं बनाया। कैसे बनाता। पिछली चोन्ग्रेस सरकार में सुसु ने ही तो इन्ही पूंजीपन्तियों को झेलाया था। वही तो भोन्दु के असल आका थे। वित्त मंत्री भोन्दु ने इन्ही पुंजिपन्तियों के वकील भरून जैटली को बनाया। राम मालिनी ने तो सार्वजनिक तौर पर मान लिया की भोन्दु ने उनको बुद्धू बना दिया है। और सुसु ने भी टीवी इंटरव्यू में मान लिया वह वित्त मंत्री बनने के झांसे में बुद्धू बना दिए गए हैं।
अंधेर नगरी का नामकरण बिना कारणों से नहीं था,भई। यहाँ सभी बुद्धू बनाये गए है। पूंजीपन्तियों को सुसु स्वामी ने। सुसु ने समाजवादी यादव को बच्चा बुद्धू बनाया। अमूल गांधी को बुद्धू बकते थे। बुद्धू जनता ने सुसु से बुद्धू बन का भोन्दु को प्रधानमंत्री बनाया। भोन्दु तो पूंजीपन्तियों का चिंटू है ही। उसने सुसु को ही बुद्धू बना दिया। हो गया बुद्धू चक्र पूरा। किसने किसको बुद्धू बनाया , कुछ पता नहीं मगर बुद्धू सभी कोई बना है। हो गया अंधेर नगरी नाम सिद्ध।
और जो सब समझ रहे हैं वह अंधेर नगरी वासी होने की बुद्धू गिरी में नित दिन बुद्धू बन रहे हैं।
चाय वाला छोटू (व्यंग रचना)
एक चाय वाले 'छोटू' से यूँ ही पूछ लिया की अगर तू बड़ा हो कर देश का प्रधानमंत्री बन गया तब क्या करेगा ।
चाय वाला बोला की वह बारी बारी से दुनिया के सभी देश जायेगा।
मैंने पुछा की इससे क्या होगा ?
छोटू ने कहा की इससे हमारे देश की सभी देशों से दोस्ती हो जायेगी, हमारा रुतबा बढेगा और वह सब हमारी मदद करेंगे पाकिस्तान को हराने में।
मैंने पुछा की क्या किसी और सरकारी अफसर या मंत्री को भेज कर यह नहीं किया जा सकता है ?
छोटू बोला की साहब, किसी छोटे मोटे नौकर के जाने से दोस्ती न हॉवे है, इसके लिए तो प्रधानमंत्री की खुद जावे को होना है।
मैंने पुछा की तब देश के अंदर का काम कौन करेगा ?
छोटू ने तुरंत जवाब दिया की वह सरकारी अफसर और बाकी मंत्री देख लेवेंगे।
मैंने पुछा की अगर यूँ ही किसी के देश में बिना किसी काम-धंधे के जाओगे तब हंसी नहीं होगी की यहाँ का प्रधानमंत्री फोकटिया है, बस विदेश घूमता रहता है।
छोटू ने कटाक्ष किया की ऐसा कोई नहीं सोचेगा। जब हम किसी के यहाँ जाते है तभी तो उससे हमारी दोस्ती होती है। अगर सिर्फ काम पड़ने पर ही किसी के यहाँ जाओगे तो वह क्या सोचेगा की सिर्फ मतलब पड़ने पर आता है।
चाय वाले की अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध की समझ को सुन कर मुझे कुछ और ही सोच कर हंसी आ गयी।
मैंने चाय वाले से पुछा की तू कहाँ तक पढ़ा लिखा है? छोटू बोला की वह स्कूल नहीं जाता है, बस यही चाय पिलाता है।
मुझे उसके जवाब में समग्र शिक्षा नीति की असफलता, बाल-मज़दूरी के दुष्प्रभाव और संभावित नतीज़े दिखाई देने लग गए थे।
मैंने पुछा की तुझे भारत के बारे में क्या मालूम है? भारत क्या है?
चाय वाला बोला की हम सब लोग भारत है, जिनको पाकिस्तान हरा कर के गुलाम या फिर मुल्ला बनाना चाहता है। भारत एक महान देश है जहाँ पहले सभी दवाईया, हवाई जहाज़, पानी के जहाज़, बड़े बड़े साधू संत होते है जिनको इतना पता था जितना आज भी कोई बड़े बड़े कॉलेज के टीचर और डॉक्टरों को नहीं पता है।
चाय वाले से मैंने पुछा की तुझे यह सब कैसे मालूम?
छोटू ने बताया की उसने यह सब जो उसके यहाँ चाय पीने आते है, पास के कॉलेज के स्टूडेंट, उनकी बातें सुनता रहता है।
छोटू से मैंने पुछा की क्या तुझे स्कूल जाने का मन नही करता है ?
छोटू बोला की मन करेगा तो भी क्या? फीस भी तो लगती है। और फिर यह चाय के ढाभे पर काम कौन करेगा ।
छोटू से पुछा की क्या उसे नहीं लगता की पढाई लिखाई जरूरी है।
छोटू बोला जी जरूरी तो है, मगर सब करेंगे तो क्या फायदा। जो पढ़ रहे हैं उन्हें ही पढ़ने दो, बाकि की खेल कूद करना चाहिए। बाकि कामों के लिए भी तो आदमी चाहिए। यह ढाभा कौन चलाएगा। वह ट्रक का सामान कौन खाली करेगा।यह नाली और सड़क कौन साफ़ करेगा। बगल वाली मैडम के यहाँ कपडे-बर्तन कौन करेगा।
छोटू की बातें और दुनिया देखने की नज़र में मुझे अपने देश के हालात और कारण समझ आने लगे थे। मुझे देश के भविष्य की सूंघ मिल रही थी, की अंधकार कितना घना और लंबा-गहरा, दीर्घ काल का है।
मैंने पुछा की देश की भलाई करने के लिए सबसे पहले क्या करना चाहिए?
छोटू बोला की सबसे पहले दुकान चलवानी चाहिए। जब दुकान चलेगी, तभी तो लोगों की काम मिलेगा, और सामान खरीदने की जाओगे। अगर दुकान नहीं चलेगी तब सामान बिकेगा भी नहीं। इसलिए सबसे पहले दूकान चलवानी होगी।
मैंने पुछा की क्या उसे नहीं लगता की सबसे पहले हमें स्कूल चलवाने होंगे?
छोटू बोला की साहब आपका दिमाग तो स्कूल में फँस गया है बस। अरे पढ़ लिख कर क्या कर लोगे। जब दुकान नहीं चलेगी तब कुछ बिकेगा ही नहीं तब डॉक्टर के पास जाने के पैसे कहाँ होंगे लोगों के पास।
मैंने कहा की भाई दूकान तो पढ़ लिख कर भी चलायी जा सकती है।
छोटू ने साफ़ इनकार कर दिया की ना , पढ़ लिख कर न चलती है दुकान। छोटू को तमाम बड़े नाम पता थे जो की बिना पढ़े लिखे ही आज बड़ी बड़ी दुकाने चला रहे है और वह कितने अमीर है।
मैने पुछा की फिर देश कैसे बनेगा।
छोटू बोला की देश के लिए सैनिक होते है जो बॉर्डर पर लड़ते है।
मैंने पुछा की यह सरकारी अफसर और नेताजी लोग क्या करते हैं, फिर।
चाय वाले छोटू ने कहा की यह सब कुछ न करे हैं, बस बैठ कर पैसा काटे है, देश बेच कर लूट लेवे हैं।
छोटू के "व्यवहारिक ज्ञान" से मैं हतप्रभ था। मुझे आभास हो गया था की अब तो इस छोटू को आदर्श और सैद्धांतिक समझ देना असंभव काम था। उसे अपने सही-गलत का ठोस नजरिया जिंदगी और हालात ने ही दे दिया था। अब अगर कोई तरीका है तो बस यह की आगे कोई चाय वाला छोटू न बने।
छोटू करप्ट तो नहीं था, मगर करप्टिबल ज़रूर था क्योंकि उसकी समझ ही टूटी-फूटी और दुरस्त नहीं थी।
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