एक मत के अनुसार सवाल उठ रहा था कि आखिर सारा पैसा (/धन) कहां गायब हो जाता है? क्या लोग धन को अपने घरों में छिपा लेते हैं, तिजोरियां भर ली जाती हैं, जिससे की बाज़ार में घन की कमी आ जाती है? आखिर क्यों लोगों ने घर, मोटर कार और यहाँ तक की biscuit भी खरीदने बन्द कर दिये हैं ?
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
आर्थिक मंदी का क्या अर्थ और अभिप्राय होता है ?
एक मत के अनुसार सवाल उठ रहा था कि आखिर सारा पैसा (/धन) कहां गायब हो जाता है? क्या लोग धन को अपने घरों में छिपा लेते हैं, तिजोरियां भर ली जाती हैं, जिससे की बाज़ार में घन की कमी आ जाती है? आखिर क्यों लोगों ने घर, मोटर कार और यहाँ तक की biscuit भी खरीदने बन्द कर दिये हैं ?
मार्क टुली और भारत की मिलावट संस्कृति
भारतीय संस्करण में मिलावट का मामला प्रचुर होता है। उल्हासनगर करके एक मुम्बई शहर का एक क्षेत्र अकसर लघुउपहासों में आता है जहां हर चीज़ का डुप्लीकेट तैयार कर दिया जाता है। डुप्लीकेट , जैसे दूध में पानी मिलाना। बल्कि आजकल तो बिल्कुल synthetic दूध ही बना डालते, कपड़े धोने वाले पाउडर से। क्या करें कलयुग चल रहा है। और यह डुप्लीकेट उत्पाद हमारे स्वास्थ्य के लिए परम हानिकारक होते है।
तो मार्क टुली , पूर्व बीबीसी संपादक, जो काफी समय भारत में तैनाती पर थे, और अच्छी खासी हिन्दी भी बोलते है, वह कहते है कि भारत में पंथ निरपेक्षता यानी secularism के नाम पर असल में तुष्टिकरण ही हुआ है।
असल में यह मामला एक भारतीय संस्करण की मिलावट का था, जो secularism वाले "उत्पाद" में दिखाई पड़ा और जनचेतना में आया। अभी राजनैतिक विज्ञान के ऐसे और भी "डुप्लीकेट उत्पाद" पकड़े जाने बाकी हैं।
भारत की Democracy भी मिलावट वाली ही है। अफसरशाही यानी Bureaucratism को ही यहां बोतल पर लेबल बदल कर democracy समझा जाता है। इस मामले में तो मिलावट खुद संविधान ही कर देता है। (जी हाँ, संविधान अपनी मंशा में तो नही, मगर दिये गये प्रशासनिक ढांचे में दोषी है।)
हिदू धर्म का जो हिंदुत्व संस्करण है, वह भी made in ullhasnagar ही समझें। बिल्कुल नकली। इससे तबाही ही आयेगी, घृणा बनेगी समाज में।
भारत में पनपता समाजवाद भी मिलावट या synthetic दूध ही समझा जा सकते हैं। "वामपंथ" तो "गरीबी, अशिक्षा, कुप्रशासन बुलाओ" का दूसरा नाम है।
एक कारण की क्यों भारत में डुप्लीकेट प्रचुर है ,वास्तविक उतपाद से, वह यह है कि हमारे समाज मे मूल विचारकों की कमी है। हम लोग खुद ही मूल विचारों का अपमान , उपहास और त्रुटियां गिनाते रहते हैं, बजाए की उन्हें पहचान करके सम्मानित करें, और उनपर सुधार करके बेहतर बनाये। हमारी मूल सोच "आयात" प्रक्रिया से ही आती है।
मद्यअध्यात्म, यौन सक्रियता और समाज में बढ़ता आपराधिक आचरण
ओशो रजनीश ने कभी, किसी ज़माने में "संभोग से समाधि तक" करके पुस्तक रची थी जिसमे की संभोग (सेक्स क्रिया) के माध्यम से ईश्वरीयता को प्राप्त करने के मार्ग को तलाश किया था।
"प्राणिक उपचार" जैसे कुछ एक गैर-वैज्ञानिक, मगर परंपरागत , विषयों में भी सेक्स क्रिया, सेक्स सक्रियता और ईश्वरीयता(spiritual awakening) के बीच के रिश्ते की चर्चा स्पष्ट शब्दावली में करि जाती है। 'प्राणिक उपचार' विधि में यह माना जाता है की जैसे-जैसे इंसान में ईश्वरीयता का विकास होता है, उसकी "यौन कुंडलियां" भी सक्रिय होने लग जाती है। हालांकि आगे यह विधि यौन सक्रियता को काबू करने पर ही ज़ोर देती है, ओशो रजनीश यहां पर ही बाकी सभी परंपरागत विचारकों से भिन्न हो गये थे। ओशो के अनुसार यौन सक्रियता को सिमटने और रोकने के स्थान पर उनकी पूर्ण तृप्ति के आगे ही सम्पूर्ण ईश्वरीयता को प्राप्त कर लेने का मार्ग ही उचित था। तो ओशो के कहने का अभिप्राय था कि स्वच्छंद यौन आचरण के आगे ही इंसान को ईश्वर की प्राप्ति मिलती थी।
ओशो के विचारों को आज वैज्ञानिक विचारों में इतना अटपटा और गलत नही माना जाता है। जहां अधिकतर पंथों ने यौन आचरण को दमन और सिमटने में ही सदमार्ग की तलाश करि थी, वह सब के सब बहोत ही विकृत किस्म के यौन कर्मकांडों में लिप्त पाये गये थे। यही वह पंथ है जिन्होंने समाज में इंसान को उनके दुःखों से मुक्ति देने की बजाये समाज में मनोविकृति को बढ़ावा अधिक दिया है। छोटे बच्चों से लेकर, बुजुर्ग और यहां तक की पशुओं के संग में अनुचित यौन आचरणों में इसके शीर्ष नेतृत्व और अनुयायी लिप्त पाये जाते रहे हैं समय-समय पर।
प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति में जब शायद सभ्यता और सामाजिकता इतनी विकसित नही हुई थी, तब स्वच्छंद यौन आचरण में ईश्वरीयता को तलाशना एक आम और सहज विधि थी, जिससे की फिर 'परमानंद' जैसी अवस्था मिलती थी, और जिसमे की "सभी शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात' मिल जाता था। खुजराहो और कोणार्क के जैसे कामोत्तेजक शिल्पकला वाले मंदिरों का निर्माण शायद उसी पंथ विचारधारा का नतीज़ा है। जब शिव पंथ ने 'लिंग' की परम भूमिका न सिर्फ जीवन को सृजन और आरम्भ करने में देखी थी, बल्कि आजीवन दुखों - शारीरिक और मानसिक- से निराकरण में भी देखा था। ऐसा माना जाने लगा था कि जो भी मानव अधिक आयु तक यौन सक्रियता को प्राप्त कर सकेगा,वह ही अच्छा , गुणवत्ता पूर्ण जीवन व्याप्त कर सकेगा - यानी "परमानंद" अवस्था वाला जीवन- और वही शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात प्राप्त कर सकेगा।
बरहाल, यह सब उस काल की बातें और विचार थे जब आधुनिक विज्ञान अभी शायद जन्म ही ले रहा था और इतना सुदृण और विकसित नही था जितना की आज है। तब न ही आधुनिक चिकित्सा पद्धतियां हुआ करती थी, न ही आधुनिक विधि व्यववस्था, और न ही psychopathy , psychotherapy जैसे विषय जिसको विद्यालय शिक्षा या अकादमी शिक्षा के माध्यम से प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति पेशेवारिय तौर पर समाज में इंसानों को उनके शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात दे सके, पूर्ण वैधानिक जिम्मेदारी के संग, कि यदि कुछ ग़लत ईलाज़ किया तो फिर कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पड़ जाएंगे, सज़ा भी मिल सकती है।
आधुनिक विज्ञान ने बहोत सारे परमपरागत यौन आचरणों को "विकृति" के रूप में पहचान करि है , और कुछ एक यौन आचरणों को "विकृति" के बोद्ध से मुक्त किया है। वर्तमान विधि व्यवस्था आधुनिक विज्ञान के दिये तर्क को ही अपराध संबंधित व्यवहारों को समझने का आधार मानती है। उदाहरण के लिए, आधुनिक मनोविज्ञान ने पशु , छोटे बच्चों और बुजुर्ग लोगों के संग किये यौन संबंधों को "विकृति" माना है, और समलैंगिकता को हाल फिलहाल के दशकों में "विकृति" के बोध से मुक्त कर दिया है। आधुनिक विज्ञान, यानी psychology में यह ज्ञान कुछ अध्ययन और आपसी सहमति के आधार पर तय किये गये "मानकों " के अनुसार किया गया है। "मानक" जैसे कि, किसी भी आचरण को "विकृति" की शिनाख़्त देने के लिए उसको जनसंख्या में सहजता से उपलब्ध नहीं होना चाहिए; उसे अच्छे सामाजिक आचरण में बाधा पहुंचाने का दोषी माना जाना चाहिए - जैसे कि, हिंसा या ज़ोर-जबर्दस्ती करने का प्रेरक स्रोत- ; वह अस्थायी हो, और उसके ईलाज़ की संभावना इत्यादि हो, यानी यह सम्भव हो सके कि किसी दूसरी परवरिश के माध्यम से उस प्रकार के आचरण को टाला जा सकता है। तो यानी, जो भी आचरण इन "मानकों" पर खरे उतरते है, वही "मनोविकृति" के रूप में शिनाख़्त किये जाते हैं। और फिर विधि व्यवस्था उन्ही को अपराध मानती है।
हालफिलहाल के शोध में मद्य-आध्यामिकता (spiritual intoxication), यौन सक्रियता और उसको तृप्त करने के लिए हिंसा का प्रयोग, जबर्दस्ती , छल, नशीली दवाएं या मादक पदार्थ, इत्यादि के बीच संबंध को देखा गया है। जैसा की ओशो पंथ और प्राणिक उपचार , दोनों में ही, माना गया है कि आध्यामिकता में प्रवेश करने पर इंसान में यौन सक्रियता भी आ जाती है। और अक्सर करके यह सक्रियता मद्य-आध्यामिकता में तब्दील हो जाती है। आधुनिक मनोविज्ञान और विधि-विधान में इस मद्य-आध्यात्मिकता से उतपन्न यौन सक्रियता को यौन हिंसा, बलात्कार, मादक पदार्थों का दुरुपयोग , समाज में व्यापक मनोविकृत आचरण का दोषी पाया गया है। यहां तक की आतंकवाद और अतिवाद भी इसी प्रकार के संकीर्ण यौन आचरण से प्रेरित होते देखे गये है, और संकीर्ण यौन आचरण को मद्य-आध्यात्मिकता से प्रेरित होता। मद्य-आध्यामिकता ने जनता की अंतरात्मा को दूषित किया है, असामाजिक अमानवीय आचरणों और कृत्यों की चेतना को क्षीर्ण कर दिया है, और आपराधिक कृत्यों को सहज चलन में ला दिया है। जनता की अंतरात्मा में धर्म और अधर्म के बीच भेद कर सकने की स्वचेतना मूर्छित होती रही है जिससे की समाज में अपराध का प्रसार बढ़ा है।
The failure and lessons to learn from Vikram lander
Just to update about the story of the perils during moon landing, how many of you know that there is, right now, a Rover on the surface of moon, moving and sending the images back ! Yes, if may google it through , you will find about the *Chang-4* from China .
The story of *Chang 3*, the one Rover which the Chinese had sent just before this one, met the nearly the same fate as ours. Infact they were better off than what we have achieved in our mission . The central line of the reason of failure was same - " *Communication lost* ".
However , the Chinese , in their first attempt, had managed to atleast land successfully. Do you know that ?
Chang-3 , also called as *Jade Rabit* mission, or the *Yutu* , had landed successfully and the rover vehicle , *Yutu* , emerged out from the lander unit. It even transmitted back the images which the Chinese put up on the Twitter handle . However, being a communist country, their space programs do not reveal much neither to the own public, forget about addressing the new findings in a trustable manner to the world community.
The Yutu did a short travel, after which it lost contact and the mission , from that point on became a failure. It happened in the January of 2018.
Suspectedly, the radiations and the fine dust over the lunar surface , is where the estimations go wrong as the scientist fail to imagine how a communication black-out will occur as the man-made object will get closer to the lunar surface . Since the moon has no atmosphere, it is comparably easier to land on mars in terms of the technological challenges that the two heavenly bodies project before the communication engineering team. The absence of atmosphere over the moon surface cause the radiation levels to be unusually higher that what maybe there on the surface of , let's say, the Mars.
It is this issue where most of the failures happen. The onboard circuitry , which runs on semi conductor technology, if it is not housed well protected to prevent the ingress of the radiations, will suffer a bad fate and , and this in turn, causes the computer programs to start malfunction . The overall out come is the failure..
That is one thing, we have to understand first.
( Writer is an amateur enthusiast, who likes to follow the space expeditions around the globe , and likes to learn from them.)
The failure of *Vikram* lander can be described in a simplistic analogy of a mariner as the failure to carry the _intrinsically safe_ torch on an oil tanker ship .!
The Unscientifically decided penalties under the Motor Vehicle Act
प्रजातंत्र में तानाशाही के क़ाबिज़ होने के गुप्त रास्ते - न्यायपालिका में सेंध
तानाशाही की यही पहचान होती है। प्रजातन्त्र में तानाशाही ऐसे ही क़ाबिज़ होती है। कि, पहले तो न्यायपालिका में अपने आदमियों को पदुन्नति दे कर जज और शीर्ष पदों तक पहुंचाती है। फिर उनके माध्यम से न्याय को ही पक्षपाती बना देती है। जिन अपराधों के मुक्कदमों में अपने आदमियों को रिहा कर दिया जाता है - कभी सबूतों की कमी का बहाना लगा कर, कभी निर्दोष दिखा कर, कभी जांच की कमियां दिखा कर-- वहीं पर अपने राजनैतिक विरोधोयों के हल्के हल्के मुक़द्दमों को भी "गंभीर" बता कर जेल भेज दिया जाता है। इससे विरोधी जनता के बीच नेता प्रतिपक्ष की कमी हो जाती है, और विरोधी जनता का मनोबल भी टूटने लगता है। फिर तानाशाही पार्टी को और ज्यादा छूट मिल जाती है अपनी मनमर्ज़ी करने की।
द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व जर्मनी में एडोल्फ हिटलर ने में ऐसे ही सत्ता में अपने विरोधयों को साफ़ किया था। इटली में मुससोलिनी और जापान में भी इसी तरह राजनैतिक विरोधियों को रास्ते से हटा कर तानाशाही आयी थी और फिर देश को महाविनाशकारी विश्वयुद्ध में झोंक दिया था।
तानाशाही प्रवृत्ति और जनसंख्या नियंत्रण के सीधे तरीकों का चयन
ज़्यादातर विचारकों के अनुसार देश की तम्माम समस्याओं का मूल यहां की विशाल , अनियंत्रित आबादी को समझा जाता है। कुछ भी हो -- सड़कों पर यातायात क्यों बेकाबू है?, स्कूलों में शिक्षक क्यों नहीं आते? अच्छी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा क्यों नही दी जाती?, अस्पतालों में बेड की कमी क्यों है?, गुणवत्तापूर्ण ईलाज़ क्यों नही दिया जाता?, न्यायपालिका में सुनवाई में देर क्यों लगती है? , घूस क्यों देनी पड़ती है जल्दी सुनवाई के लिए?, पुलिस क्यों नही fir प्राथिमिकी दर्ज करती है?, समय पर जांच और बचाव कार्यवाही क्यों नही करती है?-
---- लाखों सवालों का एक जवाब आसानी से दे दिया जाता है -- *बड़ी, विशाल आबादी* ।
और फिर विशाल आबादी को नियंत्रित नही कर सकने के लिये देश की प्रजातंत्र व्यवस्था को दोष दे दिया जाता है क्योंकि यह जनसंख्या को सीमित करने वाले सीधे तरीकों को लागू करने में सभी के हाथ बांध देती है - सीधे तरीके क्या हैं-- जैसे, जबरदस्ती नसबंदी, दो से अधिक संतानों पर दंड, जुर्माना; या कि बच्चों के जन्म से पूर्व सरकार की अनुमति लेना, इत्यादि।
तो, कहने का मतलब है कि प्रशासनिक विफलता किसी अयोग्यता का नतीजा नही है, बल्कि तंत्रीय बाधाओं की वजहों से हैं।
मगर गहराई में जा कर मंथन करें तो आप पाएंगे कि जनसंख्या को नियंत्रण नही सकना तो खुद ही प्रशासनिक अयोग्यता का नतीज़ा है।
operations management और प्रयोद्योगिकी का विषय ज्ञान रखने वाले शायद इस बिंदु को बेहतर समझ सकें। आज के युग मे जिस प्रकार की प्रौद्योगिकी उपलब्ध है - कंपूटर तंत्र जहां एक एक इंसान का मिनट दर मिनट ब्यौरा रिकॉर्ड करा जा सकता है, map के सुविधा जहां ज़मीन के एक एक इंच का हिसाब रखा जा सकता है, मोबाइल और कैमरा, पैन कार्ड और आधार कार्ड जैसी व्यवस्था, जन सूचना के माध्यम, फिल्में, समाचार चैनल, टीवी, जनसंख्या नियंत्रण के यंत्र , कंडोम, इत्यादि-- वहां अब किसी भी तानाशाही पूर्ण "सीधे" तरीकों की बात करना बेईमानी ही है,अपनी व्यक्तिगत अयोग्यता को छिपाने की।
जनसँख्या बढ़त को प्रजातांत्रिक दायरों में रह कर नियंत्रित किया जा सकता है। यानी विलंबित और प्रेरणा कारी मार्ग पर चलते हुए भी इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकना असम्भव नही था, बशर्ते कि मानसिक अयोग्यता न हो प्रशासनिक अधिकारियों के मध्य - जो कि किसी निजी बौद्धिक विफलताओं के चलते बारबार तानाशाही वाले "सीधे" रास्तों की और ही मुंह करते रहते है।
आज की दुनिया मे जनचेतना को अपने अनुसार मोड़ सकना ज्यादा मुश्किल काम नही है। फिल्मों के माध्यम से यह आसान हो गया है। इसी प्रकार, आज के युग मे तमाम विकल्प मौजूद रहते हैं यदि इंसान प्रेरित है जनसंख्या नियंत्रण के प्रति, तो फिर pregnancy को रोक सकने में।
*तो फिर क्यों प्रशासन हमेशा तानाशाही वाले "सीधे" तरीकों पर मुहं टिकाये रहता है?*
होता क्या है कि प्रशासन की एक सच्चाई यह है कि हर युग मे, हर सभ्यता और देश मे, प्रशासन में अधिकतर लोग अयोग्यता से ग्रस्त रहते हैं। यह अयोग्यता उनके मध्य आराम से टैक्स के पैसे पर मिलती तनख्वाह की वजहों से पैदा हो जाती है। तो वह बैठे बैठे ऐसे बहानों को तलाश करते रहते हैं जहां वह अपनी अयोग्यता को छिपा लें, और सामने पड़ी विफलता की लाश का क़ातिल किसी ऐसे चीज़ पर आरोप लगा दे कि मानो यह तो तंत्रीय विफ़लता है, उनकी व्यक्तिगत नाकाबिलियत नही।
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