An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
आत्म विश्वास की विशेषताएं क्या होती हैं?
अच्छे अध्यापक कैसे होते हैं? उनके चरित्र में क्या क्या चिन्हक होते हैं, एक अच्छे अध्यापक होने के?
वंशवाद कब , कहां हुआ है — इसको तय करने का मानदंड क्या होना चाहिए?
शिक्षा प्राप्ति के दौरान व्यवहारिक नीत क्या होनी चाहिए?
रामप्रसाद की मां उसकी पढ़ाई लिखाई में क्या भ्रष्टता कर देती है अनजाने में
Dunning Kruger Effect या देहातों में जाना जाने वाला Over Confidence
Rules for sons
रूस यूक्रेन युद्ध में भारत का रुख – भारत की डमाडोल विदेश नीति के सूचना चिन्ह
विदेशी निवेश को आमंत्रित करने की दिशा से भी मोदी सरकार व्यापारिक/ब्राह्मणवादी मानसिकता से उपजी 'दुतरफा चाल' नीति को चला रही है। एक तरफ तो FDI को बढ़ कर आमंत्रित करती है क्योंकि इससे देश के आर्थिक हालत सुधरेंगे। और दूसरी तरफ , पिच्छू के रस्ते से, राष्ट्रवाद की चादर में लपेट कर विदेशी उत्पादों को प्रयोग नहीं करने के लिए जनता में सन्देश प्रसारित करवाती है। दुनिया समझ गयी होगी मोदी सरकार की दोहरी चालों वाली नीति। कि , You can't seek FDI and then boycott their products.
आरक्षण नीति भेदभाव से लड़ने की खराब युक्ति होती है
भरपूर वजहें हैं कि क्यों रौंदा जाता रहा है ये देश हर एक आक्रमणकारी से
क्यों कोई भी समाज अंत में संचालित तो अपने हेय दृष्टि से देखे जाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग से ही होता है?
दलित पिछड़ों के बुद्धिजीवी ही अपने समाज के असल शत्रु होते हैं
दलित पिछड़ा वर्ग के बुद्धिजीवी ही अक़्ल से बौड़म हैं। वे अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षाओं के चलते अपने समाज को आरक्षण नीति के पीछे एकत्र होने को प्रेरित करते रहते हैं। ये सोच कर कि इनके लोग आरक्षण सुविधा प्राप्त करने के लिए वोट अपने जातिय नेताओं को देंगे। और वो नेतागण फिर इन बुद्धिजीवियों को विधान परिषद् या राज्यसभा का सदस्य बना देंगे।
दलित पिछड़ा वर्ग चूंकि मध्यकाल से agarigarian(कृषि या पशुपालन करके जीविका प्राप्त करने वाले ) रहे हैं , सो वह औद्योगिक काल के बाजार के तौर तरीकों को नहीं जानते हैं, उनके भीतर में salesman ship के नैसर्गिक गुण नहीं होते हैं। यदि कोई उनकी दुकान से उत्पाद नहीं खरीद रहा है, तो वो "भेदभाव" चिल्लाने लगते हैं, बजाये की कुछ आकर्षित करके समाज को लुभाएं सामान को खरीदने के लिए।
अब आधुनिक काल के समाज की अर्थव्यवस्था चूंकि आदानप्रदान (barter system ) कि नहीं रह गयी है, बल्कि मुद्रा चलित है (money-driven ) , तो यहाँ चलता तो सिक्का ही है , भले ही वो खोट्टा हो। दलित पिछड़े वर्ग के लोग मुद्रा-चलन पर आधारित समाज के जीवन आवश्यक गुणों से अनभिज्ञ होते हैं, तो वो अधिक मुद्रा कमाने की नहीं सोचते हैं, बस जीवनयापन आवशयक धन से खुश हो जाते हैं -- जो की कोई नौकरी करे के कमाया जा सकता है। उद्योगिक युग का सत्य ये है कि बड़ी मात्रा का धन केवल व्यापार और उद्योग करने वाले समाज ही कमाते हैं।
यानी प्रजातंत्र व्यवस्था वास्तव में औद्योगिक युग की राज व्यवस्था है , जो कि धन्नासेठों से ही चलती है, क्योंकि वो ही लोग इतना पैसा रखते हैं की राजनेताओं को चंदा दे-दे कर उनको अपनी जेब में रख लें। आजकल तो धन्नासेठ लोग अपने puppet व्यक्ति को प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनाने लगे हैं। और यदि दलित पिछड़ा वर्ग का लाया व्यक्ति कुछ मंत्री-संत्री बन भी जाता है , तब धन्नासेठ लोग भ्रष्टाचार के भरोसे उन्हें खिला-पीला पर दल्ला बना कर अपना काम फिर भी सधवा लेते हैं। कैसे ? भई ,आखिर दलित पिछड़ वर्ग को धंधा थोड़े ही चाहिए होता है। उन्हें तो बस नौकरी चाहिए होती है। तो दलित पिछड़ा लोग के नेता गण करते रहते हैं भर्ती घोटाले, transfer posting घोटाले। और इधर धन्नासेठ लोग करते हैं multicrore आवंटन scams .
दलित पिछड़ा वर्ग ने अभी तक प्रजातंत्र में पैसे की कड़ी से देश की राजव्यवस्था के लगाम के जोड़ को जाना-समझा नहीं है। प्रजातंत्र वास्तव में पैसे वालों की व्यवस्था है। और संग में तकनीक, विज्ञान , अन्वेषण , अविष्कार की भी व्यवस्था है। यदि देश में विज्ञान का राज चाहिए , तो प्रजातंत्र लाना पड़ेगा। और यदि प्रजातंत्र आएगा तब समाज का अर्थतंत्र मुद्रा-आधारित बन जायेगा। और फिर आगे, ऐसे किसी भी प्रजातान्त्रिक समाज की लगाम धन्नासेठों के हाथों में खुद-ब-खुद फिसल कर जाने लगेगी।
आरक्षण नीति की सुविधा ले कर आये नौकरी शुदा लोग केवल हुकुम बाजते रहते थे, और रहेंगे। प्रजातंत्र व्यवस्था में भी। हुकम देने वाले लोग परदे के पीछे बैठे धन्नासेठ लोग होंगे।
दलित पिछड़ों के बुद्धिजीवी लोग समाज, प्रजातंत्र, अर्थ तंत्र और प्रशासनिक व्यवस्था की लगाम के समबन्धों के सच को देख कर भी अनजान बने हुए है-- केवल अपनी निजी राजनैतिक महत्वकांक्षा की पूर्ती के लिए।
ब्राह्मण बनाम बुद्ध — कब और कैसे आरंभ हुआ होगा भारतीय संस्कृति में
हिन्दू समाज में blasphemy जैसा विचार क्यों नहीं होता है
क्या बुराई है भारत के दलित पिछड़ा समाज विज्ञानियों में
क्या आपने कभी सोचा है, कि किसी को भी कमियां और बुराईयां गिनाने में सबसे कठिन मानक क्या होता है?
ये कि उन बुराइयों का व्याख्यान ऐसे प्रकार से किया होना चाहिए कि यदि आप सत्तारूढ़ हो जाए तब कुछ बदलाव आ जाए जो उस बुराई को समाज में से समाप्त कर दे।
मगर अधिकांशतः तो सत्तारूढ होने पर सिर्फ प्रतिहिंसा कर रहे होते है या बदले की भावना से काम करने लगते हैं, जबकि सोचते ये है कि ऐसा करने से ही बुराई खत्म होती है।
ये सरासर गलत है । और ऐसा करने से ही दलित/पिछड़ा समाजविज्ञानियो की मूर्ख बुद्धि होने की पोल खुल जाती है।
पश्चिमी जगत में उनके दर्शन शास्त्रियों ने जब भी अपने समाज की बुराइयों को देखा, तब ऐसे व्याख्यान दिए, चारित्रिक विशेषता बताई कि यदि उनको सुधार दिया गया, तब समाज से वो बुराई समाप्ति की ओर बढ़ चली।
उदाहरण के लिए, सामंतवादी व्यवस्था से मुक्ति के लिए Lord AV Dicey ने Separation of Power का सिद्धांत दिया। केवल सामंतो को पानी पी-पी कर कोसते नहीं रहे! भेदभाव से मुक्ति के black लोगों के समुदाय में शिक्षा को प्रसारित किया। न कि केवल आरक्षण की मांग करते हुए, whites को पानी पी–पी कर कोसते रहे।
महत्वपूर्ण बात है कि बुराई की शिनाख्त एक ऐसे दार्शनिक स्तर से करी जानी चाहिए कि सुधार की गुंजाइश उत्पन्न हो। न कि केवल कोसाई, और अरोपीकरण होता रहे।
ईश्वर में आस्था रखने से क्या योगदान मिलता है समाज के निर्माण में
नव–समृद्ध (nouveau riche) दलित वर्ग में कुछ एक व्यवहार एक प्रायः आवृत्ति में देखें जा सकते हैं। कि, वो लोग समाज को बार बार प्रेरित करते हुए से दिखाई पड़ते हैं कि ईश्वर में आस्था एक पिछड़ी मानसिकता का व्यवहार है, और लोग इसके कारण ही शोषण झेलें हैं।
मगर यदि हम एक विलक्षण और विस्मयी (abtrusive) बुद्धि से विशेषण करें कि समूचे संसार में ईश्वर की पूजा करने वाला वर्ग की आज की तारीख में अपने अपने समाज में क्या स्थिति है – वो अग्रिम वर्ग है या पिछड़ा है , तब हम एक समानता से इस वैज्ञानिक observation का एक समान उत्तर यही पाएंगे कि सभी पुजारी वर्ग अपने अपने समाज के अग्रिम वर्ग हैं।
सोचिए, कि क्या theory दी जा सकती है इस वैज्ञानिक observation के कारणों को बूझने के लिए।
ईश्वर में आस्था ने मनुष्य के समाज को उनके वनमानुष अथवा गुफ़ा मानव दिनों से एक ग्राम निवासी , सामाजिक मानव बनने में प्रधान योगदान दिया था। बूझिए , कि ईश्वर में आस्था और पूजापाठ का चलन कहां से आया होगा इंसानी समाज में , और कैसे ये एक केंद्रीय बल उत्पन्न कर सका गुफा मानवों को एकत्रित करके समाज बसाने में।
याद रखें कि बात सिर्फ भारत देश की नहीं हो रही है वरन पूरे संसार की है। ऐसा सभी भुगौलिक क्षेत्रों के समाजों में एक आम रेखा तर्क पर घटा है।
आपको तो बस इसका व्याख्यान तलाश करना हैं।
ईश्वर में आस्था ने गुफा मानवों को मानसिक तौर पर बाध्य करने की शक्ति दी थी कि वो कैसे, किन आचरणों को अपनाए ताकि वो एक समूह बना कर जीवन जी सकें और जरूरत पड़ने पर एक–दूसरे की मदद किया करें।
ईश्वर की आस्था ने ही आपसी नियम तय करके आम सहमति बनाने में योगदान दिया कि आपसी मदद कब, किन अवस्थाओं में नहीं भी करी जा सकेगी।
आसान शब्दों में, सदाचरण, जैसे की आपस में नमस्कार या नमस्ते करना, पैर छूना, बच्चो से प्यार जताना, दुख या वियोग में भावनात्मक सहारा देना, जो सब समाज में रह सकने के आवश्यक व्यवहार हैं, वो ईश्वरीय आस्था में से ही प्रवाहित हुए हैं।
तो जो भी पूजा पाठ करने वाला वर्ग रहा है, उसने ये सब आचरण अधिक तीव्रता से ग्रहण किए, स्वीकृत करके आपस में उपयोग किए, और फिर अधिक समृद्ध और सशक्त समाज बना लिए, बजाए उनके जो कि इन सभी आचरणों को पहेली बना कर इन्हें बूझने में व्यस्त रहे, इन्हे अस्वीकृत करते रहे, तर्कों को तलाश करने के चक्कर में विस्मयीता को बूझना भूल गए।
तो इस प्रकार से पुजारी वर्ग, या ईश्वर में आस्था रखने वाला वर्ग अपने अपने समाज का अग्रिम वर्ग बना सका।
मंदिर किन हालात में टूटा
चार सौ वर्षों पूर्व मंदिर किन हालात में टूटा था, इसे समझने के लिए भूतकाल में जाना जरूरी नहीं है। आप वर्तमान काल के हालातों का निरक्षण करके भी आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि क्या हालात घटे हुए होंगे।
हार्दिक पटेल ने तेरह हजार से ज्यादा tweet मिटा कर भाजपा का दामन पकड़ लिया है। और अब मोदी जी के गुणगान गाते घूम रहे हैं।
क्या विश्लेषण निकाला?
हिंदू उच्च जाति कोई स्थाई मूल्य, विचार या मर्यादा नहीं रखते हैं। हिंदू स्वभाव से polytheist होते हैं, जिस वजह से नित नए तर्क पकड़ कर आसानी से पलटी मार जाते हैं।
थूक कर चाट जाना संस्कृति में मान्य है।
कोई अडिग रहने वाला मूल्य नहीं है भारतवासियों में। इसलिए आसानी से पलट कर खिचड़ी संस्कृति होते रहे हैं हम लोग। जब मुस्लिम काबिज थे सत्ता पर, तब मुसलमान बन गए। और जब अंग्रेज आए, तब अंग्रेज बन गए।
मुसलमान भी अरब से मुट्ठी भर ही आए थे। मगर आज भारत की भूमि पर -भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश – तीनों को मिला कर गणना करने पर हिंदुओं से कहीं ज्यादा हैं।
ये कैसे हुआ?
असल में यहां के हिंदू ही तो मुसलमान बन गए थे! ये कश्मीरी मुसलमान कौन थे? जी हां — ये कश्मीरी पंडित ही परिवर्तन करके मुसलमान बने थे ! आमला मोहमद इकबाल, जिन्होंने ' सारे जहां से अच्छा , हिंदुस्तान हमारा', गीत लिखा था, और जो कि बटवारे के बाद पाकिस्तान में जा बसे, उनको पाकिस्तान में उपाधि ही दी गई थी — पाकिस्तान का ब्राह्मण !
ये उपाधि उनके पुराने धर्म की पहचान से मिली थी!
इसी तरह से अब्दुल्लाह खानदान (शेख़ मोहम्मद, फारूक और ओमर) ये भी कश्मीरी पंडित ही थे ! राजा कर्ण के पूर्वज के दरबार में राज पुरोहित हुआ करते थे !
अधिकांश कश्मीरी मुसलमान वास्तव में हिंदू पंडित —ब्राह्मण —पूर्वजों में से धर्म परिवर्तन से निकले हैं।
विषय का निष्कर्ष वही है। सब उच्च जाति अपनी सोच में चलांक लोग थे —है— और रहेंगे। वो मौका देख कर पलट जाने वाले लोग है, चाहे उनकी ऐसी असामाजिक सोच से उनका देश , समाज और नस्लें बर्बाद हो जाएं।
मगर फिर सच तो सच है।
जोधा और अकबर का किस्सा अगर सच है, तो ये इसलिए घटा था की राजपूत खुद अपनी बेटियां ला कर व्याह करवा देते थे मुस्लिम राजाओं से। ताकि नई रिशेतदारी से उनकी शक्ति और पहुंच बनी रहे , उनका अपने लोगो पर रसूक बना रहे !!
बात कड़वी है, मगर सच यही है।
उच्च जातियों का तो रिकॉर्ड रहा है आसानी से पलटी मार जाने का !
मोदी इस देश में चाहे कितनों ही मस्जिदें तोड़ कर वापस मंदिर बनवा लें, मगर कुल मिला कर वो भारत की इस संस्कृति को और अधिक सुदृढ़ करते चले जायेंगे कि मौका देख कर चौका मार देना चाहिए ,और पलटी करके सत्ता संपन्न बाहुल्य गुट के संग ही खड़े होना चाहिए !
मोदी भारत की संस्कृति नहीं सुधार कर पाएंगे कि लोगो को अकेला ही सही, मगर खड़े होना चाहिए, और अपने मूल्यों के लिए कुर्बान होने को तैयार होना चाहिए।
और शायद ब्रह्मण और पंडितों ने अभी तक हिंदू मूल्यों की पहचान करके सांस्कृतिक पहचान दी भी नहीं है , जो मोदी जैसे लोग जान सके कि आखिर हिंदू से क्या समझना चाहिए हमें और संसार को।
और इसलिए शायद भविष्य के लिए अंदाजा अभी सकते हैं कि शायद आज से चार सौ वर्षों बाद वापस हम लोग यही मंदिर मस्जिद का खेल खेल रहे होंगे।
कुछ न कुछ गुप्त ,कड़वी सच्चाई तो सभी धर्मों में छिपी हुई हैं
अंधे को अंधा कहना उसका अपमान हैं, काले नाईजीरियन को कल्लू बुलाना उसका अपमान होता है,
धृतराष्ट्र और पांडू का जन्म वेद व्यास से कैसे हुआ था, कुंती से कर्ण कैसे पैदा हुआ थे, कृष्ण गोपियों के संग क्या करते थे, ये सब विस्तृत हो कर बात करना हिंदुओं का अपमान होगा।
वैश्विक समस्याओं के मूल कारकों में ‘दंडवत‘ फिरकी
मगर मोदी जी के आगमन के बाद से जो अचरज वाली बात हुई है वो ये कि इन समस्याओं के मूल कारण ही फिरकी कर गए हैं।
उदाहरण के लिए :-
बेरोजगारी पहले भी हुआ करती थी, और सरकारें इस समस्या से निपटने का उपाय किया करती थी - अधिक निवेश और फैक्ट्री लगा कर, जिससे की रोजगार बढ़े।
मगर अब , मोदी जी के आगमन के बाद, बेरोजगारी का मूल शिनाख्त ही बदल गई है। अब पकोड़े बेचने और चाय बेचने वालों को भी रोजगार गिना जाने लगा है। जबकि सभी अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठनों की मान्य परिभाषा के अनुसार वो सब "छोटे मोटे" व्यवसाय रोजगार में नही गिने जाते है !( पी चिदंबरम जी की टिप्पणी को ढूढिये इस विषय पर)।सामान्य अकादमी शिक्षा इसी तर्कों के अनुसार अर्थशास्त्र विषय ज्ञान आधारित किए हुए थी।
अब बेरोजगारी के मूलकारणों में सीधे सीधे अथाह जनसंख्या को दोष दिया जाने लगा है, जबकि अतीत में विश्व में कोई भी मानववादी प्रजातांत्रिक सरकार आबादी को स्पष्ट तौर पर मूलकारक लेते हुए कार्यवाही नहीं करती थी। ऐसा केवल वामपंथी, कम्युनिस्ट सरकारें जैसे की चीन करती था, जो कि जनसंख्या को दोषी मानते हुए सीधे- सीधे देश में बच्चो की पैदाइश को सरकारी permissiom अनुसार करने की विफल कोशिश कर रहा था/ कर चुका है।
मोदी जी के आगमन के उपरांत जनसंख्या को सीधे सीधे दोषी मान कर , फिर आगे जनसंख्या की बढ़त के लिए दोषी किसी के खास विशेष संप्रदाय को माना जाने लगा है । और देश का मीडिया उनके पीछे हाथ धो कर पड़ गया है।
शैक्षिक और बुद्धिजीवी वर्ग में जनसंख्या को वैश्विक समस्याओं का सपष्ट दोषी अभी तक नहीं समझा जाता था, क्योंकि स्पष्ट कार्यवाही मानववादी विचारो से मेल नही रखती थी । हालांकि आबादी पर नियंत्रण लगाने की पहल जरूर रखी जाती थी, और आबादी नियंत्रण के लिए उपायों में महिला सशक्तिकरण जैसे मानववादी समाधानों को ही सकारात्मक समाधान मानते हुए, इन्हे स्वीकार किया जाता था। बाकी , ऐसा सोचा जाता था कि बढ़ती हुई मंहगाई, घटते और खपत होते हुए प्राकृतिक संसाधनों का दबाव वर्तमान आबादी पर उचित दबाव बनाएगी की जनता स्वयं से अपना जीवन गुणवत्तापूर्ण जी सकने की क्षमता के अनुसार ही बच्चे पैदा करेगी ।
मगर अब, मोदी जी के आने से, ये मानववादी सोच तहस नहस हो चुकी है। लोग अब एक दूसरे पर आबादी बढ़ाने का दोष देने लगे हैं, और आपस में मार- काट करने पर उतारू हो चुके हैं। इसके लिए उन्होंने सबसे प्रथम दोषी किसी विशेष वर्ग , अल्पसंख्यक, को चुना है।
ये सब मोदी जी के धार्मिक -राजनैतिक पाठशाला की शिक्षा दीक्षा का कमाल है, (यदि दोष नहीं है तो )। अब सभी सामान्य तर्क, नीतियां, इतिहास का ज्ञान, संस्कृति का ज्ञान, धर्म का ज्ञान अपने सर के बल पर पलटी मार चुका है। सभी पुराने सोच "दंडवत" फिरकी हो गए हैं। संभी समस्याओं के लिए किसी न किसी को दोषी गिनाए जाना लगा है, जबकि पहले समस्याओं का उद्गम प्राकृतिक माना जाता था , यानी जिसकी उत्पत्ति मानव जाति की सांझा नीतियों और व्यवहारों से हुई थी , किसी एक वर्ग के विशेष दोषपूर्ण कर्मों से नहीं।
मगर अब ऐसा नहीं है। ये पता नही कि पहले वाले समय में वैश्विक स्मासायायो के मूल कारकों की पहचान कुछ ज्यादा शिथिल तरीके से हुई थी (-कि आबादी को सीधे से दोष नहीं दिया गया था)। या कि अब मोदी सरकार में मूल कारकों की पहचान में कुछ ज्यादा ही पक्षपाती दृष्टिकोण समाहित हो गया है (— आबादी के लिए विशेष वर्ग को दोषी माना जाने लगा है) । ये सवाल अब समाज को तय करना होगा।
वैश्विक , अंतर्देसीय संबंधों में भी अब मोदी सरकार के आगमन के बाद से बहुत कुछ "दंडवत" (head over heels) बदलाव हुए हैं। मोदी जी दूसरे देशों के राजनायको और शीर्षो से मुलाकात कुछ इस मनोदशा से करते हैं जैसे मानो ये कह रहे हैं कि हम सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ धर्म, राष्ट्र और संस्कृति के प्रतिनिधित्व करते हैं, —— एक ऐसा देश और ऐसा धर्म जिसका वैश्विक समस्याओं के मूल कारकों में तनिक भी योगदान नहीं है, ....क्योंकि इन समस्याओं का असल दोषी कोई और ही है।
मोदी जी इस व्यवहार को नादानी नहीं मानते हैं, अहंकार नहीं मानते हैं, बल्कि आत्मविश्वास, गर्व, और एक 'ऊपर उठता हुआ मनोबल' करके बुलाते हैं।
किसी और के सर दोष मढ देने से अपना मनोबल कमजोर नही होता - मोदी जी जिस पाठशाला से आते हैं वहां पर ऐसी वाली युक्ति करना प्रचुर पाया जाता है। यानी, समस्याओं से निपटने के लिए यदि अपना मुंह रेंत में मूंह नहीं धसाये, तो फिर कम से कम दूसरे के मुंह पर कालिख जरूर पोत दें। ऐसा करने से आपका मनोबल नही गिरेगा।
मोदी जी की पाठशाला के लोग अभी तक वैश्विक विषयों पर मनोबल वाली भावनात्मक, मनोदशा दिक्कत से मुक्त नहीं हुए हैं । ये उनके निर्मोह प्राप्त कर सकने का माप है। और इसी मनोदशा के संग वो इस देश की नीतियों को निर्धारित कर रहे हैं।
किसी तानाशाह का जन्म कैसे होता है?
क्यों तानाशाह नेतृत्व अंत में आत्म-भोग के अंतिम सत्य पर आ टिकती है
रूस-यूक्रेन युद्ध के आज 31 दिन हो चुके हैं,मगर अभी तक विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सेना एक अदने से देश की अदनी सी सेना को मसल नहीं पायी है। अब तो उन पर लाले पड़ने लगे हैं आंतरिक विद्रोह हों जाने के, और खतरा बढ़ने लगा है की कहीं कमज़ोर मनोबल से ग्रस्त हो कर वो बड़ा "शक्तिशाली" देश कहीं जैविक /रासायनिक अस्त्र न चला दे !
ये सब देख कर सबक क्या मिलता है?
कि, तानासाही चाहे खुल्लम खुला प्राप्त हो, या election fraud करके मिली हो, वो देश और समाज को आत्म-घात की ओर ले जा कर रहती है।
तानाशाही में बड़े विचित्र और अनसुलझे मार्गों से समाज और देश की आत्म-तबाही आ गुजरती है।फिर ये तानाशाही उत्तरी कोरिया जैसे खुल्लम खुल्ला हो, या रूस के जैसे खुफ़िया एजेंसी से करवाये election fraud से हो।
कैसे, किस मार्ग से आ जाती है समाज और देश पर आत्म-तबाही?
कुछ नहीं तो विपक्ष का ही incompetent हो जाना समाज तथा देश की तबाही का मार्ग खोल देता है!
कैसे?
जब सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाता है, तब विपक्ष में से भी तो competent नेतागण वाकई में समाप्त होने लगते हैं जिनके पास प्रशासन चलाने तथा सरकारी नीतियों को जानने/समझने का पर्याप्त अनुभव हो, जिसके सहारे वो election fraud तानाशाह की सरकार की नीतियों पर पर्याप्त तर्क और कटाक्ष कर सकें!
है, कि नहीं?
और ऐसे में election fraud तानाशाह खुद ही अपने देश और उसके समाज को , सबको एक संग उन्नति के मार्ग पर नहीं, बल्कि "चूतिया पुरम" तंत्र की ओर ले कर बढ़ने लगता है!
यदि किसी देश में नित-समय अनुसार सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाये, तो ऐसी election fraud तानाशाही का भी हश्र वही हो जाता है ,जो किसी सम्पूर्ण तानाशाही (जैसे की उतारी कोरिया) का हुआ है। सर्वप्रथम, समाज को आर्थिक नीति में आत्म-दरिद्रता को भोगना पड़ता है, जैसे की आज श्रीलंका में होने लगा है। महंगाई बढ़ती है। और फिर, क़िल्लत और गरीबी आ जाती है पूरे समाज पर।
कैसे हो जाता है ये सब?
सुचारू तरह से सत्ता परिवर्तन का होते रहने से राजनैतिक वर्ग में मानसिक/बौद्धिक स्वस्थ कायम रहता था, क्योंकि समस्त राजनैतिक पक्षों में अनुभवी नेताओं की संख्या पर्याप्त बने रहती थी । मगर जब किसी election fraud व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन होना जब बंद हो जाता है, तब शायद विपक्ष में पर्याप्त competent और अनुभवी तर्कशील नेताओं की संख्या समाप्त होने लगती हैं! और फिर ऐसे में, election fraud करके आया तानाशाह बड़े-बड़े वादे करके अपने समाज को बहोत जल्द आत्म-तबाही की राह पर चल निकलता है,क्योंकि उसको रोकने वाले सामर्थ्य विपक्ष उपलब्ध ही नहीं रह जाता है समाज के अंदर !
तानाशाह नेताओं को अपने समाज को उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलवा कर उन्नति की रहा तलाशने में ऐसे-ऐसे तर्क-विरर्क की भूलभुलैया आ घेरता है, जिसमे अंत में बस एक ही काबिल तर्क उनके सामने उनका पथ प्रदर्शक बन कर रह जाता है। वो ये, कि तानाशाही से भी समाज का उत्थान नही किया जा सकता है।
तो तर्क-वितर्क की भूलभुलैया में तानाशाह और उसके समर्थकों को यही तर्क पसंद आने लगता है कि- " बस ,अंत में अपनी निजी मौज़ मस्ती और जेब भर कर जियो !"
ज़्यादातर तानाशाही व्यवस्था का अंतिम तर्क यही रह जाता है - चुपचाप से बस अपना भला करके, अपनी जेब भर कर मस्ती से जिये, दुनिया का भला आजतक न कोई कर पाया है, न ही कोई कर सकेगा।
तानाशाह और उसके मित्र मंडल की समस्त देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम , सामाजिक कल्याण के प्रवचनों का निचोड़ खुद-ब-खुद तानाशाह को इस एकमात्र राह पर ला खड़ा करता है जिसे अंग्रेज़ी में Nihilism शब्द से बुलाया जाता है।
और इस प्रकार से तानाशाही व्यवस्थाओं का अंतिम सत्य (चाहे election fraud से बनी तानाशाही हो, या फ़िर तंत्रीय ढांचे में फेरबदल करके जमाई गयी हो) आत्म-भोग ही उनका अंतिम परिणाम हो जाता है- जिसका अभिप्राय होता है -देश की बर्बादी ।
जैसे कुत्तों को घी नहीं पचता, वैसे ही मूर्खो को स्वाधीनता नहीं भाती
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क्यों ये देश हमेशा वास्तविक उद्योगपति से रिक्त बना रहेगा और विदेशी कंपियों के द्वारा लूटा जाता रहेगा
जैसा की मैं हमेशा से बताता आय हूँ,
भारत में "उद्योग पति" के नाम पर वास्तव में सिवाए "मारवाढ़ी गिरी " के कुछ नहीं है , - वो सामुदायिक परिवार के लोग जो की बड़े स्तर पर परच्युन की दुकान चलाते हैं , बिचौलिया-दलाली के धंधे के कमाई करते , और कुछ नहीं।
और अक्सर करके अपने राजनैतिक -बाबूशाही संबंधों का फायदा ले कर monopoly जमा लेते, समाज को कंगला कर देते हैं।
भारत में वास्तविक कौशल कामगार professional (व्यवसायी) नहीं होता है , जो की उद्योगिक जोखिम ले, मुद्रा बाजार से सार्वजनिक धन को ले कर नवीन , अनजाने क्षेत्र में किसी अनदेखे , अनसुने उद्योग की नीव डाले और समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाते हुए कामयाबी के शिखर तक पहुँच जाये।माइक्रोसॉफ्ट का बिल गेट्स खुद एक कंप्यूटर इंजीनियर कौशल कामगार (पेशेवरिय कंप्यूटर professional ) है, और अपना उद्योग ऐसे क्षेत्र में (कंप्यूटर जन्य सॉफ्टवेयर उत्पाद सेवा ), वो भी तब जमाया था जब कोई भी उस क्षेत्र मे नहीं था। ये पूरा अनजान और अनसुना-अनदेखा क्षेत्र था जिसमे कोई भी उद्योग था ही नहीं ।
जेफ़ बेज़ोस (amazon ) का मालिक , ने अपना उद्योग internet आधारित दुकान के क्षेत्र में बनाया है , जहाँ की अभी भी बहोत रिक्त बना हुआ है उद्यम करने वालों के लिए। पूरी तरह से नवीन तकनीक, संसाधनों को विक्सित करके उद्योग को ढांचा दिया है , एकदम आधारभूत तिनके-तिनके से संसाधनों को एकत्र करके जोड़ना आरम्भ करते हुए । पेशेवरिया शिक्षा से कंप्यूटर इंजीनियर स्वयं भी है।
मगर अब परिचय करते हैं भारत के धन्ना सेठ से ,-
श्रीमान जी पेशेवरिय शिक्षा से "10वी पास " भी नहीं है। पूरी तरह से राजनैतिक जोड़ -जुगत लगाने में माहिर हैं। अपने अशिक्षित , स्कूली शिक्षा से नदारद परम मित्र मोई जी के राजनैतिक हेंकड़ी गिरी से प्राप्त, और बहोत बेशर्मी और पक्षपात से मिले संसाधन से अपना उद्योग बसाया है। आर्थिक-आपराधिक घोटाला कहलाये जाने वाले बैंक loan 'सहयोग' से एक monopoly बसाई है , अपने समुदाये के पारम्परिक धंधे - परचूनी बेचने के क्षेत्र में।
-- wilmar कंपनी की सहायता से अनाज-गल्ला को खरीद फरोख्त करने के दौरान बिचौलिया-गिरी का ज़बरदस्ती फायदा बनाया है , और जिसमे की वास्तव में सीबीआई जैसी investigation संस्थाए बता रही है की देश के अहित में आर्थिक अपराध हुए है बिचौलिया फायदा बनाने के खातिर।
पोर्ट बनाने के क्षेत्र में भी राजनैतिक सम्बन्ध का फायदा लेते हुए मुफ्त में सार्वजनिक जमीन हड़पी है , और फिर सार्वजनिक सरकारी नियंत्रण वाले बैंको से राजनैतिक समबधों के जुगत से लिए गए loan से port बनाया , और फिर वापस राजनैतिक संबंधों की जुगत से अन्य सार्वजनिक सरकारी नियंत्रण वाले पोर्ट को भीतर में से बर्बाद करके उनका कारोबार खुद में हड़प लिया !
डार्विन के तर्क अनुसार महिलाएं क्यों निम्म होती हैं पुरुषों से
इलेक्शन फ्रॉड से निपटने में कुछ बौद्धिक आत्म ज्ञान रखना ज़रूरी है।
इलेक्शन फ्रॉड से निपटने में कुछ बौद्धिक आत्म ज्ञान रखना ज़रूरी है।
सर्वप्रथम ये, कि evidence तो अब कुछ भी जमने वाला नहीं है देश की किसी भी संस्था और न्यायालय में। मगर जबजब जहाँ जहाँ फ्रॉड के चिन्ह(indicators, signs) दिखाई पड़ें. आरोप लगा कर विषय को कोर्ट में शिकायत करना ज़रूरी होगा, ताकि कम से कम close indicators तो बन सकें की इस देश में "शायद" election fraud करके सरकार बनायीं और चलायी जा रही है।
ये समझना ज़रूरी है की evidence अलग चीज़ होते हैं, और closest indicators अलग। कुछ विषयों के evidence होते ही नहीं है, और तब उनको close indicators से ही दर्शा करके बात को जनचेतना के हवाले छोड़ दिया जाता है कि वो खुद से तय कर ले सत्य क्या है।
दुनिया वालों के पास में पर्याप्त बौद्धिक बल मौजूद है कि वो close indicators को दर्शाये जाने पर खुद से बात पकड़ ले कि आखिर चल क्या रहा है इस देश में।
इसलिए evidence के पीछे मत भागिए क्योंकि अब वो तो बचा ही नहीं है। और न ही निरुत्साहित हो जाईये कि अब अबकी बात कोई सुन नहीं रहा है, और न ही मानी जा रही है। आप बस चुपचाप अपने कर्तव्य निभाते जाइये , एक जागरूक नागरिक होने के, और close indicators को दर्शाते जाइये दुनिया वालों को ।
Why Autocratic countries stop making scientific and technological progress
अंततः election fraud तानाशाह भी समाज को मुक्ति नहीं दिलवा पाते है, और आत्म-तबाही में ले कूदते हैं
रूस-यूक्रेन युद्ध के आज 31 दिन हो चुके हैं,मगर अभी तक विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सेना एक अदने से देश की अदनी सी सेना को मसल नहीं पायी है। अब तो उन पर लाले पड़ने लगे हैं आंतरिक विद्रोह हों जाने के, और खतरा बढ़ने लगा है की कहीं कमज़ोर मनोबल से त्रस्त कर वो बड़ा "शक्तिशाली" देश कहीं जैविक /रासायनिक अस्त्र न चला दे !
ये सब देख कर सबक क्या मिलता है?
कि, तानाशाही चाहे खुल्लम खुला प्राप्त हो, या election fraud करके मिली हो, वो देश और समाज को आत्म-घात की ओर ले जा कर रहती है।
तानाशाही में बड़े विचित्र और अनसुलझे मार्गों से समाज और देश की आत्म-तबाही आ गुजरती है। फिर ये तानाशाही उत्तरी कोरिया जैसे खुल्लम खुल्ला हो, या रूस के जैसे खुफ़िया एजेंसी से करवाये election fraud से हो।
कैसे, किस मार्ग से आ जाती है समाज और देश पर आत्म-तबाही?
कुछ नहीं तो विपक्ष का ही incompetent हो जाना समाज तथा देश की तबाही का मार्ग खोल देता है!
कैसे?
जब सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाता है, तब विपक्ष में से भी तो competent नेतागण वाकई में समाप्त होने लगते हैं जिनके पास प्रशासन चलाने का भीतरी ज्ञान तथा सरकारी नीतियों को जानने/समझने का पर्याप्त अनुभव हो, जिसके सहारे वो (election fraud तानाशाह की ) सरकार की नीतियों पर पर्याप्त तर्क और कटाक्ष कर सकें!
है, कि नहीं?
और ऐसे में election fraud तानाशाह खुद ही अपने देश और उसके समाज को , सबको एक संग उन्नति के मार्ग पर नहीं, बल्कि "चूतिया पुरम"(kleptopia) में ले कर बढ़ने लगता है!
यदि किसी देश में नित-समय अनुसार सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाये तो ऐसी election fraud तानाशाही का भी हश्र वही हो जाता है जो किसी सम्पूर्ण तानाशाही (जैसे की उतरी कोरिया) का हुआ है। सर्वप्रथम, आर्थिक नीति में समाज आत्म-दरिद्रता को भोगने लगता है, जैसे की आज श्रीलंका में होने लगा है। महंगाई बढ़ती है। और फिर, क़िल्लत और गरीबी आ जाती है पूरे समाज पर।
कैसे हो जाता है ये सब?
सुचारू तरह से सत्ता परिवर्तन का होते रहने से राजनैतिक वर्ग में मानसिक/बौद्धिक स्वस्थ कायम रहता था, क्योंकि अनुभवी नेताओं की संख्या पर्याप्त बने रहती थी । मगर जब किसी election fraud व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन होना जब बंद हो जाता है, तब शायद विपक्ष में पर्याप्त competent और अनुभवी तर्कशील नेता ही नही रह जाते हैं! और फिर ऐसे में, election fraud करके आया तानाशाह बड़े-बड़े वादे करके अपने समाज को बहोत जल्द आत्म-तबाही की राह पर चल निकलता है,क्योंकि उसको रोकने वाले सामर्थ्य विपक्ष उपलब्ध ही नहीं रह जाता है समाज के अंदर !
तानाशाह नेताओं को अपने समाज को उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलवा कर उन्नति की रहा तलाशने में ऐसे-ऐसे तर्क-विरर्क की भूलभुलैया आ घेरता है, जिसमे अंत में बस एक ही काबिल तर्क उनके सामने उनका पथ प्रदर्शक बन कर रह जाता है। वो ये, कि तानाशाही से भी समाज का उत्थान नही किया जा सकता है। तो बस अंत में अपनी निजी मौज़ मस्ती और जेब भर कर जियो !
आधुनिक ज्ञानकारी तंत्र आपको बुद्धिमान नहीं, बौड़म बना रहे हैं
धोखा खाने से बचिए ,
ये गूगल , यूट्यूब और इंटरनेट के तमाम 'ज्ञानकारी' सेवाएं इंसान को ज्ञानवान और बुद्धिमान नहीं बना रहे हैं, बल्कि वास्तव में मूर्ख और बौड़म बना रहे हैं।
कैसे ?
ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत क्या होता है ?
यदि आप ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत समझते हैं - किताबें , गूगल , यूट्यूब , इंटरनेट , - तब आप गलत है।
ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत होता है - विमर्श ( संवाद और उसके नाना प्रकार - बातचीत, वार्तालाप , चर्चा, बहस, वाद), खोज,(और अन्य प्रकार जैसे - तफ्तीश, अध्ययन, शोध, अन्वेषण , अविष्कार, ) .
ये पके-पकाये स्रोत - यानि गूगल, यूट्यूब, इंटरनेट - वास्तव में आपको आसानी से पकाया हुआ ज्ञान का भोजन देकर आपको मूल से दूर कर रहे हैं।
सचेत रहिये।
रूस की हिन्दू धर्म ग्रंथों की समझ
पुतिन बाबू और रावण के चरित्र में बहोत समानताएं दिखाई पड़ रही है। दोनों ही आत्ममुग्धता से पीड़ित हैं, और इसके चलते अपने देश और अपने परिवार को खुद ही बर्बादी के मंज़र पर ले गए हैं। जिस तरह से रूस आज दुसरे अन्य देशों को डरा-धमका रहा है कि अमेरिका से मैत्री न करो, रूस के सैन्य कार्यवाही की आलोचना न करो, रूस को यूक्रैन से सेना हटाने की चुनौती मत दो , ये सब पुतिन के अंदर जमे 'अभिमान' की निशानदेही है। गर्व चाहे राष्ट्र की श्रेष्ठता का हो, चाहे धर्म का -- ये इंसान में आत्ममुग्धता का रोग प्रवेश करा देता है।
मॉस्को में ISKCON के मंदिरों को खुलने की अनुमति को लेकर रूसी सरकार ने अभी चंद वर्षो पहले आपत्ति उठाई थी। रूसी सरकार का कहना था की हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ भगवद गीता और महाभारत , दोनों का वितरण और शिक्षण रूसी समाज और रूसियों के परिवार में आपसी-कलह करवाएंगे। दरअसल इन दोनों ग्रंथो के प्रति ये वाली आलोचना अक्सर छाया बन कर साथ चलती है। और रूसी सरकार ने उसी आलोचना के अनुसार आपत्ति रखी थी। बरहाल भारतीय दूतावास के समझाने बुझाने पर अनुमति मिल गयी थी।
रामायण का मर्म भी अक्सर ऐसी आलोचना छवि का शिकार होता रहा है। -- परमज्ञानी, श्रेष्ठा प्रजापालक, शिवभक्त रावण का अभिमान कैसे उसे, उसके परिवार और उसके देश लंका को बर्बादी में ले गया -- मर्यादाओं (moral self restraining force) को मानने वाले श्रीराम के आगे, आलोचनक ये वाले सबक नहीं देख कर राम के चरित्र की भावुक कमज़ोरी देखने लग जाते हैं - कि, कैसे मर्यादाओं का पालन इंसान के जीवन में से सुख और ऐश्वर्य हो समाप्त कर देते है; इंसान को श्रीराम के जैसे ही दुखों ,आत्म-पीड़ा, और self-defeat से भरे जीवन में ले जाते है , उससे 'बेवकूफी' वाले decisions करवाते है।
"typical UP-type of an answer" का मसला क्या है ?
"typical UP-type of an answer" का मसला क्या है ?
बजट के उपरांत पत्रकार सभा के संग वित्त मंत्री के प्रश्नोत्तर काल के दौरान एक पत्रकार महोदय ( श्री आनंद, इंडिया टीवी से ) ने सवाल किया था की बजट पर विपक्ष के नेता रहल गाँधी जी की जो प्रतिक्रिया है -- कि यह है zero sum बजट है (यानि बकवास, व्यर्थ बजट है आम आदमी के हितों के मद्देनज़र )-- तो कैसे पता चलेगा की राहुल को यह बजट समझ में नहीं आया है, या राजनीती के चलते, बस यूँ ही, आलोचना करने की duty कर दी है ?
विश्लेषण :-
इस वाले प्रश्नोत्तर के दौरान प्रत्रकार सवाल कर्त्ता ने वास्तव में खुद ही "राजनीती"(कूट आचरण ) करि है, जब उसने अपने सवाल में "विकल्प" को डाल कर निर्मला जी से प्रश्नन किया है। विकल्प धारक प्रश्नों में जवाबकर्ता के विचार और ज़बान को पहले से ही बांध दिया जाता है कि वो विशेष दिशा में ही खोज करे जवाब को ! सवाल करने की ये शैली , ये आचरण, अपने आप में ही "कूटनीति " है पत्रकार की !!
बरहाल, आगे क्या हुआ ....
इस प्रश्न का जवाब वित्त मंत्री सुश्री निर्मला सीतारमण जी ने देने का प्रस्ताव दिया श्री पंकज चौधरी , उप राज्य मंत्री, को। शायद इसलिए क्योंकि सवाल हिंदी भाषा में उठाया गया था जिसमे निर्मला जी इतनी दक्ष नहीं है। और सवाल राहुल गाँधी से सम्बंधित था , श्री चौधरी यूपी से आते है , गोरखपुर जिले से।
पंकज जी ने जवाब में आसान वाला विकल्प चुना कि, 'राहुल गाँधी को बजट समझ में भी आता है, क्या?' ।
इसके बाद निर्मला जी ने इसी प्रश्न पर अपनी भी प्रतिक्रिया दी , अंग्रेजी भाषा में। इसके दौरान उन्होंने कहा , "typical UP-type of an answer"
विश्लेषण :-
गौर करें कि निर्मला जी की प्रतिक्रिया का सन्दर्भ श्री पंकज चौधरी के जवाब से बनता है, न कि राहुल गाँधी से और न ही पत्रकार से ! सत्य शब्दों में , यदि किसी का अपमान हुआ है कि वो 'यूपी type' है , तब वो श्री पंकज चौधरी ही है -- निर्मला जी का अपना खुद का पार्टी अवर सहयोगी, व मंत्री !!
'UP-type' से क्या अभिप्राय हो सकता है निर्मला मस्तिष्क में ?
शायद ये, कि यूपी वाले 'वैसे भी'(a presumed idea) बौड़म होते है । उनकी सोच और उनके शब्द स्पष्ट नहीं होते है -- सुनने वाले के मस्तिष्क में स्पष्ट तरह से कोंधते नहीं है, केंद्रीय बिंदु पर। शायद निर्मला जी के मन में जो छवि है यूपी वालों के प्रति, उसके अनुसार यूपी वालों की बातों में केंद्रीय बात को पकड़ सकना मुश्किल होता है। यूपी वाले लोग अपनी हिंदी भाष्य संवाद को अजीबोगरीब, बड़े-बड़े शब्दों से सजावट करने में इतना अधिक व्यसन करते है कि अपने मन के विचार, उसके केंद्रीय तर्क को बातों में प्रस्तुत करना भूल ही जाते है। तो फिर श्री पंकज चौधरी ने जो कुछ भी उत्तर दिया था, चूंकि वो भी यूपी के ही है, तो फिर उनका जवाब भी वैसा ही अस्पष्ट , 'गोलमटोल' , क़िस्म का है। (और जो की राहुल गाँधी जैसे विपक्ष नेता के लिए उचित जवाब मान लिया जाना चाहिए। )
'गोलमटोल' से अभिप्राय है , फिल्म Munnabhai MBBS के एक डायलॉग की की भाषा में , --- round round में जितनी भी बात कर लो, मगर centre की बात ही अंत में मांयने रहती है, जिसको अक्सर कहना ही भूल जाते है यूपी वाले अपनी बातचीत के दौरान !
संसद भवन में कानून को पारित करने का उद्देश्य क्या होता है
क्यों गुप्त पड़ा हुआ है भारतीय समाज के भीतर में बसा हुआ ब्राह्मण विरोध? कहाँ से आया और क्यों ये अभी तक अगोचर है?
स्कूली पाठ्यक्रमो के रचियता इतिहासकारों ने यहाँ अच्छा कार्य नही किया मौज़ूदा पीढ़ी के प्रति, जब उन्होंने किताबों में राजनैतिक इतिहास को अधिक गौड़ बना कर प्रस्तावित कर दिया है। धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास को दर्ज़ नही किया, खास तौर पर वो अंश जो की समाज में चले आ रहे ब्राह्मण बनाम अन्य समूहों के संघर्ष को दर्शाता है। मौर्य शासकों का अंत कैसे हुआ, भुमिहार कहाँ से आये, पुष्यमित्र शुंग कौन थे, उनका शासन कैसा था, भारत की अखंडता के संग क्या किया, बौद्धों के संग शुंग भूमिहारों ने क्या बर्ताव किया, जैन चार्वाक संस्कृति पर हमला क्यों किया ब्राह्मणों ने, क्यों चार्वाक के साहित्य को नष्ट कर दिया -- ये सब ज्ञान औसत भारत वासी को तनिक भी नही है। वहीं , अभी अगर सावरकर बनाम गाँधी , नेहरू, सुभाष , भगत सिंह पर debate करवा लो , तब संघ घराने से निकला भारतवासी ऐसे-ऐसे बिंदु और "तथ्य" का बयाना देने लगेगा मानो जैसे उसने अपनी आँखों से देखा और कानों से सुना है !
क्या भेद है अमरीकी प्रजातंत्र और ब्रिटिश प्रजातंत्र में
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