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Showing posts from 2022

आत्म विश्वास की विशेषताएं क्या होती हैं?

हिंदुत्ववादियों का मानना था कि भारतीय समाज गुलाम इसलिए बना क्योंकि हमने आत्मविश्वास की कमी थी। तो उन्होंने आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए भारत देश पर गर्व करने योग्य बातें—ज्ञान तथ्य, विषयवस्तु —ढूंढ ढूंढ कर प्रचारित करना शुरू किया। मगर वे अनजाने में समाज में आत्ममुग्धता प्रसारित कर बैठे आत्मविश्वास भरे व्यक्ति में किसी से भी बातचीत कर सकने की प्रतिभा धनी होती है। चाल चलन, पहनावा और सबसे महत्वपूर्ण —जीवन आवश्यक निर्णय ले सकने की समझ — परिपक्व होती है। इस विशेषताओं के चलते कई लोग सोच बैठते हैं कि आत्म विश्वास का अर्थ है बहुत बातें कर सकना, या कि अंग्रेजी में बोल सकना, या "smart"(मिनी, midi, fashionable) कपड़े पहनना, अंग्रेजी गाने सुनना, अमेरिका यूरोप की ही बातें करना और तारीफ करते रहना, बहुत सारा ज्ञान संशय करके यहां वहां झड़ते रहना, उपलब्धियां गिनवाना, वगैरह वगैरह। मगर ये सब व्यवहार वास्तव में आत्मविश्वास के विकसित करने के बीज नही होते है , बल्कि पहले से ही उत्पन्न हुए आत्मविश्वास को दुनिया के सामने चमकाने का माध्यम मात्र होते हैं। आत्मविश्वास का मूल स्रोत दार्शनिक सोच होती है

He who dares not offend cannot be honest

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Truth is one, but it has many perspectives

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Truth is still one, although it may have many perspectives 

Purpose of arguments

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What should be the purpose of arguments 

क्यों अकबर और मुग़लों के बारे में तो विस्तृत पड़ते हैं, मगर महाराणा प्रताप के बारे में संक्षिप्त बताया जाता है

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भ्रष्टाचार मानव रचनात्मक चरित्र का नमूना होता है

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क्यों अकबर के बारे में तो पढ़ाया जाता है, मगर महाराणा प्रताप के बारे में नहीं

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अच्छे अध्यापक कैसे होते हैं? उनके चरित्र में क्या क्या चिन्हक होते हैं, एक अच्छे अध्यापक होने के?

अच्छे अध्यापक कैसे होते हैं? उनके चरित्र में क्या क्या चिन्हक होते हैं, एक अच्छे अध्यापक होने के? अच्छे अध्यापक का सर्वप्रथम चारित्रिक चिंहक होता है विशाल क्षेत्रों का ज्ञान, और जिसके प्रयोग से वो अध्यापक दर्शनशास्त्र के गहरी, अघियारी भुलभुलैया गलियां में उतरने से भयभीत नहीं होता हो, शिष्य को प्रश्नों के पूर्ण व्याख्यान समाधान खोजने के लिए ताकि उसका शिष्य विषय की वास्तविक mastery प्राप्त कर सके, न कि सिर्फ परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाए। अब आगे, किसी भी व्यक्ति में यदि व्यापक ज्ञान आएगा, तब वो अपने आप में कुछ व्यवहारिक झलक दिखाने लगेगा — जैसे, समानता का भाव, अनुशासन पूर्व जीवन यापन, रोचक वर्तपालाप, अनुभव तथा कहानियां से भरा हुआ संवाद करना, इत्यादि।

वंशवाद कब , कहां हुआ है — इसको तय करने का मानदंड क्या होना चाहिए?

हीरो का बच्चा हीरो-हीरोइन क्यों नहीं बन सकते? क्रिकेटर का बच्चा क्रिकेटर क्यों नहीं बन सकता? राजनेता का बच्चा राजनेता क्यों नही बन सकता? क्या दिक्कत है? क्या किसी को किसी पेशे में जाने से रोकना मात्र इसलिए कि उसके पिता या पूर्वज पहले से उस क्षेत्र में नामी व्यक्ति थे,ये अपने आप में एक जातिवाद नही होता है?  होता है , न? तो फिर आखिर वंशवाद का मानदंड क्या रखना चाहेंगे आप? कैसे कहेंगे की भारत की उच्च न्यायपालिका में घोर जातिवाद/ब्राह्मणवाद होता है? जवाब है — सार्वजनिक /अथवा सरकारी पदों पर, जहां नियुक्ति किसी भी प्रकार की चयन प्रक्रिया से करी जाती है, यदि वहां पर बार बार एक वंश के व्यक्ति पहुंच रहे हों, जबकि चयन प्रक्रिया में पिता या पूर्वजों को सेंघमारी कर सकने की संभावना खुली हुई हो, तब वो "वंशवाद" माना जाना आवाशयभावी हो जाता है।

शिक्षा प्राप्ति के दौरान व्यवहारिक नीत क्या होनी चाहिए?

कई सारे आधुनिक शिक्षकगण थोड़ा " व्यवहारिक ( Practical )" हो कर बात करने लगे हैं, और वे लोग परीक्षा में उत्तीर्ण हों जाना उचित मापक मानते हैं, पढ़ाई लिखाई के उद्देश्य की सफलता पूर्वक प्राप्ति का।  जीवन एक आर्थिक संघर्ष होता है, – की दृष्टि से वे लोग गलत नहीं हैं। मगर ऐसी सोच रखने पर जीवन संघर्ष में केवल जी लेना और चुनौतियों को पार लगा लेना , दो अलग बाते बन जाती हैं। जीवन की चुनौतियों को पार करने के लिए " व्यवहारिक(Practical) " स्तर का ज्ञान चाहिए होता है — और जो पढ़ाई लिखाई के दौरान ' विषय की प्रखरता (Mastery of the subject) ' को प्राप्त करने से आता है, सिर्फ exam में उत्तीर्ण हो जाने से नहीं। सोचने का सवाल है कि — 1) आप " व्यवहारिक " किसे समझते हैं। 2) आप शिक्षा प्राप्ति के दौरान किसे अपना उद्देश्य मानेंगे— a) Mastery of the subject;      b) Passing the exam with excellent grades  आगे,  इस दोनो सवालों की गुत्थी हमे ये बताती है कि क्यों कई सारे लोग अच्छे grades वाली markssheet के बावजूद बेवूफ होते हैं, और कई सारे लोग विषय में बिना किसी उपाधि रखत

रामप्रसाद की मां उसकी पढ़ाई लिखाई में क्या भ्रष्टता कर देती है अनजाने में

रामप्रसाद की मां उसकी पढ़ाई लिखाई में क्या भ्रष्टता कर देती है अनजाने में  रामप्रसाद की मां उसकी शिक्षा दीक्षा में ऐसा करती थी कि केवल syllabus के अनुसार और कि परीक्षा में क्या पूछा जाने वाला है, बस उतना ही तैयार करवा देती थी कैसे भी, ताकि उसका बच्चा exam में पास हों जाए अच्छे नंबरों से।  कुछ गलत नही था मां की चाहत में, अपने बच्चे के प्रति। मगर मां को अभी अनुमान नहीं था कि पढाई लिखाई के दौरान किसी विषय की mastery करना, वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना कैसे एक अलग प्रक्रिया होती है, मात्र exam पास कर लेने भर के प्रयासों से। ये भी अनुमान नहीं था कि वास्तविक ज्ञान या mastery प्राप्त करना क्यों उसकी संतान के हित में था, भविष्य की शिक्षा दीक्षा के लिए आवश्यक था अभी से ही वैसे तर्क, प्रयत्न करने की आदत डालने के लिए। मां के अनुसार तो दुनिया का व्यवहारिक सत्य यही था कि जो बच्चा परीक्षा अच्छे नंबरों से पास करता है वही आर्थिक संघर्ष में विजयी होता है, अच्छी नौकरी पाता है, अच्छी तनख्वा कमाता है।  मगर ये सब सोच – आर्थिक संघर्ष में विजई हो जाने वाला भविष्य का परिणाम– कैसे गलत थी , ये अभी मां को अनुमान न

Dunning Kruger Effect या देहातों में जाना जाने वाला Over Confidence

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Dunning Kruger Effect जिसे गाँव देहात में लोग overconfidence केह कर बुलाते है, ये स्वभावतः ज्यादातर इंसानों में उनके बचपन से ही मौज़ूद होता है। कोई भी व्यक्ति स्वयं की क्षमता और योग्यता का सटीक अनुमान बिना उपयुक्त अभ्यास के, नहीं कर सकता है। मगर अक्सर इसके निराकरण में लोग दूसरे का माखौल उड़ा कर, या लज्जित करके छोड़ देते हैं कि शायद बेइज्जती और आत्म ग्लानि से परेशान हो कर वो कुछ सोच पड़ेगा और सुधर जायेगा !!! जबकि ये तरीका सच्चाई से बहोत दूर ,शायद विपरीत है। सही तरीका है बार बार ,अभ्यास परीक्षणों से गुज़ारते हुए स्वयं की योग्यता और क्षमता को सटीक से आंकलन करने का माप तैयार कर  लेना

Rules for sons

RULES FOR SONS: (किसी पिता के द्वारा अपने पुत्र के लिए रचे गए  नियम)  1. Never shake someone's hand while you are in a seated position. कभी भी किसी से बैठे हुए शरीर अवस्था में हाथ नहीं मिलाना।  2. Don't enter a pool by the stairs.  कभी भी तैराकी के पूल में कदम चलने वाली सीढ़ियों से मत उतरना।  3. Being the man at the BBQ Grill is the closest thing to being king. किसी भोज आमंत्रण के समय अतिथेय करने का जो अहसास होता है, वो वास्तव में किसी देश के नरेश होने के अहसास से सबसे समीप होता हैं।  4. In a negotiation, never make the first offer. किसी भी व्यापारिक लेन–देन की प्रस्ताव ले दौरान तुम कभी भी पहले ही offer मत रखना। 5. Request the late check-out. किसी भी होटल में रुकते समय आरंभ में ही निवेदन रख देना की check out करने के समय तुमसे थोड़ा सा विलंब हो  सकता है।  6. When entrusted with a secret, keep it. यदि कभी कोई आपसे अपने मन की बात, या कोई गुप्त बात सांझा करता है, तब उक्त बात की गोपनीयता सदैव बनाए रखना।  7. Hold your heroes to a higher standard. जीवन में जिनको भी अपना हीरो बनाने का

रूस यूक्रेन युद्ध में भारत का रुख – भारत की डमाडोल विदेश नीति के सूचना चिन्ह

दिन-रात democracy का राग अलाप कर भारत अमेरिका की मैत्री को बांछने वाला भारत अब एक व्यापारी मानसिकता के आदमी के सत्ता में आ जाने से यकायक मूल्यों से समझौता करके " सबसे बड़े प्रजातंत्र "(India) और " सबसे शक्तिशाली प्रजातंत्र "(the US) की "आजमाई हुई दोस्ती" को खड्डे में डालने लगा है।  व्यापारी आदमी की पहचान यह है कि वो थोड़े से फायदे के लिए मूल्यों और आदर्शों से आसानी से समझौता कर लेता है।  भारत का प्रजातंत्र खतरे में है, ये बात सिर्फ भारत में संसदीय विपक्षी नेतागण ही नहीं बोल रहे हैं, अपितु अब विश्व समुदाय भी इसको महसूस कर रहा है। भारत ने यूक्रेन रूस युद्ध के विषय में जबान पर तो निष्पक्ष बने रहने की इच्छा जाहिर करी है, मगर कर्मों में उल्टा कर दिया है। भारत रूस से सस्ते में कच्चा तेल खरीदने चला गया है। ये एक तरह से पश्चिमी देशों के रूस को शांति के मार्ग पर रहते हुए युद्ध को रोकने के प्रयासों के लिए लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के विपरीत का कदम हो गया है। यानी भारत ने न सिर्फ पश्चिमी देशों से, जो को अधिकांश संख्या में प्रजातांत्रिक व्यवस्थाएं है, उनके विपरीत का

आरक्षण नीति भेदभाव से लड़ने की खराब युक्ति होती है

भेदभाव से लड़ने का तरीका आरक्षण कतई नहीं है।  शोषण किये जाने वाली सोच तो शोषण की भावना को मन में बसाने का आमंत्रण होती है।  शोषण क्या है?   शोषण वास्तव में attitude होता है life के प्रति। अगर आप सोचने लगेंगे की आपके संग शोषण किया जा रहा है, तब वाकई में आपको शोषण लगने लगेगा। दुर्व्यवहार और भेदभाव सभी इंसानों को झेलना होता है जीवन में। मगर समझदार व्यक्ति इससे लड़ कर उभर जाते है। जो शोषण को भेदभाव से जोड़ लेते हैं, वह कदापि उभर नही सकते। और जो आरक्षण में इसका ईलाज़ ढूंढते है, वो तो कदापि शोषण से बचने की सद युक्ति नहीं कर रहे होते हैं ।   तो शोषण से बचने का सही मार्ग क्या होता है? सही मार्ग है शक्तिवान बनना । आरक्षण आपको शक्तिवान नही बनाता है, केवल शासकीय शक्ति वाले पदों तक पहुँचाता है।  तो फ़िर शक्तिवान कैसे बनते है?  बाधाओं से उभर कर। और बाधाएं कौन सी होती है? भेदभाव वाली बाधाएं। रास्ते में अड़चन लगाए जानी वाली बाधाएं। कौन लगाता है बाधाएं? रास्ते में अड़चन कौन लगाता है और क्यों? आपके प्रतिद्वंदी जो कि शक्तिवान होने की स्पर्धा में आपके समानान्तर दौड़ रहे होते हैं। वो ये बाधाएं मिल कर समूह गत हो

भरपूर वजहें हैं कि क्यों रौंदा जाता रहा है ये देश हर एक आक्रमणकारी से

आलोचना किये जाने लायक तमाम अन्य देशों की संस्कृति की तरह यहां की संस्कृति में भी खोट मौजूद है । लेकिन अभिमानी आलोचक लोग कड़वे सच से मुंह फेर कर अपने घमंड में डूबने का आनंद लेना चाहते हैं।  भारत की संस्कृति में उगते सूरज को प्रणाम करने का चलन हैं। क्या इसका अभिप्राय मालूम है आपको?   क्या आप आज भी देख रहे हैं कि कैसे लोग दल बदल कर शासन में बैठे दल में घुस लेते हैं? लोग कमजोर आदर्शों वाले व्यक्ति को अपना नेता चुनते हैं, जो कि आसानी से समझौता कर लेते हैं मूल्यों पर। ( या शायद अच्छे नेतृत्व की सूझबूझ की निशानदेही होती है कि जरूरत अनुसार मार्ग बदल लेना काबिल नेतृत्व का प्रमाण है।) भारत के लोग कैसे हैं ? ऐसे लोग जो अपने कान जमीन से लगाए रहते हैं, आने वाली शक्ति की आहट को पहले से ही सुन कर पूर्वानुमान लगा लेने के लिए। और इससे पहले की वो शक्ति सूरज की तरह उगती हुई उनके सर पर चढ़े, वो पहले ही जा कर उगते सूरज को सलाम कर आते है। यानी पाला बदल के उसके आगे झुक कर संधि कर लेते हैं।  भारत में तन कर खड़े होने की संस्कृति और चलन नहीं है। यदि किसी ने भी ये सोच कर खड़े होने की कोशिश करी कि बाकी लोग साथ द

क्यों कोई भी समाज अंत में संचालित तो अपने हेय दृष्टि से देखे जाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग से ही होता है?

बुद्धिजीवियों को लाख गरिया (गलियों देना) लें , मगर गहरा सच यह है कि किसी भी समाज में अतः में समाज पालन तो अपने बुद्धिजीवियों के रचे बुने तर्क, फैशन, विचारों का ही करता है। बुद्धिजीवी वर्ग कौन है, कैसे पहचाना जाता है? बुद्धिजीवी कोई उपाधि नही होती है। ये तो बस प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत दृष्टिकोण होता है किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति, कि किसे वह अपने से अधिक पढ़ा- लिखा, ज्ञानवान और अधिक प्रभावशाली मानता है। अब चुकी हर व्यक्ति का अपना एक अहम होता है, तो फिर वह स्वाभाविक तौर पर हर एक आयाराम–गयाराम को तो अपने से श्रेष्ठ नहीं समझने वाला है। सो, वह बहोत छोटे समूह के लोगों को ही "बुद्धिजीवी" करके देखता है। नतीजतन, बुद्धिजीवी वर्ग प्रत्येक समाज में एक बहोत छोटा वर्ग ही होता है, मगर ऐसा समूह जो की समाज की सोच पर सबसे प्रबल छाप रखता है। और बड़ी बात ये है कि बुद्धिजीवी माने जाने का कोई मानक नही होता है। यानी, कोई शैक्षिक उपाधि ये तय नहीं करती है कि अमुक व्यक्ति बुद्धिजीवी है या नहीं। हालांकि प्रकट तौर पर सबसे प्रथम बात जो कि हमारे भीतर दूसरे व्यक्ति के प्रति सम्मान उमेड़ती है, वो उ

Secularism सभी कोई गलत समझे बैठा है

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दलित पिछड़ों के बुद्धिजीवी ही अपने समाज के असल शत्रु होते हैं

 दलित पिछड़ा वर्ग के बुद्धिजीवी ही अक़्ल से बौड़म हैं। वे अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षाओं के चलते अपने समाज को आरक्षण नीति के पीछे एकत्र होने को प्रेरित करते रहते हैं। ये सोच कर कि इनके लोग आरक्षण सुविधा प्राप्त करने के लिए वोट अपने जातिय नेताओं को देंगे।  और वो नेतागण फिर इन बुद्धिजीवियों को विधान परिषद् या राज्यसभा का सदस्य बना देंगे।   दलित पिछड़ा वर्ग चूंकि मध्यकाल से agarigarian(कृषि या पशुपालन करके जीविका प्राप्त करने वाले )   रहे हैं , सो वह औद्योगिक काल के बाजार के तौर तरीकों को नहीं जानते हैं, उनके भीतर में salesman ship के नैसर्गिक गुण नहीं होते हैं।  यदि कोई उनकी दुकान से उत्पाद नहीं खरीद रहा है, तो वो "भेदभाव" चिल्लाने लगते हैं, बजाये की कुछ आकर्षित करके समाज को लुभाएं सामान को खरीदने के लिए।  अब आधुनिक काल के समाज की अर्थव्यवस्था चूंकि आदानप्रदान (barter system ) कि नहीं रह गयी है, बल्कि मुद्रा चलित है (money-driven ) , तो यहाँ चलता तो सिक्का ही है , भले ही वो खोट्टा हो।  दलित पिछड़े वर्ग के लोग मुद्रा-चलन पर आधारित समाज के जीवन आवश्यक गुणों से अनभिज्ञ होते हैं, तो वो अ

ब्राह्मण बनाम बुद्ध — कब और कैसे आरंभ हुआ होगा भारतीय संस्कृति में

[9/6, X 14 PM] AHSHSHEHE: 👍👍 मेरा अपना ये मानना है कि वर्ण व्यवस्था, * जो की एक सकारात्मक पहल थी समाज को संचालित करने के लिए * , वो तो हालांकि मनुस्मृति से आरम्भ हुई है,   * मगर * छुआछूत और जातिवाद व्यवस्था (जैसे कि हम वर्तमान काल में देखते और समझते रहे हैं) ये आरम्भ हुई है शुंग काल के दौरान, जब * पुष्यमित्र शुंग * नाम के व्यक्ति ने मौर्य वंश के शासक बिम्बिसार की धोखे से हत्या करके शासन हड़प लिया था।  शुंग वंशी स्वयं को ' भुमिहार " बुलाते थे और वो तत्कालीन पारंपरिक ब्राह्मण और ठाकुरों से मिश्रित वर्ग थे। अब क्योंकि मौर्य शासक बौद्ध अनुयायी बन चुके थे, तो वो लोग पारंपरिक ब्राह्मणों को तवज़्ज़ो नहीं देते थे। समाज भी बौद्ध विचारो से प्रभावित हो कर बौद्ध हो चुका था। सो पारंपरिक ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देना संभवतः बंद हो चुका था। आक्रोशित हुए ब्राह्मण वर्ग ने नये विचारो और प्रतिहिंसा (बदले की भावना) की ठानी और फिर नये नये "पौराणिक मिथक कथाओं" को जन्म दे कर स्वयं के लिए भूमि अर्जित करना न्यायोचित करना आरम्भ कर दिया। जबकि ब्राह्मणों को भूमि पति बनना तो "मनुस्मृति'

हिन्दू समाज में blasphemy जैसा विचार क्यों नहीं होता है

हिन्दू समाज में भगवानों और देवी-देवताओं का अपमान किया जाना कोई अपवाद नहीं होता है। भगवानों का तिरस्कार करना वर्जित नही है। ऐसा क्यों? हिन्दू देवी-देवता इंसान के स्वरूप में धरती पर अवतरित होते रहे हैं। वे मानस रूप में विचरण करते और जीवन जिये रहते है । और कभी भी ये नहीं कहते फिरते है कि वो भगवान है, या अवतार हैं। ऐसा सब आदिकालीन बहुईष्टि प्रथा का अनुसार हुआ है।    जबकि एकईष्ट प्रथा में भगवान धरती पर नही आते है, वो केवल पैग़म्बर भेजते है , या अपने मानस पुत्र को,  जो उनका संदेश ले कर आता है। और जो धरती पर सबको बताता है कि वो कौन है, और क्या संदेस लाया है उस दिव्य विभूति ईश्वर से। फिर ये संदेश भगवान का आदेश मान कर समाज में पालन किये जाते हैं। इसके मुकाबले, हिन्दू देवता तो स्वयं से वो संदेश जीवन जी कर समाज को आदर्श पाठ में प्रदर्शित करते है।समाज को स्वयं से उन गुणों की पहचान करना होता है।  भगवानों को अपने मानस जीवन के दौरान अपनी आलोचना, निंदा, अपमान, तिरस्कार सभी कुछ झेलना भी पड़ता है।  सो, हिंदु समाज में देवी देवताओं की आलोचना या अपमान कोई अवैध आचरण नही होता है।

क्या बुराई है भारत के दलित पिछड़ा समाज विज्ञानियों में

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ये JNU छाप जितने भी तथाकथित दलित/पिछड़ा समाजविज्ञानी लोग है, सब से सदैव सावधान है क्योंकि ये सब एक से बड़ कर एक मूर्ख, बेअकल लोग हैं। ये लोग जितने भी  भेदभाव और ऊंच नीच का आरोप दूसरी जातियों , समूहों, समुदायों पर लगाते रहते हैं,  असल में जब भी इनके पक्षधर पार्टी सत्ता में आती है, तब वो भी यही बुराईयां उन दूसरी जातियों पर करने लगती है। क्या आपने कभी सोचा है, कि किसी को भी कमियां और बुराईयां गिनाने में सबसे कठिन मानक क्या होता है? ये कि उन बुराइयों का व्याख्यान ऐसे प्रकार से किया होना चाहिए कि यदि आप सत्तारूढ़ हो जाए तब कुछ बदलाव आ जाए जो उस बुराई को समाज में से समाप्त कर दे। मगर अधिकांशतः तो सत्तारूढ होने पर सिर्फ प्रतिहिंसा कर रहे होते है या बदले की भावना से काम करने लगते हैं, जबकि सोचते ये है कि ऐसा करने से ही बुराई खत्म होती है। ये सरासर गलत है । और ऐसा करने से ही दलित/पिछड़ा समाजविज्ञानियो की मूर्ख बुद्धि होने की पोल खुल जाती है। पश्चिमी जगत में उनके दर्शन शास्त्रियों ने जब भी अपने समाज की बुराइयों को देखा, तब ऐसे व्याख्यान दिए, चारित्रिक विशेषता बताई कि यदि उनको सुधार दिय

ईश्वर में आस्था रखने से क्या योगदान मिलता है समाज के निर्माण में

क्या ईश्वर में आस्था और गहन पूजा पाठ की क्रियाओं ने वाकई में ब्राह्मण तथा अन्य जातियों को अग्रिम बना दिया है, दलितों और पिछड़ों से? नव–समृद्ध ( nouveau riche) दलित वर्ग में कुछ एक व्यवहार एक प्रायः आवृत्ति में देखें जा सकते हैं। कि, वो लोग समाज को बार बार प्रेरित करते हुए से दिखाई पड़ते हैं कि ईश्वर में आस्था एक पिछड़ी मानसिकता का व्यवहार है, और लोग इसके कारण ही शोषण झेलें हैं। मगर यदि हम एक विलक्षण और विस्मयी (abtrusive) बुद्धि से विशेषण करें कि समूचे संसार में ईश्वर की पूजा करने वाला वर्ग की आज की तारीख में अपने अपने समाज में क्या स्थिति है – वो अग्रिम वर्ग है  या पिछड़ा है , तब हम एक समानता से इस वैज्ञानिक observation का एक समान उत्तर यही पाएंगे कि सभी पुजारी वर्ग अपने अपने समाज के अग्रिम वर्ग हैं। सोचिए, कि क्या theory दी जा सकती है इस वैज्ञानिक observation के कारणों को बूझने के लिए। ईश्वर में आस्था ने मनुष्य के समाज को उनके वनमानुष अथवा गुफ़ा मानव दिनों से एक ग्राम निवासी , सामाजिक मानव बनने में प्रधान योगदान दिया था। बूझिए , कि ईश्वर में आस्था और पूजापाठ का चलन कहां से

मंदिर किन हालात में टूटा

 चार सौ वर्षों पूर्व मंदिर किन हालात में टूटा था, इसे समझने के लिए भूतकाल में जाना जरूरी नहीं है। आप वर्तमान काल के हालातों का निरक्षण करके भी आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि क्या हालात घटे हुए होंगे।  हार्दिक पटेल ने तेरह हजार से ज्यादा tweet मिटा कर भाजपा का दामन पकड़ लिया है। और अब मोदी जी के गुणगान गाते घूम रहे हैं।  क्या विश्लेषण निकाला?  हिंदू उच्च जाति कोई स्थाई मूल्य, विचार या मर्यादा नहीं रखते हैं। हिंदू स्वभाव से polytheist होते हैं, जिस वजह से नित नए तर्क पकड़ कर आसानी से पलटी मार जाते हैं।  थूक कर चाट जाना संस्कृति में मान्य है।  कोई अडिग रहने वाला मूल्य नहीं है भारतवासियों में। इसलिए आसानी से पलट कर खिचड़ी संस्कृति होते रहे हैं हम लोग। जब मुस्लिम काबिज थे सत्ता पर, तब मुसलमान बन गए। और जब अंग्रेज आए, तब अंग्रेज बन गए।  मुसलमान भी अरब से मुट्ठी भर ही आए थे। मगर आज भारत की भूमि पर -भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश – तीनों को मिला कर गणना करने पर हिंदुओं से कहीं ज्यादा हैं।  ये कैसे हुआ?  असल में यहां के हिंदू ही तो मुसलमान बन गए थे! ये कश्मीरी मुसलमान कौन थे? जी हां — ये कश्मी

कुछ न कुछ गुप्त ,कड़वी सच्चाई तो सभी धर्मों में छिपी हुई हैं

कभी कभी कड़वी सच्चाई बोल देना भी अपमान करने के समान माना जाता है। अंधे को अंधा कहना उसका अपमान हैं, काले नाईजीरियन को कल्लू बुलाना उसका अपमान होता है, धृतराष्ट्र और पांडू का जन्म वेद व्यास से कैसे हुआ था, कुंती से कर्ण कैसे पैदा हुआ थे, कृष्ण गोपियों के संग क्या करते थे, ये सब विस्तृत हो कर बात करना हिंदुओं का अपमान होगा।

वैश्विक समस्याओं के मूल कारकों में ‘दंडवत‘ फिरकी

देश में समस्याएं पहले भी थी और सभी सरकारें उनसे निपटने के उचित उपाय कर रही थीं। मगर मोदी जी के आगमन के बाद से जो अचरज वाली बात हुई है वो ये कि इन समस्याओं के मूल कारण ही फिरकी कर गए हैं। उदाहरण के लिए :- बेरोजगारी पहले भी हुआ करती थी, और सरकारें इस समस्या से निपटने का उपाय किया करती थी - अधिक निवेश और फैक्ट्री लगा कर, जिससे की रोजगार बढ़े। मगर अब , मोदी जी के आगमन के बाद, बेरोजगारी का मूल शिनाख्त ही बदल गई है। अब पकोड़े बेचने और चाय बेचने वालों को भी रोजगार गिना जाने लगा है।  जबकि सभी अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठनों की मान्य परिभाषा के अनुसार वो सब "छोटे मोटे" व्यवसाय रोजगार में नही गिने जाते है !( पी चिदंबरम जी की टिप्पणी को ढूढिये इस विषय पर)। सामान्य अकादमी शिक्षा इसी  तर्कों  के अनुसार अर्थशास्त्र विषय ज्ञान आधारित किए हुए थी। अब बेरोजगारी के मूलकारणों में सीधे सीधे अथाह जनसंख्या को दोष दिया जाने लगा है, जबकि अतीत में विश्व में कोई भी मानववादी प्रजातांत्रिक सरकार  आबादी को स्पष्ट तौर पर मूलकारक लेते हुए कार्यवाही नहीं करती थी। ऐसा केवल वामपंथी, कम्युनिस्ट सरकारें जैस

किसी तानाशाह का जन्म कैसे होता है?

तानाशाह की अक्ल कैसे काम करती है? तानाशाह ये कतई नही सोचता है कि सही क्या है, और ग़लत क्या है। ज़ाहिर है, क्योंकि इतनी असीम, अपार शक्ति का स्वामी हो कर भी यदि ये सोचने लगेगा, तब फ़िर तो वो शक्ति बेकार हो कर स्वयं से नष्ट हो जायेगी।  तानाशाह की शक्ति  आती है उसके आसपास में बैठे हुए उसके सहयोगियो और मित्रों से। वो जो की तानाशाही में भूमिका निभाते है बाकी आम जनता के मनोबल को कमज़ोर करके उन्हें बाध्य करते है हुए आदेशों का पालन करने हेतु। तानाशाही का निर्माण होता है जब सरकारी आदमी आदेशों के पालम करने लगते हैं अपने ज़मीर की आवाज़ को अनसुना करके।   द्वितीया विश्व युद्ध के उपरान्त हुए, विश्व विख्यात न्यूरेम्बर्ग न्याययिक सुनावई के दौरान ये मंथन हुआ था कि आखिर हिटलर जैसा तानाशाह का जन्म कैसे हो जाता है किसी समाज में? कैसे अब भविष्य में हम किसी भी देश में किसी तानाशाह के जन्म को रोक सकेंगे? इस मंथन में बात ये सुझाई पड़ी थी कि तानाशाह तब पैदा होते हैं जब सरकारी आदमी बेसुध, बेअक्ल हो कर आदेशों का पालन करने लग जाते हैं। जन बड़ी संख्या में सरकारी आदमी (पुलिस, और सैनिक, जवान और अधिकारी) आदेशों से बंध जाते है

क्यों तानाशाह नेतृत्व अंत में आत्म-भोग के अंतिम सत्य पर आ टिकती है

रूस-यूक्रेन युद्ध के आज 31 दिन हो चुके हैं,मगर अभी तक विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सेना एक अदने से देश की अदनी सी सेना को मसल नहीं पायी है। अब तो उन पर लाले पड़ने लगे हैं आंतरिक विद्रोह हों जाने के, और खतरा बढ़ने लगा है की कहीं कमज़ोर मनोबल से ग्रस्त हो कर वो बड़ा "शक्तिशाली" देश कहीं जैविक /रासायनिक अस्त्र न चला दे ! ये सब देख कर सबक क्या मिलता है? कि, तानासाही चाहे खुल्लम खुला प्राप्त हो, या election fraud करके मिली हो, वो देश और समाज को आत्म-घात की ओर ले जा कर रहती है। तानाशाही में बड़े विचित्र और अनसुलझे मार्गों से समाज और देश की आत्म-तबाही आ गुजरती है।फिर ये तानाशाही उत्तरी कोरिया जैसे खुल्लम खुल्ला हो, या रूस के जैसे खुफ़िया एजेंसी से करवाये election fraud से हो। कैसे, किस मार्ग से आ जाती है समाज और देश पर आत्म-तबाही? कुछ नहीं तो विपक्ष का ही incompetent हो जाना समाज तथा देश की तबाही का मार्ग खोल देता है! कैसे? जब सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाता है, तब विपक्ष में से भी तो competent नेतागण वाकई में समाप्त होने लगते हैं जिनके पास प्रशासन चलाने तथा सरकारी नीतियों को जान

जैसे कुत्तों को घी नहीं पचता, वैसे ही मूर्खो को स्वाधीनता नहीं भाती

नीच आदमी को जब न्याय मिलने लगता है, लोग equality, समानता और बराबरी का ओहदा उसे देने लगते हैं, तब उनकी नीच मानसिकता वश उसे लगता है कि ये सब तो उसने अपनी लड़ाई जीत कर कमाया है, ये तो उसका हक था, इसमें दुनिया वालों की दरियादिली, मानवीयता का कोई योगदान नहीं है। आज दुनिया के कई सारे तथाकथित प्रजातंत्र देशों में मूर्खनगरी तंत्र ने चुनाव प्रक्रिया पर घात करके कब्जा जमा लिया है , और उनमें विराजमान लोग ऐसी वाली नीच मानसिकता से भरे हुए हैं। वो लोग अपनी जनता को देश पर गर्वानवित होने के नाम पर विश्व सूचना तंत्र यानी internet पर अंटबंट लगाम लगाने की नित दिन नई कवायद कर रहे हैं। ऐसा करते समय ' चूतिया' (माफ करिएगा, मगर आजकल बताया जा रहा है की ये शब्द शुद्ध संस्कृत शब्द है) लोग ये भूल जा रहे हैं कि कितना और क्या -क्या संघर्ष किया था इन्ही "फिरंगी" अमेरिकी कंपनियों के मालिक -engineers ने, इस विश्व व्यापक सूचना तंत्र की स्थापना करने के लिए  1990 के दशक में। दुनिया भर की किताबो में ये संघर्ष और इसका ब्यौरा दर्ज है। मगर फिर चूतिया लोग तो परिभाषा के अनुसार जन्म ही ऐसे लेते हैं की उनको लगत

क्यों ये देश हमेशा वास्तविक उद्योगपति से रिक्त बना रहेगा और विदेशी कंपियों के द्वारा लूटा जाता रहेगा

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 जैसा की मैं हमेशा से बताता आय हूँ,  भारत में "उद्योग पति" के नाम पर वास्तव में सिवाए "मारवाढ़ी गिरी " के कुछ नहीं है , - वो सामुदायिक परिवार के लोग जो की बड़े स्तर पर परच्युन की दुकान चलाते हैं , बिचौलिया-दलाली के धंधे के कमाई करते , और कुछ नहीं।   और अक्सर करके अपने राजनैतिक -बाबूशाही संबंधों का फायदा ले कर monopoly जमा लेते, समाज को कंगला कर देते हैं।    भारत में वास्तविक कौशल कामगार professional (व्यवसायी) नहीं होता है , जो की उद्योगिक जोखिम ले, मुद्रा बाजार से सार्वजनिक धन को ले कर नवीन , अनजाने क्षेत्र में किसी अनदेखे , अनसुने उद्योग की नीव डाले और समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाते हुए कामयाबी के शिखर तक पहुँच जाये।  माइक्रोसॉफ्ट का बिल गेट्स खुद एक कंप्यूटर इंजीनियर कौशल कामगार (पेशेवरिय कंप्यूटर professional ) है, और अपना उद्योग ऐसे क्षेत्र में (कंप्यूटर जन्य सॉफ्टवेयर उत्पाद सेवा ), वो भी तब जमाया था जब कोई भी उस क्षेत्र मे नहीं था।  ये पूरा अनजान और अनसुना-अनदेखा  क्षेत्र था जिसमे कोई भी उद्योग था ही नहीं ।   एलोन मस्क ने battary ऊर्जा संचालित कारों के निर

डार्विन के तर्क अनुसार महिलाएं क्यों निम्म होती हैं पुरुषों से

महान चिंतक और वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन अपने एक मतविचार मे महिलाओं को पुरुष से निम्म होने का तर्क रखते हुए कहते हैं कि स्त्रियाँ यदि अपने gut feelings(आने वाले खतरों का अंतर्ध्यान के प्रयोग से पूर्वानुमान कर लेना) में पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा बेहतर होती है तब यही अपने आप मे प्रमाण होता है कि वो पुरुषो से बौद्धिक कौशल में निम्म हैं। डार्विन का यह मत उनके अपने सिद्धांतों पर आधारित था कि प्रकृति में gut feeling का प्रयोग करने वाले जीव जंतु food chain या भोजन श्रृंखला में निम्म होते हैं। इस प्रकार के आचरण को डार्विन instinctive behaviour बुलाते थे , और जो कि ज्यादातर जीवजंतुओं में देखा जाता है। इसके बनस्पत होता है उच्च बौद्धिक कौशल वाला आचरण जो कि आधारित होता है सूचना , ज्ञान , जानकारी पर। उसे informed behavior बुलाते है।  डार्विन का सिद्धांत बताता था कि informed behaviour करने के लिए बुद्धि की अधिक क्षमता चाहिए होती थी,  क्योंकि सूचना को मंथन करके अर्थ निकालने के लिए मस्तिष्क में स्थान, वजन दोनो चाहिए होते हैं । प्रकृति में बड़ा वजन और आकार का मस्तिष्क सभी जीव जंतुओं को देना संभव नहीं था।

इलेक्शन फ्रॉड से निपटने में कुछ बौद्धिक आत्म ज्ञान रखना ज़रूरी है।

 इलेक्शन फ्रॉड से निपटने में कुछ बौद्धिक आत्म ज्ञान रखना ज़रूरी है।  सर्वप्रथम ये, कि  evidence  तो अब कुछ भी जमने वाला नहीं है देश की किसी भी संस्था और न्यायालय में।  मगर जबजब जहाँ जहाँ फ्रॉड के चिन्ह(indicators, signs)  दिखाई पड़ें. आरोप लगा कर विषय को कोर्ट में शिकायत करना ज़रूरी होगा, ताकि कम से कम close indicators तो बन सकें की इस देश में "शायद"   election  fraud  करके सरकार बनायीं और चलायी जा रही है।  ये समझना ज़रूरी है की evidence  अलग चीज़ होते हैं, और closest  indicators   अलग ।  कुछ विषयों के evidence होते ही नहीं है, और तब उनको close  indicators  से ही दर्शा करके बात को जनचेतना के हवाले छोड़ दिया जाता है कि वो खुद से तय कर ले सत्य क्या है।  दुनिया वालों के पास में पर्याप्त बौद्धिक बल मौजूद है कि वो close indicators  को दर्शाये जाने पर खुद से बात पकड़ ले कि  आखिर चल क्या रहा है इस देश में।   इसलिए evidence  के पीछे मत भागिए क्योंकि अब वो तो बचा ही नहीं है।  और न ही निरुत्साहित हो जाईये कि  अब अबकी बात कोई सुन नहीं रहा है, और न ही मानी जा रही है।  आप बस चुपचाप अपने कर्तव्य

Why Autocratic countries stop making scientific and technological progress

(This post is copied from somewhere on the Internet)   Autocratic states are NEVER able to keep pace with the scientific and the technological progress made by the Liberal Democracies.   There is a sound explanation why so.   In an Autocracy, there is in-built burden to promote people based on the POLITICAL CONSIDERATIONS alone, and not the Technological Competency because a Technologically Competitive person MAY NOT BE politically supportive, favourable to the ruling Autocratic class. Thus lots of innovative thoughts and ideas get nipped in the bud by the Autocratic people, resulting into the lag.   Autocracies have in their elite business class only the GENERAL MECHANDISING and GENERAL PROVISIONS sellers & traders. Why so, it is so obvious to understand. And they become dependant on Espionage and Surveillance for getting their hands at the scientific Information.

अंततः election fraud तानाशाह भी समाज को मुक्ति नहीं दिलवा पाते है, और आत्म-तबाही में ले कूदते हैं

रूस-यूक्रेन युद्ध के आज 31 दिन हो चुके हैं,मगर अभी तक विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सेना एक अदने से देश की अदनी सी सेना को मसल नहीं पायी है। अब तो उन पर लाले पड़ने लगे हैं आंतरिक विद्रोह हों जाने के, और खतरा बढ़ने लगा है की कहीं कमज़ोर मनोबल से त्रस्त कर वो बड़ा "शक्तिशाली" देश कहीं जैविक /रासायनिक अस्त्र न चला दे ! ये सब देख कर सबक क्या मिलता है? कि,  तानाशाही चाहे खुल्लम खुला प्राप्त हो, या election fraud करके मिली हो, वो देश और समाज को आत्म-घात की ओर ले जा कर रहती है। तानाशाही में बड़े विचित्र और अनसुलझे मार्गों से समाज और देश की आत्म-तबाही आ गुजरती है। फिर ये तानाशाही उत्तरी कोरिया जैसे खुल्लम खुल्ला हो, या रूस के जैसे खुफ़िया एजेंसी से करवाये election fraud से हो। कैसे, किस मार्ग से आ जाती है समाज और देश पर आत्म-तबाही? कुछ नहीं तो विपक्ष का ही incompetent हो जाना समाज तथा देश की तबाही का मार्ग खोल देता है! कैसे? जब सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाता है, तब विपक्ष में से भी तो competent नेतागण वाकई में समाप्त होने लगते हैं जिनके पास प्रशासन चलाने का भीतरी ज्ञान तथा सरकारी

आधुनिक ज्ञानकारी तंत्र आपको बुद्धिमान नहीं, बौड़म बना रहे हैं

 धोखा खाने से बचिए , ये गूगल , यूट्यूब और इंटरनेट के तमाम 'ज्ञानकारी' सेवाएं इंसान को ज्ञानवान और बुद्धिमान नहीं बना रहे हैं, बल्कि वास्तव में मूर्ख और बौड़म बना रहे हैं।  कैसे ? ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत क्या होता है ?  यदि आप ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत समझते हैं - किताबें , गूगल , यूट्यूब , इंटरनेट , - तब आप गलत है।  ज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत होता है - विमर्श  ( संवाद और उसके नाना प्रकार - बातचीत, वार्तालाप , चर्चा, बहस,  वाद), खोज ,(और अन्य प्रकार जैसे - तफ्तीश, अध्ययन, शोध, अन्वेषण , अविष्कार, ) .  ये पके-पकाये स्रोत - यानि गूगल, यूट्यूब, इंटरनेट - वास्तव में आपको आसानी से पकाया हुआ ज्ञान का भोजन देकर आपको मूल से दूर कर रहे हैं।  सचेत रहिये।  

रूस की हिन्दू धर्म ग्रंथों की समझ

 पुतिन बाबू और रावण के चरित्र में बहोत समानताएं दिखाई पड़ रही है। दोनों ही आत्ममुग्धता से पीड़ित हैं, और इसके चलते अपने देश और अपने परिवार को खुद ही बर्बादी के मंज़र पर ले गए हैं।  जिस तरह से रूस आज दुसरे अन्य देशों को डरा-धमका रहा है कि अमेरिका से मैत्री न करो, रूस के सैन्य कार्यवाही की आलोचना न करो, रूस को यूक्रैन से सेना हटाने की चुनौती मत दो , ये सब पुतिन के अंदर जमे 'अभिमान' की निशानदेही है। गर्व चाहे राष्ट्र की श्रेष्ठता का हो, चाहे धर्म का -- ये इंसान में आत्ममुग्धता का रोग प्रवेश करा देता है।  मॉस्को में ISKCON के मंदिरों को खुलने की अनुमति को लेकर रूसी सरकार ने अभी चंद वर्षो पहले आपत्ति उठाई थी। रूसी सरकार का कहना था की हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ भगवद गीता और महाभारत , दोनों का वितरण और शिक्षण रूसी समाज और रूसियों के परिवार में आपसी-कलह करवाएंगे। दरअसल इन दोनों ग्रंथो के प्रति ये वाली आलोचना अक्सर छाया बन कर साथ चलती है। और रूसी सरकार ने उसी आलोचना के अनुसार आपत्ति रखी थी।  बरहाल भारतीय दूतावास के समझाने बुझाने पर अनुमति मिल गयी थी। रामायण का मर्म भी अक्सर ऐसी आलोचना छवि का श

"typical UP-type of an answer" का मसला क्या है ?

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 "typical UP-type of an answer" का मसला क्या है ? बजट के उपरांत पत्रकार सभा के संग वित्त मंत्री के प्रश्नोत्तर काल के दौरान एक पत्रकार महोदय ( श्री आनंद, इंडिया टीवी से ) ने सवाल किया था की बजट पर विपक्ष के नेता रहल गाँधी जी की जो प्रतिक्रिया है -- कि यह है zero sum  बजट है (यानि बकवास, व्यर्थ बजट है आम आदमी के हितों के मद्देनज़र )-- तो कैसे पता चलेगा की राहुल को यह बजट समझ में नहीं आया है, या राजनीती के चलते, बस यूँ ही, आलोचना करने की duty कर दी है ? विश्लेषण :- इस वाले प्रश्नोत्तर के दौरान प्रत्रकार  सवाल कर्त्ता  ने वास्तव में खुद ही " राजनीती "( कूट आचरण ) करि है, जब उसने अपने सवाल में "विकल्प" को डाल कर निर्मला जी से प्रश्नन किया है।  विकल्प धारक प्रश्नों में जवाबकर्ता के विचार और ज़बान को पहले से ही बांध दिया जाता है कि वो विशेष दिशा में ही खोज करे जवाब को !  सवाल करने की ये शैली , ये आचरण, अपने आप में ही " कूटनीति " है पत्रकार की !! बरहाल, आगे क्या हुआ   ....  इस प्रश्न का जवाब वित्त मंत्री सुश्री निर्मला सीतारमण जी ने देने का प्रस्ताव दिय

संसद भवन में कानून को पारित करने का उद्देश्य क्या होता है

कानून का लेखन (संसद में पारित करने की प्रक्रिया) का उद्देश्य ये कतई भी नहीं होता है कि कोई उद्योगिक/अर्थ चक्रिय/सामाजिक कार्य कर गुज़ारा जाये। कानून लेखन और फरमान निकालने में अंतर को समझिये।  कानून लेखन का उद्देश्य समाज का दमन करके या बाध्य करके प्रशासन चलाना भी नही है।  न ही स्मृति बढ़ाना मात्र है। कानून लेखन का उद्देश्य प्रशासनिक और न्यायायिक धूर्तता को समाज और प्रशासन में से समाप्त करना है।  कहने का अर्थ है कि जो कार्य जिस तर्क और सिद्धान्त से आज किया जा रहा है, उस तर्क, सिद्धांत को स्थापित करके समाज की स्मृति में बसा देना कानून-लेखन का विशिष्ट उद्देश्य होता है।  इसका अभिप्राय हुआ कि यदि दमनकारी या जबदस्ती तरीकों से किसी लेखन कर देने के बाद में, भविष्यकाल में यदि विपक्षी दल सत्ता में आने के उपरान्त "संसोधन" को आसानी से या सस्ते/कपट तरीकों से करके तर्क और सिद्धांतों को बदल कर कुछ और करने लग जाये, तब फ़िर कानून लेखन का विशिष्ट उद्देश्य मात खा जाता है। समाज में धूर्तता प्रवेश कर जायेगी और वो समाज, फिर,  आपसी द्वन्द से ही समाप्त हो जायेगा। बाहरी आक्रमणकारी का आना तो ब

क्यों गुप्त पड़ा हुआ है भारतीय समाज के भीतर में बसा हुआ ब्राह्मण विरोध? कहाँ से आया और क्यों ये अभी तक अगोचर है?

औसत ग्रामीण भारत वासी के जीवन में दुःख और कष्ट इतना अधिक होता है कि उसका सामना करने का आसान तरीका बस ये है कि दुःख की वास्तविकता से मुँह मोड़ कर उसे ही सुखः मानने लग जाएं। यानी reality को distort कर लें।ब्राह्मण reality /सत्य/ वास्तविकता के प्रति चेतना नही देता समाज में, जागृति नही देता, उनको सामना करना नही सिखाता है समाज को, बल्कि distortion का फ़ायदा उठाता है और अपना व्यक्तिगत लाभ लेने लगता है। यद्यपि भारत के समाज में ऐसे विद्वान और सिद्ध पुरुष आते रहे जो कि ब्राह्मणों के जैसे नही थे, और समाज को दुःखों का सामना करने तरीका बता कर सत्य के प्रति बौद्ध भी देते रहे हैं। भगवान बुद्ध, महावीर, गुरु नानक ऐसे ही नामो में से हैं। स्कूली पाठ्यक्रमो के रचियता इतिहासकारों ने यहाँ अच्छा कार्य नही किया मौज़ूदा पीढ़ी के प्रति , जब उन्होंने किताबों में राजनैतिक इतिहास को अधिक गौड़ बना कर प्रस्तावित कर दिया है। धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास को दर्ज़ नही किया, खास तौर पर वो अंश जो की समाज में चले आ रहे ब्राह्मण बनाम अन्य समूहों के संघर्ष को दर्शाता है। मौर्य शासकों का अंत कैसे हुआ, भुमिहार कहाँ से आये, पु

क्या भेद है अमरीकी प्रजातंत्र और ब्रिटिश प्रजातंत्र में

गहराई में देखा जाये तो अमेरिकी डेमोक्रेसी उनकी संस्कृति में free gun running की बदौलत टिकी हुई है, जबकि ब्रिटिश democracy को उनके समाज में टिके रहने का स्तम्भ है: standards तथा checks and balance विधि। ब्रिटिश समाज में equality  और mutual respec t   शांतिप्रिय विधि से प्राप्त किया जा सकता है, मगर अमेरिकी समाज में हिंसा (या हिंसा के भय) की बदौलत ही ये प्राप्त होता है। मानक और संतुलन  को तय करने की भूमि यदि प्रिय है, तब वो निश्चय ही अंतरात्मा को बुलंद करने के लिए किये गए उपायों से प्राप्त होती है। अन्यथा उसको अशांत हो जाना तयशुदा है। तब ऐसे में दूसरी जिस विधि से शांति प्राप्त हो जाती है, वो है  free gun running ।   अमेरिकी और ब्रिटिश प्रजातंत्र के उपज का ये सूक्ष्म अंतर बहोत कम लोगों को समझ में आयेगा और दिखाई पड़ेगा। आम जनता को लगता है कि free gun running की व्यवस्था अमेरिकी समाज पर अभिशाप है। जब भी हमें किसी अमेरिकी college , विश्वविद्यालय में कोई बड़ी gun shooting की घटना की खबर सुनाई पड़ती है, तब हम भारतीय लोग उसपे दुःख व्यक्त करते हुए सोचते हैं की कानून बना कर gun r