क्यों तानाशाह नेतृत्व अंत में आत्म-भोग के अंतिम सत्य पर आ टिकती है

रूस-यूक्रेन युद्ध के आज 31 दिन हो चुके हैं,मगर अभी तक विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सेना एक अदने से देश की अदनी सी सेना को मसल नहीं पायी है। अब तो उन पर लाले पड़ने लगे हैं आंतरिक विद्रोह हों जाने के, और खतरा बढ़ने लगा है की कहीं कमज़ोर मनोबल से ग्रस्त हो कर वो बड़ा "शक्तिशाली" देश कहीं जैविक /रासायनिक अस्त्र न चला दे !

ये सब देख कर सबक क्या मिलता है?

कि, तानासाही चाहे खुल्लम खुला प्राप्त हो, या election fraud करके मिली हो, वो देश और समाज को आत्म-घात की ओर ले जा कर रहती है।

तानाशाही में बड़े विचित्र और अनसुलझे मार्गों से समाज और देश की आत्म-तबाही आ गुजरती है।फिर ये तानाशाही उत्तरी कोरिया जैसे खुल्लम खुल्ला हो, या रूस के जैसे खुफ़िया एजेंसी से करवाये election fraud से हो।

कैसे, किस मार्ग से आ जाती है समाज और देश पर आत्म-तबाही?

कुछ नहीं तो विपक्ष का ही incompetent हो जाना समाज तथा देश की तबाही का मार्ग खोल देता है!
कैसे?
जब सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाता है, तब विपक्ष में से भी तो competent नेतागण वाकई में समाप्त होने लगते हैं जिनके पास प्रशासन चलाने तथा सरकारी नीतियों को जानने/समझने का पर्याप्त अनुभव हो, जिसके सहारे वो election fraud तानाशाह की सरकार की नीतियों पर पर्याप्त तर्क और कटाक्ष कर सकें!

है, कि नहीं?

और ऐसे में election fraud तानाशाह खुद ही अपने देश और उसके समाज को , सबको एक संग उन्नति के मार्ग पर नहीं, बल्कि "चूतिया पुरम" तंत्र की ओर ले कर बढ़ने लगता है!

यदि किसी देश में नित-समय अनुसार सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाये, तो ऐसी election fraud तानाशाही का भी हश्र वही हो जाता है ,जो किसी सम्पूर्ण तानाशाही (जैसे की उतारी कोरिया) का हुआ है। सर्वप्रथम, समाज को आर्थिक नीति में आत्म-दरिद्रता को भोगना पड़ता है, जैसे की आज श्रीलंका में होने लगा है। महंगाई बढ़ती है। और फिर, क़िल्लत और गरीबी आ जाती है पूरे समाज पर।

कैसे हो जाता है ये सब?
सुचारू तरह से सत्ता परिवर्तन का होते रहने से राजनैतिक वर्ग  में मानसिक/बौद्धिक स्वस्थ कायम रहता था, क्योंकि समस्त राजनैतिक पक्षों में अनुभवी नेताओं की संख्या पर्याप्त बने रहती थी । मगर जब किसी election fraud व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन होना जब बंद हो जाता है, तब शायद विपक्ष में पर्याप्त competent और अनुभवी तर्कशील नेताओं की संख्या समाप्त होने लगती हैं! और फिर ऐसे में, election fraud करके आया तानाशाह बड़े-बड़े वादे करके अपने समाज को बहोत जल्द आत्म-तबाही की राह पर चल निकलता है,क्योंकि उसको रोकने वाले सामर्थ्य विपक्ष उपलब्ध ही नहीं रह जाता है समाज के अंदर !

तानाशाह नेताओं को अपने  समाज को  उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलवा कर उन्नति की रहा तलाशने में ऐसे-ऐसे तर्क-विरर्क की भूलभुलैया आ घेरता है, जिसमे अंत में बस एक ही काबिल तर्क उनके सामने उनका पथ प्रदर्शक बन कर रह जाता है। वो ये, कि तानाशाही से भी समाज का उत्थान नही किया जा सकता है।

तो तर्क-वितर्क की भूलभुलैया में तानाशाह और उसके समर्थकों को यही तर्क पसंद आने लगता है कि- " बस ,अंत में अपनी निजी मौज़ मस्ती और जेब भर कर जियो !"

ज़्यादातर तानाशाही व्यवस्था का अंतिम तर्क यही रह जाता है - चुपचाप से बस अपना भला करके, अपनी जेब भर कर मस्ती से जिये,  दुनिया का भला आजतक न कोई कर पाया है, न ही कोई कर सकेगा।

तानाशाह और उसके मित्र मंडल की समस्त देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम , सामाजिक कल्याण के प्रवचनों का निचोड़ खुद-ब-खुद तानाशाह को इस एकमात्र राह पर ला खड़ा करता है जिसे अंग्रेज़ी में Nihilism शब्द से बुलाया जाता है।

और इस प्रकार से तानाशाही व्यवस्थाओं का अंतिम सत्य (चाहे election fraud से बनी तानाशाही हो, या फ़िर तंत्रीय ढांचे में फेरबदल करके जमाई गयी हो) आत्म-भोग ही उनका अंतिम परिणाम हो जाता है- जिसका अभिप्राय होता है -देश की बर्बादी ।

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