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आज 'भारतीय व्यवस्था और समाज' के जीवन का एक पूर्ण चक्र हो गया है

            अभी कुछ सालों पहले तक हमारे समाज में यह समझा जाता था कि बहस करना एक किस्म का मनोरोग होता है । एक डॉक्टर ने तो एक पूरा लेख ही लिख डाला था की बहसि व्यक्ति में किस मनोरोग के आशंकाएं हो सकती हैं । संस्थाओं में , ट्रेन में , सफ़र में यात्रियों में , ..अभी तक कई जगहों पर बहस को मनोरोग समझा जाता है । इस धारणा का परिणाम यह था की लोगों ने प्रशन करने के मस्तिष्क पर स्वयं ही विराम लगा लिया था कि कहीं उन पर "बेहसी" होने का इल्ज़ाम न लगे , और , फिर जैसा की डॉक्टर ने कहा , मनोरोगी होने का संदेह !
       असल में भारतीय तंत्र की निंदा तो बहोत लोगों ने करी- सरकारी सेवा से सेवानिवृत्र अधिकारीयों में यह 'मनोरोग' खूब दिखता है जो न जाने किस तंत्र, किस व्यथा की निंदा कर रहे होते हैं , और न जाने किस वस्तु, किस नियम , किस व्यक्ति की अपनी निंदा का केंद्र बना कर 'बहस' कर रहे होते हैं । और आस-पास बैठे युवा छात्र , 'प्रोफेशनल' , इत्यादि जो की देश की राजनीतिक , प्रशाशनिक और न्याय-कानून व्यवस्था से अनभिज्ञ होते है , धीरे से ऐसे बुजुर्गो को "पागल " समझ कर छुप लेते हैं , अन्यथा फिल्मी या क्रिकेटई ज्ञान चर्चा करने लगते हैं ।
     बस यही वह पल था जिसने २१वी शताब्दी के भारत की अब तक की पहचान बनायीं थी । "
" कुछ गलत है , मगर कौन ज़िम्मेदार है किसको पता ? इस लिए चल - फ़िल्म देख , सुन्दर सेक्सी हेरोइनो को देख , क्रिकेट देख और मज्जे कर । ज्यादा दिमाग लगाएगा तो ऐसा ही पागल बन जायेगा । "
               आज जब केंद्रीय मंत्री कमलनाथ , कोयला घोटाले में सीबीआई की इतनी कथनी के बाद , सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान/दर्शन के बावजूद अगर विपक्ष को बहस का न्योता देते हैं , तब मुझे "बहस" के इस मनोरोगी लक्षण का व्यक्तव्य फिर से याद आ रहा है। और इस बार जब की कोयले का अपराधी; और हमारे सरकारी , राजनैतिक , न्याय और प्रशाशनिक तंत्र की कमियों का ब्यूरा जग-जाहिर हो चुका है , तब बहस के आमंत्रण पर वही पुराना रवैया ही सही समाधान लग रहा है ।
       -- "चल यार , फ़िल्म देख , सुन्दर सेक्सी हेरोइनो को देख , क्रिकेट देख और मज्जे कर । ज्यादा दिमाग लगाएगा तो ऐसा ही पागल बन जायेगा । "

भारत की दस प्रमुख समस्याएं और मौजूदा में उपलब्ध उनके चार निवारण

(मूल रचना किसी अज्ञात व्यक्ति की )
भारत की दस प्रमुख समस्याएं और मौजूदा में उपलब्ध उनके चार निवारण

 भारत की दस प्रमुख समस्याएँ हैं :
१) गरीबी
 २) अशिक्षा / अज्ञानता
 ३) भ्रस्टाचार
 ४) योग्यता विहीन व्यक्तियों को उच्च निर्णय पदों पर आसीन करना ( Cronyism, इसे जातिवाद , परिवार-वाद नाम से भी जाना जाता है )
५) महिलाओं और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार
 ६) अनुचित/अयोग्य अनुसरणिय नायक , या फिर वास्तविक जीवन में नायकों का आभाव ( अनुचित/अयोग्य नायक जैसे की राजनीतिग्य , फिल्मी सितारे , साधू/ मौलवी इत्यादि , सफेदपोश अपराधिक तत्त्व)
 ७) अंतर -समाज/ सांप्रदायिक / अंतर-जाती विवाद
 ८) मूल्यों का पतन (हमारा आचरण- अपने घरों में , घरों के बाहर, अपने बच्चों को मूल्यों के प्रति जागृति )
९) अटपटे कर्मकांडी प्रथाएं - सभी मजहब और पन्थो में ,
१०) वास्तविक प्रजातंत्र का अभाव - कुछ परिवारों द्वारा देश की राजनीत पर काबिज़ हो जाना |

 इन सभी १० समस्याओं के मौजूदा में उपलब्ध ४ निवारण
 १) हर एक चुनाव में वोट दीजिये , चुनाव के प्रति उदासीन न रहिये । साफ़ प्रत्याशी को वोट दीजिये ; पार्टी के नाम पर प्रत्याशी को वोट मत दीजिये ।

 २) वोट उन प्रत्याशियों को मत दीजिये जो दो बार से ज्यादा, या आठ साल से ज्यादा आपका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ।

 ३) अपनी शिक्षा और ज्ञान का प्रयोग करें -- समाज में मौजूद अवधारणाओं को ख़त्म करें । देश और समाज को जो आवश्यक है वह मात्र एक संवेदनशील , मानव ह्रदय है ।

 ४) दुर्व्यवहारों को समाज में उजागर करिए । राजनीतिज्ञों के, उच्च पदाधिकारियों के , प्रसिद्द लोग, सेलिब्रिटी , पैसेवाले अमीरों के , साधुओं और मुल्लाहों के ,-- और इनकी संतानों के, -- गुप्प-चुप्प में किये गए खराब व्यवहार को विडियो , ऑडियो , अख़बार के लेख , सोशल नेटवर्किंग , इन सब से बेनकाब करिए ।

An illusion called Indian State

Given the present state of affairs, where the Solicitor general has made false statements before the supreme court, the PM and Law Min refusing to resign, it is time we reflect back to take some stock of things..this time with the purpose of personal enhancement , to improve our thinking ability :-
 1) The case of "Hit and Run" : Many people had accused Kejriwal and team of trying "Hit and Run" and not standing up the accusation they were making against some big and powerful people. The phrase has caught up with us like a rhetoric, putting our mind into numbness through 'Good English learning technique'.
            Time we all reflect back, what best results we can get if we are going to try for a conclusive logical outcome of any accusation made against the people in government. Otherwise, you are guilty of doing "hit and run".
 2) The old speeches and statements of MMS : MMS made a lots of statements against the Anna and AK sponsored the Jan Lokpal bill - 'such a law is anti-national', 'national security will put at stake', 'the world is laugh at us, stop making that anti-corruption march', ..so on so many. Is there any further doubt left in us as to who is the King of Thiefs in India and what double-meaning statements were being played out to confuse people of India into deciding their political and Voting stand.
            Lesson to learn is about changing out Language semantics..more than half of politics in India is a foolish people's gameplan being played out because the citizens are either truly , or being given the treatment, of a mentally and linguistically challenged people.
 3) why india is not a country but a personal fiefdom, and we are not citizens but subjects :- Many of us have held it with grudge that nothing can set India right. Today is the times where we have a big time open exposure of what makes it so. Today is the time which will help us set our parameters of hope and desires about the Indian state, as to how much should we expect to set things ok. There were many who knew the ugly truth about India long time before. But there was always a confusion about extreme pessimism and illusional optimism . Today we should be able to decide out how much "degree" will be extreme pessimism and the Illusional optimism.
        With the absence of Right to Recall and Right to Reject, the "subjects" that we are, are left to the solutions of begging the resignations of the guilty people, who have all the tricks in the box to reduce the monumental systemic mistakes, even their personal intended misdoings, into simple mistakes of their subordinates and thereof refuse to resign. Their is no place for moral propriety , no place for ethics, no true sovereign called the citizen.

क्यों दिल्ली के पुलिस प्रमुख अपना इस्तीफा दे दें

        दिल्ली के पुलिस कमिश्नर का पूछना है की वह क्यों त्यागपत्र दे दें । अपनी बात को समझाते हुए वह पत्रकारों यह भी पूछते हैं की अगर कोई संवाद-दाता गलत खबर देता है तब क्या उस न्यूज़ चैनेल का एडिटर इस्तीफा दे देता है ।
   उनकी बात भी जायज़ है । किसी एक, या कुछ एक सह कर्मियों की गलती के लिए उसके बॉस को सजा देना कोई इन्साफ नहीं है । ऐसे तो हर बॉस को हटाने के लिए उसके सहकर्मी की गलतियों को दिखला का "राजनीती" करी जा सकेगी , पुलिस के बॉस को दबाव में रखने की ।
               मगर क्या यहाँ मुद्दा किसी उपकर्मी की गलतियों का ही है ? यहाँ तंत्रीय गलती तो नहीं हुयी है ? अक्सर कर के उच्च पदाधिकारी तंत्र पर ऑडिट का काम करते हैं । कितनी पीसीआर गद्दियाँ है, कहाँ तैनात है , इसके नियमो को बनाना , उनके पालन को देखना इनका काम होता है । उप्कर्मी की ट्रेनिंग , वह ट्रेनिंग के मुताबिक कम कर रहे हैं की नहीं, कौन सी नयी ट्रेनिंग की आवश्यकता है , ..यह सब भी उच्च अधिकारी देखतें है । निर्भया केस के बाद तो इसमें चुस्ती आने का दौर था , यह सब विषय तो पहले ही किसी घटना से लागू हो चूका होगा । बकली 'निर्भया' के बाद कुछ नए कदम -- अर्थात ट्रेनिंग, पीसीआर के तैनाती पर नज़र चालू हो चुका होगा । बल्कि उप्कर्मी ने फिर कैसे यह हिम्मत करी की पैसे दे कर केस न लिखे, यह अब एकाकी विषय नहीं रह जाता । ऑडिट इत्यादि के बाद तो यह क्रिया लागू बहोत पहले ही हो चुकी होनी चाहिए । निर्भया से चुस्ती आनी थी, और गुडिया में यह बिलकुल भी नहीं होना था ।
    फिर ऐसा कैसे हुआ?
        असल में पुलिस , और पुलिस पति आदतन नियम में कहीं कुछ "छिद्र" (loop hole) रखने के आदि होते है , ज़रुरत के समय स्वयं को, या अपनी किसी प्रयोग के लिए ।
     ज्यादातर सरकारी नियमो में यह "छिद्र " वाला व्यक्तव्य आपको सहज ही देखने को मिलेगा । यानि जो नियम है वह हो सके, मगर ज़रुरत के अनुसार उसका विपरीत भी नियम के अनुसार ही हो सके । ! भारतीय सरकारी तंत्र ऐसे नियम बनाने का आदि है । वह शिव भगवान् और भस्मासुर वाले वाकय से प्रभावित ही क्या मानसिक ग्रस्त होते है । इसलिए नियम के साथ उसका तोड़ भी बनवा कर रखते हैं ।
    उप्कर्मी इस विपरीत बोधि नियमो से थोडा भ्रमित रहते हैं, और अगर वह नए हैं, और थोडा कमज़ोर बुद्धि, सुस्त हैं तब वह यही पर देरी कर बैठते है , जब पब्लिक में पुलिस की "छिद्र" निति-व्यवस्था की पोल खुलती है ।
            अक्सर कर के सरकारी अधिकारी उपकर्मियों को किसी संदेह या निर्णय न ले सकने की परिस्थितीत में उच्च अधिकारी से संपर्क करने की या पूछ कर कदम उठाने का मशवरा देते है । बल्कि यह भी एक नियम बनाया हुआ है । इस नियम का एक प्रत्यक्ष कारण तो साफ़ है । पुलिस में इस नियम के अन्य फायदे भी हैं । FIR में देरी करने का "कारण " समझाने में , या फिर भ्रस्टाचार के लाभ के दृष्टिकोण से भी , की भाई पुलिस ज़रुरत पड़ने पर खुद ही "न्याय" भी कर देती है और पकडे गए तो "कारण " पूरा ही 'नियम अनुसार' होगा की केस समझने के लिए मशवरा कर रहे थे। असल में उप कर्मियों की प्रोंन्नती के लिए अक्सर कर के एक गुप्त मसौदा भी येही होता है की पुलिस वाले को मालूम होने चाहिए की कौन से केस की FIR करनी है और कौन से में नहीं । नियम से काम कैसे करना है , और नियम का तोड़क नियम कौन सा नियम है । कब कहाँ कौन सा नियम (सुरचारू या फिर तोड़क ) लगाना है इसका "सहज" ज्ञान ही प्रोन्नति के काबिल बनता है ।
           अब निर्भया केस में कांसटेबल सुभाष तोमर की मृत्यु वाला प्रकरण ही लीजिये । यह आश्चर्य ही है की इस समय जन-चेतना में दो विपरीत बोधि कारक , और दोनों ही पूर्ण प्रमाणित , चालू है । न्यायपालिका जो न्याय होगा देती रहेगी , या नहीं भी देगी , मगर यह आश्चर्य ही है की यह दो विपरीत प्रमाण एक साथ कैसे निकले । इनमे से एक प्रमाण में दिल्ली पुलिस की हिस्सादारी तो साफ़ पता है ही । स्वर्गीय तोमर जी हृदय गति रुकने से मरे की किसी के द्वारा रोंदें जाने से , और दोनों ही बातों के प्रमाण -- ये कारनामा बता देगा की निति निर्माण कैसी करी गयी है , और क्यों अब इस्तीफा दे ही देना चाहिए ।
    हालत नहीं सुधरने वाले है , नियम और निति निर्माण में कारगुजारी जो आदत बनी हुयी है ।

राजनीतिज्ञों और सांसदों में पुनरावृत-कथनी के मनोविकार

      ऐसा लगता है की मानो भारतीय सभ्यता में कोई मनोरोग कई सदियों, कई पीढ़ियों से घर कर चुका है । हमारी भाषा , हमारे विचार या तो अतीत में फँस जाने की बीमारी से ग्रस्त है, या पुनरावृत-कथनी से । नहीं तो कुतर्क से, तर्क के विरूपण से । सत्य , स्पष्ट , और संतुलित विचार तो कर सकना जैसे की भारतीय नसल में एक असंभव योग है । बचपन से ही "स्मार्ट" बनने की चाहत में हम अपने बच्चों को अंसतुलित विचार की मानसिक क्रिया का आदि बना देते है । बचपन से ही हम इस तर्क मरोरण में अभ्यस्त होते हैं , और स्पष्ट विचार कहने में और सुनने में सनकोचते है ।
    संसद में चल रही बहस को सुन कर मन में बहोत सारे विचार आते हैं। मुख्यतः खुद भारतीय होने की ग्लानी लगती है । आधे से ज्यादा वाचक तो उसी एक बात, एक विचार की पुनरावृत-कथनी करते सुनाई देते है । तकनिकी बिंदु तो शायद एक भी नहीं होता है । कैसे बनेंगी कार्य-पालक नीतिया इस देश में , सभी तो मानो सत्संगी विचारों में ही बात कर रहे होते है । इन विचारों को को क्रिया में बदल सकने के विचार तो जैसे किसी में हैं ही नहीं । सब के सब आ कर अपने "सत्संग" सुना जाते हैं । टेक्निकल ऑडिट, सिस्टम ऑडिट , जैसे विचार शायद ही कोई बोल रहा होता है ।
       कई सारे तो या तो अपने पार्टी अध्यक्ष की प्रशंशा , गुण-गान का भाषण दे रहे होते हैं , या फिर विरोधी की निंदा । वह भी विषय वास्तु से हते , बहके हुए मीलों दूर के किसी विचार पर ।
     बोलने बोलने में ऐसे शब्दो और व्यक्तव्यों में बल दे दिया जाता है की पूरी विषय वास्तु का बोध ही परिवर्तित हो चलता है । "चलती हुयी बस में बलात्कार .." में ऐसा लगता है की करने वाले ने गलती यह करी की बस चल रही थी, उसको बस को तो कम से कम रोक लेना चाहिए था !
        या फिर की , "दिल्ली में घाट रही यह घटना ..", मानो की अपराध यही था की दिल्ली में किया, कहीं किसी और राज्य में किया होता तो बात कुछ और थी, या शायद तब यह अपराध नहीं माना जाता । और फिर इस शब्द के इस अनिच्छित बल से मूल विचार में परिवर्तन अत है, उसमे इस प्रशन का उत्तर भी कुछ ऐसा ही होता है --" बलात्कार तो देश के बाकी राज्यों में भी होते है .."। इस उत्तर में यह आभास होता है की मनो उत्तर-देता गृहमंत्री का कहना हो की अगर बलात्कार दिल्ली में घाट गया तो इसमें क्या बड़ी बात है, वह तो सभी राज्यों में होते है । सुनने वाले के मन में गृह मंत्री के लिए भी ऐसा भाव आइयेगा की लगता है यह आदमी, जो देश का गृह मंत्री बना बैठा है, उसको बलात्कार जैसे अपराध में कोई गलत ही नहीं लगता ।
            सच है , शब्द और भाषा के इस खेल में भी हम भारतियों ने अपने दिम्माग के सोचने की क्षमता को नष्ट कर लिया है । बल्कि मेरी जानकारी में एक Pragmatic language Inability (PLI ) कर के भी मानसिक विकार है जिसमे मनुष्य भाषा के विषय में बचपन से ही दक्ष न हो सकने की वजह से कुछ चिंतन-विहीन और मंद बुद्धि हो चलता है । मेरा तो यह भी मानना है की इस 'अंग्रेजी सीखो, अंग्रेजी बोलो' की सामाजिक-सम्मान के चक्कर में भी हम से कई लोग अपने बच्चों को मंद बुद्धि बना बैठ रहे हैं PLI से ग्रस्त । ऐसा कहने में मेरा अंग्रेजी भाषा से कोई विरोध नहीं है , बल्कि इस अंग्रजी-हिंदी रूपांतरण के चक्कर में होने वाले मनोरोग की और इशारा है, जिसके अस्तित्व को मैंने अपने देखने भर में महसूस किया है। यह ऐसे ही लोग इस पुनरावृत-कथनी के मनोविकार से ग्रस्त होते है ।

"अगर हालात में सुधार नहीं कर सकते तब उन्हें मेकप से ढक कर धोका दे लो"

      जन-उन्माद जितना भी जोर डाल ले , न्याय की परख से किसी व्यक्ति को महज़ बलात्कार अपराध से मृत्युदंड देना बिलकुल भी उचित नहीं होगा । यह उतर एक नहीं कई बार, न्याय के उच्च विद्वानों से भी मिला है । अगर बलात्कार अपराध के न्याय के लिए पहले ही नियमो, कानूनों को स्त्री के हक में झुकाया जा चुका हो, तब तो मृत्युदंड बिलकुल भी न्याय-संगत नहीं बनता है ।
    ऐसे में राजनैतिक पार्टियाँ जन-उन्माद से साथ खड़ी हो कर सिर्फ वोट कमाने की कोशिश कर रही है । यह भारतियों की विशाल और विस्तृत जन-चेतना में बुद्धि-हीनता होगी की हम न्याय की इस विषम परिस्थिति में वह नहीं मांग कर रहे हैं जो इस दुविधा का शायद सबसे उचित निवारण है ।
          जीवन-स्तर में सुधार -- यही वह वाक्य है जिसकी मुश्किलों को भापने के बाद कोई भी राजनैतिक पार्टी इसकी मांग करने को तैयार नहीं है , क्योंकि कल अगर वह सत्ता में आ भी गयी तो उसको खुद पे शक है की क्या वह जीवन स्तर में सुधार कर पायेगी । सेंसेक्स के चमक से India Shining और India rising का नारा तो कईयों ने दे लिया , मगर इस जीवन-स्तर में सुधार के लिए कौन से पार्टी चैलेंज ले गी ? दामिनी का केस हो , या यह गुडिया का , या फिर गड्डे में गिरे बच्चे का , सभी जगह पर तंत्रीय सुधार वाला मध्यम-मार्ग हल जो की न्याय में सबसे सटीक बैठता है , किसी ने भी नहीं माँगा , न ही देने का वायदा किया ।
              रोजाना घटने वाले दुर्घटनाओं और अपराधो की और देखे तब उनके हल में एक ही जवाब आता है -- उचित शिक्षा , उचित जन सुविधाएं , सड़क और रेल परिवहन , जनता के रोज़गार सम्बंधित कौशल का विकास, इत्यादि । मगर सरकार दर सरकार सभी यहाँ पर असफल होते रहे है । ऐसे में असफलता को छिपाने के लिए इन सरकारों ने advertising और publicity का प्रयोग कर सिर्फ उन्ही क्षेत्र को जनता में भ्रम-प्रचार किया है जिससे यह आभास मिले की मनो इस सरकार, इस राजनैतिक पार्टी ने देश में जीवन-सुधार कर दिया हो ।
            यानि , अगर हालात में सुधार नहीं कर सकते तब उन्हें मेकप से ढक कर धोका दे लो ।

गरीब की गरीबी , सेंसेक्स और मुद्रा बाज़ार


क्या हैसियत होनी चाहिए एक दहाड़ी वाले मजदूर की ? क्या यह ५ साल की बच्ची के साथ दुराचार एक निचले तपके में घटी एक घटना मात्र है
या यह एक असली सूचक है हमारी राजनीतिक व्यवस्था , प्रजातंत्र , और अंततः हमारी अर्थव्यवस्था का , भले ही सेंसेक्स का सूचकांक कितनो ही ऊपर क्यों न उछाल ले ले ?
दिल्ली पुलिस के कुछ लोग मानते है की वह हर एक ३०-४० सदस्यी मजदूरी कर के जीवन जीने वाले परिवार पर नज़र नहीं रख सकते की किसकी मानसिक स्थिति क्या है, कौन व्यक्ति क्या अपराधिक विचार सजों रहा है ।
सही है , अर्थव्यवस्था प्रजातंत्र नाम की राजनैतिक व्यवस्था का पैमाना होता है । और अर्थव्यवस्था के मौजूदा युग में पैमाना है देश का GDB , और मुद्रा बाज़ार में सेंसेक्स का विस्तार । यह सूचकांक यह दर्शाता है, (एक लक्षण के तौर पर , प्रमाण के तौर पर नहीं ), की देश में कितना व्यवसाय , कितना कारोबार हो रहा है । इसके आगे का दृष्टिकोण, और theory कुछ यूँ है कि -- जितना अधिक कारोबार होगा , उतना अधिक लोगों की आय होगी और उतना अधिक देश समृद्ध होगा ।
  मगर जैसा के कहा , यह सूचकांक महज़ एक सूचकाँ होता है , कोई ठोस प्रमाण नहीं ।
यानि अगर हमारी सर्कार,  हमारी सरकारी नीतियां खुद आज घटे इस गुनाह को निचले तपके का जीवन क्रम समझते है तब भी यह हमारी राजनैतिक व्यव्वस्था और हमारी सामाजिक और आर्थिक विकास पर संभवतः एक सत्यता का प्रकाश डालता है ।
यह पुलिस प्रशासन के दृष्टिकोण से शायद सही होगा की हर परिवार , हर मस्तिष्क पर नज़र नहीं रखी जा सकती , मगर राजनैतिक और अर्थव्यवस्था की दृष्टि से  फिर भी विकास और कामयाबी पर एक गहरा दाग छोड़ जाता है ।
जिस तरह से अमीरों और राजनैतिक लोगों के अपराध को पुलिस बड-चढ़ के ढक देती है , और गरीबो को उनको खस्ता हाल पर छोड़ , उनकी गरीबी को ही उनकी मजबूरी दिखला कर सब कन्नी काट निकल लेते है , इस से पता चलता है की हमारा न्यायायिक और सामाजिक विकास कितना हो पाया है ।
प्रजातंत्र को हमेशा इसीलिए पसंद किया गया की जनता अपना भाग्य खुद बनाएगी । मगर आज जब पुलिस खुद ही गरीब की गरीबी को ही अपनी असफलता का करक बतलाने लगी है तब सभी को स्पष्ट हो जाना चाहिए की कितना विकास हुआ है इस देश का, और, और कितने दिन बचे रह गए हैं, हमे अपने आप को एक देश कहने का गौरव लेने के । अमीर-गरीब के बीच के बढ़ते अंतर अभी अपराध को जन्म दे रहे हैं , बाद में यह अपराध अलग अलग प्रशासनिक रवैया , प्रशासनिक कार्यवाही करवाएगा , फिर अलग-अलग न्याय सूत्र जन्म लेंगे (या शायद ले चुके है , कुछ हाल के लक्षण तो ऐसे ही कहते है ) | और अंततः जन-न्याय व्यवस्था विखंडित हो जाएगी| तब समाज औपचारिक तौर पर टूट जायेगा और फिर देश भी ख़त्म हो जायेगा ।
 पता चल रहा है की सेंसेक्स तो सिर्फ अमीरों का उछल रहा है , गरीबो में सेक्स अपराध उछल रहा है । और अब तो गरीब की गरीबी ही उसके ऊपर होने वाले अपराध की कारण बनने लगी है । कम से कम पुलिसे ने तो ऐसा बोल ही दिया है ।

समाचार सूचना और जन-चेतना

क्या अर्थ होता है जब किसी समाचार सूचना में उसका संवाद-दाता , या फिर उसका समाचार चैनल बार बार इस वाक्य को प्रसारित करते हैं की "यह खबर उपको सबसे पहले 'फलाना ' चेनल के हवाले से दी जा रही है "।
    मस्तिष्क एक विचारों वाली भूलभुलैया में चला जाता है की इस वाक्य का अभिप्राय क्या है , लाभ क्या है , इशारा क्या है । क्या "सबसे पहले " खबर पहुचने में भी कुछ , किसी विलक्षण किस्म की सूचना छिपी होती है , जो की शायद में मंद मस्तिष्क को समझ में नहीं आई ?
    समाचार सूचना की कम्पनियों (न्यूज़ चेनल ) में आपसी प्रतिस्पर्धा इस बात की होती है की कौन सी कम्पनी सबसे बड़ी है जो मानव अभिरूचि के हर कोने-कोने में घटने वाली घटनाओ को तुरंत आम प्रसारण कर के दे सकती है । अपनी इसी व्यापक पहुच को "प्रमाणित "कराने के लिए न्यूज़ चेनल बार-बार इस वाक्य पर जोर देते है की "सबसे पहले " वह खबर उनके माध्यम से आप तक पहुंची है ।
    अभिप्राय होता है की जो सबसे पहले खबर तक पहुँच रहा है , वह सबसे व्यापक है , यानि हर कोने-कोने में मौजूद है ।
     मगर कुछ एक समाचार संवाद-दाता अपनी प्रतिस्पर्धा के इस पहलू को जनता के नज़रिए से सोच कर एक बहुत ही अजीबो-गरीब कारगुजारी कर देते है । जनता के दृष्टिकोण से सोचे तब यह भाव आता है की जनता सोचती होगी की 'सबसे पहले' खबर पहुचने के कारनामे से उन्हें क्या लाभ है । "भई, खबर तो सभी कोई पंहुचा ही देते। सबसे पहले नहीं तो बाद में ही सही ।"
     इस भाव में जनता की समझ को कम आँक कर कुछ समाचार संवाद-दाता जनता को सही ज्ञान ,सही समझ देने की बजाय अपने प्रतिस्पर्धी पर निशाना-कशी करते है । वह यह काम एक प्रशन-बोधक भ्रामक के माध्यम से करते है , यह सवाल उठा कर कि, "कहाँ थे वह लोग जो यह बार करते थे की ..."।
     तो एक सीखने और समझने वाली बात यह भी है की कुछ प्रशन महज़ एक प्रशन नहीं है , वरन प्रशन-बोधक भ्रामक है जिनका असल मकसद किसी एक की किसी कमी को 'नग्न' करने का है , या फिर की किसी का प्रचार-प्रसार करने का है ।
    अगर कोई चुनावी पार्टी भी यही करती है , यह सवाल उठा कर कि "कहाँ तह भा&&& वाले , और कहाँ थे कों%%% वाले ", तब यह सवाल एक प्रचार-अर्थी क्रिया होती है ।

 लक्षण वरन प्रमाण 
       आम शाशन व्यवस्था से सम्बंधित कई विषयों को *निर्णायक प्रमाण* के माध्यम से स्थापित नहीं किया जा सकता है , वरन वह *लक्षणों* के माध्यम से ही महसूस किये जा सकते है । ज़ाहिर है , लक्षण के माध्यम से कहे गए व्यक्तव्य बहोत ही subjective होते है जिसे कुछ स्वीकार करेंगे , और कुछ लोग नहीं । समाचार संवाद-दाताओं को इस बात का बोध रखना ही चाहिए की वह किसी विचार को प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत कर रहे है , या लक्षणों के आधार पर ।
     लक्षणों द्वारा प्रस्तुत विचारों की सीमाओं को तय करना , यह गणित में सांख्यकी विषय का अपना एक विज्ञानं है । इस एक विस्तृत विषय की चालत समझ समाचार संवाद दाताओं में भी होनी चाहिए , अन्यथा वह सूचना के मध्यम से जन-चेतना बढाने की बजाये कम कर रहे होते है ।

A tragedy on the humanity

The Reserve Bank museum at Mumbai details out how the money came around in human society. The story of advent of money continued further on the sociological track thus:
 One big problem that came around with the invention of money was that things started to become commodities. Things started to come for 'sale' , while a consensus was reached that not everything could be up on 'sale' . therefore debates began to flourish what should be and what should not be for sale. Could human emotions be up for sale? human kindness? mother's love? ..so many. The risk was definitely known about what would happen if all these things also went up on sale. There would a total decay of human values.
         One challenge fortunately, however, kept the situation under control about the sale of humanity, kindness, love, emotions and all that which make life beautiful. But not for long. the 20th century evolved the science and art of sale of human emotions. The Advertising Industry, the Entertainment Industry, and very recently the vote-bank politics. These industries exploit human emotions to make their gains. It is all the more difficult to know what is fake and what is genuine when human emotions have the capacity to put the adjacent human through the same pain. Well, that is the definition of being human..the ability to empathise..the pains, the joys, the sorrows.
      These are some industries which have exploited the quality of empathy; they have enchashed human emotions at the cost of choking the most basic ones, simply because those emotions are not 'entertainment' types. there are laughter challenge shows, but there cannot be "let's share the sorrow" because not everyone would like to undergo sorrow and trauma of fellow human.
Amongst all this, the least that a genuinely sympathising person or organisation can do is to adopt quiet, non-aggressive actions, so to avoid putting fellow humans in dilemma of being original or being "yet one more exploitative".
 Aam Aadmi Party: you must avoid exploitation of a tragedy on the humanity itself to make your political gains. Your 'topi' can be justified, but your aggressive postings on the FB may not be. Be damp and silent, in respect , in mourning.

The faulted criticism of education system in India

    Fallacies pertaining to Linguistics and Philosophy have very frequently and deeply permeated the criticism work on Education system in India. When our faulted critic talks of freedom in education system, he mistakes away the freedom with "freedom to not to study". Although Right to Education is a highly criticized article of the UN Decl of Human Rights, but such a criticism on this article of UNDHR cannot be brought into relevance and play when the Criticism of Education system itself is the issue. Obviously because the criticism of Education System cannot logically amount to mean that people should not be forced to undergo a schooling; the criticism has to restrain itself only to highlight what is not right with the present education system.
      This aspect of logic has a been a very significant cause of problem with the Critics, such as Shri Anupam Kher, when they worked in movies such as "Paathshala" and "F.A.L.T.U", or even "3 Idiots".
        Anti-educationism is not a logically worth criticism of Education System.
        Can the learning process ever be detached away from books, reading and writing? A man surely 'learns' from his own mistake, but does that process of learning also mean 'education', that which can be reasoned as a 'intended action to bring in some desired and planned change in human behaviour'. learning from own mistake is an accidental learning and cannot contribute to the development of society, because each individual will have to keep doing the same sets of mistakes again in each generation to learn from its own mistakes. Such a learning is personalised learning of the individual from his personal upliftment, the social and collective upliftment of humans through its generation will be a negated aspect in such a learning.
          Therefore, learning has to come about through learning from books or whatever process which upholds study of the compilation of knowledge in some form or the other. This will mean that a collection of worthwhile knowledge in each field will have to be created , collection of the individualised learning of the people from the past who had "learned something from their own mistakes", and then such a collection be given the noun called "books". The faulted critics have focused to hard on having the education 'freed' from the books, calling it by references and names such as "books worms", "bookish knowledge", "book knowledge is not everything", etc. Perhaps the critics should have emphasised on the correct philosophical meaning of what is a Book and discuss the limitations of book-learning instead of name-calling all the books.
     Listen to beautiful and soulful song from movie '3 idiots', "behati hawa sa tha woh, udati patang sa tha woh..". The songs surely calls for "freedom" when it calls references of blowing wind, flying kites, et al. But is the relevance of "freedom" in education correctly understood by our dear the faulted 'critics of Education system in India'. Isn't freedom in the political and social context mis-represented in this song, thereby imparting, however unwittingly, the wrong meaning of Freedom (in the political and social context), to its listeners.
       Can students and learning ever be separated away from discipline aspect which is required by one to impose on himself to acquire understanding of the complex topics in natural science ? The what sort of 'freedom' was the worthy criticism of Education system ? To answer to this question, references will have to be drawn from ancient times when the Education system was just beginning to find birth in human societies. In "3 Idiots", the character of Aamir Khan simply roams around in the campus with his hands slipped in the pockets, and yet coming 'first' in all the subjects? How casually , simplistically and "easily" have they portrayed 'freedom' to be the winner, dumping the relevance of self-discipline, hard-work, all that is traditionally understood to be mandatory for a scholar. Some of the learning process have to come around only when humans have luxury and freedom to think it out on their own accord those aspects of nature and natural sciences, but the context of "freedom" is about the freedom of individual level, constrained through a self-imposed discipline and hard-work. Freedom from social obligations is not to correct meaning of freedom in this reference , that a teacher Mr "Virus" can be fooled off so simplistically.
       In ancient times, when philosophers such as Aristotle were laying the first stones of what would become Educations System when centuries later, the criticism and debates had rolled off between charity teachers such as Aristotle, and Money-oriented teachers who were opposed to Aristotle's belief of "education is a must for the upliftment of human race , so it should be given away free to everyone". The beginning of commercialised education had found existence at that very moment when Education system was founded. And then, the rise of 'profression education' was a posteriori to Commercial teaching. Against this charity teaching of Aristotle could not find as many "scholastic learning" students. Although the aspect of expansion of human advancement has been that most of the new researches have come from the non-profressional learners, who did their work out of hobby, or simply the love of learnining something. From Newton, to Darwin, to Einstein, the names of be to many more such 'learners'. The criticism of "professional" purpose learners was about not having "freedom" to work in their own direction , in researching and trying new things but simply doing away with what have been acquired from the money-oriented commercialised teachers.

Image has become more important than reality.

बडा ही छलिया क़िस्म का युग है आज का । यहाँ वास्तविकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है छवि ! Perception is more important than reality . मायानगरी बॉलीवुड में तो यह छवि के कारनामें एकदम ही गजब है । कई सरे चलचित्र , सिनेमा कैसे 'हिट ' हो गए है यह तार्किक समझ से परे है । आस पास में कहीं कोई भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जो यह कहे की फलाना सिनेमा अच्छी है , मगर जब टीवी और अखबार में पढेंगे तो समाचार होगा की वही सिनेमा 'सुपरहिट' , सौ-करोड़ का कारोबार कर चुकी है ।
      'आप क्या है' से कही अधिक महत्वपूर्ण है 'आपकी छवि क्या है' । बॉलीवुड की तो मुख्य संस्कृति ही यह है की सभी एक दूसरे की तारीफ़ ही कर रहे होते है जिसे की सभी मिल कर एक दूसरे का फायदा करा सकें । कही कुछ हल्का-फुल्का अपवाद वैध होता है , मगर इस सीमा में की आलोचित कलाकार का आर्थिक नुक्सान न हो या छवि को दीर्घकालीन चोट न हो ।
      कोई क्रिकेट के आईपीएल मैच देख भी रहा है या फिर की टीवी और समाचार खुद्द ही उससे दिन भर दिखा दिखा कर "हिट " घोषित कर दे रहे है , यह पता लगा सकना मुश्किल हो चला है । प्रचार प्रसार के युग में इंसान की स्वेच्छा के अस्तित्व को ही तलाश कर सकना करीब करीब असंभव हो गया है । लोग फलाना वस्तु को स्वेच्छा से पसंद कर रहे हैं या फिर की मात्र मीडिया प्रचार के माध्यम से फलाना वस्तु को प्रचलित कर दिया जाता है इसके सत्य का स्थापन एकदम मुश्किल हो गया है ।
          कुछ एक टीवी सेट्स में कभी कभी एक ख़ास तकनीक के माधयम से टीवी के प्रयोगकर्ताओ के पसंद को नापने का प्रयास होता है , मगर फिर यंत्र से इकत्रित सही 'डाटा ' खुद ही प्रचार प्रसार में कहीं विलीन कर दी जाती है ।
     कुछ एक संघटनो को पुलिस यदि जन सुरक्षा के संगिग्ध घेरे में लेती है तब वह संघटन इस गोपनीय सूचना के लीक होने मात्र से ही पुलिस पर केस कर देते है चुकी आपने हमे संगिग्ध नज़रो से देखा इस लिया अब हम संगिग्धा हो चले है । मानो जैसे कर्मो से कही अधिक महत्वपूर्ण हो चला है छवि । उनके तर्क कुछ ऐसे गोल-मोल हैं की -- "आप संगीग्ध इस लिए नहीं थे की आपके कर्म ऐसे थे, बल्कि आपको ऐसा माना गया इस लिए आप संगिग्ध हो गए ।"
    Image has become more important than reality.

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