ब्रिटिश, अमेरिकी और पश्चिम देशों के वीसा वितरण/ नागरिकता प्रदान के तरीकों में एक विशेष चलन को महसूस किया जा सकता है। वह यह है की जिसके पास धन है उसे यह देश ज्यादा आसानी से वीसा या अपनी नागरिकता प्रदान करते हैं। चाहे वह धन जायज़ तरीके से कमाया गया हो, या नजायज़ । इसमें बुद्धिमता, शारीरिक क्षमता, सामाजिक पद, इत्यादि किसी को भी उन्होंने महत्वपूर्ण नहीं माना है। सिवाय धन, आर्थिक स्थिति के।
इस नीति के पीछे का स्वीकृत सिद्धांत यह माना गया है की जिसके पास धन है, औसतन वह बेहतर पहुँच रखता है अच्छी और उच्च शिक्षा तक; अच्छी और बेहतरीन स्वास्थ सुविधाओं तक, और इन दोनों के नतीजे में -- अच्छे सामाजिक पद तक।
फिर धन प्राप्त करने के तरीके में जायज़ होना या नाजायज होना एक अस्थाई हालात हैं, समय और सामाजिक पद से सामाजिक और वैधानिक मान्यताएं बदलती रहती है--जो आज नाजायज़ है, वह कल जायज़ बनाया जा सकता है।
पैसा का इस कदर की प्रधानता आरम्भ में मुझे आश्चर्यचकित करता था, मगर अब धीरे धीरे मैंने भी कुछ हद तक, पूरा तो नहीं,स्वीकार कर लिया है की पश्चिमी देशों की यह नीति इतनी गलत नहीं है। गौर करने की बात यह है की उनकी यह नीति एक बार तो चुपके से , परोक्ष में, अवैधनिकता या आर्थिक अपराधों को प्रोत्साहित करती हुई भी नज़र आएगी। अब ललित मोदी विवाद को ही देखिये। यह समझा जा सकता है की समय के साथ, धीरे धीरे करके ललित मोदी वहीँ ब्रिटिश नागरिकता ही ले लेगा , और फिर यहाँ का आज का आर्थिक अपराध का भगोड़ा कल वहां का सम्मानित नागरिक बन जायेगा।
यह सब वाकया में बाध्य करता है एक बार सोचने के लिए की आखिर में हमारी शिक्षा पद्धति है क्या ? क्या सामाजिक योगदान है शिक्षा का आधुनिक मानव के जीवन में ?
जैसा की कई सारे विचारकों ने पहले भी यह लिखा है, और फिर उनके लेखों से प्राप्त ज्ञान से प्रभावित होकर मैंने खुद भी यह दृश्य लिए हैं,-- भारत जैसे गरीब देश में शिक्षा जीवन मुक्ति का सबसे सरल उपलब्ध साधन बन गया है। गरीबी , यानि आर्थिक क्षमता का आभाव, आधुनिक भोगवादी संस्कृति का सबसे उच्च 'अपराध' है। जिसके पास धन बल नहीं है, घुमा फिरा कर वही ही अपराध करता है- हत्या, कतल, बलात्कार , तस्करी , वगैरह करता है। क्योंकि जिसके पास धन है उसके द्वारा किये गए यही कृत्यों की सामाजिक और वैधानिक पहचान दूसरी माने जाने लगी है -- बलात्कार के स्थान पर मौज-मस्ती और 'प्रेम प्रसंग' कहा जाता है, हत्या के स्थान पर "दुर्घटना", और तस्करी के स्थान पर "अज्ञानता के चलते हुआ व्यवसाय"।
मुद्रा श्रेष्टता के सिद्धांत से समझे तो शिक्षा प्रणाली की समझ और गहरी तथा सटीक होती है। शायद हम जिस वस्तु को स्कूलों में भेज कर अपने बच्चों को दिलवाते हैं -- वह भोग की वस्तु को शिक्षा नहीं "कार्य-कौशलता" पुकारना अधिक सटीक होगा।
शिक्षा तो वह वस्तु है जो हमारे सोचने के तरीके पर, हमारे व्यवहार पर, आचरण पर प्रभाव डाल कर उसे सभ्यता की और परिवर्तित करती है। मगर जब जब हम समाचार पत्रों में पढ़ते है की एक उच्च उपाधि प्राप्त डॉक्टर किसी आतंकवादी गतिविधि में लिप्त पाया गया, या कोई दूसरा उच्च उपाधि प्राप्त आदमी किसी गैर कानूनी कृत्य में शामिल था-- तब हमें एक प्रमाण मिलता है की हमारी शिक्षा प्रणाली के "असफल" होने का। शायद यह "असफलता" नहीं है, बल्कि उस सर्व शक्तिशाली सत्य ज्ञान का सन्देश होता है मानवता को शिक्षा प्रणाली की सीमाओं का स्मरण कराने का।
वास्तव में गलती हमारी, हमारे सामाजिक ज्ञान की है की हम इन उच्च उपाधि प्राप्त लोगों को "शिक्षा प्राप्त" समझ रहे होते है। क्योंकि , जैसा की मुद्रा श्रेष्टता( money superiority) के सिद्धांत से हमने समझा, वह उपाधि 'शिक्षा' नहीं मात्र एक 'कार्य-कौशल' का प्रमाण होती है।
सवाल उठता है की-- फिर, शिक्षा क्या है, और यह कहाँ से प्राप्त करी जाती है ?
आधुनिक मानव के जीवन प्रयोगो में कौन सी संस्था हमें वह वास्तविक मायने वाली "शिक्षा" प्रदान करने में सलग्न है ?
भारत में इस प्रश्न के उत्तर में, शायद, कोई ज्याद साहित्य उपलब्ध नहीं है। हमारे यहाँ प्रचुर साहित्य में शिक्षा प्रणाली की आलोचना, उसकी परोक्ष "असफलता" के किस्से अधिक प्रबलता से मिलते है, मगर यह नहीं उपलब्ध है की शिक्षा है क्या, और आधुनिक शिक्षा प्रणाली में वास्तविक शिक्षा कहाँ से प्राप्त करी जाती है।
हमारे लेखको ने, सिनेमा निर्माताओं ने, विचारकों ने इस पर कोई ज्यादा प्रभावशाली विचार अभी तक सामाजिक संज्ञान में प्रेषित नहीं किये हैं।
शिक्षा प्रणाली सांकेतिक प्रमाणों पर निर्माण करी गयी है। मस्तिष्क के अच्छे स्वास्थ से हमें अच्छा मानसिक योग्यता(mental ability) मिलती है। यह मानसिक योग्यता को हम और अधिक निखार करके बुद्धिमता, यानी "तीव्र बुद्धि" (Intelligent thinking) प्राप्त करते हैं। बुद्धिमता से हम बौद्धिकता (Intellectualism) प्राप्त करते हैं। बौद्धिकता से हमें परिमेय क्षमता (rationalisation) और फिर न्याय (justice) मिलता है।
यह सभी योग्यताओं को ही सामूहिक रूप में हम मानव चेतना (human consciousness) बुलाते हैं।
और जिन मानवों में सबसे ऊपर की दो योग्यताएं , परिमेयकरण(rational thinking) और न्याय (justice) विक्सित हो जाती है वह अंतरात्मा , या जमीर से जागृत व्यक्ति माने जाते हैं।
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
मुद्रा सर्वश्रेष्ठता के प्रत्यय से आधुनिक शिक्षा प्रणाली का मुआयना
समाचार प्रसारण उद्योग में 'सुपारी जर्नलिज्म' का चलन
अंग्रेजी समाचारपत्रों , विशेषकर की Times Of India, का आचरण उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी और उनके मुख्य मंत्री अखिलेश यादव के लिए "सुपारी पत्रकारिता" वाला प्रतीत होता है।
इस समाचार पत्र को मैंने बार-बार उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार और अखिलेश यादव के लिए campaign उठाते देखा है जबकि दूसरे प्रदेशों में घटी सामानांतर घटना में यही अख़बार इस प्रकार का कोई campaign नहीं रचता है।
सुपारी जर्नलिज्म का प्रकार campaign के प्रयोगों के द्वारा होता है। campaign अक्सर कर के जन संवेदनशीलता और चिंता की घटनाओं पर रचे जाते हैं। मगर सुपारी जर्नलिज्म के दौरान राजनैतिक पार्टियां अपने विरोधी की जन छवि धूमिल करने के लिए अक्सर बिकाऊ, वैश्य समाचार सूचना कंपनी को गुप्त भुगतान करती है। अंग्रेजी अख़बार का समाजवादी पार्टी के लिए सुपारी जर्नलिज्म दिखाई देता है।
अभी हाल में घटी मेरठ के पत्रकार की मृत्यु का मामला लिजिये। अपने खुद के अनुभव से यह आभास होगा कर्णाटक में युवा ias अधिकारी dk रवि का मामला इससे कही ज्यादा गंभीर था क्योंकि वहां इस काण्ड में उनकी पुलिस और मुख्यमंत्री तक ने सभी ने मिल बाँट कर सबूतों को नष्ट किया है। इसके बनस्पत, उत्तर प्रदेश में अखिलेश किसी सबूत के साथ छेड़खानी नहीं कर रहे हैं, और न ही उस अभियुक्त मंत्री का बचाव कर रहे हैं।
मगर toi ने अखिलेश के विरुद्ध campaign रच दिया है।
आज फिर एक ऐसी ही घटना मध्य प्रदेश में घटी है। अब यही अख़बार शिवराज चौहान के विरुद्ध ऐसा campaign रचता है या नहीं, इससे हमें आभास मिल जायेगा सुपारी जर्नलिज्म का।
मध्य प्रदेश में व्यापन घोटाले में सबूत मिटाने के लिए कितने ही गवाहों को जान से मारा जा चूका है। मगर वहां toi ने कोई कैंपेन नहीं रचा।
इसी तरह पंजाब में दिल्ली वाली निर्भया प्रकरण जैसी एक और घटना हुई थी, मगर toi ने पंजाब में भी कोई कैंपेन नहीं किया।
महाराष्ट्र में इसी कैलेंडर वर्ष में अब तक 1000 से अधिक किसान आत्म हत्या कर चुके हैं, मगर अभी तक किसी भी अखबार ने कोई कैंपेन मोर्चाबंदी नहीं करी है। जबकि महाराष्ट्र में और केंद्र में दोनों ही जगह भाजपा की सर्कार है।
राजस्थान में और महाराष्ट्र में दिल्ली की तरह ही अमुक पीड़ित लोगों ने मुख्यमंत्री की उपस्थिति में आत्म दाह किये है, मगर यहाँ कोई कैंपेन नहीं हुआ है।
शायद सुपारी जर्नलिज्म में पैसे की ताकत ही वह अतिरिक्त वजन देता है जिससे तय किया जाता है की कहाँ कैंपेन करना है और कहाँ चुप्पी मार देनी है।
http://timesofindia.indiatimes.com/india/Madhya-Pradesh-journalist-set-afire-and-buried-in-Maharashtra/articleshow/47756154.cms
आम आदमी पाटी का दिल्ली पुलिस के हाथों उत्पीड़न
भारत में पुलिस को लतखोरी को आदत लग चुकी है। पुलिस वाले नेताओं की दबंगई की लात बहोत स्वाद से खाते है, क्योंकि बदले में वह यह लात आम जनता पर जमाते हैं।
दिल्ली पुलिस इस कुचक्र में कोई अपवाद नहीं है। इसलिए यदि हमें वाकई में दिल्ली पुलिस को सुधारना है, और दिल्ली को विश्व में एक श्रेष्ठ राज्य बनवाना है तब सबसे प्रथम हमें दिल्ली पुलिस की नेताओं की दबंगई की लात खाने वाली आदत छुड़वानी होगी। दिक्कत यह है की भारत में संविधान और नियम व्यवस्था ही इस चक्र से गढ़ गयी है की पुलिस या किसी भी जांच संस्था और शक्ति बल को नेताओं के चंगुल से आज़ाद करवाना आसान नहीं है। आप ज्यों ही इस संस्थाओं की स्वायत्ता की बात करेंगे, त्यों ही नेता लोग इस संस्थाओं के प्रजातान्त्रिक जवाबदेही का प्रश्न खड़ा करके इन्हें वापस किसी न किसी जन प्रतिनिधि के आधीन लाने का मार्ग बना देते है। अब दिक्कत यह बनती है की प्रश् यह भी जायज़ है की सेनाओं और पुलिस बल का जनता के प्रति जवाब देहि तो होनी ही चाहिए।
कुछ विद्वानों ने एक दूसरा मार्ग यह प्रयास किया की क्यों न किसी एक नेता के स्थान पर सम्पूर्ण संसद को ही सशस्त्र सेना अथवा पुलिस बल का जवाबदेह मलकाना दे दिया जाये।
तब दिक्कत यह आई की भारत ही क्या, अमेरिका और ब्रिटेन में भी आज कल समूचा संसद चोर उच्चकों , भ्रष्टाचारियों और बदमाश व्यवहार वालों से भरा पड़ा है। ऐसे में अगर समूचे संसद को भी संगठित रूप में किसी संस्था का पालक बनाया जाये, तब भी बात टिकेगी नहीं।
यहाँ पर हमें भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था और अमेरिकी तथा ब्रिटेन वाली व्यवस्था में एक भेद पकड़ में आएगा। वह यह की अमेरिका और ब्रिटेन में संसद को सर्वोच्च प्रजातान्त्रिक संस्था नहीं बना का खुद संसद को भी शक्ति संतुलन में रखा गया है, किसी और स्वतंत्र संस्था के माध्यम से।
अमरीका में आर्थिक नीतियों की सलाहकार संस्था, फेडरल रेसर्व, यह उनके संसद के समक्ष शक्ति संतुलन की भूमिका निभाती है, जबकि ब्रिटेन में उनकी वंशवाद से बनती हुई राजशाही उनके संसद के समक्ष शक्ति-संतुलन देती है।
भारत में यहाँ पर कुछ गड़बड़ी है। भारत में संसद को सर्वोच्च प्रजातान्त्रिक संस्था मान लिया गया है। और इसके समक्ष शक्ति-संतुलन के लिए कोई दूसरी स्वतंत्र संस्था नहीं बची है। हमारे यहाँ राष्ट्रपति भी संसद के द्वारा ही चुना जाता है। तो एक प्रकार से राष्ट्रपति भी संसद का एक पायदा है, कोई विशेष, स्वतंत्र अंतःकरण की ध्वनि का रक्षक (keeper of the conscience) नहीं है।
हमारी स्वतंत्रता के आरम्भ के दिनों में आंबेडकर और बाकी विचारकों ने संविधान के लागू होने के कुछ वर्षों में ही इस खामी को पकड़ लिया था। इसलिए उन्होंने कुछ कारणों से कोई संवैधानिक सुधार न करते हुए बस मौखिक ही यह तय किया था की राष्ट्रपति के पद पर भविष्य में हम किसी गौर-राजनैतिक (non-partisan) व्यक्ति को आसीन किया करेंगे। इसी दिशा में कदम लेते हुए उन्होंने द्वितीय राष्ट्रपति को बनारस विश्वविद्यालय के उप कुलपति डॉक्टर राधाकृष्णन को बनाया था, जो की किसी भी राजनैतिक दल के सदस्य अपने जीवन काल में कभी भी नहीं थे। और फिर तृतीय राष्ट्रपति अलीगढ विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन को बनाया था।
मगर इसके बाद इंदिरा गांधी जैसे प्रधानमंत्रियों का ज़माना आने लगा और उन्होंने इस श्रृंखला और संस्कृति को अपने कूटनैतिक लाभों के लिए तोड़ दिया। और इसके साथ ही यह विशिष्ट प्रवधान को भुला भी दिया गया, और राष्ट्रपति का गैर राजनैतिक अथवा राजनैतिक होना महज़ विद्यालयों और स्कूलों का एक वाद-विवाद प्रतियोगता का शीर्ष बन कर रह गया ।
अब आम आदमी पार्टी के समक्ष वही दिक्कत फिर से आने वाली है। दिल्ली पुलिस नियमों के सख्त पालन के माध्यम से आप पार्टी के प्रतिनिधयों का उत्पीड़न करेगी। क्योंकि उसके असल आका तो केंद्र में बैठी भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार है।
कल आडवाणी जी का देश में इमरजेंसी लागू होने की आशंका का व्यक्तव्य इसी खामी की और इशारा कर रहा है। जी है, भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में यह बिलकुल संभव है की इमरजेंसी को औपचारिक घोषणा करे बगैर , सिर्फ पुलिस, सीबीआई , और बाकी सेना बल के माध्यम से राजनैतिक विरोधियों के उत्पीड़न के लिए प्रयोग किया जा सके।
अगर आप, आम नागरिक, पुलिस द्वारा ज्यादा उत्पीड़न के शिकार होते हैं तब नेताओं की मनेछित परिस्थितयों में भारत में अभी तक की संवैधानिक व्यवस्था में आप को कोई रखवाला नहीं मिलेगा। यह संभव है। यानी की यहाँ हमारे देश में अंतःकरण की ध्वनि का रक्षक कोई भी नहीं है। अगर आप राष्ट्रपति के पास भी जाते है, और किसी कूटनैतिक कारणों से संसद में बैठे सभी "चोर उच्चके" नेताओं को लगता है की आप का दमन उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक है, तब वह राष्ट्रपति पद पर अपने आदमी को इसलिए बिठाये हुए रखते है की आप की करुणा स्वर को अनसुना करवा दिया जाये।
जी हाँ, अगर राष्ट्रपति आपकी करुणा स्वर को सुन रहे होते है तब वह इसलिए नहीं की वह करुणासागर और अंतःकरण की ध्वनि के रक्षक की भूमिका निभाते है। वह बस यह देखते हैं की उनके खुद के आका, संसद के नेताओं का लाभ प्रभावित तो नहीं होता है उनके करुणा वाले कदम से। अब संसद के नेताओं का लाभ और राष्ट्र हित दो अलग अलग बात है, या की एक --- यह तय करने वाली संस्था है ही कौन।
अमेरिका में तो आर्थिक सामाजिक नीतियों की सलाहकार , फेडरल रिज़र्व, यह तय कर सकती है। और ब्रिटेन में खुद उनका सम्राट ही समाज के अंतःकरण का रक्षक की भूमिका निडर हो कर अदा कर सकता है क्योंकि वह वंशवाद में से आता है, किसी एहसान का आदमी नहीं है।
वैसे तो भारत में भी संविधान निर्माताओं ने एक प्रयास किया है की निर्वाचन आयोग, लोक सेवा आयोग, CAG और सर्वोच्च न्यायलय को संसद से स्वतंत्र करके रखा जाये, मगर एक गड़बड़ का भेद यह है की उन्होंने इस सभी संस्थाओं की एक -एक नली अभी भी चुनी हुई सरकार के हाथों में रख छोड़ी है। यानि की अभी भी प्रधानमंत्री के रूप में बैठा कोई नेता ही यह तय करता है की इन सब संस्थाओं का शीर्ष पदाधिकारी उनके पसंद का आदमी ही हो।
अभी हाल में हुए cvc के निर्वाचन में आपको यह सच झाँकने को मिलेगा। अगर कांग्रेस और भाजपा ने अपने काले धन के हितों की रक्षा में किसी अमुक आदमी को CVC नियुक्त कर दिया है, तब भले ही उस अमुक पर लाख आरोप हो, कोई भी उसकी नियुक्ति को रोक नहीं सकेगा। राम जेठमलानी और प्रशांत भूषण दोनों ने ही उस व्यक्ति की एकाग्रता पर सवाल खड़े करके विवरण प्रकाशित किये हुए है, मगर मजाल है की कोई इस निर्वाचन को रोक ले।
तो अब आम आदमी पार्टी को दिल्ली पुलिस के उत्पीड़न से कैसे बचाया जाये ? या फिर कहें तो, ----कैसे हम दिल्ली पुलिस को बाध्य करें की वह बाकी सब नेताओं के साथ भी नियमों के पालन का वही सख्त व्यवहार रखे जो की वह आम आदमी पार्टी के साथ दिखा रही है। क्योंकि नियमों के पालन की सख्ती और ढीलाई के स्तर में अन्तर प्रकट करके भेदभाव किया जा सकता है। और इस माध्यम से उत्पीड़न भी हो सकता है जिसे की नाज़ायज़ दिखा सकना और प्रमाणित कर सकना बहोत मुश्किल होता है।
आरएसएस और भाजपा नेताओं का अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था से गुप्त प्रेम
सुषमा स्वराज की बेटी खुद ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़ लिख कर आई है...वह आरएसएस छाप किसी ऐरु-गेरू "सरस्वती शिशु मंदिर" से शिक्षा क्यों नहीं प्राप्त करती..इसके कारणों का विमोचन करना हमें देश में सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों को समझने में बहोत मदद करने वाला है..
मगर इस विमोचन से पहले हमें नरेंद्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद की कुछ और घटनाओं को स्मरण करना होगा जो की हमारे को विमोचन में योगदान देने वाली है...
सबसे पहले तो उस समाचार सूचना को स्मरण करें जिसमे गुजरात की शिक्षा बोर्ड की पुस्तकों में गांधी जी, द्वितीय विश्व युद, इत्यादि के बारे में ताथयिक गलत ज्ञान प्रचारित किया जाता है।
फिर मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद की इंडियन science कांग्रेस के अधिवेशन को याद करें जिसमे किसी आरएसएस समर्थित वक्त ने भारतीय पौराणिक "इतिहास" की व्याख्या में विमान और अंतरिक्ष अनुसन्धान का "पौराणिक भारतीय इतिहास" बताया था । इस अधिवेशन को खुद नरेंद्र मोदी ने बतौर भारत के प्रधानमंत्री के रूप में उपस्थिति दर्ज़ करी थी। जबकि विदेशी अखबारों में इस प्रकार के वैज्ञानिक "इतिहास" की बहोत आलोचना हुई थी।
फिर याद करे की कैसे मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ICHR नाम की संस्था जो की भारतीय इतिहास से सम्बंधित ज्ञान को संग्रह करती है..उसमे किसी अयोग्य या विवादास्पद व्यक्ति प्रमुख नियुक्त कर दिया गया है।
और फिर शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी की हरकतों को याद करके हाल में घटे iit चेन्नई में एक छात्र दाल पर प्रतिबन्ध को याद करें।
और सबसे अंत में याद करे अभी हाल में प्रकाशित एक सूची की जिसमे की विश्व के प्रथम सौ सबसे बेहतरीन शिक्षण संस्थाओं के नाम संग्रह किये गए है। और जिसमे की भारत का एक भी शिक्षण संस्था कोई स्थान नहीं प्राप्त कर सका है। आप याद करेंगे की भारतीय शिक्षण संस्थाओं की असफलता की यह घटना एक आम साधारण वाक्या है।
हमें यह मंथन करने की आवश्यकता है की कैसे आधुनिक मानव का इतिहास आदि काल के ग़ुफ़ाओं वाले जीवन यापन करते हुये, राजा रजवाड़ों के सामाजिक -राजनैतिक परिस्थितियों से होता हुआ वर्तमान के प्रजातंत्र स्वरुप में आ गया है। यह समझना ज़रूरी है की प्रजातंत्र कोई सर्वश्रेष्ठ पद्धति नहीं है, मगर अभी तक के मानवीय इतिहास में सबसे उत्तम यही है...क्योंकि तभी यह इतने हज़ारों और खरबों सालों से डलता हुआ आज वर्तमान का सबसे लोकप्रिय शासन प्रकार है। हालात ऐसे हैं की उत्तरी कोरिया जो किम जोंग के अत्याचारों से ग्रस्त है, वह भी आधिकारिक तौर पर खुद को "प्रजातान्त्रिक" देश ही घोषित करता है।
प्रजातंत्र में एक --- अकेला--- वह विचार जो इसे आज तक का सर्वोत्तम शासन पद्धति बनाता है ..वह है इसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
अब हमें अंग्रेजी शिक्षा पद्धति और अंग्रेज़ो के देशों से प्राप्त प्रजातंत्र शासन व्यवस्था की इस बुनियादी स्वतंत्रता के बीच के गठजोड़ पर ध्यान केंद्रित करना होगा...जो हमें समझा सकेगा की कैसे कोई वास्तविक प्रजातंत्र देश तकनीकी, उद्योगिकी और सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक रूप में भी सफल हो सकने की क्षमता रखते हैं।
हमारी खुद से चुनी हुई शासन व्यवस्था के अनुसरण करने का प्रथम केंद्र खुद हमारे विद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थान होते हैं । बल्कि शायद इसका उल्टा विचार भी सत्य है-- कि, हम अपने विद्यालयों तथा उच्च शिक्षण संस्थानों में जिस प्रकार के शासन व्यवस्था को भुगतते हुए पलते, विक्सित हुए होते है, हम आगे चल कर देश में वही व्यवस्था समूचे देश में भी कायम कर देते हैं।
ब्रिटेन और अमरीका के विचारकों से निकली प्रजातान्त्रिक स्वतंत्र अभिव्यक्ति की प्रकृति ऐसी है की यह हमें विभिन्न प्रकार के विचारों प्रकट करने की स्वतंत्रता देती हुए भी अंत में उनकी आपसी प्रतिस्पर्धा करवा देती है, जिससे की एक सर्वश्रेष्ठ निष्क्रय प्राप्त करके देश में एक नीति-न्याय कायम किया जा सके। नीति और न्याय का एक होना इसलिए ज़रूरी है की कहीं किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होये। तो ज़मीनी परिस्थिति में सभी नागरिकों को अपने अपने विचार रखने की स्वतंत्रता तो मिलती है, मगर विचारों की प्रतिस्पर्धा के चलते अधिकाँश विचार समूह अपने विचार के हार जाने का मनोभाव पालने लगते हैं।
शायद मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रजातान्त्रिक स्वतंत्र अभिव्यक्ति से वैचारिक प्रतिस्पर्धा की इस क्रिया में कुछ अन्याय-सा घटित हो जाता है।
यही पर हमें गौर करने की ज़रुरत है। राष्ट्रिय स्वयंसेवक और भाजपा छाप मानसिकताओं में अधिकाँश तौर पर आप एक तालिबानी प्रकार के *पीड़ित मानसिक भाव*(victimization) को देखेंगे की कैसे अंग्रेजी, मैकौले की शिक्षा व्यवस्था ने उनके विचारों को *जानबूझ कर* नाकारा है।
एक हाल फिलाल के अमुक भारतीय नागरिक के विचारों को मैंने एक वाद विवाद-- कि, रामायण और महाभारत कल्प हैं या की तथयिक इतिहास-- के दौरान कही पर पढ़ा था। मुझे उसके विचार बहोत पसंद आये थे।जबकि सभी नरेंद्र मोदी समर्थक और आरएसएस शिक्षा से आये नागरिकों का कथन मुझे इसी *पीड़ित मानसिकता भाव* का स्मरण करवा रहा था, वह अमुक भारतीय नागरिक का कहना था की भले ही अंग्रेजों और मैकौले की शिक्षा पद्धति ने भारतियों के साथ कुछ अन्याय और भेदभाव किया होगा, मगर अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति में वैचारिक प्रतिस्पर्धा और स्वतंत्र अभिव्यक्ति का वह सबसे केंद्रीय अंश भी दिया है जिससे की कोई भी मानव समाज खुद से ही किसी अन्याय और भेदभाव को पहचान कर के सुधार कार्य कर सके। इसलिए वह अमुक भारतीय नागरिक तथयिक , वैज्ञानिक प्रमाण के अभाव को समझते हुए रामायण और महाभारत को एक कल्प ही मानता है, "इतिहास" नहीं।
शिक्षा पद्धति का यही वह केंद्रीय अंश है जो की आरएसएस और भाजपा समर्थकों में बिलकुल भी नहीं दिखता है। इनमे तर्क , न्याय की उच्च बौद्धिक क्षमताओं की बहोत कमी है। इसके स्थान पर इनमे पीड़ित मनोभाव भरा हुआ होता है। शायद यही वजह है की न सिर्फ शुष्मा स्वराज, बल्कि महाराष्ट्र के भाजपा मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस की खुद की संताने ऑक्सफ़ोर्ड और कान्वेंट स्कूलों में पढ़ती है जबकि दूसरों के लिए यह लोग अपने वही "अड़ियल, पीड़ित मानसिक भाव" वाले स्कूलों को रख छोड़ते हैं।
नरेंद्र मोदी खुद आत्म मोहित व्यक्तित्व वाले शख्सियत हैं। वह खुद आपने नाम से काढ़ा लाखो रुपयों का कोट पहन कर अतिथि राष्ट्रपति से मिलते हैं। और 'सेल्फ़ी' खीचने का शौक रखते हैं। फिर भाषणों में खुद के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद देश का "गौरव" बढ़ा देने का कबूलनामा लेते हैं। उनके समर्थकों में अपने विरोधियों का उपहास करने की प्रवृति है। मोदी समर्थक तर्क का सामना नहीं कर सकने पर उसको किसी उपहासजनक विरोधी की विशिष्ट पहचान दिखलाने में यकीन करते हैं।
मोदी खुद वैचारिक प्रतिस्पर्धा से भागते हैं। मुख्यमंत्री काल के दौरान गुजरात विधानसभा की कार्य सारणी का रिकॉर्ड देश में सबसे न्यूनतम है। संसद में और यहाँ वहां भाषण देते दिखने को तैयार हैं, मगर किसी प्रकार की विचार प्रतिस्पर्धा उनकी क्षमताओं से बिलकुल परे है। उसको वाद विवाद में आप नहीं देखेंगे। चुनावी प्रचार के दौरान उनके टीवी साक्षात्कारों को पूर्व सुनियोजित करके करवाने की खबरें खूब आई थी। उनकी शख्सियत में तानाशाही होने की खबरें भी बराबर आती रहती हैं। न्यापालिक को कार्यपालिका और विधायिका से विशिष्ट स्वतंत्रता को समझौता साफ़ साफ़ दिखने लगा है।
जब वैचारिक प्रतिस्पर्धा की मानसिक और बौद्धिक योग्यता नहीं होती है तब इंसान तानाशाही पर उतर आता है। जब अपने कर्मो की जवाबदेही और न्यायोचित्य नहीं बनती है, तब वह जवाबदेही के तरीकों को भी प्रतिबंधित कर देता है। RTI पर लगाम की खबरें भी बराबर पढने को मिलने लगी है।
इन सब के पीछे एक ख़ास शिक्षा पद्धति का हाथ मालूम देता है।
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