आम आदमी पाटी का दिल्ली पुलिस के हाथों उत्पीड़न

भारत में पुलिस को लतखोरी को आदत लग चुकी है। पुलिस वाले नेताओं की दबंगई की लात बहोत स्वाद से खाते है, क्योंकि बदले में वह यह लात आम जनता पर जमाते हैं।
  दिल्ली पुलिस इस कुचक्र में कोई अपवाद नहीं है। इसलिए यदि हमें वाकई में दिल्ली पुलिस को सुधारना है, और दिल्ली को विश्व में एक श्रेष्ठ राज्य बनवाना है तब सबसे प्रथम हमें दिल्ली पुलिस की नेताओं की दबंगई की लात खाने वाली आदत छुड़वानी होगी। दिक्कत यह है की भारत में संविधान और नियम व्यवस्था ही इस चक्र से गढ़ गयी है की पुलिस या किसी भी जांच संस्था और शक्ति बल को नेताओं के चंगुल से आज़ाद करवाना आसान नहीं है।  आप ज्यों ही इस संस्थाओं की स्वायत्ता की बात करेंगे, त्यों ही नेता लोग इस संस्थाओं के प्रजातान्त्रिक जवाबदेही का प्रश्न खड़ा करके इन्हें वापस किसी न किसी जन प्रतिनिधि के आधीन लाने का मार्ग बना देते है। अब दिक्कत यह बनती है की प्रश् यह भी जायज़ है की सेनाओं और पुलिस बल का जनता के प्रति जवाब देहि तो होनी ही चाहिए।
   कुछ विद्वानों ने एक दूसरा मार्ग यह प्रयास किया की क्यों न किसी एक नेता के स्थान पर सम्पूर्ण संसद को ही सशस्त्र सेना अथवा पुलिस बल का जवाबदेह मलकाना दे दिया जाये।
  तब दिक्कत यह आई की भारत ही क्या, अमेरिका और ब्रिटेन में भी आज कल समूचा संसद चोर उच्चकों , भ्रष्टाचारियों और बदमाश व्यवहार वालों से भरा पड़ा है। ऐसे में अगर समूचे संसद को भी संगठित रूप में किसी संस्था का पालक बनाया जाये, तब भी बात टिकेगी नहीं।
  यहाँ पर हमें भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था और अमेरिकी तथा ब्रिटेन वाली व्यवस्था में एक भेद पकड़ में आएगा। वह यह की अमेरिका और ब्रिटेन में संसद को सर्वोच्च प्रजातान्त्रिक संस्था नहीं बना का खुद संसद को भी शक्ति संतुलन में रखा गया है, किसी और स्वतंत्र संस्था के माध्यम से।
  अमरीका में आर्थिक नीतियों की सलाहकार संस्था, फेडरल रेसर्व, यह उनके संसद के समक्ष शक्ति संतुलन की भूमिका निभाती है, जबकि ब्रिटेन में उनकी वंशवाद से बनती हुई राजशाही उनके संसद के समक्ष शक्ति-संतुलन देती है।
   भारत में यहाँ पर कुछ गड़बड़ी है। भारत में संसद को सर्वोच्च प्रजातान्त्रिक संस्था मान लिया गया है। और इसके समक्ष शक्ति-संतुलन के लिए कोई दूसरी स्वतंत्र संस्था नहीं बची है। हमारे यहाँ राष्ट्रपति भी संसद के द्वारा ही चुना जाता है।  तो एक प्रकार से राष्ट्रपति भी संसद का एक पायदा है, कोई विशेष, स्वतंत्र अंतःकरण की ध्वनि का रक्षक (keeper of the conscience) नहीं है। 
हमारी स्वतंत्रता के आरम्भ के दिनों में आंबेडकर और बाकी विचारकों ने संविधान के लागू होने के कुछ वर्षों में ही  इस खामी को पकड़ लिया था। इसलिए उन्होंने कुछ कारणों से कोई संवैधानिक सुधार न करते हुए बस मौखिक ही यह तय किया था की राष्ट्रपति के पद पर भविष्य में हम किसी गौर-राजनैतिक (non-partisan) व्यक्ति को आसीन किया करेंगे। इसी दिशा में कदम लेते हुए उन्होंने द्वितीय राष्ट्रपति को बनारस विश्वविद्यालय के उप कुलपति डॉक्टर राधाकृष्णन को बनाया था, जो की किसी भी राजनैतिक दल के सदस्य अपने जीवन काल में कभी भी नहीं थे। और फिर तृतीय राष्ट्रपति अलीगढ विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन को बनाया था।
  मगर इसके बाद इंदिरा गांधी जैसे प्रधानमंत्रियों का ज़माना आने लगा और उन्होंने इस श्रृंखला और संस्कृति को अपने कूटनैतिक लाभों के लिए तोड़ दिया। और इसके साथ ही यह विशिष्ट प्रवधान को भुला भी दिया गया, और राष्ट्रपति का गैर राजनैतिक अथवा राजनैतिक होना महज़ विद्यालयों और स्कूलों का एक वाद-विवाद प्रतियोगता का शीर्ष बन कर रह गया ।

    अब आम आदमी पार्टी के समक्ष वही दिक्कत फिर से आने वाली है। दिल्ली पुलिस नियमों के सख्त पालन के माध्यम से आप पार्टी के प्रतिनिधयों का उत्पीड़न करेगी। क्योंकि उसके असल आका तो केंद्र में बैठी भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार है।
  कल आडवाणी जी का देश में इमरजेंसी लागू होने की आशंका का व्यक्तव्य इसी खामी की और इशारा कर रहा है। जी है, भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में यह बिलकुल संभव है की इमरजेंसी को औपचारिक घोषणा करे बगैर , सिर्फ पुलिस, सीबीआई , और बाकी सेना बल के माध्यम से राजनैतिक विरोधियों के उत्पीड़न के लिए प्रयोग किया जा सके।
   अगर आप, आम नागरिक, पुलिस द्वारा ज्यादा उत्पीड़न के शिकार होते हैं तब नेताओं की मनेछित परिस्थितयों में भारत में अभी तक की संवैधानिक व्यवस्था में आप को कोई रखवाला नहीं मिलेगा। यह संभव है। यानी की यहाँ हमारे देश में अंतःकरण की ध्वनि का रक्षक कोई भी नहीं है। अगर आप राष्ट्रपति के पास भी जाते है, और किसी कूटनैतिक कारणों से संसद में बैठे सभी "चोर उच्चके" नेताओं को लगता है की आप का दमन उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक है, तब वह राष्ट्रपति पद पर अपने आदमी को इसलिए बिठाये हुए रखते है की आप की करुणा स्वर को अनसुना करवा दिया जाये।
  जी हाँ, अगर राष्ट्रपति आपकी करुणा स्वर को सुन रहे होते है तब वह इसलिए नहीं की वह करुणासागर और अंतःकरण की ध्वनि के रक्षक की भूमिका निभाते है। वह बस यह देखते हैं की उनके खुद के आका, संसद के नेताओं का लाभ प्रभावित तो नहीं होता है उनके करुणा वाले कदम से। अब संसद के नेताओं का लाभ और राष्ट्र हित दो अलग अलग बात है, या की एक --- यह तय करने वाली संस्था है ही कौन।
अमेरिका में तो आर्थिक सामाजिक नीतियों की सलाहकार , फेडरल रिज़र्व, यह तय कर सकती है। और ब्रिटेन में खुद उनका सम्राट ही समाज के अंतःकरण का रक्षक की भूमिका निडर हो कर अदा कर सकता है क्योंकि वह वंशवाद में से आता है, किसी एहसान का आदमी नहीं है।
     वैसे तो भारत में भी संविधान निर्माताओं ने एक प्रयास किया है की निर्वाचन आयोग, लोक सेवा आयोग, CAG और सर्वोच्च न्यायलय को संसद से स्वतंत्र करके रखा जाये, मगर एक गड़बड़ का भेद यह है की उन्होंने इस सभी संस्थाओं की एक -एक नली अभी भी चुनी हुई सरकार के हाथों में रख छोड़ी है। यानि की अभी भी प्रधानमंत्री के रूप में बैठा कोई नेता ही यह तय करता है की इन सब संस्थाओं का शीर्ष पदाधिकारी उनके पसंद का आदमी ही हो।
   अभी हाल में हुए cvc के निर्वाचन में आपको यह सच झाँकने को मिलेगा। अगर कांग्रेस और भाजपा ने अपने काले धन के हितों की रक्षा में किसी अमुक आदमी को CVC नियुक्त कर दिया है, तब भले ही उस अमुक पर लाख आरोप हो, कोई भी उसकी नियुक्ति को रोक नहीं सकेगा। राम जेठमलानी और प्रशांत भूषण दोनों ने ही उस व्यक्ति की एकाग्रता पर सवाल खड़े करके विवरण प्रकाशित किये हुए है, मगर मजाल है की कोई इस निर्वाचन को रोक ले।
    
   तो अब आम आदमी पार्टी को दिल्ली पुलिस के उत्पीड़न से कैसे बचाया जाये ? या फिर कहें तो, ----कैसे हम दिल्ली पुलिस को बाध्य करें की वह बाकी सब नेताओं के साथ भी नियमों के पालन का वही सख्त व्यवहार रखे जो की वह आम आदमी पार्टी के साथ दिखा रही है। क्योंकि नियमों के पालन की सख्ती और ढीलाई के स्तर में अन्तर प्रकट करके भेदभाव किया जा सकता है। और इस माध्यम से उत्पीड़न भी हो सकता है जिसे की नाज़ायज़ दिखा सकना और प्रमाणित कर सकना बहोत मुश्किल होता है। 

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