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रूस यूक्रेन युद्ध में भारत का रुख – भारत की डमाडोल विदेश नीति के सूचना चिन्ह

दिन-रात democracy का राग अलाप कर भारत अमेरिका की मैत्री को बांछने वाला भारत अब एक व्यापारी मानसिकता के आदमी के सत्ता में आ जाने से यकायक मूल्यों से समझौता करके "सबसे बड़े प्रजातंत्र"(India) और "सबसे शक्तिशाली प्रजातंत्र"(the US) की "आजमाई हुई दोस्ती" को खड्डे में डालने लगा है। 

व्यापारी आदमी की पहचान यह है कि वो थोड़े से फायदे के लिए मूल्यों और आदर्शों से आसानी से समझौता कर लेता है। 

भारत का प्रजातंत्र खतरे में है, ये बात सिर्फ भारत में संसदीय विपक्षी नेतागण ही नहीं बोल रहे हैं, अपितु अब विश्व समुदाय भी इसको महसूस कर रहा है। भारत ने यूक्रेन रूस युद्ध के विषय में जबान पर तो निष्पक्ष बने रहने की इच्छा जाहिर करी है, मगर कर्मों में उल्टा कर दिया है। भारत रूस से सस्ते में कच्चा तेल खरीदने चला गया है। ये एक तरह से पश्चिमी देशों के रूस को शांति के मार्ग पर रहते हुए युद्ध को रोकने के प्रयासों के लिए लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के विपरीत का कदम हो गया है। यानी भारत ने न सिर्फ पश्चिमी देशों से, जो को अधिकांश संख्या में प्रजातांत्रिक व्यवस्थाएं है, उनके विपरीत कार्य किया है, बल्कि शांति पूर्ण तरीके से युद्ध को टालने की विश्व समुदाय की कार्यवाही को भी नकार दिया है। 

मोदी सरकार ने विश्व समुदाय को अपने चरित्र का संदेश भेज दिया है। कि, न हमे प्रजातंत्र मूल्यों की इज्जत करनी है, न ही विश्व शांति के खातिर हमे कोई नुकसान उठाना मंजूर है। 

तो ये होता है व्यापारिक चरित्र। और यही ब्राह्मणवादी चरित्र भी है। इसका व्याख्यान है – दोहरी सोच– to run with the hare, and to hunt with the hound. इसमें धर्म, आदर्श , मूल्य इनका सम्मान कोई सच्ची आस्था से नहीं किया जाता है। समस्त न्याय और निर्णय केवल आर्थिक लाभ की दृष्टि से होता है। 

भारत के अख़बार आपको नहीं बताएंगे की इन दिनों विश्व समुदाय रूस, चीन और भारत को एक संग खड़ा हुआ देख रहा है। यानी , यहां हम चीन को अपना प्रतिस्पर्धी शत्रु मानते हैं, मगर विश्व मंच पर हम दोनो दोस्त और भाई भाई है ! ये मोदी जी की करतूतों का परिणाम है।
और पाकिस्तान अब पश्चिमी देशों से अधिक नजदीक हुआ जा रहा है। पश्चिमी देश यानी वो क्षेत्र जहां से अधिकांश व्यापार मिलता है विकासशील देशों को। हमारा IT Sector का बड़ा व्यापार वही से तो आता है। रूस से तो हम केवल आयत करते हैं – लड़ाकू विमान और अन्य सैन्य  हतियार, वो जो की खराब रखरखाव के चलते अक्सर crash कर जाते हैं। 

मगर मोदी जी की तानाशाही नीतियों से बनी मजबूरियों ने सब कुछ उल्टा पुल्टा कर दिया है। विदेश मंत्री जयशंकर यकायक whataboutry करने वाली जवाब बोलने लगे हैं और भारत का मीडिया लगा हुआ है इस बेतुकी जबान की वाहवाही करते हुए "भारत का मुंहतोड़ जवाब अमेरिका को" साबित करने में। 

पश्चिम और अमेरिका को समझ आ रहा होगा कि भारत की ब्राह्मणवादी ,right wing, व्यवस्था कैसी मानसिकता रखती है। संघी लोग दोहरे सोच, यानी blackwhite, मानसिकता के लोग हैं। कल को अगर फायदा दिखता की अमेरिका के रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों से भारत को लाभ हो सकता है, तब वैसे कदम उठाते और कह देते कि "विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र" ने "विश्व के सबसे शक्तिशाली प्रजातंत्र" के संग कंधे से कंधा मिला कर प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा की लड़ाई में सहयोग दिया है !! 

मगर विश्व समुदाय जागृत समाज है। वो दोहरी मानसिकता को अच्छे से जानता पहचानता है। उसको समझ आ गया ही गया होगा की भारत विश्वसनीय सहयोगी कतई नहीं हो सकता है। भारत की ब्राह्मणवादी मानसिकता ने अपने समाज को तो बर्बाद किया है, अब अगर विश्व मंच पर बढ़ावा दिया गया तो विश्व समुदाय को भी बर्बाद करेगा। ब्राह्मणवाद/ भारतीय व्यापारिक मानसिकता आपसी संदेह को उत्पन्न करने वाला व्यवहार प्रदर्शित करती है, निरंतरता से।   

विदेश नीति में भारत के हालात अच्छे नहीं चल रहे हैं।
खाड़ी देश जहां से कच्चा तेल आयात होता है, और जहां से सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा जमा करवाते हैं प्रवासी भारतीय, उनसे भी मैत्री उल्टी सुल्टी हो गई है। भाजपा के प्रवक्ताओं, संबित पात्रा, नूपुर शर्मा और तेजस्वी सूर्य के बयानों के बाद उठे बवालाओं वाले प्रकरण के दौरान खादी देशों के सुलतानों के बयानों में यह साफ साफ दिखाई पड़ा था। 

चीन और पाकिस्तान से हमारे संबंधों के बारे में ज्यादा कुछ लिखने बोलने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। श्रीलंका में  गोटोबाया राजपक्षे के देश से पलायन के बाद वहां भी इन दिनों रिश्तों में कुछ दरार से है। नेपाल, भूटान और बांग्लादेश से हमारे संबंध जग जाहिर हैं। 

विदेशी निवेश को आमंत्रित करने की दिशा से भी मोदी सरकार व्यापारिक/ब्राह्मणवादी मानसिकता से उपजी 'दुतरफा चाल' नीति को चला रही है।  एक तरफ तो FDI को बढ़ कर आमंत्रित करती है क्योंकि इससे देश के आर्थिक हालत सुधरेंगे।  और दूसरी तरफ , पिच्छू के रस्ते से,  राष्ट्रवाद की चादर में लपेट कर विदेशी उत्पादों को प्रयोग नहीं करने के लिए जनता में सन्देश प्रसारित करवाती है। दुनिया समझ गयी होगी मोदी सरकार की दोहरी चालों वाली नीति।  कि , You can't seek FDI and then boycott their products. 

आप सोच सकते हैं कि मोदी जी की सरकार किस तरह की संकुचित सोच के साथ देश को चला रही है।

आरक्षण नीति भेदभाव से लड़ने की खराब युक्ति होती है

भेदभाव से लड़ने का तरीका आरक्षण कतई नहीं है।

 शोषण किये जाने वाली सोच तो शोषण की भावना को मन में बसाने का आमंत्रण होती है। 
शोषण क्या है? 
शोषण वास्तव में attitude होता है life के प्रति। अगर आप सोचने लगेंगे की आपके संग शोषण किया जा रहा है, तब वाकई में आपको शोषण लगने लगेगा। दुर्व्यवहार और भेदभाव सभी इंसानों को झेलना होता है जीवन में। मगर समझदार व्यक्ति इससे लड़ कर उभर जाते है। जो शोषण को भेदभाव से जोड़ लेते हैं, वह कदापि उभर नही सकते। और जो आरक्षण में इसका ईलाज़ ढूंढते है, वो तो कदापि शोषण से बचने की सद युक्ति नहीं कर रहे होते हैं
 तो शोषण से बचने का सही मार्ग क्या होता है?
सही मार्ग है शक्तिवान बनना। आरक्षण आपको शक्तिवान नही बनाता है, केवल शासकीय शक्ति वाले पदों तक पहुँचाता है। 

तो फ़िर शक्तिवान कैसे बनते है? 
बाधाओं से उभर कर।

और बाधाएं कौन सी होती है?
भेदभाव वाली बाधाएं। रास्ते में अड़चन लगाए जानी वाली बाधाएं।
कौन लगाता है बाधाएं? रास्ते में अड़चन कौन लगाता है और क्यों?
आपके प्रतिद्वंदी जो कि शक्तिवान होने की स्पर्धा में आपके समानान्तर दौड़ रहे होते हैं।
वो ये बाधाएं मिल कर समूह गत हो कर युक्तियों से लगाते है।
तो वास्तव में भेदभाव अंतर- समूह द्वन्द होता का फल होता है। जो समूह शक्तिवान होने की स्पर्धा हार जाता है, वही भेदभाव का शिकार होता है, और वही शोषण भी झेलता है।

क्यों कोई समूह परास्त होता है?
जब कोई वर्ग आपसी द्वन्द से ग्रस्त रह कर उभर नही पाता है, तब वह परास्त होने के मार्ग पर प्रशस्त हो जाता है।

आपसी द्वन्द से कैसे उभरे? 
कुछ नियम बना कर। शिष्टाचार के नियम।
और भेदभाव की अड़चनों से उभरे हुए, निर्विवाद, सर्वमान्य विजेताओं को पैदा करके। ऐसे विजेता, प्रत्येक क्षेत्र, प्रत्येक जगह पर जिन्हे टालना असंभव हो जाए। जिनकी विजय को भेदभाव करके भी दबाया न जा सके।

भरपूर वजहें हैं कि क्यों रौंदा जाता रहा है ये देश हर एक आक्रमणकारी से


आलोचना किये जाने लायक तमाम अन्य देशों की संस्कृति की तरह यहां की संस्कृति में भी खोट मौजूद है। लेकिन अभिमानी आलोचक लोग कड़वे सच से मुंह फेर कर अपने घमंड में डूबने का आनंद लेना चाहते हैं। 

भारत की संस्कृति में उगते सूरज को प्रणाम करने का चलन हैं। क्या इसका अभिप्राय मालूम है आपको? 

क्या आप आज भी देख रहे हैं कि कैसे लोग दल बदल कर शासन में बैठे दल में घुस लेते हैं?
लोग कमजोर आदर्शों वाले व्यक्ति को अपना नेता चुनते हैं, जो कि आसानी से समझौता कर लेते हैं मूल्यों पर। ( या शायद अच्छे नेतृत्व की सूझबूझ की निशानदेही होती है कि जरूरत अनुसार मार्ग बदल लेना काबिल नेतृत्व का प्रमाण है।)

भारत के लोग कैसे हैं ? ऐसे लोग जो अपने कान जमीन से लगाए रहते हैं, आने वाली शक्ति की आहट को पहले से ही सुन कर पूर्वानुमान लगा लेने के लिए। और इससे पहले की वो शक्ति सूरज की तरह उगती हुई उनके सर पर चढ़े, वो पहले ही जा कर उगते सूरज को सलाम कर आते है। यानी पाला बदल के उसके आगे झुक कर संधि कर लेते हैं। 

भारत में तन कर खड़े होने की संस्कृति और चलन नहीं है। यदि किसी ने भी ये सोच कर खड़े होने की कोशिश करी कि बाकी लोग साथ देंगे, तब उनको धोखा खा जाना तय है। क्योंकि कई सारे लोग तो संधि कर लेंगे , पलटी मार जायेंगे, और पता चलेगा की वो बेचारा अकेला ही खड़ा खड़ा, मारा जायेगा ! 

हिंदुओं के मूल्य और संस्कृति बहोत निम्न और कमजोर है। क्योंकि हिंदू नाना प्रकार के विश्वास को एक संग मानता है । सोचिए, उनमें से किस धर्म से तय करता है कि कब , कौनसा विश्वास पालन करना चाहिए? सच जवाब है — सुविधानुसार

तो फिर हिंदू आदमी किसी भी नए आक्रमणकारी मूल्य का विरोध करने के लिए खड़ा होने से डरता है। 
क्यों? ये सोच कर कि पता नहीं कौन साथ निभायेगा, और कौन पीठ में खंजर डाल कर उगते सूरज को सलाम ठोकने को निकल पड़ेगा ! ऐसा मनोविज्ञान हमारे भीतर हमारे बहुईष्ट धर्म की देन है।


आधुनिक युग में विश्व का एकमात्र "प्राचीन" पद्धति वाला बहुईश्वरीय पंथ है हिंदू धर्म 

पुराने समय में , आदिकाल में, समस्त धरती पर बहु- ईश्वरीय पंथ हुआ करते थे। मगर धीरे धीरे करके लगभग समस्त मानव जाति ने एक—ईश्वरीय संस्कृत को अपना लिया, शायद सिर्फ हिंदुओं को छोड़ कर । 
क्यों बदलाव किया समस्त मानव जाति ने बहु- ईश्वरीय प्रथा से, एक—ईश्वरीय प्रथा में? क्या असर हुआ इस बदलाव का,— समाज, और प्रशासन पर? 
और क्या असर रह गया हिंदुओं पर बहु—ईश्वरीय प्रथा पर चिपके रहे जाने का? 

बहु—ईश्वरीय समाजों में आपसी द्वंद बहोत होते थे, अलग अलग मान्यताओं के चलते। इससे परेशान परेशान इंसान को एकईश्वरीय प्रथा स्वाभाविक तौर पर पसंद आ जाते थे। और जब एकईश्वरीय पंथ एक विशाल, एकता वाला समाज देता था, तब वो सैन्य शक्ति में भी बहुत सशक्त होता था। जाहिर है, एक ईश्वरीय पंथ राजाओं को भी पसंद आने लगे, क्योंकि वो उन्हें मजबूत सैनिक शक्ति बना कर देते थे। 

तो धीरे धीरे बहु ईश्वरीय प्रथा संसार से लगभग समाप्त हो गई। सिर्फ हिंदू ही बचे खुचे बहु—ईश्वरीय समाज में छूट गए हैं, मगर फिर जिनका रौंदे जाने वाला इतिहास तो सभी कोई जानता है। हिंदुओं के समाज की कमजोरी को आज भी देख सकते हैं, कि हिंदू समाज रीढ़ की हड्डी नहीं रखते है। कमजोर संस्कृति और मूल्यों वाले नेता आसानी से पलटी मार जाते हैं। यही तो भारत के हिंदू वासियों का सांस्कृतिक चलन रहा है सदियों से।

क्यों कोई भी समाज अंत में संचालित तो अपने हेय दृष्टि से देखे जाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग से ही होता है?

बुद्धिजीवियों को लाख गरिया (गलियों देना) लें , मगर गहरा सच यह है कि किसी भी समाज में अतः में समाज पालन तो अपने बुद्धिजीवियों के रचे बुने तर्क, फैशन, विचारों का ही करता है।

बुद्धिजीवी वर्ग कौन है, कैसे पहचाना जाता है?
बुद्धिजीवी कोई उपाधि नही होती है। ये तो बस प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत दृष्टिकोण होता है किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति, कि किसे वह अपने से अधिक पढ़ा- लिखा, ज्ञानवान और अधिक प्रभावशाली मानता है। अब चुकी हर व्यक्ति का अपना एक अहम होता है, तो फिर वह स्वाभाविक तौर पर हर एक आयाराम–गयाराम को तो अपने से श्रेष्ठ नहीं समझने वाला है। सो, वह बहोत छोटे समूह के लोगों को ही "बुद्धिजीवी" करके देखता है। नतीजतन, बुद्धिजीवी वर्ग प्रत्येक समाज में एक बहोत छोटा वर्ग ही होता है, मगर ऐसा समूह जो की समाज की सोच पर सबसे प्रबल छाप रखता है।

और बड़ी बात ये है कि बुद्धिजीवी माने जाने का कोई मानक नही होता है। यानी, कोई शैक्षिक उपाधि ये तय नहीं करती है कि अमुक व्यक्ति बुद्धिजीवी है या नहीं। हालांकि प्रकट तौर पर सबसे प्रथम बात जो कि हमारे भीतर दूसरे व्यक्ति के प्रति सम्मान उमेड़ती है, वो उसकी शैक्षिक उपाधि ही होती है !!! यानी बुद्धिजीवी पहचाने जाने का ' प्रकट ' मानक शैक्षिक उपाधि होती है। 

आम तौर पर समाज में लोग किन व्यक्तियों को बुद्धिजीवि माना जाता हैं?
आम व्यक्ति अक्सर करके टीवी संवाददाताओं, पत्रकारों, समीक्षकों, चुनाव विश्लेषकों, लेखकों, फिल्मी कलाकारों, खेल कमेंटेटरों, नाटककारों, गीतकारों, कवियों, कहानिकारों, और "बेहतर अंग्रेजी बोलने वालों" को बुद्धिजीवी मानते हैं। 
ज्याद "साधारण लोग"(=अनपढ़ अशिक्षित लोग) अक्सर भगवा–धारी साधु संतों, "महात्माओं", को भी बुद्धिजीवी मान कर तौल देते हैं 

सवाल ये भी बनता है कि समाज क्यों बुद्धिजीवी की ही सुनता है अंत में? इसकी समीक्षक दृष्टिकोण से क्या वजह होती है?
अपने जीवन का गुरु (या बुद्धिजीवी) तलाशने की फितरत प्रत्येक इंसान में एक कुदरती इच्छा होती है। मस्तिष्क को आभास रहता है कि वह संसार का समस्त ज्ञान नही रखता है। न ही वो पुस्तकालय रखता है, और न ही वो हर एक पुस्तक को खोल कर टटोलने का सामर्थ्य रखता है। मगर वो फिर इतना दिमाग तो रखता ही है कि किताबों को खोले बिना भी ज्ञान को अर्जित करने का दूसरा तरीका होता है कि अपने आसपास,मित्रमंडली में ऐसे लोगो का संपर्क रखे जो कि किताबे खोलते और टटोलते हैं। जो ज्ञान का भंडार होते हैं। ऐसे ज्ञानी लोग ही दूसरे व्यक्ति को उसके मस्तिष्क की ज्ञान की भूख को शांत करवा सकते हैं।

जरूरी नहीं होता है कि जिस दूसरे इंसान को हम ज्ञानवान·बुद्धिजीवी समझ रहे हों, वो वास्तव में खरा, सत्यज्ञान रखता है। हो सकता है कि हम निर्बुद्धि लोगो को यह ज्ञान भी नहीं होता हो कि असली ज्ञान की परख कैसे करी जाती है। और ऐसे में हम किसी खोटे "ज्ञानी" आदमी को ज्ञानवाव–बुद्धिजीवी मान बैठे। जैसे, अक्सर करके अधिकांश साधु महात्मा type ज्ञानी लोग ऐसे किस्म के खोट्टे "बुद्धिजीवी* होते है, मगर जिन्हे की अनपढ़, अशिक्षित लोग परख नही कर सकने के कारण कुछ बेहद ज्ञानी मान बैठे हुए रहते हैं।

एक सच यह भी है की समाज में सत्य की स्थापना होने का मार्ग उनके बुद्धिजीवियों के माध्यम से हो होता है, हालांकि प्रत्येक समाज बुद्धिजीवियों को बहोत घर्षण देता हैं सत्य को प्रतिपादित करने मेंऔर घर्षण क्यों देता है? क्योंकि आरंभ में प्रत्येक तथाकथित बुद्धिजीवी किसी भी विषय से संबंधित अपने ही तरीके से सत्य को देखता और समझता रहता है। ऐसे में सत्य, जो की अपनी कच्ची अवस्था में रहता है, उसे वयस्क , गोलमटोल, संपूर्ण होने में सहायता मिलती रहती है, हालांकि फिर वयस्क तथा सम्पूर्ण होते होते समय भी जाया होता रहता है। तमाम बुद्धिजीवी लोगों का घर्षण ही सत्य को निखरने में सहायता कर रहा होता है। और जब वह अच्छी निखार में आ जाता है, तब वो  समाज से सभी सदस्यों के द्वारा स्वीकृत कर लिया जाता है, और वो एक "आम राय" या "सहज ज्ञान" बन जाता है। और तब फिर समाज में वो सत्य "प्रतिपादित"(=established) हुआ मान लिया जाता है।

ये दार्शनिक व्याख्यान है कि क्यों कोई भी समाज अंततः दिशा संचालित तो अपने छोटे, और ' घृणा से देखे जाने वाले ' बुद्धिजीवी वर्ग से ही होता हैं, हालांकि जिसे वह निरंतर हेय दृष्टि से देखता रहता है, घृणा करता है, और मार्ग की बांधा मानता रहता है।




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