Posts

Showing posts from December, 2020

प्रचारकों और सुधारकों के मध्य की निरंतर युगों से चलती आ रही राजनैतिक क्रीड़ा

भारत की साधुबाबा industry में बतकही करने वाले ज़्यादातर साधुबाबा लोग के अभिभाषण एक हिंदू धर्म के प्रचारक (promoter) के तौर पर होते हैं , न कि हिंदू धर्म के सुधारक (reformer) के तौर पर। अगर आप गौर करें तो सब के सब बाबा लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म की तारीफ़ , प्रशंसा के पक्ष से ही अपनी बात को प्रस्तावित करते हैं , आलोचना (- निंदा ) कभी भी कोई भी नही करता है। यह प्रकृति एक प्रचारक (promoter) की होती। इन सब के व्याख्यान बारबार यही दिखाते है , सिद्ध करने की ओर प्रयत्नशील रहते हैं कि " हम सही थे , हमने जो किया वह सही ही था , हमने कुछ ग़लत नही किया " । मगर एक सुधारक की लय दूसरी होती है। सुधारक गलतियों को मानता है, सुधारक का व्याख्यान ग़लत को समझने में लगता है। दिक्कत यूँ होती है कि सुधारक को आजकल " apologists " करके भी खदेड़ दिया जाता है। उसके विचारों को जगह नही लेने दी जाती है जनचिंतन में। वैसे promoter और reformer के बीच का यह " राजनैतिक खेल " आज का नही है , बल्कि सदियों से चला आ रहा है। धार्मिक promoter s हमेशा से ज़्यादा तादात में रहे हैं धार्मिक reformers के।

भक्त गिरी की गंगोत्री है "यदि" के क्षितिज से उठाये गये प्रश्न

 संघ ने देश में इतनी बड़ी तादाद में भक्त कैसे पैदा किये है ? जबकि संघ का खुद का इतिहास काला है। वो अंग्रेजों से अपना आर्य जाति का भाई वाद रिश्ता जोड़ते थे।  वो भारत के ग्रामीण जीवन मे गर्व करने को प्रसारीत करते हुए इसी गर्व मई लेप् में छिपा कर जातिवादी भी प्रसारित करते थे। इतने अपरस्पर विचारों के  बावजूद इतनी बड़ी आबादी में लोगो का संघ की ओर झुकाव आखिर बना ही कैसे? आज यह लोग पूर्ण बहुमत न सही, मगर फिर भी, एक विशालकाय सम्मानजनक संख्या में हैं। ऐसा कैसे हुआ? संघ ने चतुराई से कार्य किया है। संघ ने जन चिंतन में जो कथा - narrative - बहोत जुगत लगा कर बेची है इतने वर्षों से , वह एक hypothetical - परिकल्पनिक कथा है - जिसका आरम्भ "यदि" के विशेषण से होता है --- "यदि" नेहरू की जगह पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तब क्या होता? "यदि" गांधी की जगह सुभाष बोस देश की आज़ादी के सूत्रधार होते तो क्या होता? गंम्भीर सत्यवचन यह है कि परिकल्पनिक कथाओ में बसे सवालो और पहेलियों को सटीकता से उत्तर तो धरती का कोई भी इंसान नही दे सकता है। मगर फिर इन परिकल्पनिक सवालों को उठाने से आप आबादी म

बच्चों का लालन पोषण में मातापिता की खामियां

16~17 साल की आयु के बच्चों को real world issues से वास्ता करना आरम्भ कर देना चाहिए। हम middle class परिवारों में बच्चों के लालन पोषण में बहोत खामियां है जिसकी वजहों से हमारे बच्चे वयस्क हो कर सफ़ल , आर्थिक उन्नत कर सकने वाला तथा कामगार व्यक्ति नही बन पा रहें हैं। दिक्कत यूँ है कि हमारे बच्चे किताब-कागज़ों के बीच में अपने चिंतनशील मस्तिष्क को खो रहे है, उनके ख़्वाब समाप्त हो जा रहे हैं, उनमें से उत्साह नष्ट हो जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है🤔 ? क्योंकि बच्चों को वास्तविक दुनिया की समस्याओं से परिचय करने का अवसर और प्रोत्साहन नही मिल रहा है। यह सही है की अत्यधिक छात्र राजनीति एक किस्म कि मानसिक रोग होता है, मगर छात्र जीवन में वैश्विक संवाद से अलग थलग पड़े रहना - वह भी पढ़ाई करने, "एग्जाम की तैयारी कर रहा हूँ" के नाम पर -- यह भी सरासर अनुचित है, और फलदायक के विपरीत होता है। किताबों का ज्ञान आखिर में क्या होता है, और इसकी खुद की उत्पत्ति कहां से होती है?   हम जब भी अपने ही बच्चे को, अपनी ही संतान को "तुम सिर्फ पढ़ाई करो/ पढ़ाई पर ध्यान दो", करके उसको मित्रों से, मंडलियों से,

यदि evm के दिक्क्त आपको व्यक्तिगत स्तर तक समझ में नहीं आ रही हो, तब कृपया evm को बर्दाश्त करना सीख लीजिये

 मैं जानना चाहता हूँ कि EVM तंत्र से आखिर दिक्कत किसी को क्या है? अगर दिक्कत यह है कि अब सिर्फ भाजपा का ही राज कायम रहेगा, सपा ज़ बसपा और राजद को मौका नही मिलने वाला है, तब फिर यह दिक्कत तो इन पार्टियो की हुई, न कि आप की। सवाल आपसे है -- कि आपको क्या दिक्कत है? न कि पार्टीयों से है। भाजपा की कौन सी नीत आपको सताती है? भाजपा आपसे आपका क्या छीन रही है? क्या अवसर है, जो कि भाजपा आपको नही देती है?  जब तक आप सवाल का जवाब इन मापदंड पर तय नही कर लेते है,तब तक आपको EVM को चुपचाप सहन कर लेना ही बेहतर होगा।

अखिलेश जी का समाजवाद

05/12/20 अखिलेश जी को सोच थोड़ा सा adjust करना होगा। शायद उनको पहले से ही एहसास हो। कि, गरीब होना कोई उपलब्धि नही होती है, बल्कि बेवकूफी की निशानी है। अगर कोई मज़दूरी कर रहा है, तो यह उसकी जीवन निर्णयों की बेवकूफी है। फिर ऐसे व्यक्ति या समूह के "हितों की रक्षा" के लिए राजनैतिक संघर्ष करना कोई अधिक समझदारी नही होती है। वास्तविक समस्या ये नही है कि गरीब को क्या मिला सरकार से, या कि सरकार गरीबों की परवाह नही करती है। वास्तविक समस्या है कि वो गरीब क्यों है, उसने जीवन निर्णयों में क्या कमियां दिखाई, और अब समाज और प्रशासन उनके "उत्थान" (=जीवन-निर्णयों में हुई गलतियों की पहचान करना, और सुधार के अवसर देना ) के लिए क्या कर सकता है।  गरीब को रोटी खिलाना उसकी सहायता करना नही होता है। क्योंकि ऐसे में वह और अधिक पर निर्भरता ग्रस्त हो जाता है। असली सहायता होती है उनको गरीबी से निकालना। ये मुश्किल काम होता है। मगर लक्ष्य मुश्किल कामो के ही साधे जाते है। सामाजिक और धार्मिक पर्यावरण में बदलाव लाने होंगे। शिक्षा नीति में बदलाव लाने होंगे। प्रशासन में बदलाव लाने होंगे, जिससे गरीबी को नष

स्वतन्त्र अभिव्यक्ति और perceptions की अभिव्यक्ति

 कुणाल कामरा के ट्वीट सब के सब mere perceptions ही कहेै जा सकते हैं। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत हर व्यक्ति को किसी भी घटना, व्यक्ति इत्यादि पर अपना मत रखने का अधिकार है। ये perceptions वही मत होते है। प्रशांत भूषण मामले में सोली सोराबजी के विचारों के अध्ययन से एक बात समझ मे आ जाती है - कि, प्रशांत भूषण की गलती बस यह थी कि किसी ताथयिक बात को गलत प्रस्तुतिकरण किया था। हालांकि वह भी ताथयिक गलती छोटी ही थी, और अर्धसत्य भी थी। तो बात यह बनती है कि किसी तथ्य को यदि जानबूझकर गलत या मरोड़ करके प्रस्तुत किया जाता है किसी भी छवि को बनाने, बिगड़ने के उद्देश्य से, तब और केवल तब ही मानहानि का मुकदमा ठहरता है, अन्यथा मुकदमा विलय कर जाता है कुणाल कामरा के tweets में तो कुछ भी ताथयिक है ही नही। केवल perceptions ही है ! उनकी खुद की मन की छवि कोर्ट के प्रति ! भले ही वह नकारात्मक ही क्यों न हो , मगर वह ताथयिक नही है, महज़ perception है।