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Clericalism destroys Secularism and dominates its way over the society by bringing Stupidity in the Public governance system

Indian Democracy is SANS Secularism  which is why it is not succeeding.
To adopt Secularism, we must identify what is Clericalism from the nature of it. We must understand how the Clericalism works in the Indian society and the (Indian) public services , and what errors it generates which bring failures to our society .
Both, hindu and the Hindutva , they try to encorach upon the rational thinking .  What is rational thinking that they encroach upon ?
Rational thinking is a cause-ascertaining way of analysing the issues and problems around us , and finding their cure or the solution. Whether a suggested /nominated cause of a problem is the appropriate root or not, is best determined by allowing the nomination to pass through various criticism, by the believers as well as the non-believers , the theist and the atheist. You don't dismiss a criticism by disqualifying the critic by character assassinating him, no matter his character has genuine faults or merely the alleged ones.
Also, it is important that once a root has been detected , it is applied for all future occurrence through a Procedural law .  A society must not be exposed to stupidity and idiocy by letting it to detect the root cause on the same matter again and again.
That means, solution once found , must prevail in the society for ever and win by its own right. If the people are being forced to win it out again and again, at every instance of the non-compliance , know it that the society is not truely secular . The clerics (the bureaucracy and the religious heads, both included) dominate their way on the society by making stupidity a way of public governance system.
Clericalism survives, very often, through stupidity and the haughty-ness by challenging the rational thinking to prove its merit on the same matter again and again.
If that is happening in your law courts , be it known that the Secularism is failing .
Once the failure of Secularism happens , the rest of the Democractic Governance laws will automatically fail.

भारत की अगाध गरीबी के कारक यह है ही नही की अर्थशास्त्र नीतियां गलत हैं , बल्कि यह है की नौकरशाही उचित प्रदान नहीं कराइ गयी है किसी भी अर्थ नीति को लागू करने के लिए

भारत की ज़रूरत अर्थशास्त्री नही है। क्योंकि भारत की अगाध गरीबी के कारक यह है ही नही की अर्थशास्त्र नीतियां एक के बाद एक गलत हो रही हैं। बक्लि कारण है की यहाँ एक ऐसी चूहा जैसी नौकरशाही बैठी हुई है जो अच्छे से अच्छे अर्थशास्त्रीय प्रबंध में छेद करके अनाज (अथवा जनहित सेवा योजना)को 'खा' जाती है।
और दुर्भाग्य यह है की जन प्रशासन विज्ञान में कोई नोबेल प्राइज़ नही है सिद्धांतों की नींव डालने के लिए, जो नौकरशाही को काबू में ला सके ।

Democracy cannot succeed if it is not genuinely implemented. Then, If your fake democracy is failing, please dont blame the system of Democracy.

I have a feeling,
that, the economic systems are designed such as to give their best only when working with the associated political and the legal systems that are genuinely democratic by nature.
It may not be possible to eradicate poverty, to cure epidemic diseases , to provide gainful employment , the social security , the happiness , etc to the people unless the public governance systems are genuinely democratic by their nature .
Coercion, whether by state authorities , or by any other means , is sure to bring failures in the economy.

भारत की नौकरशाही-- भारत की तमाम मुश्किलों की असल जड़

भारत की समस्याओं का जड़ अच्छी अर्थनीति की कमी नही है, बल्कि तमाम नीतियों की implementability है। इस जड़ को पैदा करने वाली और संरक्षण देने वाली जननी माता है -- भारत की नौकरशाही; जो की अपना स्थान, और शक्ति प्राप्त करती है खुद भारत के संविधान से, UPSC नाम संवैधानिक संस्थान से।
बात को दोहराते हुए एक बार फ़िर मुआयना करते हैं कि कहां क्या गलतियां हुईं आज़ादी के बाद हमारे देश के प्रशासन तंत्र में।
सर्वप्रथम यह कि प्रजातंत्र, और तमाम अन्य किस्म की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं को हमारे तत्कालीन "बुद्धिजीवियों" ने सही से समझा ही नही। इसमें ग़लत हुआ है, हालांकि उनकी ग़लती नही कही जा सकती है। कारण- की सब ही प्रत्यय हमारे यहां पर आयात करके लाये गए हैं, यहां भारत के अपने सामाजिक और आर्थिक इतिहास की धरोहर कम ही हैं आधुनिक भारत के प्रशासन को चलाने में सहायक किसी भी पाठ को रचने के लिए; और न ही हमारे इतिहास ने हमारे पास विकल्प दिया कि हम कुछ अन्य को प्रयोग करके तसल्ली कर सकें। (अब यह कटुसत्य वचन पढ़ कर हो सकता है कि आप में से बहुतों को खराब लगेगा, मगर सत्य को नतमस्तक हो कर स्वीकार करना ही सर्वप्रथम आराधना होती है। या तो आपके मन को सत्य स्वीकार करने से शांति मिल जायेगी, अन्यथा सुधार करने का उपाय खोज कर डालेगा। )
तो, सच यह था कि *प्रजातंत्र का सारांश* होता ही था *निजी सम्प्पति के अधिकार* में । प्रजातंत्र भले ही एक राजनैतिक विचार है, मगर इसका अर्थनीति क्षेत्र में अभिप्राय यही होता है - निजीकरण।
कम से कम इतना तो जान लीजिये कि वर्तमान काल के सभी अर्थनीति ज्ञानकोष के बुनियाद सिद्धांत जिन हालातों के मद्देनज़र बनाये गये हैं, वह प्रजातंत्र की स्वेच्छा-सिद्ध प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था पर ही कायम हैं।
और यह एक सच हमारे तत्कालीन बुद्धिजीव या तो समझ ही नही सके, या अनदेखा कर गए। या हो सकता है कि कुछ-एक मौजूदा ज़रूरतों को देखते हुए टाल रख छोड़ा था कि भविष्य की पीढ़ियां कभी दुबारा इन विषयों पर चर्चा करके सुधार कर देंगे।
बरहाल, सच को अनदेखा करने से हमने प्रजातंत्र को समाजवाद में मिलावट करके चलाने की कोशिशें करि और गर्व इस बात का किया कि यह "भारतीय संस्करण" है व्यवस्था का, जो कि भारत के गाँव-गांव में पाई जाती है।
समाजवाद के आवेश में हमनें सरकारीकरण की राह पकड़ ली।
फिर क्या हुआ? - नौकरशाही की मनमानी। हर एक क्षेत्र में क्लर्क छाप कौशल वाले लोगों को शीर्ष नेतृत्व दे दिया गया।
क्लर्क यानी लिपिक कौशल की अपनी कमियां होती है। वह हाथ कैशल का सम्मान कम करते हैं, अच्छे वाचन से प्रभावित जल्दी होते हैं। वह चापलूसी से चलते है। न की तकनीकी विषयों पर बहस करते हुए, ज्ञान को उधेड़-बुन करके "उद्योगिक और कौशल मानक" - professional and industrial standards- का निर्माण करते हुए।
नौकरशाही ने देश को क्या दिया?
थोड़ी सी सांठगांठ मंत्रियों के संग में, और फिर सत्ता पूरी की पूरी एक मिलिभगति कि खीरपूड़ि बन गयी नौकरशाहों के हाथ मे। खूब दम कर के भ्रष्टाचार किया और कुछ एक ईमानदारी की "मूर्ख" नमूनों को रख छोड़ा देशवासियों को सच से बहकाने के लिए।
आरक्षण की खीर ने खुद अम्बेडकर जी के समुदाय वर्ग को भी नौकरशाही का कायल बना दिया, बजाए सच के दर्शन देने के। वह कौशल काम छोड़ छोड़ कर "पढ़ाई लिखाई" की ओर प्रेरित हुए - मसलन आरक्षण के माध्यम से आईएएस और आईपीएस बनने को लालायित हूए। आरक्षण में उन्हें नौकरशाही के माध्यम से सशक्तिकरण की रोशनी दिखाई पड़ी, न कि नौकरशाही नाम वाली दीमक जो की समाज के आर्थिक और श्रमिक संसाधनों को खोखला करती थी।
अब क्या था। नौकरशाही में नीचे पदों में आरक्षित वर्गों को जगह दे कर खुश रखा गया। ऊपर के पदों से नियंत्रण अभी भी उन्हीं वर्गो ने कब्ज़े में जकड़ लिया। न्यायपालिका में उन्ही वर्गों ने अपने नुमांइदे बिठाये। tokenism को सदैव कायम रखा , कि सच की पोल न खुलने पाए।
हमारा देश "समाजवादी प्रजातंत्र" में जीने लगा, यह एहसास आया ही नही की यह जो भ्रष्टाचार है, जो vvip culture है, वह सब सामंतवाद ही है, जिसका प्रतिरोध करने से ही तो प्रजातंत्र ढांचे की नींव पड़ी थी। हम रोग को और इलाज एक साथ मिलावट करके अब रोग के लाइलाज़ होने के कारक ढूढ़ते थे कभी तो काबिल नेता की कमी, और कभी जनता की कमी समझे बैठे थे। संविधान में ही रोग की जड़ बसी हुई है, यह सच इतना कटु था कि सबको झखजोर देने वाला था । उनके अनुसार संविधान ने तो उन्हें उपहार-रूपी आरक्षण दिया था ,जिससे कि उनका हक उनको मिल रहा था !!
तो यह मानने को, सुनने को वह वर्ग तैयार ही नही रह गए कि आरक्षण की खीर के नीच ही समाज को जहर दिया जा रहा है, समाजवाद नाम से, जो रोग कि आरक्षण कभी मिटा नही सकेगा। !!
यह क्या हुआ ??!!!
यह क्या बोल दिया ??!!!
बाबा साहेब की काबलियत पर सीधा सवाल था यह तो !!!
मगर बात यूँ है कि सवाल सिर्फ बाबा साहेब का नही है। वह तो मात्र एक अध्यक्ष थे, निर्माण समिति के। और समाजवाद तो उनके लिखे मूल संविधान में था भी नहीं। वह 1976 के संसोधन से लाया गया था।
और बात यूँ भी है कि क्या हम भी भक्तों की तरह प्राचीन ऋषि-मुनियों को आज के वैज्ञानिकों से अधिक बुद्धिमान मानेंगे? क्या हम भी भक्तों की तरह तब की संविधान निर्माण समिति को आज की सच्चाइयों को देख परख के निकलते सबक से अधिक बुद्धिमान और श्रेष्ठ मानेंगे ?!!
बरहाल, वो निर्माण समिति के सदस्य सही थे या फिर ग़लत, जो भी हो, उन्होंने कुछ रास्ते इसीलिए ही खुले छोड़े थे, कि हम भी कभी इतने काबिल शायद बन जाएं कि अपना भला-बुरा खुद से समझ सके। तब हम शायद कुछ बदलाव करना चाहेंगे।
इसलिए सवाल अब उनकी ग़लती का नही है, हमारी सोच का है कि क्या हम सच को स्वीकार करने को तैयार हैं या नही ? यदि हैं, तो फिर निजीकरण को हमें प्रजातंत्र का सारांश मान लेना होगा, और समाजवादी सरकारीकरण और upsc के चंगुल से आज़ादी के लिए तैयार होना पड़ेगा।

अग्रिम और पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण, और अध्ययन मेरे अनुसार

अगर 16वीं शताब्दी के पर्यान्त समुदायों (जो की 'जाति' से संबंधित एक अन्य पर्यायवाची नाम ही होता है) के बीच आर्थिक संसाधनों के बटवारे को समझे तब सबसे प्रथम हमे दो वर्गों को चिन्हित करके काम को आगे बढ़ाना होगा। दो प्रमुख वर्ग थे - उद्योगिक श्रम (Industrious) वाले समुदाये , और कृषक श्रम(Pastoral) वाले समुदाये।
16वीं शताब्दी के बाद में अग्रिम समुदाये वह हैं जो की 'उद्योगिक श्रम' करते थे।इससे पहले 'कृषक श्रम' वाले समुदाये अधिक समृद्ध और राजनैतिक बलवान हुआ करते थे। 16वी शताब्दी मानक इसलिये बनी क्योंकि यहां से ही steam engine बना, जो की निरंतर, अथक श्रम का प्रथम संसाधन था मानव इतिहास में, और जहां से professionals ने बढ़त बना ली युद्धक और कृषक लोगों से। यहां से ही factorइया बनी, और फिर उद्योग बने।
जमीन का प्रयोग वह विषय था जहां से बदलाव ने असर दिखाया था। उद्योग आ जाने से जमीन का छोटा अंश, यदि वह उद्योग में है तो फिर अधिक उत्पादन शील हो गया, किसानी और पशु पालन के मुकाबले।
दूसरा की उद्योगी आदमी को किसी एक स्थान पर बंधना मुश्किल था, क्योंकि जहां बाज़ार में saturation आ जाता है वहां उसके लिए मुश्किल बन जाती है। तो फिर वह अचल नही रह गया, निरंतर चलत , गतिशील और अन्वेषक बन गया। किसान की ज़रूरतों के विपरीत विचार था यह। किसान जमीन से बंधा था, और स्थिर और गतिहीन था। वह पत्थर की तरह पड़ा रह गया और ज्ञान से भी दूर चला गया। नतीज़तन कृषक समुदाये पिछड़े होते चले गये।
उद्योगी व्यक्ति अन्वेषक बन गया, साथ में नित नये कौशल ईज़ाद करते हुए नयी नयी बाज़ार जरूरतों को जन्म देने लगा। हां, वह भोगवादी भी बना और साथ में पर्यावरण का विनाशक भी। मगर फिर सफलता उसकी ही थी। पैसे का अर्थ तंत्र तो उसके ही संग में आ बैठा, उसकी मुठ्ठी में।
कृषक को जब तक एहसास हुआ बहोत लेट हो चुका था। वह हल्के फ़ाल्के , पुराने और सरल कौशलों से गुज़ारा करने को बाध्य हो गया। जैसे की मोटर कार चलाना, मोटर कार की मरम्मत, सैनिक बन जाना, वगैरह। अधिक जटिल कौशल उसके लिए सीखना मुश्किल थे, साथ में यह था की सीखने की कीमत भी बहोत ज्यादा थी।
उद्योगिक समुदायों के परिवारों में नयी किस्म की नैतिकता ने जन्म लिया और धर्म को नये तरीके से उच्चरित कर लिया। यहां 'प्रबंधन' वाले ज्ञान ने जन्म ले लिया है, जो की झटपट ज़रूरत के अनुसार u turn देने के तर्क देती रहती है, कभी भी कुछ मर्यादा-बंधित नही करती है, और दोस्ती-दुश्मनी का अर्थ पैसे से जोड़ देती है। कृषक क्योंकि स्थिर मानसिकता के लोग होते हैं, उनकी नैतिकता और धर्म का उच्चारण अलग होता है। वह मर्यादा से बंधते है।
मर्यादा = Conscience tied.
उद्योगिक मर्यादा अलग ही है। इसमें कुछ भी करना अथवा नही करना में स्वेच्छा का प्रसंग पैसे के लाभ-और-हानि से बदलता रहता है। दुनिया में कुछ भी स्थिर नही है। तुरन्त लाभ और हानि के अनुसार वह निर्णय लेते हैं।
कृषक समुदायों में समाज क्या कहेगा, वगैरह को आगे रखा जाता है। "सम्मान" अधिक महत्वपूर्ण है, और "सम्मान" का यही अभिप्राय होता है की "दुनिया क्या कहेगी', "वो चार लोग सुनेंगे , तो क्या कहेंगे"। वह दोष-भाव यानी guilt से भी खूब प्रभावित रहने वाले समुदाये हैं। और इसलिये दुखों से घिरे रहते हैं, आपसी क्लेश या पारिवारिक क्लेश रोज़मर्रा की बात होती है। आपसी सहयोग न तो इनकी ज़रूरत होती है, और न ही वह इसे प्राप्त करने पर महत्व देते हैं। वह आसानी से एकाकी परिवार में जीवन यापन कर लेते हैं। जबकि उद्योगिक श्रम में बड़ा करने पर बल दिया जाता है, और बड़ा करने के लिए आपसी सहयोग आवश्यक होता है तमाम बाधाओं को लांघने के लिये, व्यापार के फैलते अंग को स्थान स्थान पर संभालने के लिए।
अब शायद ज्यादा सरल हो जाये अग्रिम और पिछड़ी जातियों (अथवा समुदायों) का वर्गीकरण करना उनकी चारित्रिक विशेषता के आधार पर।

ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारा प्रजातंत्र बारबार समाजवाद की ओर मोड़ ले ले रहा है ??

ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारा प्रजातंत्र बारबार समाजवाद की ओर मोड़ ले ले रहा है, जो कि मार्ग किसी भी प्रशासन को निश्चित तौर पर सामन्तवाद और नौकरशाही की ओर ही ले जाता है ?
आज जब बैंकों का निजीकरण भी शुरू होने लगा है और खाताधारकों के जमाधन पर बाज़ार का जोख़िम मंडराने लगा है, तब ऐसे हालात में एक सवाल यह भी है की आखिर सरकार की मंशा क्या है? और वह मंशा आ कहां से रही है?
भले ही यह दोनों सवाल अलग विषय बिंदु में से उभरते हुए दिखते हों, मगर इन दोनों सवालों का जवाब शायद एक ही है और जो की भारत के समाज को समझना या चिंतन करना ज़रूरी हो गया है।
दोनों सवाल के मूल में से एक अन्य सवाल निकलता है जो की दर्शनशास्त्र से अधिक वास्ता रखता है। सवाल है की आखिर प्रजातंत्र होता क्या है?
(बस , यह समरण रहे की जब आप प्रजातंत्र विषयवस्तु पर दार्शनिक हदों तक चिंतन करें तब यह भी सोचते रहें की दर्शन का अर्थ आध्यात्मिक चिंतन नही होता है, बल्कि किसी भी विषय पर मूल तत्व तक जा कर चिंतन करना होता है। दर्शन हदों तक चिंतन करने के लिए आवश्यक हो जाता है तुलनात्मक अध्ययन करें, जिसमे संग्रह का निर्माण करना पड़ता है की किन-किन अन्य तरीकों से उस एक विषय को परख किया जा चुका है। )
मुझे यह घनघोर शंका है कि हमारी भारत सरकार के पास यह सब अनूठे-अनूठे हरकतें करने की युक्ति पश्चिमी संस्कृति से आये सलाहकारों से आ रही है।
और मुझे यह शक इसलिये हो रहा है क्योंकि पश्चिमी संस्कृति में ही प्रजातंत्र का अभिप्राय "बाज़ारवाद" की दृष्टि से देखा और समझा गया है, न की पूर्वी संस्कृति में। पूर्वी संस्कृति में प्रजातंत्र का अभिप्राय जिस तरीके से बारबार समाजवाद की ओर मुड़ रहा है, उसी से यह पता चलता है की पूर्वी संस्कृति में प्रजातंत्र को जो कुछ भी समझते हों, मगर वह कम-से-कम यह तो निश्चित है की "बाज़ारवाद" नही है।
एक सवाल यह बाद में टटोलेंगे की क्या हमे प्रजातंत्र को बाज़ारवाद की नज़रो से समझना चाहिए? क्या यही सही तरीका है? या, क्या कुछ और भी विकल्प है प्रजातंत्र को बूझने का?
पहले हम यह टटोल लेते हैं की आखिर हम प्रजातंत्र को किस अन्य तरीके से बूझ रहें है, पश्चिमी संस्कृति वाले "बाज़ारवाद" के अन्य विकल्प में।
दरअसल हम भारतीय लोगों के संग हो क्या रहा है कि जब भी दार्शनिक धरातल पर यह सवाल हमारे सामने आ रहा है की प्रजातंत्र की असीम स्वतंत्रता और स्वेच्छा-सर्वशक्तिमान के प्रभाव में यदि हर एक को आज़ादी मिल जायेगी तब जो हर एक कोई अपनी-अपनी मनमर्ज़ी से हरकतें करेगा और फिर आपसी झगड़े होंगे, तब उसका समाधान कैसे किया जायेगा? यहाँ हमारा जवाब स्वतः हमारे सांस्कृतिक दर्शन में से प्रभावित होकर निकल रहा है कि हमें "सरकार" नामक एक सामाजिक संस्थान बीच में बैठानी पड़ेगी जो की दो लोगों के बीच हर-एक की मनमर्ज़ी के प्रभाव क्षेत्र को कम करेगी , छटनी करेगी और समाज में शांति-व्यवस्था, law and order स्थापित करेगी।
तो , हम भारतीय नस्ल के लोग प्रजातंत्र के core सवाल पर आ कर जो अपने सांस्कृतिक दार्शन में से उत्तर निकालते है, वही से हम "सरकार" को मूलतः समझते हैं ,और जाने-अनजाने में हमारा प्रजातंत्र बारबार "सरकारी समाजवाद" की राह पर निकल पड़ता है। हम भारतीय लोग 'सरकार' को अपने गांव की पंचायत की तरह बूझते हैं।
मगर मैंने बताया ने, कि दर्शनशास्त्र का मूल गुण यह नही है कि विषयवस्तु पर आध्यात्मिक चिंतन करना, बल्कि संग्रह करना होता है, ताकि तुलनात्मक अध्ययन हो सके।
तो बड़ी जानकारी वाला ज्ञान यह है कि पश्चिमी संस्कृति में इस एक सवाल पर दूसरा जवाब बनता है।
यानी, यदि दो व्यक्तियों का स्वतंत्रता क्षेत्र(अपनी अपनी मनमर्जी का प्रभाव क्षेत्र) आपस में टकरायेगा तब उसको कैसे शंतिव्यवस्था क़ायम किया जाये, इस सवाल पर पश्चिमी सभ्यता "सरकार" नाम की सामाजिक संस्था का अविष्कार नही होने देती है। पश्चिमी संस्कृति के अनुसार तब दोनों ही व्यक्तियों को आपस में मिल करके शांति व्यवस्था के मद्देनज़र सुलह करनी होगी, बीच में कोई अन्य "पंचायत बैठने वाली भूमिका" में कोई भी अन्य नही आने वाला है- यानी की "सरकार" नामक संस्था का अविष्कार नही कर दिया जायेगा !!!!!!!!
!!!
तो फिर पश्चिमी संस्कृति में "सरकार" नामक सामाजिक संस्थान का अविष्कार कहां और किस स्थान पर किया गया है?
पश्चिमी संस्कृति के अनुसार "सरकार" नामक सामाजिक संस्था की भूमिका यह नही है की वह दो व्यक्तियों के अपने-अपने मनमर्ज़ी के प्रभाव क्षेत्र को कम करे, छटनी-कटनी करे, बल्कि यह है कि "दो व्यक्ति खुद से ही आपसी समझौते में अपने मनमर्ज़ी प्रभाव क्षेत्र को जो कुछ सीमाबद्ध करें , उसके पालन का स्मरण करवाये"।
तो उनके अनुसार "सरकार " के पास अपनी कोई शक्ति नही है, यानी कोई न्यायायिक शक्ति नही होती है। वह महज़ एक क्लर्क है, जिसका काम स्मरण करवाना ही है, बाकी तय करने का कार्य तो जनता का ही है, न्याय की मूल शक्ति जन शक्ति और जन चैतन्य (public conscience) के पास में है।
पश्चिमी संस्कृति में ऐसा करने से दोनों ही व्यक्ति शक्तिविहीन किसी भी पल नही किये जाते हैं, बल्कि आपसी संघर्ष के तानेबाने में सदैव ही उलझते रहते है, नित नये विषयों पर, बल्कि पुराने विषयों पर भी, और नये नये कोंण से !!!! और सरकार का उत्तरदायित्व होता है उनको उनके आपसी समझौतों के अनुसार शंतिव्यवस्था के मद्देनज़र आपसी संघर्ष से अलग करना।
पश्चिमी संस्कृति के मूल दर्शन में 'सरकार' के पास न्याय शक्ति नही है, महज़ "executive" शक्ति है, यानी स्मरण करने का कार्य पूर्ण करने भर। न्याय शक्ति को जनता में , हर एक इंसान तक में रख छोड़ा है। (हालांकि अभी यह सब दार्शनिक धरातल पर है)
भारतीय संस्कृति के दर्शन के अनुसार 'सरकार' ही पंचायती शक्ति यानी न्याय शक्ति की भी पीठ होती है।
तो हम अपने मूल चिंतन में ही executive और judiciary को अलग करते नही है। और व्यवहारिकता में भी भारत में न्यायपालिका की संरचना में वह सरकार का एक extended अंग ही है।
मेरे अनुसार बैंकों में निजीकरण करने की पीछे सरकार के सलाहकारों की मंशा जो भी हो, मगर दिशा यह है कि वह बैंकिंग क्षेत्र से समाजवाद को खत्म करने बाज़ारवाद को लाना चाहते है। बाज़ारवाद और प्रजातंत्र का मेल पश्चिमी संस्कृति की देन है, न कि भारतीय संस्कृति की।
हालांकि प्रजातंत्र को वास्तविक सफलता में लाने का उचित तरीका बाज़ारवाद ही है, न की समाजवाद ! मगर यह किसी दूसरे लेख में चर्चा करेंगे, कभी और।

नौकरशाही का जो चलन हमारे देश में है,उससे काल्पनिक देश utopia को भी नरक बना देंगे

अपने पेशे से मैं एक professional हूँ, लोकसेवा दार यानी public servant नही हूँ।
अब इन दोनों शब्दों के अभिप्रायों में क्या अंतर है, और उस अंतर का क्या प्रभाव होते है, इनको जानने समझने के लिए आपको आर्थिक इतिहास पढ़ना पड़ेगा।।वह भी विश्व आर्थिक इतिहास, न की भारत का। भारत का आर्थिक इतिहास मात्र economic drain की दास्तां है, इसमें यह सबक है ही नही की अच्छे , समृद्ध देश आखिर बने कहां से, कैसे?
और किताबों में पढ़ा जा रहा भारत का इतिहास , सामाजिक और राजनैतिक इतिहास एक सामाजिक स्तर का मनोरोग बन चुका है, जिससे समाज में हिंसा और महामूर्खता मनोचिकितसिय बीमारी फैल रही है epidemic स्तर पर।

professional क्षेत्र रहते हुए मैंने अपने ही लोगों के इतिहास को देखा और खोज किया है। यह जानते और बूझते मुझे थोड़ा समय लगा गया की कैसे हम नौकरशाही के नियंत्रक होने चाहिये थे अगर भारत को समृद्ध देश बनाना था, और कैसे आज, उल्टे, हम उनके सेवक बन कर clerk स्तर की जी-हजूरी करने लगे हैं।

तो आर्थिक इतिहास के पाठ से मिले सबक में मैं यह तसल्ली कर चुका हूँ कि नौकरशाही का जो चलन हमारे देश में है, उससे हम atlantic महासागर के मध्य बसे काल्पनिक देश utopia को भी नरक बना देंगे, दक्षिण महा सागर में बसे काल्पनिक देश dystopia का सुधार कभी नही कर सकेंगे।
सीधी , सच्ची दो पैसे की बात है।

The Indian mechanism of practising the democracy is actually Bureaucratism

We must first compare the MECHANISM OF DEMOCRACY BASED PUBLIC ADMIN MACHINERY of the countries.
Once we do that, the greatest discovery will be that since 1947, we are actually practising Socialism, which is a primitve of the evil systems of Feudalism ! We will see that we have been rearing the serpants of Corruption, crony CAPITALISM , modern forms of Discriminations (by way of VVIP Culture) , ..through our Bureaucracy ..!

अर्थनीति का मतलब स्टॉक मार्किट और sensex नहीं होता है

काफ़ी सारे लोग stock markets को ही economy समझते हैं। खास तौर पर पीयूष गोयल जैसे मुम्बई निवासी लोग। इनके अनुसार यदि sensex बढ़ रहा है, तो मतलब की economy दुरुस्त है।
यह लोग Economy का संदर्भ सामाजिक कठनाइयों के निवारण से नहीं जोड़ते हैं, कि लोगों की जिदंगी आसान हुई है या नही एक स्वतंत्रत जीवन जीने के लिये, अपनी इच्छाओ के अनुसार।
अमेरिकी दार्शनिकों ने आज से 250 वर्षों पहले ही समझ लिया था कि प्रजातांत्रिक स्वतंत्रता का निवास आर्थिक स्वतंत्रता के मार्ग पर बनेगा। अगर इंसान को आर्थिक तौर पर ही कमज़ोर कर दिया जाएगा, तो वह गरीबी के दबाव में वह सब करने लगेगा - मज़दूरी, अपराध, बंधुओं की तरह नौकरियां- जो कि समाज मे से सभी स्वतंत्रता को यूं पल में वाष्प बना कर उड़ा देगी जैसे तराश में पड़ा पेट्रोल खुद ब खुद गायब हो जाता है।
इसलिए अमेरिकी दार्शनिकों ने तब ही अमेरिकी declaration of Independence में आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में दर्ज कर दिया था, और कहा था कि अत्यधिक टैक्स या अत्याधिक महंगाई के आगमन को नागरिक स्वतंत्रता पर हमला माना जायेगा।
इधर जहां हमारे right wing वाले हमारे देश के सब कुछ व्यापारिक निवेशों को अपने संगी साथियों को मलकाना देने की फिराक में हैं, तो वहीं हमारे विपक्ष के लोग खुद समाजवादी बने हुए है और चाहते हैं कि व्यापारों को सरकार के हाथों दे दे, और संग में सभी नागरिक अनिवार्य टैक्स भी जमा कराया करें ।

सभ्यताओं का अंतर और प्रजातंत्र लागू करने का तरीका

किसी भी नाविक से पूछिए, वह आपको बता देगा कि दुनिया के गोल होने की वजह से धरती के दोनों गोलार्ध के लोग प्रतिपल एक दूसरे के विपरीत हालात के दर्शन कर रहे होते हैं। एक गोलार्ध में दिन होता है, तो दूसरे में रात। यह कभी भी सम्भव नही की पूरी धरती एक साथ एक जैसे ही दर्शन ले।
यही है सभ्यताओं के अंतर।
सभ्यताएं इंसानो के भीतर में अपने जो गुण छोड़ती हैं, भोजन, भाषा और पहनावे के माध्यम से, उसे संस्कृति बुलाया जाता है।
प्रजातंत्र के प्रति इसके उच्चारण और इसको लागू करने में दो अलग सभ्यताओं की संस्कृति के प्रभावों के चलते अलग अलग तरीके विकसित हुए। इन अन्तर के चलते ही कही पर तो प्रजातंत्र व्यवस्था अधिक सफल बनी, और कहीं पर "स्थानीयकरण" के प्रभावों में एक "खिचड़ी" बन कर समाज को वापस अन्धकारयुग में ले जाने वाली व्यवस्था बन गयी।
प्रजातंत्र को पश्चिम में बाज़ारवाद यानि free market के प्रभावों में ही समझा गया है। वहां प्रजातंत्र के रखवाले खुद नागरिक ही होते हैं, जो कि नही चाहते हैं कि उसकी कमाई संपत्ति को राजा-महाराजा छेक ले।
यहां भारत मे indianisation करके हमने socialism का पालन किया है, जो कि हमारा सांस्कृतिक प्रभाव का नतीजा है। चाहे जवाहरलाल नेहरू का russian संस्करण से निर्मित पंचवर्षीय योजना वाला मॉडल हो, चाहे विपक्ष में बैठे जनसंघ या राममनोहर लोहिया का मॉडल समाजवादी मॉडल हो। भारत मे प्रजातंत्र को समाजवाद के प्रभावों में ही समझा गया है। यह तासीर आरक्षण नीति के चलते और अधिक गहरी ही हुई है, इसकी खामियों का अध्ययन नही किया गया है।
भारत की व्यवस्था की खिचड़ी से हुआ क्या ?
अमेरिका में जहां की प्रजातंत्र है, वहां सरकार व्यापारों को नही संभालती है, और बदले में जनता से टैक्स लेती है। सऊदी अरब में जहां प्रजातंत्र नही है, वहां सरकार ने सभी तेल के कुओं का सरकारीकरण कर दिया है, और बदले में टैक्स नही लेती है।
और यहां भारत की खिचड़ी में सरकार व्यापार भी संभालती है, और टैक्स भी वसूलती है !!😋😀😀
भारत का यह भोजन ,खिचड़ी, असल में भारत की पहचान है। मगर इसमे गर्व करने वाला मसला अभी ज्यादा कुछ है नही। असल में यह शुद्धता के विरुद्ध का चलन है। दूसरी संस्कृतियां जहां शुद्ध को तलाशती है, हम लोग सब कुछ मिश्रण कर देने में यकीन करते है। उसी गंगा को मा मानते है, उसी में नाले को निकास कर देते हैं।
यह संस्कृति मज़बूरी के मोड़ लेती हुई उत्पन्न हुई है, हज़ार वर्षो की ग़ुलामी के दौरान, और हम उसे अपने पौराणिक भारतीय सभ्यता समझ कर बचाव करते हैं।
उसी संस्कृति से संविधान में भी मिश्रण कर देने वाली नौकरशाही का भी निर्माण हुआ है। जो लोग पौराणिक संस्कृति के बचाव के पक्षधर नही है, वह संविधान के बचाव में , अनजाने में वापस उसी को ही बचा रहे है।
शायद हमे कुछ मूलभूत बदलावों को सोचना होगा। मिश्रण को प्रेरित करती संस्कृति से हट कर के शुद्धता को तलाशना शुरू करना होगा।

evm प्रकरण पर ताज़ा हालत और इसकी इतिहसिक पृष्टभूमि

Evm की कहानी को 1990 दशक के आरंभिक सालों से शुरू करते हैं। बिहार में लालू यादव की सरकार बनती थी तो आरोप लगते थे की booth capturing करके बन रही है। लालू की राजनीति जय प्रकाश आंदोलन के भीतर से निकली थी और आरक्षण नीति के इर्दगिर्द में थी। लालू चुनाव जीतने लगे तो जाहिर हैं कि उनके विरोधी सर्वणों ने आरोप जड़े की लालू बूथ capturing से जीते हैं। उनके कहने का आशय हुआ कि लालू के पास वरना इतने समर्थक नही है इस मुद्दे पर !
बरहाल, इस आरोप में से टी एन शेषन, एक मुख्य चुनाव आयुक्त ने , देश पर यांत्रिक चुनाव पद्धति की क्रांति लाने का अवसर खोज निकाला, और इतिहास के पन्नों पर खूब वाहवाही लूटी।
धीरे धीरे यांत्रिक मतदान उपकरण पर तत्कालीन विपक्ष , यानी भाजपा, ने आरोप लगाना शुरू किया की इसे भी लूटा जा सकता है, जैसा की मतदान केंद्र को बिहार में लूट लिया जाया करता था, booth capturing बोल कर।
मज़े की बात है कि यांत्रिक उपकरण के लूटने की आरंभिक घटनाएं खुद गुजरात राज्य से ही आयी हुई हैं, जहां की भाजपा का ही वर्चस्व और शाशन हुआ करता था।।
तो,यानी केंद्र की राजनीति में भाजपा evm के विरुद्ध किताब लिखती थी, जिसके प्रस्तावना लेख खुद लाल कृष्ण आडवाणी जी लिखते थे, और गुजरात राज्य में शायद उसी पार्टी के स्थानीय यूनिट evm आरोप को सच साबित करने के लिए मेहनत करते थे !!
पहला दिलचस्प मोड़ 2012 में आया जब सुब्रमनियम स्वामी नामक व्यक्तिगत आरोप कर्ता जी ने कोर्ट में evm मशीन की लूटे जाने की संवेदनशीलता को साबित कर दिया की यह बिल्कुल सम्भव है। उन्होंने बताया की बटन दबाने पर वास्तव में वोट किस उम्मीदवार के खाते में दर्ज हुआ है, यह प्रत्यक्ष करना नामुमकिन है, इसलिये यह उपकरण विश्वसनीय नही हो सकता है, अतः इसके प्रयोग को अनुचित माना जाना चाहिए।
बरहाल, कोर्ट के भीतर शायद तब थोड़ी सी शर्म हुआ करती थी, सो उनकी बात को रख लिया गया, और वही से vvpat जैसे एक जुड़े उपकरण की कल्पना करि गयी की evm के साथ उसे भी रखना अनिवार्य होगा।
तो यह था evm के संदेह के प्रति प्रथम वाक्या- जो की evm skeptics ने जीत लिया था।
फिर evm पर 2014 लोकसभा चुनाव तथा उसके बाद और आरोप लगते रहे। चुनाव आयोग उन्हें 'तकनीकी गड़बड़' केह केह कर नकारता रहा है, जबकि तमाम वीडियो निकलते रहे की कैसे कैसे इस मशीन को कभी भीतरी सेटिंग से, तो कभी operation (यानी उपयोग) के दौरान मानव त्रुटियों के वजहों से गड़बड़ करि जा सकती है।
दो महत्वपूर्ण घटनाएं थीं, आंध्र प्रदेश के gkv प्रसाद करके एक अमुक यांत्रिकी वैज्ञानिक की, जिनका दावा था कि evm को उसके display plate पर नकली plate लगा करके आसानी से सेट किया जा सकता है।
दूसरा दावा था दिल्ली विधानसभा के भीतर mla श्री सौरभ भारद्वाज का, की चिप के प्रोग्राम में setting करके न सिर्फ किसी भी test के दौरान चकमा दिया जा सकता है, बल्कि वोटों को इधर से उधर भी किया जा सकता है, बिना total को गड़बड़ किये !
चुनाव आयोग ने बचाव में यह दलील रखी थी की यह किसी को नही पता होता है की किस बटन पर कौन से उम्मीदवार का नाम लिखा जायेगा, इसलिये यह गड़बड़ नही करि जा सकती है। इसको randomisation केह कर बुलाया गया। चुनाव आयोग ने यह माना था कि evm मशीन में किसी भी भीतरीघात को रोकने की वजहों से वह खुद भी evm चिप के software code को न तो जानता है, और न ही सार्वजनिक करेगा। उसके अनुसार evm को निर्विघ्न करने के गुण software code में ही नही, बल्कि उपयोग के प्रबंधन में भी जुड़े हुए हैं की randomisation तथा अंतिम-पग की testing से किसी भी भीतरी घात को रोक सकने के अतिरिक्त प्रयास किये गये हैं, हालांकि यह सब कुछ 100% शुद्ध नही हैं। चुनाव आयोग के अनुसार किसी भी संभावित setting के लिए मार्ग में पड़ने वाली बड़ी बाधाएं ही evm की इमानदारी का सूबा थी , जबकि पूर्णतः विश्वसनीय तरीका तो कुछ भी अन्य नही था, vvpat के अलावा। बल्कि vvpat को जोड़ा जाना भी पूर्णतः 100% विशुद्ध नही था, क्योंकि तत्कालीन आरोप के अनुसार chip पर लिखे हुए गुप्त code की मदद से vvpat पर पर्ची कुछ और, तथा मशीन की memory में कुछ और वोट दर्ज कर सकना सम्भव था। चुनाव आयोग इस आरोप को खारिज़ कर देता था यह केह कर की यह बहोत दूर की कौड़ी थी, जो कि करने के लिये बहोत सारे संसाधन एकत्र करे बिना संभव नही था, और कि जिसके दौरान पकड़े जाना बनता है।
तो, फिर कोर्ट में vvpat का जोड़ा जाना एक अतिरिक्त अच्छा उपाय मान लिया गया, और अनिवार्य बना दिया गया। लोगों ने फिर से आरोप लगाये कि कई जगह vvpat ने दिखाया है की पर्ची भी केवल भाजपा के मत वाली छपी थी। इसमे मध्य प्रदेश में घटी घटना महत्वपूर्ण थी। तो अब लोगों को दिखने लगा था की , पहले, की evm की कोई भी बटन दबाने के बावजूद लाल बत्ती सिर्फ भाजपा के उम्मीदवार की जलती थी, और दूसरा, की vvpat भी सिर्फ भाजपा के उम्मीदवार की ही पर्ची छापती थी।
चुनाव आयोग ने यह सब ताकीनकि गड़बड़ करार दे दिया, या फिर की मानव त्रुटि, मशीन को test के उपरान्त reset करना भूल जाने की वजहों से हुए नतीज़े।
देखा जाये तो यह दूसरा round भी evm sceptics ही जीत ले गये थे। वीडियो में साफ साफ दिख रहा था कि पर्ची भी भाजपा के पक्ष में ही छप रही थी। यानी vvpat में भी सेंघ मारी सम्भव थी, यदि चुनाव आयोग के लोगों से मिलीभगत कर ली जाये तो।
महाराष्ट्र में कई जगहों पर zero वोट वाले वाकये भी उभरे , जब उम्मीदवार ने दावा किया की उसके परिवार ने तो कम से कम उसे ही वोट दिया था, तब फिर कैसे ज़ीरो वोट आये। चुनाव आयोग इस दावे को मात्र खिल्ली उड़ा कर ही खारिज़ कर देता था कि उस उम्मीदवार के परिवार वाले उसे ही झूठ बोल रहे हैं !!
इस वाकये से संदेह बढ़ता था, हालांकि evm setting की पद्धति पर अभेद तरीके से गड़बड़ पकड़ सकना सम्भव नही बनाता था। यहाँ से लोगों को समझ आने लगा कि शायद केवल कुछ-एक प्रतिशत मशीनों को ही set किया गया है, जबकि बाकियों को बक्श दिया गया है। ऐसा कर देने से setting करने वालों को आड़ मिल सकेगी ,जब आरोप कर्ताओं को साबित करना मुश्किल होने लगेगा की कौन सी वाली मशीन को वह नमूने के तौर पर ले अपने आरोप को साबित करने के परीक्षण के लिए।
यह तर्क असल में दमदार थे, हालांकि चुनाव आयोग इसे अपने सरकारी शक्ति के घमंड के चलते अनदेखा करता रहा है। क्या गारंटी थी कि 100% सभी मशीने चुनाव आयोग के मानक के अनुसार बनी थी, कहीं कोई सेंघ मारी नही हुई है? इतने बड़े देश में, जिसका भूगौलिक विस्तार इतना विशाल है, जहां जनसंख्या अरबों लोगों की है, और जहां लाखों मशीने प्रयोग करि जाती है, कितनों ही चरण में किये गये चुनावों के दौरान, तो 100% मशीनों में वह यांत्रिक गड़बड़ को पकड़ना और प्रत्यक्ष करने का एकमात्र भरोसे लायक विधि तो केवल यही है की इसको न ही प्रयोग करो !!
चुनाव आयोग अपनी मशीन के घमंड में चूर चूर हुआ, वापस ballot या फिर किसी भी mechanical voting उपकरण पर उतरने को तैयार नही था। उसका तर्क था की इससे नतीज़े जल्दी मिलते थे, समय बचता था और बूथ capturing रोकने में मदद मिलती है।
तो यह एक हल्का फुल्का round भी evm sceptics ने जीता था। विदेशों में ज्यादातर paper ballot को ही उपयोग किया जाता था, बूथ capturing को आधुनिक mobile phone और , cctv, live news tv के युग में अन्य तरीकों से आसानी से पकड़ा जा सकता था, और जहां तक समय बचाने की बात थी, तो आज कल जितने चरण में।चुनाव होते हैं भारत में, इसमे ज्यादा धन और समय जाया हो जा रहा था !
जाहिर है कि नौकरशाहों की अखण्ड पीठ बन चुका चुनाव आयोग अब भारत के लोकतंत्र पर शंकराचार्य बनने का इच्छुक हो चुका है। वह अपनी कमियों को कदाचित स्वीकार करने वाला नही है, बल्कि कुछ न कुछ मूरखियत वाले सवाल उठा कर ball दूसरे के पाले में फेंक दे रहा है।
अब सबसे हाल का कांड है खुद एक ias सेवा से त्यागपत्र दे कर आये अधिकारी का, जिन्होंने पोलपट्टी खोल दी है कि vvpat को evm से जोड़ने के दौरान randomisation की दीवार भी असल में सुराख करि जा सकती है, और जो की चुनाव आयोग अनदेखा कर रहा है।

निजीकरण से प्रजातंत्र खत्म नहीं होते हैं, बल्कि सशक्त होते हैं


यहां पर मैं असहमत हूँ तबरेज़ भाई, की निजीकरण कर देने से प्रजातंत्र खत्म हो जायेगा ! मेरा मानना है की निजिकरण की वास्तविक पहचान होती है बाज़ारीकरण , और प्रजातंत्र सशक्त होता है जब नागरिक खुद अपने हाथों में आर्थिक स्वतंत्रता के स्रोत को थाम लेता है, और बाज़ार की स्पर्धा में रहते हुए नित नये प्रयोग, नये अन्वेषण करता है।
यह जो "देश के चंद पूंजीपति" वाला मामला है, यह तो एक नियति और नतीज़ा है, हमारे आजतक के समाजवाद वाले सरकारीकरण का !! नौकरशाहों से मिलिभागति करके कुछ व्यपारिक जातियां (समुदाय) व्यापार करने में आगे निकल गये भ्रष्टाचार के भारोसे, और पिछड़ी और दलित जातियां आरक्षण की लालच में फंस कर के upsc की नौकरी की चाहत में सरकारीकरण का बचाव करते है। उनको सरकारीकरण में आरक्षण के मावे से सजी हुई खीर दिखती है, समाज की परोसा जा रहा भ्रष्टाचार का ज़हर नही दिखता है।
'चंद पूंजीवादियों' का समाज में जन्म ऐसे ही हुआ है, जिनको आज हम भलाबुरा बताते हैं।
नौकरशाही एक खुल्ला आमंत्रण है नाकलबियत को समाज का शासक बनने का, और भ्रष्टाचार की दीमक बन कर राष्ट्रीय खजाने को चाट जाने का, बिना भय और रोकटोक के । पूंजीवाद के जन्म भी सरकारीकरण में से ही होता है।
प्रजातंत्र का वास्तविक सार बाज़ारवाद में है, और बाज़ारवाद का सार है निजीकरण में।
बल्कि अगर कोई एक खास पहचान प्रजातंत्र की कुछ है, तो वह यही है :- निजी संपत्ति का अधिकार ! Right to property । जब आप निजी संपत्ति को जन्म लेने देने के ही पक्षधर नही हैं, तो फिर आपका प्रजातंत्र आखिर किस बात है ? वोट देने भर का,? ताकि कौन व्यक्ति सरकारी बाबुओं का boss बना मिलिभागति में भ्रष्टाचार करके खायेगा?

निजीकरण और सरकारीकरण शब्द मेरी आपत्ति

दो शब्दों के चिंतन विहीन प्रयोग के प्रति मैं अपनी आपत्ति दर्ज कराना चाहता हूँ।
एक है, निजीकरण।
इसके प्रयोग से हम जिस विचार के अवरोधित कर रहे हैं, वह है बाज़ारवाद। और दिक्कत यह है की बाज़ारवाद में ही छिपा है प्रजातंत्र का सार - right to private property।
और दूसरा शब्द है सरकारीकरण, यानी nationalisation। इसके लिये उचित शब्द है समाजवाद , यानी अपने निजी संपत्ति और अन्य मौलिक अधिकार किसी मध्यस्थ संस्था को सौंप कर फिर आजीवन उससे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहना। यह परम मूर्खता है।

भारत मे शब्दवाली में बहोत लोचा है।
जो खुद को समाजवादी बोलते है, वह वास्तव में समाजवादी हैं नही,
और जिसे हम सरकारीकरण बुलाते है, अकादमी ज्ञान के अनुसार वही समाजवाद कहलाना चाहिए !
तो, जो -जो है, वो- वो नही है है,
और जो- वो नही है, वही- तो वो है!!
😁😁😁

क्यों पिछड़ा और दलित वर्ग ही निजीकरण (बाज़ारीकरण) का विरोधी वर्ग होता है ?

आम भारतीय जनता अभी भी अर्थव्यस्था और उसके मापने के तरीकों को जनती समझती नही है।

 अर्थव्यस्था शब्द के नाम पर एक आम भारतीय कुछ भी नही सोचता है।

पिछड़ा और दलित वर्ग "आर्थिक अंश" शब्द तक ही सोचता है, और फिर स्वतः आरक्षण नीति तक बातें पहुंचा देता है। दलित पिछड़ा वर्ग स्वभाव से ही "समाजवादी" अर्थशास्त्र नीति का होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह वर्ग गाँव में अधिक बस्ता है , शहरों की बजाये। और इस वर्ग के जो कुछ थोड़े बहोत लोग शहरों में हैं, वह नौकरी पेशे वाले ही है, उसमे भी अधिकांश तो सरकारी नौकरी में, आरक्षण नीति की सुविधा के चलते। तो कुल मिला कर यह वर्ग व्यापारिक उद्यम कर सकने वाला वर्ग नही है। इसलिए यह वर्ग ऐसा स्वतः ही सोचता है की पूरी दुनिया के आर्थिक चक्के को वैसा ही चलाया जाता है जैसा की उनके गांव में पंचायत सभा गाँव की सड़कों, अस्पताल और स्कूल चलवाती है, ट्यूबवेल के पम्प लगवाती है।

तो यह वर्ग जैसा अपने गाँव में देखता हुआ आया है, वह यही सोचता-समझता है की बड़ी दुनिया में भी बस वही होता है अर्थव्यवस्था के नाम पर , बस थोड़ा से बड़े आकार में।
इसलिए ही यह वर्ग निजीकरण का भी विरोधी है। मोदी जी को मालूम है की वास्तव में इस वर्ग को अर्थव्यवस्था की चिंता होती ही नही है 😋😉, क्योंकि वह तो वैसे भी दिन भर "upsc की तैयारी" करके किसी UPSC-छाप IAS बन कर उद्योग का chairman बनने तक की ही सोचता है। इस वर्ग के UPSC-छाप छात्र किसी बड़े निजी उद्योग स्वामी के दिये बयानों से ही अर्थव्यवस्था को बूझते है।
जिसमे की कोई ज्यादा दिलचस्पी लेने वाला है नही।

और इन निजी उद्योग स्वामियों की मुश्किल यह है की यह खुद भी अपना धन उन्ही मोदी जी की पार्टी को प्रसार करने के लिए ही दान-खर्च करने वाले हैं, क्योंकि UPSC-छाप "समाजवादी" IAS  को वह अपना पुश्तों का बसाया उद्योग नही सौंप देना चाहेंगे।
तो उद्योगपति भले ही मोदी जी के काल में अर्थव्यवस्था की कमियों पर बयान दे लें, मगर अंत में चुनाव वाले दिन उनको अपना वोट भी मोदी जी को देने जाना है।

ठीक वैसे जैसे "समाजवादी" विचारधारा के लोगों को अर्थव्यवस्था के हालात बुझाई नही पड़ते हैं। वह भले ही उद्योगपति की कही-सुनी बातों से अर्थव्यवस्था पर अफ़सोस जाता लें, विपक्ष में रहते हुए, मगर सत्ता में आने पर नौकरी विषयों में अधिक दिलचस्पी रखते है, उद्योगों में न तो इनके लोग है , न ही इनकी अभिरुचि।

क्यों भारत का प्रजातंत्र बारबार समाजवाद की ओर मोड़ ले लेता है ?

ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारा प्रजातंत्र बारबार समाजवाद की ओर मोड़ ले ले रहा है, जो कि मार्ग किसी भी प्रशासन को निश्चित तौर पर सामन्तवाद और नौकरशाही की ओर ही ले जाता है ?

आज जब बैंकों का निजीकरण भी शुरू होने लगा है और खाताधारकों के जमाधन पर बाज़ार का जोख़िम मंडराने लगा है, तब ऐसे हालात में एक सवाल यह भी है की आखिर सरकार की मंशा क्या है? और वह मंशा आ कहां से रही है?

भले ही यह दोनों सवाल अलग विषय बिंदु में से उभरते हुए दिखते हों, मगर इन दोनों सवालों का जवाब शायद एक ही है और जो की भारत के समाज को समझना या चिंतन करना ज़रूरी हो गया है।

दोनों सवाल के मूल में से एक अन्य सवाल निकलता है जो की दर्शनशास्त्र से अधिक वास्ता रखता है। सवाल है की आखिर प्रजातंत्र होता क्या है?
(बस , यह समरण रहे की जब आप प्रजातंत्र विषयवस्तु पर दार्शनिक हदों तक चिंतन करें तब यह भी सोचते रहें की दर्शन का अर्थ आध्यात्मिक चिंतन नही होता है, बल्कि किसी भी विषय पर मूल तत्व तक जा कर चिंतन करना होता है। दर्शन हदों तक चिंतन करने के लिए आवश्यक हो जाता है तुलनात्मक अध्ययन करें, जिसमे संग्रह का निर्माण करना पड़ता है की किन-किन अन्य तरीकों से उस एक विषय को परख किया जा चुका है। )

मुझे यह घनघोर शंका है कि हमारी भारत सरकार के पास यह सब अनूठे-अनूठे हरकतें करने की युक्ति पश्चिमी संस्कृति से आये सलाहकारों से आ रही है।
और मुझे यह शक इसलिये हो रहा है क्योंकि पश्चिमी संस्कृति में ही प्रजातंत्र का अभिप्राय "बाज़ारवाद" की दृष्टि से देखा और समझा गया है, न की पूर्वी संस्कृति में। पूर्वी संस्कृति में प्रजातंत्र का अभिप्राय जिस तरीके से बारबार समाजवाद की ओर मुड़ रहा है, उसी से यह पता चलता है की पूर्वी संस्कृति में प्रजातंत्र को जो कुछ भी समझते हों, मगर वह कम-से-कम यह तो निश्चित है की "बाज़ारवाद" नही है।

एक सवाल यह बाद में टटोलेंगे की क्या हमे प्रजातंत्र को बाज़ारवाद की  नज़रो से समझना चाहिए? क्या यही सही तरीका है? या, क्या कुछ और भी विकल्प है प्रजातंत्र को बूझने का?

पहले हम यह टटोल लेते हैं की आखिर हम प्रजातंत्र को किस अन्य तरीके से बूझ रहें है, पश्चिमी संस्कृति वाले "बाज़ारवाद" के अन्य विकल्प में।
दरअसल हम भारतीय लोगों के संग हो क्या रहा है कि जब भी दार्शनिक धरातल पर यह सवाल हमारे सामने आ रहा है की प्रजातंत्र की असीम स्वतंत्रता और स्वेच्छा-सर्वशक्तिमान  के प्रभाव में यदि हर एक को आज़ादी मिल जायेगी तब जो हर एक कोई अपनी-अपनी मनमर्ज़ी से हरकतें करेगा और फिर आपसी झगड़े होंगे, तब उसका समाधान कैसे किया जायेगा? यहाँ हमारा जवाब स्वतः हमारे सांस्कृतिक दर्शन में से प्रभावित होकर निकल रहा है कि हमें "सरकार" नामक एक सामाजिक संस्थान बीच में बैठानी पड़ेगी जो की दो लोगों के बीच हर-एक की मनमर्ज़ी के प्रभाव क्षेत्र को कम करेगी , छटनी करेगी और समाज में शांति-व्यवस्था, law and order स्थापित करेगी।

तो , हम भारतीय नस्ल के लोग प्रजातंत्र के core सवाल पर आ कर जो अपने सांस्कृतिक दार्शन में से उत्तर निकालते है, वही से हम "सरकार" को मूलतः समझते हैं ,और जाने-अनजाने में हमारा प्रजातंत्र बारबार "सरकारी समाजवाद" की राह पर निकल पड़ता है। हम भारतीय लोग 'सरकार' को अपने गांव की पंचायत की तरह बूझते हैं।

मगर मैंने बताया ने, कि दर्शनशास्त्र का मूल गुण यह नही है कि विषयवस्तु पर आध्यात्मिक चिंतन करना, बल्कि संग्रह करना होता है, ताकि तुलनात्मक अध्ययन हो सके।

तो बड़ी जानकारी वाला ज्ञान यह है कि पश्चिमी संस्कृति में इस एक सवाल पर दूसरा जवाब बनता है।

यानी, यदि दो व्यक्तियों का स्वतंत्रता क्षेत्र(अपनी अपनी मनमर्जी का प्रभाव क्षेत्र) आपस में टकरायेगा तब उसको कैसे शंतिव्यवस्था क़ायम किया जाये, इस सवाल पर पश्चिमी सभ्यता "सरकार" नाम की सामाजिक संस्था का अविष्कार नही होने देती है। पश्चिमी संस्कृति के अनुसार तब दोनों ही व्यक्तियों को आपस में मिल करके शांति व्यवस्था के मद्देनज़र सुलह करनी होगी, बीच में कोई अन्य "पंचायत बैठने वाली भूमिका"  में कोई भी अन्य नही आने वाला है- यानी की "सरकार" नामक संस्था का अविष्कार नही कर दिया जायेगा !!!!!!!!

!!!

तो फिर पश्चिमी संस्कृति में "सरकार" नामक सामाजिक संस्थान का अविष्कार कहां और किस स्थान पर किया गया है?
पश्चिमी संस्कृति के अनुसार "सरकार" नामक सामाजिक संस्था की भूमिका यह नही है की वह दो व्यक्तियों के अपने-अपने मनमर्ज़ी के प्रभाव क्षेत्र को कम करे, छटनी-कटनी करे, बल्कि यह है कि "दो व्यक्ति खुद से ही आपसी समझौते में  अपने मनमर्ज़ी प्रभाव क्षेत्र को जो कुछ सीमाबद्ध करें , उसके पालन का स्मरण करवाये"।

तो उनके अनुसार "सरकार " के पास अपनी कोई शक्ति नही है, यानी कोई न्यायायिक शक्ति नही होती है। वह महज़ एक क्लर्क है, जिसका काम स्मरण करवाना ही है, बाकी तय करने का कार्य तो जनता का ही है, न्याय की मूल शक्ति जन शक्ति और जन चैतन्य (public conscience) के पास में है।

पश्चिमी संस्कृति में ऐसा करने से दोनों ही व्यक्ति शक्तिविहीन किसी भी पल नही किये जाते हैं, बल्कि आपसी संघर्ष के तानेबाने में सदैव ही उलझते रहते है, नित नये विषयों पर, बल्कि पुराने विषयों पर भी, और नये नये कोंण से !!!! और सरकार का उत्तरदायित्व होता है उनको उनके आपसी समझौतों के अनुसार शंतिव्यवस्था के मद्देनज़र आपसी संघर्ष से अलग करना।

पश्चिमी संस्कृति के मूल दर्शन में 'सरकार' के पास न्याय शक्ति नही है, महज़ "executive" शक्ति है, यानी स्मरण करने का कार्य पूर्ण करने भर। न्याय शक्ति को जनता में , हर एक इंसान तक में रख छोड़ा है। (हालांकि अभी यह सब दार्शनिक धरातल पर है)

भारतीय संस्कृति के दर्शन के अनुसार 'सरकार' ही पंचायती शक्ति यानी न्याय शक्ति की भी पीठ होती है।
तो हम अपने मूल चिंतन में ही executive और judiciary को अलग करते नही है। और व्यवहारिकता में भी भारत में न्यायपालिका की संरचना में वह सरकार का एक extended अंग ही है।

मेरे अनुसार बैंकों में निजीकरण करने की पीछे सरकार के सलाहकारों की मंशा जो भी हो, मगर दिशा यह है कि वह बैंकिंग क्षेत्र से समाजवाद को खत्म करने बाज़ारवाद को लाना चाहते है। बाज़ारवाद और प्रजातंत्र का मेल पश्चिमी संस्कृति की देन है, न कि भारतीय संस्कृति की।

हालांकि प्रजातंत्र को वास्तविक सफलता में लाने का उचित तरीका बाज़ारवाद ही है, न की समाजवाद ! मगर यह किसी दूसरे लेख में चर्चा करेंगे, कभी और।

भारत मे सामाजिक व्यापारिक कंपनियों का बाज़ारीकरण...आखिर कौन हो सकते हैं सरकार के सलाहकार?

जिस हिसाब से सरकारी उद्योगों का बाज़ारीकरण (निजी करण ) किया जा रहा है, , बगैर नौकरशाही को सीमित किये, और उपभोक्ता जागरण (नागरिकों की अभिलाषा) को बिना प्राप्त किये और पर्याप्त संरक्षण (नागरिकों की शंकाओं का समाधान) दिये,

तो,
कभी कभी लगता है कि सरकार के सलाहकार में विदेशों से पढ़ कर कर आये बड़े बापों की बिगड़ी औलादें आ गयी है, जो की भारत के अंदर और विदेशों की व्यवस्था का अंतर समझे बिना ही सिर्फ rhetoric सवाल पूछ-पूछ कर अपना business interest आगे बढ़ा ले रहें है कि "भारत में ऐसा क्यों नही हो सकता है ? भारत में ऐसा क्यों होता है?"
और फिर सवालों के जवाबों से बेख़बर सरकारी बाबू, अपने मंत्री साहेब की चमचागिरी के दबाव में वैसा का वैसा ही कर दे रहा है।

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नौकरशाही की चारित्रिक पहचान क्या होती है?

भले ही आप उन्हें सूट ,टाई और चमकते बूटों  में देख कर चंकचौध हो जाते हो, और उनकी प्रवेश परीक्षा की कठिनता के चलते आप पहले से ही उनके प्रति नत...

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