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Showing posts from October, 2019

Clericalism destroys Secularism and dominates its way over the society by bringing Stupidity in the Public governance system

Indian Democracy is SANS Secularism  which is why it is not succeeding. To adopt Secularism, we must identify what is Clericalism from the nature of it. We must understand how the Clericalism works in the Indian society and the (Indian) public services , and what errors it generates which bring failures to our society . Both, hindu and the Hindutva , they try to encorach upon the rational thinking .  What is rational thinking that they encroach upon ? Rational thinking is a cause-ascertaining way of analysing the issues and problems around us , and finding their cure or the solution. Whether a suggested /nominated cause of a problem is the appropriate root or not, is best determined by allowing the nomination to pass through various criticism, by the believers as well as the non-believers , the theist and the atheist. You don't dismiss a criticism by disqualifying the critic by character assassinating him, no matter his character has genuine faults or merely the alleged ones.

भारत की अगाध गरीबी के कारक यह है ही नही की अर्थशास्त्र नीतियां गलत हैं , बल्कि यह है की नौकरशाही उचित प्रदान नहीं कराइ गयी है किसी भी अर्थ नीति को लागू करने के लिए

भारत की ज़रूरत अर्थशास्त्री नही है। क्योंकि भारत की अगाध गरीबी के कारक यह है ही नही की अर्थशास्त्र नीतियां एक के बाद एक गलत हो रही हैं। बक्लि कारण है की यहाँ एक ऐसी चूहा जैसी नौकरशाही बैठी हुई है जो अच्छे से अच्छे अर्थशास्त्रीय प्रबंध में छेद करके अनाज (अथवा जनहित सेवा योजना)को 'खा' जाती है। और दुर्भाग्य यह है की जन प्रशासन विज्ञान में कोई नोबेल प्राइज़ नही है सिद्धांतों की नींव डालने के लिए, जो नौकरशाही को काबू में ला सके ।

Democracy cannot succeed if it is not genuinely implemented. Then, If your fake democracy is failing, please dont blame the system of Democracy.

I have a feeling, that, the economic systems are designed such as to give their best only when working with the associated political and the legal systems that are genuinely democratic by nature. It may not be possible to eradicate poverty, to cure epidemic diseases , to provide gainful employment , the social security , the happiness , etc to the people unless the public governance systems are genuinely democratic by their nature . Coercion, whether by state authorities , or by any other means , is sure to bring failures in the economy.

भारत की नौकरशाही-- भारत की तमाम मुश्किलों की असल जड़

भारत की समस्याओं का जड़ अच्छी अर्थनीति की कमी नही है, बल्कि तमाम नीतियों की implementability है। इस जड़ को पैदा करने वाली और संरक्षण देने वाली जननी माता है -- भारत की नौकरशाही; जो की अपना स्थान, और शक्ति प्राप्त करती है खुद भारत के संविधान से, UPSC नाम संवैधानिक संस्थान से। बात को दोहराते हुए एक बार फ़िर मुआयना करते हैं कि कहां क्या गलतियां हुईं आज़ादी के बाद हमारे देश के प्रशासन तंत्र में। सर्वप्रथम यह कि प्रजातंत्र, और तमाम अन्य किस्म की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं को हमारे तत्कालीन "बुद्धिजीवियों" ने सही से समझा ही नही। इसमें ग़लत हुआ है, हालांकि उनकी ग़लती नही कही जा सकती है। कारण- की सब ही प्रत्यय हमारे यहां पर आयात करके लाये गए हैं, यहां भारत के अपने सामाजिक और आर्थिक इतिहास की धरोहर कम ही हैं आधुनिक भारत के प्रशासन को चलाने में सहायक किसी भी पाठ को रचने के लिए; और न ही हमारे इतिहास ने हमारे पास विकल्प दिया कि हम कुछ अन्य को प्रयोग करके तसल्ली कर सकें। (अब यह कटुसत्य वचन पढ़ कर हो सकता है कि आप में से बहुतों को खराब लगेगा, मगर सत्य को नतमस्तक हो कर स्वीकार करना ही सर्वप

अग्रिम और पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण, और अध्ययन मेरे अनुसार

अगर 16वीं शताब्दी के पर्यान्त समुदायों (जो की 'जाति' से संबंधित एक अन्य पर्यायवाची नाम ही होता है) के बीच आर्थिक संसाधनों के बटवारे को समझे तब सबसे प्रथम हमे दो वर्गों को चिन्हित करके काम को आगे बढ़ाना होगा। दो प्रमुख वर्ग थे - उद्योगिक श्रम (Industrious) वाले समुदाये , और कृषक श्रम(Pastoral) वाले समुदाये। 16वीं शताब्दी के बाद में अग्रिम समुदाये वह हैं जो की 'उद्योगिक श्रम' करते थे।इससे पहले 'कृषक श्रम' वाले समुदाये अधिक समृद्ध और राजनैतिक बलवान हुआ करते थे। 16वी शताब्दी मानक इसलिये बनी क्योंकि यहां से ही steam engine बना, जो की निरंतर, अथक श्रम का प्रथम संसाधन था मानव इतिहास में, और जहां से professionals ने बढ़त बना ली युद्धक और कृषक लोगों से। यहां से ही factorइया बनी, और फिर उद्योग बने। जमीन का प्रयोग वह विषय था जहां से बदलाव ने असर दिखाया था। उद्योग आ जाने से जमीन का छोटा अंश, यदि वह उद्योग में है तो फिर अधिक उत्पादन शील हो गया, किसानी और पशु पालन के मुकाबले। दूसरा की उद्योगी आदमी को किसी एक स्थान पर बंधना मुश्किल था, क्योंकि जहां बाज़ार में saturation

ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारा प्रजातंत्र बारबार समाजवाद की ओर मोड़ ले ले रहा है ??

ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारा प्रजातंत्र बारबार समाजवाद की ओर मोड़ ले ले रहा है, जो कि मार्ग किसी भी प्रशासन को निश्चित तौर पर सामन्तवाद और नौकरशाही की ओर ही ले जाता है ? आज जब बैंकों का निजीकरण भी शुरू होने लगा है और खाताधारकों के जमाधन पर बाज़ार का जोख़िम मंडराने लगा है, तब ऐसे हालात में एक सवाल यह भी है की आखिर सरकार की मंशा क्या है? और वह मंशा आ कहां से रही है? भले ही यह दोनों सवाल अलग विषय बिंदु में से उभरते हुए दिखते हों, मगर इन दोनों सवालों का जवाब शायद एक ही है और जो की भारत के समाज को समझना या चिंतन करना ज़रूरी हो गया है। दोनों सवाल के मूल में से एक अन्य सवाल निकलता है जो की दर्शनशास्त्र से अधिक वास्ता रखता है। सवाल है की आखिर प्रजातंत्र होता क्या है? (बस , यह समरण रहे की जब आप प्रजातंत्र विषयवस्तु पर दार्शनिक हदों तक चिंतन करें तब यह भी सोचते रहें की दर्शन का अर्थ आध्यात्मिक चिंतन नही होता है, बल्कि किसी भी विषय पर मूल तत्व तक जा कर चिंतन करना होता है। दर्शन हदों तक चिंतन करने के लिए आवश्यक हो जाता है तुलनात्मक अध्ययन करें, जिसमे संग्रह का निर्माण करना पड़ता है की किन-कि

नौकरशाही का जो चलन हमारे देश में है,उससे काल्पनिक देश utopia को भी नरक बना देंगे

अपने पेशे से मैं एक professional हूँ, लोकसेवा दार यानी public servant नही हूँ। अब इन दोनों शब्दों के अभिप्रायों में क्या अंतर है, और उस अंतर का क्या प्रभाव होते है, इनको जानने समझने के लिए आपको आर्थिक इतिहास पढ़ना पड़ेगा।।वह भी विश्व आर्थिक इतिहास, न की भारत का। भारत का आर्थिक इतिहास मात्र economic drain की दास्तां है, इसमें यह सबक है ही नही की अच्छे , समृद्ध देश आखिर बने कहां से, कैसे? और किताबों में पढ़ा जा रहा भारत का इतिहास , सामाजिक और राजनैतिक इतिहास एक सामाजिक स्तर का मनो रोग बन चुका है, जिससे समाज में हिंसा और महामूर्खता मनोचिकितसिय बीमारी फैल रही है epidemic स्तर पर। professional क्षेत्र रहते हुए मैंने अपने ही लोगों के इतिहास को देखा और खोज किया है। यह जानते और बूझते मुझे थोड़ा समय लगा गया की कैसे हम नौकरशाही के नियंत्रक होने चाहिये थे अगर भारत को समृद्ध देश बनाना था, और कैसे आज, उल्टे, हम उनके सेवक बन कर clerk स्तर की जी-हजूरी करने लगे हैं। तो आर्थिक इतिहास के पाठ से मिले सबक में मैं यह तसल्ली कर चुका हूँ कि नौकरशाही का जो चलन हमारे देश में है, उससे हम atlantic महास

The Indian mechanism of practising the democracy is actually Bureaucratism

We must first compare the MECHANISM OF DEMOCRACY BASED PUBLIC ADMIN MACHINERY of the countries. Once we do that, the greatest discovery will be that since 1947, we are actually practising Socialism, which is a primitve of the evil systems of Feudalism ! We will see that we have been rearing the serpants of Corruption, crony CAPITALISM , modern forms of Discriminations (by way of VVIP Culture) , ..through our Bureaucracy ..!

अर्थनीति का मतलब स्टॉक मार्किट और sensex नहीं होता है

काफ़ी सारे लोग stock markets को ही economy समझते हैं। खास तौर पर पीयूष गोयल जैसे मुम्बई निवासी लोग। इनके अनुसार यदि sensex बढ़ रहा है, तो मतलब की economy दुरुस्त है। यह लोग Economy का संदर्भ सामाजिक कठनाइयों के निवारण से नहीं जोड़ते हैं, कि लोगों की जिदंगी आसान हुई है या नही एक स्वतंत्रत जीवन जीने के लिये, अपनी इच्छाओ के अनुसार। अमेरिकी दार्शनिकों ने आज से 250 वर्षों पहले ही समझ लिया था कि प्रजातांत्रिक स्वतंत्रता का निवास आर्थिक स्वतंत्रता के मार्ग पर बनेगा। अगर इंसान को आर्थ िक तौर पर ही कमज़ोर कर दिया जाएगा, तो वह गरीबी के दबाव में वह सब करने लगेगा - मज़दूरी, अपराध, बंधुओं की तरह नौकरियां- जो कि समाज मे से सभी स्वतंत्रता को यूं पल में वाष्प बना कर उड़ा देगी जैसे तराश में पड़ा पेट्रोल खुद ब खुद गायब हो जाता है। इसलिए अमेरिकी दार्शनिकों ने तब ही अमेरिकी declaration of Independence में आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में दर्ज कर दिया था, और कहा था कि अत्यधिक टैक्स या अत्याधिक महंगाई के आगमन को नागरिक स्वतंत्रता पर हमला माना जायेगा। इधर जहां हमारे right wing वाले हमारे देश के सब कुछ व्या

सभ्यताओं का अंतर और प्रजातंत्र लागू करने का तरीका

किसी भी नाविक से पूछिए, वह आपको बता देगा कि दुनिया के गोल होने की वजह से धरती के दोनों गोलार्ध के लोग प्रतिपल एक दूसरे के विपरीत हालात के दर्शन कर रहे होते हैं। एक गोलार्ध में दिन होता है, तो दूसरे में रात। यह कभी भी सम्भव नही की पूरी धरती एक साथ एक जैसे ही दर्शन ले। यही है सभ्यताओं के अंतर। सभ्यताएं इंसानो के भीतर में अपने जो गुण छोड़ती हैं, भोजन, भाषा और पहनावे के माध्यम से, उसे संस्कृति बुलाया जाता है। प्रजातंत्र के प्रति इसके उच्चारण और इसको लागू करने में दो अलग सभ्यताओं की संस्कृति के प्रभावों के चलते अलग अलग तरीके विकसित हुए। इन अन्तर के चलते ही कही पर तो प्रजातंत्र व्यवस्था अधिक सफल बनी, और कहीं पर "स्थानीयकरण" के प्रभावों में एक "खिचड़ी" बन कर समाज को वापस अन्धकारयुग में ले जाने वाली व्यवस्था बन गयी। प्रजातंत्र को पश्चिम में बाज़ारवाद यानि free market के प्रभावों में ही समझा गया है। वहां प्रजातंत्र के रखवाले खुद नागरिक ही होते हैं, जो कि नही चाहते हैं कि उसकी कमाई संपत्ति को राजा-महाराजा छेक ले। यहां भारत मे indianisation करके हमने socialism का पा

evm प्रकरण पर ताज़ा हालत और इसकी इतिहसिक पृष्टभूमि

Evm की कहानी को 1990 दशक के आरंभिक सालों से शुरू करते हैं। बिहार में लालू यादव की सरकार बनती थी तो आरोप लगते थे की booth capturing करके बन रही है। लालू की राजनीति जय प्रकाश आंदोलन के भीतर से निकली थी और आरक्षण नीति के इर्दगिर्द में थी। लालू चुनाव जीतने लगे तो जाहिर हैं कि उनके विरोधी सर्वणों ने आरोप जड़े की लालू बूथ capturing से जीते हैं। उनके कहने का आशय हुआ कि लालू के पास वरना इतने समर्थक नही है इस मुद्दे पर ! बरहाल, इस आरोप में से टी एन शेषन, एक मुख्य चुनाव आयुक्त ने , देश पर यांत्रिक चुनाव पद्धति की क्रांति लाने का अवसर खोज निकाला, और इतिहास के पन्नों पर खूब वाहवाही लूटी। धीरे धीरे यांत्रिक मतदान उपकरण पर तत्कालीन विपक्ष , यानी भाजपा, ने आरोप लगाना शुरू किया की इसे भी लूटा जा सकता है, जैसा की मतदान केंद्र को बिहार में लूट लिया जाया करता था, booth capturing बोल कर। मज़े की बात है कि यांत्रिक उपकरण के लूटने की आरंभिक घटनाएं खुद गुजरात राज्य से ही आयी हुई हैं, जहां की भाजपा का ही वर्चस्व और शाशन हुआ करता था।। तो,यानी केंद्र की राजनीति में भाजपा evm के विरुद्ध किताब लिखती थी, जिस

निजीकरण से प्रजातंत्र खत्म नहीं होते हैं, बल्कि सशक्त होते हैं

यहां पर मैं असहमत हूँ तबरेज़ भाई, की निजीकरण कर देने से प्रजातंत्र खत्म हो जायेगा ! मेरा मानना है की निजिकरण की वास्तविक पहचान होती है बाज़ारीकरण , और प्रजातंत्र सशक्त होता है जब नागरिक खुद अपने हाथों में आर्थिक स्वतंत्रता के स्रोत को थाम लेता है, और बाज़ार की स्पर्धा में रहते हुए नित नये प्रयोग, नये अन्वेषण करता है। यह जो "देश के चंद पूंजीपति" वाला मामला है, यह तो एक नियति और नतीज़ा है, हमारे आजतक के समाजवाद वाले सरकारीकरण का !! नौकरशाहों से मिलिभागति करके कुछ व्यपारिक जातियां (समुदाय) व्यापार करने में आगे निकल गये भ्रष्टाचार के भारोसे, और पिछड़ी और दलित जातियां आरक्षण की लालच में फंस कर के upsc की नौकरी की चाहत में सरकारीकरण का बचाव करते है। उनको सरकारीकरण में आरक्षण के मावे से सजी हुई खीर दिखती है, समाज की परोसा जा रहा भ्रष्टाचार का ज़हर नही दिखता है। 'चंद पूंजीवादियों' का समाज में जन्म ऐसे ही हुआ है, जिनको आज हम भलाबुरा बताते हैं। नौकरशाही एक खुल्ला आमंत्रण है नाकलबियत को समाज का शासक बनने का, और भ्रष्टाचार की दीमक बन कर राष्ट्रीय खजाने को चाट जाने का, बिना भय और

निजीकरण और सरकारीकरण शब्द मेरी आपत्ति

दो शब्दों के चिंतन विहीन प्रयोग के प्रति मैं अपनी आपत्ति दर्ज कराना चाहता हूँ। एक है, निजीकरण। इसके प्रयोग से हम जिस विचार के अवरोधित कर रहे हैं, वह है बाज़ारवाद। और दिक्कत यह है की बाज़ारवाद में ही छिपा है प्रजातंत्र का सार - right to private property। और दूसरा शब्द है सरकारीकरण, यानी nationalisation। इसके लिये उचित शब्द है समाजवाद , यानी अपने निजी संपत्ति और अन्य मौलिक अधिकार किसी मध्यस्थ संस्था को सौंप कर फिर आजीवन उससे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहना। यह परम मूर्खता है। भारत मे शब्दवाली में बहोत लोचा है। जो खुद को समाजवादी बोलते है, वह वास्तव में समाजवादी हैं नही, और जिसे हम सरकारीकरण बुलाते है, अकादमी ज्ञान के अनुसार वही समाजवाद कहलाना चाहिए ! तो, जो -जो है, वो- वो नही है है, और जो- वो नही है, वही- तो वो है!! 😁😁😁

क्यों पिछड़ा और दलित वर्ग ही निजीकरण (बाज़ारीकरण) का विरोधी वर्ग होता है ?

आम भारतीय जनता अभी भी अर्थव्यस्था और उसके मापने के तरीकों को जनती समझती नही है।  अर्थव्यस्था शब्द के नाम पर एक आम भारतीय कुछ भी नही सोचता है। पिछड़ा और दलित वर्ग "आर्थिक अंश" शब्द तक ही सोचता है, और फिर स्वतः आरक्षण नीति तक बातें पहुंचा देता है। दलित पिछड़ा वर्ग स्वभाव से ही "समाजवादी" अर्थशास्त्र नीति का होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह वर्ग गाँव में अधिक बस्ता है , शहरों की बजाये। और इस वर्ग के जो कुछ थोड़े बहोत लोग शहरों में हैं, वह नौकरी पेशे वाले ही है, उसमे भी अधिकांश तो सरकारी नौकरी में, आरक्षण नीति की सुविधा के चलते। तो कुल मिला कर यह वर्ग व्यापारिक उद्यम कर सकने वाला वर्ग नही है। इसलिए यह वर्ग ऐसा स्वतः ही सोचता है की पूरी दुनिया के आर्थिक चक्के को वैसा ही चलाया जाता है जैसा की उनके गांव में पंचायत सभा गाँव की सड़कों, अस्पताल और स्कूल चलवाती है, ट्यूबवेल के पम्प लगवाती है। तो यह वर्ग जैसा अपने गाँव में देखता हुआ आया है, वह यही सोचता-समझता है की बड़ी दुनिया में भी बस वही होता है अर्थव्यवस्था के नाम पर , बस थोड़ा से बड़े आकार में। इसलिए ही यह वर्ग निजीकरण का भी व

क्यों भारत का प्रजातंत्र बारबार समाजवाद की ओर मोड़ ले लेता है ?

ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारा प्रजातंत्र बारबार समाजवाद की ओर मोड़ ले ले रहा है, जो कि मार्ग किसी भी प्रशासन को निश्चित तौर पर सामन्तवाद और नौकरशाही की ओर ही ले जाता है ? आज जब बैंकों का निजीकरण भी शुरू होने लगा है और खाताधारकों के जमाधन पर बाज़ार का जोख़िम मंडराने लगा है, तब ऐसे हालात में एक सवाल यह भी है की आखिर सरकार की मंशा क्या है? और वह मंशा आ कहां से रही है? भले ही यह दोनों सवाल अलग विषय बिंदु में से उभरते हुए दिखते हों, मगर इन दोनों सवालों का जवाब शायद एक ही है और जो की भारत के समाज को समझना या चिंतन करना ज़रूरी हो गया है। दोनों सवाल के मूल में से एक अन्य सवाल निकलता है जो की दर्शनशास्त्र से अधिक वास्ता रखता है। सवाल है की आखिर प्रजातंत्र होता क्या है? (बस , यह समरण रहे की जब आप प्रजातंत्र विषयवस्तु पर दार्शनिक हदों तक चिंतन करें तब यह भी सोचते रहें की दर्शन का अर्थ आध्यात्मिक चिंतन नही होता है, बल्कि किसी भी विषय पर मूल तत्व तक जा कर चिंतन करना होता है। दर्शन हदों तक चिंतन करने के लिए आवश्यक हो जाता है तुलनात्मक अध्ययन करें, जिसमे संग्रह का निर्माण करना पड़ता है की किन-किन अन्य

भारत मे सामाजिक व्यापारिक कंपनियों का बाज़ारीकरण...आखिर कौन हो सकते हैं सरकार के सलाहकार?

जिस हिसाब से सरकारी उद्योगों का बाज़ारीकरण (निजी करण ) किया जा रहा है, , बगैर नौकरशाही को सीमित किये, और उपभोक्ता जागरण (नागरिकों की अभिलाषा) को बिना प्राप्त किये और पर्याप्त संरक्षण (नागरिकों की शंकाओं का समाधान) दिये, तो, कभी कभी लगता है कि सरकार के सलाहकार में विदेशों से पढ़ कर कर आये बड़े बापों की बिगड़ी औलादें आ गयी है, जो की भारत के अंदर और विदेशों की व्यवस्था का अंतर समझे बिना ही सिर्फ rhetoric सवाल पूछ-पूछ कर अपना business interest आगे बढ़ा ले रहें है कि "भारत में ऐसा क्यों नही हो सकता है ? भारत में ऐसा क्यों होता है?" और फिर सवालों के जवाबों से बेख़बर सरकारी बाबू, अपने मंत्री साहेब की चमचागिरी के दबाव में वैसा का वैसा ही कर दे रहा है।