भारत की नौकरशाही-- भारत की तमाम मुश्किलों की असल जड़

भारत की समस्याओं का जड़ अच्छी अर्थनीति की कमी नही है, बल्कि तमाम नीतियों की implementability है। इस जड़ को पैदा करने वाली और संरक्षण देने वाली जननी माता है -- भारत की नौकरशाही; जो की अपना स्थान, और शक्ति प्राप्त करती है खुद भारत के संविधान से, UPSC नाम संवैधानिक संस्थान से।
बात को दोहराते हुए एक बार फ़िर मुआयना करते हैं कि कहां क्या गलतियां हुईं आज़ादी के बाद हमारे देश के प्रशासन तंत्र में।
सर्वप्रथम यह कि प्रजातंत्र, और तमाम अन्य किस्म की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं को हमारे तत्कालीन "बुद्धिजीवियों" ने सही से समझा ही नही। इसमें ग़लत हुआ है, हालांकि उनकी ग़लती नही कही जा सकती है। कारण- की सब ही प्रत्यय हमारे यहां पर आयात करके लाये गए हैं, यहां भारत के अपने सामाजिक और आर्थिक इतिहास की धरोहर कम ही हैं आधुनिक भारत के प्रशासन को चलाने में सहायक किसी भी पाठ को रचने के लिए; और न ही हमारे इतिहास ने हमारे पास विकल्प दिया कि हम कुछ अन्य को प्रयोग करके तसल्ली कर सकें। (अब यह कटुसत्य वचन पढ़ कर हो सकता है कि आप में से बहुतों को खराब लगेगा, मगर सत्य को नतमस्तक हो कर स्वीकार करना ही सर्वप्रथम आराधना होती है। या तो आपके मन को सत्य स्वीकार करने से शांति मिल जायेगी, अन्यथा सुधार करने का उपाय खोज कर डालेगा। )
तो, सच यह था कि *प्रजातंत्र का सारांश* होता ही था *निजी सम्प्पति के अधिकार* में । प्रजातंत्र भले ही एक राजनैतिक विचार है, मगर इसका अर्थनीति क्षेत्र में अभिप्राय यही होता है - निजीकरण।
कम से कम इतना तो जान लीजिये कि वर्तमान काल के सभी अर्थनीति ज्ञानकोष के बुनियाद सिद्धांत जिन हालातों के मद्देनज़र बनाये गये हैं, वह प्रजातंत्र की स्वेच्छा-सिद्ध प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था पर ही कायम हैं।
और यह एक सच हमारे तत्कालीन बुद्धिजीव या तो समझ ही नही सके, या अनदेखा कर गए। या हो सकता है कि कुछ-एक मौजूदा ज़रूरतों को देखते हुए टाल रख छोड़ा था कि भविष्य की पीढ़ियां कभी दुबारा इन विषयों पर चर्चा करके सुधार कर देंगे।
बरहाल, सच को अनदेखा करने से हमने प्रजातंत्र को समाजवाद में मिलावट करके चलाने की कोशिशें करि और गर्व इस बात का किया कि यह "भारतीय संस्करण" है व्यवस्था का, जो कि भारत के गाँव-गांव में पाई जाती है।
समाजवाद के आवेश में हमनें सरकारीकरण की राह पकड़ ली।
फिर क्या हुआ? - नौकरशाही की मनमानी। हर एक क्षेत्र में क्लर्क छाप कौशल वाले लोगों को शीर्ष नेतृत्व दे दिया गया।
क्लर्क यानी लिपिक कौशल की अपनी कमियां होती है। वह हाथ कैशल का सम्मान कम करते हैं, अच्छे वाचन से प्रभावित जल्दी होते हैं। वह चापलूसी से चलते है। न की तकनीकी विषयों पर बहस करते हुए, ज्ञान को उधेड़-बुन करके "उद्योगिक और कौशल मानक" - professional and industrial standards- का निर्माण करते हुए।
नौकरशाही ने देश को क्या दिया?
थोड़ी सी सांठगांठ मंत्रियों के संग में, और फिर सत्ता पूरी की पूरी एक मिलिभगति कि खीरपूड़ि बन गयी नौकरशाहों के हाथ मे। खूब दम कर के भ्रष्टाचार किया और कुछ एक ईमानदारी की "मूर्ख" नमूनों को रख छोड़ा देशवासियों को सच से बहकाने के लिए।
आरक्षण की खीर ने खुद अम्बेडकर जी के समुदाय वर्ग को भी नौकरशाही का कायल बना दिया, बजाए सच के दर्शन देने के। वह कौशल काम छोड़ छोड़ कर "पढ़ाई लिखाई" की ओर प्रेरित हुए - मसलन आरक्षण के माध्यम से आईएएस और आईपीएस बनने को लालायित हूए। आरक्षण में उन्हें नौकरशाही के माध्यम से सशक्तिकरण की रोशनी दिखाई पड़ी, न कि नौकरशाही नाम वाली दीमक जो की समाज के आर्थिक और श्रमिक संसाधनों को खोखला करती थी।
अब क्या था। नौकरशाही में नीचे पदों में आरक्षित वर्गों को जगह दे कर खुश रखा गया। ऊपर के पदों से नियंत्रण अभी भी उन्हीं वर्गो ने कब्ज़े में जकड़ लिया। न्यायपालिका में उन्ही वर्गों ने अपने नुमांइदे बिठाये। tokenism को सदैव कायम रखा , कि सच की पोल न खुलने पाए।
हमारा देश "समाजवादी प्रजातंत्र" में जीने लगा, यह एहसास आया ही नही की यह जो भ्रष्टाचार है, जो vvip culture है, वह सब सामंतवाद ही है, जिसका प्रतिरोध करने से ही तो प्रजातंत्र ढांचे की नींव पड़ी थी। हम रोग को और इलाज एक साथ मिलावट करके अब रोग के लाइलाज़ होने के कारक ढूढ़ते थे कभी तो काबिल नेता की कमी, और कभी जनता की कमी समझे बैठे थे। संविधान में ही रोग की जड़ बसी हुई है, यह सच इतना कटु था कि सबको झखजोर देने वाला था । उनके अनुसार संविधान ने तो उन्हें उपहार-रूपी आरक्षण दिया था ,जिससे कि उनका हक उनको मिल रहा था !!
तो यह मानने को, सुनने को वह वर्ग तैयार ही नही रह गए कि आरक्षण की खीर के नीच ही समाज को जहर दिया जा रहा है, समाजवाद नाम से, जो रोग कि आरक्षण कभी मिटा नही सकेगा। !!
यह क्या हुआ ??!!!
यह क्या बोल दिया ??!!!
बाबा साहेब की काबलियत पर सीधा सवाल था यह तो !!!
मगर बात यूँ है कि सवाल सिर्फ बाबा साहेब का नही है। वह तो मात्र एक अध्यक्ष थे, निर्माण समिति के। और समाजवाद तो उनके लिखे मूल संविधान में था भी नहीं। वह 1976 के संसोधन से लाया गया था।
और बात यूँ भी है कि क्या हम भी भक्तों की तरह प्राचीन ऋषि-मुनियों को आज के वैज्ञानिकों से अधिक बुद्धिमान मानेंगे? क्या हम भी भक्तों की तरह तब की संविधान निर्माण समिति को आज की सच्चाइयों को देख परख के निकलते सबक से अधिक बुद्धिमान और श्रेष्ठ मानेंगे ?!!
बरहाल, वो निर्माण समिति के सदस्य सही थे या फिर ग़लत, जो भी हो, उन्होंने कुछ रास्ते इसीलिए ही खुले छोड़े थे, कि हम भी कभी इतने काबिल शायद बन जाएं कि अपना भला-बुरा खुद से समझ सके। तब हम शायद कुछ बदलाव करना चाहेंगे।
इसलिए सवाल अब उनकी ग़लती का नही है, हमारी सोच का है कि क्या हम सच को स्वीकार करने को तैयार हैं या नही ? यदि हैं, तो फिर निजीकरण को हमें प्रजातंत्र का सारांश मान लेना होगा, और समाजवादी सरकारीकरण और upsc के चंगुल से आज़ादी के लिए तैयार होना पड़ेगा।

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