कैन्हैया कुमार को एक खुला पत्र - समाजवाद और प्रजातंत्र के विषय मे

https://www.youtube.com/watch?v=0fYaSIY5yxQ

कन्हैया कुमार की बैंक कर्मियों के सम्मलेन में दिये गए भाषण को सुना रहा था।  बेहद लज़्ज़तदार बिहारी लहज़े में दिए गए संवाद ,और किसी रमणीक पर्वत स्थल की घुमावदार सड़क की तरह गोलगोल तर्कों से भरा कन्हैया का भाषण देश के काफी सारे लोगों की तरह मुझे भी अक्सर बहोत पसंद आता है।  दिक्कत बस एक है--कि , क्योंकि मैंने कोई PhD  नहीं करि है, इसलिए मैं कभी कभार अपने  अनुभव और ज्ञान के आधार पर जब उसके तर्कों को परखता हूँ तो अपर्याप्त पाने लगता हूँ।  मुझे लगने लगता है की कन्हैया को शायद पता भी नहीं होगा की वह किन तर्कों के दृष्टिकोण से समाज में जागृति  लाने की बजाये समाज को अबोधता में ले जाने का नेतृत्व कर रहा है। 

कह्नैया में मुझे वापस एक "समाजवादी" मानसिकता की गड़बड़ दिखती है।  यह भारत वर्ष के इतिहास में शायद अधिकांश नेताओं की कमी रही है की यहाँ के बौद्धिक प्रवीणों ने आजतक यह गुत्थी सुलझायी ही नहीं है की प्रजातंत्र और समाजवाद वास्तव में एक दूसरे के विरोधी विचार है, जो की तेल और पानी की तरह कभी भी घोल नहीं बनाये  जा सकते है। चाहे राम मनोहर लोहिया का समाजवाद रहा हो, चाहे किसी और का -- भारत के नेतृत्व ने  न जाने यह महसूस नहीं किया है की "समाजवाद" कुछ  और नहीं, बल्कि पुराने सामंतवाद का ही आरम्भिक primitive स्वरुप का ही उपनाम है।  आप अपनी कल्पनाओं में  भी इसको महसूस कर सकते है, बशर्ते की आपने जीवन में  कभी किसी दबे-कुचले, दास प्रथा से अभिशप्त व्यक्ति की पीढ़ा को अपने हृदय से महसूस किया हो, और सोचा हो की कहाँ से आयी होगी मानव सभ्यता में यह कटुता की इंसान के कुल में जन्मे प्राणी को ही दूसरे इंसान ने इंसान का दर्ज़ा नहीं दिया होगा । ज़ाहिर हो जाना चाहिए कि इतिहास में जो कुछ भी बर्बरता घटी है- वह हमेशा किसी न किसी तथाकथित "भले से "  तर्कों से ही हुई होगी। पुराने हड़पा और मोहनजोदड़ों में बसे लोग भी समाजवाद जैसे व्यवस्था में ही बसते रहे होंगे जो की भारत के गावों में आज भी पायी जाती है , और  फिर हमारे समाज ने न जाने कैसे यात्रा करि होगी १८वी शताब्दी के अंधकार युगी दास प्रथा और सति  प्रथा तक ?

मेरा अनुमान है की दुनिया का कोई भी इंसान अपनी साधारण बुद्धि से  जिस प्रकार की   व्यवस्था से अपने समाज को चलना चाहेगा- वह  घूम फिर  कर "समाजवाद" का ही रूप होंगी।  ऐसा इसलिए क्योंकि इंसान साधारण बुद्धि में रहते हुए भविष्य की जटिल मुश्किलों और सत्य की कल्पना नहीं कर सकते है।  इंसान की कल्पना किसी   बालक की तरह होती है , जिसमे सभी  बच्चे सदैव बचपन में रहतें है , और माता-पिता कभी बूढ़े नहीं होते है।  कन्हैया कुमार की भी दिक्कत वही है।  वह छोटे बच्चे की तरह कल्पना कर रहा है।  बस , वह  आज़ाद भारत के ७०  सालों  के प्रशासनिक  व्यस्वस्था के इतिहास को अनदेखा करते हुए बच्चा  बन जा रहा है।  वह शायद किसी भक्त ( भाजपा समर्थक वर्ग)  की तरह भ्रष्टाचार को कांग्रेस पार्टी की देन  समझता है।  (या शायद मोदी, या किसी फिर और की ). वह भ्रष्टाचार को "समाजवाद" में से ही निकलता विषदन्त नहीं मानता  है।  ज़ाहिर  भी है , कन्हैया ने Phd  समाज शास्त्र के विषयों से करि है तो फिर वह प्रशासनिक व्यवस्था और विधि-विधान विषयों को इतना गहराइयों से टटोलता नहीं होगा। 
शायद यही कारण है की क्यों भारत के बुद्धिजीवी प्रजातंत्र के आगे वापस "समाजवाद" में घुस जाते है --  मानो जैसे की उनकी बुद्धि  प्रजातंत्र में "सभी से पूछ कर सारे काम करों" के कोहरे में फँस कर के किसी deadend  पर आ जाती है। और फिर वापस " समाजवाद" में लौट  पड़ती है ,  हैरान परेशान  जान बचा कर भागते हुए की "कहाँ तक सभी काम पूछ कर करोगे, जनता से पूछ-पूछ कर ? यह तो पागल बना देगा"। (मेरा मानना है कि इस मुश्किल का smart solution  समाधान है, यह कोई dead end मुश्किल नही है क्या सभी काम जनता से पूछ कर करने होंगे।)

  मेरे लिए यह अचरज है की क्यों मेरे अलावा शायद किसी  एक भी इंसान ने यह महसूस नहीं किया किया की "सार्वजनिक संपत्ति" वास्तव में " नगर वधु" के समान  है ,  जिसकी  कोई भी सरकारी नौकर या नेता आ कर आबरू लूट  लेता है , बिना  भय और संकोच के।  और "समाजवाद" तो सभी  कुछ को "सार्वजनिक संपत्ति "   बना  देने  हिमायती पद्धति होती है।
यहाँ इस भाषण में कन्हैया कुमार कुल मिला कर घुमावदार  बातों में बैंक व्यवस्था में वापस समाजवाद लाने की ही बोल रहा।

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