कोफ्फी हाउस (विकिपीडिया में दिए कुछ लेखों से प्रेरित ) :
कॉफी हाउस के चलन का सामाजिक महत्त्व बहोत गहरा है । इतिहास में झाँक कर देखें तब यह ज्ञात होगा की कैसे कॉफ़ी हाउस की दुकाने एक सामुदायिक स्थल के रूप में उभरी, नए विचारों को प्रसारित किया और एक सामाजिक दिशा में मोड़ दे दिया । भारत में कोफ़ी हाउस के समतुल्य 'नुक्कड़ वाली चाय की दूकान' ने भी कुछ ऐसी ही भूमिका निभाई है । चाय की दूकान भारत के यूरोपीय कोफ़ी हाउस के समान हैं ।
सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप में कोफ़ी को व्यवसायिक तौर पर पेश करने का चलन तुर्की में हुआ था । मगर कॉफ़ी हाउस जैसी दुकानों का सामाजिक उत्थान ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों के आस पास में खुलने से हुआ । वहां यह छोटी-छोटी दुकानें छात्रों के लिए एक सामाजिक होने और वाद-विवाद, शास्त्रार्थ करने की भूमि के रूप में विकसित हुए। यहाँ तक की कुछ विश्वविख्यात व्यापारों का असल जन्म स्थल एक कॉफ़ी हाउस ही है । सबसे बड़ा और उम्दा नाम बिमा की सर्वप्रथम कम्पनी 'ल्लोय्ड' का है जिसके अभिवाक को बिमा जैसे व्यापार का विचार एक कॉफ़ी हाउस से ही मिला जहाँ कुछ लोग बैठ कर किसी साथी के जीवन में किसी अभिभावक की मृत्यु का अफ़सोस कर रहे थे। वह सब उसकी आर्थिक मदद करना तो चाहते थे मगर सब मिल कर भी इतना धन नहीं इकत्र कर सकते थे जिस से की उनके उस साथी की कोई भी मदद हो सके । बस यही से 'लोय्ड' को बिमा का विचार आ गया और थोड़ी सी गणित की समझ से उसने बिमा नाम के व्यापार को इजाद कर दिया।
कोफ़ी हाउस ने कई सारे वैज्ञानिक खोजों को भी प्रसारित करने की भूमिका निभाई है । कई व्यवसायी लोगों ने यही से खोजों का विचार प्राप्त किया और अपने व्यवसायों में उनका उपयोग कर लाभ कमाया है । नयी खोजों को व्यवसाय में उपयोग से इन व्यवसायों की पूरी संरचना ही परिवर्तित हो गयी है ।
भारत में भी चाय की दुकानों की भूमिका कुछ ऐसी ही रही है । हालाँकि चाय की दुकानें गावों में अपठित राजनितिक विचारों के आदान-प्रदान की भूमि अधिक तब्दील हो गयें हैं। और नए भारतीय शहरों में चाय की दुकान या महंगे काफी हाउस प्रेमी युगल जोड़ो के मिलन स्थल बन रहे हैं ।
छात्रों के जीवन में चाय की दुकान का महत्व बहोत ही अधिक है । वह यहाँ पर अपने पुस्तकी ज्ञान का आदान-प्रदान करते हैं , मानो की एक दुसरे को पढ़ा रहे हों । कई सारे छात्र तो जैसे सिर्फ चाय की दुकान से ही ज्ञान प्राप्त कर परीक्षा में पास होते हैं , चाय की दुकान का कईयों के लिए इतना अधिक महत्त्व है। ज़ाहिर है, चाय की दूकान में अगर कोई विचार अस्पष्ट या फिर त्रुटीत रूप में ही चल पड़े तब सभी लोग इसी विचार को सही समझ कर अनुग्रहित कर लेते हैं।मेरे व्यक्तिगत दर्शन में तो कई सारे भारतीय राजनीतिज़ इन्ही चाय की दुकान से शिक्षित रहे हैं जो देश पर शासन चला रहे हैं ।
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
Tolerance and subjugation cannot be confused in
सहनशीलता दास-मानसिकता से थोड़ी सा भिन्न गुण है । सिर्फ वीर व्यक्ति ही सहन करते है वह भी तब जब वह अपनी ताकत के पूर्ण प्रवाह में होते है। अपने से कम ताकत वालो के भिन्न विचार , प्रथाएं , जीवन शैली, वह सब जो न्याय-संगत है, भले ही अपने स्वयं के विचारों से मेल न रखे -- यह सहन करे जाते हैं । और जो अपराध, सितम या अन्याय झेलते हैं वह सहनशील नहीं होते, बल्कि दास होते हैं ।
यह आम बोल चाल की भाषा की चपलता ही है की अपराध और अन्याय झेल चुके दास मानसिकता के यह पुरुष स्वयं के दास मानसिकता के अपमान को छिपाने के लिए स्वयम को सहनशील बतलाते है ।
और फिर इस तर्क-विकृत बुद्दि को स्वयं की बौद्धिकता समझते हैं !
The virtue of Tolerance is distincted from subjugation by bigots (reference Wikipedia "Tolerance") that tolerance is an allowance of *different opinion* which may be stemming from religious beliefs , race, nationalities, practises etc. When people stop protesting crimes, abuses, tyranny, it is a prodigy of English Language that those subdued people call it as Tolerance perhaps to save there honor from getting recognised as the Enslaved people. Only the brave and courageous Tolerate, --opinions and beliefs, NOT the crimes and tyrannies. The tragedy of our times is that the Leftist think of the virtues of Tolerance in a twisted-logic so to avoid the dishonor in their admission of extreme tyranny and subjugation on them.
And this twisted-logic is what they think of as their "Intellectualism". ! After that, they announce themselves as the 'politically correct' ones, that is, 'the Right' thinkers !
यह आम बोल चाल की भाषा की चपलता ही है की अपराध और अन्याय झेल चुके दास मानसिकता के यह पुरुष स्वयं के दास मानसिकता के अपमान को छिपाने के लिए स्वयम को सहनशील बतलाते है ।
और फिर इस तर्क-विकृत बुद्दि को स्वयं की बौद्धिकता समझते हैं !
The virtue of Tolerance is distincted from subjugation by bigots (reference Wikipedia "Tolerance") that tolerance is an allowance of *different opinion* which may be stemming from religious beliefs , race, nationalities, practises etc. When people stop protesting crimes, abuses, tyranny, it is a prodigy of English Language that those subdued people call it as Tolerance perhaps to save there honor from getting recognised as the Enslaved people. Only the brave and courageous Tolerate, --opinions and beliefs, NOT the crimes and tyrannies. The tragedy of our times is that the Leftist think of the virtues of Tolerance in a twisted-logic so to avoid the dishonor in their admission of extreme tyranny and subjugation on them.
And this twisted-logic is what they think of as their "Intellectualism". ! After that, they announce themselves as the 'politically correct' ones, that is, 'the Right' thinkers !
why do people have problem making an admission of their mistake ?
why do people have problem making an admission of their mistake ?
Admission, confessions are the beginning point from where corrective actions begin. But there is a politics and honor issues hovering the acts of admission. That of being short-changed. It is not because the mistaken concept was fervently fought for at the time people viewed it as the correct choice, but because others who are disagreeing were insulted and laughed at when they are protesting the erstwhile correct choice, - that the issue of dishonour arises. It is not a worldwide phenomenon. Japanese are one people known for very quietly and filled with guilt and remorse admitting their mistakes. Toyota and many japanese manufacturers have often taken almost suicidal decisions of recalling all of their products from the market when a fault was discovered. The train tickets are refunded when train is delayed for more than 3 minutes.
Infact, in our place there is politics behind the trick of admission too. In the other common practise, the mistake is assigned away to some gullible one's credit, and then that person is isolated , ostracised for the 'mistake, he has committed'. Why is delhi police not admitting the blunders of public security duties? Why is there a repeatedly lapsing law and order issue in UP?
Because they all begin with fingerpointing the cause of lapse to someone else, instead of looking inwards. the game of upmanship is sought to be continuously played on when people stop or avoid making admissions. That is politics.
Admission, confessions are the beginning point from where corrective actions begin. But there is a politics and honor issues hovering the acts of admission. That of being short-changed. It is not because the mistaken concept was fervently fought for at the time people viewed it as the correct choice, but because others who are disagreeing were insulted and laughed at when they are protesting the erstwhile correct choice, - that the issue of dishonour arises. It is not a worldwide phenomenon. Japanese are one people known for very quietly and filled with guilt and remorse admitting their mistakes. Toyota and many japanese manufacturers have often taken almost suicidal decisions of recalling all of their products from the market when a fault was discovered. The train tickets are refunded when train is delayed for more than 3 minutes.
Infact, in our place there is politics behind the trick of admission too. In the other common practise, the mistake is assigned away to some gullible one's credit, and then that person is isolated , ostracised for the 'mistake, he has committed'. Why is delhi police not admitting the blunders of public security duties? Why is there a repeatedly lapsing law and order issue in UP?
Because they all begin with fingerpointing the cause of lapse to someone else, instead of looking inwards. the game of upmanship is sought to be continuously played on when people stop or avoid making admissions. That is politics.
उपमा के प्रयोग से समालोचनात्मक चिंतन का नाश
उपमा के प्रयोग से कई प्रकार के विवरण दिए जाते है । किसी एक वस्तु को किसी अन्य वस्तु के समान दर्शा कर उस प्रथम वस्तु का विवरण देना व्याकरण में उपमा कहलाता है ।
हिंदी शब्दकोष से 'उपमा' की विवरणी प्राप्त होती है --
उपमा अलंकर --
जिस जगह दो वस्तुओं में अन्तर रहते हुए भी आकृति एवं गुण की समानता दिखाई जाए उसे उपमा अलंकार कहा जाता है।
उदाहरण -->
सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,
गिरी- सा ऊँचा हो जिसका मन।
--- इसमें सागर तथा गिरी उपमान, मन और ह्रदय उपमेय सा वाचक, गंभीर एवं ऊँचा साधारण धर्म है।
(http://www.hindikunj.com/2009/08/blog-post_29.html#.UO0U-uRJN34)
विज्ञान में उपमा के प्रयोग से न-देखी , न-छुई जा सकने वाली वस्तु के व्यवहार , प्राकृत को समझा व समझाया जाता है । विद्युत् और जल की उपमा एक बहोत आम उदहारण है । विद्युत् को न ही छुआ जा सकता है , न ही आसानी से देखा जा सकता है क्योंकि यह प्रकाश की गति से त्वरित होती है। ऐसे में पहले के शोधकर्ताओं ने स्वयम भी विद्युत् के व्यवहार को समझने के लिए आस-पास की प्रकृति में से एक ऐसी वस्तु को चुना जो की समक्ष व्यवहार में विद्युत् जैसा आचरण करती है । जल, यानि पानी , सबसे आम वस्तु दिखाई दी इस पहेली के उत्तर में । अंग्रेजी में इस प्रकार की उपमा को Analogy कहते हैं ।
कई अन्य विज्ञानं के विषय जैसे आणु , परमाणु , प्रकाश , उर्जा , अंतरिक्ष इत्यादि सिर्फ तुलनात्मक उपमा के मध्यम से ही समझे और समझाए जाते हैं ।
गणित के विषय में mathematical induction के अध्याय में equation को प्रमाणित करने का तरीका भी उपमा का प्रयोग करता है । यदि एक equation एक ख़ास उदहारण पर खरी है, और यदि उसे ठीक अगले क्रम के उदहारण पर भी खरी है , और यदि यह दिखा दिया जाये की वही equation किसी भी अन्य उदहारण और उसके अगले क्रम पर खरी उतरेगी तब वह equation सभी संख्याओं पर सत्य मान ली जाती है । हालाँकि इस अध्याय के आरंभ में ही यह उदहारण दिए जाते है की कैसे mathematical induction का प्रमाण का तरीक पूरी तरह प्रमाणित नहीं माना जाता है । कई सारे equation में प्रमाण का यह तरीका गलत होने का सबूत देता है । यानि उपमा के माध्यम से कुछ तर्क प्रमाणित करने का प्रयास किया जा सकता है मगर वह नीर-विवादित नहीं माना जा सकता ।
साहित्य में उपमा का बहोत ही अधिक प्रयोग है । कवि , गीतकार और लेखक उपमा के मध्यम से कई सारे भावों को दर्शाते हैं । आँखों को सागर जैसे गहरा , शरबती और जाने क्या क्या बतलाते है जब उन्हें प्रेम- रस को दर्शाना होता है । 'जैसे खिलता गुलाब , जैसे शायर का ख्वाब' -- यह सब उपमा ही है ।
उपमा और उदहारण में अंतर मुश्किल होता है ।
कई सारे लोग उपमा के प्रयोग से भ्रमित हो जाते है , या फिर की समालोचनात्मक चिंतन को नष्ट कर बैठते हैं ।
हिंदी शब्दकोष से 'उपमा' की विवरणी प्राप्त होती है --
उपमा अलंकर --
जिस जगह दो वस्तुओं में अन्तर रहते हुए भी आकृति एवं गुण की समानता दिखाई जाए उसे उपमा अलंकार कहा जाता है।
उदाहरण -->
सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,
गिरी- सा ऊँचा हो जिसका मन।
--- इसमें सागर तथा गिरी उपमान, मन और ह्रदय उपमेय सा वाचक, गंभीर एवं ऊँचा साधारण धर्म है।
(http://www.hindikunj.com/2009/08/blog-post_29.html#.UO0U-uRJN34)
विज्ञान में उपमा के प्रयोग से न-देखी , न-छुई जा सकने वाली वस्तु के व्यवहार , प्राकृत को समझा व समझाया जाता है । विद्युत् और जल की उपमा एक बहोत आम उदहारण है । विद्युत् को न ही छुआ जा सकता है , न ही आसानी से देखा जा सकता है क्योंकि यह प्रकाश की गति से त्वरित होती है। ऐसे में पहले के शोधकर्ताओं ने स्वयम भी विद्युत् के व्यवहार को समझने के लिए आस-पास की प्रकृति में से एक ऐसी वस्तु को चुना जो की समक्ष व्यवहार में विद्युत् जैसा आचरण करती है । जल, यानि पानी , सबसे आम वस्तु दिखाई दी इस पहेली के उत्तर में । अंग्रेजी में इस प्रकार की उपमा को Analogy कहते हैं ।
कई अन्य विज्ञानं के विषय जैसे आणु , परमाणु , प्रकाश , उर्जा , अंतरिक्ष इत्यादि सिर्फ तुलनात्मक उपमा के मध्यम से ही समझे और समझाए जाते हैं ।
गणित के विषय में mathematical induction के अध्याय में equation को प्रमाणित करने का तरीका भी उपमा का प्रयोग करता है । यदि एक equation एक ख़ास उदहारण पर खरी है, और यदि उसे ठीक अगले क्रम के उदहारण पर भी खरी है , और यदि यह दिखा दिया जाये की वही equation किसी भी अन्य उदहारण और उसके अगले क्रम पर खरी उतरेगी तब वह equation सभी संख्याओं पर सत्य मान ली जाती है । हालाँकि इस अध्याय के आरंभ में ही यह उदहारण दिए जाते है की कैसे mathematical induction का प्रमाण का तरीक पूरी तरह प्रमाणित नहीं माना जाता है । कई सारे equation में प्रमाण का यह तरीका गलत होने का सबूत देता है । यानि उपमा के माध्यम से कुछ तर्क प्रमाणित करने का प्रयास किया जा सकता है मगर वह नीर-विवादित नहीं माना जा सकता ।
साहित्य में उपमा का बहोत ही अधिक प्रयोग है । कवि , गीतकार और लेखक उपमा के मध्यम से कई सारे भावों को दर्शाते हैं । आँखों को सागर जैसे गहरा , शरबती और जाने क्या क्या बतलाते है जब उन्हें प्रेम- रस को दर्शाना होता है । 'जैसे खिलता गुलाब , जैसे शायर का ख्वाब' -- यह सब उपमा ही है ।
उपमा और उदहारण में अंतर मुश्किल होता है ।
समाजशास्त्र , अर्थ शास्त्र , राजनीत शास्त्र जैसे कला-और-मानवी विषयों में जहाँ निर्णय-आत्मक प्रमाण का अभाव होता है , और सांकेतिक प्रमाण (लक्षणों) के माध्यम से ही कार्म प्रगति करनी होती है , इन विषयों में छोटे एकाकी उदहारण द्वारा ही किसी सिद्धांत अथवा क्रिया के अस्तित्व को जताया जाता है । उस क्रिया के लिए आगे यह उदहारण एक उपमा बन जाता है। कहीं किसी अन्य स्थान पर, किसी अन्य रूप में उस क्रिया की पुनरावृति होने पर प्रथम उदहारण के उपमान से क्रिया को दिखलाया जाता है।
उपमा का ऐसा प्रयोग घटना अथवा व्यक्तव्य को रोचक, चटपटा भी बनता है ।
कई सारे लोग उपमा के प्रयोग से भ्रमित हो जाते है , या फिर की समालोचनात्मक चिंतन को नष्ट कर बैठते हैं ।
निमय का अर्थ
किसी ने हमसे पूछा की आपके पुत्र का क्या नाम है ।
हमने बता दिया, "निमए "।
उसने पुछा की इसका अर्थ क्या होता है ? हमने बताया की निमए भगवन चैतन्य महाप्रभु को बुलाया जाता है ।
वह व्यक्ति संतुष्ट हो गया । क्योंकि कोई अन्य प्रश्न नहीं किया उसने ।
बाद में हम सोचने लगे की क्या हमारा उत्तर समालोचनात्मक चिंतन की दृष्टि से उचित था । क्या किसी शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का नाम होता है ? "
"मैं" का एक भाव अर्थ होता है अहम् । वैसे "मैं" एक सर्वनाम है जिसके माध्यम से स्वयं से सम्बंधित विषय का वर्णन किया जाता है । मगर दर्शन और मनोविज्ञान में इसे अहम् का भी प्रतीक मानते है । जो लोग "मैं" का अत्यअधिक प्रयोग करते हैं वह मुखतः स्वयं में केन्द्रित होते है और अपनी संतुष्टि में सुख अनुभूति लेते हैं ।
निमय का एक संभावित अर्थ हैं (मेरे समझ में)- वह जिसने यह "मैं" को त्याग दिया हो , अर्थात जो जागृत हो, जो चैतन्य हो, जो अपने आस पास की घटनाओ से भी सुख और दुःख को अनुभुतित कर सके , सिर्फ स्वयं तक न केन्द्रित हो ।
निमए का अर्थ 'जागृत' है| चैतन्य महाप्रभु तो मात्र एक उपमा हैं 'निमए' के नाम का एक उदाहरण के लिए ।
हमने बता दिया, "निमए "।
उसने पुछा की इसका अर्थ क्या होता है ? हमने बताया की निमए भगवन चैतन्य महाप्रभु को बुलाया जाता है ।
वह व्यक्ति संतुष्ट हो गया । क्योंकि कोई अन्य प्रश्न नहीं किया उसने ।
बाद में हम सोचने लगे की क्या हमारा उत्तर समालोचनात्मक चिंतन की दृष्टि से उचित था । क्या किसी शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का नाम होता है ? "
"मैं" का एक भाव अर्थ होता है अहम् । वैसे "मैं" एक सर्वनाम है जिसके माध्यम से स्वयं से सम्बंधित विषय का वर्णन किया जाता है । मगर दर्शन और मनोविज्ञान में इसे अहम् का भी प्रतीक मानते है । जो लोग "मैं" का अत्यअधिक प्रयोग करते हैं वह मुखतः स्वयं में केन्द्रित होते है और अपनी संतुष्टि में सुख अनुभूति लेते हैं ।
निमय का एक संभावित अर्थ हैं (मेरे समझ में)- वह जिसने यह "मैं" को त्याग दिया हो , अर्थात जो जागृत हो, जो चैतन्य हो, जो अपने आस पास की घटनाओ से भी सुख और दुःख को अनुभुतित कर सके , सिर्फ स्वयं तक न केन्द्रित हो ।
निमए का अर्थ 'जागृत' है| चैतन्य महाप्रभु तो मात्र एक उपमा हैं 'निमए' के नाम का एक उदाहरण के लिए ।
भावनाओं का आहात होना की न्यायायिक स्थिति पर एक विचार
किसी की भावनाओ को चोटिल होना आजकल न्यायालयों में अभियोग चलाने के लिए एक वाजिफ वजह समझा जाने लगा है । वैसे मानवीय भावनाओ का सम्मान होना एक बहोत ही महत्वपूर्ण विचार है, और इसका कारण यह है की चुकी यह भावना 'मानवीय' है, यह जनसँख्या के सबसे अधिकांश हिस्से में समान रूप से पाई जाएगी । तो 'मानवीय भावना का सम्मान नहीं होना' तो एक जायज़ वजह समझ में आती है क्योंकि कल को आपके साथ भी उसी मानवीय भावना को नकारे जाने का वाक्य हो सकता है ।
मगर तब क्या जब किसी एक व्यक्ति या किसी एक वर्ग की भावना किसी दूसरे से चोटिल होती है ?
सबसे प्रथम निष्कर्ष तो यह ही निकलता है की ऐसी परिथिति में जब किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग की भावना किसी अन्य से चोटिल होती है तब यह भावना "मानवीय" तो नहीं कही जा सकती , क्योंकि यह *सभी* मानवो की भावना नहीं है । यह किसी एक ख़ास वर्ग विशेष की भावना है ।
ऐसे में प्रशन यह बन जाता है की क्या किसी एक की भावनाओं का आहत होना क्या कोई जायज़ वजह समझा जा सकता है किसी अन्य की स्वतंत्रताओं पर पाबंदी लगाने के लिए ?
उदाहरण के लिए , यदि व्यक्ति "अ" के विचारों से किसी वर्ग (जाती, धार्मिक पंथ , अथवा समूह ) "ब" की "भावनाएं आहात होती हैं ", तब इस स्थिति में क्या न्यायालयों को व्यक्ति "अ" पर जुरमाना या किसी पाबन्दी को लगाना चाहिए ?
एक मुश्किल प्रशन यह बन जायेगा की व्यक्ति "अ" के वह कौन से विचार थे जिसकी वजह से समूह "ब " की भावनाएं आहात हुई । भारत की विविधताओं को देखें तब लगेगा की इतने विशाल समूह में तो किसी भी विचार से कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई वर्ग तो आहात हो ही जायेगा । तब तो फिर यहाँ पर किसी भी विचार को मात्र बोल देना ही किसी अन्य को आहात करने के समान हो जायेगा ।
ऐसे में विचारों की स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या हुआ ?
हाल में चल रहे विवाद में इस पहलू पर ध्यान दें की जब महिलों के उत्पीडन का विषय आता है तब अकसर कहीं कोई एक वर्ग इसके लिए महिलाओं की पौशाको को, या "पश्चिमीकरण " को ही इसका कारक बतलाता है , तब इस स्थिति में न्याय क्या होना चाहिए ?
क्या वाकई पौशाको से उत्पन्न हुए उकसावे से हुए यौन उत्पीडन के केस में पौशाक को कारक मान कर महिला को ही उस पर हुए उत्पीडन का दोषी मान लेना चाहिए ?
यह एक वैचारिक समझ का काम है की कैसे 'उकसावा' इस केस में "भावनाओं का आहात होना " के एक पर्याय के रूप में प्रयोग हुआ है । एक विस्तृत , भाव-पल्लवन , के रूप में बतलाएं तब विचार कुछ ऐसे होगा की, 'किसी महिला की पौशाको ने किसी पुरुष की यौन भावनाओं को आहात किया जिसकी वजह से उक्त पुरुष ने उक्त महिला का उत्पीडन कर दिया "।
सिद्धांत की दृष्टि से कुछ-एक प्रश्न तो बनते ही है की क्या वाकई पौशाक किसी की भावनाओं को आहात करती है ? और , क्या भावनाओं के आहात हो जाने से क्या किसी को किसी अन्य पर किसी प्रकार का प्रति-आहात करने का अधिकार मिलता है ?
मेरे विचार में ऐसा संभव है की पौशाक हमारी भावनाओं को जागृत करे , और यह भी जायज़ ही है की भावनाओ के "आहात " की परिस्थिति में व्यक्ति किसी प्रकार का "प्रति-हिंसा" करे । मगर तब मैं 'जागृत होना' और 'आहात होना' के मध्य में एक अंतर रखने के बिंदु पर जोर देना चाहूँगा ।
हिंसा या प्रति-हिंसा मात्र 'आहात' होने के तर्क में जायज़ मानी जा सकती है , जागृत होने के तर्क में नहीं ।
पौशाकें भावनाएं जागृत कर सकती है , आहात नहीं करती , यद्यपि कुछ वर्ग जैसे साधू , ब्रह्मचारी इत्यादि यौन-भावनाओं का जागृत होना भी स्वयं पर हुई हिंसा के रूप में बतलाना चाहेंगे ।
वैसे यह ख़ास भावना सभी मनुष्यों में स्थापित एक बुनियादी भावनाओं में हैं , जो प्राकृतिक भी है , और जो प्रकृति में आपसी हिंसा का सबसे साधारण कारक रहती है । मगर मनुष्य जैसे जटिल और विक्सित जीव में समाज के निर्माण के लिए प्रत्येक मनुष्य को इस भावना पर आत्म-नियंत्रण रखना उसके समाज के निर्माण और संचालन के लिए प्रथम कार्य होगा। इस बात की तो कोई थाह नहीं है की भई कोई व्यक्ति मात्र पौषक से ही आत्म-नियंत्रण खो देता है , या की मात्र किसी स्त्री की उपस्थिति ही उसे उकसा देती है । ऐसे में एक समाज का निर्माण और संचालन कैसे हो सकता है जब हम न्याय में आत्म-नियंत्रण को टूट जाने का जायज़ कारण मात्र किसी की पौशाक को ही मानाने लगे । फिर हम किसी स्त्री की उपस्थिति ही क्यों न एक जायज़ कारक मान लें की आत्म-नियंत्रण टूट गया ?
ब्रिटिश दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा रचित पुस्तक "ऑन लिबर्टी " में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को न्याय द्वारा सीमित करने के कारणों को समझने के लिए एक सिद्धांत दिया गया है, - क्षति सिद्धांत (harm principle). क्षति सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जीवन में पूर्ण स्वतंत्र का भोग कर सकता है मगर तब तक जब तक उसकी स्वतंत्रता किसी अन्य को कहीं किसी रूप में क्षति नहीं करती । क्षति के हालत में न्यायलय में निर्णय हो सकता है , अन्यथा सरकारे अपने संसद से उस ख़ास परिस्थिति के लिए निति-निर्माण कर सकती हैं । संक्षेप में कहें तब, आपके घर से मेरा कुछ लेना देना नहीं, मगर तब तक जब तक आपके घर का गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन उचित है । क्योंकि जैसे ही आपके गैस सिलिंडर की सुरक्षा प्रणाली में कुछ गड़बड़ होगी उसके विस्फोट से मेरा भी घर तबाह हो सकता है इसलिए मेरे पास जायज़ वजह है की मैं आपके गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन की मांग आपके सामने रखूँ । वैसे असल में सभी गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन की व्यवस्था सरकार ही अनिवार्य कर देती है । इस अनिवार्यता के पीछे की राजनीतिक व्यवस्था का न्याय जन्म लेता है ।
एक चपल परिस्थिति यह है की कौन किसी वस्तू से क्षतित होता है यह न्यायलय में पेशेवर वकील द्वारा प्रयोग करी गयी भाषा और व्याकरण की चपलता पर भी निर्भर करेगा । उदहारण के तौर पर , "आपके घर में कपडे सूखने के तार से मेरे घर में सूर्य की रोशनी का आना बंधित हो जाता है , इसलिए मेरे स्वास्थ को क्षति होती है । तब आप अपने घर में कपडे सुखाने की रस्सी न बांधें । "
एक दृष्टिकोण से इस बात की भी कोई थाह नहीं है कि कौन किसी वस्तू से क्षतित होता है। मगर एक विस्तृत दृष्टि में जो क्षति अन्य सिद्धांत से ताल मेल नहीं रख पाती वह वजीफ नहीं मणि जाती । स्त्री की पौषक के कारण स्त्री पर लगी किसी भी प्रकार की पाबन्दी संयुक्त-राष्ट्र द्वारा पारित अंतर-राष्ट्रीय मानवाधिकारो से ताल मेल में नहीं है , इसलिए पौशाकों पर पाबंदी की मांग एक जायज़ मांग नहीं मानी जा सकती है।
मगर तब क्या जब किसी एक व्यक्ति या किसी एक वर्ग की भावना किसी दूसरे से चोटिल होती है ?
सबसे प्रथम निष्कर्ष तो यह ही निकलता है की ऐसी परिथिति में जब किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग की भावना किसी अन्य से चोटिल होती है तब यह भावना "मानवीय" तो नहीं कही जा सकती , क्योंकि यह *सभी* मानवो की भावना नहीं है । यह किसी एक ख़ास वर्ग विशेष की भावना है ।
ऐसे में प्रशन यह बन जाता है की क्या किसी एक की भावनाओं का आहत होना क्या कोई जायज़ वजह समझा जा सकता है किसी अन्य की स्वतंत्रताओं पर पाबंदी लगाने के लिए ?
उदाहरण के लिए , यदि व्यक्ति "अ" के विचारों से किसी वर्ग (जाती, धार्मिक पंथ , अथवा समूह ) "ब" की "भावनाएं आहात होती हैं ", तब इस स्थिति में क्या न्यायालयों को व्यक्ति "अ" पर जुरमाना या किसी पाबन्दी को लगाना चाहिए ?
एक मुश्किल प्रशन यह बन जायेगा की व्यक्ति "अ" के वह कौन से विचार थे जिसकी वजह से समूह "ब " की भावनाएं आहात हुई । भारत की विविधताओं को देखें तब लगेगा की इतने विशाल समूह में तो किसी भी विचार से कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई वर्ग तो आहात हो ही जायेगा । तब तो फिर यहाँ पर किसी भी विचार को मात्र बोल देना ही किसी अन्य को आहात करने के समान हो जायेगा ।
ऐसे में विचारों की स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या हुआ ?
हाल में चल रहे विवाद में इस पहलू पर ध्यान दें की जब महिलों के उत्पीडन का विषय आता है तब अकसर कहीं कोई एक वर्ग इसके लिए महिलाओं की पौशाको को, या "पश्चिमीकरण " को ही इसका कारक बतलाता है , तब इस स्थिति में न्याय क्या होना चाहिए ?
क्या वाकई पौशाको से उत्पन्न हुए उकसावे से हुए यौन उत्पीडन के केस में पौशाक को कारक मान कर महिला को ही उस पर हुए उत्पीडन का दोषी मान लेना चाहिए ?
यह एक वैचारिक समझ का काम है की कैसे 'उकसावा' इस केस में "भावनाओं का आहात होना " के एक पर्याय के रूप में प्रयोग हुआ है । एक विस्तृत , भाव-पल्लवन , के रूप में बतलाएं तब विचार कुछ ऐसे होगा की, 'किसी महिला की पौशाको ने किसी पुरुष की यौन भावनाओं को आहात किया जिसकी वजह से उक्त पुरुष ने उक्त महिला का उत्पीडन कर दिया "।
सिद्धांत की दृष्टि से कुछ-एक प्रश्न तो बनते ही है की क्या वाकई पौशाक किसी की भावनाओं को आहात करती है ? और , क्या भावनाओं के आहात हो जाने से क्या किसी को किसी अन्य पर किसी प्रकार का प्रति-आहात करने का अधिकार मिलता है ?
मेरे विचार में ऐसा संभव है की पौशाक हमारी भावनाओं को जागृत करे , और यह भी जायज़ ही है की भावनाओ के "आहात " की परिस्थिति में व्यक्ति किसी प्रकार का "प्रति-हिंसा" करे । मगर तब मैं 'जागृत होना' और 'आहात होना' के मध्य में एक अंतर रखने के बिंदु पर जोर देना चाहूँगा ।
हिंसा या प्रति-हिंसा मात्र 'आहात' होने के तर्क में जायज़ मानी जा सकती है , जागृत होने के तर्क में नहीं ।
पौशाकें भावनाएं जागृत कर सकती है , आहात नहीं करती , यद्यपि कुछ वर्ग जैसे साधू , ब्रह्मचारी इत्यादि यौन-भावनाओं का जागृत होना भी स्वयं पर हुई हिंसा के रूप में बतलाना चाहेंगे ।
वैसे यह ख़ास भावना सभी मनुष्यों में स्थापित एक बुनियादी भावनाओं में हैं , जो प्राकृतिक भी है , और जो प्रकृति में आपसी हिंसा का सबसे साधारण कारक रहती है । मगर मनुष्य जैसे जटिल और विक्सित जीव में समाज के निर्माण के लिए प्रत्येक मनुष्य को इस भावना पर आत्म-नियंत्रण रखना उसके समाज के निर्माण और संचालन के लिए प्रथम कार्य होगा। इस बात की तो कोई थाह नहीं है की भई कोई व्यक्ति मात्र पौषक से ही आत्म-नियंत्रण खो देता है , या की मात्र किसी स्त्री की उपस्थिति ही उसे उकसा देती है । ऐसे में एक समाज का निर्माण और संचालन कैसे हो सकता है जब हम न्याय में आत्म-नियंत्रण को टूट जाने का जायज़ कारण मात्र किसी की पौशाक को ही मानाने लगे । फिर हम किसी स्त्री की उपस्थिति ही क्यों न एक जायज़ कारक मान लें की आत्म-नियंत्रण टूट गया ?
ब्रिटिश दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा रचित पुस्तक "ऑन लिबर्टी " में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को न्याय द्वारा सीमित करने के कारणों को समझने के लिए एक सिद्धांत दिया गया है, - क्षति सिद्धांत (harm principle). क्षति सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जीवन में पूर्ण स्वतंत्र का भोग कर सकता है मगर तब तक जब तक उसकी स्वतंत्रता किसी अन्य को कहीं किसी रूप में क्षति नहीं करती । क्षति के हालत में न्यायलय में निर्णय हो सकता है , अन्यथा सरकारे अपने संसद से उस ख़ास परिस्थिति के लिए निति-निर्माण कर सकती हैं । संक्षेप में कहें तब, आपके घर से मेरा कुछ लेना देना नहीं, मगर तब तक जब तक आपके घर का गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन उचित है । क्योंकि जैसे ही आपके गैस सिलिंडर की सुरक्षा प्रणाली में कुछ गड़बड़ होगी उसके विस्फोट से मेरा भी घर तबाह हो सकता है इसलिए मेरे पास जायज़ वजह है की मैं आपके गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन की मांग आपके सामने रखूँ । वैसे असल में सभी गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन की व्यवस्था सरकार ही अनिवार्य कर देती है । इस अनिवार्यता के पीछे की राजनीतिक व्यवस्था का न्याय जन्म लेता है ।
एक चपल परिस्थिति यह है की कौन किसी वस्तू से क्षतित होता है यह न्यायलय में पेशेवर वकील द्वारा प्रयोग करी गयी भाषा और व्याकरण की चपलता पर भी निर्भर करेगा । उदहारण के तौर पर , "आपके घर में कपडे सूखने के तार से मेरे घर में सूर्य की रोशनी का आना बंधित हो जाता है , इसलिए मेरे स्वास्थ को क्षति होती है । तब आप अपने घर में कपडे सुखाने की रस्सी न बांधें । "
एक दृष्टिकोण से इस बात की भी कोई थाह नहीं है कि कौन किसी वस्तू से क्षतित होता है। मगर एक विस्तृत दृष्टि में जो क्षति अन्य सिद्धांत से ताल मेल नहीं रख पाती वह वजीफ नहीं मणि जाती । स्त्री की पौषक के कारण स्त्री पर लगी किसी भी प्रकार की पाबन्दी संयुक्त-राष्ट्र द्वारा पारित अंतर-राष्ट्रीय मानवाधिकारो से ताल मेल में नहीं है , इसलिए पौशाकों पर पाबंदी की मांग एक जायज़ मांग नहीं मानी जा सकती है।
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