भावनाओं का आहात होना की न्यायायिक स्थिति पर एक विचार
किसी की भावनाओ को चोटिल होना आजकल न्यायालयों में अभियोग चलाने के लिए एक वाजिफ वजह समझा जाने लगा है । वैसे मानवीय भावनाओ का सम्मान होना एक बहोत ही महत्वपूर्ण विचार है, और इसका कारण यह है की चुकी यह भावना 'मानवीय' है, यह जनसँख्या के सबसे अधिकांश हिस्से में समान रूप से पाई जाएगी । तो 'मानवीय भावना का सम्मान नहीं होना' तो एक जायज़ वजह समझ में आती है क्योंकि कल को आपके साथ भी उसी मानवीय भावना को नकारे जाने का वाक्य हो सकता है ।
मगर तब क्या जब किसी एक व्यक्ति या किसी एक वर्ग की भावना किसी दूसरे से चोटिल होती है ?
सबसे प्रथम निष्कर्ष तो यह ही निकलता है की ऐसी परिथिति में जब किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग की भावना किसी अन्य से चोटिल होती है तब यह भावना "मानवीय" तो नहीं कही जा सकती , क्योंकि यह *सभी* मानवो की भावना नहीं है । यह किसी एक ख़ास वर्ग विशेष की भावना है ।
ऐसे में प्रशन यह बन जाता है की क्या किसी एक की भावनाओं का आहत होना क्या कोई जायज़ वजह समझा जा सकता है किसी अन्य की स्वतंत्रताओं पर पाबंदी लगाने के लिए ?
उदाहरण के लिए , यदि व्यक्ति "अ" के विचारों से किसी वर्ग (जाती, धार्मिक पंथ , अथवा समूह ) "ब" की "भावनाएं आहात होती हैं ", तब इस स्थिति में क्या न्यायालयों को व्यक्ति "अ" पर जुरमाना या किसी पाबन्दी को लगाना चाहिए ?
एक मुश्किल प्रशन यह बन जायेगा की व्यक्ति "अ" के वह कौन से विचार थे जिसकी वजह से समूह "ब " की भावनाएं आहात हुई । भारत की विविधताओं को देखें तब लगेगा की इतने विशाल समूह में तो किसी भी विचार से कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई वर्ग तो आहात हो ही जायेगा । तब तो फिर यहाँ पर किसी भी विचार को मात्र बोल देना ही किसी अन्य को आहात करने के समान हो जायेगा ।
ऐसे में विचारों की स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या हुआ ?
हाल में चल रहे विवाद में इस पहलू पर ध्यान दें की जब महिलों के उत्पीडन का विषय आता है तब अकसर कहीं कोई एक वर्ग इसके लिए महिलाओं की पौशाको को, या "पश्चिमीकरण " को ही इसका कारक बतलाता है , तब इस स्थिति में न्याय क्या होना चाहिए ?
क्या वाकई पौशाको से उत्पन्न हुए उकसावे से हुए यौन उत्पीडन के केस में पौशाक को कारक मान कर महिला को ही उस पर हुए उत्पीडन का दोषी मान लेना चाहिए ?
यह एक वैचारिक समझ का काम है की कैसे 'उकसावा' इस केस में "भावनाओं का आहात होना " के एक पर्याय के रूप में प्रयोग हुआ है । एक विस्तृत , भाव-पल्लवन , के रूप में बतलाएं तब विचार कुछ ऐसे होगा की, 'किसी महिला की पौशाको ने किसी पुरुष की यौन भावनाओं को आहात किया जिसकी वजह से उक्त पुरुष ने उक्त महिला का उत्पीडन कर दिया "।
सिद्धांत की दृष्टि से कुछ-एक प्रश्न तो बनते ही है की क्या वाकई पौशाक किसी की भावनाओं को आहात करती है ? और , क्या भावनाओं के आहात हो जाने से क्या किसी को किसी अन्य पर किसी प्रकार का प्रति-आहात करने का अधिकार मिलता है ?
मेरे विचार में ऐसा संभव है की पौशाक हमारी भावनाओं को जागृत करे , और यह भी जायज़ ही है की भावनाओ के "आहात " की परिस्थिति में व्यक्ति किसी प्रकार का "प्रति-हिंसा" करे । मगर तब मैं 'जागृत होना' और 'आहात होना' के मध्य में एक अंतर रखने के बिंदु पर जोर देना चाहूँगा ।
हिंसा या प्रति-हिंसा मात्र 'आहात' होने के तर्क में जायज़ मानी जा सकती है , जागृत होने के तर्क में नहीं ।
पौशाकें भावनाएं जागृत कर सकती है , आहात नहीं करती , यद्यपि कुछ वर्ग जैसे साधू , ब्रह्मचारी इत्यादि यौन-भावनाओं का जागृत होना भी स्वयं पर हुई हिंसा के रूप में बतलाना चाहेंगे ।
वैसे यह ख़ास भावना सभी मनुष्यों में स्थापित एक बुनियादी भावनाओं में हैं , जो प्राकृतिक भी है , और जो प्रकृति में आपसी हिंसा का सबसे साधारण कारक रहती है । मगर मनुष्य जैसे जटिल और विक्सित जीव में समाज के निर्माण के लिए प्रत्येक मनुष्य को इस भावना पर आत्म-नियंत्रण रखना उसके समाज के निर्माण और संचालन के लिए प्रथम कार्य होगा। इस बात की तो कोई थाह नहीं है की भई कोई व्यक्ति मात्र पौषक से ही आत्म-नियंत्रण खो देता है , या की मात्र किसी स्त्री की उपस्थिति ही उसे उकसा देती है । ऐसे में एक समाज का निर्माण और संचालन कैसे हो सकता है जब हम न्याय में आत्म-नियंत्रण को टूट जाने का जायज़ कारण मात्र किसी की पौशाक को ही मानाने लगे । फिर हम किसी स्त्री की उपस्थिति ही क्यों न एक जायज़ कारक मान लें की आत्म-नियंत्रण टूट गया ?
ब्रिटिश दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा रचित पुस्तक "ऑन लिबर्टी " में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को न्याय द्वारा सीमित करने के कारणों को समझने के लिए एक सिद्धांत दिया गया है, - क्षति सिद्धांत (harm principle). क्षति सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जीवन में पूर्ण स्वतंत्र का भोग कर सकता है मगर तब तक जब तक उसकी स्वतंत्रता किसी अन्य को कहीं किसी रूप में क्षति नहीं करती । क्षति के हालत में न्यायलय में निर्णय हो सकता है , अन्यथा सरकारे अपने संसद से उस ख़ास परिस्थिति के लिए निति-निर्माण कर सकती हैं । संक्षेप में कहें तब, आपके घर से मेरा कुछ लेना देना नहीं, मगर तब तक जब तक आपके घर का गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन उचित है । क्योंकि जैसे ही आपके गैस सिलिंडर की सुरक्षा प्रणाली में कुछ गड़बड़ होगी उसके विस्फोट से मेरा भी घर तबाह हो सकता है इसलिए मेरे पास जायज़ वजह है की मैं आपके गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन की मांग आपके सामने रखूँ । वैसे असल में सभी गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन की व्यवस्था सरकार ही अनिवार्य कर देती है । इस अनिवार्यता के पीछे की राजनीतिक व्यवस्था का न्याय जन्म लेता है ।
एक चपल परिस्थिति यह है की कौन किसी वस्तू से क्षतित होता है यह न्यायलय में पेशेवर वकील द्वारा प्रयोग करी गयी भाषा और व्याकरण की चपलता पर भी निर्भर करेगा । उदहारण के तौर पर , "आपके घर में कपडे सूखने के तार से मेरे घर में सूर्य की रोशनी का आना बंधित हो जाता है , इसलिए मेरे स्वास्थ को क्षति होती है । तब आप अपने घर में कपडे सुखाने की रस्सी न बांधें । "
एक दृष्टिकोण से इस बात की भी कोई थाह नहीं है कि कौन किसी वस्तू से क्षतित होता है। मगर एक विस्तृत दृष्टि में जो क्षति अन्य सिद्धांत से ताल मेल नहीं रख पाती वह वजीफ नहीं मणि जाती । स्त्री की पौषक के कारण स्त्री पर लगी किसी भी प्रकार की पाबन्दी संयुक्त-राष्ट्र द्वारा पारित अंतर-राष्ट्रीय मानवाधिकारो से ताल मेल में नहीं है , इसलिए पौशाकों पर पाबंदी की मांग एक जायज़ मांग नहीं मानी जा सकती है।
मगर तब क्या जब किसी एक व्यक्ति या किसी एक वर्ग की भावना किसी दूसरे से चोटिल होती है ?
सबसे प्रथम निष्कर्ष तो यह ही निकलता है की ऐसी परिथिति में जब किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग की भावना किसी अन्य से चोटिल होती है तब यह भावना "मानवीय" तो नहीं कही जा सकती , क्योंकि यह *सभी* मानवो की भावना नहीं है । यह किसी एक ख़ास वर्ग विशेष की भावना है ।
ऐसे में प्रशन यह बन जाता है की क्या किसी एक की भावनाओं का आहत होना क्या कोई जायज़ वजह समझा जा सकता है किसी अन्य की स्वतंत्रताओं पर पाबंदी लगाने के लिए ?
उदाहरण के लिए , यदि व्यक्ति "अ" के विचारों से किसी वर्ग (जाती, धार्मिक पंथ , अथवा समूह ) "ब" की "भावनाएं आहात होती हैं ", तब इस स्थिति में क्या न्यायालयों को व्यक्ति "अ" पर जुरमाना या किसी पाबन्दी को लगाना चाहिए ?
एक मुश्किल प्रशन यह बन जायेगा की व्यक्ति "अ" के वह कौन से विचार थे जिसकी वजह से समूह "ब " की भावनाएं आहात हुई । भारत की विविधताओं को देखें तब लगेगा की इतने विशाल समूह में तो किसी भी विचार से कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई वर्ग तो आहात हो ही जायेगा । तब तो फिर यहाँ पर किसी भी विचार को मात्र बोल देना ही किसी अन्य को आहात करने के समान हो जायेगा ।
ऐसे में विचारों की स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या हुआ ?
हाल में चल रहे विवाद में इस पहलू पर ध्यान दें की जब महिलों के उत्पीडन का विषय आता है तब अकसर कहीं कोई एक वर्ग इसके लिए महिलाओं की पौशाको को, या "पश्चिमीकरण " को ही इसका कारक बतलाता है , तब इस स्थिति में न्याय क्या होना चाहिए ?
क्या वाकई पौशाको से उत्पन्न हुए उकसावे से हुए यौन उत्पीडन के केस में पौशाक को कारक मान कर महिला को ही उस पर हुए उत्पीडन का दोषी मान लेना चाहिए ?
यह एक वैचारिक समझ का काम है की कैसे 'उकसावा' इस केस में "भावनाओं का आहात होना " के एक पर्याय के रूप में प्रयोग हुआ है । एक विस्तृत , भाव-पल्लवन , के रूप में बतलाएं तब विचार कुछ ऐसे होगा की, 'किसी महिला की पौशाको ने किसी पुरुष की यौन भावनाओं को आहात किया जिसकी वजह से उक्त पुरुष ने उक्त महिला का उत्पीडन कर दिया "।
सिद्धांत की दृष्टि से कुछ-एक प्रश्न तो बनते ही है की क्या वाकई पौशाक किसी की भावनाओं को आहात करती है ? और , क्या भावनाओं के आहात हो जाने से क्या किसी को किसी अन्य पर किसी प्रकार का प्रति-आहात करने का अधिकार मिलता है ?
मेरे विचार में ऐसा संभव है की पौशाक हमारी भावनाओं को जागृत करे , और यह भी जायज़ ही है की भावनाओ के "आहात " की परिस्थिति में व्यक्ति किसी प्रकार का "प्रति-हिंसा" करे । मगर तब मैं 'जागृत होना' और 'आहात होना' के मध्य में एक अंतर रखने के बिंदु पर जोर देना चाहूँगा ।
हिंसा या प्रति-हिंसा मात्र 'आहात' होने के तर्क में जायज़ मानी जा सकती है , जागृत होने के तर्क में नहीं ।
पौशाकें भावनाएं जागृत कर सकती है , आहात नहीं करती , यद्यपि कुछ वर्ग जैसे साधू , ब्रह्मचारी इत्यादि यौन-भावनाओं का जागृत होना भी स्वयं पर हुई हिंसा के रूप में बतलाना चाहेंगे ।
वैसे यह ख़ास भावना सभी मनुष्यों में स्थापित एक बुनियादी भावनाओं में हैं , जो प्राकृतिक भी है , और जो प्रकृति में आपसी हिंसा का सबसे साधारण कारक रहती है । मगर मनुष्य जैसे जटिल और विक्सित जीव में समाज के निर्माण के लिए प्रत्येक मनुष्य को इस भावना पर आत्म-नियंत्रण रखना उसके समाज के निर्माण और संचालन के लिए प्रथम कार्य होगा। इस बात की तो कोई थाह नहीं है की भई कोई व्यक्ति मात्र पौषक से ही आत्म-नियंत्रण खो देता है , या की मात्र किसी स्त्री की उपस्थिति ही उसे उकसा देती है । ऐसे में एक समाज का निर्माण और संचालन कैसे हो सकता है जब हम न्याय में आत्म-नियंत्रण को टूट जाने का जायज़ कारण मात्र किसी की पौशाक को ही मानाने लगे । फिर हम किसी स्त्री की उपस्थिति ही क्यों न एक जायज़ कारक मान लें की आत्म-नियंत्रण टूट गया ?
ब्रिटिश दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा रचित पुस्तक "ऑन लिबर्टी " में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को न्याय द्वारा सीमित करने के कारणों को समझने के लिए एक सिद्धांत दिया गया है, - क्षति सिद्धांत (harm principle). क्षति सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जीवन में पूर्ण स्वतंत्र का भोग कर सकता है मगर तब तक जब तक उसकी स्वतंत्रता किसी अन्य को कहीं किसी रूप में क्षति नहीं करती । क्षति के हालत में न्यायलय में निर्णय हो सकता है , अन्यथा सरकारे अपने संसद से उस ख़ास परिस्थिति के लिए निति-निर्माण कर सकती हैं । संक्षेप में कहें तब, आपके घर से मेरा कुछ लेना देना नहीं, मगर तब तक जब तक आपके घर का गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन उचित है । क्योंकि जैसे ही आपके गैस सिलिंडर की सुरक्षा प्रणाली में कुछ गड़बड़ होगी उसके विस्फोट से मेरा भी घर तबाह हो सकता है इसलिए मेरे पास जायज़ वजह है की मैं आपके गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन की मांग आपके सामने रखूँ । वैसे असल में सभी गैस सिलिंडर के सुरक्षा संसाधन की व्यवस्था सरकार ही अनिवार्य कर देती है । इस अनिवार्यता के पीछे की राजनीतिक व्यवस्था का न्याय जन्म लेता है ।
एक चपल परिस्थिति यह है की कौन किसी वस्तू से क्षतित होता है यह न्यायलय में पेशेवर वकील द्वारा प्रयोग करी गयी भाषा और व्याकरण की चपलता पर भी निर्भर करेगा । उदहारण के तौर पर , "आपके घर में कपडे सूखने के तार से मेरे घर में सूर्य की रोशनी का आना बंधित हो जाता है , इसलिए मेरे स्वास्थ को क्षति होती है । तब आप अपने घर में कपडे सुखाने की रस्सी न बांधें । "
एक दृष्टिकोण से इस बात की भी कोई थाह नहीं है कि कौन किसी वस्तू से क्षतित होता है। मगर एक विस्तृत दृष्टि में जो क्षति अन्य सिद्धांत से ताल मेल नहीं रख पाती वह वजीफ नहीं मणि जाती । स्त्री की पौषक के कारण स्त्री पर लगी किसी भी प्रकार की पाबन्दी संयुक्त-राष्ट्र द्वारा पारित अंतर-राष्ट्रीय मानवाधिकारो से ताल मेल में नहीं है , इसलिए पौशाकों पर पाबंदी की मांग एक जायज़ मांग नहीं मानी जा सकती है।
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