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The theory of Superboss as a necessity for long-term sustenance of Political group in India.

The theory of "Superboss" as a necessity for long-term sustenance of Political group in India.

प्रत्येक व्यक्ति समूह को नेत्रित्व की आवश्यक्त अवश्यम्भव होती है। नेत्रित्व वह दिशा(=तुरत उद्देश्य) का ज्ञान देता है जिसके लिए सभी सदस्य मिल कर युक्ति लगाते है।
प्रशन है की राज्य संचालन की भिन्न भिन्न वातावरण में यह नेत्रित्व किस क्रिया से चुना जाता है अथवा "उभरता है" ?
साधारणतः हम सभी आशा यही रखते है कि नेतृत्व योग्यता के आधार पर उभरता है। मगर एक गहरे दृष्टिकोण में एक वचन यह है कि 'योग्यता' के मापन की कसौटियां सांस्कृतिक वातावरण पर निर्भर करती है।अर्थात, एक परिपेक्ष में चापलूसी, चमचा गिरी भी 'योग्यता' मानी जा सकती है।

चलिय, पहले यह समझने का प्रयास करते हैं कि "योग्यता" में किन गुणों को आदर्श वातावरण में होना चाहिए:-
उधाहरण के लिए- एक आदर्श (जो की वस्तुतः काल्पनिक देश Utopia को मान लीजिये) प्रजातंत्र में जहाँ **प्राकृतिक न्याय व्यवस्था** एक सांकृतिक व्यवहार है, वहां योग्यता के पैमाने शिक्षा उपाधि, धरातल की उपलब्धियां, तर्क और विचारों का बाध्यक अथवा समग्र, कुशल एवं विजय शील होना है।

  परन्तु जहाँ **प्राकृतिक न्याय व्यवस्था** न हो कर **पदक्रमांक न्याय व्यवस्था** सांकृतिक व्यवहार हो वहां पर योग्यता के पैमाने क्या होंगे?
  क्या वहां भी योग्यता को शैक्षिक ज्ञान(जो की असल में बौद्धिक उपलब्धि के सूचकांक के रूप में प्रयोग होता है), धरातल के अनुभव और उपलब्धि, तथा बाध्यक विचार एवं तर्क की कसौटी पर मापेंगे?
  जी नहीं। वहां कसौटी होगी की सभी व्यक्ति पद के क्रम के अनुसार अवर पदाधिकारी प्रवर पदाधिकारी का "सम्मान करे" अथवा "अनुशासन में रहे"(= प्रवर को अपने से अधिक बुद्धिमान माने और प्रमाणित होने में सहायता दे, प्रवर की उपलब्धियों का गुणगान करे, और अपने से अधिक तर्क-सिद्ध होने वाला आचरण रखे)।
ऐसे में कहीं न कहीं एक "सर्वज प्रवर पदाधिकारी"("super boss") का अस्तित्व अवश्यमभव् हो जाता है। अंततः योग्यता जब अवर अथवा प्रवर के मध्य टकराव उत्पन्न करेगी तब यह superboss ही योग्यता का साधन होगा, इसको सुनिश्चित करते हुए की योग्यता उसकी स्वयं के पद-स्थान को विस्थापित न करे।

Theorem 2 : Existence of a "superboss" is a must in a group which culturally practises 'Hierarchical Justice'.

   यहाँ यह भी समझने की आवश्यकता है की superboss का किसी एक व्यक्ति का होना अनिवार्य नहीं है। कोई ख़ास परिवार , दल , अथवा धार्मिक नेता भी यह भूमिका निभा सकता है।
   एक अन्य बात भी अवश्य समझ लेनी चाहिए--कि superboss की भूमिका के समतुल्य पद Utopia में भी मिलगा-- अंतःकरण का रक्षक ("keeper of the conscience") के रूप में।
  Utopia में जब दो समानांतर तर्क टकराव में आयेंगे और व्यक्तिगत हित किसी सामाजिक हित के विरुद्ध टक्कर में होगा, तब यह चुनाव इसी पद को करना होगा की कब व्यक्तिगत हित को आगे जाने देना है और कब सामाजिक हित को।

भारत, जहाँ सांस्कृतिक तौर पर पद्क्रमांक न्याय व्यवस्था ही सर्वमान्य है, में वर्तमान राजनीति में कोंग्रेस में superboss गाँधी परिवार है, जबकि भाजपा में आजकल प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी हैं।

    अगर कोई दल व्यक्ति-विशेष superboss को नामांकित करता है तब उस superboss को अकेले ही सभी का भार उठाना पड़ सकता है। भारत में जहाँ की विरोधाभासी महत्वकांक्षाएं हैं , उम्मीदें है,- यदि एक व्यक्ति superboss बनता है तब उसका खुद का स्थान अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता।
  इस समस्या का निवारण मिलता है एक team के रूप में superboss अपनाने में। इसमें कई छोटे superboss विरोधाभासी उम्मीदों अथवा महत्वकांक्षाओं को पूरित करते रहेंगे मगर अंततः मुख्य superboss में जा मिलेंगे। इस प्रकार superboss खुद कुछ स्थिर हो जायेगा। यदि superboss परिवारवादी होगा तब उत्तराधिकारी के लिए कोई जंग भी नहीं रह जाएगी। ऐसा करने से और अधिक स्थिरता आयेगी।
  
मगर एक प्रश्न यह भी है कि किसी पद्क्रमांक न्याय व्यवस्था में स्थिरता से क्या अभिप्राय है?
  स्थिरता से अभिप्राय है कि यह देश Utopia के विपरीत Dystopia (काल्पनिक अंधेर नगरी) की और अग्रसर होगा। यहाँ योग्यता यानि "वह जो सत्य है" किसी व्यक्तिविशेष superboss के प्रति आस्था(अंधभक्ति) के आधीन होगी।
  तो Superboss अंततः सामाजिक व्यवस्था और आचरण का विनाश लाएगी, राजनैतिक दल चाहे जो भी चुन लो।

The thoery of Sustenance of Political Party in India, and its predictable outcome

The fall of Modi's regime sooner than later is predictable.
आखिर कितने दिनों तक सिर्फ मोदी नाम को महिममंडल करके भाजपाई सत्ता में रह पाएंगे??
कभी न कभी तो जनता को अपने सु-शाशन के प्रमाण देने ही पड़ेंगे।
तथ्यिक सत्य यह है कि विकास के काम 'रोज़मर्रा -टाइप' कार्य होते हैं जो की सत्ता में कोई भी हो-चलते ही रहते हैं। इसलिय सु-शासन 'विकास के कार्य' की उपलब्धियों से विकास के पापा गिना नहीं पाएंगे। भाजपा के बाकी निवार्चित नेता कब तक सिर्फ मोदी नाम पर वोट ले सकेंगे?

भारतीय चुनाव व्यवस्था का सत्य वचन(theorem) शायद यह है कि जो पार्टी जितनी तेजी से सिर्फ एक व्यक्ति के महिममंडल से ऊपर आती है, वह उतनी जल्दी ओझल भी हो जाती है। क्योंकि महिमंडल को सिद्ध भी करना पड़ता है। शायद इसलिए राजनीतिक पार्टियाँ अतीत के किसी दिवंगत नेता के नाम का प्रयोग करती हैं। अतीत का दिवंगत नेता पहले से ही सिद्ध होता है!

कब तक भाजपाई नेता प्रादेशिक चुनावों में मोदी की माला से काम चलाएंगे? कब तक दंगे करवाते रहेंगे वोट बटोरने के लिए?

फिर यदि एक बार इनकी हार का सिलसिला निकल पडा तब यह मोदी से विद्रोह करेंगे। या तो मोदी जी सु-शाशन को यथाशब्द प्रमाणित करें, वरना समझौतों वाला "सुशासन" तो कोंग्रेस देने में माहिर है-- वह परिवार की आस्था पर चलता है-किसी एक व्यक्ति की आस्था पर नहीं।
  आम आदमी पार्टी आस्था के बाहर के वास्तविक सुशासन के लिए आवश्यक आतंरिक रोकथाम पर चलती है। इसलिए इसमें नेता को उभर के आगे आने के लिए आतंरिक परीक्षाओं के साथ-साथ जन-व्यापक शत्रुभाव -दोनों -से गुज़ारना होगा।

तो भारतीय चुनाव पटल का दूसरा सत्यवचन (theorem) यह है की वैसे तो कोई भी पार्टी या तो आस्था के आधार पर कायम होगी, अन्यथा आतंरिक शक्ति-नियंत्रण पर--**मगर**-- भारत में आस्था ही चलती है, आतंरिक शक्ति-संतुलन एवं नियंत्रण नहीं।

Theorem 1 of Indian Political Parties Sustenance::
(Political parties can sustain either by allegiance to someone or some family, OR by Internal power checks-and-balance. India being a low education environment, the sustenance of a political party is only by way of bearing allegiance.)

The observable truth of the present status of political parties is that Congress ,having a family-centered allegiance , is more SUSTAINABLE than the BJP. Hence , the Congress will survive more than the BJP.
Either the BJP should come out of the allegiance culture of sustenance completely, OR it must create a long-term centre of allegiance for itself.)
Indeed the caste politics is a menifestation of the Allegiance method of sustenance of a political party, which is the only sustenance method India practises. The AAP party type Sustenance Culture for a Political Party is still in experimental stage.

Thus, Congress is more stable, by virtue of being sustainable, THAN the BJP.

We should expect their comeback, lest Modi sustains the magic by a true ground delivery.

A governor of no free-will choice of his own !!

With the resignation of eight provincial Head of the Province, the Governor, a Moral
and Constitutional question stares at our nation--that,

WHO IS THE KEEPER OF OUR CONSCIENCE  IF THE HEAD OF THE STATE AND/OR PROVINCE
HIMSELF ENJOYS HIS POSITION **AT THE  PLEASURE OF ** SOMEONE ELSE! , the Central Government??

Does a populary elected government guarantee to be a "Keeper of the Conscience" to have made the governors to resign without having a PUBLIC reason, known and understood by the people of their own senses??

बदनीयत वकील-राजनेता का खुल्ली बहस की चुनौती देने का माँझरा क्या है?

माननिय मनीष तिवारी का पुर्व-CAG विनोद राय को खुली बहस की चुनौती कुछ समझ में नहीं आई।
या यह समझूं की इन नेताओं की जनता को उल्लू बनाने की नई चालबाजी ही यह है की गलत पर गलत करते रहो, और जब अपनी करतूतों के खुलासे हो तब *खुली* बहस की चुनौती दे कर जनता को गुमराह कर दो कि जनता समझ ही न पाए की कौन सही है और कौन गलत ।
  यह मनीष तिवारी को बहस *खुल्ले* में करवाने  का इतना ही साहस और विश्वास है तब फिर PAC मीटिंग का टीवी पर सीधा प्रसारण ही क्यों नहीं करवा दिया था ?? तब शायद बचाव में तर्क यह पिरोये जाते की अभी अगर जनता में खुल्ले में बात जायेगी तब जनता भ्रमित हो सकती है !
  यह पूरा का पूरा राजनैतिक तबका उल्लू बनाने का यह तरीका खूब इख्तियार करता है। यह तथ्यों से सम्बंधित गतिविधियों को जनता के सामने खुल्ले में दिखलाने से बचता है। तथ्य यदि जनता के सामने आयेंगे तब जनता अपने विवेक से खुद ही समझ जाएगी की क्या सही है और क्या गलत। इसलिए यह बदनीयत राजनेता तथ्यों को जनता के सामने इकत्र करने से बचते हैं।
और जब तथ्यों के खुलासे "आरोप" बन कर जनता में आते है तब इनके पेशेवर पालतू वकील "खुल्ली बहस" की चुनौती दे कर अपने को सच्चा साबित करने की ड्यूटी पर लग जाते हैं।
   समझदार , ईमानदार लोग तथ्य सहमती और प्रमाण क्रिया को ही खुल्ले में करते है, यह नहीं की तथ्य जब आरोप बन कर सामने आये तब पीड़ित को खुल्ली बहस की ललकार दे कर खुद को सच्चा जतायें।

उन्माद वाला व्यवहार क्या है?

qAFanatics are created when people are lacking the foundational analytical sense- mostly of the science of judgement. Fanatics cannot tell a 'Fact' from a 'belief'. For them, everything is a result of human mind admiring to existence of thing by certain environmental conditioning. This type of thinking process is similar and classic to famous the Rene Descartes's way of thought described by his famous quote, ''I think and therefore I am''.
Rene Descartes was a famous french philosopher and a mathematician whose greatest work we know about is the Co-ordinate Graph System of representations, also known in his memory as the Cartesian Co-ordinate System.  But his quote of Existentialism mentioned above was quite a cocaine of human Intellectualism, by which it would become impossible for human senses to have confidence to differ between a Car and  Truck, a table and a bed-- those most basic objects which normally the human senses pick the difference without having to apply any discerning mind.
The fanaticism I see in the 'Hindutva' brigade is something which erupt  from the Descartes Existentialism predicament.
This predicament is directly about What is a a Fact and what is a Belief.

Conventionally FACTS IS what the two and all the parties have mutually AGREED TO by virtue of human senses having experienced it same all across.
Beliefs are those claims which are not agreed because the human senses are not directly experiencing it, but the subjective Human MIND is being used for the interpretation of the experiences received by the senses.

Fanatics never succeed in reaching to this widely held definition of 'Facts' and 'Beliefs'. For them, everything is the Descartesian admission of its Existence by each individual. Thus one person's facts may differ from another !! . Therefore there is no common ground of Facts available to be able to argue, debate or discuss something with such a person. He becomes a Bigot, and eventually a Fanatics of his own beliefs.

हिंदी अनुवाद:
यह धार्मिक उन्माद (पागलपन) वाले व्यक्ति उत्पन्न कैसे होते हैं?

मेरे अपने देखने भर में उन्मादी व्यवहार वाले व्यक्तियों में प्रकट आम समस्या - न्यायायिक बुद्धि का अभाव है, जिसे वह अपनी दृष्टिकोण से 'कानून की विशेष शिक्षा' मान बैठे होते हैं।
   क़ानून की विशिष्ट जानकारी प्रत्येक नागरिक को आवश्यक नहीं है, मगर एक उचित न्यायायिक समझ सभी व्यक्तियों को सामाजिक जीवन जीने के लिए होनी ही चाहिए। ख़ास तौर पर उच्च प्रबंधन पदों पर आसीन व्यक्तियों को।
     उन्मादी व्यक्ति एक समझ के अभाव को दूसरे से भ्रमित करने से यह उन्मादी व्यवहार अपने में विक्सित कर लेते हैं।
  न्यायायिक बुद्धि का सर्वप्रथम धरातल ज्ञान इससे आरम्भ होता है की इंसान 'तथ्य' और 'विश्वास' के मध्य अंतर करना जाने। मगर उन्मादी व्यवहार के व्यक्तियों में यह सहज आत्म ज्ञान कभी भी- उनके बचपन से ही - विक्सित नहीं हो पाया होता है। इसका कारण यह है की ऐसे व्यक्ति के बुनियादी दर्शन के अनुसार सभी मनुष्यों के पास उपलब्ध सभी ज्ञान उसके द्वारा उस ज्ञान को मानने (=विश्वास) करने का नतीजा होता है। उद्धहरण के तौर पर "यह जो चमकता हुआ गोलाकार वस्तू जो आकाश में प्रति'दिन' दिखाई देती है वह सूर्य है क्योंकि सर्वप्रथम मनुष्य ने आस्था में इसको सूर्य माना है।"
   संक्षेप में कहें तो उन्मादी व्यक्ति की विचारधारा में किसी भी वस्तु का अस्तित्व उस वस्तु का दर्शन करने वाले व्यक्ति की आस्था से ही आरम्भ होता है। सूर्य को सूर्य सबसे पहले मनुष्य की आस्था मानती है इसलिए वह सूर्य है(!!!)।  यदि आस्था उसे सूर्य न माने तब वह सूर्य नहीं होगा!  सूर्य के सूर्य होने का तथ्य कुछ होता है नहीं, तथ्य जो की आस्था से विमुक्त हो, क्योंकि सभी ज्ञान सर्वप्रथम उस ज्ञान में आस्था से ही आरम्भ होता है।
  यह ऊपर लिखी समझ उन्मादी और पागल लोगों के व्यवहार का आरम्भ हैं।
    साधारणतः संतुलित बुद्धि वाले व्यक्तियों की दुनिया में 'तथ्य' उसको कहा जाता है जिसको की विवाद में प्रस्तुत दोनों पक्षों ने, या दुनिया के सभी व्यक्तियों ने (बिना किसी जाती, धर्म, सम्प्रदाय, रंग, सांकृतिक, क्षेत्र, भाषा इत्यादि के भेदभाव के) -- एकमत में उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लिया हो। अर्थात , 'तथ्य' वह है जो सर्वसम्मति का परिणाम है (FACT is what has been mutually and/or universally AGREED UPON), और इसलिए व्यक्तिगत आस्था (BELIEF) से परे है।
   किसी भी विचारविमर्श , मंथन अथवा तर्क-विवाद के लिए आवश्यक उचित न्याय और निष्कर्ष की भूमि इन तथ्यों(FACTS) की आम सहमति से ही आरम्भ होती है।
  साधारणतः 'तथ्य' वह है है जो मनुष्य की पाँचों उपलब्ध इन्द्रियों द्वारा गृहीत होते है-और उसमे प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि अथवा विवेचन का कोई स्थान नहीं होता है।
  विचारों का अंतर भिन्न-भिन्न विवेचन से ही प्रकट होता है, इसलिए 'तथ्य' की सूची तैयार करने में विवेचन से प्राप्त ज्ञान को अलग करना आवश्यक है। यदि तथ्यों में आम-सहमति नहीं होती है तब सर्वप्रथम प्रमाणों और सबूतों से तथ्य का स्थापन किया जाता है जिससे की आगे का विवेचन आरम्भ हो सके।
   मगर "आस्थावान" उन्मादी(एक प्रकार का पागलपन व्यवहार) व्यक्तियों के साथ यह क्रिया संभव ही नहीं हो पाती क्योंकि उनकी बुनयादी समझ में सभी प्रकार का ज्ञान तो आस्था से ही आरम्भ होता है !!!!

आपके विशिष्ट सांस्कृतिक इतिहास के ज्ञानवर्धन के लिए बताता चालू की उन्मादी व्यक्तियों के जीवन दर्शन की यह प्रवृति एक प्रसिद्द फ्रांसिसी दार्शनिक और गणितज्ञ रेने डेस्काटेस के मूल विचार से मेल खाती है जिसे उनहोंने अपने प्रसिद्द वाक्यांश में कुछ ऐसे प्रकट किया था "मैं सोच सकता हूँ, और इसलिए मेरा अस्तित्व है।"("I think and therefore I am")., डेस्कारटेस का सबसे चर्चित योगदान आज की स्कूली शिक्षा की गणित में उपलब्ध "ग्राफ" का है जिसको उनकी स्मृति में "कार्टेसन को-ओर्डिनेट" भी बुलाया जाता है।
   गणित और अन्य उप्लाधियों के लिए उनका बहोत सम्मान है, मगर अधिकाँश दार्शनिक और विधिविशेज्ञ डेस्कार्टस के उपरलिखित कथन को विचारशैली का भांगखोर आत्म-घाती नशा मानते हैं। इस प्रकार के विचार वाले व्यक्तियों से शांतिप्रिय सर्वसम्मत न्याय की सम्भावना नहीं करी जा सकती है। ऐसे व्यक्ति अपने व्यवहार में अड़ियल(bigot) होते हैं, और नतीजे में वह अपनी श्रद्धा से सम्बंधित जो आचरण प्रदर्शित करते हैं उसे ही धार्मिक उन्माद अथवा पागलपन बुलाया जाता है।

अरुण जेटली का निर्भया घटना से सम्बंधित दुर्भाग्यपूर्ण बयान के विषय में

अरुण जेटली ने निर्भया घटना को पर्यटन पर हुयी हानि की वजह से "छोटी घटना" कह कर बहोत छोटी, एवं खपतखोरी-मुनाफाखोरी मानसिकता का परिचय दिया है। इस प्रकार की मानसिकता वाले लोग सामाजिक और मानवीय भावनाओं की कद्र नहीं करते हैं बल्कि पैसे, धन और अर्थ को ही सभी भावनाओं-सुख और दुःख का केंद्र मानते हैं। यह निकृष्ट और नीच सोच है जिससे कभी भी जन-कल्याण नहीं साधा जा सकता ,बल्कि विकास और अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के नाम पर इंसान और समाज में अमानवीयता, बेचैनी, लोभ जैसे दुर्गुण ही आते।
  यह सही है की निर्भया घटना ने देश की छवि पर दुश्प्रसार किया। मगर फिर इसने देश की अंतरात्मा को जगाया भी था। जेटली जी शायद पर्यटन में सुधार और देश की छवि सुधारने के लिए प्रशासन व्यवस्था दुरुस्त करते। अपनी पार्टी में से निहाल चाँद जैसे आरोपी मंत्रियों को निकालते। यह क्या किया कि निर्भया को ही घटना से आये प्रभावों का दोषी बना दिया और अपनी अंतरात्मा को फिर से बेच कर सुला दिया।
क्या मानवीय भावना और संवेदनशीलता प्रचार और विज्ञापन की मोहताज होती है? क्या अंतरात्मा को आर्थिक आवश्यकताओं के आगे झुक कर मनुष्य को ख़ुशी अनुभुतित हो सकती है?
जेटली जी जैसे पढ़े लिखे वकील जब इस मानसिकता के हैं और देश के वित्त और रक्षा मंत्री पद पर आसीन हो कर ऐसा बोलते है तो अब क्या संभावना रहती है की यह देश दुबारा एक और निर्भया घटना नहीं देखेगा। संभावित पर्यटक क्या आंकलन करेंगे इस देश के बारे में?
खुद ही सोचिये...।

What's the plan of the minister of surface transport, Mr Gadkari, in regard to the RTO closure??

What's the plan of the minister of surface transport, Mr Gadkari, in regard to the RTO closure??
Are they trying to ''invent'' in India the European model of Driving License Authority by secretly  ''copying it from the west'' like it has happened with entire Administration and the Constitution.
Then what is the motive of seeking the public opinion on this matter?? To score a political brownie to appear to be people-friendly , while yet accusing and taunting the AAP And Kejriwal of doing ''referendum'' all the while !

Conventionally, the administrative systems are not ''invented'' (used in authentic sense, not pseudo sense as previously) BUT they 'Evolve' by corrections , heuristics , trial-and-error. If at all Mr Gadkari is so keen to appear people-friendly genuinely, then he should lay before the people a DRAFT plan of what his administration has chalked out for a new replacement by accounting for the knowledge and experiences gained about the lacunae in the present system.

Why so much Hyprocrisy, drama and obfuscation ??

Further, the problem in the current system of Regional Transport Offices has not just been about Corruption, BUT their flexibility and loophole to allow people to obtain the driving licenses without actually having undergone a training and a test. THE ROAD SAFETY SHOULD BE THE CORE CONCERN, NOT THAT PEOPLE HAVE TO PAY BRIBES ! The effective outcomes of bribes is the number of road accidents India has! The bribery in itself is just an agent to this outcome.
This will mean that entire road construction and design should also see an overhaul, while putting in place some replacement of the RTOs, so that people may prosecute the Road designers or driving Licensing authority if they get involved in an accident for apparently no fault of their own !   
That means, The pits on the Road, the Road signs, the marking will also need an overhaul so that the new system may give a desired SOCIAL result.

But it seems Mr Gadkari is fixated with people having to PAY bribes, OR WORSE, HAVING TO FACE DIFFICULTIES IN PAYING UP THEIR FINES , towards which he believes he is doing a GREAT PUBLIC SERVICE by helping their challans reach directly to their homes !!

IQ , you see.... A BJP man afterall !

Why Truth MUST win and MUST prevail ? What is the environmental cost of the truth being defeated?

Why Truth MUST win and MUST prevail ? What is the environmental cost of the truth being defeated?

They say that the value of Truth is not determined by whether it loses or wins.
But this is incorrect.

some smaller truth may have the tendency to dissolve out in time, but the value of Truth is eventually to be determined by its victory against the False. If it doesn't eventually win, despite a number of defeats against the False, THEN IT IS NOT A TRUTH !! There is definitely going to an environmental cost to the defeat of Truth.

What is the reason?? Did you ever wonder on that??

What is the driving force for Truth which make it a winner in the last, to have the last laugh??
The FORCE OF NATURE ! The environmental cost attached to the defeat of Truth becomes a relevant thought when considered from this angle.

Truth is what is supported by a force OF mother nature. Truth is governed by the how the nature operates. Truth is in a way Scientific, Truth is Natural Justice.
the growth of a blade of grass is a TRUTH which is what Shree Krishna tells Arjun is ''the duty of the grass of grow''. This is that FORCE OF MOTHER NATURE, which has created the DUTY on that blade of grass to continue to grow. The DUTY TO grow upward into the sky. The DUTY TO fall downwards onto the ground, when broken off from the trunk. It is the FORCE OF GRAVITY, which the mother Nature applies TO MAKE it fall , the FORCE OF CAPILARITY  to make it grow.
This is What we study in Pure Sciences. Pure Science are the first TRUTHS which our modern School Education introduces us to.
Scientific laws and theories the easiest Description of certain TRUTHS that we know of.

Therefore, a rocket may for a small fraction of time continue to fly upward by an act of human ingenuity, the rocket may zoom away into the sky and Outer Space, by a force created by Human action , never to return back on earth. BUT the above observation will NEVER change the TRUTH that the FORCE OF GRAVITY ALWAYS acted on the rocket to MAKE it fall onto the earth. The TRUTH did not win for a moment of time, BUT THAT LOSS could not change the very existence of it.
Truth remained and stands the NOT EVERYTHING will fly away into the sky and outer Space like the way that rocket did. Truth will not change that even that rocket may someday get pulled into some other gravitational field of some other object deep in the outer Space.
the TRUTH will eventually become SELF EVIDENT on that rocket too, no matter how far it may TODAY have succeeded in escaping away from it BY AN ARTIFICIAL FORCE CREATED FROM THE HUMAN INGENUITY.
The TRUTH therefore has to come as the EVENTUAL WINNER, no matter what.

Death is the ultimate TRUTH the ancient Sanatan Dharma culture knew of. They called it Sada Shiv.

"भक्तजन" कौन हैं ?

भक्त जन हैं कौन??
यही तो है वह भ्रष्टाचारी जो भ्रम फैला कर खुद को बचा रहे हैं।

स्वच्छ नागरिक को स्पष्ट पता होता है की आदर्श रूप में एक न्याय पूर्ण समाज चलाने के लिए क्या क्या कदम उठाने चाहिए। यह भक्तजन हैं की उन कदमों को विफल करने में लगे हैं , ताने कस कर की "अरविन्द को लगता है कि वही दूध का धुला हैं", " हमे अरविन्द से अपनी ईमानदारी का कोई सर्टिफिकेट नहीं चाहिए" ।
यही सब वचन भक्तजनों की पहचान है।

यदि शंकराचार्य ने इन्हें टोका नहीं होता तो इन्होने "हर हर xxxx" का चुनावी नारा ऐसा बुलंद किया था की महादेव को भी इन्होंने अपने आराध्य xxxx के पीछे कर दिया था।

अब आजकल भक्तजन आप पार्टी के समर्थकों पर अंधभक्त होने का ताना कस रहे हैं।
ऐसे में यह न्याय कैसे होगा की असल अंधभक्त कौन है और कौन नहीं?

इस समस्या का हल है "सिद्धान्तवाद"। जी हाँ,  असल-नक़ल में इस भेद को करने के लिए ही आदर्श सिद्धांतों की उचित समझ इंसान में होना ज़रूरी है। जो बुनियादी सिद्धांतों को (रसायन शास्त्र में पढ़ाई जाने वाली वह परिकाल्पनिक आदर्श गैस जिसका खुद का कोई अस्तित्व प्रकृति में नहीं है, मगर जिसकी व्यवहार की समझ से प्राप्त सिद्धांत - चार्ल्स लॉ, बॉयल लॉ, गैस लॉ - हमे प्रकृति की वास्तविक गैसों का व्यवहार इक तुलनात्मक अधय्यन द्वारा समझने में सहायक होती है) -- जो इन बुनियादी सिद्धांतों को समझ जायेगा -वह असली-नकली में भेद कर लेगा।
  यह भेद न कर सकने वाले लोग ही वास्तविक अंधभक्त "भक्तजन" हैं।
अरविन्द IIT पास है। उन्हें बुनियादी समझ है। इसलिए उन्हें पता है की असली क्या है और नकली क्या।

भक्तजनों के अन्य व्यवहारिक प्रवृतियाँ क्या क्या हैं?
भक्तजन हास्य रस और व्यंग्य कसने में खूब आनंद लेते हैं। यूँही बड़े-बड़े मंच से छोटे मोटे झूठ बोल देने में इन्हें कोई परहेज और बुराई नहीं लगती हैं।
भक्तजन गहरे मंथन से घबराते हैं।
यदि किसी वाद-विवाद में इनके तर्कों की परख करने के लिए उसके नतीजों की कल्पना करें तो यही उत्तर मिलेगा कि भ्रष्टाचार नाम की कोई सांस्कृतिक अथवा प्रशासनिक समस्या है ही नहीं। यह सब काल्पनिक बातें हैं ! इसी को यह भष्टाचार का निदान मानते हैं।
इनके सत्ता रूड होते ही काला धन नाम की कोई विचार रह ही नहीं जाता। इसलिए भ्रष्टाचारियों को कोई सजा, कोई पेनल्टी इत्यादि को यह आपसी राजनैतिक द्वेष का कर्म मानते हैं। अब राबर्ट, गडकरी और येदुरप्पा - यह सब भ्रष्टाचार से मुक्त है - अर्थात भ्रष्टाचार के आरोपों से ।
भक्तजन अब facebook जैसे सार्वजनिक स्थल पर दिखाई नहीं देते हैं। facebook पर यह सिर्फ प्रचार के लिए आते हैं। विचार मंथन के लिए नहीं।
   गहन विचार मंथन यह facebook पर नहीं कर सकते है। वरना इनके अन्दर के असली विचारों की पोल-पट्टी दुनिया के सामने खुल जाएगी। विचारों को सार्वजनिक करने को भी यह लोग washing you dirty Lenin in public मानते हैं।  इसलिए चुनाव उपरान्त यह whatsapp पर सरक चुके हैं।
भक्तजन चुटकुले और memes का खूब आनंद लेते हैं। हल्की, छिछलि बातें इन्हें खूब भाती है क्योकि यही इन्हें आसानी से समझ में आती हैं।
व्यंग के एक प्रकार -समालोचनात्मक चिंतन से परिपूर्ण उपहास- को तज कर यह एक निकृष्ट प्रकार वाले व्यंग- परिहास - में तल्लीन हैं। अपने दल-गत प्रतिद्वंदी का परिहास करने में यह आनंद महसूस करते है। इनका मकसद जगद-कल्याण एवं सुधार नहीं है।

अयोग्यता को सफलता के मार्ग पर प्रशस्त करने वाला सबसे मजबूत साधन भ्रष्टाचार है,  आरक्षण व्यवस्था नहीं।

अयोग्यता को सफलता के मार्ग पर प्रशस्त करने वाला सबसे मजबूत साधन भ्रष्टाचार है,  आरक्षण व्यवस्था नहीं।

    आम आदमी पार्टी के उदय से आरम्भ हुई वाद-विवाद और चिंतन से यह निष्कर्ष मैं स्पष्टता से कह सकता हूँ।
यदि कोई भी दल-गत कूटनैतिक चुनावी दल नागरिकों से यह विश्वास प्राप्त कर लेगा की प्रशासन व्यवस्था में अब कभी भी कहीं भी भ्रष्टाचार नहीं चलेगा, तब उसको जनता का समर्थन मिल जाएगा की वह देश में लागू वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को निरस्त कर के संयुक्त राज्य अमेरिका के "सुनिश्चितीकरण प्रक्रिया"(affirmative action) की भांति एक 'सामाजिक न्याय आयोग' बनाकर देश के पिछड़े तथा दलित समुदायों को सामान्य योग्यता मापदंडों से रोज़गार और उचित आर्थिक न्याय दे सके।
  वर्तमान में हमारे देश ने  'सुनिश्चितीकरण प्रक्रिया' के लिए आयोग न बना कर सीधे आरक्षण प्रणाली स्वीकार करी है। हमारी यह व्यवस्था अमेरिका में लागू व्यवस्था से भिन्न है क्योंकि वहाँ रंग भेद से पिछड़े लोगों के लिए योग्यता के मापदंड नीचे करने के स्थान पर यह आयोग है जो सुनिश्चित करता है की किसी भी प्रकार के भेदभाव की वजह से व्यक्ति का अधिकार शोषित न हो। अमेरिका में यह हो सका क्योंकि वहां भ्रष्टाचार कोई सांकृतिक समस्या नहीं हैं।
  इसके विपरीत भ्रष्टाचार भारत की मात्र प्रशासनिक समस्या ही नहीं , सांस्कृतिक समस्या भी है। हमारे यहाँ हर समुदाय, हर एक सम्प्रदाये, हर एक सरकारी विभाग , सभी न्यायलय, जन संचार और जन जागृति स्तंभ -हमारा मीडिया , सब कुछ भ्रष्टाचार से ग्रस्त हैं।
  वास्तव में सोचे तो यह क्षेत्रवादी , और जातवादी राजनीति इत्यादि सभी प्रकार के छिछली कूटनीति के स्रोतों  का उदय भ्रष्टाचार के कारण उत्पन्न अन्याय , अथवा शक्तियों का असंतुलन , का ही परिणाम है। यहाँ सामाजित हित की बात करने वाले सभी लोग चुपके से अपने अपने व्यक्तिगत हितों को ही साधने में लगे है। नतीजे में , प्रकृति के चक्र ने शक्तियों के संतुलन के लिए ही जाती गत , सम्प्रदाय समर्थित, और क्षेत्रवादी दलगत कूटनीति को जन्म दे दिया है।
संक्षेप में कहू तो - गलती मुलायम, लालू, मायावती , आज़म खान, ओवैसी अथवा बाल ठाकरे, राज ठाकरे, शरद पवार की नहीं है। यह प्रकृति का चक्र है जिसने व्यवस्था को शांति और सौहर्दय पूर्ण बनाने के लिए प्रशासनिक शक्तियों को इन व्यक्तियों के हक में कर रखा है।
  शायद कुछ लोग सही कहते हैं कि अगर भ्रष्टाचार नहीं होगा तो भारतवर्ष टूट कर बिखर जायेगा। भ्रष्टाचार एक आदर्श चुस्त दुरुस्त व्यवस्था में वह छिद्र प्रदान करवाता है जिसमे से समाज के कई तनाव निकल सके बिना सम्पूर्ण व्यवस्था को तोड़े।
Corruption is like the lightening holes in a highly stressed  junction point in a steel plate fitted in a big installation.
 
   

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