महाभारत का युद्ध, निष्पक्षता और निर्मोह
निष्पक्षता(neutral, and/or undecided) और निर्मोह(dispassionate and objective) में उतना ही अंतर है जितना की दाऊ और श्रीकृष्ण में था।
दाऊ महाभारत के युद्ध में निष्पक्ष ही रह गए क्योंकि वह दोनों पक्षों (पांडवों और कौरवों) के व्यक्तिगत सत्कर्म और दुष्कर्म का हिसाब ही देखते रह गए। वह देख रहे थे की यह दोनों पक्ष अंततः आपसी सम्बन्धी ही तो थे, और दाऊ स्वयं से दोनो पक्षों के ही सम्बन्ध समान निकटता के थे।
शायद इसलिए दाऊ धर्म और मर्यादाओं को तय नहीं कर पाए।
श्रीकृष्ण निर्मोह से दोनों पक्षों का आँकलन कर रहे थे। उनके अनुसार युद्ध में प्रत्येक मरनेवाला और मारनेवाला कोई न कोई सगा-सम्बन्धी ही होने वाला था। इसलिए व्यक्तिगत सत्कर्म और दुष्कर्म का हिसाब तो सब ही समान ही आने वाला था। वह दोनों पक्षों द्वारा किये कर्मों का आँकलन एक दीर्घ अन्तराल से देख रहे थे।
हस्तिनापुर के स्वयं के नियमों से कभी भी स्पष्ट नहीं होने वाला था की राज्य का असली उत्तराधिकारी कौन था। मगर पाडवों और कौरवों के मध्य घटित कूट(छल, अनैतिक, अमर्यादित) क्रियाओं ने श्रीकृष्ण के लिए धर्म का पक्ष तय कर दिया था। कौरवों द्वारा लाक्षागृह का कूट, हस्तिनापुर राज्य का बटवारे के बावजूद कौरवों में असंतोष, पांडवों को छल से द्रुत में हराना, और इससे भी भीषण- नारी का अपमान-द्रौपदी का चीर हरण -- यह सभी धर्म का पक्ष स्थापित करने में सहायक थे।
इसलिए कृष्ण निर्मोह से पांडवों के पक्ष में धर्म को देखते थे।
निष्पक्षता में व्यक्ति निर्णय नहीं कर पाता है। अनिर्णायक स्तिथि में न्याय नहीं होता है। न्याय जीवन चक्र को आगे बढ़ने की आतंरिक आवश्यकता है। बस यह समझें की न्याय डार्विन के क्रमिक विकास सिद्धांत की वह प्राकृतिक शक्ति का सामाजिक स्वरुप हैं जिससे की क्रमिक विकास का सामाजिक समतुल्य घटित होता है। इसलिए न्याय का होना आवश्यक था। तब निर्णायक होना एक बाध्यता थी। निष्पक्षता से न्याय नहीं किया जा सकता था। इसलिए निर्मोह की आवश्यकता हुई।
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