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विश्वास समाज के निर्माण का आपसी योजक होता है

Trust is most important requisite for flourishing any business. Trust builds societies, trust builds nations.
Unfortunately , our country India is a low-trust society, which is visible in the form of innumerable factions our society suffers from, the myriad "vote banks" that keep affecting adversely our political majority.

Despite Trust getting identified as our key shortcoming, people think about Trust either as a 'State of Mind' (E.g. Blind faith), or else a commodity left in other's possession upon a term and condition that it must not be broken.
Trust is neither of it. Trust is a psychological discharge coming from our set of action-reaction with each other. Trust is discharged from our action when our choices become predictable to each other. Trust comes when our decisions flow from a commonly agreed principle. Trust is when we have a Uniform system of reward and punishment. Trust is, when we have a commonly known system of law and justice.

Trust is law and order.

विश्वास सबसे महत्वपूर्ण वस्तु होती है किसी भी उद्यम को स्थापित करने के लिए। विश्वास समाज की नींव है, विश्वास राष्ट्र का निर्माण करती है।
   दुर्भाग्य से हमारा देश भारत एक अल्प-विश्वास समाज है, जो की प्रत्यक्ष होता है जब हम अपने समाज में विभाजन के इतने सारे स्तर को देखते है, जब है तमाम वोट बैंक को देखते हैं जो की हमारे राजनैतिक बहुमत को कुप्रभावित करता है।
    
     बावजूद की हमने समाज में आपसी विश्वास की कमी को कारक के रूप में शिनाख्त कर ली है, कई सारे लोग विश्वास को कोई मनोवैज्ञानिक अवस्था (जैसे की अंध विश्वास)  समझते हैं, या फिर की कोई वस्तु जो वह किसी अन्य के पास छोड़ रखे हैं इस शर्त पर की टूटनी नहीं चाहिए।
   विश्वास इन परिभाषाओं में से कुछ भी नहीं है। विश्वास एक मनोवैज्ञानिक निष्पाद है जो की एक दूसरे की अंतर क्रिया में से प्रवाहित होता है। विश्वास तब प्रवाहित होता है जब हमारी कर्म क्रियाएँ पुर्वआभासित बनती है। विश्वास तब आता है जब हमारे निर्णय किसी साँझा सिद्धान्त में से निकलता है। विश्वास तब होता है जब पुरस्कार अथवा दंड के एक समरूपी तंत्र का पालन करते हैं। विश्वास बनता है जब एक कानून और न्याय का सिक्का चलता है।

विश्वास का अभिप्राय है कानून-व्यवस्था।

content based pricing के मुद्दे पर एक विचार

चीज़ों के दाम उनके निर्माण की लागत के हिसाब से तय किये जाते थे। कम से कम नागरिक मूलभूत सुविधाओं के दाम ऐसे ही तय किये जाते थे, यही आधार मान की सार्वजानिक आवश्यकताओं को धन लाभ के उद्देश्य से संचालित नहीं किया जायेगा। यानि सार्वजनिक आवश्यकताओं के दाम ऐसे नियंत्रित रहेंगे की सभी जन उसको प्राप्त कर सकें। उधाहरण के लिए सड़क जो की यातायात की बुनियादी आवश्यकता है। और परिवहन प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता है। ऐसे ही, शिक्षा को सामाजिक बदलाव और विकास का आधार माना गया। शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाया गया। जल, भोजन, भवन इत्यादि मौलिक आवश्यकता हैं।
    मगर व्यापारिक उद्यम का उद्देश्य तो हमेशा से धन लाभ को ही माना गया। ऐसे में वह वस्तुओं का दाम उसके निर्माण लागत के स्थान पर उनकी बाजार में मांग और पूर्ती के अनुसार रखना पसंद करते है। व्यापारिक तर्कों के अनुसार 'टके सेर भाजी और टके सेर खाजा" एक "अंधेर नगरी" का चिन्ह है। तो वह वस्तुओं का दाम content based करने की मांग रखते है।
    प्रजातंत्र व्यवस्था की त्रासदी यह रही है की इस व्यवस्था को हमेशा व्यापारियों ने गबन कर लिया है, पॉलिटिशियन्स से मिली-भगत करके। वह पॉलिटिशियन के माध्यम से ऐसी नीतियों का निर्माण करवाता है जिसमे आवश्यक वस्तुओं के दाम में हेर फेर करके वह अपना लाभ कमा सके।
    अब उधाहरण के लिए जल को लीजिये। जल प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता है। ऐसे में व्यापारिक हित यह है की जितना अधिक जल प्रदूषण होगा उतना ही जल की सार्वजनिक पुर्ति कम पड़ने लगेगी। फिर लोग बाध्य हो कर mineral water खरीदेंगे। बस, व्यापारिक समझ के अनुसार कैसे भी करके मिनिरल वाटर की बोतल के दाम सही संख्या पर "नियंत्रित" करवा ले ताकि लाभ बराबर आता है।
     व्यापारिक लाभ की दृष्टि से प्रत्येक किस्म का प्रदूषण तो एक लाभ कमाने के मार्ग का प्रथम द्वार होता है।
    शिक्षा को देखिये। शिक्षा कौशल सम्बद्ध पेशों को देखिये। चिकित्सीय सुविधा भी बुनियादी आवश्यकता है। कुशल चिकित्सक बनने की शिक्षा दाम से बंधित कर दी गयी है। नतीज़ों में, कुशल चिकित्सकों की संख्या कम हो गयी है। और फिर जो महंगी चिकित्सीय शिक्षा ले कर चिकित्सक बनते है, वह दाम भी उसी अनुसार लेते है।
   कुल मिला कर यह समझा जा सकता है की आर्थिक भेद-भाव, यानि की अमीरी और गरीबी, एक सह-उत्पाद होता है धन लाभ के व्यापारिक उद्देश्य के।  पॉलिटिशियन की नीतियों पर नज़र न रखें तो वह नातियों को समाज के उत्थान के जगह अपने व्यापारिक और उद्योगपति मित्रों के धन लाभ के लिए रचने लग जायेंगे।
     इंटरनेट पर content-based pricing आज कल एक नया एजेंडा बन कर उभरा है व्यापारिक लाभ के द्वार खोलने का। content based pricing यानि वस्तु के दाम उसके निर्माण की वास्तविक लागत के हिसाब से तय करने की बजाये उसकी बाजार मांग/ पूर्ती के अनुसार तय किया जाना।

पढाई लिखाई आवश्यक नहीं है, ...आवश्यक है ज्ञान का संरक्षण

(उनके लिए जो की जीवन में पढाई लिखाई को सबसे महत्वपूर्ण मुक्ति का वाहन समझते हैं।
उनके लिए भी , जो यह समझते हैं की कॉलेज डिग्री को जीवन में आवश्यक मनना एक गलत विचार है।)

पढाई लिखाई महत्वपूर्ण नहीं होती। न है व्यक्तिगत जीवन मुक्ति के लिए,और न ही सामाजिक जागृति और उत्थान के लिए ।
महत्वपूर्ण है ज्ञान का कोष निर्माण, संरक्षण और प्रसार ।
अब क्योंकि ज्ञान को निर्मित करने और प्राप्त करने का सबसे प्रत्यक्ष तरीका पढाई-लिखाई ही है, इसलिए कई सारे लोग पढाई लिखाई को ही सबसे महत्वपूर्ण संसाधन मानने लग जाते हैं।
      सामाजिक उत्थान में आवश्यक बिंदु है की समाज में भिन्न भिन्न गुणों और कौशल के लोग हो जो मिल जुल कर सामाजिक उत्थान का मार्ग निर्माण करें। ऐसे में विभिन्न और विशाल भेदों वाले कौशल का विकास आवश्यक हो जाता। यहाँ समस्या आती है की पढाई लिखाई का मार्ग बहोत सारे कौशलों के विकास में एक बाधक होता है। उधाहरण के लिए, कला, क्रीड़ा, exploration यानि खोज यात्राएं , इत्यादि। इस सभी क्षेत्रों के उत्कृष्ट कौशल को विक्सित होने के लिए मनुष्य को अपने बाल्य अवस्था से ही ध्यान केंद्रित करना पद सकता है,जिसके दौरान वह किसी दूसरे अति ध्यान बंधित कार्य, यानि पढाई लिखाई को नहीं निभा सकता है।
   इस तर्क पर हम समझ सकते हैं की क्यों पढाई लिखाई को महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है।
   मगर, विभिन्न कौशलों के उत्कृष्ट विकास के दौरान भी हमें जिस समस्या का सामना कर पड़ सकता है की एक सम्पूर्ण उत्पाद के निर्माण में , या की किसी भी सामाजिक समस्या के निवारण के लिए ..हमें इस सभी कौशलों के गठ जोड़ बनाने की क़ाबलियत भी विकसित करनी पड़ेगी। यानि connecting surface समस्या का सामना कर सकता है। यहाँ हमें connecting surface समस्या का निवारण करने के लिए हमें तमाम कौशलों के विशिष्ट ज्ञान का एकीकृत इनसाइक्लोपीडिया या फिर पुस्तकालय निर्मित करना पड़ेगा। हमें अब या तो उम्मीद करनी पड़ेगी की कुछ एक नागरिक स्वेच्छा से इस पुस्तकालय से ज्ञान ले कर कौशलों के गठजोड़ से उत्पाद निर्मित करेंगे; या फिर हमें वापस पढाई लिखाई को अनिवार्य करते हुए कुछ मनुष्यों को बाल्यकाल से ही उस पुस्तकालय से ज्ञान अर्जित करवाना होगा।
    यानि, बात घूमती हुई पढाई लिखाई की अनिवार्यता के तर्क पर लौट आती है।
हाँ,एक विकल्प भी दिखाई देने लगता है की कैसे पढाई लिखाई की अनिवार्यता का निपटारण करते हुए भी उत्पाद का निर्माण किया जा सकता है। वह विकल्प यह है की यदि स्वयं स्कूली शिक्षा और पढाई लिखाई की और ध्यान नहीं दे सके हैं ,तब भी स्वेच्छा से अपने कौशल के द्वारा किसी भी उत्कृष्ट उत्पाद के मद्देनज़र हमेशा तैयार रहे पढ़े लिखे मित्रों और रिश्तेदारों का सहयोग लेने के लिए।

Why no creamy layer among the SC ST group

The cure for social discrimination has been the Affirmative action.
In the case of gender based discrimination too, Reservation has been the chosen path. 50% reservation for Women is the highlighting evidence.
    The point is simple and logical. Reservation is the way to achieve Proportionate Representation, that is, to cure the malaise of social discrimination.
   However, the Anti-reservationist have aversion only to the caste based Affirmative action. They make chaotic arguments raising arbitrary questions, most of these questions being of a denialist nature that the Caste based discrimination is an imaginary victimization,  which has never actually occured.
   One of these questions is why should a generation of the same family enjoy the benefits of reservation. The question is more of a sham exercise , perhaps with an agenda of dissolving out the reservation policy altogether. However, if there be any substance it then this is perhaps what it wants to point to, -- why should not there be a creamy layer kind of filtering even among the SC/ST group, just like there is one in the OBCs.
    In my thinking, the reason for why a "creamy layer" kind of internal filtering couldn't not be adopted is settled in the depth of social discrimination suffered by them, which has it's evidence sowed in the Constitution too. The reservation for SC ST is emanating directly from the Constitution, Art 335, Art 338 and Art 338A, (read with Art 17) whereas the OBCs receive it indirectly, through an interpretation of Art 14, when read with Art 340..
    I think the one truth that the anti-Reservationists wish to keep suppressed is that the reservation benefited castes, all, including the SC , the ST and the OBC together make above 80% of India's population. Caste based census data has been kept suppressed for a host of reasons, one being this.
      So, logically, the figures for reservation-in-employment could have been perhaps as much. But then, since the arguments for capping the reservation has been held successful in the Supreme Court of India (for most purposes) , therefore 49.5% max has become the consensus mark. Thus, whereas the SC and ST have 15% and 7% reservation already, a figure which represents their population proportion, therefore the remaining from the cap of 49.5%, i.e. 27%(approx) went into the OBC's favour. However, since this is way less compromised figure compared to their proportionate representation, therefore a mutual contest in the OBC group was to become apparent. It is to resolve this internal dispute from this class, that the 'creamy layer' idea was floated and found its way. 
   The tragic ground truth about the SC and the ST group is that they have still not succeeded in making it to the social resources in many counts as has been kept reserved for them. Many of the seats for SCs and STs go unfilled despite a reservation. That may explain why the Creamy layer kind of idea may not yet be suited for them.

Reservation Policy : Life's 80:20 theory at work...A matter of Proportionate Representation

Another mistake of comprehension that the anti-reservationists are doing is that they are thinking that the purpose of Reservation Policy is to provide Financial strength to the oppressed.
For a long time even i had same view, which ofcourse I now believe it has slight errors in it.
The reservation policy intends to transfer the resources of the society in favour of the historically alienated people.
Somehow, the statistical information that the proponents of the Reservation policy hold is that-- about 80% of the resources of the society are in possession of the lesser than 20% of the population. A glancing look of this Advantaged 20%club reveals that they are basically the historically Socially uplifted class , typically described by their "Caste" as a Common factor.
Article 14 of the Constitution of India lays that there shall be "equality before law" AND also that there shall be "equal protection from the laws".
   Thus,in the second phrase - "equal protection from the laws ", there in an in-built idea , which the Constitutional experts call as the "Doctrine of Reasonable Classification" in our Constitution. To be able to provide "equal protection from the laws", the government has a duty to classify the people along a certain line.
The makers of the Constitution had picked this Article from the American Constitution. The Doctrine of Reasonable Classification was originally propounded by the American political thinkers, who had discovered that a direct application of the "equality before law" will bring the judicial evil of perpetuating the inequality already ingrained within the society. Hence, the  laws will have to do some reverse biasing in order to achieve the true equality in the society.
Thus, in the process of the government duty of classifying the people, the closest approximation of "Caste" is used. This, based on the scientific evidence that the Indian society had suffered the social evil of Caste based evil, which has lead to the phenomenon of over 80% of our social resources going into the hands of lesser than the 20% of the population !! (there is this famous "life's 80:20 philosophy" at work over here too.) .
  In South Africa, their Government believes that 'historical alienation' is the explanation for why with about 95% of their population being that of the Black African people, why is it that their national sports teams of Cricket, Rugby Football have lesser than 10% representation of these people.
    Ofcourse, the advantaged have counter argued the matter, attributing away the disbalances thus observed to the Dawrin's theory of Evolution, which is to say that the superior Traits have won their struggle of survival over the inferior traits. 
     But the social and the political thinkers have dismissed this argument, after looking at the history of inequalities that the human society has always carried with it throughout its period of existence on earth. Social reforms will be postponed away to the hopes of a Good Evolution, if this inequality were really so.
    Imagine, if the underlying explanation of the Developed Nations versus the Developing nations were also attributed away to the unequal Evolution. Question yourself if you are ready to accept this argument and resign the causes to a bad evolution. Do we not argue about how nation has suffered centuries of suppression at the hands of foreign invaders ? why do we see that as the argument for why India is a developing nation ?

भेदभाव आचरण को प्रमाणित कर सकने की न्यायिक मुश्किलें

कानून और तर्क के पेचिंदियों में सही-गलत को साबित करना आसान है, मगर भेदभाव को साबित करना बहोत मुश्किल होता है। गलत वह है जिसके लिए सीधे और स्पष्ट , परिभाषा वाले कानून मिल जायेंगे। मगर भेदभाव को करने के अनगिनत तरीके होते हैं और उसे जायज़ साबित करने के अनेकों तर्कपूर्ण बहाने मिल जाते हैं। इसलिए भेदभाव के आरोपों को न्यायलय में साबित करना बहोत मुश्किल होता है।
   भेदभाव , यानि unfariness, के अभियोग अक्सर करके श्रमिक कानून(labour laws) के क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं। हालाँकि याद कदा ऐसे आरोप किसी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा (business competition) के क्षेत्र में भी उत्पन्न हो सकते हैं।
   भेदभाव के आरोप को साबित करने में एक बड़ी तार्किक मुश्किल यह होती है की इसमें कोई भी सीधा प्रमाण (direct evidence) नहीं मिलता है। जाहिर है,क्योंकि भेदभाव करने वाला पक्ष कोई लिखित सबूत नहीं छोड़ना चाहेगा की वह किसी खास व्यक्ति को निशाना बना कर कोई कार्यवाही कर रहा है। इसलिए अब मजबूरन भेदभाव को हालात के सबूत , परिस्थिति जन्य सबूतों (circumstantial evidence) के बिनाह पर ही साबित करने का प्रयास करना पड़ता है। ऐसे में कोर्ट, न्यायधीश की व्यक्तिगत संवेदना, और उस क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञों पर बहोत कुछ निर्भर करने लगता है की वह किन परिस्थितियों को भेदभाव आचरण मानते हैं, और किन परिस्थितयों के 'बहनों' को 'वैध आचरण' मानते हैं।
    भेदभाव आरोप के अभियोग में बड़ी मुश्किल तो यह भी होती है की तर्क और विधान की पेचिदियों को नहीं समझने के वजह से लोग अकसर यही साबित कर देते हैं की भेदभाव नाम की कोई आचरण होता ही नहीं है, बजाये यह साबित करने के की भेदभाव नहीं हुआ है। भेदभाव को साबित करने के लिए श्रमिक को तुलनात्मक आधार(comparative basis) की ज़रुरत पड़ती है। उसे इसके लिए data चाहिए होता है जिससे वह तुलना कर सके की उसको दिया कार्य या वेतन दूसरे अन्य सहयोगियों के मुकाबले कितना कम या कितना भिन्न है। एक मुश्किल यह है की छोटे और जायज़ परिवर्तन और अंतर तो प्रत्येक कार्यक्षेत्र में अक्सर आते ही रहते है। इसलिए यदि कोई श्रमिक मात्र एक घटना के आधार पर भेदभाव के आरोप लगाता है तो शायद वह इसे तकनीकी विशेषज्ञों की राय के मद्देनज़र इसे साबित नहीं कर पायेगा। भेदभाव को साबित करने के लिए दीर्घकालीन और कभी-कभी तो किसी खास लाभर्ती परिस्थिति में हुए अपमान को साबित करने की आवश्यकता पड़ जाती है। इसके लिए आरोप कर्ता को और अधिक ब्यौरे की ज़रुरत होती है, मगर जो की अकसार उसके पास उपलब्ध नहीं होते हैं।
    भेदभाव अक्सर करके किसी वैध कार्य पद्धतियों के मध्य अमान्य आचरण को छिपा कर किया जाता है। भेदभाव में वैध कार्य पद्धिति और अमान्य आचरण /चुनाव का मिश्रण किसी दूध-पानी के मिश्रण के कम जटिल नहीं होता, -- दोनों को पृथक कर सकना करीब-करीब असंभव होता है। इसलिए यदि कोई संस्था खुद अपनी तरफ से भेदभाव की पहचान/ रोकथाम के लिए आवश्यक नियमावली फेरबदल नहीं करे तो फिर भेदभाव को प्रमाणित कर सकना और अधिक मुश्किल बन जाता है।
   भेदभाव का प्रथम उदग्म संवेदना से होता है। भेदभाव को झेलने वाला व्यक्ति इसे महसूस करता है, मगर वह आरम्भ दौर में वह आशंकाओं से भरा होता है की वह जिस आचरण के प्रति संवेदना महसूस कर रहा है वह वाकई में है , या मात्र यह उसकी अत्यंत सम्वेदन प्रवृति ही है। फिर, वह कुछ काल तक इंचार्ज के आचरण निगरानी करता है कि क्या बार-बार, या की critical क्षणों में उसको जानबूझ कर नकार दिया जा रहा है। यानि casual कारणों के बहाने तौर पर उसको नज़रअंदाज़ किया जा रहा है , या किसी मान्य/ उचित casual कारणों  से। यही पर भेदभाव के पीड़ित की प्रथम तार्किक मुश्किलें आती है-- कि, उसको targeted (निशाना बद्ध) तौर पर नज़रअंदाज़ किया गया है, या की casual (आकस्मक) तौर पर। प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे पल आते है जिसमे कुछ अल्प पद/कार्यों के लिए तमाम श्रमिकों में से किसी एक का चयन करना पड़ता है। अधिकांशतः, ऐसे में seniority को बिनाह बता कर यह चयन(selection) किये जाते है। मगर जब चयन किसी और बिनाह पर होता है, तब भेदभाव के लिए यह प्रक्रिया खुल जाती है। भेदभाव के अर्थ में दोनों ही आचरण आते है : favourtism और dislike । इंचार्ज यहाँ किसी ख़ास का पक्ष लेने के खातिर , या किसी के प्रति अपनी नापसंदगी जताने के खातिर भेदभाव कर सकता है।। चयन की प्रक्रिया के दौरान एक दौर निकल पड़ता है:  कारक और बहनों का - causation और excuses का । अब हालात दूध और पानी के मिश्रण तैयार हो चुके जैसे होते हैं। जैसे किसी मिश्रण में यह पता लगाना मुश्किल होता है की कहाँ दूध हैं और कहाँ पानी, वैसे ही इस परिस्थित में यह समझना मुश्किल हो जाता है की क्या उचित कारक है, और क्या एक बहाना।
     यहाँ पर अब न्यायलय को निष्पक्ष technical expert की राय की आवश्यकता पड़ती है। विशेषज्ञ ही बता सकते है की उस परिस्थिति में किन आचरणों को उचित कारण माना जा सकता है, और किन आचरणों को बहाना माना जाना चाहिए। तकनीकी विशषज्ञों की मुश्किल यह रहती है की प्रत्येक मनुष्य अलग अलग किस्म की प्रतिक्रिया करने के लिए स्वतंत्र होता है, इसलिए विशेषज्ञ मात्र उचित विकल्पों पर इशारा कर सकते हैं, उस इंचार्ज के उठाये कदमों को सही अथवा गलत नहीं कह सकते हैं।  अब यदि किसी संस्था ने पहले से ही भेदभाव के निपटारण के लिए कुछ नियमावली सार्वजनिक घोषणा करी हुई होती है, तब फिर इंचार्ज के तमाम विकल्पों में से चयन किये गए विकल्प पर भेदभाव के सवालों को खड़ा किया जा सकता है, अन्यथा फिर न्यायलय को मात्र भेदभाव की सम्भावना को ही प्रमाणित करके भेदभाव आरोप के औचित्य को तय करना पड़ता है। मगर मात्र सम्भावना के आधार पर भेदभाव करने वाले को सजा नहीं दी जा सकती है। इसलिए ऐसे में न्यायलय एक विशिष्ट अनुदान (specific relief) दे कर रह जाता है, कोई दंड नहीं दे सकता है। दंड दे सकने के लिए आवश्यक होता है कि संस्था के अपने नियम होने चाहिए भेदभाव के पहचान और रोकथाम के लिए ।
   

क्या justice और fairness के मध्य कोई अंतर होता है ?

क्या justice और fairness के मध्य कोई अंतर होता है ?

भारत में अधिकांश लोगों को हम 'हक़ की लड़ाई' लड़ते हुए सुनते हैं। हक़ शब्द का हिंदी अनुवाद 'अधिकार' शब्द है, जिसे अंग्रेजी में Rights बोलते हैं। इसलिए कहीं कहीं एक पर्याय के रूप में 'अधिकार की लड़ाई' भी सुनने को मिलती है। इसी विचार को न्याय की गुहार भी बुला दिया जाता है, जिसे अंग्रेजी में justice कहते हैं।
  आपने कभी सोचा है की क्या justice और fairness को एक ही विचार और एक दूसरे का पर्याय माना जाना चाहिए ?
   justice शब्द का हिंदी अनुवाद न्याय है। कुछ हिंदी शब्दकोष fairness का अनुवाद निष्पक्षता बताते है। समस्या यह है की निष्पक्षता शब्द के लिए अंग्रेजी शब्द neutrality भी है। मगर neutrality और fairness को अंग्रेजी संस्कृति में एक समान विचार नहीं मानते हैं। तो सवाल उठता है की fairness शब्द के लिए उपयुक्त हिंदी क्या होगा ।
  यहां पर मुझे हमारी एक हज़ार सालों से गुलाम हुई सभ्यता की क्षत् विक्षत प्रभाव  दिखाई देते हैं। fairness के प्रति हमारे चिंतकों ने कुछ अधिक लेखन कार्य नहीं किये हैं। यहाँ तक की fairness के लिए हमारी संस्कृति और भाषा में एकीकृत शब्द रचना भी नहीं हुई है।
   कुछ अंग्रेजी विचारकों का मानना है की justice और fairness एक पर्याय विचार नहीं हैं। उनके अनुसार न्याय से अभिप्राय राज्य द्वारा सुनिश्चित अधिकारों के भोगने से होता है। जबकि fairness से अभिप्राय मनुष्यों के समूह में आपसी व्यवहार में 'परस्पर समानांतर आदान प्रदान' से होता है। fairness को level playing field समझा जा सकता है, जिसके लिए कोई एकीकृत हिंदी शब्द है ही नहीं। level playing field को हिंदी में 'समान स्तर रणभूमि'  या फिर "निरझुकाव भूमि" समझा जा सकता है।
       यहाँ मुझे एक भौतिक सामाजिक समस्या -भेदभाव- का कारक दिखाई देता है। सामाजिक आदान प्रदान के दौरान किसी व्यक्ति को कैसे ज्ञात होता है कि क्या आचरण निरझुकाव अथवा समान-स्तर है, या फिर की नहीं ?
     शोषण हमारे देश में हुए भेदभाव का आर्थिक सारांश रहा है। शोषण का अभिप्राय है श्रमिक को उसके स्वामी के द्वारा समान स्तर नियम व्यवस्था या फिर निरझुकाव भूमि को प्रदान नहीं करवाना। यानि, नियमों का ऐसा जंजाल तंत्र बनना की स्वामी हमेशा आर्थिक और न्यायिक लाभ में रहे।
   शोषण कि समस्या का निवारण बहोत सारे विचारकों ने न्याय में तलाश किया है। मगर मुझे यही पर उसके समाधान मार्ग में गलती हुई महसूस होती है। शोषण की समस्या का समाधान न्याय में नहीं, चेतना जागृत करने में है कि स्वामी और श्रमिक के मध्य आदान प्रदान के दौरान सम-स्तर व्यवहार , या निर्झुकाव आचरण कैसा होना चाहिए।
    मुझे लगता है की झुकी हुई भूमि पर जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को शायद इसकी संवेदना स्वयं आ सकती है कि वह झुकी भूमि की समस्याओं से ग्रस्त है। मगर वह फिर भी आसानी से यह ज्ञात नहीं कर सकता है की निरझुकाव भूमि (सम-स्तर भूमि) कैसी होती है, और उसकी जीवन शैली कैसी होती है।
   संक्षेप में कहें तो, लंबे युगों तक भेदभाव वहन किये व्यक्ति को न्यायसंगत , निरझुकाव आचरण का मार्ग स्वयं ज्ञात नहीं हो सकता है। इसका अर्थ यह है की गुलामी की बेड़ियों से ताज़ा-ताज़ा आज़ाद हुआ व्यक्ति अभी भी अपने को गुलाम की तरह ही जीना पसंद करेगा; वह ऐसी गलतियां करेगा जिससे वह वापस गुलाम बन जाये। गुलामी से आज़ाद हुए व्यक्ति को आज़ादी का जीवन जीना सिखाना पड़ेगा यदि उसको वाकई दीर्घकालीन स्वतंत्रता प्रदान करवानी है तो।
     साधारण तौर पर प्रत्येक मनुष्य को fairness का ज्ञान बाल्यकाल में क्रीड़ा भूमि पर होते आपसी वाद विवाद में प्राप्त होता है। खेल कूद में क्रीड़ा नियम और उनके औचित्य को सोचने पर हमें fairness की समझ आती है। इसी तरह, किसी और भी आपसी प्रतिस्पर्धा वाले कार्य के दौरान हमें fairness क्या है और क्या नहीं है का स्वःज्ञान प्राप्त होता है। श्रम प्रबंधन और श्रमिक प्रशासन में fairness के नियमों का बहोत गेहरा उपयोग है। श्रम कानून में unfair labour practises का जिक्र बहोत महत्वपूर्ण है। इसलिए क्योंकि श्रम नियंत्रण में अवैध अथवा illegal को तय कर सकना मुश्किल होता है। यह आवश्यक नहीं है की जो unfair है, वह किसी right के उलंघन के द्वारा ही किया जा सके। unfair और rights का उलंघन एक दूसरे से सम्बद्ध कदाचित नहीं होते हैं; unfair और illegal एक विचार नहीं हैं। जहाँ राइट्स का उलंघन होता है, वहां illegal होता है।  illegality का सम्बन्ध justice से है। यानि, श्रम प्रबंधन में justice कर सकना मुश्किल होता है,क्योंकि अक्सर स्वामी अपने श्रमिक के rights को तोडे बीना भी unfair लाभ प्राप्त कर लेता है। justice के स्थान पर fairness का उपयोग किया जाता है, और unfair labour practises की सूची बनाई गयी है जो कि उधाहरण द्वारा पक्षपात अथवा भेदभाव आचरण को झलकती है।
   इसी तरह से किसी कारोबार में आपसी प्रतिस्पर्धा में भी कानून की निष्पक्षता को झुकाव की तरह उपयोग करके अनौचित्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इस समस्या से निवारण के लिए unfair trade practises का जिक्र होता है।
    क्योंकि unfair और illegal एक विचार नहीं हैं, इसलिए justice और fairness भी एक और समान अर्थी नहीं हैं
       श्रमिक प्रबंधन और किसी भी प्रतिस्पर्धा (competitive field)  में घटित गलत(wrong) का निवारण justice से कहीं अधिक fairness से जुड़ा होता हैं।

The rotating earth and the inequality thereof

btw, methinks that a horological phenomenon, rotation of earth from west to east, is the source event which causes eastern part of Terra firma to be natural resources rich. you can see that as a global pattern. infact the founding of the Continental Drift theory is based on this phenomenon. Centrifugal forces of the rotating earth have caused most of its heavy mineral to settle away of its equator on each of the Terra firma pieces. hence the South is resources rich. the west is generally dry as the rain and cloud bearing winds blow from east to west. hence east is water resource rich too. the social impact of abundance of natural resources, food reserves and wateris that people are less enterprising. hence, less of business acumen. the west dominates because the people are more business skilled and enterprising, because business and trade is their survival way.
this is "Californication" phenomenon, "the sun may rise in the east but it settles in the west location", as the lines in the song go.
Smaller nations have been more adventurous and dominant ,militarily and economically. Changez Khan was from a dry gobi desert land, he conquered the world. The British were island people, they followed. the Arabs, the Japanese, and in India the Marwaris from Mewar area.
    the east has been the nerve centre for religion and philosophy, and the founding of civilization.  Civilizations have settled where there has been abundance of drinking water. The east have often been more water rich than the west, and hence taken the lead in founding the religion.

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