क्या यह संभव है की पुराने सामंतवाद के युग का आत्म-पूजन मनोविकार हमारे आधुनिक प्रजातंत्र में कुटिल बुद्धि का कारक बना हुआ है ? कुटिल बुद्धि से मेरा अर्थ है जुगाड़ बुद्धि (crooked thinking), वह जो विचारों के अर्थ को उसके ठीक विपरीत कर के समझतें हैं / पुराने युग में सामंतवादी , ज़मीदार, अक्सर आत्म-पूजन मनोविकृत लोग हुआ करते थे/ इसलिए क्यों की उनके पास जनता पर शासन करने के ताकत असीम थी/ भई कोई सरकार , कोर्ट, कचेहरी तो थी नहीं/ राजा-रजवाडो का ज़मान था/ अगर राजा को शिकायत करें भी तब भी राजा से ज़मींदार की नजदीकियां उनकी ताकत का पैमाना बन कर दिखाती थी /
रामायण का पूरी कहानी रावण के अन्दर बैठे अहंकार से उत्पन्न हुए त्रुटियों को झलकाती है / आश्चर्य है की यही अहंकार को उसके सही मानसिक-रोग के लक्षणों में हम लोग आज भी नहीं पहचान सकें और आज के युग में भी भारतीय संस्कृति में लोगो की एक दूसरे से सर्वाधिक जो शिकायत रखतें है वह है 'ईगो' की /
"ईगो प्रॉब्लम" इंसान में व्याप्त 'अहम्' का ही बढा हुआ स्वरुप है/ अहम् ही इंसान को अन्य पशुयों से अलग करता है / इंसान स्वयं को आईने में देख कर पहचान सकने की काबलियत रखता है / वैज्ञानिक समझ से यह एक जटिल क्षमता है जो कुछ ही जीवों में पायी जाती है / इस क्षमता का अर्थ है की जीव में एक समालोचनात्मक-चिंतन, या फिर कि रचनात्मक -चिंतन संभव है, क्यों कि वह जीव स्वयं के 'अक्स' को देख सकता है , और उससे याददाश्त में रखने की काबलियत है / अब 'अहम्' यही से विक्सित होता है की वह स्वयं की याददाश्त में स्वयं की छवि को किस रूप में गृहीत करता है / यह छवि ही 'अहम्' है / अगर यह छवि उसकी कल्पनाओं से प्रभावित हो कर वास्तविकता से दूर चली जाती है तो "ईगो प्रॉब्लम" विकसित हो जाता है / साधारणतः "ईगो प्रॉब्लम " किसी पूर्व जानकारी के नयी जानकारी के टकराव से होता है क्यों की मस्तिष्क अभी पुरानी जानकारी के प्रकाश में हे अहम् को सजोंये रखता है / नए जानकारी में नयी-छवि, या छवि-परिवर्तन में समय तो लगेगा ही /
अब अगर छवि किसी भगवान् की ही बनी हो तब यह "ईगो प्रॉब्लम" बढ कर आत्म-पूजन मनोविकार हो जाती है / भारतीय संकृति में स्वयं की छवि में भगवान् में देखना कोई बड़ी मुश्किल बात नहीं है, क्योंकि हमारी सभ्यता ही "हीरो वरशिप ", यानी नायक-पूजन की है / हमे अपने हीरो की पूजा करना बचपान से सिखाया गया है / हमारे हीरो, भगवान् , अकसर इंसान के अवतार में ही धरती पर आये हैं, यानी वह हम में भी तो हो सकते है , "है, की नहीं ?"/
और आज भी हम अक्सर जीवित इंसान को नायक मान कर स्वयं ही उसकी पूजा करने लगते है, जैसे सचिन तेंदुलकर या अमिताभ बच्चन/ यह काल्पनिक या अत्यधिक दूर बैठे नायक का पूजन भी अंततः हमारे आत्म-पूजन की इच्छा का पोषण कर रहा होता है , क्योंकि हम स्वयं उसका अनुसरण कर रहे होता हैं, और उस काल्पनिक नायक की पूजन में हम स्वयं में उसके जीवन की घटनाओं का अनुसरण कर स्वयं के कर्मो को सरहना कर रहे होते हैं/ नायक क्योंकि सभी के द्वारा पूजा जाता है, तो एक तरीके से हम अपने उन अनुसरण किया गए कर्म की समाज के हर व्यक्ति से स्वीकृति कर रहे होते हैं /
आत्म-पूजन मनोविकार के व्यक्ति हर एक विचार को स्वयं के केंद्र से ही देखतें है , की किसी सर्वमान्य बौद्धिक विचार से उनको कैसे लाभ पहुँच सकता है, या उनकी इस अहम् की छवि को कोई लाभ कैसे मिलेगा / वह ऐसा जान बूझ कर नहीं कर रहे होते है, बल्कि उनका मस्तिष्क इसी तरह से कार्य करने के लिए स्वयं को प्रशिक्षित कर चुका होता है / आत्म-पूजन भी एक तरह का बुद्धि-योग है , जो मष्तिष्क को कुछ ख़ास तरह से कार्य करने का प्रशिक्षण दे देता है / आत्म-पूजन मनोविकार से ग्रस्त व्यक्ति अक्सर बचपान से ही ऐसा पोषण किया गया होता है की मानो उसको हमेशा से सिर्फ अच्छे , सही कर्म करने के लिए प्रशिक्षित किया गया हो / अब वह स्वयं को हमेशा सही, उचित, भगवान्-मयी , भगवान् का अनुसरण करने वाले के रूप में ही छवि रख कर देखता है / एक अन्य अर्थ में , --वह कभी गलत हो ही नहीं सकता !
नतीजे में यह व्यक्ति अपनी समालोचनात्मक चिंतन को जागृत नहीं कर पाता है /
धीरे-धीरे वह कुटिल-बुद्धि (जुगाड़ मानसिकता )योग में चला जाता है जब वह हास्य रूप, या किसी भी प्रकार से , कुछ भी कर के विचारों को स्वयं के पूर्ति में परिवर्तित कर के समझाना आरम्भ कर देता है / तो शायद ऐसे शुरू होती है यह आत्म -पूजन मनोविकार से कुटिल-बुद्धि चिंतन (crooked thinking) की कड़ी /
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
सम्मान क्या है , और किसी राजनेता का सम्मान क्यों होना चाहिए
बहोत दिनों से विचार कर रहा था की किसी राजनेता का सम्मान क्यों होना चाहिए ?
अब बात आती है कि राजनेता का सम्मान किस लिए होना चाहिए ?
आधुनिक राजनेताओं कि चपलता तो देखिये। व्यतिगत "जेड प्लस " सुरक्षा के नाम पर यह राजनेता और अधिक से अधिक अन्धकार में छिपाने लगे है , और अब सम्मान को भी मौलिक या मानव-अधिकार कह कर मांगने (या यु कहें वसूल-वाने ) लगे हैं। यह गुंडागर्दी का व्यवहार है , सभ्यता को अन्धकार में धकेलना के कदम।
राजनेता को व्यवसाय या फिर पेशे दोनों का ही त्याग करना पड़ता है। वह 'लाभ के पद' पर नहीं रह सकता। मगर आधुनिक राज नेता कोई "ट्रस्ट " बना कर उस पर विराजमान हो जाते हैं। विधान में सभी पदों के तीन वर्गों में रख कर चिन्हित किया जाता है -- लाभ का पद, सम्मान का पद (ऑफिस ऑफ़ हॉनर) और विश्वास का पद। "ट्रस्ट" के अध्यक्ष में वह "लाभ" का पद न ले कर 'सम्मान' और 'विश्वास' का पद ले लेतें हैं। अब वह राजनेता और "ट्रस्ट" के अध्यक्ष दोनों बन जातें हैं। आज कल के राज नेता पहले वकील बन कर कोर्ट में मुकद्दम लड़तें है और फिर राजनेता बन कर अपने मुकम्विल को नीति-निर्माण और विधान-अधिकार से फायदा न पहुचाने का दावा भी देते हैं। राजनेता को व्यवसाय या फिर पेशे दोनों का ही त्याग करना पड़ता है। वह 'लाभ के पद' पर नहीं रह सकता / मगर आधुनिक राज नेता कोई "ट्रस्ट " बना कर उस पर विराजमान हो जाते हैं / विधान में सभी पदों के तीन वर्गों में रख कर चिन्हित किया जाता है -- लाभ का पद, सम्मान का पद (ऑफिस ऑफ़ हॉनर) और विश्वास का पद । आज कल के राजनेता पूर्व में पेशे स वकील होते है और अपने मुवक्किल को बचते है। फिर बाद में नेता बन कर दावा भी देते हैं की निति निर्माण में कोई पक्षपात नहीं हुआ है; -- कहीं कोई "विरोधाभासी अभिरुचि का संकट" नहीं है। एक इंसान एक रूप में उसका वकील बन कर उससे बचाता है , और दुसरे रूप में नीति-निर्माण कर्ता बन कर उसके हितों के विरुद्ध भी सही नीति बनाएगा -- यह दावा करता है।
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विचारों के पहेली में उलझते हुए यह बात मन में आई की कहीं ऐसा तो नहीं की भारत में जब समान(= परस्पर) दृष्टि से सभी का सम्मान की सभ्यता नहीं है तो क्या यहाँ की न्याय प्रक्रिया भी समान नहीं हो सकती? यानी बड़े लोगों की अलग न्याय और छोटे लोगों के लिए अलग न्याय । जब हिंदी में 'आप" और 'तुम" अलग-अलग नाप-तौल के सम्मान को दर्शाते हैं तब हमारी समान न्याय व्यवस्था तो वही मात खा चुकी होती है की "आप' वाले के लिए अलग सम्मानिन्य न्याय और 'तुम' वाले के लिए उसके ओहदे के लायक न्याय /
पहले तो, की यह भी एक बहुत जटिल सूझ का विचार है कि सम्मान है क्या और किसी का सम्मान करने में क्या घुमावदार उलझी बातें है ।
सम्मान को ज्यादातर कुछ शब्दों और कुछ ख़ास संस्कारो के द्वारा दर्शाते है, जैसे बात-चीत में 'आप' का प्रयोग और चरण स्पर्श इत्यादि से । एक उलझी हुई बात यह है की ऐसा नहीं की सभी भाषाओँ में "आप" या उसके सम-तुल्य शब्द है किसी के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए । उधारण में अंग्रेज़ी को लीजिये , जिसमे सिर्फ "यू" शब्द ही है, हर एक के लिए, चाहे बड़ा, चाहे छोटा। और सम्मान के लिए खोई ख़ास अलग शब्द नहीं है, या यूँ कहे की सभी के लिए एक समान का सम्मान है। कुछ ऐसे ही हाल इधर भारत में भी कुछ भाष्यों में मिलता है, जैसे मुंबई की मुंबईया-हिंदी में,या हरयाणवी-हिंदी में । इसके विपरीत हिंदी (और उर्दू) में अगर "आप" सम्मान के लिए है, तो फिर "तू" या 'तुम" किस मनोभाव के लिए यह आप खुद ही सोचने के लिए आज़ाद हैं ।
यानी अगर किसी वार्तालाप में सम्मान का व्यक्तव्य नहीं है तो फिर बातचीत मुश्किल हो जाती है । क्यों कि सम्मान तो किसी को खुद स्वेच्छा से देना चाहिए। मगर अगर किसी संस्कृति में सम्मान को पहचाना ही नहीं जाता और देने की बात ही नहीं है तब "सम्मान"-संवेदशील संस्कृति के व्यक्ति के मन को चोट पहुँच सकती है। अब अगर यह व्यक्ति सम्मान को वसूल्वाने लगे तो बात बहोत भ्रमकारी होने लगती है-- कि यह व्यक्ति संस्कृति-वाद से प्रभावित है; या फिर कि अहम्-वादी है जो कि सिर्फ अपने लिए कुछ-ख़ास कि मांग करता है ; या फिर कि और भी अधिक गंभीर हालत में आत्म-पूजन मनोविकृत है , जो लोगों से अपनी पूजा-अर्चना कि चाहत रखता है ?
ठीक उलटे, "सम्मान" न देने वाले पर भी बात आती है कि क्या वह ऐसी सभ्यता है जहाँ सम्मान का व्यक्तव्य नहीं?
यानी अगर किसी वार्तालाप में सम्मान का व्यक्तव्य नहीं है तो फिर बातचीत मुश्किल हो जाती है । क्यों कि सम्मान तो किसी को खुद स्वेच्छा से देना चाहिए। मगर अगर किसी संस्कृति में सम्मान को पहचाना ही नहीं जाता और देने की बात ही नहीं है तब "सम्मान"-संवेदशील संस्कृति के व्यक्ति के मन को चोट पहुँच सकती है। अब अगर यह व्यक्ति सम्मान को वसूल्वाने लगे तो बात बहोत भ्रमकारी होने लगती है-- कि यह व्यक्ति संस्कृति-वाद से प्रभावित है; या फिर कि अहम्-वादी है जो कि सिर्फ अपने लिए कुछ-ख़ास कि मांग करता है ; या फिर कि और भी अधिक गंभीर हालत में आत्म-पूजन मनोविकृत है , जो लोगों से अपनी पूजा-अर्चना कि चाहत रखता है ?
ठीक उलटे, "सम्मान" न देने वाले पर भी बात आती है कि क्या वह ऐसी सभ्यता है जहाँ सम्मान का व्यक्तव्य नहीं?
मगर यह स्मरण रहे कि फिर ऐसी सभ्यताओं में सभी को एक दृष्टि से "सम्मान" दिया जाता है , और कुछ अन्य कर्मो द्वारा उससे दर्शाया जाता है। जैसे कि अंग्रेजी सभ्यता में आफिस में बड़े-छोटे का अंतर नहीं होता और आफिस के 'बॉस' को भी उसके नाम से ही पुकारा जाता है। वहां कि न्याय व्यवस्था में भी इस बात के अंश है कि कनिष्ट को जयेष्ट से डरे बिना अपना पक्ष रखे में कोई सामाजिक रोक टोक नहीं , और अक्सर जयेष्ट को उनके गलत मांगो और निर्णयों के लिए सज़ा भी हो जाती है , वह भी कनिष्ट कि शिकायत पर।
इधर, कुछ अन्य सभायतों में "सम्मान" के न तो शब्द है , न ही कर्म और न्यायिक समझ। यानी यह "कम" विकसित सभ्यताओं से ताल -मेल रख कर काम करवाना मुश्किल होता है।
इधर, कुछ अन्य सभायतों में "सम्मान" के न तो शब्द है , न ही कर्म और न्यायिक समझ। यानी यह "कम" विकसित सभ्यताओं से ताल -मेल रख कर काम करवाना मुश्किल होता है।
( सामाजिक-न्याय कि समझ किसी भी समाज के निर्माण और विकास कि सूचक है। जहाँ न्याय नहीं, या कमज़ोर है वह सभ्यता कम विकसित समझी जा सकती है / )
तो अब "सम्मान" कि लड़ाई में आप 'सांड' के सामने खड़े होते है /
अगर सम्मान न देने वाला ऐसी सभ्यता से नहीं है जहाँ सम्मान का व्यक्तव्य है , मगर वह फिर भी नहीं दे रहा है, तब बात यह आती है कि सम्मान कि मांग करने वाले को शायद यह सम्मान के लायक ही नहीं समझते। ऐसे में नापा-तुला सही रास्ता है होगा कि-- या तो उसकी शिकायतों को सुन कर उसे दूर करें, या फिर चुप-चाप काम पूरा कर के वहां से चलते बनें।
भारत की अधिकतर भाषाओं में सम्मान का व्यक्तव्य अलग शब्द के माध्यम से होता है।। इसलिए भारतीयों के लिए आवश्यक होगा कि वह सम्मान दें, अथवा न देने का निर्णय विषय व्यक्ति को सोच कार दें। यह विचार राजनेताओं के सम्मान के विषय में भी लागू होगा। अन्यथा सम्मान न देने पर इस व्यवहार का एक प्रतिकूल निष्कर्ष हमारे विरुद्ध होगा कि हम लोगो अपने राजनेताओं का सम्मान नहीं करते है।
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अब बात आती है कि राजनेता का सम्मान किस लिए होना चाहिए ?
जब अरविन्द केजरीवाल अपने म़तदान उम्मीदवार से यह अपेक्षा रखतें है कि वह उम्मीदवार चुनाव जीतने के उपरान्त लाल-बत्ती वाहन का प्रयोग नहीं करें , या बड़े बंगले कि मांग नहीं करेंगे , तब मेरे मन में प्रश्न आता है कि भाई किसी मंत्री को क्या वाकई लाल-बत्ती नहीं मिलनी चाहिए ?
जैसे-जैसे हम टी-वी पर हो रही बहसों को सुन रहें हैं, हम किसी एक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था कि सच्चाइयों से सम्मुख हो रहे है , कुछ समाजशास्त्र , राजनीतिशास्त्र, प्रशासनीय और न्यायायिक 'सत्य' उभर कर सामने आने लगे है । यह 'सत्य' वही विचार है जो पहले भी सभ्यता में थे, मगर अपने सही तर्क के प्रत्यक्ष हुए बिना थे-- किसी सांस्कृतिक कर्मकांड के भाँती कि राजनेता का सम्मान एक सांस्कृतिक कर्मकांड है।
आज हम इस 'सत्य' ,कि " सभी राजनेता वाकई में सम्मान के काबील ओहदा है", को उचित तर्कों में तब ही समझ पायेंगे जब स्वयं से अनुभव करेंगे किसी राजनेता के द्वारा सामाजिक, प्रशासनीय और न्यायायिक कारणों को समझते हुए उसको अपनी एकान्तता(Right Privacy) का स्वेच्छा से परित्याग करते देखें ।
कल्पना करिए, यदि कोई राजनेता यूँही अचानक एक दिन अपनी जमा पूँजी, आर्थिक स्थिति को छिपाने के लिए व्यक्तिगत एकान्तता के मौलिक अधिकार कि मांग न रखे , या कि उसके जीवन में चल रहे प्रेम-प्रसंग हमे अचानक सकते में ना डाल दें- कि, कहीं कुछ और भी तो नहीं जो हमसे छिपा हुआ है,जैसे निति-निर्माण अधिकार और व्यावासिक समीकरण से उपजा भ्रस्टाचारी काला-धन ,इत्यादि।
यह वह परित्याग होगा जो जन विश्वसनीयता के लिए परम आवश्यक है। मगर साथ ही ऐसे परित्यागी के विषय कोई साधारण त्यागी नहीं होगा। सभी नागरिक व्यक्तिगात्ता और एकान्तता की चाहत रखते है और इसलिए इस प्रकार का परित्याग नहीं करना चाहेंगे। इसलिए यदि कोई व्यक्ति अगर जन हित में ऐसा करता है तब वह सही मायने में सम्मान के काबिल होगा।
राजनेताओं को जनता से सम्मान पाने के लिए क्या क्या करना होगा?
राजनेता को आत्म-उदघोषण(self disclosures) के अलावा सामाजिक न्याय (social justice) कि सही उचित समझ का भी प्रदर्शन करना होगा। वह संस्कृति कि आड़ में गलत मन-गड़ंत निर्णय नहीं कर सकते, मनो संकृति कोई कु-तर्क या तर्क-विहीन वस्तु होती है । प्रत्यक्ष को प्रमाण कि आवश्यकता नहीं होती। इसलिए जीवन के कार्यों और विचारों को प्रत्यक्ष रख कर अन्धकार-मयी राजनीति से बचाने वाले सच्चे राजनेता को सम्मान तो देना ही चाहिए। और ऐसे व्यक्ति कि खुद कि तनख्वा भी अधिक से अधिक होनी चाहिए। जो समाज में सभी लोगों कि एकान्तता(privacy) के लिए खुद कि एकान्तता का त्याग करे उसका खुद का जीवन कष्ट पूर्ण न हो उसका ख्याल समाज को रखना ही पड़ेगा। अगर अब भी हम सम्मान न दे तो फिर तो शायद हम "कम" विक्सित सभ्यता बन जायेंगे।
राजनेता को आत्म-उदघोषण(self disclosures) के अलावा सामाजिक न्याय (social justice) कि सही उचित समझ का भी प्रदर्शन करना होगा। वह संस्कृति कि आड़ में गलत मन-गड़ंत निर्णय नहीं कर सकते, मनो संकृति कोई कु-तर्क या तर्क-विहीन वस्तु होती है । प्रत्यक्ष को प्रमाण कि आवश्यकता नहीं होती। इसलिए जीवन के कार्यों और विचारों को प्रत्यक्ष रख कर अन्धकार-मयी राजनीति से बचाने वाले सच्चे राजनेता को सम्मान तो देना ही चाहिए। और ऐसे व्यक्ति कि खुद कि तनख्वा भी अधिक से अधिक होनी चाहिए। जो समाज में सभी लोगों कि एकान्तता(privacy) के लिए खुद कि एकान्तता का त्याग करे उसका खुद का जीवन कष्ट पूर्ण न हो उसका ख्याल समाज को रखना ही पड़ेगा। अगर अब भी हम सम्मान न दे तो फिर तो शायद हम "कम" विक्सित सभ्यता बन जायेंगे।
आधुनिक राजनेताओं कि चपलता तो देखिये। व्यतिगत "जेड प्लस " सुरक्षा के नाम पर यह राजनेता और अधिक से अधिक अन्धकार में छिपाने लगे है , और अब सम्मान को भी मौलिक या मानव-अधिकार कह कर मांगने (या यु कहें वसूल-वाने ) लगे हैं। यह गुंडागर्दी का व्यवहार है , सभ्यता को अन्धकार में धकेलना के कदम।
राजनेता को व्यवसाय या फिर पेशे दोनों का ही त्याग करना पड़ता है। वह 'लाभ के पद' पर नहीं रह सकता। मगर आधुनिक राज नेता कोई "ट्रस्ट " बना कर उस पर विराजमान हो जाते हैं। विधान में सभी पदों के तीन वर्गों में रख कर चिन्हित किया जाता है -- लाभ का पद, सम्मान का पद (ऑफिस ऑफ़ हॉनर) और विश्वास का पद। "ट्रस्ट" के अध्यक्ष में वह "लाभ" का पद न ले कर 'सम्मान' और 'विश्वास' का पद ले लेतें हैं। अब वह राजनेता और "ट्रस्ट" के अध्यक्ष दोनों बन जातें हैं। आज कल के राज नेता पहले वकील बन कर कोर्ट में मुकद्दम लड़तें है और फिर राजनेता बन कर अपने मुकम्विल को नीति-निर्माण और विधान-अधिकार से फायदा न पहुचाने का दावा भी देते हैं। राजनेता को व्यवसाय या फिर पेशे दोनों का ही त्याग करना पड़ता है। वह 'लाभ के पद' पर नहीं रह सकता / मगर आधुनिक राज नेता कोई "ट्रस्ट " बना कर उस पर विराजमान हो जाते हैं / विधान में सभी पदों के तीन वर्गों में रख कर चिन्हित किया जाता है -- लाभ का पद, सम्मान का पद (ऑफिस ऑफ़ हॉनर) और विश्वास का पद । आज कल के राजनेता पूर्व में पेशे स वकील होते है और अपने मुवक्किल को बचते है। फिर बाद में नेता बन कर दावा भी देते हैं की निति निर्माण में कोई पक्षपात नहीं हुआ है; -- कहीं कोई "विरोधाभासी अभिरुचि का संकट" नहीं है। एक इंसान एक रूप में उसका वकील बन कर उससे बचाता है , और दुसरे रूप में नीति-निर्माण कर्ता बन कर उसके हितों के विरुद्ध भी सही नीति बनाएगा -- यह दावा करता है।
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विचारों के पहेली में उलझते हुए यह बात मन में आई की कहीं ऐसा तो नहीं की भारत में जब समान(= परस्पर) दृष्टि से सभी का सम्मान की सभ्यता नहीं है तो क्या यहाँ की न्याय प्रक्रिया भी समान नहीं हो सकती? यानी बड़े लोगों की अलग न्याय और छोटे लोगों के लिए अलग न्याय । जब हिंदी में 'आप" और 'तुम" अलग-अलग नाप-तौल के सम्मान को दर्शाते हैं तब हमारी समान न्याय व्यवस्था तो वही मात खा चुकी होती है की "आप' वाले के लिए अलग सम्मानिन्य न्याय और 'तुम' वाले के लिए उसके ओहदे के लायक न्याय /
समालोचनात्मक चिंतन का आभाव --भारतीय शिक्षा पद्वात्ति की मुख्य गड़बड़
समालोचनात्मक चिंतन (= सम + आलोचना + त्मक , अर्थात, सभी पक्षों या पहलुओं की समान(=बराबर) रूप में आलोचना करते हुए उनको परखना , उनके सत्य होने के प्रमाण दूड़ना) (अंग्रेजी में, क्रिटिकल थिंकिंग, critical Thinking) एक प्रकार का बुद्धि योग है /
भारतीय शिक्षा पद्वात्ति में जिस पहलू पर गौर नहीं किया गया है, वह क्रिटिकल थिंकिंग है / ऐसा पश्चिम के समाजशास्त्रियों का भारतीय शिक्षा पद्वात्ति के बारे में विचार है / भारतीय शिक्षा में मूलतः स्मरण शक्ति पर ही ध्यान दिया जाता है / वैसे भारतियों को भी इस बारे में एहसास है की उनकी शिक्षा पद्वात्ति में कुछ गड़बड़ ज़रूर है , मगर यही "समालोचनात्मक चिंतन" की कमी से अक्सर हम लोग इस गड़बड़ी की जानकारी को भी अपनी स्मरण शक्ति द्वारा ग्रहण करते है और एक दूसरे को यह बतलाते फिरते है की यह कमी "प्रैक्टिकल नॉलेज " ( प्रयोगात्मक जानकारी ) की कमी की है /
'प्रैक्टिकल नॉलेज' एक मुख्य गड़बड़ नहीं है , और क्यों और कैसे नहीं है यह भी समझने के लिए कुछ समालोचनात्मक चिंतन होने की आवश्यकता है , जो की आगे इस निबंध में विचार करेंगे / अभी , पहले यह समझने का प्रयास करेंगे की 'समालोचनात्मक चिंतन' होता क्या है, और कैसे और क्यों इसे बाल्यकाल से ही शिक्षा प्रणाली में परिचित करवाना आवश्यक है /
"क्रिटिकल थिंकिंग, द आर्ट ऑफ़ आर्ग्युमेंट " (अर्थात , "समालोचनात्मक चिंतन, विवेकपूर्ण विचार करने की कला " ) , में इस क्रिया को भी एक प्रकार के शैक्षिक विषय के रूप में अध्ययन करा गया है /
'प्रैक्टिकल नॉलेज' के आभाव को भारतीय शिक्षा पद्वात्ति का मुख्य दोष मनाने वालों में वह असल दोष बाकी रह जाता है, जो हमारी शिक्षा प्रद्वात्ति का वास्तविक दोष है -- समालोचनात्मक चिंतन का आभाव /
इसलिए, क्यों की यह भी एक सोचने वाली बात है की विज्ञानं के कई सारे विषयो में विषय वास्तु प्रकृति में भी कुछ ऐसे व्यव्प्त है की उन के ऊपर प्रयोग के द्वारा उनके व्यवहार का सत्य दिखाना करीब करीब असंभव है / जैसे की विद्युत् की गति जो के करीब तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड "मापी" गए है , या फिर की धरती का भार, या सूरज से धरती की दूरी / यह सब जानकारियों किसी अन्य संसाधन, जो की कल्पना और समालोचनात्मक चिंतन के द्वारा प्राप्त करी गयी है, किसी 'प्रैक्टिकल' के द्वारा दर्शाना या प्रमाणित करना करीब-करीब असंभव हैं /
समालोचनात्मक चिंतन के मनुष्य अक्सर आगे चल कर नास्तिक हो जाते हैं/ यह स्वाभाविक है, क्यों की समालोचनात्मक चिंतन एक रवैया बन जाता है, जीवन जीने का , यह विषयों को किताबों से बहार निकल कर उन्हें आसपास दिखलाने लगता है / जब ज्ञान का भण्डार बहोत विशाल होने लगा था, तब मनुष्यों में ज्ञान के वितरण क्रिया में उससे "विषय" की संज्ञा दे कुछ वर्गों में उन्हें विभाजित किया था, जिससे की नव युवकों को आसानी से प्रदान कराया जा सके / मगर 'समालोचनात्मक चिंतन' की कमी की वजह से यह नव युवक उनके उन ख़ास विषय की पुस्तकों में ही ढूढने लगे, उन्हें आप में सलग्न करना भूल गए और "प्रैक्टिकल" जीवन से दूर चले गए / ऐसा नहीं है की जीव-विज्ञानं की जानकारी गणित, या भौतिकी , या रसायन-शास्त्र, या फिर की राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में नहीं पड़ती / भारतीय मूल का छात्र यह ही त्रुटी करता है की वह इन विषयों में प्रयोग ख़ास "तकनीकी शब्दकोष" को दूसरे विषय के तकनीकी शब्दकोष से सम्बन्ध नहीं कर पता है / या फिर की एक गलत सम्बन्ध बना देता है, जिसकी गलती वोह पहचाने में गलती करता है, अपने कुछ ख़ास विश्वासों और मान्यताओं के वजह से /
इस सम्बन्ध में "एनालोजी" ( = किसी सत्य को समझने के लिए उपयोग होने वाले साधारण और मिलते जुलते उद्दहरण, उपमान, या समरुपी ) के प्रयोग से भ्रमित भी हो जाता है , और उनसे कभी कभी प्रेरित हो कर कुछ अलग ही गलत-सलत 'एनालोजी' देने लगता है /
भारतीय शिक्षा पद्वात्ति में जिस पहलू पर गौर नहीं किया गया है, वह क्रिटिकल थिंकिंग है / ऐसा पश्चिम के समाजशास्त्रियों का भारतीय शिक्षा पद्वात्ति के बारे में विचार है / भारतीय शिक्षा में मूलतः स्मरण शक्ति पर ही ध्यान दिया जाता है / वैसे भारतियों को भी इस बारे में एहसास है की उनकी शिक्षा पद्वात्ति में कुछ गड़बड़ ज़रूर है , मगर यही "समालोचनात्मक चिंतन" की कमी से अक्सर हम लोग इस गड़बड़ी की जानकारी को भी अपनी स्मरण शक्ति द्वारा ग्रहण करते है और एक दूसरे को यह बतलाते फिरते है की यह कमी "प्रैक्टिकल नॉलेज " ( प्रयोगात्मक जानकारी ) की कमी की है /
'प्रैक्टिकल नॉलेज' एक मुख्य गड़बड़ नहीं है , और क्यों और कैसे नहीं है यह भी समझने के लिए कुछ समालोचनात्मक चिंतन होने की आवश्यकता है , जो की आगे इस निबंध में विचार करेंगे / अभी , पहले यह समझने का प्रयास करेंगे की 'समालोचनात्मक चिंतन' होता क्या है, और कैसे और क्यों इसे बाल्यकाल से ही शिक्षा प्रणाली में परिचित करवाना आवश्यक है /
"क्रिटिकल थिंकिंग, द आर्ट ऑफ़ आर्ग्युमेंट " (अर्थात , "समालोचनात्मक चिंतन, विवेकपूर्ण विचार करने की कला " ) , में इस क्रिया को भी एक प्रकार के शैक्षिक विषय के रूप में अध्ययन करा गया है /
'प्रैक्टिकल नॉलेज' के आभाव को भारतीय शिक्षा पद्वात्ति का मुख्य दोष मनाने वालों में वह असल दोष बाकी रह जाता है, जो हमारी शिक्षा प्रद्वात्ति का वास्तविक दोष है -- समालोचनात्मक चिंतन का आभाव /
इसलिए, क्यों की यह भी एक सोचने वाली बात है की विज्ञानं के कई सारे विषयो में विषय वास्तु प्रकृति में भी कुछ ऐसे व्यव्प्त है की उन के ऊपर प्रयोग के द्वारा उनके व्यवहार का सत्य दिखाना करीब करीब असंभव है / जैसे की विद्युत् की गति जो के करीब तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड "मापी" गए है , या फिर की धरती का भार, या सूरज से धरती की दूरी / यह सब जानकारियों किसी अन्य संसाधन, जो की कल्पना और समालोचनात्मक चिंतन के द्वारा प्राप्त करी गयी है, किसी 'प्रैक्टिकल' के द्वारा दर्शाना या प्रमाणित करना करीब-करीब असंभव हैं /
समालोचनात्मक चिंतन के मनुष्य अक्सर आगे चल कर नास्तिक हो जाते हैं/ यह स्वाभाविक है, क्यों की समालोचनात्मक चिंतन एक रवैया बन जाता है, जीवन जीने का , यह विषयों को किताबों से बहार निकल कर उन्हें आसपास दिखलाने लगता है / जब ज्ञान का भण्डार बहोत विशाल होने लगा था, तब मनुष्यों में ज्ञान के वितरण क्रिया में उससे "विषय" की संज्ञा दे कुछ वर्गों में उन्हें विभाजित किया था, जिससे की नव युवकों को आसानी से प्रदान कराया जा सके / मगर 'समालोचनात्मक चिंतन' की कमी की वजह से यह नव युवक उनके उन ख़ास विषय की पुस्तकों में ही ढूढने लगे, उन्हें आप में सलग्न करना भूल गए और "प्रैक्टिकल" जीवन से दूर चले गए / ऐसा नहीं है की जीव-विज्ञानं की जानकारी गणित, या भौतिकी , या रसायन-शास्त्र, या फिर की राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में नहीं पड़ती / भारतीय मूल का छात्र यह ही त्रुटी करता है की वह इन विषयों में प्रयोग ख़ास "तकनीकी शब्दकोष" को दूसरे विषय के तकनीकी शब्दकोष से सम्बन्ध नहीं कर पता है / या फिर की एक गलत सम्बन्ध बना देता है, जिसकी गलती वोह पहचाने में गलती करता है, अपने कुछ ख़ास विश्वासों और मान्यताओं के वजह से /
इस सम्बन्ध में "एनालोजी" ( = किसी सत्य को समझने के लिए उपयोग होने वाले साधारण और मिलते जुलते उद्दहरण, उपमान, या समरुपी ) के प्रयोग से भ्रमित भी हो जाता है , और उनसे कभी कभी प्रेरित हो कर कुछ अलग ही गलत-सलत 'एनालोजी' देने लगता है /
ज़मीर-बिन वकील और निति-निर्माण करने वाले राजनेता
एक बेहद भ्रमकारी और बहस वाले तर्क का प्रयोग करते हुए राजनीति में बैठे शैक्षिक योग्यता और पेशे से वकीलों ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को प्रजातांत्रिक तरीके से मात दे दी है/ अब 'लाभ के पद' पर ही विवेचन करिए / यह सिद्धांत इस लिए बनाया गया होगा की राजनीतज्ञों को शासन से मिली निति-निर्माण की शक्ति का प्रयोग स्वः हित में न हो / अब यानी राजनीतिज्ञों को राजनीति में आने से पूर्व अपने सभी व्यवसायिक संबंधो को कम से कम दस्तावेजों पर तोह विच्छेद कर हे देने चाहिए / मगर राजनीति कर रहे वकीलों की चपलता देखिये / आज ज़्यादातर राजनितज्ञ व्यवसायी है , और यही नहीं, वह उन कमेटियों में भी शामिल है जो उन विषयों पर निति-निर्माण करती है जो विषय उनके व्यवसाय से सीधा सम्बन्ध रखते हैं / और प्रश्न करे जाने पर राजनीतिज्ञ -वकील अपना आम आदमी का मौलिक अधिकार का वास्ता दे कर कहते है की "भई, मैं एक जन-प्रचलित सम्मानित राजनीतिज्ञ हूँ, एक व्यवसायी हूँ, और मेरे व्यवसाय के द्वारा कितने लोगों की नौकरी मिल रही है, कितनी के घर का चूलाह जल रहा है/ इसमें गलत क्या है / मेरा व्यवसाय ही तो मेरे समाज-सेवा का माध्यम है /"
इसी प्रकार का तर्क व्यतिगत , एकान्तता के परित्याग को मात देते हुए ऐसे दिया जाता है , कि, "भई , में भी एक इंसान हूँ/ मुझे भी एकान्तता का मौलिक है , जब यह हक़ सभी मनुष्यों को प्राप्त है / " ऐसा लगता है कि एकान्तता कि स्वेछित परित्याग कि आवश्यकता है ही नहीं , जब कि मुख्य न्यायधीशों और चुनाव आयोग को दिया जाने वाले घोषणा पत्र ऐसे किसी शासन व्यवस्था के सत्य से ही उबरा है कि एक स्व-घोषणा तो करनी ही पड़ेगी /
जनता को भ्रमित करने में वकील अव्वल दर्जे के पेशेवर लोग होते है / आज वकील लोग अपनी स्वयं कि नैसर्गिक सही-गलत के निर्णय कि शक्ति कि इतना भ्रमित कर चुके है कि अब वह न्याय वस्था में भी तर्क-कुतर्क कर के प्रजातंत्र को बड़े ही प्रजातान्त्रिक तरीके से पराजित कने लगे हैं / और जब यह वकील राजनीतिज्ञ बन कर निति-निर्माण कि कमान भी संभाल ले तो बंटा धार तो समझिये ही /
ज़मीर या आत्म की बिना योग्यता और पेशे से बना वकील समाज के लिए बहोत उलझी पहेली के सामान है / यह तर्क-कुतर्क में एक उछ श्रेणी का छलिया है / प्रजातंत्र में सभी के विचारों का सम्मान होना चाहिए / ऐसे में न्याय को यह ज़मीर-बिन वकील एक कटपुतली की भांति नचाते हैं / न्याय को पहले तो बहुमत की इच्छा दिखाया जाता है / और फिर मूल समझ को पराजित कर के कुतर्क शुरू हो जाता है / न्यायधीश भी तो इसी सामाजिक व्यवस्था का नागरिक है / और प्रतिपक्ष का वकील भी / बाकी क्या रह गया /
सरकारी लोकपाल का उद्दहरण लीजिये / इसमें भ्रष्टाचार करने वाले से अधिक सजा खुलासा करने वाले को देने का प्रबंध है , इस तर्क पर की गलत 'खुलासे " से सरकारी-सेवक को कार्य में बाँधा पहुचेगी / मनो, लोकपाल बनाने का उद्देश्य भ्रस्टाचार मिटाना नहीं, भ्रस्टाचार की शिकायत करने वालों की हटाना है / अब चुकी , प्रजातंत्र में सभी वर्गों की शिकायतों को सुना जाता है, एक वर्ग उन सरकारी अफसरों का भी तो होगा ही जो भ्रस्ताचार के 'झूठे आरोपों" से त्रस्त होंगे / है, कि नहीं?
बल्कि प्रजातंत्र व्यवस्था का एक सत्य यह भी है कि किसी न्याय को मात देने के उतने ही घुमावदार तर्क है , जितने कि न्याय को प्राप्त करने के / उदाहरण में येही लीजिये कि एक वन और पर्यावरण मंत्रालय भी तो है / यानी अगर लोकपाल व्यवस्था को मात देनी है तो यह भी तर्क रख सकतें है कि कागज़ चुकी पेड़ो से बंता है, इसलिए पर्यावरण कि रक्षा हेतु किसी भी नागरिक को जीवन में सिर्फ एक बार ही भ्रस्टाचार कि शिकायत करने कि छूट दी जाएगी / या फिर, एक जज जीवन में सिर्फ एक ही भ्रस्टाचार के मुकद्दमे कि सुनवाई करेगा /
मगर विज्ञान में इस तरह के घटनाक्रमों पर बहोत समझ विक्सित हो चुकी है / ज़मीर -बिन वकीलों को विज्ञानियों में यह भ्रम करवाना आसन नहीं होगा /
उपर्युक्त विचारों में मेरे कहना का मतलब यह कतई न था कि राजनीति में "लाभ के पद " में व्यवसायी की भाँती वकीलों के आगमन पर भी प्रतिबन्ध होना चाहिए / :-p
Why are we so lazy ?
Laziness. we often accuse some of out rivals, their entire community of being Lazy. Like I'd like to say, "Indians are the laziest of all people i know of". So, what is laziness? What is the psychology of laziness? What is the evolutionary origin of Laziness?
Wikipedia speaks of laziness as "Laziness (also called indolence) is a disinclination to activity or exertion despite having the ability to do so. It is often used as a pejorative". Almost all the religions describe as a great sin. In Economics, Laziness is described as the purpose of all our hard work ! if laziness is taking a leisure and break from work, then one of the agenda of every hard working man is to take a great rest from work someday and laze around.
(((((((( quote from the website http://ronnyeo.wordpress.com/2008/08/06/evolutionary-psychology-laziness/ ))))))))))
Our brain induce pleasure in order to motivate us to eat, socialize, copulate, getting things which are hard-to-get, and etc. And our mind give out negative pleasure when things are not going the right way. We feel lonely and miserable when we do not have companions around, we feel angry when someone insulted us, we feel dejected when the person we like rejected our love and etc.
Another funny thing about human pleasure and motivation is – there’s a hierarchy. Remember the time when you crave something so badly that you think about it day and night? However once you get it, and after a few days, this craving will slowly fade away and then you will start to crave for something else which is more valuable or hard to get?
Evolution utilizes emotions to guide the survival of life. Again, it is not by any means perfect at all. Perhaps it is ugly too. But the most important thing is – It Works.
I think the root of laziness also lies somewhere in the cultural narcissism we suffer from . If 'lack of motivation' is the most recognised cause of laziness, then the cause for "lack of motivation" lies in the feudalistic hierarchy system we have, not just in the politics but also in our homes and community. We are nurtured in a way where some narcissist leadership, a head , a person in-charge, is ordering us to do some work against our natural will to do that work or not to do that work. We slowly develop a stone-minded will, we jettison off our freedom of choice and thoughts. Motivation becomes an academic schoolbook pressure to respond to. Emotional Intelligence towards Motivation is decayed such that we neither know how to motivate nor we like to draw inspirations or be motivated from something emotionally enriching.
then begins the world of laziness. we drag our feet through whatever "orders" have been "motivated" to us to execute. the feel and personal reasoning for the task is elusive. it is the avoidance of a confrontation with the "motivator" which propels us to 'do off' the work. the one who has himself never felt inspired from someone or something cannot be a good motivator. Our upbringing arranges us to forget off being inspired when you can hardly chase your dream. As a result, we are neither a good motivator nor a good inspired ones. This is a situation we mistake for our communal laziness.
Fallacies...the "maya"
Once a Fallacy situation is created, in the current scenario between the anti-graft campaigners and the "anti-destabilize protectors", the method to resolving out the fallacy would circle around the other *un essential information* about each other. The unesential informations become the most significant vital details: who wear what clothes, who dress like what, who said what and when, and so on.
Human life an unending trap of "maya", the "bhram" and the unlearned , unclear minds can never come out of it. Knowledge is not just information compilation, but sometimes the cause of our bondage if we do not know how to manage and collate the information. That again brings me to topic of difference between Intellectualism and Intelligence. The search of justice, the Dharma, is an never ending task for human beings, and Intelligence, the act of information gathering, is merely and essentially the first step, but not the last and only step. To make sense from the information, for a general wider public good is more a daunting task.
Human life an unending trap of "maya", the "bhram" and the unlearned , unclear minds can never come out of it. Knowledge is not just information compilation, but sometimes the cause of our bondage if we do not know how to manage and collate the information. That again brings me to topic of difference between Intellectualism and Intelligence. The search of justice, the Dharma, is an never ending task for human beings, and Intelligence, the act of information gathering, is merely and essentially the first step, but not the last and only step. To make sense from the information, for a general wider public good is more a daunting task.
भारतीय प्रजातंत्र ...क्या यह उदारवादी तानाशाही का भ्रमकारी स्वरुप है ?
उदारवादी तानाशाही (benevolent dictatorship ) राजनीति शास्त्र में चिन्हित एक किस्म की शासन व्यवस्था है / इसकी एक खासित्यत यह है की यह प्रजातंत्र से मिलती-जुलती होने की वजह से प्रजातंत्र से भ्रमित हो सकती है / एक और शाशन प्रणाली , प्रबुद्ध निरंकुश राजशाही (enlightened absolutism ) , की भी यह खासियत है की वह प्रजातंत्र से भ्रमित करी जा सकती है /
तानाशाही में ज्यादातर तो तानाशाह एक बहोत की क्रूर , निर्दयी , सिर्फ अपनी मर्ज़ी से चलने वाला शासक होता है / मगर उदारवादी तानाशाही में शासक जनता पर जुल्म ढाने में व्यसनित नहीं होता बल्कि उनको उनके गरीब हाल पर जीवन-यापन के लिए छोड़ देता है / यदा कदा उनकी ज़िन्दगी में कुछ ख़ुशी के अवसर भी प्रदान करवाता है, और कुछ एक व्यवस्था से उनको जीवन में आगे बड़ने की उम्मीद भी दिलवाता है / इससे जनता में ना-उमीदगी नहीं फैलती और वह कभी भी शासक के विरुद्ध विद्रोह के लिए एकमत हो कर खड़े नहीं होते / शासक की तानाशाही अपनी रहा यूँ ही चलती रहती है, और जनता अलग अपनी राह पर , अपना जीवन सुधारने के संघर्ष में आजीवन व्यस्त रहती है / प्रजातंत्र से उदारवादी तानाशाही में अंतर यह है की प्रजातंत्र में जनता चुकी टैक्स देती है, वह सरकार से हिसाब मांग सकती है, और सरकार को समाज के सभी व्यक्तियों को एक न्यूनतम गरीबी रेखा से ऊपर रखने का कर्त्तव्य होता है/ यानी भोजन, पानी, मकान और जीवन की भौतिक सुविधाए हर एक को मिलनी ही चाहिए/ भिकारी, अनाथ, विकृत, अपाहिज , इत्यादि वर्ग भी एकदम तयशुदा रूप में बुनियादी ज़रूरतों से महरूम नहीं हो सकते / यह 'इकनोमिक लिबरेशन' की व्यवस्था है, जिसने हर व्यक्ति बिना किसी भय के कोई भी विचार रख सके और व्यक्त भी कर सके / प्रजातंत्र में दरिद्र कोई नहीं होता, क्योंकि एक न्यूनतम आर्थिक स्थिति पर शासन हर व्यक्ति की बुनियादी सुविधा प्रदम करवाएगा ही / हाँ कोई अधिक धनवान हो सकते है, कोई कम धनवान / यही कारण है की कए सारे प्रजातंत्र देशो को एक विपरीत, फिरकी करती हुई बुद्धि में पूंजीवादी देश भी समझा जाता है /
इसके विपरीत उदारवादी तानाशाही में उम्मीद की रौशनी तो गरीब , विकलांग, भिकारी , सभी को दी जाती है , मगर यह सुनिश्चित नहीं होता है की हर एक को जीवन की बुनियादी सुविधाएं भी मिलेगी की नहीं / कुछ एक माध्यम से, जैसे लाटरी, या किसी क्विज के माध्यम से अचानक , रातों-रात धन कमाने का अवसर हर एक को मिलता है / आगे आपकी किस्मत / यानी , जनता में एक भय हर पल बना रहता है की कब किस्मत बिफर गयी और फिर से दरिद्रगी में आ जाये, जहाँ वह भी वैसे ही जीवन जिये जैसे राह में , या स्टेशन पर दिखने वाले भिकारी / यह भय उन्हें हमेशा अपने तानाशाह के सम्मान में नतमस्तक करके रखता है की सिर्फ उस "दयालु" शासक की वजह से ही उन्हें जीवन में यह मौका मिला की वह किसी भिकारी की तरह बदतर जीवन नहीं जी रहे हैं / ऐसे में हर प्रकार के विचार रखने में मानसिक तौर पर पूर्ण स्वतंत्र नहीं होते, ख़ास तौर पर वह विचार जो उनके "मालिक " या "राजा" को कोई असुविधा दें /
कभी-कभी तानाशाह कोई एक ख़ास व्यक्ति ना हो कर किसी चुनावी व्यवस्था से आने वाले एक या दो ख़ास गुट के लोग हो जाते हैं / तब उदारवादी तानाशाही , उदारवादी कुलीनशाही बन जाती है, और प्रजातंत्र से और अधिक भ्रमित करने वाली व्यवस्था बन जाती है, क्योंकि मतदान की व्यवस्था में जनता को लगता है की सरकार को आखिर वह ही चुन रहे हैं /
तानाशाही में ज्यादातर तो तानाशाह एक बहोत की क्रूर , निर्दयी , सिर्फ अपनी मर्ज़ी से चलने वाला शासक होता है / मगर उदारवादी तानाशाही में शासक जनता पर जुल्म ढाने में व्यसनित नहीं होता बल्कि उनको उनके गरीब हाल पर जीवन-यापन के लिए छोड़ देता है / यदा कदा उनकी ज़िन्दगी में कुछ ख़ुशी के अवसर भी प्रदान करवाता है, और कुछ एक व्यवस्था से उनको जीवन में आगे बड़ने की उम्मीद भी दिलवाता है / इससे जनता में ना-उमीदगी नहीं फैलती और वह कभी भी शासक के विरुद्ध विद्रोह के लिए एकमत हो कर खड़े नहीं होते / शासक की तानाशाही अपनी रहा यूँ ही चलती रहती है, और जनता अलग अपनी राह पर , अपना जीवन सुधारने के संघर्ष में आजीवन व्यस्त रहती है / प्रजातंत्र से उदारवादी तानाशाही में अंतर यह है की प्रजातंत्र में जनता चुकी टैक्स देती है, वह सरकार से हिसाब मांग सकती है, और सरकार को समाज के सभी व्यक्तियों को एक न्यूनतम गरीबी रेखा से ऊपर रखने का कर्त्तव्य होता है/ यानी भोजन, पानी, मकान और जीवन की भौतिक सुविधाए हर एक को मिलनी ही चाहिए/ भिकारी, अनाथ, विकृत, अपाहिज , इत्यादि वर्ग भी एकदम तयशुदा रूप में बुनियादी ज़रूरतों से महरूम नहीं हो सकते / यह 'इकनोमिक लिबरेशन' की व्यवस्था है, जिसने हर व्यक्ति बिना किसी भय के कोई भी विचार रख सके और व्यक्त भी कर सके / प्रजातंत्र में दरिद्र कोई नहीं होता, क्योंकि एक न्यूनतम आर्थिक स्थिति पर शासन हर व्यक्ति की बुनियादी सुविधा प्रदम करवाएगा ही / हाँ कोई अधिक धनवान हो सकते है, कोई कम धनवान / यही कारण है की कए सारे प्रजातंत्र देशो को एक विपरीत, फिरकी करती हुई बुद्धि में पूंजीवादी देश भी समझा जाता है /
इसके विपरीत उदारवादी तानाशाही में उम्मीद की रौशनी तो गरीब , विकलांग, भिकारी , सभी को दी जाती है , मगर यह सुनिश्चित नहीं होता है की हर एक को जीवन की बुनियादी सुविधाएं भी मिलेगी की नहीं / कुछ एक माध्यम से, जैसे लाटरी, या किसी क्विज के माध्यम से अचानक , रातों-रात धन कमाने का अवसर हर एक को मिलता है / आगे आपकी किस्मत / यानी , जनता में एक भय हर पल बना रहता है की कब किस्मत बिफर गयी और फिर से दरिद्रगी में आ जाये, जहाँ वह भी वैसे ही जीवन जिये जैसे राह में , या स्टेशन पर दिखने वाले भिकारी / यह भय उन्हें हमेशा अपने तानाशाह के सम्मान में नतमस्तक करके रखता है की सिर्फ उस "दयालु" शासक की वजह से ही उन्हें जीवन में यह मौका मिला की वह किसी भिकारी की तरह बदतर जीवन नहीं जी रहे हैं / ऐसे में हर प्रकार के विचार रखने में मानसिक तौर पर पूर्ण स्वतंत्र नहीं होते, ख़ास तौर पर वह विचार जो उनके "मालिक " या "राजा" को कोई असुविधा दें /
कभी-कभी तानाशाह कोई एक ख़ास व्यक्ति ना हो कर किसी चुनावी व्यवस्था से आने वाले एक या दो ख़ास गुट के लोग हो जाते हैं / तब उदारवादी तानाशाही , उदारवादी कुलीनशाही बन जाती है, और प्रजातंत्र से और अधिक भ्रमित करने वाली व्यवस्था बन जाती है, क्योंकि मतदान की व्यवस्था में जनता को लगता है की सरकार को आखिर वह ही चुन रहे हैं /
Digvijay's idea of democracy
What's wrong with Digvijay Singh? A significant count of questions he poses to Kejriwal aim to ask the regulatory breeches kejriwal did during his service tenure in the IRS. but isn't this same as asking a child playing truant from his school ,"hey did you take permission of your school principal before you bunked classes ". Digvijay is seriously confused about the objectives he wants to set forth. in an alternative case, being from a princely set up, he confuses a Benevolent Dictatorship with the idea of Democracy. He would not disagree that the route to civilian protest in a democracy would entail those acts which Kejriwal did, but he wants to take objections to violation of some internal rules.
In another set of his questions, digvijay wants to give to his reader a suggestion of the accusation that a foreign hand (an NGO from USA) is involved with IAC, instead of directly accusing the foreign hand. It is like an spoil sport joke, 'hey I know what you upto. Speak truely what have been upto? " These jokes make an honest look suspicious. Obviously his party would not like to antagonize that foreign hand.
Digvijay's understanding of democratic governance is concerning. At one point, even Laloo spoke that he "I have been an administrator (should be read as "Ruler"). I know what it takes to govern (read, "rule") the people. Kejriwal must not teach us what it take to govern (read, "rule") the people when he has never done that. " There are confused, rural ideas of public governance in our politicians.
In another set of his questions, digvijay wants to give to his reader a suggestion of the accusation that a foreign hand (an NGO from USA) is involved with IAC, instead of directly accusing the foreign hand. It is like an spoil sport joke, 'hey I know what you upto. Speak truely what have been upto? " These jokes make an honest look suspicious. Obviously his party would not like to antagonize that foreign hand.
Digvijay's understanding of democratic governance is concerning. At one point, even Laloo spoke that he "I have been an administrator (should be read as "Ruler"). I know what it takes to govern (read, "rule") the people. Kejriwal must not teach us what it take to govern (read, "rule") the people when he has never done that. " There are confused, rural ideas of public governance in our politicians.
प्रमाण के नियम
इस उदाहरण को पढ़िए और नीचे दिए गए प्रश्नों का उत्तर दीजिये :
राम ने श्याम को बताया की उससे हरी ने बोला था कि कमल कहता है कि राजेश को लगता है कि एक भूत कमल के घर में घुस गया है /
१) ऊपर लिखे वाक्य में कौन-कौन से चरित्र को भूत में विश्वास है ?
२) कौन से चरित्र किसी अन्य चरित्र पर कोई आरोप लगा रहा है ?
३ ) वह आरोप क्या है ?
४) वाक्य में मुख्य श्रोता कौन है जिसे 'प्रमाण के नियमो' का प्रयोग कर के यह निर्णय लेना होगा कि कौन आरोप लगा रहा है, कौन आरोपी है, और आरोप क्या लगा है ?
५) कमल जो कह रहा है, वह उसका तथ्य है या विश्वास ?
६ ) शंका किसे है और क्या है ?
समीक्षा :
१ ) राम एक प्रथम, अथवा सीधे, सम्बन्ध का वक्ता है, जो कि श्याम के लिए प्रमाण है कि श्याम को जो भी जानकारी है, वह राम के द्वारा दी गयी है/
२) श्याम कि नज़रों से राम जो भी कुछ कहता है हरी के बारे में, वह श्याम को आरोप के रूप में ही लेना चाहिए क्योंकि श्याम नें खुद कहीं भी हरी से सीधे सीधे पूछताछ नहीं करी है /
३) श्याम कि नज़रो से राम कि कहीं गयी हर एक बात आरोप है , कि हरी ने क्या बोला, किस के बारे में, कमल का कथन, राजेश को जो कुछ भी लगता है , --सब ही कुछ/ श्याम को हरी और कमल से पूछताछ करनी चाहिए , और राजेश से बातचीत कर करे पता लगाना चाहिए कि क्या राजेश को वाकई में भूतों में विश्वास है / अगर हरी ने स्वीकार कर लिया कि कमल ने उसे राजेश के बारे में कुछ बोला था, तब श्याम को राम कि बातों में विश्वास नहीं भंग करना चाहिए/ अन्यथा राम कि कही अन्य बातों में भी विश्वास तोड़ देना चाहिए /
४) राजेश भूत को माने या ना माने, कमल का तथ्य यह रहेगा कि कमल कि समझ में राजेश को भूत में विश्वास है /
५) कमल खुद भूत को मानता है कि नहीं यह इस जानकारी पर निर्भर करेगा कि राजेश ने स्वयं कमल को अपने घर में भूत होने कि बात कही है , या कमल से स्वयं से यह निष्कर्ष निकला है /
६) कमल खुद भूत को मानता है या नहीं , यह निर्णय इस पर भी निर्भर करेगा कि यदि कमल ने यह निष्कर्ष में निकला है तब भी यह सुनिचित करना होगा कि कमल के निष्कर्ष किसी 'भूत में आस्तिक' सबूतें के आधार पर है, या कमल के 'भूत में आस्तिक' लोगो के व्यवहार कि जानकारी के आधार पर / इस काम में श्याम को कमल से एक बार खुद भी एक सीधे प्रश् में यह घोषणा करवा लेनी होगी कि वह स्वयं भूत को मानता है या नहीं /
७) इस काम में श्याम खुद भूतों को मानता है या नहीं, यह हमेशा कमल को घोषणा पर एक प्रभाव डालता रहेगा कि श्याम कमल को न्याय पूर्वक समझ पाया कि नहीं , क्योंकि यदि कमल भूत नहीं मानता होगा और श्याम मानता होगा तो श्याम कि नज़रों में कमल पहले ही एक गलत व्यक्ति बन चूका होगा /
राम ने श्याम को बताया की उससे हरी ने बोला था कि कमल कहता है कि राजेश को लगता है कि एक भूत कमल के घर में घुस गया है /
१) ऊपर लिखे वाक्य में कौन-कौन से चरित्र को भूत में विश्वास है ?
२) कौन से चरित्र किसी अन्य चरित्र पर कोई आरोप लगा रहा है ?
३ ) वह आरोप क्या है ?
४) वाक्य में मुख्य श्रोता कौन है जिसे 'प्रमाण के नियमो' का प्रयोग कर के यह निर्णय लेना होगा कि कौन आरोप लगा रहा है, कौन आरोपी है, और आरोप क्या लगा है ?
५) कमल जो कह रहा है, वह उसका तथ्य है या विश्वास ?
६ ) शंका किसे है और क्या है ?
समीक्षा :
१ ) राम एक प्रथम, अथवा सीधे, सम्बन्ध का वक्ता है, जो कि श्याम के लिए प्रमाण है कि श्याम को जो भी जानकारी है, वह राम के द्वारा दी गयी है/
२) श्याम कि नज़रों से राम जो भी कुछ कहता है हरी के बारे में, वह श्याम को आरोप के रूप में ही लेना चाहिए क्योंकि श्याम नें खुद कहीं भी हरी से सीधे सीधे पूछताछ नहीं करी है /
३) श्याम कि नज़रो से राम कि कहीं गयी हर एक बात आरोप है , कि हरी ने क्या बोला, किस के बारे में, कमल का कथन, राजेश को जो कुछ भी लगता है , --सब ही कुछ/ श्याम को हरी और कमल से पूछताछ करनी चाहिए , और राजेश से बातचीत कर करे पता लगाना चाहिए कि क्या राजेश को वाकई में भूतों में विश्वास है / अगर हरी ने स्वीकार कर लिया कि कमल ने उसे राजेश के बारे में कुछ बोला था, तब श्याम को राम कि बातों में विश्वास नहीं भंग करना चाहिए/ अन्यथा राम कि कही अन्य बातों में भी विश्वास तोड़ देना चाहिए /
४) राजेश भूत को माने या ना माने, कमल का तथ्य यह रहेगा कि कमल कि समझ में राजेश को भूत में विश्वास है /
५) कमल खुद भूत को मानता है कि नहीं यह इस जानकारी पर निर्भर करेगा कि राजेश ने स्वयं कमल को अपने घर में भूत होने कि बात कही है , या कमल से स्वयं से यह निष्कर्ष निकला है /
६) कमल खुद भूत को मानता है या नहीं , यह निर्णय इस पर भी निर्भर करेगा कि यदि कमल ने यह निष्कर्ष में निकला है तब भी यह सुनिचित करना होगा कि कमल के निष्कर्ष किसी 'भूत में आस्तिक' सबूतें के आधार पर है, या कमल के 'भूत में आस्तिक' लोगो के व्यवहार कि जानकारी के आधार पर / इस काम में श्याम को कमल से एक बार खुद भी एक सीधे प्रश् में यह घोषणा करवा लेनी होगी कि वह स्वयं भूत को मानता है या नहीं /
७) इस काम में श्याम खुद भूतों को मानता है या नहीं, यह हमेशा कमल को घोषणा पर एक प्रभाव डालता रहेगा कि श्याम कमल को न्याय पूर्वक समझ पाया कि नहीं , क्योंकि यदि कमल भूत नहीं मानता होगा और श्याम मानता होगा तो श्याम कि नज़रों में कमल पहले ही एक गलत व्यक्ति बन चूका होगा /
'प्रमाण के नियम' का सामान्य ज्ञान
जीवन में 'प्रमाण के नियम' (laws of evidencing ) को समझना बहोत जरूरी होता है / आये दिन के निर्णयों में तथ्यों और आकड़ो की संतुलित समीक्षा के लिए यह जानना जरूरी है की क्या तथ्य है, क्या विश्वास है, क्या आरोप है, क्या विश्वास करने का तथ्य है , इत्यादि/ विश्वास और 'विश्वास करता है का तथ्य ' दो अलग अलग बातें हैं/ प्रमाण की नियमो के बिना इंसान शंका, अनिश्चितता , भ्रम, अनंतता के विचारों में उलझ जाता है / वैसे तथ्यों की तथ्यों से भ्रमित करने की गणित भी इंसान ने आज़ाद कर ली है , जिसे हम सांख्यकी (स्टेटिस्टिक्स , statistics ) कह कर बुलाते हैं / तो भ्रमित करने के संसाधन बढ़ते जा रहे हैं, और दुविधा सुलझाने का ज्ञान दुर्लभ हो रहा है / प्रमाण के नियम को सर्वप्रथम तीसरी शताब्दी एं एक भारतीय ऋषि , अक्षपाद गौतम , द्वारा रचा गया था/ पश्चिम में भी करीब करीब इसी स्तर के प्रमाण के नियम का विकास हुआ / यह नियम प्राकृतिक समझ के आधार पर बनाये गयें है , और इनमे आपके भक्ति मान विश्वासों और आस्था को स्थान नहीं दिया गया है/ यानि आप किसी भी संप्रदाय से हो , यदि प्रकृति की कार्यवावस्था की समझ रखते हो तो अंततः आप खुद भी प्रमाण की जिस नियमो को स्वीकार करेंगे वह यही हैं ।
समालोचनात्मक विचारसिद्धि (Critical Thinking) में प्रमाण की नियमो को जानना या स्वयं से ही विक्सित कर लेना आवश्यक है / भारत में माता-पिता अपनी संतानों के द्वारा अपनी अधूरी चाहते पूरा करने के लिए बदनाम रहे है / शादी कहाँ करनी है, कहाँ किस स्कूल में शिक्षा लेनी है, क्या-क्या विषय पढ़ने है , कब कितने बजे से पढाई करनी है , कपडे कैसे और कौन कौन से पहने है , इत्यादि / असल में इन सब निर्णयों में वह बच्चों को स्वयं से निर्णय लेने की समझ का विकास करवाना भूल जातें है / गलत-सही, निर्णय लेने की समझ का विकास ऐसी ही अनुभव द्वारा स्वयं विक्सित करना होता है / इन सब निर्णयों में कही न कहीं कभी हर एक को प्रमाण के नियम की समझ की ज़रुरत आन पड़ती है /
राजनीति की भ्रमकारी भाषा
हमारे यहाँ शान्ति की भाषा में भी एक किस्म का भ्रस्टाचार छिपा हुआ है / जब भी किसी विवाद के निष्कर्ष में यह कहा जाता है की "हमे सब को साथ ले कर चलना है , सभी धर्मो, सभी समुदायों, सभी क्षेत्रों को ", हम अपनी संस्कृति में धर्मं और इमानदारी से भी समझौता करना प्रवाहित करवा रहे होते हैं / राष्ट्रीय एकता, शांति, क़ानून-व्यवस्था की आड़ में विपक्ष अगर सत्तारुड पार्टी के गलत कर्मो को उजागर करना छोड़ देगी तो प्रजातंत्र कैसा चलेगा? कैसे सत्य की तलाश होगी और एक सच्ची एक-मतत्ता से आने वाली शान्ति व्यवस्था प्राप्त होगी /
पिचले दशकों में पेशे या शिक्षा से वकील राजनीतज्ञों ने देश में अपनी "न्याय" की समझ से इंसान की "निर्णय" की समझ को बहुत अघात किया है / सभी मनुष्यों में बाल्यकाल से ही एक सही , उचित मनोभाव में पालन होने पर एक आत्मा का निवास स्वयं ही होता है / निर्णय के योग्यता उस आत्मा (सेंस ऑफ़ जस्टिस, conscience ) से खुद ही आती है / जिनमे इसका आभाव होता है वह वैज्ञानिक दृष्टि एक "शोशियोपेथ " या फिर "साईंकोपेथ" कहलातें हैं / आगे, अति विक्सित न्याय भी इसी भौतिक न्याय की समझ के धरातल पर क्रमिक विकास करता हुआ आगे बढता है / मगर दर्शन में छिछले, परन्तु विधि ज्ञान में थोड़े "पढ़े लिखे " वकील-राजनीतज्ञों ने कोर्ट की चारदीवारों में न्याय के तरल तदेव क्रमिक-विकासशील स्वाभाव को अलग-अलग दृश्य बिंदु में भेज कर आभास देते हैं की न्याय कितना तरल और असाधारण है / सामान्यतः सभी मुकद्दमे "पब्लिक ट्रायल " होते हैं , मगर ज्यादातर बार मुकद्दमों की बहस और फेसलों की वजह की जानकारी आम जनता में कम ही आती थी / नयी इन्टरनेट प्रेरित व्यवस्था में अब मामले वकीलों की हाथ में नहीं रह गयी है / आज "मीडिया ट्रायल" आम हो गया है / न्याय दृष्टि में "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" में यह कोई गलत विकास नहीं हुआ है / अब 'न्याय ' और 'निर्णय' में भ्रम उत्पन्न करना आसान नहीं रह गया है / ख़ास तौर पर तब जब मीडिया ट्रायल इन्टरनेट पर मिली जन-प्रकाशन अथवा जन-प्रसारण की क्षमता से ताल मेल रख कर बने तो / तो अब वकीलों और राजनीतिज्ञों को न्याय के साथ छेड़-खानी आसान नहीं रह गयी है / अब जा कर कितनो ही राजनीतिज्ञ भ्रम स्पष्टता की ओर, एक नए प्रकाश में आ रहे है और नष्ट हो रहे हैं / शान्ति के व्यक्तव्य में समझौते के सन्देश छिपाना आसान नहीं होगा /
आत्म-पूजन मनोविकार क्या है ?
http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmedhealth/PMH0001930/
आत्म-पूजन मनोविकार (Narcissistic Personality disorder ) क्या है ?
आत्म-पूजन मनोविकार (Narcissistic Personality disorder ) क्या है ?
आत्म-पूजन मनोविकार एक मासिक स्थिति है जब किसी व्यक्ति को अपने बारे में एक भ्रान्ति हो जाती की वह बहोत ही प्रभावशाली व्यक्ति है , या की जब कोई व्यक्ति स्वयं के सौदर्य , शारीरिक क्षमता , इत्यादि पर साधारण लागों की अपेक्षा अधिक व्यसनित होने लगता है /
आत्म-पूजन मनोविकार के क्या कारक होते हैं ?
इसके कारक अभी अच्छे से ज्ञात नहीं हो सके हैं / मगर ऐसा मन जाता है की एक संवेदनशील व्यक्तिव , बचपन का पालन , आस पास का सामाजिक माहोल इस तरह के विकार को पैदा करने में योगदान देते हैं /
आत्म-पूजन मनोविकार के क्या लक्षण होते हैं ?
१) अपने विरुद्ध बोले गए व्यक्तव्य , आलोचना पर क्रोध, शर्मिदगी , या बेइज्ज़ती से प्रतिक्रिया करना /
२) अपने मकसद में दूसरे व्यक्ति का प्रयोग करना , किसी अन्य का उसकी जानकारी के बिना लाभ उठाना/
३) साधारण से कहीं अधिक स्वयं को महत्वपूर्ण व्यक्ति समझना /
४) अपनी उपलब्धियों , योग्यताओं, कुशलताओं , प्रतिभायों का उचित माप दंड न रखना और सत्य से कहीं अधिक माप रखना /
५) अक्सर कर के स्वयं के लिए साधारण विवेक में मान्य से कहीं अधिक "कुछ ख़ास " , " कुछ अलग " व्यवहार की अपेक्षा रखना /
६) स्वयं की पहुँच , ताकत , सौंदर्य , बुद्धिमानी , आदर्श इत्यादि पर अधिक चर्चा करना /
७) अगर कहीं स्वयं को महत्त्व या प्रशंसा न मिल रही हो तो वहां अच्छा न महसूस करना /
८) दूसरे की भावनाओं को समझाने में अयोग्यता , सक्षमता का अभाव , और दूसरों के लिए दया-भाव की कमी /
९) जुनूनित हद्दों में स्वहित , स्व-रुचिः रखना /
१०) दूसरों की हानि की कीमत पर भी अपने लाभ, हित को प्राप्त करने का प्रयास रखना /
लक्षण और पहचान के परिक्षण :
अन्य सभी मनोरोगों की भाँती इस मनोविकार को भी एक मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन परीक्षा , और लक्षणों की गंभीरता के द्वारा ही पहचाना जाता है /
इसका इलाज़ क्या है ?
वाक्-मनोचिकित्सक के द्वारा बात-चीत में व्यवहार में बदलाव के लिए प्रेरित कर के ही इसका इलाज़ का प्रयास होता है /
इलाज़ की सफलता रोगी में लक्षण की गंभीरता पर निर्भर करता है /
आत्म-पूजन मनोविकार से क्या दिक्कतें हो सकती है ?
१) नशा या किसी अन्य किस्म का व्यसन
२) रिश्ते , पारिवारिक संबंधों में तनाव , कार्य स्थल पर सह्कर्मोयों से विवाद /
नीचे दिए गए वेब लिंक पर किसी मनोवैज्ञानिक ने आत्म पूजन मनोविकार के लक्षणों पर कुछ अस्पष्ट और विवाद पूर्ण लेख लिखा है / विवादपूर्ण और अस्पस्थ यह है की वह हर एक आदर्शवादी और हर उस व्यक्ति जो की अपने विवेक और आदर्शो में तल्लीन होता है, उसको "आरोप" लगा रहे है को वह आत्म-पूजन मनोरोगी है , ऐसे की मानो आदर्शवादी और विवेक पूर्ण होना कोई गलत क्रिया है/ पाठक के मन में प्रश्न यह उठेगा ही की लक्षणों में आदर्श वादी होने और विवेक पूर्ण होना जब माप दंड बन जाते हैं तो विवाद उठ सकता है की कितना विवेक-शील या आदर्शवादी होने पर उसे मनोरोगी मान लिया जायेगा ?
http://psychcentral.com/blog/archives/2008/08/04/how-to-spot-a-narcissist/
http://psychcentral.com/blog/archives/2008/08/04/how-to-spot-a-narcissist/
अज्ञातकृत अभिव्यक्ति का अधिकार
http://itlaw.wikia.com/wiki/Anonymous_speech
Right to Anonymous free speech : अज्ञातकृत हो कर अपने विचारों की व्यक्त करना भी प्रजातंत्र में एक प्रकार का संवेधानिक अधिकार है / पुराने समय में जब राजा-महाराजा के काल हुआ करता था , राजा को पसंद ना आने वाले विचार पर व्यक्ति को मृत्यु दंड दे दिया जाता था/ ऐसे में आज को प्रजन्तान्त्रिक युग की नीव डालने में कितने ही लागों ने अज्ञातकृत होने का खतरा लेते हुए भी अपने विचारों को व्यक्त किया, एक आम राय तैयार करवाई और तब कहीं किसी क्रांति में तख्तापलट कर प्रजातंत्र स्थापित किया / इन बातों में यह समझना जरूरी है की आज के स्थापित प्रजातंत्र में सरकारें मतदान के द्वारा चुनी जाती है , मगर प्रजातंत्र खुद किसी मतदान से नहीं स्थापित होते हैं, उसके लिए क्रांति करनी पड़ती है / ऐसी ही समझ के साथ स्थापित प्रजन्तंत्र में अज्ञातकृत हो कर विचारो को व्यक्त करना भी एक अधिकार माना गया है / मगर स्थापित प्रजातंत्र में इसकी कुछ सीमा भी तये करी गयी है / सीमा बस इतनी है की अज्ञातकृत हो कर कहे जा रहे विचार या आरोप पर कार्यवाही के लिए अज्ञातकृत व्यक्ति की पहचान को उजागर करने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं बचा है, और आरोप की स्थापन के लिए बाकी अन्य सभी रास्ते तलाशे जा चुके हों /
ज़ाहिर बात है की ऐसे में दूसरे के पास भी अधिकार है की वह अज्ञातकृत आरोप पर अपनी प्रतिक्रिया ना करे / यह सही है, हालाँकि इसकी सीमा खुद-ब-खुद 'अभिव्यति की स्वतंत्रता' के एक ख़ास प्रभाव से तय हो जाती है / अगर अज्ञातकृत हो कर दिए गए प्रमाण न्याय में मान्य हैं तो प्रभावित व्यक्ति को उन अज्ञातकृत आरोपों से स्वयं के बचाव में अपने प्रमाण रखने ही पड़ेंगे / वह आरोप को सिद्ध करने के लिए अज्ञात कृत व्यक्ति की पहचान ना होने से न्यायपालिका में बचाव नहीं ले सकता , ना ही अज्ञात कृत की पहचान उजागर करने की मांग कर सकता है , और ना ही चुनौती दे सकता है की, 'अगर अज्ञातकृत में हिम्मत है तो सामने आ कर आरोप लगाये ' /
न्याय में अभिव्यक्ति को मौलिक अधिकार माना गया है , और मौन को भी अधिकार का दर्जा प्राप्त है / मगर अभिवक्ति और मौन में एक अंतर है , की अभिव्यक्ति को न्यायपालिका किसी भी आदेश से सीमति नहीं कर सकती हैं , मगर मौन को तोड़ने का आदेश देने का अधिकार ज़रूर न्यायपालिका के पास है / इसे कोर्ट का Subpeona अभिव्यक्ति अधिकार कह कर पुकारा जाता है / जब किसी मुकद्दमे में मुकद्दमा आगे बढाने का कोई अन्य तरीका ना बचा हो सिवाए की किसी शम्मलित व्यक्ति जिसने मौन रहने के अधिकार का प्रयोग लिया हो और उसकी चुप्पी के टूटे बिना आगे की छानबीन संभव ना हो , तब कोर्ट Subpeona उस व्यक्ति को सभी सम्बंधित जानकारी व्यक्त करने पर विवश कर सकती है /
Right to Anonymous free speech : अज्ञातकृत हो कर अपने विचारों की व्यक्त करना भी प्रजातंत्र में एक प्रकार का संवेधानिक अधिकार है / पुराने समय में जब राजा-महाराजा के काल हुआ करता था , राजा को पसंद ना आने वाले विचार पर व्यक्ति को मृत्यु दंड दे दिया जाता था/ ऐसे में आज को प्रजन्तान्त्रिक युग की नीव डालने में कितने ही लागों ने अज्ञातकृत होने का खतरा लेते हुए भी अपने विचारों को व्यक्त किया, एक आम राय तैयार करवाई और तब कहीं किसी क्रांति में तख्तापलट कर प्रजातंत्र स्थापित किया / इन बातों में यह समझना जरूरी है की आज के स्थापित प्रजातंत्र में सरकारें मतदान के द्वारा चुनी जाती है , मगर प्रजातंत्र खुद किसी मतदान से नहीं स्थापित होते हैं, उसके लिए क्रांति करनी पड़ती है / ऐसी ही समझ के साथ स्थापित प्रजन्तंत्र में अज्ञातकृत हो कर विचारो को व्यक्त करना भी एक अधिकार माना गया है / मगर स्थापित प्रजातंत्र में इसकी कुछ सीमा भी तये करी गयी है / सीमा बस इतनी है की अज्ञातकृत हो कर कहे जा रहे विचार या आरोप पर कार्यवाही के लिए अज्ञातकृत व्यक्ति की पहचान को उजागर करने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं बचा है, और आरोप की स्थापन के लिए बाकी अन्य सभी रास्ते तलाशे जा चुके हों /
ज़ाहिर बात है की ऐसे में दूसरे के पास भी अधिकार है की वह अज्ञातकृत आरोप पर अपनी प्रतिक्रिया ना करे / यह सही है, हालाँकि इसकी सीमा खुद-ब-खुद 'अभिव्यति की स्वतंत्रता' के एक ख़ास प्रभाव से तय हो जाती है / अगर अज्ञातकृत हो कर दिए गए प्रमाण न्याय में मान्य हैं तो प्रभावित व्यक्ति को उन अज्ञातकृत आरोपों से स्वयं के बचाव में अपने प्रमाण रखने ही पड़ेंगे / वह आरोप को सिद्ध करने के लिए अज्ञात कृत व्यक्ति की पहचान ना होने से न्यायपालिका में बचाव नहीं ले सकता , ना ही अज्ञात कृत की पहचान उजागर करने की मांग कर सकता है , और ना ही चुनौती दे सकता है की, 'अगर अज्ञातकृत में हिम्मत है तो सामने आ कर आरोप लगाये ' /
न्याय में अभिव्यक्ति को मौलिक अधिकार माना गया है , और मौन को भी अधिकार का दर्जा प्राप्त है / मगर अभिवक्ति और मौन में एक अंतर है , की अभिव्यक्ति को न्यायपालिका किसी भी आदेश से सीमति नहीं कर सकती हैं , मगर मौन को तोड़ने का आदेश देने का अधिकार ज़रूर न्यायपालिका के पास है / इसे कोर्ट का Subpeona अभिव्यक्ति अधिकार कह कर पुकारा जाता है / जब किसी मुकद्दमे में मुकद्दमा आगे बढाने का कोई अन्य तरीका ना बचा हो सिवाए की किसी शम्मलित व्यक्ति जिसने मौन रहने के अधिकार का प्रयोग लिया हो और उसकी चुप्पी के टूटे बिना आगे की छानबीन संभव ना हो , तब कोर्ट Subpeona उस व्यक्ति को सभी सम्बंधित जानकारी व्यक्त करने पर विवश कर सकती है /
भारतीय संकृति में आत्म-पूजन मनोविकार का प्रवाह
(inspired from this blog : http://www.inebriateddiscourse.com/2009/06/cosmic-narcissism-new-psychological.html#comment-form_3158647758726353159)
एक ख़ास मनोवैज्ञानिक समस्या जो भारत नाम की त्रासदी के कई कमियों को समझने में बहुत उपयोगी है वह है आत्म-पूजन मनोविकार / साधारण भारतीय भाषा में इसे " अहंकार ", "घमंड", इत्यादि कह कर पुकारा जाता है / मगर इसके ख़ास लक्षणों को समझा नहीं गया है / मनोवैज्ञानिक दिक्कतों की भारत में ज्यादी स्वीकृति और मान्यता नहीं है / मनोविज्ञान से सम्बंधित पुस्तकें और मेग्जीनें ज्यादा प्रकाशित नहीं होती है / हालाँकि 'अमेरिकेन सायेकोलोजिस्ट असोसीएशान (APA )' की तर्ज़ पर भारत में भी 'भारतीय सायेकीएटट्रिस्ट सोसाईटी' नाम की संस्था है / भारत में आत्म-पूजन मनोविकार की चर्चा प्राचीन कल में भी मिलती है / रामायण में रावण को अहंकार से ग्रस्त एक बहोत ही उच्च कोटि का विद्वान् ब्रह्मिन के रूप में पहचाना जाता है / भारतीय जात प्रथा में जहाँ ब्रह्मण को सर्वोच्च सामाजिक स्थान प्राप्त है , वही दलित और शूद्र नामे के वर्ग को मानव स्थान से भी नीचे देखा जाता रहा है / इस तरह के चरम वर्गीकरण में भी आम जनता में आत्म-पूजन विकार की योगदान है /
एक ख़ास मनोवैज्ञानिक समस्या जो भारत नाम की त्रासदी के कई कमियों को समझने में बहुत उपयोगी है वह है आत्म-पूजन मनोविकार / साधारण भारतीय भाषा में इसे " अहंकार ", "घमंड", इत्यादि कह कर पुकारा जाता है / मगर इसके ख़ास लक्षणों को समझा नहीं गया है / मनोवैज्ञानिक दिक्कतों की भारत में ज्यादी स्वीकृति और मान्यता नहीं है / मनोविज्ञान से सम्बंधित पुस्तकें और मेग्जीनें ज्यादा प्रकाशित नहीं होती है / हालाँकि 'अमेरिकेन सायेकोलोजिस्ट असोसीएशान (APA )' की तर्ज़ पर भारत में भी 'भारतीय सायेकीएटट्रिस्ट सोसाईटी' नाम की संस्था है / भारत में आत्म-पूजन मनोविकार की चर्चा प्राचीन कल में भी मिलती है / रामायण में रावण को अहंकार से ग्रस्त एक बहोत ही उच्च कोटि का विद्वान् ब्रह्मिन के रूप में पहचाना जाता है / भारतीय जात प्रथा में जहाँ ब्रह्मण को सर्वोच्च सामाजिक स्थान प्राप्त है , वही दलित और शूद्र नामे के वर्ग को मानव स्थान से भी नीचे देखा जाता रहा है / इस तरह के चरम वर्गीकरण में भी आम जनता में आत्म-पूजन विकार की योगदान है /
आम भारतीय जनसँख्या में आत्म-पूजन मनोविकार तमाम रूप में देखा है / भारतीय संस्कृति इसे "गर्व " के रूप में पीड़ी दर पीड़ी प्रसारित किया गया है / जैसे की, ' हमे अपने देश पर गर्व करना चाहिए ', 'अपनी संस्कृति पर गर्व करना चाहिए ', "अपने माता-पिता पर गर्व करो", "अपनी संतान पर नाज़ करो ", / एक साधारण आत्म-सम्मान की भावना में आत्म-पूजन के मनोविकार का मिश्रण इसे पीड़ीयों में आगे यहाँ तक ले आया है / आत्म पूजन में मनुष्य सिर्फ अपनी ही विषय वस्तु को अच्छा और बेहतर मानता है , किसी अन्य की विषय-वस्तु को खराब / आत्म पूजन में मनुष्य अपनी विषय-वस्तु की कमियों और गलत पहलुओ को अनदेखा करता है / वह विषय-वस्तु में सुधार के सम्भावना को नकार देता है /
आत्म-पूजन विकार हमारी सभ्यता में कई रूप में प्रसारित होता है/ एक अन्य किस्म का जटिल आत्म-पूजन विकार , जिसे ब्रह्मांडीय -आत्म-पूजन विकार के रूप में चिन्हित किया जाता है , में इंसान प्रतक्ष रूप में खुद अपना गुण-गान न कर के किसी इष्ट देव , किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति इत्यादि की पूजा कर रहा होता है मगर अन्दर में भाव अपने खुद की पूजन-विकृति के पोषण का होता है / इस समझ से अगर हम कुछ एतिहासिक इमारते और ऐतिहासिक घटनाओ, रित-रिवाजों को समझाने का प्रयास करे तो पता चलेगा की आत्म-पूजन विकार भारतीय संस्कृति में कितने गंभीर रूप में विद्यमान है /
भारत में समूह के नेतृत्व में भी यही विकार से ग्रस्त व्यक्ति के गुण को 'दमदार', 'प्रभावशाली ' नेता मन जाता है / भावुक नेतृत्व को कमज़ोर , या कहें तो "ना-मर्द " नेता समझा गया है /
नेतृत्व - भावुकता पूर्ण और आत्म-पूजन व्यक्तिव विकार पूर्ण
नेतृत्व करने में भावुकता का बहोत महत्व होता है / मुंशी प्रेम चंद की लिखी एक कहानी, "परीक्षा" , में यह व्यक्तव्य समझ में आता है की जनता का सच्चा सेवक वही होता है जो की जनता की भावनाओ और दुःख-दर्द को समझता है /
इसके विपरीत एक दूसरी कहानी, "ममता", में यह दिखाया गया है की कैसे एक गंगन-चुम्बी मंदिर बनवाने के बावजूद ममता नाम की वृद्ध , जिसने बादशाह को शरण दे कर उसकी जान बचाई थी, उसका मंदिर के तखते पर कहीं नाम न था / बड़े लोग गरीबों के लिए भी अगर कुछ करते हैं तो मकसद अपना नाम बड़ा करना का होता है /
इसके विपरीत एक दूसरी कहानी, "ममता", में यह दिखाया गया है की कैसे एक गंगन-चुम्बी मंदिर बनवाने के बावजूद ममता नाम की वृद्ध , जिसने बादशाह को शरण दे कर उसकी जान बचाई थी, उसका मंदिर के तखते पर कहीं नाम न था / बड़े लोग गरीबों के लिए भी अगर कुछ करते हैं तो मकसद अपना नाम बड़ा करना का होता है /
मगर यथार्थ की त्रासदी को तो समझिये और मुस्करिये की भावुकता का असल नेतृत्व में कहीं स्थान नहीं है / ऐसा नहीं है की समूचे विश्व में यही हालत है/ मगर भारतीय पटल का सत्य यही है/ नतृत्व में एक और दूसरे किस्म की शाख्न्सियत भी बहोत तेज होती है अपना स्थान दूढ़ने में / यह 'आत्म-पूजन व्यक्तिवा विकार' से ग्रस्त व्यक्ति नतृत्व में स्वयं की अर्चना की गुंजाइश का पहचानता है / यह व्यक्तिव भावनाओ से विमुख होता है / यह नेतृत्व में ताकत का प्रवाह करता है, बेइम्तिहाँ, कुचल देने वाली ताकत /
जब यह नेतृत्व में आता है तो भावनाओ से भरा हृदय वाला नेतृत्व फीका पड़ने लगता है/ भावुक व्यक्ति अक्सर कर के अपनी भावो से लगी वस्तु से चिपक कर बैठ जाता है / तब वह आत्म-पूजन विकार से ग्रस्त नेता की चपल स्वाभाव से मात खा जाता है / राजनीती का विषय वस्तु बहोत तेजी से बदलते रहती है, नए विषयों की तलाश होने लगाती है/ प्रतिक्रिया, आरोप, "विचार विमर्श", वाद-विवाद किया जाता है और भावुक वक्तित्व का नेता इन सब में कहीं खो जाता है / वह पुराना और फीका लगने लगता है /
राजनीति का यह खेल आत्म-पूजन विकार के नेता को ताकत में बनाये रखती है / वह पुराना नहीं होता /
मगर आधुनिक प्रबंधन की पढाई में भावुकता के नेतृत्व को फिर से शोध द्वारा समझा गया है / इसे emotional intelligence के नाम से वापस प्रबंधन में लाने का प्रयास चल रहा है/ प्रजातंत्र में जहाँ सब ही के पास अपनी तमाम स्वतान्त्रयें, जानकारियां , प्रचार प्रसार के संसाधन , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इत्यादि प्रदान कराने का वचन है, प्रबंधन में मजदूरों या कर्मचारियों से कार्य लेने मुश्किल सा हो जाता है / तब motivation theories (प्रेरणा-गत प्रोत्साहन के सिद्धांत ) ही कुछ गिने चुने तरीके रह जाते है कार्य को सही से और स्वेच्छा से करवाने के, बिना किसी की स्वतंत्रता का कहीं कोई उलंघन किये /
इसे भी परे, भावुकता का नेतृत्व से जो जुड़ाव है वह कभी कमज़ोर नहीं हुआ है क्योंकि की इंसानों की अपने शासको से जोड़ भावनाओ में ही बना है / आत्म पूजन विकार की नेतृत्व समय-समय पर गरीबो के घर जा कर अपने भावुक होने का सबूत देता है / यदा कदा वह कुछ गरीबो की मदद भी करता है / मगर कुल मिला कर हालत मैं कहीं कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आते हैं / पुरानी समस्याएं वही की वही रहती है, उनका कोई समाधान नहीं होता/ Emotional Intelligence में यह समझा जाने लगा है की कैसे कुछ समस्याओं के समाधान के लिए किसी भावुक व्यक्ति का उसका अपने सम्पूर्ण हृदय से शोध करना ज़रूरी होता है / भावुकता का तीव्र-बुद्धि और बौद्धिकता दोनों से ही बड़ा गहरा सम्बन्ध है / समाधानों की तलाश में यह दोनों वस्तुएं परम आवश्यक है / अर्थात आपको अधिक संभावना में समाधान की सही दिशा एक भावुक वक्ती से ही मिले /
"हमाम में सब नंगे है" कोई अच्छा तर्क नहीं है भ्रस्टाचार के कृत्यों के बचाव में
जब हमे यह समझ में आ जाता है की कैसे सड़क मात्र भी देश निर्माण का मार्ग होती है , तब यह बात समझना आसान होता है भ्रस्टाचार की यह व्यवस्ता जिसमे आज हम सभी लाभ उठा रहे है , असल में हम सभी के सामूहिक पतन का कारक होती है / सड़क पर होने वाली हर दुर्घटना और मृत्यु , हर वह छोटे स्कूली बच्चो से भरी बस दुर्घटना - इन सब में भ्रस्टाचार का भी एक अंश होता है / वैसे इस सैधांतिक सत्य को कई फिल्मो में उजागर किया गया है, मिसाल के तौर पर "हिन्दुस्तानी" (कमल हासन , 1996 )/ भ्रस्टाचार की व्यवस्था में जहाँ हम सब ही कहीं किसी कोने में लाभ ले रहे होते हैं, वही यह व्यवस्था कहीं हमारे आस-पास हमारे ही किसी अपने के जीवन की दुश्मन बन रही होती है/
भ्रस्टाचार की व्यवस्था की एक बड़ी त्रासदी पूर्ण सत्य जो बहोत कम व्यक्त किया गया है वह यह है की "हमाम में तो भले ही सब नंगे हैं", मगर यहाँ किसी का लाभ किसी अन्य की हानि पर ही निर्भर करेगा, चाहे वह हानी अब उस अन्य की जीवन-हानि से ही क्यों न बनी हो / लाभ-हानि का यह खेल पूर्णतः मौकापरस्ती बन जाता है की जब आपको मौका मिला है उसको भुना लो/
मगर अंततः मौकापरस्ती की यह व्यवस्था लौट कर कहीं न कहीं हम पर ही अपना असर दिखाती है / सड़क निर्माण , ड्राईविंग लाइसेंस का निर्माण, पैदल पथिक-मार्ग का निर्माण, सड़क दुर्घटना में अम्बुलेंस , पुलिस को रिपोर्ट, सड़क मार्ग का प्रकाश स्तम्भ , इत्यादि , सब कार्यो में हो रहा भ्रस्टाचार कही किसी तरह चोरी से कही कोई दुर्घटना और मृत्यु का कारक बनता है /
मौकापरस्ती एक-तरफ़ा क्रिया को जन्म देती है / सब ही कोई मौके को दूंड उसका फायदा उठाना चाहते हैं / बात जब मौकापरस्ती पर आन पहुचती है तब आप सांस्कृतिक मूल्य का पतन, सामाजिक मूल्य का पतन, राष्ट्रीय भाव का पतन , भक्ति-भाव का पतन, इत्यादि सब ही को इसमें नष्ट होते देख सकते है / एक समूची दृष्टि में भ्रस्टाचार हमारे धार्मिक समझ के पतन का करक हो जाती है / फिर आप यह असंतोष दिखाईये या शिकायत करिए की आज आम इंसान अपने को भारतवासी न मान कर अपने क्षेत्र , या मजहब, या जाती, या किसी अन्य वर्गीकरण से पहचानता है / जहाँ उसका लाभ उसे लगता है , वही उसकी पहचान है /
फिर सब ही को भारत वासी मनवाने का एक ही तरीका रह जाता है / की जब भी कोई असीम त्रिवेदी कहीं कोई कार्टून बनाये उसके जेल भेज कर सजा दे दो/ बाकी सब खुद-ब-खुद अपने को भारतवासी माने लगेंगे /
अंत में हम फिर से गुलामी की और बढ चुके होते है /
जटिल बात यह है की प्रजातंत्र की व्यवस्था में यह कोई गलत थिति नहीं है / अगर कोई स्वयं को इस देश का निवासी नहीं मन चाहता तो उसे यह भी आजादी है/ कितनो ही लोग कितने अन्य कारणों से अपनी राष्ट्रीयता का त्याग करते रहते है / बस इस भ्रस्टाचार की व्यवस्था में राष्ट्र का अस्तित्व ही ख़तम हो जाने का भय है / इंसान चाहे भ्रस्ताचारी हो, मगर शाशन व्यवस्था में ही भ्रस्टाचार को पारित करना राष्ट्र के लिए विनाशकारी है / और शाशन में भ्रस्टाचार का जन्म होता है गलत राजनैतिक व्यवस्था से /
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