"हमाम में सब नंगे है" कोई अच्छा तर्क नहीं है भ्रस्टाचार के कृत्यों के बचाव में


जब हमे यह समझ में जाता है की कैसे सड़क मात्र भी देश निर्माण का मार्ग होती है , तब यह बात समझना आसान होता है भ्रस्टाचार की यह व्यवस्ता जिसमे आज हम सभी लाभ उठा रहे है , असल में हम सभी के सामूहिक पतन का कारक होती है / सड़क पर होने वाली हर दुर्घटना और मृत्यु , हर वह छोटे स्कूली बच्चो से भरी बस दुर्घटना - इन सब में भ्रस्टाचार का भी एक अंश होता है / वैसे इस सैधांतिक सत्य को कई फिल्मो में उजागर किया गया है, मिसाल के तौर पर "हिन्दुस्तानी" (कमल हासन , 1996 )/ भ्रस्टाचार की व्यवस्था में जहाँ हम सब ही कहीं किसी कोने में लाभ ले रहे होते हैं, वही यह व्यवस्था कहीं हमारे आस-पास  हमारे ही किसी अपने के जीवन की दुश्मन बन रही होती है
भ्रस्टाचार की व्यवस्था की एक बड़ी त्रासदी पूर्ण सत्य जो बहोत कम व्यक्त किया गया है वह यह है की "हमाम में तो भले ही सब नंगे हैं", मगर यहाँ किसी का लाभ किसी अन्य की हानि पर ही निर्भर करेगा, चाहे वह हानी अब उस अन्य की जीवन-हानि से ही क्यों बनी हो / लाभ-हानि का यह खेल पूर्णतः मौकापरस्ती बन जाता है की जब आपको मौका मिला है उसको भुना लो

मगर अंततः मौकापरस्ती की यह व्यवस्था लौट कर कहीं कहीं हम पर ही अपना असर दिखाती हैसड़क निर्माण , ड्राईविंग लाइसेंस का निर्माण, पैदल पथिक-मार्ग का निर्माण, सड़क दुर्घटना में अम्बुलेंस , पुलिस को रिपोर्ट, सड़क मार्ग का प्रकाश स्तम्भ , इत्यादि , सब कार्यो में हो रहा भ्रस्टाचार कही किसी तरह चोरी से कही कोई दुर्घटना और मृत्यु का कारक बनता है
मौकापरस्ती एक-तरफ़ा क्रिया को जन्म देती है / सब ही कोई मौके को दूंड उसका फायदा उठाना चाहते हैं / बात जब मौकापरस्ती पर आन पहुचती है तब आप सांस्कृतिक मूल्य का पतन, सामाजिक मूल्य का पतन, राष्ट्रीय भाव का पतन , भक्ति-भाव का पतन, इत्यादि सब ही को इसमें नष्ट होते देख सकते है / एक समूची दृष्टि में भ्रस्टाचार हमारे धार्मिक समझ के पतन का करक हो जाती है / फिर आप यह असंतोष दिखाईये या शिकायत करिए की आज आम इंसान अपने को भारतवासी मान कर अपने क्षेत्र , या मजहब, या जाती, या किसी अन्य वर्गीकरण से पहचानता है / जहाँ उसका लाभ उसे लगता है , वही उसकी पहचान है
फिर सब ही को भारत वासी मनवाने का एक ही तरीका रह जाता है / की जब भी कोई असीम त्रिवेदी कहीं कोई कार्टून बनाये उसके जेल भेज कर सजा दे दो/ बाकी सब खुद--खुद अपने को भारतवासी माने लगेंगे
  अंत में हम फिर से गुलामी की और बढ चुके होते है
जटिल बात यह है की प्रजातंत्र की व्यवस्था में यह कोई गलत थिति नहीं है / अगर कोई स्वयं को इस देश का निवासी नहीं मन चाहता तो उसे यह भी आजादी है/ कितनो ही लोग कितने अन्य कारणों से अपनी राष्ट्रीयता का त्याग करते रहते है / बस इस भ्रस्टाचार की व्यवस्था में राष्ट्र का अस्तित्व ही ख़तम हो जाने का भय है / इंसान चाहे भ्रस्ताचारी हो,  मगर शाशन व्यवस्था में ही भ्रस्टाचार को पारित करना राष्ट्र के लिए विनाशकारी है / और शाशन में भ्रस्टाचार का जन्म होता है गलत राजनैतिक व्यवस्था से

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