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Showing posts from February, 2020

Post-truth and the governments

Post-truth and the governments The politically a-neutral police can act strict with the opposition and lenient with the ruling party supporters. And there is no logical way to crack this predicament. Discrimination can NEVER be -controlled - neither by strictest of legislation, nor by the best of the technology. And Discrimination shares this trait of itself in common with Corruption. Only the awakened human Conscience is the  treatment for Discrimination and Corruption, as the Conscience works through It's "self-control", and the self-realization mechanics . Incidentally, Religion is the biggest influential envelop for the Conscience to become awakened. But what irony ! The religion is itself controlled by those who are raveling with Discrimination and Corruption !! The trap is circular , 'completely rounded in shape" and therefore inescapable unless we start a new SPIRITUAL THOUGHT ~ the Varanasi level Brahmn gyan The post-truth way of handling the even

Part 3: In India, which is the left and which is the right wing?

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Understanding terms such as 'Leftist' and 'Democracy' in contemporary political conversation

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Socialism-critic से Socialism-bashing भिन्न करना सीखें

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इस तथ्य पर जितना ज़ोर दिया जाये उतना कम पड़ता है कि 'वामपंथ' (leftist) एक विशेषण संज्ञा (adjective-noun) होती है, यह कोई विचाधारा का व्यक्तिवाचक संज्ञा (proper noun) नाम नही है। वामपंथ नाम से किसी भी विचारधारा का नाम नही है। जो है वह साम्यवाद है, और समाजवाद है। साम्यवाद (Communism) , यानी वर्गहीन समुदाय के लिए सामाजिक व्यवस्था का सिद्धांत। और समाजवाद(Socialism) में वर्गहीन होने पर ज़ोर नही दिया जाता है, बाकी सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांत का पालन करने के प्रयास होते हैं। अन्तर सूक्ष्म है मगर फिर भी प्रधान है। society और community के बीच आप को अपने बौद्धिक ज्ञान से जितने अंतर समझ आएंगे, उतना बेहतर आप साम्यवाद और समाजवाद की भिन्न कर सकेंगे। और फ़िर शायद यह भी समझ जाएं की कुल मिला कर दोनों करीब करीब बस species से भिन्न है, वरना तो एक ही genus के विचार है। और इस genus के विपरीत होता है प्रजातंत्र यानी democracy। अब एक और महत्वपूर्व ज्ञान। कि हमारे देश में चल रहे संवाद में बहोत बड़ा भ्रम और कुतर्क छिपा हुआ है समाजवाद(/या साम्यवाद) विषय को वामपंथ नाम से संबोधित

What is the difference between Freebies and Good Governance

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भक्तों का राष्ट्र

नीति से न्याय मिलता है, न्याय से समाज । और समाज से राष्ट्र । सीधे राष्ट्र की बात करते हैं, और संविधान का पालन नही करते हैं, पुलिस आपकी सीधा सीधा पक्षपात करती दिखाई पड़ रही है - jnu के हमलावर ढूंढे नही मिल रहे हैं, और कपिल की आआपा की सदस्यता तुरन्त मिल जाती है पुलिस को... यही है न आपका " राष्ट्र "... पक्षपात, भेदभाव, अपने-पराये करने वाली पुलिस और पक्षपाती न्याय होता है जहां !

The role of the Professional Standards in the measurement of Fairplay, and thence in the Justice

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This matter should lead us to think about the Professional Standards. The difference in the two types of reporting, it is NOT ESSENTIAL, is due to the BIAS  and therefore it should be leading  us to call it UNJUSTIFIABLE. To understand the case , CONSIDER how do we measure out the deaths happening from mob-lynching TO deaths happening from , say, rogue bill hitting by his horns ? And so, would you think it would be justifiable to describe the deaths of mob-lynching in a as much low tone as the bull-striking . Or that you would want that the "26/11" kind of terror attack to be spoken in the same tone as Mob-lynching deaths , or the bull-striking? And so, how , by a mere comparison of the two instances of reporting by a single person, can we determine if the person is being biased ? Indeed the determination of bias will demand that a statistical analysis, using proper Statistical tools, be adopted to measure as to how many of the reporter from his FR

Why do the Indian students and the workers always nurture some doubts within them after receiving any learning discourse ?

Why do the Indian students and the workers always nurture some doubts within them after receiving any learning discourse? Many of us, and also people from other nationalities, might have noticed this peculiar behaviour about students those from India, that the latter is replete with scepticism that they refer to as " doubts ", just as they are imparted any training, any lecture or any other discourse.   So, have you ever wondered what these " doubts " are about, that the mind of an Indian carries within it in plenty? What is the true source of origin of these " doubts "? To understand the answer one will have to understand the Indian culture and their social conduct with each other. The doubts that the Indian mind carries is just a reflection of the mutual distrust and the outcome of the self-consciousness of our  insincerity that is so common within Indian faith, and thereof the culture of the land. An average Indian mind dwelling in the urba

दिल्ली विधानसभा चुनाव और booth manage करने की युक्तियाँ

दिल्ली की विधानसभा चुनावों के नतीज़े  अभी कल यानि ११ फ़रवरी को आने बाकि हैं।  मगर फिलहाल राजनीती इस बात पर गरम है की क्या भाजपा ने दिल्ली चुनावों में सफलपूर्वक bogus  वोटिंग करवा ले है।  मनोज तिवारी के confidence  को देख कर लोगों को शक होने लगा है की लगता है इस बार भाजपा ने सफलता पूर्वक bogus  vote  डलवा दिए है।  भाजपा पक्ष का लगातार दावा यह आ रहा है की दोपहर क़रीब साढ़े तीन बजे (03 30 pm ) के बाद से उनके पक्ष में धड़ल्ले से वोट पड़े हैं।   संदेह की बात यह रही है की चुनाव आयोग ने चुनावों के ख़त्म  हो जाने के बहोत बाद में तक मतदाता प्रतिशत (turn  out ) के अंतिम आकंड़े जारी नहीं किये थे, जो की पुराने चुनावों से असामान्य व्यवहार था।  अरविन्द केजरीवाल जी ने इस विषय पर tweet  करके टिपण्णी भी करि थी।   जबकि चुनाव वाले दिन पूरे दिन की ताज़ा खबरों में यह ही कहा जा रहा था की इस बार दिल्ली वालों ने उत्साह नहीं दिखाया है , और लगता है की पिछली बार से कम मतदान हुआ है,  मगर अंत में जब चुनाव आयोग ने विलम्ब करने के पश्चात आकंड़े दिए है तो आश्चर्यजनक तौर पर कुल मतदान पिछले चुनावो से ज्यादा हो गया था !!!

भक्तों की जनता को ग़ुमराह करने की नीति

भक्त लोग कपिल सिब्बल के एक पुराने इंटरव्यू की क्लिप को आजकल viral कर रहे हैं, जिसमे वह पाकिस्तान और बांग्लादेश के "minorities" को भारत की नागरिकता दिए जाने की हिमायत करते हैं। यह क्लिप सं 2003 के आसपास की है। और फिर एक हालफिलहाल की क्लिप से जोड़ते हुए भक्त लोग दावा कर रहे हैं कि कपिल सिब्बल बदल गए हैं, UTurn कर रहे हैं, क्योंकि दूसरी वाली क्लिप में कपिल सिब्बल  मोदी सरकार की नागरिकता संशोधन कानून को धर्म आधारित भेदभाव बताते हुए इसको खारिज़ करने की मांग रखते दिख रहे हैं। गौर करें कि सं 2004 से लेकर 2014 तक 10 साल कपिल सिब्बल की पार्टी की ही सरकार थी, मगर वह लोग कोई नागरिकता कानून खुद नही लेकर आये थे।  दूसरा , की कपिल सिब्बल ने minorities शब्द का प्रयोग करते हुए उनको नागरिकता देने की बात करि थी, मगर किसी भी धर्म आधारित भेदभाव नही किया था।  शयाद इसी मुश्किल लक्ष्य के चलते उनकी सरकार ने अभी तक खुद कोई कानून नही दिया था। बिना किसी भेदभाव वाले संकट के सिर्फ minorities को ही नागरिकता देना - यह मुश्किल ही था। क्योंकि संवैधानिक मर्यादा टूटती थी।  और फिर राष्ट्रीय न

जासूसी पेशेवरों का व्यावसायिक मानसिक स्वास्थ

ये सिर्फ डोवाल बाबू की दिक्कत नही है, मुझे ऐसा लगता है की सारे ही जासूसी agent के दिमागों में यह विकृतियां आ जाती है की वह समाज को बेकूफ़, फ़ालतू लोगों का जमावड़ा समझने लगते है, और ख़ुद को ज़रूरत से ज्यादा विद्धवान, जिसका काम ही है दुनिया को बचाना। जासूसी का पेशा करने वालों में ऐसा क्यों होता होगा? क्यों यह अहम भरी और अंतर्मन को नष्ट करने वाली psychiatric दिक्कतें आती है इनमें? क्या लागत है- क्या इन्हें खुद बोध होता होगा की इनके पेशे के चलते इनमें कुछ occupational mental health समस्या आ जाती हैं? नही। जासूसी पेशों में रहते रहते इंसान तरह तरह के पाखंडों को रोज़ रोज़ होते देखता होगा, जिसमे उनका subject(शायद इनकी शब्दावली में 'target') दुनिया में कहता कुछ है, मगर भीतर ही भीतर करता कुछ और है, जिसको की यह जासूस लोग चुपके से देख ले रहे हैं। तो सालों तक ऐसे ही माहौल में रहने में क्यों नही इन जासूसी पेशेवरों में खुद की ही mental health दिक्कत हो जाती होगी जिसमे यह लोग इंसान में conscience के अस्तित्व और महत्व के बोध को ही अपने खुद के भीतर समाप्त कर देते होंगे। इन्हें सभी इंसान

उत्तर भारत की क्षेत्रीय पार्टियों पर बौड़मता का अभिशाप

उत्तर भारत की आरक्षणवादी पार्टियों वास्तव में बौड़म लोगों की पार्टियां है, जिनकी राजनीति का एकमात्र उद्देश्य होता है कि जो कुछ भी इस देश को दोनों बड़ी ब्राह्मणवादी पार्टियां - कांग्रेस और भाजपा - समाज को चलाने  के लिए नीति  निर्माण करें , उसमे इन्हें आरक्षण नीति द्वारा संरक्षित अंश जरूर मिले। बस। तो आरक्षणवादी पार्टियां है क्या ? क्या आदर्श हैं इन पार्टियों के? क्या दृष्टिकोण होता है इनका, इस देश और इसके समाज को चलाने के ? सोचा जाए तो कुछ भी नहीं। यह पार्टियां इतनी बौद्धिक क़ाबलियत न तो जमा करना पसंद करती है कि कोई सोच, कोई ideology को जन्म दे , उनको विकसित करें, उन पर अमल करें और समाज को उसके माध्यम से व्यवस्थित करें। यह पार्टियां मौकापरस्ती उद्देश्य से ही चलती हैं, और  प्रत्येक  समाजिक महत्त्व के सवाल पर अपना मत अपनी विचारधारा प्रस्तुत करने से कतराती हैं। मौक़ापरस्ती की रणनीति के अनुसार यह पार्टियां  तनिक विलम्ब करके किसी विजयी दिखते हुए विचार को तलाशती हैं , फिर उस ओर थाली के बैंगन की तरह किसी भी तरफ लुढ़क जाती हैं। वास्तव में यह पिछड़े दल और इनके समाज मे लोग पिछड़े होते ही

तर्क और संघठन निर्माण दोनो एक-दूसरे के विरुद्ध स्वभाव के होते हैं

तर्क और संघठन निर्माण दोनो एक-दूसरे के विरुद्ध स्वभाव के होते हैं तर्क करने में सबसे अधिक नुक़सान यह होता है कि इंसान संघठन बनाने में कमज़ोर हो जाते हैं। तर्कशास्त्र की यह विचित्र महिमा है। कि , तर्कों के शोध से समाज नामक जीव में तो सुधार प्राप्त होता है, मगर संघठन नामक जीव को रचने की शक्ति क्षीर्ण हो जाती है। समाज और संघठन में भेद है। समाज जाने और अनजाने सदस्यों से बना हुआ होता है। आपके पास विकल्प नही होता है किसे लेना है, किसे अस्वीकार कर देना है। मगर संघठन में विकल्प होता है। यह सिर्फ जानपहचान के सदस्यों से ही निर्मित होता है। नज़दीकी, व्यक्तिगत स्तर की जान-पहचान से। इसका कोई विशेष उद्देश्य भी होता है । तर्क करने से , या की अधिक तर्क करने वाले व्यक्ति , अक्सर करके संघठन के सदस्य होने पर बहोत मुश्किल खड़ी कर देते हैं संघठन के लिए ही  ऐसा क्यों? क्योंकि संघठित होने के लिए सदस्यों को एक दूसरे से चरित्र से उसकी पहचान करनी होती है, न सिर्फ नाम से ,या उनके मौखिक वाक्यों से। Personality को पहचाने की विद्या का बहोत उपयोग होता है संघठन बनाने के लिये। और इस विद्या के म