उत्तर भारत की क्षेत्रीय पार्टियों पर बौड़मता का अभिशाप

उत्तर भारत की आरक्षणवादी पार्टियों वास्तव में बौड़म लोगों की पार्टियां है, जिनकी राजनीति का एकमात्र उद्देश्य होता है कि जो कुछ भी इस देश को दोनों बड़ी ब्राह्मणवादी पार्टियां - कांग्रेस और भाजपा - समाज को चलाने  के लिए नीति  निर्माण करें , उसमे इन्हें आरक्षण नीति द्वारा संरक्षित अंश जरूर मिले।

बस।

तो आरक्षणवादी पार्टियां है क्या ? क्या आदर्श हैं इन पार्टियों के? क्या दृष्टिकोण होता है इनका, इस देश और इसके समाज को चलाने के ?

सोचा जाए तो कुछ भी नहीं।

यह पार्टियां इतनी बौद्धिक क़ाबलियत न तो जमा करना पसंद करती है कि कोई सोच, कोई ideology को जन्म दे , उनको विकसित करें, उन पर अमल करें और समाज को उसके माध्यम से व्यवस्थित करें। यह पार्टियां मौकापरस्ती उद्देश्य से ही चलती हैं, और  प्रत्येक  समाजिक महत्त्व के सवाल पर अपना मत अपनी विचारधारा प्रस्तुत करने से कतराती हैं। मौक़ापरस्ती की रणनीति के अनुसार यह पार्टियां  तनिक विलम्ब करके किसी विजयी दिखते हुए विचार को तलाशती हैं , फिर उस ओर थाली के बैंगन की तरह किसी भी तरफ लुढ़क जाती हैं।

वास्तव में यह पिछड़े दल और इनके समाज मे लोग पिछड़े होते ही इसलिए है कि यह बैद्धिक नही होते हैं, बौड़म होते हैं।

बौड़म  इंसान कौन है ?

बौड़म लोग किसी भी सामाजिक व्यवस्था को जन्म नही दे सकते हैं, बस हर एक प्रस्तुत करि गयी विचारधारा को आलोचना करके उनमे खोट निकाल सकते हैं। यहां आलोचना , विश्लेषण की एक बौद्धिक सीमा रेखा होती है, जो कि बौड़म लोग पहचान नही सकते हैं।  और वह सीमा का मर्यादा उलंघन कर देते हैं। सीमा रेखा यह होती है कि बड़ा  सत्य यह होता है कि -- अंतः समाज को व्यवस्थित करने के लिए कुछ न कुछ तो नीति, आदर्श, विचारधारा चाहिए ही होती है - आपके सामने प्रस्तुत तमाम विकल्पों में से। और यदि आप सभी की आलोचना करते करते उनके खोट निकाल निकाल कर सभी को खारिज़ कर देंगे, तब आप खाली हाथ रह जाएंगे समाज को व्यवस्थित करने की आवश्यकता को पूर्त करने हेतु। यही बौड़म पना होता है।

तो फिर जब आप पिछड़ जाते हैं समाज मे अपनी विचारधारा को मुख्य मार्गदर्शक बनाने में, तब आप मजबूरन आरक्षणवाद की राजनीति करने के लिए बाध्य हो ही जाते हैं। यानी समाज की मुख्य कमान किसी अन्य के हाथों में सौंप कर उससे झगड़ा करते हैं कि हमे हमारा आरक्षित हिस्सा दे दो !

यही पिछड़ा पन होता है।

और इसका कारण होता है कि आपके समाज की बौद्धिक क़ाबलियत निम्न होती है। वह बौड़म लोगो का समाज होता है ,-- जो कि तर्क शोध नही कर सकता है, न्याय और निर्णय नही कर सकता है।  बौड़म , वह जिसमे अन्तर्मन प्रबल नही होता है, जिसमे स्वचेतना कमज़ोर होती है।

आखिर बौड़म इंसान की और क्या पहचान होती है? सबसे प्रथम तो यही की वह तर्कों की विचित्र मकड़जाल में आसानी से उलझ जाते हैं, बजाए उसको सुलझा कर स्वयं की चेतना को विकसित करने के। बौड़म इंसान तर्क करने से घृणा करते हैं, और अनजाने में किसी दूसरे के दिये तर्क पर चलते हैं। वह ही "संस्कृति" के नाम पर दिए गए कर्म को करके जीवन जीते है। वही रूडी निभाते हैं, रूढ़िवादी बनते हैं, और समय के अनुसार स्वयं को बदलने की क़ाबलियत को अपने भीतर नष्ट कर चुके होते हैं।

बौड़म इंसान पिता-पुत्र की जंग से पहचाने जाते हैं। बौड़म लोगों के समाज आपसी द्वंद, ईर्ष्या , क्लेश , द्वंद से पहचाने जाते हैं। वह आपसी सहयोग के काबिल नही होते हैं, क्योंकि मिल-जुल कर निर्णय लेने की क़ाबलियत नही रखते हैं। वह आलोचना करते करते सीमा रेखा को तोड़ कर ही तो बौड़म बनते हैं, जब वह भूल जाते हैं कि अन्त में कुछ न कुछ निर्णय कर सकना क्यों परम आवश्यक भी होता हैं, किसी भी प्रश्न को अधर में नही छोड़ा जा सकता है।

बौड़मता ही सबसे बड़ा अभिशाप होता है पिछड़े लोगो का। और बौड़मता की पहचान होती है - अनिर्णय , सामाजिक सहयोग का विनाश, कमज़ोर सामाजिक  क़ाबलियतें।

बौड़म  लोग मौकापरस्ती से जीवन जीते हैं, और  सासंकृतिक आचरण में  वह समाज को चिन्तन से नहीं, बल्कि चलन से निभाते हैं। 

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