तर्क और संघठन निर्माण दोनो एक-दूसरे के विरुद्ध स्वभाव के होते हैं

तर्क और संघठन निर्माण दोनो एक-दूसरे के विरुद्ध स्वभाव के होते हैं

तर्क करने में सबसे अधिक नुक़सान यह होता है कि इंसान संघठन बनाने में कमज़ोर हो जाते हैं।

तर्कशास्त्र की यह विचित्र महिमा है। कि , तर्कों के शोध से समाज नामक जीव में तो सुधार प्राप्त होता है, मगर संघठन नामक जीव को रचने की शक्ति क्षीर्ण हो जाती है।

समाज और संघठन में भेद है। समाज जाने और अनजाने सदस्यों से बना हुआ होता है। आपके पास विकल्प नही होता है किसे लेना है, किसे अस्वीकार कर देना है। मगर संघठन में विकल्प होता है। यह सिर्फ जानपहचान के सदस्यों से ही निर्मित होता है। नज़दीकी, व्यक्तिगत स्तर की जान-पहचान से। इसका कोई विशेष उद्देश्य भी होता है ।

तर्क करने से , या की अधिक तर्क करने वाले व्यक्ति , अक्सर करके संघठन के सदस्य होने पर बहोत मुश्किल खड़ी कर देते हैं संघठन के लिए ही

 ऐसा क्यों?

क्योंकि संघठित होने के लिए सदस्यों को एक दूसरे से चरित्र से उसकी पहचान करनी होती है, न सिर्फ नाम से ,या उनके मौखिक वाक्यों से।

Personality को पहचाने की विद्या का बहोत उपयोग होता है संघठन बनाने के लिये। और इस विद्या के माध्यम से ही सही और ग़लत को संचालित किया जाता है। सदस्य यदि मौखिक तौर पर ग़लत भी हो तो उसको सुधारने के लिए उपदेश देने या प्रवचन करके, उसके संग तर्क करके काम नही चलाया जा सकता है। यहां ही तर्क करने वाले इंसान अपनी संगठनात्मक कौशल में कमज़ोर पड़ जाते हैं। वह तर्क करने बैठ जाते हैं, बजाये कि कोई दूसरा मार्ग तलाश करें। बल्कि शायद आवश्यक यह हो जाता है कि उस ग़लत को संघठन के अस्तित्व को क़ायम रखने के लिए होने ही दिया जाये। !!!!!!!!

जी हाँ।  संघठनों को क़ायम रखने के लिए सबसे बड़े गुण शायद यही होते हैं की ग़लत को होने दिया जाये और एकदूसरे को सहयोग दे कर बचने में सहायता दी जाये !

अब आप पुनः चिंतन करें, तर्क और संघठन के बीच संबंधों पर। आप देखेंगे कि दोनों में परस्पर विपरीत संबंध होते हैं। तर्क वादविवाद को जन्म देते हैं, और उसमे से सत्य असत्य, उचित-अनुचित को फल स्वरूप सबके सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं।  मगर संघठन की आवश्यकता ठीक विपरीत होती है। अलग-अलग इंसान अलग अलग चाहतों के प्रभाव में अलग अलग विचारों को सत्य-असत्य होने का विश्वास अपने हृदय में समाहित रखते हैं। उनकी दिलचस्पी वास्तविक सत्य-असत्य को जानने की नही होती है। यह उनकी निज़ी "सत्य" होते हैं, जो की उनको संघठन की सदस्यता की कुंजी प्रदान करवाते है। लोग अक्सर "संघठन" को "समाज" का पर्यावाची मान कर उसमे शामिल रहते हैं।।

और इन तथाकथित विश्वासों के माध्यम से ही कुंजी बनती है आपको उस संघठन के सही सदस्य होने की।
संघठन के चुकी कुछ स्वार्थी उद्देश्य भी होते हैं, इसलिये वह इन "असत्य तर्कों"  को सुधार करने के स्थान पर उनका रक्षण करने के लिए बाध्य होते हैं। संघठनों की आवश्यता अक्सर कोई आर्थिक उन्नति प्राप्त करने की होती है।  संघठन सदस्यों को सस्ते और प्रोत्साहित श्रमिक उपलब्ध करवाने में भूमिका निभाते हैं। ऐसा तभी हो सकता है जब आप इंसानो को "पालें" किसी विशिष्ट विचारधारा के आधीन, brain wash करके, ताकि वह कुछ विशेष किस्म के आदेश दिये जाने पर कुछ किस्म के तथाकथित "अमर्यादित" , अमान्य, अनैतिक और अवैध कार्यों को कर गुज़रे। यह तभी सम्भव हो सकता है जब कुछ ख़ास brain wash "तर्क" बचपन से ही डाले जाएं इंसानों में। इसलिये ही सफ़ल संघठन अक्सर करके किसी न किसी धार्मिक पंथ विचारधारा के इर्द-गिर्द निर्मित हो पाते हैं। शायद यही सम्बद्ध होता है धार्मिक विचारधारा के बीच, सफ़ल संगठनों के निर्माण और फिर धन शक्ति से सुसज्जिय उद्योगिक घरानों के उत्थान के बीच। धर्म ही सबसे सबसे प्रथम भूमि उपलब्ध करवाते हैं समाज से संगठन बनाने के लिए। और संघठनों में से ही घराने निकलते है जो की अर्थ शक्ति से परिपूर्ण बनते है - उद्योग करके अर्जित किये गये धन से या किसी अन्य तरीके से प्राप्त अर्थ शक्ति से।

पिछड़े और दलित समाज यहां ही बहोत कमज़ोर पड़ जाया करते हैं अक्सर। वह तर्क करने में और पढ़ाई-लिखाई करने में बहोत युग्न करते हैं। इससे या तो उनमे तर्क निर्मित होते हैं, जो की उन्हें संगठन की सदस्यता लायक मानसिक अवस्था से दूर ले जाते हैं। ऐसे लोग संगठन सदस्य लायक नही रह जाते हैं।

अन्यथा , पिछड़े और दलित समाज पूर्णतः अशिक्षित रह जाते हैं और फिर वह किसी अन्य अधिक श्रेष्ठ और शक्तिशाली संघठन द्वारा बचपन से ही "उठा" लिए जाते हैं, यानी अपनी किस्म की "brain wash" करके उस संगठन के बड़े कद के मालिक सदस्यों के लिए श्रमिक शक्ति उपलध करवाने के लिए।

यह जितने भी शक्ति शाली संघठन है आज हमारे देश में, उनकी वास्तविक श्रमिक शक्ति इन्हीं दलित और पिछड़े वर्गों से आये अपूर्ण शिक्षित सदस्यों से ही निर्मित हुई है। यह लोग liberal arts वाले तर्कों से कोसों दूर करने एकांत जा कर brain wash किये गये हैं। तभी इतने कुतर्क और भ्रमों से परिपूर्ण है। मगर फ़िर संघटन को लाभ भी तो  सदस्यों की इसी "अशिक्षा" से ही प्राप्त होता है। यह श्रमिक सदस्य अपने motivation (या प्रोत्साहन) में ऐसे होते हैं कि इनसे किसी भी किस्म के अवैध, अमान्य कार्य पूर्ण करवाये जा सकते है आवश्यकत और पूर्वग्रहीत उद्देश्य अनुसार।

यह बड़ा ही विचित्र सम्बद्ध है तर्क और संघठन शक्ति के मध्य में।

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