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बलात्कार, स्वतंत्र-मन,व्यवसायिक अनुबंध और भारतीय समाज

सिद्धान्तिक दृष्टिकोण से बलात्कार मात्र एक अपराध नहीं, वरन, समाज में एक स्वतंत्र-मन (free-will) के दमन का प्रतीक होता है । विज्ञानं में स्वतंत्र-मन एक बहोत ही कोतुहलता का विषय रहा है । आरंभ में कर्म-कांडी धार्मिक मान्यताओं ने हमे येही बतलाया था को "वही होता है जो किस्मत में लिखा होता है " । दर्शन और समाजशास्त्र में इस प्रकार के विचार रखने वालो को 'भाग्यवादी' कह कर बुलाया जाता है । मगर एक कर्म-योगी धार्मिक मान्यता ने इस विचार के विपरीत यह एक विचार दिया की "किस्मत खुद्द आप के किये गए कर्मो का फल होती है "। दूसरे शब्दों में , यह भागवत गीता जैसे ग्रन्थ से मिला वही विचार है की "जो बोयेगा, वही पायेगा ", या फिर की "जैसे कर्म करेगा तू , वैसा फल देगा भगवान् "। दर्शन में इस विचार धरा को कर्म योगी कहा जाता है । सिद्धांत में यह दोनों विचार एक दूसरे के विपरीत होते है । या कहे तो मन में यह प्रश्न होता है की "क्या किस्मत या भाग्य कोई निश्चित वस्तु है , या फिर कोई खुद अपनी किस्मत या भाग्य को किसी तरह से नियंत्रित कर सकता है ?"।
    सदियों से इस दोनों विचार पर कही कोई और रास्ता उज्जवल नहीं हुआ था । भौतिकी (Physics) में विज्ञानियों ने किस्मत को कर्म का फल मन था । न्यूटन के सिद्धांतो में तो यही समझा जाता है की "हर क्रिया का फल उसके समान अनुपात का , उसकी दिशा के विपरीत प्रतिक्रिया होती है " (Every action has an equal and opposite reaction.) 
मगर बाद में जब विज्ञानियों (या यह कहे प्रकृति दार्शनिक ) में अल्बर्ट आइन्स्टाइन ने क्वांटम फिजिक्स (Quantum Physics ) के विचारो को दिया और प्रयोगशालाओं में इन नियमो की भी पुष्टि पाई गयी,
तब फिर से किस्मत-वादिता के विचारों को एक बल मिला। आरंभ में महान वैज्ञानिक और प्राकृतिक दार्शनिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन भी अपने से पहले न्यूटन के दिए गए विचारो के अनुसार यही भाव रखते थे की "इश्वार (इस दुनिया के निर्माण और दैनिक कार्यकर्मो में )कोई पासे वाला खेल नहीं खेल रहे हैं ", (God doesn't play dice.). मगर ज्यों-ज्यों आइन्स्टाइन ने प्रकाश से सम्बंधित अपने शोध में समय और शून्य (space and time) की परस्परता के सिद्धांतो को दुनिया के सामने दिया ,- प्रकाश और ऊर्जा के सूक्ष्म धारक, यानी Quantum, और उनके व्यवहार , पदार्थ के सूक्ष्म कर्ण , और फिर तरंग और पदार्थ के बीच होने वाले कोई स्वतंत्र -मन से घटित बदलाव (wave - particle duality )-- दुनिया में एक नए दर्शन ने फिर से जन्म लिया ।
  आधुनिक विज्ञानियों , और प्राकृतिक दार्शानियों ने न्यूटन और आइन्स्टाइन द्वारा दिए गए दो अलग अलग विचारों से दुनिया के हर पक्ष को दो विचारों के नज़रिए से समझने का प्रयास किया । दर्शन में दो अलग किसम के विश्व का सृजन हुआ , Deterministic world , aur Probabilistic World ।
  इतिहास, विज्ञानं में घट रही इन घटनाओं का वास्तविक दुनिए  के समाज शास्त्र , और विधि-विधान पर भी असर पड़ा । safety और Security से सम्बंधित कानूनों में 'probabilistic' विचारधारा ने घर बनाया और ऐसे प्रशनो को उत्तरित किया की "क्या सुरक्षा नौका को पास में रखने से किसी नाविक की जान बच सकती है ?" । इससे पहेले के विचारों में इस प्रश्न का उत्तर यही समझा जाता था की "भई , कोई कितना भी कुछ क्यों न कर ले, जब जिस दिन ऊपर वाले ने मौत लिखी है , उस दिन हो कर ही रहेगी ।".
 जीवन और मृत्यु पर तो इंसान ने आज तक नियंत्रण नहीं प्राप्त किया , मगर मृत्यु के सत्य के आगे कर्म-हीन हो कर जीवन रक्षा के इंतज़ाम करना नहीं छोड़ता । 
  किस्मत के प्रश्न पर एक नया उत्तर तैयार हो गया है -- सम्भावना (probability ) का । गणितज्ञों ने भी संभावना को नापने के लिए गणित का विकास किया । भविष्य अभी भी अनजान है , मगर उस अँधेरे और शून्य में क्या है पर अब ज्यादा सटीकता से क्यास लगाया जा सकता है । पदार्थ-और-तरंग  के परस्पर बदलाव के विचार से स्वतंत्र-मन के अस्तित्व को कुछ बल मिलता है । यदि ऊर्जा के कर्ण , Quantum , स्वयं अपनी मर्जी से कभी भी तरंग के समान व्यवहार दिखलाते है , और कभी अपनी मर्जी से पदार्थ के कर्ण जैसा व्यवहार दिखलाते है तो यह कहा जा सकता है की कही कुछ है जो स्वतंत्र मन के समान है जो ऊर्जा को कभी तरंग और कभी पदार्थ जैसा व्यवहार रखने का इशारा देता है ।
   यही से स्वतंत्र-मन के अस्तित्व पर कुछ छोटा से प्रमाण दिखता है । कानून और निति-निर्माण में यह विचार स्वतंत्रता की परिभाषा में व्यक्ति को प्रधान बनता है कि सरकारें किसी व्यतिगत मनुष्य या पूरे समाज की भाग्य विधाता नहीं बन सकती। प्रत्येक मनुष्य में एक स्वतंत्र इच्छा होती है और सरकारों की निति निर्माण का एक उद्देश्य इस स्वतंत्र-इच्छा को सुरक्षा देने का है । इसको दमन से बचाने का है । कहीं भी, कोई भी सामाजिक न न्यायायिक अनुबंध स्वतंत्र-मन को किसी के पराधीन नहीं कर सकता । यानि , हर अनुबंध में उस अनुबंध को टूट जाने की स्थिति में नुक्सान की भरपाई का न्याय होना चाहिए । अनुबंध हमेशा के लिए लगो को आपस में नहीं बांधे रह सकते , और उनके टूटने का नुक्सान मृत्यु (स्वतंत्र-मन का सम्पूर्ण दमन)  द्वारा नहीं भरवाया जा सकता।
  अनुबंध के अस्तित्व में आने के लिए स्वतंत्र-मन को प्रथम कसौटी मन गया है , और स्वतंत्र-मन को अनुबंध के दौरान और पूरण तक बचाए रखने का प्रावधान होता है । कोई भी अनुबंध जो मनुष्य को उसकी प्राकृतिक भावनाओं से वंचित करने का प्रयास करता है वह अ-संवेधानिक अनुबंध माना जाता है ।
 तब प्रशन उठता है की यौन को किस तरह का अनुबंध माना जायेगा?  स्वतंत्र-मन था की नहीं यह कैसे प्रमाणित किया जायेगा। और शादी के बाद पति-पत्नी के रिश्ते में स्वतंत्र-मन का क्या स्थान होगा ? ज्यादातर पश्चिमी देशो में स्वतंत्र-मन के अस्तित्व को शादी के बाद भी ऐसा है स्वतंत्र मन गया है । इसी लिए वहां तलाक को कोई असामाजिक वाकया नहीं मानते । या यो कहें को क्योंकि तलाक को असामाजिक वाक्य नहीं मानते इसलिए स्वतंत्र-मन के अस्तित्व को बनाये रखा जाता है । 
भारत में सामाजिक मान्यताओं में स्वतंत्र-मन को इतना ऊचा स्थान नहीं मिला है । बल्कि सभी पिछड़े देशो में स्वतंत्र-मन को ले कर यही हालत है । स्वतंत्र-मन को बनाये रखते हुए व्यापार कर सकना इन देशो में आज भी न ही संभव है, न ही संभव माना जाता है । कर्मचारियों में किसी को किसी के पराधीन मानना , नारी के साथ शोषण या बलात्कार , अनुबंधों के विरुद्ध काम करना -- यह इन देशो में आम घटना है । असल में स्वतंत्र-मन के अस्तित्व को स्वीकार कर लेने से हर अनुबंध में कुछ अन कही शर्ते अस्तित्व में आ जाती है । इन शर्तो को अनुबंध में संयुक्त दोनों पक्ष स्वयं में दो स्वतंत्र-विचार वादी होने के कारन समझ लेते है । मगर जब दोनों हो पक्ष स्वतंत्र-विचार वादी न हो, या एक हो , एक न हो तब इन अनकही शर्तो पर अनुबंध के टूट जाने को ले कर आपसी विवाद हो जाता है । एक पक्ष दूसरे पक्ष पर अनुबंध को तोड़ने का आरोप लगता है ,..
..आगे कम बुद्धि के चलते भ्रमो में, आरोप और प्रमाण की त्रज्या में दोनों पक्षों की दुनिया भटक जाती है ।
स्वतंत्र-मन के अस्तित्व का प्रमाण बहोत मुश्किल होता है । यदि अनुबंध के अस्तित्व में स्वतंत्र मन एक कसौटी है , तब अनुबंध के खुद के अस्तित्व का प्रमाण खुद ही एक मुश्किल काम हो जाता है । ज्यादा तर व्यवसायिक अनुबंध तो लिखित तौर पर होते है इसलिए उनका प्रमाण तो मिल जायेगा , मगर अन्य मानवी सम्बन्ध जैसे शादी से पहले या शादी के बाहर सम्बन्ध को स्वतंत्र-मन से उत्पन्न है या नहीं प्रमाणित करना मुश्किल हो जाता है । यदि दोनों पक्ष किसी कारन वश , जैसे पारिवारिक सम्बन्ध , एक दूसरे को पहले से जानते हो तब स्वतंत्र-मन के प्रमाण को और भी मुश्किल हो जाती है । 
   कलकाता के बलात्कार आरोप में येही देखने को मिल रहा है, जहाँ बार-बार स्त्री के चरित्र को नीचा दिखा कर स्वतंत्र-मन के एक पल , उस समय जब दोनों में सम्बन्ध बना,के अस्तित्व को दिखलाने का प्रयास हो रहा है । यह स्वतंत्र-मन ही है जो यह दूरी को बतलायेगा की नारी-पुरुष का सम्बन्ध बलात्कार था , या फिर आपसी मंर्जी से बना सम्बन्ध ।
  स्वतंत्र मन एक बहोत ही भावनात्मक वस्तु है । कुछ केस में तोह यह स्पस्ट प्रमाणित हो जाता है की स्वतंत्र मन था की नहीं, जैसे राह चलते किसी को पकड़ के कुछ सम्बन्ध करना स्पस्ट तौर पर बलात्कार ही है , मगर आस पास की किसी महिला , जैसे घर में काम कर रही कर्मचारी के केस में यह मुश्किल हो जाता है / 
स्वतंत्र-मन के अस्तित्व के प्रमाण की इन चुनौतियों को समझते हुए ही शायद कोर्ट ने स्त्री न्याय अध्यक्ष स्थापित करने का निर्णय लिया / स्त्री न्यायधीश भाव्नात्क्मक पहलुओ को समझते हुए शायद बेहतर निर्णय दे सके की स्वतंत्र-मन अस्तित्व में था की नहीं ।
  बरहाल , आये दिन घटते इन घटना कर्मो से यही पता चलता है की भारतीय समाज अभी सही व्यवसायिक अनुबंधों से कितना दूर खड़ा है । बढ़ता हुआ भ्रस्टाचार भी हमारे समाज में स्वतंत्र-मन के सामान की कमी को दिखलाता है । हम कभी भी एक नापा तुला संवेधानिक और मानवता सांगत करार नहीं बना सकते । और यदि बनाते भी है तब उन्हें मानवता और सम्वेधानिकता की कसौटी के अनुरूप पालन नहीं कर पाते । दोपहर के टीवी धारावाहिकों में तोह कम से कम यही पता चलता है की भारतीय घर-परिवार में स्वतंत्र-मन की संतुलित समझ का कितना आभाव है । विज्ञापन , और विज्ञापनों में की गयी संभावित ग्राहक को प्रभावित कर सकने की कोशिश भी अक्सर सम्वेधानिकता के दायरों को तोड़ रही होती है । 
बलात्कार तो आज एक घटना है , स्वतंत्र-मन का अनादर करना हमारा सांकृतिक स्वभाव है।

अकबर-बीरबल और भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार को पूर्णतः ख़तम कर सकना कभी भी आसान नहीं था/

    एक बार बादशाह अकबर के दरबारियों ने उन्हें यह खबर दी की उनके दरबार में कहीं कोई मंत्री भ्रष्टाचारी हो गया है । अकबर ने बीरबल से इस बात की चर्चा करी / बीरबल ने अकबर से कहा की आलमपनाह अब भ्रष्टाचार का कोई इलाज नहीं होता / इस पर अकबर ने बीरबल के इस उत्तर को एक चुनौती मानते हुए बीरबल से कहा की वह भ्रष्टाचार को ख़तम कर के ही दिखायेंगे । अकबर ने अपने उस भ्रष्टाचारी दरबारी को एक दम वहायत नौकरी पर रख दिया जहाँ उसे भ्रष्टाचार करने का कोई मौका ही न मिले ।
     उस दरबारी को यमुना नदी की लहरों को गिन कर लेखा-जोखा बनाने के काम पर लगा दिया /
  कुछ दिन के बाद अकबर ने बीरबल से पुछा की अब उस दरबारी का भ्रष्टाचार करने का मौका ख़तम हुआ की नहीं । बीरबल मुस्कराए और जवाब दिया की 'नहीं' । इस पर अकबर को अचम्भा हुआ और उन्होंने बीरबल से पूछा की अब वह दरबारी कैसे भ्रष्टाचार कर लेता है । बीरबल ने अकबर को खुद ही यमुना के तट पर चल कर देखने को कहा ।
    वह जा कर अकबर ने देखा की अब वह दरबार यमुना नदी पर चलने वाली नावों से रिश्वत वसूलने के काम में लग चूका था । उसने हर आने जाने वाली नाव के नाविकों को यह कहना शुरू कर दिया था की बादशाह ने उसे यमुना की लहरों को गिनने का काम सौंपा है । नावों के आने जाने से लहरें टूट जाती है जिससे उसे यह काम करने में दिक्कत आती है । अगर वह बादशाह से उनकी शिकायत करेगा तब उनको सजा हो सकती है , इसलिए उसे खुश रखने के लिए नाविकों को उसे कुछ देना चाहिए !

 (ऊपर लिखे इस किस्से को कहने का मकसद भ्रष्टाचार की आज की लड़ाई को पराजित करने का बिलकुल भी नहीं है । व्यक्तिगत व्यवहार से उत्पन्न भ्रष्टाचार (या कोई भी अन्य अपराध) की सत्यता को किसी भी तंत्र , अथवा व्यवस्था को अपने भ्रष्टाचार (या अपराध) रोकथाम के नियमो की कड़क और अभेदय बनाने से वंचित नहीं करना चाहिए । जिस तरह मृत्यु प्रत्येक मनुष्य के जीवन का सत्य है , मगर इस सत्य का अर्थ यह नहीं होता की हमारा समाज रोगियों का इलाज करना बंद कर दे, ऐसा मान कर की इलाज का क्या फायद, मृत्यु तो एक दिन आनी ही है । जीवन के विस्तार स्थल से दर्शन लेने पर कई समस्याओं का कोई हल नहीं मिलेगा , मगर एक सामूहिक, तंत्रीय या सामाजिक व्यवस्था की भूमि से दर्शन करने पर उन समस्याओं का एक तंत्रीय और प्रबंधक हल अवश्य मिल सकता है ।)

"जनता जाग उठी है " से क्या अभिप्राय होता है ?

"जनता जाग उठी है " से क्या अभिप्राय होता है ? जनता की मदहोशी क्या है, किन कारणों से है, और क्यों यह बार-बार होती है कि मानो जनता की बेहोशी का कोई स्थाई इलाज नहीं है ?
   जनता एक रोज़मर्रा के जीवन संघर्ष में तल्लीन व्यक्तियों का समूह है / यह दर्शन,ज्ञान-ध्यान , खोज, वाले तस्सली और फुरसत में किये जाने वाले कामो के लिए समय नहीं व्यर्थ कर सकने वाले लोगों का समूह है / समय व्यर्थ का मतलब है जीवन संघर्ष में उस दिन की दो वक़्त की रोटी का नुक्सान / मगर "समय व्यर्थ" का एक अन्य उचित मतलब यह भी है की विकास पूर्ण और मूल्यों की तलाश कर नयी संपदाओं और अवसरों की खोज का आभाव /
     साधारणतः एक बहुमत में व्यक्ति समूह के पास यह समय नहीं होता की वह यह 'व्यर्थ' कर सके / मगर एक छोटे अल्पमत में वह समूह जो भोजन किसी अन्य आराम के संसाधन से प्राप्त करता है, जैसे की राजा -महाराजा लोग , वह यह फुरसत का समय ज़रूर रखते हैं की वह इस बहुमत वाले समूह के संचालन के नियम बना सके / भ्रष्टाचार तब होता है जब यह छोटा समूह बड़े समूह की मजबूरी का फयदा उठता है की बड़े समूह के पास समय नहीं होता नियमो में सह-गलत की परख का , और छोटा समूह अपने लाभ के हिसाब से यह नियम बनता जाता है / बड़ा समूह अंत में गरीब हो जाता है, और छोटा समूह अमीर / जब गरीबी सर पर चढ़ती है तब बड़ा समूह छोटे समूह की अमीरी पर अपना गुस्सा दिखता है, जिसे की अक्सर क्रांति भी कहा जाता है, और फिर क्रांति के दौरान हुयी जन-जीवन हानि से भविष्य में बचने के लिए कुछ नए क्रांतिकारी बदलाव, या कहे तो, अपने नियम लिखता है /
     वह बड़ा समूह फिर से जीवन के संघर्ष में तल्लीन हो जाता है। यानि की , "जनता सो जाती है "।
    असल में किसी भी सभ्यता और देश में जनता लगातार नहीं "जगी" रह सकती है । जरूरत है की जनता जब भी कभी जागे, नियमो की रचना ऐसी होनी चाहिए की दुबारा वह घटना न घटे जिसने जनता के मन में इनता असंतोष दिया था की जनता को स्वयं क्रांति करनी पड़ गयी । साधारणतः प्रजातंत्र में क्रांति से बचाव में जनता के पास चुनाव में 'राईट तो रिकॉल ', निर्वाचित व्यक्ति को वापस बुलाने का अधिकार भी होता है । या फिर की अगर कोई भी उमीदवार पसंद का हो तोह सभी की त्यागने का एक विकल्प , जिससे के यदि यह विकल्प बहुमत में आये तब चुनाव को दुबारा करवाना पडे , पुराने सभी उम्मीदवारों को विस्थापित कर के /
   यही है "जनता जाग उठी है " का यह सभ्य प्रजातान्त्रिक अर्थ / मगर चुकी भारत में यह दोनों ही विकल्प उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए यहाँ "जनता जाग उठी ' से वाक्य का अर्थ होगा एक नया संवेधानिक संशोधन की सबसे पहले जनता को यह दोनों विकल्प दिलवाए जा सकें / इसके लिए किसी एक ख़ास चुनावी पार्टी को दो-तिहाई बहुमत देना होगा जो यह वचन दे और निभाए की वह यह दो चुनावी संशोधन कर के देगी /
     अन्यथा, एक नई क्रांति का अघाज़ करना होगा / और एक नया सविधान/ इन्ही दो तरीको में "जनता जाग उठी है " का स्थायी इलाज़ है की जनता आराम से सो सके और तब भी व्यवस्था में कोई कीड़ा , गड़बड़ इत्यादि न हो /

'राजनैतिक स्थिरता' से क्या अभिप्राय होता है ?

'राजनैतिक स्थिरता' से क्या अभिप्राय होता है ? व्यावासिक अनुबंधन में 'राजनैतिक स्थिरता' क्यों आवश्यक है? सेंसेक्स और शेयर बाज़ार विकास के लिए राजनैतिक स्थिरता की मांग करता है ?
     प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में जहाँ हर एक सर्कार एक निश्चित कार्यकाल के लिए ही नियम और निति-निर्माण के बहुमत में रहती है, या नयों कहें की सत्तारुड रहती है , और एक कार्यावधि के बाद आम चुनाव अनिवार्य होता है , जैसे भारत में 5 वर्ष के उपरान्त , एक सरकार का किया अनुबंध यदि अगली सरकार न माने तब किसी भी निवेशक का पैसा उसको निवेष का लाभ देने के पूर्व ही निति-परिवर्तन हो जाने से आर्थिक हानि दे देगा / इसलिए निवेशक यह भय को निवेष से पूर्व ही नापेगा की कही निति परिवर्तन का आसार तो नहीं है , और तब ही निवेश करेगा / विदेशी निवेषक तो ख़ास तौर पर यह जोखिम नहीं लेगा /
     प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के निर्माण में इस कारको को आज से सदियों पूर्व ही समझ लिया गया था / इसी समस्या का समाधान बना था ब्यूरोक्रेसी, यानि लोक सेवा की नौकरी / भारत में लोक सेवा और अन्य सरकारी सेवा में आये, "चयनित ", व्यक्ति आजीवन (यानि 60 वर्ष की आयु) तक सेवा में रहते हैं, और उन्हें एक निश्चित तरीके के बाहर कोई भी सरकार निष्काषित नहीं कर सकती है / हाँ, यदि कोई सरकारी मंत्री किसी नौकरशाह की सेवाओं से संतुष्ट नहीं है तब वह नौकर शाह के प्रमुख , जिसे चीफ सेक्रेटरी (मुख्य सचिव ) से कह कर "निलंभित " करवा सकता है , जिसके उपरान्त उस निलंबित अधिकारी पर न्यायपालिका से न्याय की गुहार का हक होगा, और मुख्य सचिव उस पर एक जांच करवा कर रिपोर्ट उस अधिकारी को और न्यायपालिका को उपलब्ध करवाए गा /
 इन सब लम्बी प्रक्रियाओं के पीछे की सोच यही राजनैतिक स्थिरता से जुडी है / राजनैतिक स्थिरता के अर्थ में यह कतई नहीं है की निर्वाचित राजनैतिक पार्टी बार बार न बदले , वरन पार्टी बदल भी जाए तो वह पिछली सरकार के किये अनुबंध को यका-यक न बदल दे , या कहे की तोड़ दे / निति परिवर्तन के दौरान भी न्याय का आभास रखना होगा और किसी भी निवेशक के निति परिवर्तन से हुए हानि से बचाना पड़ेगा /
   अब ऐसा होता है की नहीं यह एक बात है , मगर सामाजिक न्याय की गुहार तो यही है /

वास्तविकता वक्रता क्षेत्र

{विकिपीडिया के लेख reality distortion field (RDF ) द्वारा प्रभावित } :
 Reality Distortion Field यानी "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " कह कर बुलायी जाने वाली विवरणी की रचना सन 1981 में एप्पल कंप्यूटर इन्कोर्पोरैट में कार्यरत बड ट्रिबल ने करी थी / इस विवरणी के माध्यम से वह एप्पल कंप्यूटर के संयोजक स्टीव जोब्स के व्यक्तित्व को समझने के लिए किया था / ट्रिबल "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र" के प्रयोग से जोब्स की स्वयं के ऊपर (अंध-)विश्वास करने की क़ाबलियत और अपनी कंपनी में कार्यरत लोगों को भ्रमित विश्वासी कैसे बना कर बहोत ही मुश्किल से मुश्किल काम कैसे करवा लिए , यह वर्णित करते हैं /
    ट्रिबल का कहना था की यह विवरणी टीवी पर दिखाए जाने वाले एक विज्ञान परिकल्पना के धारावाहिक 'स्टार ट्रेक' से उन्होंने प्राप्त किया था /
    "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " एक मनोवैज्ञानिक दशा है जो हर एक इंसान में उसके आसपास मौजूद मन-लुभावन वस्तुएं , व्यक्ति ; वाहवाही वाले कृत्य (bravado) ; अतिशोयक्ति (= hyperbole); विक्री-प्रचार ; शांति और रमणीयता के आभास देने वाले जीवन-शैली ; और किसी वस्तु अथवा व्यक्ति के हट (stubborn) समान पुनर-आगमन ; - के द्वारा निर्मित होता है / 
    "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " के प्रभाव में व्यक्ति किसी भी आत्म-चेतना सम्बंधित विषय (subjective issue ) या वस्तु पर एक संतुलित आकलन नहीं कर पाता है/ इस प्रकार आत्म-चेतना सम्बंधित विषय पर हर व्यक्ति का अलग पैमाना तैयार होता है और हर व्यक्ति ऐसे विषय पर अलग-अलग राय निर्मित करता है / यहाँ तक की कुछ लोग जिसे अच्छा समझते हैं , कुछ अन्य उसे ख़राब मानते हैं / हमारे पैमाने 'बहोत अच्छा ', 'अच्छा' , 'ठीक ही है ', 'ख़राब' से लेकर 'बहोत ख़राब ' के बीच अलग-अलग शब्दकोष के माध्यम से अंतर करते रहते हैं / भारत की सांकृतिक प्रष्टभूमि में इस विवरणी का बहोत आवश्यक प्रयोग है /
     एक अन्य सांकृतिक समझ में "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " को "माया जाल " के व्यक्तव्य में भी समझा जा सकता है / मौजूदा भारतीय जीवन में हमारे आस-पास "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " के संसाधन बहोत ही ज्यादा मात्र में उपलब्ध है , और इनसे उत्पन्न होने वाले वक्रता के निवारण के संसाधन करीब-करीब न के बराबर हैं / हमारी सिनेमा निर्माण उद्योग (बॉलीवुड ), समाचार वितरण प्रणाली (मीडिया), विक्री-प्रचार उद्योग (advertising and publicity ), यह सब के सब हमे हर पल भ्रमित करने में तल्लीन होते हैं , जबकि सत्य का रहस्य उदघाटन करने के विश्वसनीय संसाधन नहीं हैं / संक्षेप में , हमारा "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " बहोत दीर्घ है , और सत्य-स्थापन संसाधन करीब करीब विलुप्त हैं /
    ज्ञान और जानकारी की हमेशा से यह आपस में संबधित विशेषता रही है की जानकारी जितना बड़ती हैं , इंसान उतने ही सटीक निर्णय लेने के काबिल बनता है , मगर साथ ही साथ उतना ही भ्रमित होने का भी पात्र बनता है / जानकारी को सही से संयोजना एक अवावश्यक कार्य है अन्यथा वही जानकारी हमे भ्रमित कर विनाश भी करवा सकती है /

परिवार-वाद में गलत क्या है ? - Part 2

      परिवार-वाद में गलत क्या है ? इस प्रश्न की एक पुनः समीक्षा पर यह बोध भी प्राप्त होता है की परिवार-वाद योग्यता को अपने आधीन करने में लिप्त रहता है / परिवार में से आये "राज कुमार " अपनी योग्यताओं की सीमाओं की अपने अंतर-मन में भली भाति जानते है / इसलिए वह अपने आस-पास मौजूद योग्य व्यक्तियों का दमन करने की बजाये उन्हें अपना सहयोगी (या "गुलाम") बनाने की रणनीति रखते हैं / येह सहयोगी उन्हें सीमाओं के बहार उठा कर रखने में उपयोगी होते है /
      वैसे आपसी-सहयोग किसी भी अच्छे नेतृत्व का आधार स्तंभ भी होता है / इसलिए यह भ्रम हो सकता है की 'परिवार-वादी सहयोग' और 'आदर्श-नेतृत्व सहयोग' में क्या भेद होगा , या क्या अंतर होगा ? यह कैसे कह सकते हैं की 'परिवार-वादी सहयोग' किसी की पराधीनता के समान है ?
     इस भ्रम का निवारण यह है की 'परिवार-वादी सहयोगी' एक आदर्श योग्यता से प्राप्त उन नीतियों और न्यायों को पालन नहीं करते जो उनके परिवार को अगला शासक, (= नेतृत्व ) बनाने में बांधा दे सकते है / तो परिवार-वाद के संरक्षण में एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण होता है जो वफ़ादारी , स्वामीभक्ति में लाभ प्रदान करवाती है / मगर प्राकृतिक नियमो के अनुसार , चूँकि स्वार्थ से निर्मित लाभ निष्पक्ष नहीं होता हैं इसलिए इस तरह के लाभ में किसी अन्य की हानि अवश्य होती है / अब आदर्श प्रजातंत्र में सरकार-व्यवस्था का उद्देश्य किसी को भी हानि में जीवन के न्यूनतम स्तर के नीचे ना गिरने देने का भी है / परिवार-वाद में विरोधी पक्ष की उपस्थिति में यह हानि विरोधियों की कही जाती है / यह न्यूनतम रेखा के नीचे तक की हानि हो सकती है /
                 परिवार-वाद अपने पूर्ण प्रसार ,व्यापकता में राजा-महराजा की राज नरेश-व्यवस्था के समतुल्य है / अंततः परिवार-वादी अपने सहयोगियों का भी दमन करने लगते हैं अगर यह सहयोगी उनके लाभ और आनंद के बीच में बांधा बनते हैं / दमन के समय "न्याय" (असल में वह अन्याय  हो रहा होता है , मगर उसे न्याय कह कर पुकारा जाता है के वही तर्क प्रयोग होते है जो आरम्भ में विरोधियों के दमन में प्रयोग हुए थे / तब यह प्रमाण मिलता है की क्यों परिवार-वाद में न्याय के तर्क असल में कुतर्क और अन्याय थे / योग्यता का परिवार-वाद का "पराधीन सेवक" होने का निर्णायक प्रमाण भी तभी प्राप्त होता है /
          आधुनिक राजनीति में बात चाहे कानून-व्यवस्था की हो , चाहे विकास की , परिवार-वादी व्यवस्थाएं उन निति का स्थापन नहीं करेंगी जो अंततः उनके परिवार-वाद को चोट दे सकता है / यह सही नीतियों इन परिवार-वादी के आय के स्रोत को भी बंधित कर सकता है / विचार-संग्राहक संस्थाएं ऐसी निष्पक्ष और जन-कल्याणकारी नीतियों का निर्माण करती रही है / भारत के बहार अंतर-राष्ट्रिय मंच पर ऐसी "योग्य" नीतियों अस्तित्व में हैं / यह जानकारी का अधिकार , या पारदर्शिता यही से आई है / अब आगे की "योग्य' नीतियाँ का दमन परिवार-वाद पराधीनो की स्वामीभक्ति की देन है /

आधुनिक राजनीति में रंगे सीयार

रंगा सियार की कहानी बहोत चर्चित कहानी रही है / एक जाने माने लेखक , श्री राजेंद्र यादव जी ने भी "गुलाम" शीर्षक से सीयार की कहानी बतलाई है जो गलती से एक मृत शेर की खाल औढ बैठता है / जंगल के पशु उसे ही अपना राजा शेर खान समझने लगते हैं / रंगा सियार किस डरपोक और कायरो वाली मानसिकता से दिमाग चलता है और शेर और शेर जैसी बहादुरी का ढोंग कर के बडे-बड़े जानवर , जैसे चीता, हाथी और भालू पर "भयभीत बहादुरी" से हुकम चला कर शाशन करता है , यह "ग़ुलाम" कहानी का सार है / शेर की खाल के भीतर बैठा सियार आखिर था तो ग़ुलाम ही , इसलिए अकेले में भी मृत शेर के तलवे चाट करता था , जिससे उसमे ताकत का प्रवाह महसूस होता था /
    राज-पाठ और शासन की विद्या का उसे कोई ज्ञान नहीं था , मगर मृत शेर की खाल उसकी मदद करती है , जब सब पशु उसके हुकम को बिना प्रश्न किया, बिना न्याय की परख के ही पालन करते हैं , और समझ-दार पशु भी 'दाल में काला' के आभास के बावजूद अपना मष्तिष्क बंद कर लेते है की जब जंगल का काम-काज चल रहा है तो व्यर्थ हलचल का कोई लाभ नहीं /
    यह कहानी हमने अपनी दसवी कक्षा में पढ़ी थी / इस कहानी के अलावा दसवी में शेक्सपीयर के नाटक "जुलियस सीज़र " को पढ़ा था , और फिर बारहवी तक बरनार्द शॉ के नाटक "सेंट जोअं" को पढ़ा था / यह सभी रचनाएँ एक किस्म से राजनैतिक शास्त्र का ज्ञान देती हैं /
    खैर , "ग़ुलाम" कहानी का प्रसंग इसलिए किया है की आधुनिक राजनीति में ये रंगे सीयार बहोत घुसे हुए हैं / ये ग्रामीण समझ के लोग , इन्होने प्रजातंत्र में जन संचालन की , न्याय की कोई शिक्षा नहीं ली है , और यह जो भी कर्म-,कुकर्म करते हैं , जो भी तर्क-कुतर्क करते हैं उसे ही यह राजनीति समझते हैं / इनमे से कईयों ने किसी मृत राजनैतिक हस्ती को अपनी पार्टी का दार्शनिक घोषित कर रखा है , जो की इन रंगे सीयारो के लिए उस मृत शेर का काम करता है , और यह जनता पर अपनी मन मर्ज़ी का कानून चलाते हैं , वह कानून जिसमे न ही तर्क हैं , ना ही सामाजिक न्याय / अपराधी , गुंडे , इन्हें जो भी कहे यह असल में "ग़ुलाम " है , और धीरे-धीरे यह समाज को भी ग़ुलामी की दिशा में ले जा रहे हैं , जब इनकी मृत्यु के पशचात हम इनकी संतानों और इनके रिश्तेदारों को अगले शासक में स्वीकार कर रहे हैं /

लुभावना हास्य खतरनाक हो सकता है !

   हास्य को हम सभी लोग क्यों इतना पसंद करते हैं ? फेसबुक पर, टीवी पर, सिनेमा में ..जहाँ देखो वहां , करीब-करीब हर पल हर कोई हंसने और हँसाने की कोशिश कर रहा होता है / और जब यह प्रश्न उठता है की इतनी हंसी इंसान को क्यों चाहिए होती है, तब एक 'शब्द-आडम्बर तर्क' (=Rhetorical) में हम यही उत्तर देते हैं कि, "आज कल के जीवन में तनाव इतना बड गया है कि उस तनाव को कम करने के लिए हास्य की आवश्यकता पड़ती है /"
   हास्य मनुष्य को प्रकृति का अनोखा उपहार है / मानव विज्ञानी (=anthropologist ) हास्य को मनुष्य की बौद्धिकता का सूचक मानते हैं , की जब मनुष्य को मृत्यु की सत्यता की ज्ञान हुआ तब हास्य ही मनुष्य का प्रथम प्रतिक्रिया बनी /
    मगर आज के युग में यह इतना हास्य स्वयं कुछ रोगी सा हो गया है/ जीवन को तनाव मुक्त करने के नाम नाम पर जो कुछ भी उपलब्ध हो रहा है , वह या तो किसी का उपहास करता है , या तर्क हीन हैं / किसी भी सूरत में यह हास्य वह हास्य नहीं है जो ज्ञान , विवेक अथवा बौद्धिकता से उदगल करता है /
     आलम यह है की एक पूरा-पूरा कल कारखाना , एक उद्योग , हास्य के नाम पर मनोरंजन उद्योग बन कर बहोत ही लाभ में व्यवसाय कर रहा है / और यहाँ पर यह पूरी तरह स्वीकृत हो गया है की किसी सिनेमा की प्रशंसा में यह कहा जाए की उसे देखने के लिए अपना मस्तिष्क घर पर ही छोड़ कर आयें ! अग्रसर होते किसी मूरख-तंत्र की इसे बड़ी प्र-सूचक और क्या हो सकता है / मानो मनुष्य और मष्तिष्क को अब किया जा सकता है ! वैसे मौजूदा राजनैतिक हालात तो यह दर्शाते हैं की हज़ारों सालों के विकास में मनुष्य ने जिस मष्तिष्क के भरोसे दुनिया यहाँ तक बदल डाली , अब उस मष्तिष्क को मनुष्य से अलग करवाने का योगाभ्यास आविष्कृत हो चुका है /
    खैर , हास्य की इस मनोरोगी प्रवृति में मनुष्य ने सामाजिक सह-निवास के तर्कों को तोड़ना-मरोड़ना भी विचित्र गति से सीख लिया है / आज के युग में कहा भी जाता हैं की सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति "आप " होता है / जो अभी तक नहीं कहा गया है , और जो शायद इसी लिए गुमशुदा है वह है की सामाजिक न्याय को ठिकाने लगा कर "आप " महतवपूर्ण नहीं रह जाता है / "आप " अपने आप के लाभों के लिए सामाजिक न्याय के तर्कों को मरोड़ने लग गए हैं / अब "आप " एक "प्रोफेशनल " बनने की शिक्षा लेने में तल्लीन हो चले हैं / इसलिए अब वह इतिहास , मानव विज्ञानं , दर्शन-शास्त्र , साहित्य इत्यादि के ज्ञान को व्यर्थ समझने लग गए हैं / तब सामाजिक-न्याय के तर्कों के उत्थान के इतिहास का ज्ञान नष्ट सा होने लगा है /
    तर्कों को मरोड़ने का अभ्यास आधुनिक मानव हास्य आनंद के भाव में करता है / इस अभ्यास के दौरान बाकी सभी लोग भी मरोड़े हुए तर्कों को स्वीकार करने का अभ्यास ले बैठते हैं / धीरे-धीरे यह सहज सामाजिक-न्याय का मरोड़ा हुआ तर्क नया और आम-स्वीकृत तर्क हो जाता है , जब सामाजिक इतिहास का ज्ञान भी समाज में से नष्ट हो जाता है / फूहड़ हास्य एक खतरनाक वस्तु हो सकती है , जिस प्रकार एक अनजान वस्तु बम हो सकती है /
    फूहड़ हास्य पर विवेक-हीन प्रतिक्रिया आप के सामाजिक ज्ञान को नष्ट कर रही हो सकती है /

"विचार-संग्राहक संस्थान "(think-tank bodies ) का प्रजातंत्र में उपयोग

           प्रजातंत्र में निर्णयों को सत्य और धर्म के अलावा जन प्रिय होने की कसौटी पर परखा जाता है / यहाँ पर एक चुनौती यह रहती है की कोई निर्णय धर्मं और सत्यता की कसौटी पर खरा है यह कैसे पता चलेगा ? इस समस्या का समाधान आता है "विचार-संग्राहक संस्थानों "(think-tank bodies ) के उद्दगम से / हर विषय से सम्बंधित कोई विश्वविद्यालय या कोई स्वतंत्र संस्थान ( स्वतंत्र= अपनी आर्थिक स्वतंत्रता और पदों की नियुक्ति का नियम स्वयं से लागू करने वाला ) जनता में व्याप्त तमाम विचारों को संगृहीत करता हैं , उन पर अन्वेषण करता है , तर्क और न्याय विकसित करता है और समाचार पत्रों , टीवी डिबेट्स इत्यादि के माध्यम से उनको परखता और प्रचारित करता है /
       तब इस तरह के संस्थानों दिए गए कुछ विकल्पों में "पूर्ण सहमती" (=consensus )वाले विचार को निर्णय में स्वीकार कर लिया जाता हैं / अन्यथा मत-दान द्वारा इन्ही विकल्पों से सर्वाधिक जनप्रिय वाले विचार को "आम सहमती " (= majority ) के निर्णय के साथ स्वीकार कर लिया जाता है / एक आदर्श व्यवस्था में अल्प-मती गुट (=minority ) को भी निर्णयों से हानि न होने देने का ख्याल रखा जाता हैं , या फिर की अल्प-मती गुट को कम से कम कष्ट हो /
        महत्वपूर्ण बिंदु यह है की जनता जिन विकल्पों पर अपना मत देती हैं , वह विकल्प पहले से ही शोध द्वारा प्राप्त , न्याय पर परखे विकल्प होते हैं /
       भारतवर्ष की त्रासदी यह है की यहाँ जनता की स्वतंत्र विचार पनपे से पहले ही कोई न कोई राजनैतिक पार्टी अपनी मन-मर्ज़ी को "जनता की उम्मीद " का चोंगा पहना कर प्रचारित करने लगाती हैं / जिन नागरिकों को अभी मुद्दे का पता भी नहीं होता , वह इन "जनता की उम्मीद " वाले विचारों को न्याय-संगत और जन-भावन विचार समझ कर मुद्दे पर अपना पहला ज्ञान प्राप्त करते हैं / टीवी और समाचार मीडिया अक्सर सभी प्रकार की खबरों को "निष्पक्ष " दिखा कर जनता को किसी नतीजे पर ना पहुचने का योगदान देते हैं , जिस से की जो ज्यादा प्रचारित विचार हैं , यानी उस मीडिया कम्पनी का "जनता की उम्मीद " वाला विचार , उस मीडिया के दर्शक उसे ही स्वीकार कर लें /
     ध्यान देने की बात है की कोई भी टीवी चेनल किसी "विचार संग्राहक संस्था " के विचारों को प्रसारित नहीं करता है , ना ही अपनी स्वयं की कोई डाक्यूमेंट्री देता है , बल्कि अपना "डिस क्लैमेर " ("disclaimer" ) लगा कर अपना हाथ ज़रूर साफ़ कर लेता है की "चेनल पर जो भी दिखाया जाता है उससे मीडिया कंपनी के विचारों से कोई सरोकार नहीं है "/ अरे भई, तब दैनिक कार्यों में व्यस्त नागरिक कब तक और कितनी बारीकी से हर खबर पर नज़र रखेगा की वह स्वयं से एक धर्म-संगत, पूर्ण-न्याय वाला विचार स्वयं विकसित कर ले ? तो मीडिया द्वारा उपलब्ध समाचार आपको जागरूक कम बनाते हैं , भ्रमित ज्यादा करते हैं की आप अंततः उनके बेचे गए विचारों को ही खरीद कर स्वीकार कर लें /
     विचार-संग्राहक संस्थान और उनमे सदस्य सम्मानित नामों का ऐसा उपयोग होना चाहिए / मगर भारत में राजनेता के विचारों में हाँ-में-हाँ करने वाली ज़मीदारी व्यवस्था अभी भी चलती है / राज नेता ही सबसे बड़ा विचारक होता है जो सभी विषयों पर विशेषज्ञ ज्ञान के साथ विचार क्या , सीधे निर्णय ही देता है / अकसर वह राज नेताओं या किसी सेलेब्रिटी ने क्या कहा ऐसे दिखलाती हैं की मानो वही "जनता की उम्मीद " वाला विचार हैं /

प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का उदारवादी स्वतन्त्रताओं से भ्रम

       प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का पोषण और प्रोत्साहन किसी सदगुण विचारक की रचना नहीं है , बल्कि मानवाधिकारों की उत्पत्ति भी तर्क के खास संयोजन से होती है / गहराई में झांके तो पता चलेगा की जिन विचारों को हम अपने धार्मिक और कर्म-कांडी सदगुण से ग्रहण करते है , प्रजातंत्र में जब धर्म-निरपेक्षता विचार की अनिवार्यता आती है , तब धर्म-निरपेक्षता के भी तर्कों के ख़ास संयोजन से नागरिकों के दैनिक व्यवहार में इन सदगुणों की अनिवार्यता को समझा जा सकता है / यानी अगर आप नास्तिक भी हैं तो धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आपको इन सदगुणों को किन्ही दूसरे तर्कों से गृहीत कर जीवन में पालन करना ही पड़ेगा / सदगुण जैसे की " बड़ों का आदर करो " को आम तौर पर एक रामायण से प्राप्त सदगुण मान कर जीवन में गृहीत करते है और क्यों-क्या नहीं पूछते / मान लीजिये की कोई नास्तिक है , तब क्या वह इस व्यवहार को अपनाने से विमुक्त होगा ? क्योंकि रामायण को तो मानेगा नहीं, और धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक व्यवस्था उसको विश्वासों और आस्थाओं की स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य होगी की वह न भी माने तब भी वह सही है / ऐसे में अगर वह अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करता है तब क्या राज्य-प्रशासन उसे बाध्य कर सकता है ?
             हम सब ने यह देखा होगा की कैसे प्रजातंत्र की व्यवस्था में किसी भी 18 वर्ष से कम आयु के नाबालिग के हितो की रक्षा में सभी कानूनों और नियमो में ऐतिहात बरता जाता हैं / अगर किसी नाबालिग के माता-पिता उसका उचित पालन ना कारें तब उन्हें न्यायलय द्वारा बाध्य किया जा सकता है , अन्यथा न्यायलय उन्हें राज्य के संरक्षण में सौप देता है / इसके विपरीत किसी भी बालिग़ को अपने माता-पिता का ख्याल न रखने के लिए भी बाध्य कर देने के नियम हैं , नौकरियों में निर्भरता में बेरोजगार या आय-विहीन माता-पिता पर कई सहूलियतें प्रदान करी गयी हैं और अंत में राज्य द्वारा बुजुर्गों के संरक्षण की भी व्यवस्था है / पेंशन , प्रोविडेंट फण्ड , टैक्स रिबेट , यात्रा में रियायत , इत्यादि कई सुविधायें दी जाती हैं / धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था ऐसा जीवन और प्रकृति के कारणों से करती है , किसी कर्म-कांडी आस्थाओं और विश्वासों से नहीं / न्याय के तर्क फिर से व्यवस्था को बाध्य कर देते हैं , जो शायद सांप्रदायिक विश्वासों के कर्म-कांडो से विमुक्त होने के उपरान्त न करने पड़ते /
     प्रजातंत्र में आप अगर नास्तिक हो कर सांप्रदायिक विश्वासों के कर्म-कांडो को ना भी माने तब भी प्रकृति के नियमो का पालन तो प्रकृति स्वयं ही करवा लेगी / स्वतन्त्र मनुष्य प्रकृति के नियमो से स्वतन्त्रता तो नहीं पा सकता ! और प्रजातान्त्रिक न्याय प्रणाली के नियम इन्ही प्राकृत के नियमो पर आधारित है /मानव अधिकारों का जन्म भी कुछ प्राकृतिक नियमो में से होता है /
     मुद्दा यह है की श्रमिक क़ानून भी अन्य कानूनों की तरह प्राकृतिक नियमो में से विक्सित हुए हैं / इसलिए वह भी न्यायालयों द्वारा बाध्य किये जा सकते हैं , सरकारी नियम में वह चाहे ना हो /
          दिक्कत तब आती है जब ग्रामीण जमीदारी व्यवस्था से आये लोग मानव-अधकारों और प्रकृति के नियमो की नासमझी कर उन्हें "सरकार" के दयालु-भाव में मान लेते है / "सरकार" व्यवस्था प्रजातान्त्रिक व्यवस्था से कहीं विपरीत व्यक्तव्य है / ऐसा वह इस लिए करते है क्यों की वह जमीदारी व्यवस्था में नियमो के अस्तित्व के तर्कों को " सरकार (=जमीदार) की मर्ज़ी " के तौर पर स्वीकार करते आये होते है / ज़मीदारी प्रथा में ज्यादा प्रश्न पूछने की सजा मृत्यु दंड हो सकती थी / इसलिए कई लोग तो प्रश्न भी नहीं पूछते थे , चाहे जीवन भर अज्ञानी -मूड़ भी क्यों ना रह जाएँ / अभी हाल में हुयी एक बहस , "क्या मौलिक अधीकार निराकुश होते है ? " के कारक को देखिये / मौलिक अधिकारों को राष्ट्र-रक्षण कारको में निरंकुश माना जाता है / मगर , मौलिक अधिकारों को निराकुश मान लेने पर सत्तारुड पार्टी की निति की विफलता को उसके 'व्यवस्था-का-अधिकार' मान लेने का भ्रम हो जायेगा / पश्चिमी प्रजातंत्रो में मौलिक अधिकारों को सिर्फ बहाय आक्रमणों की परिस्थिति में अन्कुषित किया जा सकता है , अन्यथा अंदरूनी अलगाव-वादी झगड़ो में भी नहीं / अन्दरोनी अलगाववाद जनता के स्वतन्त्र मन की चाहत के रूप में समझी जाती है /यही "व्यवस्था का अधिकार " मौलिक अधिकारों को प्रजातंत्र की बुनियाद से तब्दील कर के उदारवादी तानाशाही की "दयालु कृपा" बना देती है /
     आश्चर्य है की अभी के राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी के मत में भी मौलिक अधिकार निरंकुश नहीं होते / वह क्यों ऐसा सोचते हैं , इसका कारक खुद सोचने के लिए स्वतंत्र हैं/ असीम त्रिवेदी के जेल भेजने में भी लोक-सेवको ने यही "उदारवादी-भाव" की अपनी समझ का उदाहरण दिया था /

परिवार-वाद में गलत क्या है ?

परिवार-वाद (Dynasty) में गलत क्या है ? क्या किसी राजा, या फिर किसी  राजनेता के पुत्र को महज इसलिए  मौक नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि वह किसी राजा या राजनेता की संतान है ? 
   साधारण मानवाधिकारो के तर्कों से यदि समीक्षा करें तब उत्तर मिलगा की परिवारवाद का समर्थन न करना मानवाधिकरो के उलंघन जैसा है / मगर इतिहास के अध्यायों से विषय पर सोंचें तब यह आशंका आएगी की व्यवहारिकता में परिवारवाद कितना बड़ा राजनैतिक और  संकट है / 
    परिवार को समाज की इकाई माना गया है / प्रत्येक परिवार को जान -माल की सुरक्षा और पारिवारिक एकान्तता प्रदान करवाना हर एक प्रजा-तांत्रिक व्यवस्था और हर 'संयुक्त-राष्ट्र' (the UN ) के सदस्य राज्य का कर्त्तव्य है  ऐसे / ऐसे में यह तर्क  भी पूर्तः स्वीकार्य है की हर व्यक्ति अपने जीवन का श्रम अपने परिवार के लिए ही तो करता है , और वह यही चाहेगा की उसके उपरान्त उसका स्थान उसके संतान लें /
    मुद्दा है की क्या यह सदगुणी सत्य एक भ्रम तो  नहीं बन जाता है जब बात आती है की पिता का व्यवसाय समाज-सेवा थी , या कहें तो राजनीति थी / यह प्रश्न को समझ लेना जरूरी है की आप राजनीति को एक समाज-सेवा (services ) मानते है या कोई व्यवसाय (business ), या फिर की लाभार्त-कर्त्तव्य ( profession ) / क्योंकि यदि राजनीति एक सेवा है , जो की राजनीति को माना भी जाता है , तब सेवा-कर्म में याग्यता का तिरस्कार इतिहास की दृष्टी से एक जातवाद प्रथा के आरम्भ के सम-तुल्य है / समाज अपने हर एक क्रांति या युग परिवर्तन के उपरान्त यही व्रत लेता है कि अब से आने वाले युगों  किसी भी संस्थान में  नेतृत्व  को उसकी योग्यता के आधार पर ही चुना जायेगा / मगर धीरे-धीरे सभी संस्थान यह व्रत भुला देती है, साथ ही यह सत्य भी की हम सब ही नशवर हैं / वह सब परिवार के मोह में पड़ कर परिवार-वादी बन जाना चाहती है /  
    प्रकृति ने कई सारे सिद्धांत द्वि-स्तरीय तर्कों में रचे है / साधारण तौर पर एक-स्तर के तर्कों पर कार्य करने वाला मानव मस्तिष्क  अकसर कर के द्वि-स्तरीय तर्कों को भी मिथ्या -आडम्बर मान लेने की त्रुटी कर देता है / और भ्रम की राजनीति करने वाले आपकी इस त्रुटी के आत्म -ज्ञान को ही आपका भ्रम होने का विश्वास दिलवा कर राजनीती सेंक निकलते हैं / 
    परिवार-वाद पर तमाम तर्कों का विश्लेषण अपने आप में एक ज्ञान है की मिथ्या-आडम्बर इंसान को कैसे विश्वास में ले कर गलत कर देते हैं  / भ्रम और सत्य के इस युद्ध बिंदु को विधि (laws ) और न्याय (justice ) के द्वारा 'दूध का दूध ,पानी का पानी ' कर सकना करीब करीब असंभव हैं / न्याय कभी भी योग्यता को नहीं ठुकराना चाहेगा / ना ही वह किसी को उसके जन्म के कारण अवसरों से विमुक्त करेगा / 
   इंसानों को खुद्द ही इस उलझन का समाधान निकलना होगा / चाहे फिर ऐसा कर के कि हर एक को उसकी योग्यता के आधार पर ही अवसर दिया जाए , और परिवार-वाद से आये संतानों को योग्यता के प्रमाण के परिक्षण से गुजरना हो /

उदारवादी तानाशाही में उदारवादिता का प्रजातान्त्रिक मूल के मानवाधिकारों से भ्रम

उदारवादी तानाशाही और प्रजातंत्र में भ्रम करने के स्रोत कुछ और भी हैं / जब लोग यह पूछते है की अगर वाकई एक भ्रष्टाचार -विमुख "जन संचालन प्रतिष्ठान" अगर अस्तित्व में आ जायेगा तो उनका जीना दुषवार हो जायेगा क्योंकि छोटी मोटी गलतियाँ तो सभी कोई आये दिन करता है , और ऐसे प्रतिष्ठान उनके इन छोटी-छोटी गलतियों पर भी सजा दे देगा , तब लोगो के मन में आसीन आज की "सरकारों" की उदारवादिता के प्रति सम्मान समझ में आता है / लगता है की लोगो को मानवाधिकारों की न तो समझ है न ही एक सच्चे प्रजातंत्र में उनके औचित्य की जानकारी / वह सरकारों की उदारवादिता के आधीन जीवन जी रहे होते है /
      उदारवादी तानाशाही एक "सरकार" की भांती कार्य करती है , जो की लोगो को उनके अपराधो की सजा देने की ताकत रखती है , मगर उदारवादी बन कर ऐसा नहीं करती / लोग अपनी उदारवादी सरकार का साभार मानते हैं / परन्तु प्रजातंत्र में "जन संचान प्रतिष्ठान " होते है , जो की अपराधो को चिन्हित करते हैं, और उनके सजा तय करते हैं, मगर कोई व्यक्ति सजा की पात्रता पर है की नहीं यह न्यायलय तय करतें है / कुछ प्रजातांत्रिक देशों में तो "पब्लिक जूरी " तक होती है जो की आम आदमियों में से निर्मित होती है और वह तय करती है की कोई सजा की पात्रता पर है की नहीं /
       अरे भई अगर कभी कोई भ्रष्टाचार -विमुख "जन संचालन प्रतिष्ठान" अस्तित्व में आ भी गया तो क्या मानवाधिकार ख़तम हो जायेंगे ? या फिर की भ्रष्टाचार -विमुख प्रतिष्ठान आम आदमियों के ऊपर कारवाही करेगा, न की अन्य प्रतिष्ठान के ऊपर जैसे की पुलिस प्रतिष्ठान , न्यायलय प्रतिष्ठान इत्यादि ? यह तो सर्व समझ की बात है की भ्रष्टाचार -विमुख प्रतिष्ठान सिर्फ अन्य प्रतिष्ठान में भ्रष्टाचार की रोक थाम करेगा, बाकी सब के सब प्रतिष्ठान अपने कर्तव्य पहले जैसे ही करेंगे /

a list of who-the-hell is low IQ, as per we the people.


'What is Intelligence' have seriously had only some inconclusive answers. Gadkari's gaffe has brought out how people think about intelligence. More than questioning about intelligence, IQ or their own disposition on their intelligence, people have chosen the idea around Intelligence to point what they considered was not intelligent in the entire gaffe. Here is a list of how and what people think is unintelligent:

 1) Intelligence is problem-solving ability, and Dawood is no problem-solver for society. Vivekananda was.
2) Indian police and establishment is low IQ to have failed to catch dawood despite a big establishment.
3) Gadkari has been low IQ to have broached the issue at such wrong time of his.
4) Indian people are low IQ to be repeatedly re-electing between Congress and BJP.
5) gadkari is low IQ to be commenting on IQ of people without even knowing ABC of what is IQ and what is Intelligence. BJP is unfortunate to have such a person as their head.
6) media is low IQ to be misrepresenting what gadkari said , which otherwise has nothing wrong in it.
7) People are low IQ to be over-reacting on small innocuous comment.
8) people of India are low IQ to be not understanding the corruption done by Vadra and Gadkari.
9) Jethmalanis are low IQ to not know why Gadkari-ji should be given "support" (a backing despite a forceful evidence of corruption by Gadkari) to fight against the powerful Congress.


more than about knowing what is intelligence, how intelligence can be cultured, groomed, enhanced, we know who-the-hell is low IQ.

"स्ट्रा-मैन आर्ग्युमेंट" क्या होते है ?


" स्ट्रा-मैन आर्ग्युमेंट "  अंग्रेजी में उस श्रेणी के तर्कों का कहा जाता है जिसमे प्रतिस्पर्धी एक साजिश के तहत अपने विरोधी के तर्कों को सही उत्तर न दे सकने की परिथिति में एक अन-उपयोगी या किसी कमज़ोर तर्क को उसका "असली' तर्क बतला कर उनका सटीक उत्तर दे देता है/ जो लोग इस वाद-विवाद को सही और लगातार नहीं देख रहे होते है उनको लगता है की भई विरोधी के तर्क का एक सही-सही जवाब तो दिया ही है , अब विरोधी  इनको क्यों  परेशान कर रहा है / "स्ट्रा-मैन" का अर्थ होता है फाँस का बना मानव , जिसको अक्सर खेतों में लगाया जाता है  चिड़ियों की भगाने के लिए / 
कुछ तीव्र बुद्धि लोग अगर उसकी इस चलंकी को पकड़ भी लेते है , "की आपने जवाब तो उस प्रश्न का दिया ही नहीं जो आपसे पुछा गया था ", तब भी वह प्रतिस्पर्धी एक मत-विभाजन करने में कामयाब तो हो ही जाता है / किसी भी राजनीतिग्य को मत-विभाजन से बेहतर और क्या चाहिए / मत-विभाजन से ही तो राजनीति आरम्भ होती है / तभी तो मत दिए जातें है, जब मत-दान होता है / 

भाषा परिवर्तन की मिथ्या में खोता हुआ विवेक

भाषा के महत्व को क्या कभी भी कम आँका जा सकता है / भाषा का मनुष्य के विकास में जो महत्त्व है उसकी जितना भी चर्चा करें वह कम होगी / मगर दुखड़ा तब होता है की हम सारा का सारा श्रेय भाषा को देने की भूल कर बैठते है / भाषा के अलावा मनुष्य के विवेक की चर्चा होना भी उतनी ही जरूरी है / तर्क में अक्सर भारतीय यहाँ पर भ्रमित हो जातें है / ठीक है एक वस्तु, भाषा , बहोत महत्वपूर्ण है , मगर ऐसा नहीं की भाषा अकेला ही सारा कार्यभार संभाली हुयी है  / तर्क संवाद , और स्कूली वाद-विवाद प्रतियोग्तायों में अक्सर यह तर्क -भ्रम देखने को मिलता है / ख़ास तौर पर जब अंग्रेज़ी में यह तर्क-संवाद प्रतियोगिता आयोजित करी जाती है / इंग्लिश भाषा की अध्यापक( अथवा अध्यापिका ) प्रतियोगियों को सिर्फ उनकी अंग्रेज़ी बोलने की काबलियत पर ही अंक दे कर पक्ष और विपक्ष के बीच में न्याय कर देते हैं / वाद-विवाद प्रतियोगितायों में न्याय करने के मुख बिन्दुओं में प्रत्योगियों की तर्क को समझाने की बुद्धि, उसको सुलझाने की और उनमे छिपे चुनातियों को चिन्हित करने, उनके निवारण करने की काबलियत को देखना चाहिए / 

इंग्लिश में संवाद करने की इच्छा ने भी एक महत्व्कान्षा का रूप ले लिया है और हमारे विवेक पर एक पर्दा-सा गिरा दिया है / अब तर्क , कुतर्क, की समझ तो कुछ प्रभावकारी और सौन्दर्य-पूर्ण शब्दों ने ले ली है / इंग्लिश बोलने के चक्कर में थोड़ा सा बेवक़ूफ़ हो गए है हम लोग / 
    भाषा के महत्त्व पर वाद-विवाद में अपने आप एक थाम लग जानी चाहिए थी, जब बिंदु एक प्रभावकारी लुभावनी भाषा से कहीं अधिक व्यक्तव्य को सही-सही संतुलित रूप में समझा सकने का हो / और भाषा की त्रुत्यों पे कुछ ढील भी देने की भी ज़रुरत हो सकती है अगर वाद-विवाद में इंग्लिश नागरिक स्वयं न हो , क्योंकि बाकी अन्य तो अपनी मात्र भाषा से जुदा भाषा में यह संवाद कर के अपने विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे होते है / 

शिस्टाचार कभी भी तर्क विहीन नहीं हो सकते

      सदगुण , शिष्टाचार तो कभी-कभी ऐसे सुनाई देते हैं की मानो यह सिर्फ विश्वास और आस्था से उदित है, इसलिए सांस्कृतिक कर्त्तव्य है, और इनमे तर्क दूड़ना अपराध होगा / शिष्टाचार का अनुस्मरण तो आजकल कुछ ऐसे ही करवाया जा रहा है / "आज कल इस देश में राजनीति की भाषा ऐसी बदल है , इतनी गन्दी हो गयी है की लोग एक दूसरे पर कीचड उछाल रहे हैं " ! / "कुछ लोग बिना प्रमाण के कुछ प्रतिष्ठित लोगों पर बे-बुनियाद आरोप लगा रहे हैं "/ "सार्वजनिक जीवन में अपने विरोशी के प्रति ऐसे शब्दों का प्रयोग उचित नहीं हैं "/
    अन्धकार में करी जाने वाली भारतीय राजनीति में कुछ शिष्टाचार की आस्थाओं का भी खूब प्रयोग हुआ है / जैसे की , अपने राजनैतिक विरोधी के चरित्र पर हमला करना एक अच्छा "शिस्टाचार" नहीं है (यानी की शिस्ट-आचरण नहीं है ) / क्यों नहीं है, किन सीमाओं के भीतर में नहीं है , इस पर तर्क करना ही अपने आप में बेवकूफी समझ ली गयी है / क्यों न हो, भारतीय सभ्यता में "सभ्यता" इतनी अधिक है की समालोचनात्मक चिंतन का आभाव बहुत गहरा और गंभीर है / यहाँ विश्वास अधिक महत्व पूर्ण है , विवेक नहीं / "विवेक" सिर्फ बच्चों के नाम रखने पर ही अच्छा सुनिए देता है /
      और नतीजा यह है की अब अपराधी राजनीति में घुसपैट कर चुके है / क्या अब भी इस पर बहस करनी पड़ेगी, कि फिर वही , "मामला अभी कोर्ट में लंबित है " , या फिर की, "जब तब प्रमाणित न हो जाए प्रत्येक व्यक्ति को निर्दोष ही मन जाना चाहिए " /
     शिस्टाचार कभी भी तर्क विहीन  नहीं हो सकते / वह अक्सर अपने बीते हुए युग के तर्क पर आधारित होते है / जब युग बदल जाता है, तकनीक बदल जाती है, तब शिष्टाचार के तर्क भी बदल जाते हैं / कभी कभी वह एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में रख लिए जाते है और तब उन्हें संस्कृति के कर पुकारा जाता है/ यह सत्य है कि तब ऐसे शिस्टाचार में वर्तमान युग के अनुरूप इस्थापित तर्क नहीं रह जाता है , मगर यह अपने आप में एक तर्क बन जाता है कि वह ऐतिहासिक धरोहर मान कर संरक्षित करे गयें हैं / क्या यह उचित होगा कि शिष्टाचार को मात्र सदगुण होने कि वजह से लगो करने का अनुस्मरण करा जाए, जब कि ऐसा करने पर किसी मौजूदा सत्य और धर्म का पतन ही क्यों न हो /
      राजनीति में एक अच्छा शिष्टाचार है कि प्रतिद्वंदियों कि अपनी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता सिर्फ  राजनैतिक क्षेत्र तक ही रखनी चाहिए / क्योंकि इंसानों में मत-भेद तो होते हैं, मगर इंसानियत कि रिश्ता नहीं ख़तम होना चाहिए / यह एक अच्छा शिस्टाचार है/ अब अगर कुटिल-बुद्धि राजनैतिक इस मान्यता का दुरुओप्योग करें कि राजनातिक क्षेत्र में चुपके से संथ-गाँठ कर ले और राजनैतिक प्रतिद्वादिता भी जनता को लूटने के लिए प्रयोग करें तब भी क्या शिस्टाचार ज्यादा तर्क-वान और विवेक-पूर्ण माना जाना चाहिए? क्या तब भी प्रतिद्वंदियों के व्यक्तिगत जीवन में छिपे सांठ-गाँठ के प्रमाणों को सब के सम्मुख नहीं करना चाहिए ?

      भारतीय राजनीति भ्रम पर ही चलती है / यहाँ पूर्ण कोशिश होती है कि सत्य-स्थापन की तकनीकें लागू न हो पाए , जिससे कि राजनाति करने का अंधियारा कायम रहे / भ्रांतियां विवेक को दूषित करती है / शिस्टाचार तर्क-विहीन नहीं है / शिस्टाचार भी इंसान के विकास के साथ सम्बंधित रही कुछ घटनायों में से उत्त्पतित होता है / इंसान के विकास के साथ साथ शिस्टाचार के तर्क भी बदलते हैं, और शिस्टाचार की मान्यताएं भी/

भारतीय राजनीति और भारतीय संस्कृति में समालोचनात्मक चिंतन का आभाव

भारतीय राजनीति पूरी तरह समालोचनात्मक चिंतन के अभाव पर ही टिकी हुई है/ भारतीय राजनीति ग्रामीणयत से निकली है और आगे नहीं बढ़ी है / लोग अकसर यह विवाद करते हैं की ग्रामो और शहरों में क्या अंतर होता है / और फिर एक साधरण उत्तर में यह जवाब मान लेते है की अंतर है की शहर के लोग पढ़े-लिखे होते हैं और गाँव के नहीं/ और फिर गाँव वाले लोग, या जो गाँव का पक्ष ले रहे होते है वह बताने लग जाते हैं की उनके गांवों से कितने कितने पढ़े-लिखे लोग कहाँ-कहाँ शीर्ष पदों पर विराजमान है /
    अंतर एक भीतरी भेद में इसी समालोचनात्मक चिंतन का है / जानकारी का आभाव, जानकारी को क्रमित करने के तरीको के ज्ञान का अभाव, -- ग्रामीणयत कई तरीके से भारत को पिछड़ा देश बनाई हुई है / भाषा ज्ञान के दृष्टि से भी देखें तो पता चलेगा की ग्रामीणयत की दिक्कत आती है वाक्य में 'तथ्य' , 'आरोप', 'विश्वास' और 'संदेह' को चिन्हित करने में /
   और फिर वाद-विवाद के दौरान ग्रामीण मानसिकता भ्रमित होने लगाती है / भारतीय राजनीति में भी जब आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है तब भारतीय जनता ऐसे ही भ्रमित होती है / उनका सीधा तर्क होता है की 'भई, हमने वकालत नहीं पड़ीं है की हम प्रमाणों और सबूते को समझने बैठे' / मगर ज्ञान का अभाव वकालत के ज्ञान का नहीं है , अभाव एक बुद्धि योग का है , जिसे समालोचनात्मक चिंतन कहते हैं /
     आरोप-प्रत्यारोप के खेल में भारतीयों के मनोभाव में बहोत उलझन महसूस होती है जब उन्हें यह सोचन पड़ता है की अगर कहीं किसी न्यायलय में कोई जज से ही कह दे की , "साहब यह व्यक्ति आप पर जज होने का आरोप लगा रहा है " तब यह आरोप-प्रत्यारोप की प्रकिया का कहीं कोई अंत नहीं होगा / साधारणतः हम लोग आरोप-प्रत्यारोप के खेल को सुलझाने में भ्रमित हो कर उससे एक अनंत क्रिया समझ लेते है , इसलिए वाद-विवाद और आरोप -प्रत्यारोप को सुलझाने की कोशिश भी नहीं करते / 'वाद-विवाद से जितना बचे रहे उतना ही अच्छा है' - ऐसी हमारी सांस्कृतिक समझ है /
     आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है  की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
         आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
    हाँ , राजनातिक क्षेत्र में जहाँ जांच संस्था भी राजनैतिक दबाव में काम करती है , वहां प्रमाणों के साथ छेड़-खानी सत्य के स्तापन में थोडा मुश्किल ज़रूर पैदा कर देते हैं / मगर तब भी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता " और उससे उत्पन्न हुए कानूनी दांव-पेंच यह सब ही सत्य को प्रवाहित करने के लिए ही बने है /
    कमी सिर्फ समालोचनात्मक चिंतन की है/

आत्म -पूजन मनोविकार से कुटिल बुद्धि चिंतन की कड़ी

        क्या यह संभव है की पुराने सामंतवाद के युग का आत्म-पूजन मनोविकार हमारे आधुनिक प्रजातंत्र में कुटिल बुद्धि का कारक बना हुआ है ? कुटिल बुद्धि से मेरा अर्थ है जुगाड़ बुद्धि (crooked thinking), वह जो विचारों के अर्थ को उसके ठीक विपरीत कर के समझतें हैं / पुराने युग में सामंतवादी , ज़मीदार, अक्सर आत्म-पूजन मनोविकृत लोग हुआ करते थे/ इसलिए क्यों की उनके पास जनता पर शासन करने के ताकत असीम थी/ भई कोई सरकार , कोर्ट, कचेहरी तो थी नहीं/ राजा-रजवाडो का ज़मान था/ अगर राजा को शिकायत करें भी तब भी राजा से ज़मींदार की नजदीकियां उनकी ताकत का पैमाना बन कर दिखाती थी /
       रामायण का पूरी कहानी रावण के अन्दर बैठे अहंकार से उत्पन्न हुए त्रुटियों को झलकाती है / आश्चर्य है की यही अहंकार को उसके सही मानसिक-रोग के लक्षणों में हम लोग आज भी नहीं पहचान सकें और आज के युग में भी भारतीय संस्कृति में लोगो की एक दूसरे से सर्वाधिक जो शिकायत रखतें है वह है 'ईगो' की /
          "ईगो प्रॉब्लम" इंसान में व्याप्त 'अहम्' का ही बढा हुआ स्वरुप है/ अहम् ही इंसान को अन्य पशुयों से अलग करता है / इंसान स्वयं को आईने में देख कर पहचान सकने की काबलियत रखता है / वैज्ञानिक समझ से यह एक जटिल क्षमता है जो कुछ ही जीवों में पायी जाती है / इस क्षमता का अर्थ है की जीव में एक समालोचनात्मक-चिंतन, या फिर कि रचनात्मक -चिंतन संभव है, क्यों कि वह जीव स्वयं के 'अक्स' को देख सकता है , और उससे याददाश्त में रखने की काबलियत है / अब 'अहम्' यही से विक्सित होता है की वह स्वयं की याददाश्त में स्वयं की छवि को किस रूप में गृहीत करता है / यह छवि ही 'अहम्' है / अगर यह छवि उसकी कल्पनाओं से प्रभावित हो कर वास्तविकता से दूर चली जाती है तो "ईगो प्रॉब्लम" विकसित हो जाता है / साधारणतः "ईगो प्रॉब्लम " किसी पूर्व जानकारी के नयी जानकारी के टकराव से होता है क्यों की मस्तिष्क अभी पुरानी जानकारी के प्रकाश में हे अहम् को सजोंये रखता है / नए जानकारी में नयी-छवि, या छवि-परिवर्तन में समय तो लगेगा ही /
       अब अगर छवि किसी भगवान् की ही बनी हो तब यह "ईगो प्रॉब्लम" बढ कर आत्म-पूजन मनोविकार हो जाती है / भारतीय संकृति में स्वयं की छवि में भगवान् में देखना कोई बड़ी मुश्किल बात नहीं है, क्योंकि हमारी सभ्यता ही "हीरो वरशिप ", यानी नायक-पूजन की है / हमे अपने हीरो की पूजा करना बचपान से सिखाया गया है / हमारे हीरो, भगवान् , अकसर इंसान के अवतार में ही धरती पर आये हैं, यानी वह हम में भी तो हो सकते है , "है, की नहीं ?"/
         और आज भी हम अक्सर जीवित इंसान को नायक मान कर स्वयं ही उसकी पूजा करने लगते है, जैसे सचिन तेंदुलकर या अमिताभ बच्चन/ यह काल्पनिक या अत्यधिक दूर बैठे नायक का पूजन भी अंततः हमारे आत्म-पूजन की इच्छा का पोषण कर रहा होता है , क्योंकि हम स्वयं उसका अनुसरण कर रहे होता हैं, और उस काल्पनिक नायक की पूजन में हम स्वयं में उसके जीवन की घटनाओं का अनुसरण कर स्वयं के कर्मो को सरहना कर रहे होते हैं/ नायक क्योंकि सभी के द्वारा पूजा जाता है, तो एक तरीके से हम अपने उन अनुसरण किया गए कर्म की समाज के हर व्यक्ति से स्वीकृति कर रहे होते हैं /
            आत्म-पूजन मनोविकार के व्यक्ति हर एक विचार को स्वयं के केंद्र से ही देखतें है , की किसी सर्वमान्य बौद्धिक विचार से उनको कैसे लाभ पहुँच सकता है, या उनकी इस अहम् की छवि को कोई लाभ कैसे मिलेगा / वह ऐसा जान बूझ कर नहीं कर रहे होते है, बल्कि उनका मस्तिष्क इसी तरह से कार्य करने के लिए स्वयं को प्रशिक्षित कर चुका होता है / आत्म-पूजन भी एक तरह का बुद्धि-योग है , जो मष्तिष्क को कुछ ख़ास तरह से कार्य करने का प्रशिक्षण दे देता है / आत्म-पूजन मनोविकार से ग्रस्त व्यक्ति अक्सर बचपान से ही ऐसा पोषण किया गया होता है की मानो उसको हमेशा से सिर्फ अच्छे , सही कर्म करने के लिए प्रशिक्षित किया गया हो / अब वह स्वयं को हमेशा सही, उचित, भगवान्-मयी , भगवान् का अनुसरण करने वाले के रूप में ही छवि रख कर देखता है / एक अन्य अर्थ में , --वह कभी गलत हो ही नहीं सकता !
         नतीजे में यह व्यक्ति अपनी समालोचनात्मक चिंतन को जागृत नहीं कर पाता है /
        धीरे-धीरे वह कुटिल-बुद्धि (जुगाड़ मानसिकता )योग में चला जाता है जब वह हास्य रूप, या किसी भी प्रकार से , कुछ भी कर के विचारों को स्वयं के पूर्ति में परिवर्तित कर के समझाना आरम्भ कर देता है / तो शायद ऐसे शुरू होती है यह आत्म -पूजन मनोविकार से कुटिल-बुद्धि चिंतन (crooked thinking) की कड़ी /

सम्मान क्या है , और किसी राजनेता का सम्मान क्यों होना चाहिए

            बहोत दिनों से विचार कर रहा था की किसी राजनेता का सम्मान क्यों होना चाहिए ?
   पहले तो, की यह भी एक बहुत जटिल सूझ का विचार है कि सम्मान है क्या और किसी का सम्मान करने में क्या घुमावदार उलझी बातें है ।
   सम्मान को ज्यादातर कुछ शब्दों और कुछ ख़ास संस्कारो के द्वारा दर्शाते है, जैसे बात-चीत में 'आप' का प्रयोग और चरण स्पर्श इत्यादि से । एक उलझी हुई बात यह है की ऐसा नहीं की सभी भाषाओँ में "आप" या उसके सम-तुल्य शब्द है किसी के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए । उधारण में अंग्रेज़ी को लीजिये , जिसमे सिर्फ "यू" शब्द ही है, हर एक के लिए, चाहे बड़ा, चाहे छोटा। और सम्मान के लिए खोई ख़ास अलग शब्द नहीं है, या यूँ कहे की सभी के लिए एक समान का सम्मान है।  कुछ ऐसे ही हाल इधर भारत में भी कुछ भाष्यों में मिलता है, जैसे मुंबई की मुंबईया-हिंदी में,या हरयाणवी-हिंदी में । इसके विपरीत हिंदी (और उर्दू) में अगर "आप" सम्मान के लिए है, तो फिर "तू" या 'तुम" किस मनोभाव के लिए यह आप खुद ही सोचने के लिए आज़ाद हैं ।
            यानी अगर किसी वार्तालाप में सम्मान का व्यक्तव्य नहीं है तो फिर बातचीत मुश्किल हो जाती है । क्यों कि सम्मान तो किसी को खुद स्वेच्छा से देना चाहिए। मगर अगर किसी संस्कृति में सम्मान को पहचाना ही नहीं जाता और देने की बात ही नहीं है तब "सम्मान"-संवेदशील संस्कृति के व्यक्ति के मन को चोट पहुँच सकती है। अब अगर यह व्यक्ति सम्मान को वसूल्वाने लगे तो बात बहोत भ्रमकारी होने लगती है-- कि यह व्यक्ति संस्कृति-वाद से प्रभावित है; या फिर कि अहम्-वादी है जो कि सिर्फ अपने लिए कुछ-ख़ास कि मांग करता है ;  या फिर कि और भी अधिक गंभीर हालत में आत्म-पूजन मनोविकृत है , जो लोगों से अपनी पूजा-अर्चना कि चाहत रखता है ?
       ठीक उलटे, "सम्मान" न देने वाले पर भी बात आती है कि क्या वह ऐसी सभ्यता है जहाँ सम्मान का व्यक्तव्य नहीं? 
मगर यह स्मरण रहे कि फिर ऐसी सभ्यताओं में सभी को एक दृष्टि से "सम्मान" दिया जाता है , और कुछ अन्य कर्मो द्वारा उससे दर्शाया जाता है। जैसे कि अंग्रेजी सभ्यता में आफिस में बड़े-छोटे का अंतर नहीं होता और आफिस के 'बॉस' को भी उसके नाम से ही पुकारा जाता है। वहां कि न्याय व्यवस्था में भी इस बात के अंश है कि कनिष्ट को जयेष्ट से डरे बिना अपना पक्ष रखे में कोई सामाजिक रोक टोक नहीं , और अक्सर जयेष्ट को उनके गलत मांगो और निर्णयों के लिए सज़ा भी हो जाती है , वह भी कनिष्ट कि शिकायत पर।
      इधर, कुछ अन्य सभायतों में "सम्मान" के न तो शब्द है , न ही कर्म और न्यायिक समझ। यानी यह "कम" विकसित सभ्यताओं से ताल -मेल रख कर काम करवाना मुश्किल होता है।
   ( सामाजिक-न्याय कि समझ किसी भी समाज के निर्माण और विकास कि सूचक है। जहाँ न्याय नहीं, या कमज़ोर है वह सभ्यता कम विकसित समझी जा सकती है / ) 
        तो अब "सम्मान" कि लड़ाई में आप 'सांड' के सामने खड़े होते है /
      अगर सम्मान न देने वाला ऐसी सभ्यता से नहीं है जहाँ सम्मान का व्यक्तव्य है , मगर वह फिर भी नहीं दे रहा है, तब बात यह आती है कि सम्मान कि मांग करने वाले को शायद यह सम्मान के लायक ही नहीं समझते। ऐसे में नापा-तुला सही रास्ता है होगा कि-- या तो उसकी शिकायतों को सुन कर उसे दूर करें, या फिर चुप-चाप काम पूरा कर के वहां से चलते बनें।

    भारत की अधिकतर भाषाओं में सम्मान का व्यक्तव्य अलग शब्द के माध्यम से होता है।। इसलिए भारतीयों के लिए आवश्यक होगा कि वह सम्मान दें, अथवा न देने का निर्णय विषय व्यक्ति को सोच कार दें। यह विचार राजनेताओं के सम्मान के विषय में भी लागू होगा। अन्यथा सम्मान न देने पर इस व्यवहार का एक प्रतिकूल निष्कर्ष हमारे विरुद्ध होगा कि हम लोगो अपने राजनेताओं का सम्मान नहीं करते है।
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       अब बात आती है कि राजनेता का सम्मान किस लिए होना चाहिए ? 

        जब अरविन्द केजरीवाल अपने म़तदान उम्मीदवार से यह अपेक्षा रखतें है कि वह उम्मीदवार चुनाव जीतने के उपरान्त लाल-बत्ती वाहन का प्रयोग नहीं करें , या बड़े बंगले कि मांग नहीं करेंगे , तब मेरे मन में प्रश्न आता है कि भाई किसी मंत्री को क्या वाकई लाल-बत्ती नहीं मिलनी चाहिए ?
      जैसे-जैसे हम टी-वी पर हो रही बहसों को सुन रहें हैं, हम किसी एक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था कि सच्चाइयों से सम्मुख हो रहे है , कुछ समाजशास्त्र , राजनीतिशास्त्र, प्रशासनीय और न्यायायिक 'सत्य' उभर कर सामने आने लगे है । यह 'सत्य' वही विचार है जो पहले भी सभ्यता में थे, मगर अपने सही तर्क के प्रत्यक्ष हुए बिना थे-- किसी सांस्कृतिक कर्मकांड के भाँती  कि राजनेता का सम्मान एक सांस्कृतिक कर्मकांड है।
    आज हम इस 'सत्य' ,कि " सभी राजनेता वाकई में सम्मान के काबील ओहदा है", को उचित तर्कों में तब ही समझ  पायेंगे जब स्वयं से अनुभव करेंगे किसी राजनेता के द्वारा सामाजिक, प्रशासनीय और न्यायायिक कारणों को समझते हुए उसको अपनी एकान्तता(Right  Privacy) का स्वेच्छा से परित्याग करते देखें । 
     कल्पना करिए, यदि कोई राजनेता यूँही अचानक एक दिन अपनी जमा पूँजी, आर्थिक स्थिति को छिपाने के लिए व्यक्तिगत एकान्तता के मौलिक अधिकार कि मांग न रखे , या कि उसके जीवन में चल रहे प्रेम-प्रसंग हमे अचानक सकते में ना डाल दें- कि, कहीं कुछ और भी तो नहीं जो हमसे छिपा हुआ है,जैसे निति-निर्माण अधिकार और व्यावासिक समीकरण से उपजा भ्रस्टाचारी काला-धन ,इत्यादि। 
   यह वह परित्याग होगा जो जन विश्वसनीयता के लिए परम आवश्यक है। मगर साथ ही ऐसे परित्यागी के विषय कोई साधारण त्यागी नहीं होगा। सभी नागरिक व्यक्तिगात्ता और एकान्तता की चाहत रखते है और इसलिए इस प्रकार का परित्याग नहीं करना चाहेंगे। इसलिए यदि कोई व्यक्ति अगर जन हित में ऐसा करता है तब वह सही मायने में सम्मान के काबिल होगा।

   राजनेताओं को जनता से सम्मान पाने के लिए क्या क्या करना होगा? 
      राजनेता को आत्म-उदघोषण(self disclosures) के अलावा सामाजिक न्याय (social justice) कि सही उचित समझ का भी प्रदर्शन करना होगा। वह संस्कृति कि आड़ में गलत मन-गड़ंत निर्णय नहीं कर सकते, मनो संकृति कोई कु-तर्क या तर्क-विहीन वस्तु होती है । प्रत्यक्ष को प्रमाण कि आवश्यकता नहीं होती। इसलिए जीवन के कार्यों और विचारों को प्रत्यक्ष रख कर अन्धकार-मयी राजनीति से बचाने वाले सच्चे राजनेता को सम्मान तो देना ही चाहिए। और ऐसे व्यक्ति कि खुद कि तनख्वा भी अधिक से अधिक होनी चाहिए। जो समाज में सभी लोगों कि एकान्तता(privacy) के लिए खुद कि एकान्तता का त्याग करे उसका खुद का जीवन कष्ट पूर्ण न हो उसका ख्याल समाज को रखना ही पड़ेगा। अगर अब भी हम सम्मान न दे तो फिर तो शायद हम "कम" विक्सित सभ्यता बन जायेंगे।

            आधुनिक राजनेताओं कि चपलता तो देखिये। व्यतिगत "जेड प्लस " सुरक्षा के नाम पर यह राजनेता और अधिक से अधिक अन्धकार में छिपाने लगे है , और अब सम्मान को भी मौलिक या मानव-अधिकार कह कर मांगने (या यु कहें वसूल-वाने ) लगे हैं। यह गुंडागर्दी का व्यवहार है , सभ्यता को अन्धकार में धकेलना के कदम।
        राजनेता को व्यवसाय या फिर पेशे दोनों का ही त्याग करना पड़ता है। वह 'लाभ के पद' पर नहीं रह सकता। मगर आधुनिक राज नेता कोई "ट्रस्ट " बना कर उस पर विराजमान हो जाते हैं। विधान में सभी पदों के तीन वर्गों में रख कर चिन्हित किया जाता है -- लाभ का पद, सम्मान का पद (ऑफिस ऑफ़ हॉनर) और विश्वास का पद। "ट्रस्ट" के अध्यक्ष में वह "लाभ" का पद न ले कर 'सम्मान' और 'विश्वास' का पद ले लेतें हैं। अब वह राजनेता और "ट्रस्ट" के अध्यक्ष दोनों बन जातें हैं। आज कल के राज नेता पहले वकील बन कर कोर्ट में मुकद्दम लड़तें है और फिर राजनेता बन कर अपने मुकम्विल को नीति-निर्माण और विधान-अधिकार से फायदा न पहुचाने का दावा भी देते हैं। राजनेता को व्यवसाय या फिर पेशे दोनों का ही त्याग करना पड़ता है। वह 'लाभ के पद' पर नहीं रह सकता / मगर आधुनिक राज नेता कोई "ट्रस्ट " बना कर उस पर विराजमान हो जाते हैं / विधान में सभी पदों के तीन वर्गों में रख कर चिन्हित किया जाता है -- लाभ का पद, सम्मान का पद (ऑफिस ऑफ़ हॉनर) और विश्वास का पद । आज कल  के राजनेता पूर्व में  पेशे स वकील होते है और अपने मुवक्किल को बचते है। फिर  बाद में नेता बन कर दावा भी देते हैं की निति  निर्माण में कोई पक्षपात  नहीं हुआ है;  --  कहीं कोई "विरोधाभासी अभिरुचि का संकट" नहीं है। एक इंसान एक रूप में उसका वकील बन कर उससे बचाता है , और दुसरे रूप में नीति-निर्माण कर्ता बन कर उसके हितों के विरुद्ध भी सही नीति बनाएगा -- यह दावा करता है। 

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विचारों के पहेली में उलझते हुए यह बात मन में आई की कहीं ऐसा तो नहीं की भारत में जब समान(= परस्पर) दृष्टि से सभी का सम्मान की सभ्यता नहीं है तो क्या यहाँ की न्याय प्रक्रिया भी समान नहीं हो सकती?  यानी बड़े लोगों की अलग न्याय और छोटे लोगों के लिए अलग न्याय । जब हिंदी में 'आप" और 'तुम" अलग-अलग नाप-तौल के सम्मान को दर्शाते हैं तब हमारी समान न्याय व्यवस्था तो वही मात खा चुकी होती है की "आप' वाले के लिए अलग सम्मानिन्य न्याय  और 'तुम' वाले के लिए उसके ओहदे के लायक न्याय / 

समालोचनात्मक चिंतन का आभाव --भारतीय शिक्षा पद्वात्ति की मुख्य गड़बड़

समालोचनात्मक चिंतन (= सम + आलोचना + त्मक , अर्थात, सभी पक्षों या पहलुओं की समान(=बराबर) रूप में आलोचना करते हुए उनको परखना , उनके सत्य होने के प्रमाण दूड़ना) (अंग्रेजी में, क्रिटिकल थिंकिंग, critical Thinking) एक प्रकार का बुद्धि योग है /
       भारतीय शिक्षा पद्वात्ति में जिस पहलू पर गौर नहीं किया गया है, वह क्रिटिकल थिंकिंग है / ऐसा पश्चिम के समाजशास्त्रियों का भारतीय शिक्षा पद्वात्ति के बारे में विचार है / भारतीय शिक्षा में मूलतः स्मरण शक्ति पर ही ध्यान दिया जाता है / वैसे भारतियों को भी इस बारे में एहसास है की उनकी शिक्षा पद्वात्ति में कुछ गड़बड़ ज़रूर है , मगर यही "समालोचनात्मक चिंतन" की कमी से अक्सर हम लोग इस गड़बड़ी की जानकारी को भी अपनी स्मरण शक्ति द्वारा ग्रहण करते है और एक दूसरे को यह बतलाते फिरते है की यह कमी "प्रैक्टिकल नॉलेज " ( प्रयोगात्मक जानकारी ) की कमी की है /
             'प्रैक्टिकल नॉलेज' एक मुख्य गड़बड़ नहीं है , और क्यों और कैसे नहीं है यह भी समझने के लिए कुछ समालोचनात्मक चिंतन होने की आवश्यकता है , जो की आगे इस निबंध में विचार करेंगे / अभी , पहले यह समझने का प्रयास करेंगे की 'समालोचनात्मक चिंतन' होता क्या है, और कैसे और क्यों इसे बाल्यकाल से ही शिक्षा प्रणाली में परिचित करवाना आवश्यक है /
         "क्रिटिकल थिंकिंग, द आर्ट ऑफ़ आर्ग्युमेंट " (अर्थात , "समालोचनात्मक चिंतन, विवेकपूर्ण विचार करने की कला " ) , में इस क्रिया को भी एक प्रकार के शैक्षिक विषय के रूप में अध्ययन करा गया है /
            'प्रैक्टिकल नॉलेज' के आभाव को भारतीय शिक्षा पद्वात्ति का मुख्य दोष मनाने वालों में वह असल दोष बाकी रह जाता है, जो हमारी शिक्षा प्रद्वात्ति का वास्तविक दोष है -- समालोचनात्मक चिंतन का आभाव /
                 इसलिए, क्यों की यह भी एक सोचने वाली बात है की विज्ञानं के कई सारे विषयो में विषय वास्तु प्रकृति में भी कुछ ऐसे व्यव्प्त है की उन के ऊपर प्रयोग के द्वारा उनके व्यवहार का सत्य दिखाना करीब करीब असंभव है / जैसे की विद्युत् की गति जो के करीब तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड "मापी" गए है , या फिर की धरती का भार, या सूरज से धरती की दूरी / यह सब जानकारियों किसी अन्य संसाधन, जो की कल्पना और समालोचनात्मक चिंतन के द्वारा प्राप्त करी गयी है, किसी 'प्रैक्टिकल' के द्वारा दर्शाना या प्रमाणित करना करीब-करीब असंभव हैं /
               समालोचनात्मक चिंतन के मनुष्य अक्सर आगे चल कर नास्तिक हो जाते हैं/ यह स्वाभाविक है, क्यों की समालोचनात्मक चिंतन एक रवैया बन जाता है, जीवन जीने का , यह विषयों को किताबों से बहार निकल कर उन्हें आसपास दिखलाने लगता है / जब ज्ञान का भण्डार बहोत विशाल होने लगा था, तब मनुष्यों में ज्ञान के वितरण क्रिया में उससे "विषय" की संज्ञा दे कुछ वर्गों में उन्हें विभाजित किया था, जिससे की नव युवकों को आसानी से प्रदान कराया जा सके / मगर 'समालोचनात्मक चिंतन' की कमी की वजह से यह नव युवक उनके उन ख़ास विषय की पुस्तकों में ही ढूढने लगे, उन्हें आप में सलग्न करना भूल गए और "प्रैक्टिकल" जीवन से दूर चले गए / ऐसा नहीं है की जीव-विज्ञानं की जानकारी गणित, या भौतिकी , या रसायन-शास्त्र, या फिर की राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में नहीं पड़ती / भारतीय मूल का छात्र यह ही त्रुटी करता है की वह इन विषयों में प्रयोग ख़ास "तकनीकी शब्दकोष" को दूसरे विषय के तकनीकी शब्दकोष से सम्बन्ध नहीं कर पता है / या फिर की एक गलत सम्बन्ध बना देता है, जिसकी गलती वोह पहचाने में गलती करता है, अपने कुछ ख़ास विश्वासों और मान्यताओं के वजह से /
              इस सम्बन्ध में "एनालोजी" ( = किसी सत्य को समझने के लिए उपयोग होने वाले साधारण और मिलते जुलते उद्दहरण, उपमान, या समरुपी ) के प्रयोग से भ्रमित भी हो जाता है , और उनसे कभी कभी प्रेरित हो कर कुछ अलग ही गलत-सलत 'एनालोजी' देने लगता है /

ज़मीर-बिन वकील और निति-निर्माण करने वाले राजनेता

एक बेहद भ्रमकारी और बहस वाले तर्क का प्रयोग करते हुए राजनीति में बैठे शैक्षिक योग्यता और पेशे से वकीलों ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को प्रजातांत्रिक तरीके से मात दे दी है/ अब 'लाभ के पद' पर ही विवेचन करिए / यह सिद्धांत इस लिए बनाया गया होगा की राजनीतज्ञों को शासन से मिली निति-निर्माण की शक्ति का प्रयोग स्वः हित में न हो / अब यानी राजनीतिज्ञों को राजनीति में आने से पूर्व अपने सभी व्यवसायिक संबंधो को कम से कम दस्तावेजों पर तोह विच्छेद कर हे देने चाहिए / मगर राजनीति कर रहे वकीलों की चपलता देखिये / आज ज़्यादातर राजनितज्ञ व्यवसायी है , और यही नहीं, वह उन कमेटियों में भी शामिल है जो उन विषयों पर निति-निर्माण करती है जो विषय उनके व्यवसाय से सीधा सम्बन्ध रखते हैं / और प्रश्न करे जाने पर राजनीतिज्ञ -वकील अपना आम आदमी का मौलिक अधिकार का वास्ता दे कर कहते है की "भई, मैं एक जन-प्रचलित सम्मानित राजनीतिज्ञ हूँ, एक व्यवसायी हूँ, और मेरे व्यवसाय के द्वारा कितने लोगों की नौकरी मिल रही है, कितनी के घर का चूलाह जल रहा है/ इसमें गलत क्या है / मेरा व्यवसाय ही तो मेरे समाज-सेवा का माध्यम है /" 
   इसी प्रकार का तर्क व्यतिगत , एकान्तता के परित्याग को मात देते हुए ऐसे दिया जाता है , कि, "भई , में भी एक इंसान हूँ/ मुझे भी एकान्तता का मौलिक है , जब यह हक़ सभी मनुष्यों को प्राप्त है / " ऐसा लगता है कि एकान्तता कि स्वेछित परित्याग कि आवश्यकता है ही नहीं , जब कि मुख्य न्यायधीशों और चुनाव आयोग को दिया जाने वाले घोषणा पत्र ऐसे किसी शासन व्यवस्था के सत्य से ही उबरा है कि एक स्व-घोषणा तो करनी ही पड़ेगी / 
   जनता को भ्रमित करने में वकील अव्वल दर्जे के पेशेवर लोग होते है / आज वकील लोग अपनी स्वयं कि नैसर्गिक सही-गलत के निर्णय कि शक्ति कि इतना भ्रमित कर चुके है कि अब वह न्याय वस्था में भी तर्क-कुतर्क कर के प्रजातंत्र को बड़े ही प्रजातान्त्रिक तरीके से पराजित कने लगे हैं / और जब यह वकील राजनीतिज्ञ बन कर निति-निर्माण कि कमान भी संभाल ले तो बंटा धार तो समझिये ही / 
    ज़मीर या आत्म की बिना योग्यता और पेशे से बना वकील समाज के लिए बहोत उलझी पहेली के सामान है / यह तर्क-कुतर्क में एक उछ श्रेणी का छलिया है / प्रजातंत्र में सभी के विचारों का सम्मान होना चाहिए / ऐसे में न्याय को यह ज़मीर-बिन  वकील एक कटपुतली की भांति नचाते हैं / न्याय को पहले तो बहुमत की इच्छा दिखाया जाता है / और फिर मूल समझ को पराजित कर के कुतर्क शुरू हो जाता है / न्यायधीश भी तो इसी सामाजिक व्यवस्था का नागरिक है / और प्रतिपक्ष का वकील भी / बाकी क्या रह गया / 
 सरकारी लोकपाल का उद्दहरण लीजिये / इसमें भ्रष्टाचार करने वाले से अधिक सजा खुलासा करने वाले को देने का प्रबंध है , इस तर्क पर की गलत 'खुलासे " से सरकारी-सेवक को कार्य में बाँधा पहुचेगी / मनो, लोकपाल बनाने का उद्देश्य भ्रस्टाचार मिटाना नहीं, भ्रस्टाचार की शिकायत करने वालों की हटाना है / अब चुकी , प्रजातंत्र में सभी वर्गों की शिकायतों को सुना जाता है, एक वर्ग उन सरकारी अफसरों का भी तो होगा ही जो भ्रस्ताचार के 'झूठे आरोपों" से त्रस्त होंगे / है, कि नहीं? 
बल्कि प्रजातंत्र व्यवस्था का एक सत्य यह भी है कि किसी न्याय को मात देने के उतने ही घुमावदार तर्क है , जितने कि न्याय को प्राप्त करने के / उदाहरण में येही लीजिये कि एक वन और पर्यावरण  मंत्रालय भी तो है / यानी अगर लोकपाल व्यवस्था को मात देनी है तो यह भी तर्क रख सकतें है कि कागज़ चुकी पेड़ो से बंता है, इसलिए पर्यावरण कि रक्षा हेतु किसी भी नागरिक को जीवन में सिर्फ एक बार ही भ्रस्टाचार कि शिकायत करने कि छूट दी जाएगी / या फिर, एक जज जीवन में सिर्फ एक ही भ्रस्टाचार के मुकद्दमे कि सुनवाई करेगा /  
  मगर विज्ञान में इस तरह के घटनाक्रमों पर बहोत समझ विक्सित हो चुकी है / ज़मीर -बिन वकीलों को विज्ञानियों में यह भ्रम करवाना आसन नहीं होगा / 
 उपर्युक्त विचारों में मेरे कहना का मतलब यह कतई न था कि राजनीति में "लाभ के पद " में व्यवसायी की भाँती वकीलों के आगमन पर भी प्रतिबन्ध होना चाहिए / :-p

Why are we so lazy ?


Laziness. we often accuse some of out rivals, their entire community of being Lazy. Like I'd like to say, "Indians are the laziest of all people i know of". So, what is laziness? What is the psychology of laziness? What is the evolutionary origin of Laziness?
  Wikipedia speaks of laziness as "Laziness (also called indolence) is a disinclination to activity or exertion despite having the ability to do so. It is often used as a pejorative". Almost all the religions describe as a great sin. In Economics, Laziness is described as the purpose of all our hard work ! if laziness is taking a leisure and break from work, then one of the agenda of every hard working man is to take a great rest from work someday and laze around.

((((((((   quote from the website http://ronnyeo.wordpress.com/2008/08/06/evolutionary-psychology-laziness/   ))))))))))
Our brain induce pleasure in order to motivate us to eat, socialize, copulate,  getting things which are hard-to-get, and etc. And our mind give out negative pleasure when things are not going the right way. We feel lonely and miserable when we do not have companions around, we feel angry when someone insulted us, we feel dejected when the person we like rejected our love and etc.
       Another funny thing about human pleasure and motivation is – there’s a hierarchy. Remember the time when you crave something so badly that you think about it day and night? However once you get it, and after a few days, this craving will slowly fade away and then you will start to crave for something else which is more valuable or hard to get?

Evolution utilizes emotions to guide the survival of life.  Again, it is not by any means perfect at all. Perhaps it is ugly too. But the most important thing is – It Works.



I think the root of laziness also lies somewhere in the cultural narcissism we suffer from . If 'lack of motivation' is the most recognised cause of laziness, then the cause for "lack of motivation" lies in the feudalistic hierarchy system we have, not just in the politics but also in our homes and community. We are nurtured in a way where some narcissist leadership, a head , a person in-charge, is ordering us to do some work against our natural will to do that work or not to do that work. We slowly develop a stone-minded will, we jettison off our freedom of choice and thoughts. Motivation becomes an academic schoolbook pressure to respond to. Emotional Intelligence towards Motivation is decayed such that we neither know how to motivate nor we like to draw inspirations or be motivated from something emotionally enriching.
then begins the world of laziness. we drag our feet through whatever "orders" have been "motivated" to us to execute. the feel and personal reasoning for the task is elusive. it is the avoidance of a confrontation with the "motivator" which propels us to 'do off' the work. 
the one who has himself never felt inspired from someone or something cannot be a good motivator. Our upbringing arranges us to forget off being inspired when you can hardly chase your dream. As a result, we are neither a good motivator nor a good inspired ones. This is a situation we mistake for our communal laziness.


Fallacies...the "maya"

Once a Fallacy situation is created, in the current scenario between the anti-graft campaigners and the "anti-destabilize protectors", the method to resolving out the fallacy would circle around the other *un essential information* about each other. The unesential informations become the most significant vital details: who wear what clothes, who dress like what, who said what and when, and so on.

 Human life an unending trap of "maya", the "bhram" and the unlearned , unclear minds can never come out of it. Knowledge is not just information compilation, but sometimes the cause of our bondage if we do not know how to manage and collate the information. That again brings me to topic of difference between Intellectualism and Intelligence. The search of justice, the Dharma, is an never ending task for human beings, and Intelligence, the act of information gathering, is merely and essentially the first step, but not the last and only step. To make sense from the information, for a general wider public good is more a daunting task.

भारतीय प्रजातंत्र ...क्या यह उदारवादी तानाशाही का भ्रमकारी स्वरुप है ?

उदारवादी तानाशाही (benevolent dictatorship ) राजनीति शास्त्र में चिन्हित एक किस्म की शासन व्यवस्था है / इसकी एक खासित्यत यह है की यह प्रजातंत्र से मिलती-जुलती होने की वजह से प्रजातंत्र से भ्रमित हो सकती है / एक और शाशन प्रणाली , प्रबुद्ध निरंकुश राजशाही (enlightened absolutism ) , की भी यह खासियत है की वह प्रजातंत्र से भ्रमित करी जा सकती है /
            तानाशाही में ज्यादातर तो तानाशाह एक बहोत की क्रूर , निर्दयी , सिर्फ अपनी मर्ज़ी से चलने वाला शासक होता है / मगर उदारवादी तानाशाही में शासक जनता पर जुल्म ढाने में व्यसनित नहीं होता बल्कि उनको उनके गरीब हाल पर जीवन-यापन के लिए छोड़ देता है / यदा कदा उनकी ज़िन्दगी में कुछ ख़ुशी के अवसर भी प्रदान करवाता है, और कुछ एक व्यवस्था से उनको जीवन में आगे बड़ने की उम्मीद भी दिलवाता है / इससे जनता में ना-उमीदगी नहीं फैलती और वह कभी भी शासक के विरुद्ध विद्रोह के लिए एकमत हो कर खड़े नहीं होते / शासक की तानाशाही अपनी रहा यूँ ही चलती रहती है, और जनता अलग अपनी राह पर , अपना जीवन सुधारने के संघर्ष में आजीवन व्यस्त रहती है / प्रजातंत्र से उदारवादी तानाशाही में अंतर यह है की प्रजातंत्र में जनता चुकी टैक्स देती है, वह सरकार से हिसाब मांग सकती है, और सरकार को समाज के सभी व्यक्तियों को एक न्यूनतम गरीबी रेखा से ऊपर रखने का कर्त्तव्य होता है/ यानी भोजन, पानी, मकान और जीवन की भौतिक सुविधाए हर एक को मिलनी ही चाहिए/ भिकारी, अनाथ, विकृत, अपाहिज , इत्यादि वर्ग भी एकदम तयशुदा रूप में बुनियादी ज़रूरतों से महरूम नहीं हो सकते / यह 'इकनोमिक लिबरेशन' की व्यवस्था है, जिसने हर व्यक्ति बिना किसी भय के कोई भी विचार रख सके और व्यक्त भी कर सके / प्रजातंत्र में दरिद्र कोई नहीं होता, क्योंकि एक न्यूनतम आर्थिक स्थिति पर शासन हर व्यक्ति की बुनियादी सुविधा प्रदम करवाएगा ही / हाँ कोई अधिक धनवान हो सकते है, कोई कम धनवान / यही कारण है की कए सारे प्रजातंत्र देशो को एक विपरीत, फिरकी करती हुई बुद्धि में पूंजीवादी देश भी समझा जाता है /
            इसके विपरीत उदारवादी तानाशाही में उम्मीद की रौशनी तो गरीब , विकलांग, भिकारी , सभी को दी जाती है , मगर यह सुनिश्चित नहीं होता है की हर एक को जीवन की बुनियादी सुविधाएं भी मिलेगी की नहीं / कुछ एक माध्यम से, जैसे लाटरी, या किसी क्विज के माध्यम से अचानक , रातों-रात धन कमाने का अवसर हर एक को मिलता है / आगे आपकी किस्मत / यानी , जनता में एक भय हर पल बना रहता है की कब किस्मत बिफर गयी और फिर से दरिद्रगी में आ जाये, जहाँ वह भी वैसे ही जीवन जिये जैसे राह में , या स्टेशन पर दिखने वाले भिकारी / यह भय उन्हें हमेशा अपने तानाशाह के सम्मान में नतमस्तक करके रखता है की सिर्फ उस "दयालु" शासक की वजह से ही उन्हें जीवन में यह मौका मिला की वह किसी भिकारी की तरह बदतर जीवन नहीं जी रहे हैं / ऐसे में हर प्रकार के विचार रखने में मानसिक तौर पर पूर्ण स्वतंत्र नहीं होते, ख़ास तौर पर वह विचार जो उनके "मालिक " या "राजा" को कोई असुविधा दें /
            कभी-कभी तानाशाह कोई एक ख़ास व्यक्ति ना हो कर किसी चुनावी व्यवस्था से आने वाले एक या दो ख़ास गुट के लोग हो जाते हैं / तब उदारवादी तानाशाही , उदारवादी कुलीनशाही बन जाती है, और प्रजातंत्र से और अधिक भ्रमित करने वाली व्यवस्था बन जाती है, क्योंकि मतदान की व्यवस्था में जनता को लगता है की सरकार को आखिर वह ही चुन रहे हैं /

Digvijay's idea of democracy

What's wrong with Digvijay Singh? A significant count of questions he poses to Kejriwal aim to ask the regulatory breeches kejriwal did during his service tenure in the IRS. but isn't this same as asking a child playing truant from his school ,"hey did you take permission of your school principal before you bunked classes ". Digvijay is seriously confused about the objectives he wants to set forth. in an alternative case, being from a princely set up, he confuses a Benevolent Dictatorship with the idea of Democracy. He would not disagree that the route to civilian protest in a democracy would entail those acts which Kejriwal did, but he wants to take objections to violation of some internal rules.
 In another set of his questions, digvijay wants to give to his reader a suggestion of the accusation that a foreign hand (an NGO from USA) is involved with IAC, instead of directly accusing the foreign hand. It is like an spoil sport joke, 'hey I know what you upto. Speak truely what have been upto? " These jokes make an honest look suspicious. Obviously his party would not like to antagonize that foreign hand.

 Digvijay's understanding of democratic governance is concerning. At one point, even Laloo spoke that he "I have been an administrator (should be read as "Ruler"). I know what it takes to govern (read, "rule") the people. Kejriwal must not teach us what it take to govern (read, "rule") the people when he has never done that. " There are confused, rural ideas of public governance in our politicians.

प्रमाण के नियम

इस उदाहरण को पढ़िए और नीचे दिए गए प्रश्नों का उत्तर दीजिये :
राम  ने  श्याम को बताया की उससे हरी ने बोला था कि कमल कहता है कि राजेश को लगता है कि एक भूत कमल के घर में घुस गया है /

 १) ऊपर लिखे वाक्य में कौन-कौन से चरित्र को भूत में विश्वास है ?
 २) कौन से चरित्र किसी अन्य चरित्र पर कोई आरोप लगा रहा है ?
 ३ ) वह आरोप क्या है ?
 ४) वाक्य में मुख्य श्रोता कौन है जिसे 'प्रमाण के नियमो' का प्रयोग कर के यह निर्णय लेना होगा कि कौन आरोप लगा रहा है, कौन आरोपी है, और आरोप क्या लगा है ?
५) कमल जो कह रहा है, वह उसका तथ्य है या विश्वास ?
६ ) शंका किसे है और क्या है ?

 समीक्षा :
१ ) राम एक प्रथम, अथवा सीधे, सम्बन्ध का वक्ता है, जो कि श्याम के लिए प्रमाण है कि श्याम को जो भी जानकारी है, वह राम के द्वारा दी गयी है/
२) श्याम कि नज़रों से राम जो भी कुछ कहता है हरी के बारे में, वह श्याम को आरोप के रूप में ही लेना चाहिए क्योंकि श्याम नें खुद कहीं भी हरी से सीधे सीधे पूछताछ नहीं करी है /
 ३) श्याम कि नज़रो से राम कि कहीं गयी हर एक बात आरोप है , कि हरी ने क्या बोला, किस के बारे में, कमल का कथन, राजेश को जो कुछ भी लगता है , --सब ही कुछ/ श्याम को हरी और कमल से पूछताछ करनी चाहिए , और राजेश से बातचीत कर करे पता लगाना चाहिए कि क्या राजेश को वाकई में भूतों में विश्वास है / अगर हरी ने स्वीकार कर लिया कि कमल ने उसे राजेश के बारे में कुछ बोला था, तब श्याम को राम कि बातों में विश्वास नहीं भंग करना चाहिए/ अन्यथा राम कि कही अन्य बातों में भी विश्वास तोड़ देना चाहिए /
४) राजेश भूत को माने या ना माने, कमल का तथ्य यह रहेगा कि कमल कि समझ में राजेश को भूत में विश्वास है /
 ५) कमल खुद भूत को मानता है कि नहीं यह इस जानकारी पर निर्भर करेगा कि राजेश ने स्वयं कमल को अपने घर में भूत होने कि बात कही है , या कमल से स्वयं से यह निष्कर्ष निकला है /
 ६) कमल खुद भूत को मानता है या नहीं , यह निर्णय इस पर भी निर्भर करेगा कि यदि कमल ने यह निष्कर्ष में निकला है तब भी यह सुनिचित करना होगा कि कमल के निष्कर्ष किसी 'भूत में आस्तिक' सबूतें के आधार पर है, या कमल के 'भूत में आस्तिक' लोगो के व्यवहार कि जानकारी के आधार पर / इस काम में श्याम को कमल से एक बार खुद भी एक सीधे प्रश् में यह घोषणा करवा लेनी होगी कि वह स्वयं भूत को मानता है या नहीं /
 ७) इस काम में श्याम खुद भूतों को मानता है या नहीं, यह हमेशा कमल को घोषणा पर एक प्रभाव डालता रहेगा कि श्याम कमल को न्याय पूर्वक समझ पाया कि नहीं , क्योंकि यदि कमल भूत नहीं मानता होगा और श्याम मानता होगा तो श्याम कि नज़रों में कमल पहले ही एक गलत व्यक्ति बन चूका होगा /

'प्रमाण के नियम' का सामान्य ज्ञान

जीवन में 'प्रमाण के नियम' (laws  of evidencing ) को समझना बहोत जरूरी होता है / आये दिन के निर्णयों में तथ्यों और आकड़ो की संतुलित समीक्षा के लिए यह जानना जरूरी है की क्या तथ्य है, क्या विश्वास  है, क्या आरोप है, क्या विश्वास करने का तथ्य है , इत्यादि/  विश्वास और 'विश्वास करता है का तथ्य ' दो अलग अलग बातें हैं/ प्रमाण की नियमो के बिना इंसान शंका,  अनिश्चितता , भ्रम, अनंतता के विचारों में उलझ जाता है / वैसे तथ्यों की तथ्यों से भ्रमित करने की गणित भी इंसान ने आज़ाद कर ली है , जिसे हम सांख्यकी (स्टेटिस्टिक्स , statistics )  कह कर बुलाते हैं / तो भ्रमित करने के संसाधन बढ़ते जा रहे हैं, और दुविधा सुलझाने का ज्ञान दुर्लभ हो रहा है / प्रमाण के नियम को सर्वप्रथम तीसरी शताब्दी एं एक भारतीय ऋषि , अक्षपाद गौतम , द्वारा रचा गया था/ पश्चिम में भी करीब करीब इसी स्तर के प्रमाण के नियम का विकास हुआ / यह नियम प्राकृतिक समझ के आधार पर बनाये गयें है , और इनमे आपके भक्ति मान विश्वासों और आस्था को स्थान नहीं दिया गया है/ यानि आप किसी भी संप्रदाय से हो , यदि प्रकृति की कार्यवावस्था की समझ रखते हो तो अंततः आप खुद भी प्रमाण की जिस नियमो को स्वीकार करेंगे वह यही हैं ।
समालोचनात्मक विचारसिद्धि (Critical Thinking)  में प्रमाण की नियमो को जानना या स्वयं से ही विक्सित कर लेना आवश्यक है / भारत में माता-पिता अपनी संतानों के द्वारा अपनी अधूरी चाहते पूरा करने के लिए बदनाम रहे है / शादी कहाँ करनी है, कहाँ किस स्कूल में शिक्षा लेनी है, क्या-क्या विषय पढ़ने है , कब कितने बजे से पढाई करनी है , कपडे कैसे और कौन कौन से पहने है , इत्यादि  / असल में इन सब निर्णयों में वह बच्चों को स्वयं से निर्णय लेने की समझ का विकास करवाना भूल जातें है / गलत-सही, निर्णय लेने की समझ का विकास ऐसी ही अनुभव द्वारा स्वयं विक्सित करना होता है / इन सब निर्णयों में कही न कहीं कभी हर एक को प्रमाण के नियम की समझ की ज़रुरत आन पड़ती है / 

राजनीति की भ्रमकारी भाषा

हमारे यहाँ शान्ति की भाषा में भी एक किस्म का भ्रस्टाचार छिपा हुआ है / जब भी किसी विवाद के निष्कर्ष में यह कहा जाता है की "हमे सब को साथ ले कर चलना है , सभी धर्मो, सभी समुदायों, सभी क्षेत्रों को ", हम अपनी संस्कृति में धर्मं और इमानदारी से भी समझौता करना प्रवाहित करवा रहे होते हैं / राष्ट्रीय एकता, शांति, क़ानून-व्यवस्था की आड़ में विपक्ष अगर सत्तारुड पार्टी के  गलत कर्मो को उजागर करना छोड़ देगी तो प्रजातंत्र कैसा चलेगा? कैसे सत्य की तलाश होगी और एक सच्ची एक-मतत्ता से आने वाली शान्ति व्यवस्था प्राप्त होगी / 
पिचले दशकों में पेशे या शिक्षा से वकील राजनीतज्ञों ने देश में अपनी "न्याय" की समझ से इंसान की "निर्णय" की समझ को बहुत अघात किया है / सभी मनुष्यों में बाल्यकाल से ही एक सही , उचित मनोभाव में पालन होने पर एक आत्मा का निवास स्वयं ही होता है / निर्णय के योग्यता उस आत्मा (सेंस ऑफ़ जस्टिस, conscience ) से खुद ही आती है / जिनमे इसका आभाव होता है वह वैज्ञानिक दृष्टि एक "शोशियोपेथ " या फिर "साईंकोपेथ" कहलातें हैं / आगे, अति विक्सित न्याय भी इसी भौतिक न्याय की समझ के धरातल पर क्रमिक विकास करता हुआ आगे बढता है / मगर दर्शन में छिछले, परन्तु विधि ज्ञान में थोड़े "पढ़े लिखे " वकील-राजनीतज्ञों ने कोर्ट की चारदीवारों में न्याय के तरल तदेव क्रमिक-विकासशील स्वाभाव को अलग-अलग दृश्य बिंदु में भेज कर आभास देते हैं की न्याय कितना तरल और असाधारण है / सामान्यतः सभी मुकद्दमे "पब्लिक ट्रायल " होते हैं , मगर ज्यादातर बार मुकद्दमों की बहस और फेसलों की वजह की जानकारी आम जनता में कम ही आती थी / नयी इन्टरनेट प्रेरित व्यवस्था में अब मामले वकीलों की हाथ में नहीं रह गयी है / आज "मीडिया ट्रायल" आम हो गया है / न्याय दृष्टि  में "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" में यह कोई गलत विकास नहीं हुआ है / अब 'न्याय ' और 'निर्णय' में भ्रम उत्पन्न  करना आसान नहीं रह गया है / ख़ास तौर पर तब जब मीडिया ट्रायल इन्टरनेट पर मिली जन-प्रकाशन अथवा जन-प्रसारण की क्षमता से ताल मेल रख कर बने तो  /   तो अब वकीलों और राजनीतिज्ञों को न्याय के साथ छेड़-खानी आसान नहीं रह गयी है / अब जा कर कितनो ही राजनीतिज्ञ भ्रम स्पष्टता की ओर, एक नए प्रकाश में आ रहे है और नष्ट हो रहे हैं / शान्ति के व्यक्तव्य में समझौते के सन्देश छिपाना आसान नहीं होगा /

आत्म-पूजन मनोविकार क्या है ?

http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmedhealth/PMH0001930/

आत्म-पूजन मनोविकार (Narcissistic Personality disorder )  क्या है ?
आत्म-पूजन मनोविकार एक मासिक स्थिति है जब किसी व्यक्ति को अपने बारे में एक भ्रान्ति हो जाती की वह बहोत ही प्रभावशाली व्यक्ति है , या की जब कोई व्यक्ति स्वयं के सौदर्य , शारीरिक क्षमता , इत्यादि पर साधारण लागों की अपेक्षा अधिक व्यसनित होने लगता है / 

आत्म-पूजन मनोविकार के क्या कारक होते हैं ?
इसके कारक अभी अच्छे से ज्ञात नहीं हो सके हैं / मगर ऐसा मन जाता है की एक संवेदनशील व्यक्तिव , बचपन का पालन , आस पास का सामाजिक माहोल इस तरह के विकार को पैदा करने में योगदान देते हैं / 

 आत्म-पूजन मनोविकार के क्या लक्षण होते हैं ?
१) अपने विरुद्ध बोले गए व्यक्तव्य , आलोचना पर क्रोध, शर्मिदगी , या बेइज्ज़ती   से प्रतिक्रिया करना / 
२) अपने मकसद में दूसरे व्यक्ति का प्रयोग करना , किसी अन्य का उसकी जानकारी के बिना लाभ उठाना/ 
३) साधारण से कहीं अधिक स्वयं को महत्वपूर्ण व्यक्ति समझना / 
४) अपनी उपलब्धियों , योग्यताओं, कुशलताओं , प्रतिभायों का उचित माप दंड न रखना और सत्य से कहीं अधिक माप रखना / 
५) अक्सर कर के स्वयं के लिए साधारण विवेक में मान्य से कहीं अधिक "कुछ ख़ास " , " कुछ अलग " व्यवहार की अपेक्षा रखना /
६) स्वयं की पहुँच , ताकत , सौंदर्य , बुद्धिमानी , आदर्श इत्यादि पर अधिक चर्चा करना /
७) अगर कहीं स्वयं को महत्त्व या प्रशंसा न मिल रही हो तो वहां अच्छा न महसूस करना / 
८) दूसरे की भावनाओं को समझाने में अयोग्यता , सक्षमता का अभाव , और दूसरों के लिए दया-भाव की कमी / 
९) जुनूनित हद्दों में स्वहित , स्व-रुचिः रखना /
१०) दूसरों की हानि की कीमत पर भी अपने लाभ, हित को प्राप्त करने का प्रयास रखना / 

लक्षण और पहचान के परिक्षण :
अन्य सभी मनोरोगों की भाँती इस मनोविकार को भी एक मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन परीक्षा , और लक्षणों की गंभीरता के द्वारा ही पहचाना जाता है / 

इसका इलाज़ क्या है ?
वाक्-मनोचिकित्सक के द्वारा बात-चीत में व्यवहार में बदलाव के लिए प्रेरित कर के ही इसका इलाज़ का प्रयास होता है / 

इलाज़ की सफलता रोगी में लक्षण की गंभीरता पर निर्भर करता है /

 आत्म-पूजन मनोविकार से क्या दिक्कतें हो सकती है ?
१) नशा या किसी अन्य किस्म का व्यसन 
२) रिश्ते , पारिवारिक संबंधों में तनाव , कार्य स्थल पर सह्कर्मोयों से विवाद /

नीचे दिए गए वेब लिंक पर किसी मनोवैज्ञानिक ने आत्म पूजन मनोविकार के  लक्षणों पर कुछ अस्पष्ट और विवाद पूर्ण लेख लिखा है / विवादपूर्ण और अस्पस्थ यह है की वह हर एक आदर्शवादी और हर उस व्यक्ति जो की अपने विवेक और आदर्शो में तल्लीन होता है, उसको  "आरोप" लगा रहे है को वह आत्म-पूजन मनोरोगी है , ऐसे की मानो आदर्शवादी और विवेक पूर्ण होना कोई गलत क्रिया है/ पाठक के मन में प्रश्न यह उठेगा ही की  लक्षणों में आदर्श वादी होने और विवेक पूर्ण होना जब माप दंड बन जाते हैं तो विवाद उठ सकता है की कितना विवेक-शील या आदर्शवादी  होने पर उसे मनोरोगी मान लिया जायेगा ?
http://psychcentral.com/blog/archives/2008/08/04/how-to-spot-a-narcissist/


अज्ञातकृत अभिव्यक्ति का अधिकार

http://itlaw.wikia.com/wiki/Anonymous_speech

Right to Anonymous free speech : अज्ञातकृत हो कर अपने विचारों की व्यक्त करना भी प्रजातंत्र में एक प्रकार का संवेधानिक अधिकार है / पुराने समय में जब राजा-महाराजा के काल हुआ करता था , राजा को पसंद ना आने वाले विचार पर व्यक्ति को मृत्यु दंड दे दिया जाता था/ ऐसे में आज को प्रजन्तान्त्रिक युग की नीव डालने में कितने ही लागों ने अज्ञातकृत होने का खतरा लेते हुए भी अपने विचारों को व्यक्त किया, एक आम राय तैयार करवाई और तब कहीं किसी क्रांति में तख्तापलट कर प्रजातंत्र स्थापित किया / इन बातों में यह समझना जरूरी है की आज के स्थापित प्रजातंत्र में सरकारें मतदान के द्वारा चुनी जाती है , मगर प्रजातंत्र खुद किसी मतदान से नहीं स्थापित होते हैं, उसके लिए क्रांति करनी पड़ती है / ऐसी ही समझ के साथ स्थापित प्रजन्तंत्र में अज्ञातकृत हो कर विचारो को व्यक्त करना भी एक अधिकार माना गया है / मगर स्थापित प्रजातंत्र में इसकी कुछ सीमा भी तये करी गयी है / सीमा बस इतनी है की अज्ञातकृत हो कर कहे जा रहे विचार या आरोप पर कार्यवाही के लिए अज्ञातकृत व्यक्ति की पहचान को उजागर करने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं बचा है, और आरोप की स्थापन के लिए बाकी अन्य सभी रास्ते तलाशे जा चुके हों /
               ज़ाहिर बात है की ऐसे में दूसरे के पास भी अधिकार है की वह अज्ञातकृत आरोप पर अपनी प्रतिक्रिया ना करे / यह सही है, हालाँकि इसकी सीमा खुद-ब-खुद 'अभिव्यति की स्वतंत्रता' के एक ख़ास प्रभाव से तय हो जाती है / अगर अज्ञातकृत हो कर दिए गए प्रमाण न्याय में मान्य हैं तो प्रभावित व्यक्ति को उन अज्ञातकृत आरोपों से स्वयं के बचाव में अपने प्रमाण रखने ही पड़ेंगे / वह आरोप को सिद्ध करने के लिए अज्ञात कृत व्यक्ति की पहचान ना होने से न्यायपालिका में बचाव नहीं ले सकता , ना ही अज्ञात कृत की पहचान उजागर करने की मांग कर सकता है , और ना ही चुनौती दे सकता है की, 'अगर अज्ञातकृत में हिम्मत है तो सामने आ कर आरोप लगाये ' /
              न्याय में अभिव्यक्ति को मौलिक अधिकार माना गया है , और मौन को भी अधिकार का दर्जा प्राप्त है / मगर अभिवक्ति और मौन में एक अंतर है , की अभिव्यक्ति को न्यायपालिका किसी भी आदेश से सीमति नहीं कर सकती हैं , मगर मौन को तोड़ने का आदेश देने का अधिकार ज़रूर न्यायपालिका के पास है / इसे कोर्ट का Subpeona अभिव्यक्ति अधिकार कह कर पुकारा जाता है / जब किसी मुकद्दमे में मुकद्दमा आगे बढाने का कोई अन्य तरीका ना बचा हो सिवाए की किसी शम्मलित व्यक्ति जिसने मौन रहने के अधिकार का प्रयोग लिया हो और उसकी चुप्पी के टूटे बिना आगे की छानबीन संभव ना हो , तब कोर्ट Subpeona उस व्यक्ति को सभी सम्बंधित जानकारी व्यक्त करने पर विवश कर सकती है /

भारतीय संकृति में आत्म-पूजन मनोविकार का प्रवाह

(inspired from this blog : http://www.inebriateddiscourse.com/2009/06/cosmic-narcissism-new-psychological.html#comment-form_3158647758726353159)

एक ख़ास मनोवैज्ञानिक समस्या जो भारत नाम की त्रासदी के कई कमियों को समझने में बहुत उपयोगी है वह है आत्म-पूजन मनोविकार / साधारण भारतीय भाषा में इसे " अहंकार ", "घमंड", इत्यादि कह कर पुकारा जाता है / मगर इसके ख़ास लक्षणों को समझा नहीं गया है / मनोवैज्ञानिक दिक्कतों की भारत में ज्यादी स्वीकृति और मान्यता नहीं है / मनोविज्ञान से सम्बंधित पुस्तकें और मेग्जीनें ज्यादा प्रकाशित  नहीं होती है / हालाँकि 'अमेरिकेन सायेकोलोजिस्ट असोसीएशान (APA )' की तर्ज़ पर भारत में भी 'भारतीय सायेकीएटट्रिस्ट सोसाईटी' नाम की संस्था है / भारत में आत्म-पूजन मनोविकार की चर्चा प्राचीन कल में भी मिलती है / रामायण में रावण को अहंकार से ग्रस्त एक बहोत ही उच्च कोटि का विद्वान् ब्रह्मिन के रूप में पहचाना जाता है / भारतीय जात प्रथा में जहाँ ब्रह्मण को सर्वोच्च सामाजिक स्थान प्राप्त है , वही दलित और शूद्र नामे के वर्ग को मानव स्थान से भी नीचे देखा जाता रहा है / इस तरह के चरम वर्गीकरण में भी आम जनता में आत्म-पूजन विकार की योगदान है /
आम भारतीय जनसँख्या में आत्म-पूजन मनोविकार तमाम रूप में देखा है / भारतीय संस्कृति इसे "गर्व " के रूप में पीड़ी दर पीड़ी प्रसारित किया गया है / जैसे की, ' हमे अपने देश पर गर्व करना चाहिए ', 'अपनी संस्कृति पर गर्व करना चाहिए ', "अपने माता-पिता पर गर्व करो", "अपनी संतान पर नाज़ करो ", / एक साधारण आत्म-सम्मान की भावना में आत्म-पूजन के मनोविकार का मिश्रण इसे पीड़ीयों  में आगे यहाँ तक ले आया है / आत्म पूजन में मनुष्य सिर्फ अपनी ही विषय वस्तु को अच्छा और बेहतर मानता है , किसी अन्य की विषय-वस्तु को खराब / आत्म पूजन में मनुष्य अपनी विषय-वस्तु की कमियों और गलत पहलुओ को अनदेखा करता है / वह विषय-वस्तु में सुधार के सम्भावना को नकार देता है / 
आत्म-पूजन विकार हमारी सभ्यता में कई रूप में प्रसारित होता है/ एक अन्य किस्म का जटिल आत्म-पूजन विकार , जिसे ब्रह्मांडीय -आत्म-पूजन विकार के रूप में चिन्हित किया जाता है , में इंसान प्रतक्ष रूप में खुद अपना गुण-गान न कर के किसी इष्ट देव , किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति इत्यादि की पूजा कर रहा होता है मगर अन्दर में भाव अपने खुद की पूजन-विकृति के पोषण का होता है / इस समझ से अगर हम कुछ एतिहासिक इमारते और ऐतिहासिक घटनाओ, रित-रिवाजों  को समझाने का प्रयास करे तो पता चलेगा की आत्म-पूजन विकार भारतीय संस्कृति में कितने गंभीर रूप में विद्यमान है / 
भारत में समूह के नेतृत्व में भी यही विकार से ग्रस्त व्यक्ति के गुण को 'दमदार', 'प्रभावशाली ' नेता मन जाता है / भावुक नेतृत्व को कमज़ोर , या कहें तो "ना-मर्द " नेता समझा गया है / 

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