"विचार-संग्राहक संस्थान "(think-tank bodies ) का प्रजातंत्र में उपयोग

           प्रजातंत्र में निर्णयों को सत्य और धर्म के अलावा जन प्रिय होने की कसौटी पर परखा जाता है / यहाँ पर एक चुनौती यह रहती है की कोई निर्णय धर्मं और सत्यता की कसौटी पर खरा है यह कैसे पता चलेगा ? इस समस्या का समाधान आता है "विचार-संग्राहक संस्थानों "(think-tank bodies ) के उद्दगम से / हर विषय से सम्बंधित कोई विश्वविद्यालय या कोई स्वतंत्र संस्थान ( स्वतंत्र= अपनी आर्थिक स्वतंत्रता और पदों की नियुक्ति का नियम स्वयं से लागू करने वाला ) जनता में व्याप्त तमाम विचारों को संगृहीत करता हैं , उन पर अन्वेषण करता है , तर्क और न्याय विकसित करता है और समाचार पत्रों , टीवी डिबेट्स इत्यादि के माध्यम से उनको परखता और प्रचारित करता है /
       तब इस तरह के संस्थानों दिए गए कुछ विकल्पों में "पूर्ण सहमती" (=consensus )वाले विचार को निर्णय में स्वीकार कर लिया जाता हैं / अन्यथा मत-दान द्वारा इन्ही विकल्पों से सर्वाधिक जनप्रिय वाले विचार को "आम सहमती " (= majority ) के निर्णय के साथ स्वीकार कर लिया जाता है / एक आदर्श व्यवस्था में अल्प-मती गुट (=minority ) को भी निर्णयों से हानि न होने देने का ख्याल रखा जाता हैं , या फिर की अल्प-मती गुट को कम से कम कष्ट हो /
        महत्वपूर्ण बिंदु यह है की जनता जिन विकल्पों पर अपना मत देती हैं , वह विकल्प पहले से ही शोध द्वारा प्राप्त , न्याय पर परखे विकल्प होते हैं /
       भारतवर्ष की त्रासदी यह है की यहाँ जनता की स्वतंत्र विचार पनपे से पहले ही कोई न कोई राजनैतिक पार्टी अपनी मन-मर्ज़ी को "जनता की उम्मीद " का चोंगा पहना कर प्रचारित करने लगाती हैं / जिन नागरिकों को अभी मुद्दे का पता भी नहीं होता , वह इन "जनता की उम्मीद " वाले विचारों को न्याय-संगत और जन-भावन विचार समझ कर मुद्दे पर अपना पहला ज्ञान प्राप्त करते हैं / टीवी और समाचार मीडिया अक्सर सभी प्रकार की खबरों को "निष्पक्ष " दिखा कर जनता को किसी नतीजे पर ना पहुचने का योगदान देते हैं , जिस से की जो ज्यादा प्रचारित विचार हैं , यानी उस मीडिया कम्पनी का "जनता की उम्मीद " वाला विचार , उस मीडिया के दर्शक उसे ही स्वीकार कर लें /
     ध्यान देने की बात है की कोई भी टीवी चेनल किसी "विचार संग्राहक संस्था " के विचारों को प्रसारित नहीं करता है , ना ही अपनी स्वयं की कोई डाक्यूमेंट्री देता है , बल्कि अपना "डिस क्लैमेर " ("disclaimer" ) लगा कर अपना हाथ ज़रूर साफ़ कर लेता है की "चेनल पर जो भी दिखाया जाता है उससे मीडिया कंपनी के विचारों से कोई सरोकार नहीं है "/ अरे भई, तब दैनिक कार्यों में व्यस्त नागरिक कब तक और कितनी बारीकी से हर खबर पर नज़र रखेगा की वह स्वयं से एक धर्म-संगत, पूर्ण-न्याय वाला विचार स्वयं विकसित कर ले ? तो मीडिया द्वारा उपलब्ध समाचार आपको जागरूक कम बनाते हैं , भ्रमित ज्यादा करते हैं की आप अंततः उनके बेचे गए विचारों को ही खरीद कर स्वीकार कर लें /
     विचार-संग्राहक संस्थान और उनमे सदस्य सम्मानित नामों का ऐसा उपयोग होना चाहिए / मगर भारत में राजनेता के विचारों में हाँ-में-हाँ करने वाली ज़मीदारी व्यवस्था अभी भी चलती है / राज नेता ही सबसे बड़ा विचारक होता है जो सभी विषयों पर विशेषज्ञ ज्ञान के साथ विचार क्या , सीधे निर्णय ही देता है / अकसर वह राज नेताओं या किसी सेलेब्रिटी ने क्या कहा ऐसे दिखलाती हैं की मानो वही "जनता की उम्मीद " वाला विचार हैं /

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