लुभावना हास्य खतरनाक हो सकता है !

   हास्य को हम सभी लोग क्यों इतना पसंद करते हैं ? फेसबुक पर, टीवी पर, सिनेमा में ..जहाँ देखो वहां , करीब-करीब हर पल हर कोई हंसने और हँसाने की कोशिश कर रहा होता है / और जब यह प्रश्न उठता है की इतनी हंसी इंसान को क्यों चाहिए होती है, तब एक 'शब्द-आडम्बर तर्क' (=Rhetorical) में हम यही उत्तर देते हैं कि, "आज कल के जीवन में तनाव इतना बड गया है कि उस तनाव को कम करने के लिए हास्य की आवश्यकता पड़ती है /"
   हास्य मनुष्य को प्रकृति का अनोखा उपहार है / मानव विज्ञानी (=anthropologist ) हास्य को मनुष्य की बौद्धिकता का सूचक मानते हैं , की जब मनुष्य को मृत्यु की सत्यता की ज्ञान हुआ तब हास्य ही मनुष्य का प्रथम प्रतिक्रिया बनी /
    मगर आज के युग में यह इतना हास्य स्वयं कुछ रोगी सा हो गया है/ जीवन को तनाव मुक्त करने के नाम नाम पर जो कुछ भी उपलब्ध हो रहा है , वह या तो किसी का उपहास करता है , या तर्क हीन हैं / किसी भी सूरत में यह हास्य वह हास्य नहीं है जो ज्ञान , विवेक अथवा बौद्धिकता से उदगल करता है /
     आलम यह है की एक पूरा-पूरा कल कारखाना , एक उद्योग , हास्य के नाम पर मनोरंजन उद्योग बन कर बहोत ही लाभ में व्यवसाय कर रहा है / और यहाँ पर यह पूरी तरह स्वीकृत हो गया है की किसी सिनेमा की प्रशंसा में यह कहा जाए की उसे देखने के लिए अपना मस्तिष्क घर पर ही छोड़ कर आयें ! अग्रसर होते किसी मूरख-तंत्र की इसे बड़ी प्र-सूचक और क्या हो सकता है / मानो मनुष्य और मष्तिष्क को अब किया जा सकता है ! वैसे मौजूदा राजनैतिक हालात तो यह दर्शाते हैं की हज़ारों सालों के विकास में मनुष्य ने जिस मष्तिष्क के भरोसे दुनिया यहाँ तक बदल डाली , अब उस मष्तिष्क को मनुष्य से अलग करवाने का योगाभ्यास आविष्कृत हो चुका है /
    खैर , हास्य की इस मनोरोगी प्रवृति में मनुष्य ने सामाजिक सह-निवास के तर्कों को तोड़ना-मरोड़ना भी विचित्र गति से सीख लिया है / आज के युग में कहा भी जाता हैं की सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति "आप " होता है / जो अभी तक नहीं कहा गया है , और जो शायद इसी लिए गुमशुदा है वह है की सामाजिक न्याय को ठिकाने लगा कर "आप " महतवपूर्ण नहीं रह जाता है / "आप " अपने आप के लाभों के लिए सामाजिक न्याय के तर्कों को मरोड़ने लग गए हैं / अब "आप " एक "प्रोफेशनल " बनने की शिक्षा लेने में तल्लीन हो चले हैं / इसलिए अब वह इतिहास , मानव विज्ञानं , दर्शन-शास्त्र , साहित्य इत्यादि के ज्ञान को व्यर्थ समझने लग गए हैं / तब सामाजिक-न्याय के तर्कों के उत्थान के इतिहास का ज्ञान नष्ट सा होने लगा है /
    तर्कों को मरोड़ने का अभ्यास आधुनिक मानव हास्य आनंद के भाव में करता है / इस अभ्यास के दौरान बाकी सभी लोग भी मरोड़े हुए तर्कों को स्वीकार करने का अभ्यास ले बैठते हैं / धीरे-धीरे यह सहज सामाजिक-न्याय का मरोड़ा हुआ तर्क नया और आम-स्वीकृत तर्क हो जाता है , जब सामाजिक इतिहास का ज्ञान भी समाज में से नष्ट हो जाता है / फूहड़ हास्य एक खतरनाक वस्तु हो सकती है , जिस प्रकार एक अनजान वस्तु बम हो सकती है /
    फूहड़ हास्य पर विवेक-हीन प्रतिक्रिया आप के सामाजिक ज्ञान को नष्ट कर रही हो सकती है /

Comments

Popular posts from this blog

क्या वैज्ञानिक सम्बन्ध होता है खराब राजनीतिक माहौल और विभित्स rape प्रकरणों के बीच में

Why do the poor people like, admire and observe the politics with so much enthusiasm

The man-woman relationship