भारतीय राजनीति और भारतीय संस्कृति में समालोचनात्मक चिंतन का आभाव
भारतीय राजनीति पूरी तरह समालोचनात्मक चिंतन के अभाव पर ही टिकी हुई है/ भारतीय राजनीति ग्रामीणयत से निकली है और आगे नहीं बढ़ी है / लोग अकसर यह विवाद करते हैं की ग्रामो और शहरों में क्या अंतर होता है / और फिर एक साधरण उत्तर में यह जवाब मान लेते है की अंतर है की शहर के लोग पढ़े-लिखे होते हैं और गाँव के नहीं/ और फिर गाँव वाले लोग, या जो गाँव का पक्ष ले रहे होते है वह बताने लग जाते हैं की उनके गांवों से कितने कितने पढ़े-लिखे लोग कहाँ-कहाँ शीर्ष पदों पर विराजमान है /
अंतर एक भीतरी भेद में इसी समालोचनात्मक चिंतन का है / जानकारी का आभाव, जानकारी को क्रमित करने के तरीको के ज्ञान का अभाव, -- ग्रामीणयत कई तरीके से भारत को पिछड़ा देश बनाई हुई है / भाषा ज्ञान के दृष्टि से भी देखें तो पता चलेगा की ग्रामीणयत की दिक्कत आती है वाक्य में 'तथ्य' , 'आरोप', 'विश्वास' और 'संदेह' को चिन्हित करने में /
और फिर वाद-विवाद के दौरान ग्रामीण मानसिकता भ्रमित होने लगाती है / भारतीय राजनीति में भी जब आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है तब भारतीय जनता ऐसे ही भ्रमित होती है / उनका सीधा तर्क होता है की 'भई, हमने वकालत नहीं पड़ीं है की हम प्रमाणों और सबूते को समझने बैठे' / मगर ज्ञान का अभाव वकालत के ज्ञान का नहीं है , अभाव एक बुद्धि योग का है , जिसे समालोचनात्मक चिंतन कहते हैं /
आरोप-प्रत्यारोप के खेल में भारतीयों के मनोभाव में बहोत उलझन महसूस होती है जब उन्हें यह सोचन पड़ता है की अगर कहीं किसी न्यायलय में कोई जज से ही कह दे की , "साहब यह व्यक्ति आप पर जज होने का आरोप लगा रहा है " तब यह आरोप-प्रत्यारोप की प्रकिया का कहीं कोई अंत नहीं होगा / साधारणतः हम लोग आरोप-प्रत्यारोप के खेल को सुलझाने में भ्रमित हो कर उससे एक अनंत क्रिया समझ लेते है , इसलिए वाद-विवाद और आरोप -प्रत्यारोप को सुलझाने की कोशिश भी नहीं करते / 'वाद-विवाद से जितना बचे रहे उतना ही अच्छा है' - ऐसी हमारी सांस्कृतिक समझ है /
आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
हाँ , राजनातिक क्षेत्र में जहाँ जांच संस्था भी राजनैतिक दबाव में काम करती है , वहां प्रमाणों के साथ छेड़-खानी सत्य के स्तापन में थोडा मुश्किल ज़रूर पैदा कर देते हैं / मगर तब भी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता " और उससे उत्पन्न हुए कानूनी दांव-पेंच यह सब ही सत्य को प्रवाहित करने के लिए ही बने है /
कमी सिर्फ समालोचनात्मक चिंतन की है/
अंतर एक भीतरी भेद में इसी समालोचनात्मक चिंतन का है / जानकारी का आभाव, जानकारी को क्रमित करने के तरीको के ज्ञान का अभाव, -- ग्रामीणयत कई तरीके से भारत को पिछड़ा देश बनाई हुई है / भाषा ज्ञान के दृष्टि से भी देखें तो पता चलेगा की ग्रामीणयत की दिक्कत आती है वाक्य में 'तथ्य' , 'आरोप', 'विश्वास' और 'संदेह' को चिन्हित करने में /
और फिर वाद-विवाद के दौरान ग्रामीण मानसिकता भ्रमित होने लगाती है / भारतीय राजनीति में भी जब आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है तब भारतीय जनता ऐसे ही भ्रमित होती है / उनका सीधा तर्क होता है की 'भई, हमने वकालत नहीं पड़ीं है की हम प्रमाणों और सबूते को समझने बैठे' / मगर ज्ञान का अभाव वकालत के ज्ञान का नहीं है , अभाव एक बुद्धि योग का है , जिसे समालोचनात्मक चिंतन कहते हैं /
आरोप-प्रत्यारोप के खेल में भारतीयों के मनोभाव में बहोत उलझन महसूस होती है जब उन्हें यह सोचन पड़ता है की अगर कहीं किसी न्यायलय में कोई जज से ही कह दे की , "साहब यह व्यक्ति आप पर जज होने का आरोप लगा रहा है " तब यह आरोप-प्रत्यारोप की प्रकिया का कहीं कोई अंत नहीं होगा / साधारणतः हम लोग आरोप-प्रत्यारोप के खेल को सुलझाने में भ्रमित हो कर उससे एक अनंत क्रिया समझ लेते है , इसलिए वाद-विवाद और आरोप -प्रत्यारोप को सुलझाने की कोशिश भी नहीं करते / 'वाद-विवाद से जितना बचे रहे उतना ही अच्छा है' - ऐसी हमारी सांस्कृतिक समझ है /
आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
आरोपों के खेल को ख़त्म करना उतना मुश्किल नहीं है जितना की हम समझतें है / इसके लिए बस थोडा सा काल-पुस्तिका में सही-सही लेखा-जोखा और स्पष्टता - पारदर्शिता चाहिए / एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी साधारण तर्कों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारो के खेल को सुलझा सकता है की कौन अपने गुनाहों को छिपाने के लिए प्रत्यारोप लगा कर न्याय को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है / कभी-कभी तो प्रत्यारोपि तथ्यों को ही आरोप बना कर पेश कर देते हैं/ मानो वह कह रहा है की 'यह जो पूर्व दिशा में चमकता हुआ रौशनी का गोला है उस पर स्वयं को सूरज बताने का आरोप है '/
हाँ , राजनातिक क्षेत्र में जहाँ जांच संस्था भी राजनैतिक दबाव में काम करती है , वहां प्रमाणों के साथ छेड़-खानी सत्य के स्तापन में थोडा मुश्किल ज़रूर पैदा कर देते हैं / मगर तब भी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता " और उससे उत्पन्न हुए कानूनी दांव-पेंच यह सब ही सत्य को प्रवाहित करने के लिए ही बने है /
कमी सिर्फ समालोचनात्मक चिंतन की है/
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