आधुनिक राजनीति में रंगे सीयार

रंगा सियार की कहानी बहोत चर्चित कहानी रही है / एक जाने माने लेखक , श्री राजेंद्र यादव जी ने भी "गुलाम" शीर्षक से सीयार की कहानी बतलाई है जो गलती से एक मृत शेर की खाल औढ बैठता है / जंगल के पशु उसे ही अपना राजा शेर खान समझने लगते हैं / रंगा सियार किस डरपोक और कायरो वाली मानसिकता से दिमाग चलता है और शेर और शेर जैसी बहादुरी का ढोंग कर के बडे-बड़े जानवर , जैसे चीता, हाथी और भालू पर "भयभीत बहादुरी" से हुकम चला कर शाशन करता है , यह "ग़ुलाम" कहानी का सार है / शेर की खाल के भीतर बैठा सियार आखिर था तो ग़ुलाम ही , इसलिए अकेले में भी मृत शेर के तलवे चाट करता था , जिससे उसमे ताकत का प्रवाह महसूस होता था /
    राज-पाठ और शासन की विद्या का उसे कोई ज्ञान नहीं था , मगर मृत शेर की खाल उसकी मदद करती है , जब सब पशु उसके हुकम को बिना प्रश्न किया, बिना न्याय की परख के ही पालन करते हैं , और समझ-दार पशु भी 'दाल में काला' के आभास के बावजूद अपना मष्तिष्क बंद कर लेते है की जब जंगल का काम-काज चल रहा है तो व्यर्थ हलचल का कोई लाभ नहीं /
    यह कहानी हमने अपनी दसवी कक्षा में पढ़ी थी / इस कहानी के अलावा दसवी में शेक्सपीयर के नाटक "जुलियस सीज़र " को पढ़ा था , और फिर बारहवी तक बरनार्द शॉ के नाटक "सेंट जोअं" को पढ़ा था / यह सभी रचनाएँ एक किस्म से राजनैतिक शास्त्र का ज्ञान देती हैं /
    खैर , "ग़ुलाम" कहानी का प्रसंग इसलिए किया है की आधुनिक राजनीति में ये रंगे सीयार बहोत घुसे हुए हैं / ये ग्रामीण समझ के लोग , इन्होने प्रजातंत्र में जन संचालन की , न्याय की कोई शिक्षा नहीं ली है , और यह जो भी कर्म-,कुकर्म करते हैं , जो भी तर्क-कुतर्क करते हैं उसे ही यह राजनीति समझते हैं / इनमे से कईयों ने किसी मृत राजनैतिक हस्ती को अपनी पार्टी का दार्शनिक घोषित कर रखा है , जो की इन रंगे सीयारो के लिए उस मृत शेर का काम करता है , और यह जनता पर अपनी मन मर्ज़ी का कानून चलाते हैं , वह कानून जिसमे न ही तर्क हैं , ना ही सामाजिक न्याय / अपराधी , गुंडे , इन्हें जो भी कहे यह असल में "ग़ुलाम " है , और धीरे-धीरे यह समाज को भी ग़ुलामी की दिशा में ले जा रहे हैं , जब इनकी मृत्यु के पशचात हम इनकी संतानों और इनके रिश्तेदारों को अगले शासक में स्वीकार कर रहे हैं /

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