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Democractic Systems and mental health issues of leadership

One peculiar threat that looms on a Democracy comes from the unfamiliar department of Psychiatry.

People who have anti-Social and aggressive , dominating temperament are better at rising in certain  roles of leadership
 The trouble is that they are by nature itself anti-democractic, and they can exploit the easy climb of Secular Humanism to reach on top, and then destroy the very ladder by which they had climbed to top.

Such people, who have aggressive dominating temperament, are poor at understanding the Rights of people - Constitutional , legal and human . Infact this very trait is what brings them the success to reach to role of leadership.
 But can imagine the havoc they bring to the organisation and the society once they come to top ? They kill their own gurus and choke up the freedoms of the country, while remaining in denial about the consequences of their decisions

Impeachment of the POTUS is a telling tale. He lies through his teeth, had a conduct unbecoming of a President, indulged various misdemeanor, instigated though his speech his followers and his rivals alike.

Mental health, as we can see, is just not about sound mind, but also the good , healthy psychology. The problem is that since the psychological aspect remains immeasurable, therefore a big gap is created from where people of psychopathic temperament find room to succeed in a democracy and then to undermine the very system that gave them their success.

इंटरनेट search, और कानून के उच्चारण की घटना पर एक विचार लेख

एक विधिशात्र विषय का सवाल सामने आया है जब हाल फिलहाल के घटनाक्रम में दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर पुलिस ने लाइब्रेरी में प्रवेश करके "हमला" कर दिया था।
जानेमाने फ़िल्म क्षत्रे की हस्ती श्री जावेद अख़्तर जी ने एक ट्वीट के माध्यम से अपने विचार रखे कि भारत भूक्षत्र के कानून के अनुसार पुलिस को बिना अनुमति प्रवेश करके कार्यवाही करने प्रतिबंधित होगा।
उनके ट्वीट के एक जवाब में किसी पुलिस अधिकारी संदीप मित्तल (आई पी एस) ने जावेद जी पर व्यंग कसते हुए पूछा कि हे कानून के श्रेष्ठ ज्ञाता जरा यह भी बता दो की किस कानून की किस धारा के अनुसार पुलिस को प्रतिबंधित किया गया है।
इसके कुछ ही पलों उपरांत जामिया विश्वविद्यालय के कुलपति ने भी एक ट्वीट करके अपनी मांग रखी कि उनकी अनुमति के बिना करि गयी पुलिस की कार्यवाही की जांच होनी चाहिए।

*सवाल का दिलचपस पहलू इन सब घटनाक्रम के बाद आता है।*

बहोत सारे लोगो ने जावेद अख्तर और संदीप मित्तल के बीच हुए अपवाद में उठे सवाल का सही जवाब जानने की कोशिश करि है। The Lallantop करके एक जानीमानी वेब पत्रिका ने एक यूट्यूब विडियो के माध्यम से अपना मत व्यक्त किया कि श्री जावेद अख्तर जी की बात ग़लत है, क्योंकि कही भी कोई भी ऐसा कानून नही है जो कि पुलिस को प्रतिबंधित करता है, बल्कि Criminal Procedure Act की धारा 46, 47 और 48 के माध्यम से पुलिस को यह शक्ति है कि वह किसी भी संगिग्ध अपराधी की तलाश या पकड़ का हिरासत में लेने के वास्ते पूरे देश भारत भर में कही भी प्रवेश कर सकते है।

सवाल यूँ है कि जब भारत का संविधान भारत को एक प्रजातंत्र देश घोषित करता है, तब फिर CrPC की धारा से यह शक्तियां तो पुलिस को नागरिक के मुकाबले असीम शक्तिवान बना कर वास्तव में भारत के प्रजातंत्र को मनचाहे अवसरों पर ध्वस्त कर सकने की क्षमता दे देती है?! तब फिर क्या वाकई में पुलिस को नियांत्रित करने का कोई कानून भारत मे उपलब्ध है ही नही?  क्या भारत का प्रजातंत्र एक छलावा है जो कि पुलिस के रहम-ओ-करम पर है कि वह जब चाहे प्रजातंत्र को प्रदान कर दें, और जब चाहे तब उसे वापस ले लें ?!

क्या वाकई में पुलिस संगठन ही सर्वशक्तिमान है क्योंकि भारत के कानूनों में उनको नियंत्रित करने का कही कोई भी प्रावधान है ही नही ?!!!!

*यहाँ ही एक सवाल के दौरान एक और विचित्र समस्या दिखाई पड़ी है।*
समस्या यह की इन सवाल पर कि क्या पुलिस को बिना अनुमति विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश प्रतिबंधित होता है, का जवाब मिला ही कहाँ से है ?

*इसका जवाब था - इंटरनेट !!*

जी है !! हो क्या रहा है कि आधुनिक समय मे इंटरनेट और google search पर लोगों का विश्वास (या कहें तो *अंधविश्वास* ) इस कदर बढ़ गया है कि वह प्रत्येक सवाल के जवाब को अपने स्वयं के मौलिक चिंतन से भी अध्ययन करने के प्रयत्न करें बगैर सीधे से एकदम आसान तरीके- google search- के माध्यम से internet से तलाश करके दे देते हैं।

तो फिर the lallantop और इनके ही जैसे लाखो लोग internet से जवाब तलाश करके प्रसारित करते रहते हैं। दिलचस्प मगर दुखद पहलू मौजूद प्रकरण में यह था कि सभी लोग शायद एक खास web article के मुख्य स्रोत से ही "अपना अपना" उत्तर तलाश कर रहे थे, वो जो कि करीब 2016 में किसी एक अधिवक्ता के विचार रखने के दौरान इंटरनेट पर प्रकशित हुआ था। अब यह कौन जानेगा की विचार कितने सही, कितने गलत कितने गुणवत्तापूर्ण थे ! सब के सब लोग उसी एक सुंदर भाषी लेख के पीछे चल पड़े है, और धीरे धीरे करके वही लेख एक सामाजिक, न्यायायिक और प्रशासनिक परिपाटी चालू कर देगा, जिसमे भारत का प्रजातंत्र यूँ बन जायेगा कि इनमें पुलिस सर्वशक्तिमान होगी, और आम जनता बड़ी ही बौड़म बुद्धि से चुपचाप इसे "सच" मान कर स्वीकार करती रहेगी।

किसे क्या पता कि हो सकता है वह लेख पुलिस पक्ष के ही किसी अधिवक्ता ने ही लिखा हुआ है !!

त्रासदी यू होगी कि चूंकि देशभर में लाखों विधिशास्त्र के छात्र स्कूलों से निकले छोटे उम्र के नवयुवक होते है, वह तो बिना प्रश्न किये है लेख की लुभावनी अंग्रेज़ी भाषा के आगे नतमस्तक होकर उसके विचारों को ही कानून और संविधान का सत्य मान लेंगे !!

अक्सर करके कानूनो में किसी भी कार्य को करने के दो किस्म के प्रावधान होते हैं। एक *साधारण हालातो* ं के दौरान , और एक *असाधारण हालातों* के दौरान। *साधारण हालात* और *असाधारण हालात* ही वह सवाल बनते है जिनका की कोर्ट में फैसला किया जाता है और फिर ग़लत निर्णयों के लिए दंड या पुनरप्रशिक्षण दिया जाता है।

यह बिल्कुल इंसानी जीवन से मेल रखता तरीका है। साधारण हालातो में इंसान किसी भी इमारत में लिफ्ट के माध्यम से ऊपर नीचे आता-जाता है, मगर असाधारण हालतों में सीढ़ी से, खिड़की के बाहर पाइप से, कैसे भी कुछ भी कर सकता है, अपनी या किसी और कि जान बचाने के लिए।

तो फिर न्यायायिक सवाल यही होता है कि हालात को किस श्रेणी का माना जाना चाहिए - साधारण, या की असाधारण
CrPC की जिन धाराओं के मद्देनजर लोग श्री जावेद अख़्तर के विचारों को गलत करार दे रहे हैं, वह तो *असाधारण हालतों* के मद्देनज़र blanket power है, जिनको आम हालातो में पुलिस के द्वारा प्रयोग किसी भी प्रजातंत्र को पल भर में पंगु बना देंगे।  जाहिर है, लोग ग़लत उच्चारण कर रहे हैं CrPC कानून का। मगर उनकी तादाद लाखो में होगी। ऐसे में वह गलत भी हुए तो क्या, अन्त में वही सही ठहराए जाएंगे, क्योंकि कानून तो अंत मे वही होता जो कि लोग करते और निभाते हैं !!!

Stop-work Industrial culture and Clerk-led bureaucracy

A _*Stop Work Obligation*_ cannot co-exist with the *_Refused to Obey Orders_*

What it means is that if the superior is more of a Discipline-psychopathic person, then every event where a shipboard personnel has acted his power to call STOP_WORK because he felt something was unsafe, the superior Disciplinarian-person will rather see the act of STOP-WORK as a REFUSAL to obey orders.

He will then relay the message to the management, and his immediate seniors, that an act of INDISCIPLINE has occurred from that person.

So, here is the dilemna of an organization, where the officer staff, largely of *Clerk* set-up, not much familiar with the Industrial practices. It will rather go after the person who had acted his good judgment to save the loss of his own life, or maybe the property of the organization, or of someone else.

बलात्कार - क्या इसका आरम्भ कपट कारी राजनीति और कुप्रशासन से नही है ?

कहते हैं की ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नही होती है।

घटनाओं के होने के क्रम में ऊपर वाले की लाठी के होने की पहचान आपको और हमे खुद ही करनी पड़ेगी।
21 october के चुनावों के उपरान्त महाराष्ट्र और हरियाणा में जो कुछ राजनैतिक उठापटक चली सरकार बनाने को लेकर, वहां से शुरू करिये अपने प्रयास , लाठी की आवाज़ को सुनने के।
आलोचकों ने दलील दी थी की जिस तरह से लोगों को अपराधी घोषित करके जेल में रखा जाता है, और फिर जिस तरह से वास्तविक अपराधियों को राजनैतिक जरूरतों के चलते आज़ाद कर दिया जाता है, तो फिर दिसम्बर 2012 वाला निर्भया प्रकरण का आरम्भ वही से होता है। जब राजनीति इतनी छलावा बन जाती है की वह सत्य और न्याय को ही समाज में से ख़त्म कर देती है, तब पुलिस और प्रशासन का खुद ही आये दिन बलात्कार ही हो रहा होता है राजनेताओं के हाथों। और तब भीषण रूप लेते हुए एक दिन निर्भया घट जाता है।

भक्त लोगों ने आलोचकों की निंदा करि की यह लोग तो कुछ भी कही से भी जोड़ देते हैं, बिना तर्क के। यही सब कुतर्क है आलोचकों के।

तब तक आंध्रप्रदेश की बलात्कार घटना घट गयी। आलोचकों ने इशारा किया कि देखो भक्तों, तुम्हें जवाब मिल गया न अब?

भक्तों को और उनके नेताओं को आहट लग गयी की अब आंध्रप्रदेश की घटना शायद उनकी सरकार गिरा सकती है। तो चारों अरोपियों को मार गिराया गया, और आक्रोशित जनमन को नरबलि दे कर संतुष्ट कर दिया गया। और कहने को हो गया कि आये दिन घटने वाले अपराधों का राजनीतिक उठापटक से जोड़ एकदम बकवास बात है। आलोचक बेकूफ़ हैं।

तभी उन्नाव घटना की पीड़िता का देहवास हो गया।
अब वापस आलोचक कहने लगे है की अब अगर पुलिस में दम है तो यही encounter कर के दिखा दें। आंध्रप्रदेश की घटना में तो आरोपी आमआदमी , जनजाति लोग थे, उन्नाव में राजनीति से जुड़े अरोपियों को क्या वही "इंसाफ" कर सकेगी पुलिस और प्रशासन ?

हैदराबाद encounter प्रकरण, भारत के जनजाति समूह और आक्रोश में पलती हुई क्रूरता, अमानवीयता

आज़ादी से पहले , अंग्रेजों के ज़माने में criminal tribe act हुआ करता था। अंग्रेजों ने जब भारत की सभ्यता पर अध्ययन किया था, तब उन्होंने पाया था कि भारत में बहोत सारी ऐसी जातियां अभी भी बाकी थीं जो कि जंगली, वन मानव ही थे। वह असभ्य थे, क्योंकि उनके यहां धर्म और संस्कृति ने अभी जन्म नही लिया था। 
आश्चर्य कि बात नही है, क्योंकि देश में आज भी उनके अस्तित्व के प्रमाण के तौर पर अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर येरवा और चौरा जनजाति मौजूद है, जो दुनिया की सबसे प्राचीन जनजातियां है और आज भी मानव भक्षण करती हैं। अभी 2019 के आरम्भ में ही उन्होंने एक अमेरिकी नागरिक को मार कर भक्षण कर लिया था, (cannibalism) जिसकी सूचना देश के तमाम अखबारों में प्रकाशित हुई थी।

बात यूँ है की आज़ादी से पूर्व यह लोग सिर्फ अंडमान द्वीप समूह तक सीमति नही थे।  यह भारत की मुख्य भूमि, केंद्रीय भारत के पठार के जंगलों में भी मौजूद थे। इनकी आबादी और संख्या कहीं अधिक थे आज के बनस्पत। आप इनके अस्तित्व के जिक्र रामायण और महाभारत के ग्रंथों में भी ढूंढ सकते हैं। वर्तमान की आरक्षण नीति भी उसी तथ्य के इर्दगिर्द में से ही उपजी है।  कई जगह तो यह सभ्यता में मिश्रित हो कर सभ्य हो गये, और बाकी जगह में यह लोग नये युग के "विकास" और शहरीकरण के दबाव में यह लोग jeans और shirt पहन कर गोचर हो गये, हालांकि सभ्यता और संस्कृति और धर्म से अबोध बने हुए हैं। यह मानव करुणा से अपरिचित है, और प्राचीन आदिमानव सभ्यता से अधिक वास्ता रखते हैं। भारत की आज़ादी की घटना ने इन्हें आसानी से मुख्य धारा में प्रवेश दे दिया, बिना शिनाख़्त किये है। इनमें अंतर्मन अभी इतना विकसित नही हुआ है, यह लोग अपराध को न तो जानते है, न ही किसी अपराध कानून का पालन करते है, भारतीय दंड संहिता को तो भूल ही जाइये। यह लोग व्यापार , कृषि , पशुपालन से भी दूर हैं,और  किसी भी नये युग की सभ्यता के कानून को नही जानते हैं।

अंगरेज़ों ने जो काला पानी की सज़ा ईज़ाद करि थी, दूर टापू पर ले जा कर क़ैद में रखने वाली, उसकी मंशा शायद इन्हीं लोगों से प्रेरित थी। सभ्यता के महत्व को इंसान तब तक नही समझता है जब तक की और अधिक क्रूरता, यातना और दुख को नज़दीक से नही देखता है।  अंग्रेज़ मानते थे की उनकी ईश्वरीय उत्तरदायित्व है की वह असभ्य लोगों को भगवान की शरण में ला कर सभ्यता से परिचित करवाये, it is a White Man's duty to civilize the world.

हुआ यूँ कि बाद में अंग्रेजों ने कालापानी की सज़ा में राजनैतिक कैदियों को भी भेजना शुरू कर दिया था। तो बस, आज़ादी के बाद जब राजनैतिक कैदी लोग आज़ाद किये गये, तब उनके संग में ही यह आदिमानव वनमानुष लोग भी आज़ाद हो लिए, जंग ए आज़ादी के सिपहसालार के भ्र्म में होते हुए।

विशाल भारत की तमाम समुदायों का हिसाब किताब आज भी आम भारतीय की जानकारी से ओझल है। इसलिये हम यह सब ज्ञान न तो जानते है, न ही कुछ आवश्यक प्रशासनिक सुधार करते हैं। उनको दंड देने के चक्कर में खुद भी असभ्य और मानव करुणा से दूर चले जा रहे, अमानव बनते जा रहे हैं। हमे सचेत होने की ज़रूरत है।

जर्मनी के बच्चे क्यों अधिक बुद्धिमान होते हैं भारतीय बच्चों के मुक़ाबले

https://www.facebook.com/palaknotes/videos/426884821520114/

जर्मनी के बच्चे क्यों अधिक बुद्धिमान होते हैं भारतीय बच्चों के मुक़ाबले :

१) सम्पूर्ण निंद्रा , *Proper Sleep*

२) कहानी सुनने  की आदत व क़ाबलियत  - *Listening to Stories*

३) प्रत्येक बच्चे को उसकी क्षमता के अनुसार पहचानना व विक्सित होने का अवसर देना - *All kids are unique*

४) पदार्थवादी नहीं है , भावनाओं को महसूस करना व भावना के अनुसार  प्रतिक्रिया करना शुरू से ही सिखाया जाता है - *Creating Memories*

५) बच्चों को शुरू से ही सिखाया जाता है की पदार्थ/वस्तु से प्रेम नहीं करें, उनका त्याग करना सीखें - *Sharing*

6) स्वयं को व्यस्त करना , बिना किसी पैतृक नियंत्रण के , पैसे की कदर, अर्थशास्त्र का सामाजिक ज्ञान सहज उपलब्ध है - *Self Engagement*

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