इंटरनेट search, और कानून के उच्चारण की घटना पर एक विचार लेख
एक विधिशात्र विषय का सवाल सामने आया है जब हाल फिलहाल के घटनाक्रम में दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर पुलिस ने लाइब्रेरी में प्रवेश करके "हमला" कर दिया था।
जानेमाने फ़िल्म क्षत्रे की हस्ती श्री जावेद अख़्तर जी ने एक ट्वीट के माध्यम से अपने विचार रखे कि भारत भूक्षत्र के कानून के अनुसार पुलिस को बिना अनुमति प्रवेश करके कार्यवाही करने प्रतिबंधित होगा।
उनके ट्वीट के एक जवाब में किसी पुलिस अधिकारी संदीप मित्तल (आई पी एस) ने जावेद जी पर व्यंग कसते हुए पूछा कि हे कानून के श्रेष्ठ ज्ञाता जरा यह भी बता दो की किस कानून की किस धारा के अनुसार पुलिस को प्रतिबंधित किया गया है।
इसके कुछ ही पलों उपरांत जामिया विश्वविद्यालय के कुलपति ने भी एक ट्वीट करके अपनी मांग रखी कि उनकी अनुमति के बिना करि गयी पुलिस की कार्यवाही की जांच होनी चाहिए।
*सवाल का दिलचपस पहलू इन सब घटनाक्रम के बाद आता है।*
बहोत सारे लोगो ने जावेद अख्तर और संदीप मित्तल के बीच हुए अपवाद में उठे सवाल का सही जवाब जानने की कोशिश करि है। The Lallantop करके एक जानीमानी वेब पत्रिका ने एक यूट्यूब विडियो के माध्यम से अपना मत व्यक्त किया कि श्री जावेद अख्तर जी की बात ग़लत है, क्योंकि कही भी कोई भी ऐसा कानून नही है जो कि पुलिस को प्रतिबंधित करता है, बल्कि Criminal Procedure Act की धारा 46, 47 और 48 के माध्यम से पुलिस को यह शक्ति है कि वह किसी भी संगिग्ध अपराधी की तलाश या पकड़ का हिरासत में लेने के वास्ते पूरे देश भारत भर में कही भी प्रवेश कर सकते है।
सवाल यूँ है कि जब भारत का संविधान भारत को एक प्रजातंत्र देश घोषित करता है, तब फिर CrPC की धारा से यह शक्तियां तो पुलिस को नागरिक के मुकाबले असीम शक्तिवान बना कर वास्तव में भारत के प्रजातंत्र को मनचाहे अवसरों पर ध्वस्त कर सकने की क्षमता दे देती है?! तब फिर क्या वाकई में पुलिस को नियांत्रित करने का कोई कानून भारत मे उपलब्ध है ही नही? क्या भारत का प्रजातंत्र एक छलावा है जो कि पुलिस के रहम-ओ-करम पर है कि वह जब चाहे प्रजातंत्र को प्रदान कर दें, और जब चाहे तब उसे वापस ले लें ?!
क्या वाकई में पुलिस संगठन ही सर्वशक्तिमान है क्योंकि भारत के कानूनों में उनको नियंत्रित करने का कही कोई भी प्रावधान है ही नही ?!!!!
*यहाँ ही एक सवाल के दौरान एक और विचित्र समस्या दिखाई पड़ी है।*
समस्या यह की इन सवाल पर कि क्या पुलिस को बिना अनुमति विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश प्रतिबंधित होता है, का जवाब मिला ही कहाँ से है ?
समस्या यह की इन सवाल पर कि क्या पुलिस को बिना अनुमति विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश प्रतिबंधित होता है, का जवाब मिला ही कहाँ से है ?
*इसका जवाब था - इंटरनेट !!*
जी है !! हो क्या रहा है कि आधुनिक समय मे इंटरनेट और google search पर लोगों का विश्वास (या कहें तो *अंधविश्वास* ) इस कदर बढ़ गया है कि वह प्रत्येक सवाल के जवाब को अपने स्वयं के मौलिक चिंतन से भी अध्ययन करने के प्रयत्न करें बगैर सीधे से एकदम आसान तरीके- google search- के माध्यम से internet से तलाश करके दे देते हैं।
तो फिर the lallantop और इनके ही जैसे लाखो लोग internet से जवाब तलाश करके प्रसारित करते रहते हैं। दिलचस्प मगर दुखद पहलू मौजूद प्रकरण में यह था कि सभी लोग शायद एक खास web article के मुख्य स्रोत से ही "अपना अपना" उत्तर तलाश कर रहे थे, वो जो कि करीब 2016 में किसी एक अधिवक्ता के विचार रखने के दौरान इंटरनेट पर प्रकशित हुआ था। अब यह कौन जानेगा की विचार कितने सही, कितने गलत कितने गुणवत्तापूर्ण थे ! सब के सब लोग उसी एक सुंदर भाषी लेख के पीछे चल पड़े है, और धीरे धीरे करके वही लेख एक सामाजिक, न्यायायिक और प्रशासनिक परिपाटी चालू कर देगा, जिसमे भारत का प्रजातंत्र यूँ बन जायेगा कि इनमें पुलिस सर्वशक्तिमान होगी, और आम जनता बड़ी ही बौड़म बुद्धि से चुपचाप इसे "सच" मान कर स्वीकार करती रहेगी।
किसे क्या पता कि हो सकता है वह लेख पुलिस पक्ष के ही किसी अधिवक्ता ने ही लिखा हुआ है !!
त्रासदी यू होगी कि चूंकि देशभर में लाखों विधिशास्त्र के छात्र स्कूलों से निकले छोटे उम्र के नवयुवक होते है, वह तो बिना प्रश्न किये है लेख की लुभावनी अंग्रेज़ी भाषा के आगे नतमस्तक होकर उसके विचारों को ही कानून और संविधान का सत्य मान लेंगे !!
अक्सर करके कानूनो में किसी भी कार्य को करने के दो किस्म के प्रावधान होते हैं। एक *साधारण हालातो* ं के दौरान , और एक *असाधारण हालातों* के दौरान। *साधारण हालात* और *असाधारण हालात* ही वह सवाल बनते है जिनका की कोर्ट में फैसला किया जाता है और फिर ग़लत निर्णयों के लिए दंड या पुनरप्रशिक्षण दिया जाता है।
यह बिल्कुल इंसानी जीवन से मेल रखता तरीका है। साधारण हालातो में इंसान किसी भी इमारत में लिफ्ट के माध्यम से ऊपर नीचे आता-जाता है, मगर असाधारण हालतों में सीढ़ी से, खिड़की के बाहर पाइप से, कैसे भी कुछ भी कर सकता है, अपनी या किसी और कि जान बचाने के लिए।
तो फिर न्यायायिक सवाल यही होता है कि हालात को किस श्रेणी का माना जाना चाहिए - साधारण, या की असाधारण।
CrPC की जिन धाराओं के मद्देनजर लोग श्री जावेद अख़्तर के विचारों को गलत करार दे रहे हैं, वह तो *असाधारण हालतों* के मद्देनज़र blanket power है, जिनको आम हालातो में पुलिस के द्वारा प्रयोग किसी भी प्रजातंत्र को पल भर में पंगु बना देंगे। जाहिर है, लोग ग़लत उच्चारण कर रहे हैं CrPC कानून का। मगर उनकी तादाद लाखो में होगी। ऐसे में वह गलत भी हुए तो क्या, अन्त में वही सही ठहराए जाएंगे, क्योंकि कानून तो अंत मे वही होता जो कि लोग करते और निभाते हैं !!!
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